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बुधवार, 12 सितंबर 2012

माध्यम पत्रकार भाषा के प्रति जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं कर रहे हैं

खिर व्यग्य चित्रकार असीम त्रिवेदी की रिहाई के लिए बम्बई उच्चन्यायालय ने आदेश दे दिया कि उन्हें 5000 रुपए के निजि मुचलके (व्यक्तिगत बन्धपत्र) देने पर रिहा करने का आदेश दे दिया गया। अब यह उन पर निर्भर करता है कि व्यक्तिगत बन्धपत्र निष्पादित कर जेल से रिहा होते हैं या नहीं।  उन्हें रिहा होने के लिए एक बंधपत्र निष्पादित करना होगा जिस में यह अंकित होगा कि वे न्यायालय द्वारा निर्धारित तिथि को न्यायालय के समक्ष उपस्थित होंगे। यदि वे उपस्थित नहीं हुए तो बंधपत्र का उल्लंघन होगा और उन्हें गिरफ्तार करने के लिए वारंट जारी कर दिया जाएगा साथ ही बंधपत्र के उल्लंघन के लिए उन्हें बंधपत्र की राशि रुपए 5000/- भी न्यायालय को अदा करनी होगी। इस आदेश में यह कहीं भी नहीं लिखा है कि उन्हें इस व्यक्तिगत बंधपत्र के साथ किसी अन्य व्यक्ति की जमानत भी न्यायालय में प्रस्तुत करनी होगी।

मानत (प्रतिभूति) का अर्थ है कि किसी व्यक्ति की रिहाई के लिए कोई अन्य व्यक्ति इस बात की प्रतिभूति दे कि यदि गिरफ्तार (निरुद्ध) व्यक्ति न्यायालय के समक्ष निर्धारित तिथि पर उपस्थित न हुआ तो वह निर्धारित राशि न्यायालय को अदा करेगा। व्यंग्य चित्रकार की रिहाई आदेश में कहीं भी जमानत का उल्लेख नहीं है।

ल शाम से मीडिया (दृश्य-श्रव्य माध्यमों) में और आज समाचार पत्रों में सर्वत्र यही उल्लेख किया जा रहा है कि बम्बई उच्च न्यायालय ने असीम त्रिवेदी को जमानत पर छोड़े जाने का आदेश दे दिया है।  इस तरह दोनों ही माध्यम जमानत शब्द का गलत प्रयोग कर रहे हैं। 

माचार माध्यम आम जनता में लोकप्रिय होते हैं और वे जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं आम लोग भी उन्हीं शब्दों का प्रयोग करते लगते हैं। इस कारण से माध्यमों की भाषा के प्रति जिम्मेदारी बढ़ जाती है। निश्चित रूप से माध्यम इस जिम्मेदारी का ठीक से निर्वाह नहीं कर रहे हैं। माध्यमों में यह जिम्मेदारी निर्देशकों, सम्पादकों, निर्माताओं, पत्रकारों की होती है। इन माध्यमों में काम करने वाले ये पत्रकार इस ओर ध्यान न दे कर एक गलत परंपरा डाल रहे हैं जो निश्चित रूप से भाषा को विकृत करना है। उन्हें इस ओर ध्यान देना चाहिए। जो जिम्मेदार पत्रकार इस बात को समझते हैं उन्हें माध्यमों में भाषा के प्रति पत्रकारों की इस जिम्मेदारी को रेखांकित करना चाहिए।  

बुधवार, 14 सितंबर 2011

उपभोक्ता के रूप में क्या आप हिन्दी में काम करने की मांग करते हैं?

दो दिन पहले सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कंपनी के शाखा कार्यालय जाना हुआ। बीमा कंपनी हर वर्ष 14 सितम्बर से एक सप्ताह तक हिन्दी सप्ताह मनाती है। इस के लिए कुछ बजट भी शाखा में आता है। इस सप्ताह में कर्मचारियों के बीच निबंध, हिन्दी लेखन, हिन्दी प्रश्नोत्तरी जैसी कुछ प्रतियोगिताएँ आयोजित कराई जाती हैं और अंतिम दिन पुरस्कार वितरण होता है। जिस के उपरान्त जलपान का आयोजन होता है और इस तरह हिन्दी को कुछ समृद्धि प्रदान कर दी जाती है। दो वर्षों से इस सप्ताह के अंतिम दिन जब हिन्दी प्रश्नोत्तरी और पुरस्कार वितरण का आयोजन किया जाता है तो वे मुझे बुलाते हैं। इस बार भी उन्हों ने मुझे आने को कहा। मैं ने उन्हें अपनी सहमति दे दी। इन प्रतियोगिताओं के आयोजन में कुछ नवीनता आए और हिन्दी में काम करने के प्रति लोगों का रुझान पैदा हो इस के लिए मैं ने कुछ सुझाव भी दिए। सुझावों को गंभीरता से सुना तो गया। लेकिन उन्हें क्रियान्वित करने के लिए जो उत्साह होना चाहिए वह वहाँ दिखाई नहीं दिया। मुझे लगा कि इस वर्ष फिर पिछले वर्षों की तरह ही बनी बनाई लकीर पर एक और लकीर खींच कर हिन्दी सप्ताह संपन्न हो लेगा।

