रविवार, 16 जुलाई 2017
हिन्दी ब्लाग की उपलब्धि तीसरा खंबा को 5 वर्ष 6 माह 15 दिन में मिले 15 लाख विजिटर्स
शनिवार, 1 जुलाई 2017
संसद में घण्टा बजने वाला है
बुधवार, 14 सितंबर 2011
उपभोक्ता के रूप में क्या आप हिन्दी में काम करने की मांग करते हैं?
बुधवार, 15 सितंबर 2010
हिन्दी की विशेषताएँ एवं शक्ति
हिन्दी के बारे में स्वयं हिन्दी भाषियों में बहुत से भ्रम स्थापित हैं। जरा निम्न तथ्यों पर गौर कीजिए। शायद आप के कुछ भ्रम दूर हो जाएँ, जैसे मेरे हुए।
६. हिन्दी लिखने के लिये प्रयुक्त देवनागरी लिपि अत्यन्त वैज्ञानिक है।
७. हिन्दी को संस्कृत शब्दसंपदा एवं नवीन शब्दरचनासमार्थ्य विरासत में मिली है। वह देशी भाषाओं एवं अपनी बोलियों आदि से शब्द लेने में संकोच नहीं करती। अंग्रेजी के मूल शब्द लगभग १०,००० हैं, जबकि हिन्दी के मूल शब्दों की संख्या ढाई लाख से भी अधिक है।
८. हिन्दी बोलने एवं समझने वाली जनता पचास करोड़ से भी अधिक है।
९. हिन्दी का साहित्य सभी दृष्टियों से समृद्ध है।
- यह पोस्ट पूरी तरह से विकिपीडिया से उड़ाई गई सामग्री पर आधारित है।
मंगलवार, 14 सितंबर 2010
हिन्दी मेरे लिए दुनिया की सब से अच्छी भाषा है, वह मुझे कभी ओछी नहीं पड़ती
मुझे हिन्दी कभी ओछी नहीं पड़ती। मैं हिन्दी में कुछ भी कह सकता हूँ। यह भी हो सकता है मैं किसी दूसरी भाषा में पारंगत नहीं हो सकने के कारण ऐसा समझता होऊँ। लेकिन यदि ऐसा है तो फिर मैं चाहूँगा कि मैं कभी भी किसी अन्य भाषा में पारंगत नहीं होऊँ। यदि हो भी गया तब भी मैं जानता हूँ कि मैं स्वयं को कभी भी अपनी भाषा के मुकाबले किसी भी अन्य भाषा में सहज रूप से अभिव्यक्त नहीं कर सकता।
शनिवार, 31 जुलाई 2010
नहीं मना सका मैं, मुंशी प्रेमचंद जी का जन्मदिन
बुधवार, 16 जून 2010
हिन्दी ब्लागीर पर हिंसक हमला, पुलिस और विधायक गुंडो के साथ
सोमवार, 7 दिसंबर 2009
आखिर करोड़ों का क्या करेंगे?
- दिनेशराय द्विवेदी
शनिवार, 7 नवंबर 2009
कंप्यूटर के लिए पुराना रेमिंग्टन हिन्दी की-बोर्ड कहाँ मिलेगा?
रेमिंग्टन का पुराना हिंदी की-बोर्ड ले-आउट इस प्रकार है ....
गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009
नए जन्म की तैयारी, रसीदी हिन्दी और दशहरा मेला
सोमवार, 12 अक्तूबर 2009
अपना घर खुद साफ करें; मोहल्ले की स्वच्छता मिल बैठ तय करें
सोमवार, 14 सितंबर 2009
हिन्दी इनस्क्रिप्ट टाइपिंग सीखें, हिन्दी में काम की गति और शुद्धता बढ़ाएँ और अधिक काम करें
हिन्दी हमारी मातृभाषा है। वह हमारे लिए सर्वाधिक संप्रेषणीय है और संज्ञेय भी। हम अधिकांशतः उसी का उपयोग करते हैं। हमारी आवश्यकता की पूर्ति उस से न होने पर हम अन्य भाषाओं को सीखने की ओर आगे बढ़ते हैं। यदि हिन्दी हमारी तमाम आवश्यकताओं की पूर्ति करने लगे तो क्यों कर हम अन्य भाषाओं को सीखने की जहमत क्यों उठाएँगे। लेकिन हमें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरी दूसरी भाषाओं को सीखना पड़ता है। जिस का सीधा सीधा अर्थ है कि हिन्दी को अभी मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विकसित होना है। यदि किसी दिन हिन्दी इतनी विकसित हो जाए कि वह मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करने लगे तो अधिकाधिक लोग हिन्दी सीखने लगेंगे और एक दिन वह हो सकता है जब कि वह मनुष्य जाति द्वारा सबसे अधिक उपयोग की जाने वाली भाषा बन जाए।
बुधवार, 19 नवंबर 2008
पहली वर्षगाँठ की पूर्व संध्या
यह अनवरत ही था जिसने हिन्दी ब्लागरी के पाठकों के साथ मेरी अंतरंगता को स्थापित किया। 28 अक्टूबर 2007 को तीसरा खंबा का प्रारंभ हुआ था। मन में बात थी कि जिस न्याय-व्यवस्था में एक अधिवक्ता के रुप में 29 साल जिए हैं, उस की तकलीफों को एक स्वर दूं, जो लोगों को जा कर बताए कि जिसे वे बहुत आशा के साथ देखते हैं उस की खुद की तकलीफें क्या हैं? लेकिन एक पखवाड़ा भी न गुजरा था कि एक बात तकलीफ देने लगी कि कानून और न्याय व्यवस्था एक नीरस राग है और इस के माध्यम से शायद मैं अपने पाठकों के साथ तादात्म्य स्थापित नहीं कर सकूँ। इस के लिए मुझे खुद को खोल कर अपने पाठकों के बीच रखना पडे़गा। तभी वे शायद यह समझ पाएँ कि तीसरा खंबा लिखने वाला कोई काला कोट पहने वकील नहीं बल्कि एक उन जैसा ही साधारण मध्यवर्गीय व्यक्ति है जो उन की जिन्दगी को समझ सकता है, उन की तकलीफें एक जैसी हैं। यही कारण अनवरत के पैदा होने का उत्स बना।
20 नवम्बर 2007 को अनवरत जन्मा तो उस का स्वागत हुआ। वह धीरे धीरे पाठकों में घुल मिल गया। जब निक्कर पहनता था, जब मैं काफी कुछ पढ़ने भी गया था तभी कभी यह इच्छा जनमी थी कि मैं लिखूँ और लोग पढ़ें। फिर कुछ कहानियां लिखीं कुछ लघु कथाएँ। उन दिनों शौकिया संवाददाता भी रहा, और कानून पढ़ते हुए दैनिक का संपादन भी किया। लेकिन जैसे ही वकालत में आया। सब कुछ भूल जाना पड़ा। यह व्यवसाय ऐसा था जिस का सब के साथ ताल्लुक था, लेकिन समय नहीं था। रोज कानून पढ़ना, रोज दावे और दरख्वास्तें लिखना रोज बहस करना और नतीजे लाना। एक वक्त था जब साल में दिन 365 थे और निर्णीत मुकदमों की संख्या 400 या उस से अधिक। इस बीच बहुत लोगों को सुना, पढ़ा। लेकिन कोशिश करते हुए भी खुद को अभिव्यक्त करने का अवसर ही नहीं था, सिवाय उन दस महिनों के जब एक दैनिक के लिए साप्ताहिक कॉलम लिखा।