कुछ देर और मुझे शाखा प्रबंधक के कक्ष में रुकना पड़ा तो मैं ने उन्हें बताया कि उन के कंप्यूटरों में हिन्दी भाषा का उपयोग करने की सुविधा है लेकिन उसे चालू नहीं किया हुआ है। यहाँ तक कि वे इस सुविधा को चालू कर के पूरे कंप्यूटर को हिन्दी रूप प्रदान कर सकते हैं। मैं ने उन के कंप्यूटर के डेस्कटॉप पर लगे आईकॉन के नाम देवनागरी में बदले। उन्हें बताया कि कैसे फाइल और फोल्डर्स के नाम नागरी में अंकित किए जा सकते हैं। उन्हों ने पूछा कि हिन्दी तो उन के कंप्यूटर पर पहले भी टाइप की जाती रही है, लेकिन जब वे उस पर हिन्दी फोन्ट में फाइल का नाम लिखते थे तो रोमन में अजीबोगरीब शब्द आ जाते थे, लेकिन आप ने यह सब कैसे लिखा? 

मैंने उन्हें बताने लगा कि उन का कंप्यूटर उन सब भाषाओं को समझ सकता है जो कि कंट्रोल पैनल के 'क्षेत्र और भाषा' विकल्प में दर्ज हैं, लेकिन वे उस विकल्प का उपयोग नहीं करते। वे केवल अंग्रेजी विकल्प का ही प्रयोग करते हैं जब कि उन का कंप्यूटर एक साथ अनेक भाषाओं और लिपियों में काम कर सकने की क्षमता रखता है। जब वे केवल अंग्रेजी के विकल्प का उपयोग भी आरंभ कर दिया जाता है तो जो कंप्यूटर केवल अंग्रेजी समझता था वह हिंदी भी समझने लगता है। लेकिन कंप्यूटर केवल यूनिकोड के हिन्दी फोन्ट को ही हिंदी के फोन्ट के रूप में मान्यता देता है, अन्य फोंट को नहीं। उस का कारण यह है कि अन्य फोंट वास्तव में अंग्रेजी कोड पर आधारित हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि उन में किसी खास रोमन अक्षर के स्थान पर देवनागरी के किसी अक्षर, अर्धाक्षर या मात्रा का चित्र विस्थापित कर दिया गया है जिस से देवनागरी के अक्षर को भी कंप्यूटर रोमन का ही कोई अक्षर समझता रहता है।

मेरे इतनी बात करने का लाभ यह हुआ कि शाखा प्रबंधक ने यूनिकोड हिन्दी टाइप करने के औजारों के संबंध में बात करना आरंभ किया। सब कुछ अल्प समय में बताना संभव नहीं था इसलिए मैं ने उन्हें सुझाव दिया कि वे हिन्दी सप्ताह में कंप्यूटर पर हिन्दी में काम करने के तरीकों के बारे में उन की शाखा में क्यों नहीं एक कक्षा आयोजित करते हैं? उन्हों ने आश्वासन दिया कि वे उस के लिए प्रयत्न करेंगे। मैं ने उन्हें यह भी बताया कि वे जो काम अंग्रेजी में करते आए हैं उसे हिन्दी में भी कर सकते हैं। जैसे ग्राहकों से हिन्दी में पत्र व्यवहार करना या भुगतान के चैक आदि हिन्दी में बनाना है। मैं ने उन्हें बताया कि मैं यह सब व्यवहार हिन्दी में ही करता हूँ और अंग्रेजी का उपयोग तभी करता हूँ जब कि वह अपरिहार्य हो जाता है। हिन्दी में चैक आदि बनाने पर राशियाँ लिखना बड़ा आसान है। इस बीच शाखा प्रबंधक ने एक ग्राहक को देने के लिए चैक बनाया तो उसे हिन्दी में लिखा और मुझे बताया। मैं ने उन्हें कहा कि यह चैक अंग्रेजी में लिखे गए चैक से अधिक सुंदर लग रहा है और गड़बड़ की गुंजाइश भी और कम हो गई है। जिस ग्राहक को यह चैक मिलेगा उसे भी हिन्दी में यह काम करने की प्रेरणा मिलेगी। शाखा प्रबंधक ने बताया कि वे प्रयत्न करेंगे कि अधिक से अधिक काम हिन्दी में करें। इस बीच सहायक ने उन्हें बताया कि बीमा पॉलिसी को हिन्दी में छापने की सुविधा भी उपलब्ध है। तो प्रबंधक जी कहने लगे कि जब तक ग्राहक अंग्रेजी में पॉलिसी छापने का खुद आग्रह न करे उसे पॉलिसी हिन्दी में छाप कर दी जानी चाहिए। उन्हों ने कहा कि मुझे अब तक खुद यह बात पता नहीं थी। लेकिन वे अब इस काम को भी हिन्दी में चालू करना चाहेंगे। 

गभग सभी व्यवसायिक संस्थाओं और उपक्रमों में हिन्दी में काम करने की सुविधाएँ उपलब्ध हैं लोग परंपरा के कारण अंग्रेजी में का्म करते रहते हैं। यदि उपभोक्ता खुद हिन्दी में काम करने की मांग करने लगें तो यह काम हिन्दी में हो सकते हैं। मैं तो हर स्थान पर हिन्दी में काम करने की मांग करता हूँ। आप चाहें तो आप भी कर सकते हैं। मुझे लगता है कि उपभोक्ता हिन्दी में काम करने की मांग करने लगें तो हिन्दी को उस का उचित स्थान प्राप्त करने में वे महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। क्या आप भी उपभोक्ता के रूप में हिन्दी में काम करने की मांग करते हैं? यदि नहीं तो क्या अब करेंगे?

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

जीवन से विलग हुआ साहित्य महत्वहीन है

हिन्दी के शब्द 'साहित्य' और अंग्रेजी के 'लिटरेचर' (literature) का उपयोग अत्यन्त व्यापक किया जाता है। मेरे यहाँ कोई सेल्समेन आ कर घंटी बजाता है, वह कोई वस्तु बेचने के लिए उस के गुण-उपयोग समझाने लगता है। मुझे समय नहीं है, मैं उसे फिर कभी आने को कहता हूँ।  वह 'लिटरेचर रख लीजिए' कह कर एक पर्चा और दस पन्नों की किताब छोड़ जाता है। इन में किसी कंपनी के उत्पादों के चित्र और विवरण अंकित हैं। अब ये भी साहित्य है। हम धर्म संबंधी पाठ्य सामग्री को सहज ही धार्मिक साहित्य कह देते हैं, ज्योतिष विषयक पाठ्य सामग्री को ज्योतिष का साहित्य कहते हैं, दर्शन संबंधी पाठ्य सामग्री को दार्शनिक साहित्य कह देते हैं। लेकिन साहित्य शब्द का उपयोग केवल पुस्तकों तक ही सीमित नहीं रहता। लोक-साहित्य का अधिकांश अभी भी लिपिबद्ध नहीं है। वह लोक की के मुख में ही जीवित है, और बहुधा व्यवहृत भी, जिस में गीत, कहावतें, मुहावरे आदि हैं। इतना होने पर भी जब हिन्दी साहित्य या बांग्ला साहित्य कह देने से एक अलग अनुभूति होती है। यह उस का एक विशिष्ठ अर्थ है। यदि सभी पाठ्य सामग्री को हम व्यापक अर्थों में साहित्य मान लें तो उस में कुछ श्रेणियाँ खोजी जा सकती हैं। 
हली श्रेणी में हम ऐसी पाठ्य सामग्री पाते हैं जो हमारी जानकारी बढ़ाती हैं। उन्हें पढ़ने से हमें नई सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। लेकिन वे हमारी बोध  क्षमता को  कहीं से छू भी नहीं पातीं। इसे हम सूचनात्मक साहित्य कह सकते हैं। दूसरी श्रेणी में हम दर्शन, गणित और विज्ञान आदि विषयों की सामग्री को रख सकते हैं जिन्हें हम विवेचनात्मक साहित्य कह सकते हैं। इस सामग्री के मूल में विवेकवृत्ति है जो भिन्न-भिन्न वस्तुओं, नियमों, धर्मों आदि के व्यवहार को स्पष्ट करती हैं। 
स तरह हम अनेक श्रेणियाँ खोज सकते  हैं। लेकिन पाठ्य सामग्री की एक श्रेणी है। कोई आवश्यक नहीं कि इस श्रेणी की पाठ्य सामग्री से हमें कोई नई सूचनाएँ प्राप्त हों ही। ये हमारी जानी हुई बातों को एक नई रीति से नए रूप में भी प्रस्तुत कर सकती हैं और बार-बार जानी हुई बातों को पढ़ने के लिए उत्सुक बनाए रखती है। यह सामग्री हमें सुख-दुख की वैयक्तिक संकीर्णता और दुनियावी झगड़ों से ऊपर ले जाती हैं और संपूर्ण मानवता, और उस से भी आगे बढ़ कर प्राणी मात्र के दुख-शोक, राग-विराग, आल्हाद-आमोद आदि को समझने के लिए एक दृष्टि प्रदान करती है। वह पाठक के हृदय को कोमल और संवेदनशील बनाती है जिस से वह क्षुद्र स्वार्थों को विस्मृत कर प्राणी मात्र के सुख-दुख को अपना समझने लगता है, सारी दुनिया के साथ आत्मीयता का अनुभव करता है। इसी भाव को सत्वस्थ होना कहा गया है। इस से पाठक को एक प्रकार का आनंद प्राप्त होता है जो स्वार्थगत दुख-सुख से परे है। इसे ही लोकोत्तर आनंद की संज्ञा भी दी जाती है। कविता, नाटक, उपन्यास, कहानी आदि इसी श्रेणी की पाठ्य सामग्री हैं। इसी को हम रचनात्मक साहित्य भी कहते हैं। यह सामग्री हमारे ही अनुभवों के ताने-बाने से एक नए रस-लोक की रचना करती है। साहित्य शब्द का विशिष्ठ अर्थ यही है।  
ही रचनात्मक साहित्य सारी दुनिया में बड़े चाव से पढ़ा जाता है। इसे लोग आग्रह के साथ पढ़ते हैं। यह मानव जीवन से उत्पन्न हो कर मानव जीवन को ही प्रभावित करता है। इसे पढ़ने के साथ ही हम जीवन के साथ ताजा और घनिष्ठ संबंध बनाते हैं। इस में मनुष्य की देखी, अनुभव की हुई, सोची, समझी बातों का सजीव चित्रण मिलता है। जीवन के जो पहलू हमें निकट से स्थाई रूप से प्रभावित करते हैं उन के विषय में मनुष्य के अनुभव को समझने का एक मात्र साधन यही साहित्यिक पाठ्य-सामग्री है। इस तरह यह उक्ति सही है कि भाषा के माध्यम से जीवन की अभिव्यक्ति ही 'साहित्य' है। इसे जीवन की व्याख्या भी कहा गया है। हम इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि जीवन की गति जहाँ तक है वहाँ तक साहित्य का क्षेत्र है, जीवन से विलग हुआ साहित्य महत्वहीन है।