नाम के अनुरूप तीसरा खंबा को न्याय-प्रणाली के इर्द गिर्द ही रखा जाना था। उस से विचलित होना नाम और उस की घोषणा का मखौल हो जाता। अपने को अभिव्यक्त करने का अवसर दिया अनवरत ने। यहाँ जो चाहा वह सब लिखा। कुछ साथियों 'यकीन', 'महेन्द्र', 'शिवराम' और आदरणीय भादानी जी की एकाधिक रचनाओं को भी रखा। लोगों ने उसे सराहा भी, आलोचना भी हुई। पर समालोचना कम हुई। लेखन की निष्पक्ष समालोचना का अभी ब्लागरी में अभाव है। लेकिन ऐसी समालोचना की जरूरत है जो लोगों के लेखन को आगे बढ़ा सके, उन्हें उन के अंतस में दबे पड़े उजास और कालिख को बाहर लाने में मदद करे। उन्हें हर आलेख के साथ एक सीढ़ी ऊपर उठने का अवसर दे।
संकेत रूप में कुन्नू सिंह का उल्लेख करना चाहूंगा। वे नैट के क्षेत्र में जो कुछ नया करते हैं, उसे पूरे उत्साह के साथ सब के सामने रखते हैं, बिलकुल निस्संकोच। उन का दोष यह है कि हिन्दी लिखने में उन से बहुत सी वर्तनी की अशुद्धियाँ होती हैं। हो सकता है लोगों को उन के इस वर्तनी दोष के कारण उन का लेखन कुरूप लगता हो। जैसा कि कुछ दिन पहले किसी ब्लागर साथी ने अपने आलेख में इसका उल्लेख भी किया। लेकिन रूप ही तो सब कुछ नहीं। किसी भी रूप में आत्मा कैसी है यह भी तो देखें। आज जब कुन्नू भाई ने तीसरा खंबा पर टिप्पणी की तो उस में हिज्जे की केवल दो त्रुटियाँ थीं। कुछ दिनों के पहले उन्होंने घोषणा की थी कि वे जल्दी ही हिन्दी लिखना भी सीख लेंगे। कुछ ही दिनों में उन की यह प्रगति अच्छे अच्छे लिक्खाडों से बेहतर है। लोग चाहें तो मेरे इस कथन पर आज हंस सकते हैं, लेकिन मैं कह रहा हूँ कि वे इसी तरह प्रगति करते रहे और नियमित रूप से लिखते रहे तो वे चिट्ठाजगत की रैंकिंग में किसी दिन पहले स्थान पर हो सकते हैं।
शास्त्री जी ने खेमेबंदी का उल्लेख किया। जहाँ बहुत लोग होते हैं उन्हें एक खेमे में तो नहीं रखा जा सकता। हम जब स्काउटिंग के केम्पों में जाते थे तो वहाँ बहुत से तम्बू लगाने पड़ते थे। अलग अलग तम्बुओं में रह रहे लोगों के बीच प्रतिस्पर्धा तो होती थी, लेकिन प्रतिद्वंदिता नहीं। सब लोग एक दूसरे से सीखते हुए आगे बढ़ते थे। लक्ष्य होता था हर प्रकार के जीवन को बेहतर बनाना। वही हमारा भी लक्ष्य क्यों न हो? हो सकता है लोग अलग अलग राजनीतिक विचारधाराओं से प्रभावित हों। एक को अन्यों से बेहतर मानते हों। लेकिन राजनैतिक विचारों, दर्शनों और जीवन पद्धतियों का भी कुछ लक्ष्य तो होगा ही। यदि वह लक्ष्य मानव जीवन को ही नहीं सभी प्राणियों और वनस्पतियों के जीवन को बेहतर बनाना हो तो राजनैतिक विचारों, दर्शनों और जीवन पद्धतियों के ये भेद एक दिन समाप्त हो ही जाएँगे। अगर यह एक लक्ष्य सामने हो तो सारे रास्ते चाहे वे समानांतर ही क्यों न चल रहे हों एक दिन कहीं न कहीं मिल ही जाएँगे और गणित के नियमों को भी गलत सिद्ध कर देंगे।
शनिवार, 19 जुलाई 2008
नीन्द की साँकळ उतारो, किरन देहरी पर खड़ी है।
पिछले आलेख पर अब तक जो टिप्पणियां मिलीं हैं, उन से एक बात पर सहमति दिखाई दी, कि अभी हिन्दी ब्लागिरी का शैशवकाल ही है। अनेक को तो पता भी नहीं कि हिन्दी ने भी एक ब्लागीर बालक को जन्म दे दिया है। लेकिन यह संकेत भी इन टिप्पणियों से मिला कि इस बालक ने अपने शैशवकाल में ही जितनी ख्याति अर्जित की है उस से उस के लच्छन पालने में ही दिखाई पड़ने लगे हैं। हमारे ब्लागीरों ने जो नारे उछाले हैं, जिन शब्दों में साहस बढ़ाने और ढाँढस बंधाने के प्रयत्न किए हैं वे कमजोर नहीं हैं। उन्हें प्रेरणा वाक्यों के रूप में प्रयोग किया जा सकता है, जैसे......