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

हर कोई अपनी सुरक्षा तलाशता है, ... साहित्य भी

नुष्य ही है जो आज अपने लिए खाद्य का संग्रह करता है। लेकिन यह निश्चित है कि आरंभ में वह ऐसा नहीं रहा होगा। उस के पास न तो जानकारी थी कि खाद्य को संग्रह किया जा सकता है और न ही साधन थे। वह आरंभ में भोजन संग्राहक और शिकारी रहा। लेकिन कभी भोजन या शिकार न मिला तो? अनुभव ने उसे सिखाया कि भोजन संग्रह कर के रखना चाहिए। आरंभिक पशुपालन शायद भोजन संग्रह का ही परिणाम था। तब किसी विचार, सम्वाद या सूचना को संग्रह करने का कोई साधन भी नहीं था। भाषा, लिपि और लिखने के साधनों के विकास ने इन्हें संग्रह करने और उस के संचार का मार्ग प्रशस्त किया। अंततः कागज इस संग्रह के बड़े माध्यम के रूप मे सामने आया। लेकिन विचार, सम्वाद और सूचना के संग्रह और संचार के लिए बेहतर साधनों की मनुष्य की तलाश यहीं समाप्त नहीं हो गई। उस ने आगे चल कर कम्प्यूटर और इंटरनेट का आविष्कार किया।
ब लिखने के लिए कोई माध्यम नहीं था तो लोग विचार, सम्वाद और सूचना को रट कर कंठस्थ कर लेते थे। शिक्षा भी मौखिक ही थी और परीक्षा भी। बाद में कागज का आविष्कार हो जाने पर भी कंठस्थ करना जारी रहा। तमाम वैदिक साहित्य को श्रुति कहा ही इसलिए जाता है कि वे कंठस्थ किए जाते रहे और आगे सुनाए जाते रहे। सुनाए जाने की यह परंपरा आज भी नानी की कहानियों और कवि-सम्मेलनों के रूप में मौजूद है। समूचे लोक साहित्य का दो-तिहाई आज भी  कागज पर नहीं आया है, वह आज भी उसी सुनने और सुनाने की परंपरा से जीवित है। बोलियों के लाखों शब्द आज तक भी कागज और शब्दकोषों से बाहर हैं। मेरी अपनी बोली 'हाड़ौती' के अनेक शब्द, कहावतें, मुहावरे, पहेलियाँ, गीत अभी तक कागज पर नहीं हैं। अनेक शब्द, कहावतें, मुहावरे, पहेलियाँ ऐसे हैं कि खड़ी बोली हिन्दी या अन्य किसी भाषा में उन के समानार्थक नहीं हैं। अनेक भावाभिव्यक्तियाँ ऐसी हैं जो अन्य शब्दों के माध्यम से संभव नहीं हैं। 
हिन्दी की खड़ी बोली के प्रभाव ने इन बोलियों को सीमित कर दिया है। मेरी चिंता है कि यदि किसी तरह ये शब्द, कहावतें, मुहावरे, पहेलियाँ, गीत यदि संरक्षित न हो सके तो शायद हमेशा के लिए नष्ट हो जाएंगे, और उन के साथ वे भावाभिव्यक्तियाँ भी जिन्हें ये रूप प्रदान करते हैं। उन्हें कागज तक पहुँचाने में विपुल धन की आवश्यकता है। लेकिन यह काम कम्प्यूटर से सीडी, या डीवीडी में संग्रहीत करने तथा उन्हें इंटरनेट पर उपलब्ध करा देने से भी संभव है, और कम खर्चीला भी। यदि ऐसा हो सका तो बहुत सारा साहित्य कागज पर कभी नहीं पहुँचेगा और इलेक्ट्रॉनिक माध्यम पर पहुँच जाएगा। छापे के साथ आज क्या हो रहा है। छापे की तकनीक उस स्तर पर पहुँच गई है कि कागज पर कोई चीज छापने के पहले उस का इलेक्ट्रोनिक संकेतों में तब्दील होना आवश्यक हो गया है। किताब, पर्चे और अखबार छपने के पहले किसी न किसी डिस्क पर संग्रहीत होते हैं। उस के बाद ही छापे पर जा रहे हैं। किसी भी साहित्य के किसी डिस्क पर संग्रहीत होने के बाद छपने और इंटरनेट पर प्रकाशित होने में फर्क इतना रह जाता है कि यह काम इंटरनेट पर तुरंत हो जा रहा है ,जब कि छप कर पढ़ने लायक रूप में पहुँचने में कुछ घंटों से ले कर कुछ दिनों तक का समय लग रहा है। 
दि कागज और डिस्क के बीच कभी कोई जंग छिड़ जाए तो डिस्क की ही जीत होनी है, कागज तो उस में अवश्य ही पिछड़ जाएगा क्यों कि वह भी डिस्क का मोहताज हो चुका है, इसे हम ब्लागर तो भली तरह जानते हैं। ऐसे में सभी कलाओं के लिए भी मौजूदा परिस्थितियों में सब से अधिक सुरक्षित स्थान डिस्क और इंटरनेट ही है। साहित्य भी एक कलारूप ही है। उस के लिए भी सुरक्षित स्थान यही हैं। हर कोई अपने लिए सुरक्षित स्थान तलाशता है, साहित्य को स्वयं की सुरक्षा के लिए डिस्क और इंटरनेट की ही शरण में आना होगा। 
....... और अंत में एक शुभ सूचना कि भाई अजित वडनेरकर की शब्दों का सफ़र भाग -२ की पांडुलिपि को एक लाख रुपये का विद्यानिवास मिश्र पुरस्कार घोषित हुआ है। राजकमल प्रकाशन अजित वडनेरकर को यह सम्मान 28 फ़रवरी को नई दिल्ली के त्रिवेणी सभागार में शाम पांच बजे आयोजित कार्यक्रम में प्रदान करेगा। पुरस्कार के चयनकर्ता मंडल में प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी और अरविंद कुमार शामिल थे। इस सूचना ने आज के दिन को मेरे लिए बहुत बड़ी प्रसन्नता का दिन बना दिया है, मैं बहुत दिनों से इस दिन की प्रतीक्षा में था। अजित भाई को व्यक्तिगत रूप से बधाई दे चुका हूँ। आज सारे ब्लाग जगत को इस पर प्रसन्न होना चाहिए। इस महत्वपूर्ण पुस्तक का जन्म पहले इंटरनेट पर ब्लाग के रूप में हुआ। अजित भाई के साथ सारा हिन्दी ब्लाग जगत इस बधाई का हकदार है।