- ब्लॉग्गिंग आएगा और जब ये आएगा तो लोग इसी में पिले रहेंगे जैसे हम ब्लॉगर पिले हुए हैं..... :)
- जल्द ही वह दिन आएगा जब आप ब्लागिंग पर अपने इंटरव्यू में बताएँगे ..धीरे धीरे इसका नशा सब पर होगा ..:)
- अजी उन्हे छोड़िए. हम है ना ब्लॉगिंग के बारे में सवाल पूछने के लिए..
- वो सुबह कभी तो आएगी...जब ब्लोगिगं धूम मचाएगी।
- जल्द ही एक बडी संख्या इसे जानने लगेगी।
- सुबह होगी जल्द ही।
ये सभी अच्छे संकेत हैं। अंतरजाल तेजी से बढ़ने वाला है और ब्लागिरी भी। जरूरत है लोगों की जरूरत को समझने की। अगर ब्लागिरी आम लोदों की जरूरत को पूरा करने लगती है तो धीरे-धीरे यह जीवन का आवश्यक अंग बन जाएगी और अच्छे व सिद्धहस्त ब्लागर लोगों को बताने लायक कमाई भी कर सकेंगे। जिस तेजी से हिन्दी ब्लागीरों की संख्या बढ़ रही है। (औसतन 10 चिट्ठे प्रतिदिन) उस से लगता है। कि पाठकों की संख्या भी बढ़ेगी।
जमाना वह नहीं रहा कि हम में काबिलियत है, जिस को जरूरत होगी हमारे पास आएगा। जमाना इस से बहुत आगे जा चुका है। अब लोगों को जरूरत पैदा की जाती है और अपना माल बेचा जाता है। ब्लागीरों को भी जरूरत पैदा कर पाठक पैदा करने पड़ेंगे। एक ब्लागर चाहे तो कम से कम दस नए पाठक ब्लागिरी के लिए नए ला सकता है और उसे लाना चाहिए। उसे इस के लिए सतत प्रयास करना चाहिए। ब्लागीरों को अपने स्तर को भी सभी प्रकार से उन्नत करते रहना चाहिए, तकनीकी रूप से भी और अपने माल के बारे में भी।
सभी ब्लागीरों को ब्लागिरी से एक लाभ जो हो रहा है वह यह कि वे आपस में जबर्दस्त अन्तरक्रिया कर रहे हैं जिस से उन की क्षमताएँ तेजी से विकसित हो रही हैं। वे लेखन की हों या अपने अपने क्षेत्र की जानकारियों की हों।
आज मेरे स्टूडियों से निकलने के बाद मैं ने कुछ मित्रों को संदेश दिया कि मेरा साक्षात्कार केबल पर प्रसारित होने वाला है। उन में से कुछ ने उसे देखा भी। जिस ने भी देखा उसे खूब सराहा भी। कुछ लोगों ने उसे अनायास देखा। आज अदालत मे अनेक वरिष्ठ वकीलों ने मुझे बधाई भी दी और यह भी कहा कि मेरी क्षमताएँ बहुत विकसित हैं और इस की उन्हें जानकारी नहीं थी। इस साक्षात्कार को सांयकालीन पुनर्प्रसारण में बहुत लोगों ने देखा। पूरे प्रसारण के दौरान और उस के बाद मुझे अनेक मित्रों और परिचितों के फोन आते रहे। आज के एक दिन ने मुझे बहुत बदल दिया। मैंने महसूस किया कि लोगों ने आज मुझे एक भिन्न दृष्टिकोण से देखा जा रहा है। कल जब मैं अदालत पहुँचूंगा तो मुझे और भिन्न दृष्टिकोण से देखा जाएगा।
लेकिन क्या यह आज से दस माह पूर्व हो सकता था? बिलकुल नहीं क्यों कि तब में एक वकील मात्र था। इस ब्लागिरी ने मुझे एक नया आयाम प्रदान किया, एक नया रूप दिया। यदि मैं ने इन दस माहों में 162 आलेख न लिखे होते उन पर आई सैकड़ों टिप्पणियों और दूसरे ब्लागीरों की सैंकड़ों पोस्टों को पढ़ कर सैंकड़ों टिप्पणियाँ नहीं की होतीं तो यह सब नहीं हो सकता था। ब्लागिरी ने मेरी क्षमताओं को विकसित किया। वह लगातार सभी ब्लागीरों की क्षमताओं को विकसित कर रही है।
ब्लागीरों को समाचार पत्रों में स्थान मिलने लगा है। अनेक ब्लागीरों की रचनाएँ समाचार पत्र पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं। जल्दी ही वह समय भी आने वाला है कि जब ब्लागिरी और ब्लागीरों की चर्चा टीवी और अन्य प्रचार माध्यमों के लिए एक स्थाई स्तंभ होंगे। ब्लाग आज भी ज्ञान और जानकारी के स्रोत हैं इन का दायरा भी बढ़ेगा और वे प्रचार के माध्यम भी बनेंगे। अभी कुछ अभिनेता ब्लागिरी में आए हैं। लालू जैसे नेता इस में आए हैं। समय आने वाला है जब सभी प्रोफेशन के लोगों के लिए ब्लागिरी एक जरूरी चीज बनेगी। उन की ब्लागिरी से ही उन की क्षमताओं का मूल्यांकन किया जाने लगेगा।
अंत में मैं लावण्या दीदी की टिप्पणी यहाँ पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ जिस में वे कहती हैं.......
आपसे मेरा सविनय अनुरोध है कि आप ब्लोगिंग पर और सिंदुर पर और अन्य विषयों पर दूसरों की चिन्ता किये बिना लिखिये -"वीकिपीडीया की तरह या डिक्शनरी की तरह ये जानकारियाँ आज नहीं आनेवाले समय तक नेट पर कायम रहेंगी और काम आयेंगी- जब आम का नन्हा बिरवा उगा ही था तब किसे पता था कि यही घना पेड बनेगा जिस के रसीले आम बरसोँ तक खाये जायेँगे -ये मेरा मत है ..कोई विषय ऐसा भी होता है जो भविष्य मेँ आकार लेता है, और वर्तमान उसे हैरत से देखता है ..कम से कम, यह मेरा विश्वास है....
- लावण्या
18 July, 2008 10:39 PM
और अब मुझे स्मरण हो रही हैं राजस्थानी के कवि हरीश 'भादानी' के एक गीत की मुख्य पंक्तियाँ जो सभी ब्लागीरों को कह रही हैं.....
भोर का तारा उगा है,
जाग जाने की घड़ी है।
नीन्द की साँकळ उतारो,
किरन देहरी पर खड़ी है।
शनिवार, 5 जुलाई 2008
अफरोज 'ताज' की बगिया के आम
गुरुवार, 3 जुलाई 2008
हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी
नॉर्थ केरोलिना स्टेट युनिवर्सिटी के कॉलेज ऑफ ह्युमिनिटीज एण्ड सोशल साइंसेज के विदेशी भाषा एवं साहित्य विभाग मे हिन्दी-उर्दू प्रोग्राम के सहायक प्रोफेसर अफरोज 'ताज' ने उन की पुस्तक Urdu Through Hindi: Nastaliq With the Help of Devanagari (New Delhi: Rangmahal Press, 1997) में हिन्दी उर्दू सम्बन्धों पर रोशनी डाली है यहाँ मैं उन के विचारों को अपनी भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहा हूँ:
दक्षिण एशिया में एक विशाल भाषाई विविधता देखने को मिलती है। कोई व्यक्ति कस्बे से कस्बे तक. या शहर से दूसरे शहर तक, या एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक यात्रा करे तो वह लहजे में, परिवर्तन, बोलियों में परिवर्तन, और भाषाओं में परिवर्तन देखेगा। भाषाओं के मध्य उन्हें विलग करने वाली रेखाएं अक्सर अस्पष्ट हैं। वे एक दूसरे में घुसती हुई, घुलती हुई, मिलती हुई धुंधला जाती हैं। यहाँ तक कि एक ही सड़क, एक ही गली में बहुत अलग-अलग तरह की भाषाएँ देखने को मिलेंगी। एक इंजीनियरिंग का छात्र, एक कवि, एक नौकर और एक मालिक सब अलग-अलग लहजे, शब्दों और भाषाओं में बात करते पाए जाएँगे।
फिर वह क्या है? जिस से हम एक भाषा को परिभाषित कर सकते हैं। वह क्या है जो भाषा को अनूठा बनाता है?