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

'राकेश' जी ने सिद्ध किया कि हाडौ़ती केवल बोली नहीं, एक स्वतंत्र भाषा है।

हाडौती को राजस्थानी की एक शैली के रुप में जाना जाता है। राजस्थान के हाडौ़ती अंचल की यह सर्वसामान्य बोली है। इसे हिन्दी की 48 बोलियों में से एक के रूप में भी जाना जाता रहा है। लेकिन बोली के पास एक लिपि और लिपिबद्ध सामग्री हो तो वह एक स्वतंत्र भाषा का दर्जा प्राप्त करने में सक्षम हो जाती है। लेकिन हाड़ौती को तो देवनागरी में बहुत पहले से लिखा और बोला जाता रहा है। इसे भाषा का दर्जा बहुत पहले प्राप्त था। आजादी के पहले जब कोटा को एक स्वतंत्र राज्य का दर्जा प्राप्त था तो समस्त राजकाज इसी भाषा में होता रहा। इस भाषा में लिखे गए दस्तावेज अभिलेखागारों में उपलब्ध हैं। लेकिन क्या भाषा के लिए इतना ही पर्याप्त है? शायद नहीं। उस के लिए यह भी आवश्यक है कि उस भाषा में पर्याप्त मात्रा में लिखा गया साहित्य भी हो। हाडौती के पास लिखा हुआ और छपा हुआ साहित्य शायद उस वक्त तक इतनी मात्रा में नहीं था। यही कारण है कि उसे एक भाषा कह पाना संभव नहीं हो पा रहा होगा। वैसे समय में एक व्यक्ति ने इस काम का बीड़ा उठाया। उस ने हाड़ौती में काव्य सृजन की परंपरा को आगे बढ़ाया। उस के प्रकाशन की व्यवस्था की और हाडौती में सृजित साहित्य की उपलब्धता बढ़ने लगी। आज अनेक कवि और लेखक हैं जिन्हें हाडौ़ती के साहित्यकार के रूप में पहचाना जाता है। लेकिन इस पहचान को बनाने में जिस व्यक्ति ने अहम् और केन्द्रीय भूमिका अदा की उस का नाम शांति भारद्वाज राकेश था।  जब तक हाड़ौती बोलने, लिखने और पढ़ने वाले रहेंगे, राकेश जी का नाम अमर रहेगा।
तीन दिन पहले राकेश जी नहीं रहे। एक लंबी बीमारी के उपरान्त उन का देहान्त हो गया। पहले भी वे ऐसे ही गंभीर रूप से बीमार हुए थे कि लोगों ने अस्पताल से लौट कर घर आने की संभावनाओं को अत्यंत क्षीण बताया। लेकिन हर बार उन की जिजिविषा उन्हें लौटा लाई और हर बार उन्हों ने लौट कर लेखन में नए कीर्तिमान स्थापित किए। कुछ दिन पहले अस्पताल में उन्हों ने ऐसा ही अभिव्यक्त किया था कि उन के दिमाग में पूरा एक उपन्यास मौजूद है, और ठीक हो कर घर लौटने पर वे उसे अगली बार बीमार हों उस के पहले पूरा कर देंगे। लेकिन प्रकृति ने उन्हें यह अवसर प्रदान नहीं किया। वे वापस नहीं लौटे। आज जब उन की शोक-सभा आयोजित हुई तो कोटा का शायद ही कोई अभागा साहित्य प्रेमी होगा जो वहाँ उपस्थित नहीं हो सका होगा। 
राकेश जी की कुल 15 पुस्तकें उन के जीवन काल में प्रकाशित हो चुकी थीं। सूर्यास्त उपन्यास, परीक्षित कथा काव्य, समय की धार काव्य, इतने वर्ष काव्य, पोरस नाटक और हाडौ़ती का प्रथम उपन्यास उड़ जा रे सुआ प्रमुख हैं। मुझे साहित्य से आरंभ से प्रेम था, लेकिन लेखन के नाम पर मेरे पास अपनी दो-चार कविताओं और इतनी ही कहानियों के अतिरिक्त कुछ न था। तब एक पत्रिका के विमोचन समारोह में अचानक ही मुझे बोल देने को कहा गया। वह भी मुख्य अतिथि शांति भारद्वाज राकेश के तुरंत बाद। संकोच के साथ मैं खड़ा हुआ और बोलने लगा तो बहुत समय ले गया। बाद में राकेश जी ने मुझे कहा कि तुम लिखते क्यों नहीं हो। मैं ने उन से कहा मैं गृहत्यागी हूँ, और अदालती दावे और दरख्वास्तें लिखता हूँ, उन्हें न लिखूंगा तो घर कैसे बसा सकूंगा। वे मुझे हमेशा लिखने को प्रोत्साहित करते रहे और जब भी लिखा। उन्हों ने उसे सराहा और शिकायत की कि मैं नियमित क्यों नहीं हूँ। उन्हें मेरे ब्लाग लेखन का पता नहीं था, होता तो शायद वे संतुष्ट होते। 
हाँ मैं उन की एक छोटी सी हाडौती कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ, यही मेरी उन के प्रति श्रद्धांजली है-

आप मरियाँ ही सरक दीखैगो
  • शांति भारद्वाज 'राकेश'

आज
अश्यो कुण छै- 
सत्त को सरज्यो 
ज्ये मेट द्ये
ईं गाँव की भूख?

कुण छै -
ज्ये धोळाँ दफैराँ 
चतराम द्ये 
ईं गाँव का सपना को उजास?

कुण छै-
ज्ये सणगार द्ये
ईं गाँव की मोट्याराँ की सळोटाँ
अर बाळकाँ की आस?

बात  को तोल 
अर धरम को मोल
म्हारों गाँव फेर सीखैगो
पण, बडा कह ग्या छै 
कै
आप मरियाँ ही सरग दीखैगो.

उन की विदाई में 'अनवरत' की आँखें नम हैं और सिर श्रद्धावनत।

बुधवार, 19 जनवरी 2011

भय के कारण को ही तुच्छ समझने की चेष्टा

गालियाँ दी जाती रही हैं, और दी जाती रहेंगी और चर्चा का विषय भी बनती रहेंगी। गालियाँ क्यों दी जाती हैं? इस पर खूब बातें हो चुकी हैं, लेकिन कभी कोई कायदे का शोध इस पर नहीं हुआ। शायद विश्वविद्यालयी छात्र का इस ओर ध्यान नहीं गया हो, ध्यान गया भी हो तो विश्वविद्यालय के किसी गाइड ने इस विषय पर शोध कराना और गाइड बनना पसंद नहीं किया  हो, और कोई गाइड बनने के लिए तैयार भी हो गया हो तो विश्वविद्यालय समिति ने इस विषय पर शोध को मंजूरी ही न दी हो। विश्वविद्यालय के बाहर भी किसी विद्वान ने इस विषय पर शोध करने में कोई रुचि नहीं दिखाई है, अन्यथा कोई न कोई प्रामाणिक ग्रंथ इस विषय पर उपलब्ध होता और लिखने वालों को उस का हवाला देने की सुविधा मिलती। मुझे उन लोगों पर दया आती है जो इस विषय पर लिखने की जहमत उठाते हैं, बेचारों को कोई संदर्भ ही नहीं मिलता। 
ब्लाग जगत की उम्र अधिक नहीं, हिन्दी ब्लाग जगत की तो उस से भी कम है। लेकिन हमें इस पर गर्व होना चाहिए कि हम इस विषय पर हर साल एक-दो बार चर्चा अवश्य करते हैं। इस लिए यहाँ से संदर्भ उठाना आसान होता है। मुश्किल यह है कि हर चर्चा के अंत में गाली-गलौच को हर क्षेत्र में बुरा साबित कर दिया जाता है और चर्चा का अंत हो जाता है।  ब्लाग पर लिखे गए शब्द और वाक्य भले ही अभिलेख बन जाते हों पर हमारी स्मृति है कि धोखा दे ही जाती है। साल निकलते निकलते हम इस मुद्दे पर फिर से बात कर लेते हैं।  कुछ ब्लाग का कुछ हिन्दी फिल्मों का असर है कि मृणाल पाण्डे जैसी शीर्षस्थ लेखिकाओं को भास्कर जैसे 'सब से  आगे रहने वाले' अखबार के लिए आलेख लिखने का अवसर प्राप्त होता है। वे कह देती हैं, "नए यानी साइबर मीडिया में तो ब्लॉग जगत गालीयुक्त हिंदी का जितने बड़े पैमाने पर प्रयोग कर रहा है, उससे लगता है कि गाली दिए बिना न तो विद्रोह को सार्थक स्वर दिया जा सकता है, न ही प्रेम को।" वे आगे फिर से कहती हैं, "पर मुंबइया फिल्मों तथा नेट ने एक नई हिंदी की रचना के लिए हिंदी पट्टी के आधी-अधूरी भाषाई समझ वालों को मानो एक विशाल श्यामपट्ट थमा दिया है।"
न्हें शायद पता नहीं कि यह हिन्दी ब्लाग जगत इतना संवेदनहीन भी नहीं है कि गालियों पर प्रतिक्रिया ही न करे, यहाँ तो गाली के हर प्रयोग पर आपत्ति मिल जाएगी। प्रिंट मीडिया में उन की जो स्थिति है, वे ब्लाग जगत में विचरण क्यों करने लगीं? वैसे भी अब प्रिंट मीडिया इतनी साख तो है ही कि वहाँ सुनी सुनाई बातें भी अधिकारिक ढंग से कही जा सकती हैं। फिर स्थापित लेखक लिखें तो कम से कम वे लोग तो विश्वास कर ही सकते हैं जो हिन्दी ब्लाग जगत से अनभिज्ञ हैं, यथा लेखक तथा पाठक। ब्लाग जगत का यह अदना सा सदस्य इस विषय पर शायद यह पोस्ट लिखने की जहमत न उठाता, यदि क्वचिदन्यतोअपि पर डा. अरविंद मिश्रा ने उस का उल्लेख न कर दिया होता।
न के इस कथन के पीछे क्या मन्तव्य है? यह तो  मैं नहीं जानता। पर कहीं यह अहसास अवश्य हो रहा है कि प्रिंट मीडिया में लिखने वालों को ब्लाग जगत के लेखन से कुछ न कुछ खतरे का आभास अवश्य होता होगा। कुछ तो सिहरन होती ही होगी। जब किसी को भय का आभास होता है तो प्राथमिक प्रतिक्रिया यही होती है कि वह उसे झुठलाने का प्रयास करता है। भय के आभास को मिथ्या ठहराने के प्रयास में वह भय के कारण को ही तुच्छ समझने की चेष्टा करता है। कहीं यही कारण तो नहीं था मृणाल जी के उस वक्तव्य के पीछे जिस में वे कहती हैं कि "ब्लॉग जगत गालीयुक्त हिंदी का जितने बड़े पैमाने पर प्रयोग कर रहा है, उससे लगता है कि गाली दिए बिना न तो विद्रोह को सार्थक स्वर दिया जा सकता है, न ही प्रेम को।" यदि उन का मंतव्य यही था तो फिर उन का यह वक्तव्य निन्दा के योग्य है। वह ब्लाग जगत के बारे में उन के मिथ्या ज्ञान को ही अभिव्यक्त करता है।