क्या वह उस के लिखने की व्यवस्था अर्थात उस की लिपि है? या वह उस का शब्द भंडार है? या वह उस के व्याकरण की संरचना है? हम एक भाषा को उस के लिखने के तरीके या लिपि से पहचानने का प्रयास करते हुए केवल भ्रमित हो सकते हैं। अक्सर असंबन्धित भाषाऐं एक ही लिपि का प्रयोग करती हैं। किसी भी भाषा का रूपांतरण उस की मूल ध्वनियों और संरचना को प्रभावित किए बिना एक नयी लिपि में किया जा सकता हे। विश्व की अधिकांश भाषाओं ने अपनी लिपि अन्य भाषाओं से प्राप्त की है। उदाहरण के रूप में अंग्रेजी, फ्रांसिसी और स्पेनी भाषाओं ने अपनी लिपियाँ लेटिन से प्राप्त की हैं। लेटिन के अक्षर प्राचीन ग्रीक अक्षरों से विकसित हुए हैं। जापानियों ने अपने शब्दारेख चीनियों से प्राप्त किए हैं। बीसवीं शताब्दी में इंडोनेशियाई और तुर्की भाषओं ने अरबी लिपि को त्याग कर रोमन लिपि को अपना लिया। जिस से उन की भाषा में कोई लाक्षणिक परिवर्तन नहीं आया। अंग्रेजी को मोर्स कोड, ब्रेल, संगणक की द्वि-अँकीय लिपि में लिखा जा सकता है। यहाँ तक कि देवनागरी में भी लिखा जा सकता है, फिर भी वह अंग्रेजी ही रहती है।
तो केवल मात्र व्याकरण की संरचना ही है, जिस के लिए कहा जा सकता है कि उस से भाषा को चिन्हित किया जा सकता है। लिपि का प्रयोग कोई महत्व नहीं रखता, यह भी कोई महत्व नहीं रखता कि कौन सी शब्दावली प्रयोग की जा रही है? एक व्याकरण ही है जो नियमित और लाक्षणिक नियमों का अनुसरण करता है। ये नियम क्रिया, क्रियारूपों, संज्ञारूपों, बहुवचन गठन, वाक्य रचना आदि हैं, जो एक भाषा में लगातार एक जैसे चलते हैं, और विभिन्न भाषाओं में भिन्न होते हैं। इन नियमों का तुलनात्मक अध्ययन हमें एक भाषा को दूसरी से पृथक करने में मदद करते हैं। इन अर्थों में हिन्दी और उर्दू जिन की व्याकरणीय संरचना एक समान और एक जैसी है, एक ही भाषा कही जाएँगी।
हिन्दी और उर्दू का विकास कैसे हुआ? और इस के दो नाम क्यों है? इस के लिए हमें भारत की एक हजार वर्ष के पूर्व की भाषाई स्थिति में झांकना चाहिए। भारतीय-आर्य भाषा परिवार ने दक्षिण एशिया में प्राग्एतिहासिक काल में आर्यों के साथ प्रवेश किया और पश्चिम में फारसी काकेशस से पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक फैल गईं। संस्कृत की परवर्ती बोलियाँ जिन में प्रारंभिक हिन्दी की कुछ बोलियाँ, मध्यकालीन पंजाबी, गुजराती, मराठी और बंगाली सम्मिलित हैं, साथ ही उन की चचेरी बोली फारसी भी इन क्षेत्रों में उभरी। पूर्व में भारतीय भाषाओं ने प्राचीन संस्कृत की लिपि देवनागरी को विभिन्न रूपों में अपनाया। जब कि फारसी ने पश्चिम में अपने पड़ौस की अरबी लिपि को अपनाया। हिन्दी अपनी विभिन्न बोलियों खड़ी बोली, ब्रजभाषा, और अवधी समेत मध्य-उत्तरी भारत में सभी स्थानों पर बोली जाती रही।