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

हिन्दी मेरे लिए दुनिया की सब से अच्छी भाषा है, वह मुझे कभी ओछी नहीं पड़ती

म हिन्दी भाषी हैं, हमें हिन्दी से अनुराग है और स्वयं को इस भाषा में सब से अच्छी तरह से अभिव्यक्त कर सकते हैं। हम में से अनेक हैं जो अंग्रेजी और दूसरी अन्य भाषाओं को जानते हैं और बहुत से उन भाषाओं में पारंगत है। कोई कोई तो इतने अधिक पारंगत हैं कि उन्हें हिन्दी ओछी पड़ने लगती है। वे समझते हैं कि वे स्वयं को हिन्दी से भी अच्छी तरह से अंग्रेजी या दूसरी भाषा में अभिव्यक्त कर सकते हैं। फिर वे अंग्रेजी की वकालत और हिन्दी के ओछे पन की बातें करते हैं। कभी वे कहते हैं कि हिन्दी में तकनीकी काम कर पाना संभव नहीं है, अदालतों का काम हिन्दी में संभव नहीं है, एक अच्छे उपन्यास का अच्छा अनुवाद हिन्दी में संभव नहीं है आदि आदि......
मुझे हिन्दी कभी ओछी नहीं पड़ती। मैं हिन्दी में कुछ भी कह सकता हूँ। यह भी हो सकता है मैं किसी दूसरी भाषा में पारंगत नहीं हो सकने के कारण ऐसा समझता होऊँ। लेकिन यदि ऐसा है तो फिर मैं चाहूँगा कि मैं कभी भी किसी अन्य भाषा में पारंगत नहीं होऊँ। यदि हो भी गया तब भी मैं जानता हूँ कि मैं स्वयं को कभी भी अपनी भाषा के मुकाबले किसी भी अन्य भाषा में सहज रूप से अभिव्यक्त नहीं कर सकता।
मैं वकील हूँ। अदालत में हिन्दी भाषा का प्रयोग करता हूँ। मुझे हिन्दी का उपयोग करने में कभी भी परेशानी नहीं आई। चाहे कानून  की किताबें अंग्रेजी में हैं। कभी मुझे अंग्रेजी के कुछ खास शब्दों के पारिभाषिक हिन्दी शब्द नहीं मिलते। लेकिन मैं अधिक परेशान नहीं होता। वहाँ अंग्रेजी के शब्दों से काम चला लेता हूँ। यदि में कुछ सौ शब्द अंग्रेजी के उपयोग में लेता हूँ तो इस से मेरी भाषा अंग्रेजी नहीं हो जाती और न ही मेरी हिन्दी भ्रष्ट हो जाती है। मेरा मूल उद्देश्य यह होता है कि मैं अपनी बात को कैसे बेहतरीन तरीके से कह सकता हूँ। मुझे इस बात से भी कोई परेशानी नहीं है कि मेरी हिन्दी में कुछ शब्द अरबी, फारसी या किसी और मूल के हैं। मैं यह जानता हूँ कि मेरी भाषा हिन्दी है। मैं न्यायाधीश महोदय को जज साहब बोलता हूँ तो मेरी भाषा अंग्रेजी नहीं हो जाती वह हिन्दी ही रहती है।
कुछ लोग अंग्रेजी का साहित्य पढ़ते हैं बहुत आनंदित होते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसी किताब हिन्दी में नहीं लिखी जा सकती या उस खास किताब का अनुवाद हिन्दी में नहीं किया जा सकता, यदि किया भी जाए तो वह उतना अच्छा नहीं हो सकता जैसा कि मूल है। लेकिन यह तो उन की सोच है। एक व्यक्ति अंग्रेजी नहीं जानता या कम जानता है। वह उस पुस्तक को या तो पढ़ नहीं सकता। पढ़े तो भी उतना आनंदित शायद न हो जितना वे सज्जन खुद हुए हैं। लेकिन इस से क्या फर्क पड़ता है? दुनिया में किसी के आनंदित होने के लिए और भी बहुत सी पुस्तकें और दूसरी चीजें हैं। यदि वह पुस्तक कुछ अनुभव या ज्ञान बांटती है तो एक हिन्दी भाषी को उस का खराब अनुवाद भी आनंदित करेगा। यह भी हो सकता है कि उस पुस्तक का खराब अनुवाद किसी अच्छे अनुवादक को अच्छा अनुवाद करने को प्रेरित कर दे। यह भी हो सकता है कि अनुवादक एक मूल पुस्तक को उस से भी अच्छे तरीके से अनुवाद में प्रस्तुत कर दे।
हिन्दी मेरे लिए दुनिया की सब से अच्छी भाषा है। मैं उसे सब से अच्छे तरीके से बोल, पढ़, लिख और समझ सकता हूँ, स्वयं को उस के माध्यम से सब से अच्छे तरीके से अभिव्यक्त कर सकता हूँ। मुझे गुड़ पसंद है, चीनी नहीं। मुझे आप श्रेष्ठतम चीनी ला कर खिला भी देंगे तो भी मुझे गुड़ ही अच्छा लगेगा।