लगभग सात शताब्दी पूर्व दिल्ली के आसपास के हिन्दी बोलचाल के क्षेत्र में एक भाषाई परिवर्तन आया। ग्रामीण क्षेत्रों में ये भाषाएँ पहले की तरह बोली जाती रहीं। लेकिन दिल्ली और अन्य नगरीय क्षेत्रों में फारसी बोलने वाले सुल्तानों और उन के फौजी प्रशासन के प्रभाव में एक नयी भाषा ने उभरना आरंभ किया, जिसे उर्दू कहा गया। उर्दू ने हिन्दी की पैतृक बोलियों की मूल तात्विक व्याकरणीय संरचना और शब्दसंग्रह को अपने पास रखते हुए, फारसी की नस्तालिक लिपि और उस के शब्द संग्रह को भी अपना लिया। महान कवि अमीर खुसरो (1253-1325) ने उर्दू के प्रारंभिक विकास के समय फारसी और हिन्दी दोनों बोलियों का प्रयोग करते हुए फारसी लिपि में लिखा।
विनम्रता पूर्वक कहा जाए तो सुल्तानों की फौज के रंगरूटों में बोली जाने वाली होच-पोच भाषा अठारवीं शताब्दी में सुगठित काव्यात्मक भाषा में परिवर्तित हो चुकी थी।
यह महत्वपूर्ण है कि शताब्दियों तक उर्दू मूल हिन्दी की बोलियों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर विकसित होती रही। अनेक कवियों ने दोनों भाषाओं में सहजता से रचनाकर्म किया। हिन्दी और उर्दू में अन्तर वह केवल शैली का है। एक कवि समृद्धि की आभा बनाने के लिए उर्दू-फारसी के सुंदर, परिष्कृत शब्दों का प्रयोग करता था और दूसरी ओर ग्रामीण लोक-जीवन की सहजता लाने के लिए साधारण ग्रामीण बोलियों का उपयोग करता था। इन दोनों के बीच बहुमत लोगों द्वारा दैनंदिन प्रयोग में जो भाषा प्रयोग में ली जाती रही उसे साधारणतया हिन्दुस्तानी कहा जा सकता है।
क्यों कि एक हिन्दुस्तानी की रोजमर्रा बोले जाने वाली भाषा किसी वर्ग या क्षेत्र विशेष की भाषा नहीं थी, इसी हिन्दुस्तानी को आधुनिक हिन्दी के आधार के रूप में भारत की ऱाष्ट्रीय भाषा चुना गया है। आधुनिक हिन्दी अनिवार्यतः फारसी व्युत्पन्न साहित्यिक उर्दू के स्थान पर संस्कृत व्युत्पन्न शब्दों से भरपूर हिन्दुस्तानी है। इसी तरह से उर्दू के रूप में हिन्दुस्तानी को पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपनाया गया। क्योंकि वह भी आज के पाकिस्तान के किसी क्षेत्र की भाषा नहीं थी।
इस तरह जो हिन्दुस्तानी भाषा किसी की वास्तविक मातृभाषा नहीं थी वह आज दुनियाँ की दूसरी सब से अधिक बोले जाने वाली भाषा हो गई है और सबसे अधिक आबादी वाले भारतीय उप-महाद्वीप में सभी स्थानों पर और पृथ्वी के अप्रत्याशित कोनों में भी समझी जाती है।