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

यौनिक गाली का अदालती मामला


विगत आलेख में मैं ने लिखा था कि "यौनिक गालियाँ समाज में इतनी गहराई से प्रचलन में क्यों हैं, इन का अर्थ और इतिहास क्या है? इसे जानने की भी कोशिश करनी चाहिए। जिस से हम यह तो पता करें कि आखिर मनुष्य ने इन्हें इतनी गहराई से क्यों अपना लिया है? क्या इन से छूटने का कोई उपाय भी है? काम गंभीर है लेकिन क्या इसे नहीं करना चाहिए? मेरा मानना है कि इस काम को होना ही चाहिए। कोई शोधकर्ता इसे अधिक सुगमता से कर सकता है। मैं अपनी ओर से इस पर कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन यह चर्चा लंबी हो चुकी है। अगले आलेख में प्रयत्न करता हूँ। इस आशा के साथ कि लोग गंभीरता से उस पर विचार करें और उसे किसी मुकाम तक पहुँचाने की प्रयत्न करें।"
स आलेख पर पंद्रह टिप्पणियाँ अभी तक आई हैं। संतोष की बात तो यह कि उस पर अग्रज डॉ. अमर कुमार जी ने अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी की, जिन से आज कल दुआ-सलाम भी बहुत कठिनाई से होती है। वे न जाने क्यों ब्लाग जगत से नाराज हैं? इन टिप्पणियों से प्रतीत हुआ कि जो कुछ मैं ने कहा था वह इतनी साधारण बात नहीं कि उसे हलके-फुलके तौर पर निपटा दिया जाए। इस चर्चा को वास्तव में गंभीरता की आवश्यकता है। पिछले लगभग चार माह से कोटा के वकील हड़ताल पर हैं। मैं भी उन में से एक हूँ। रोज अदालत जाना आवश्यकता थी, जिस से अदालतों में लंबित मुकदमों की रक्षा की जा सके। अदालत के बाद के समय को मैं ने ब्लागरी की बदौलत पढ़ने और लिखने में बिताया। उस का नतीजा भी सामने है कि मैं "भारत में विधि के इतिहास" श्रंखला को आरंभ कर पाया। 24 दिसंबर से अवकाश आरंभ हो रहे हैं जो 2 जनवरी तक रहेंगे। इस बीच कोटा के बाहर भी जाना होगा। लेकिन यह पता न था कि मैं अचानक व्यस्त हो जाउंगा। 21 जनवरी कुछ घरेलू व्यस्तताओं में बीत गई और 22 को मुझे दो दिनों की यात्रा पर निकलना है फिर लौटते ही वापस बेटी के यहाँ जाना है। इस तरह कुछ दिन ब्लागरी से दूर रह सकता हूँ और कोई गंभीर काम कर पाना कठिन होगा।

मैं इस व्यस्तता के मध्य भी एक घटना बयान करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ जो यौनिक गालियों से संबद्ध है और समाज में इन के आदतन प्रचलन को प्रदर्शित करती है .....
टना यूँ है कि एक व्यक्ति को जो भरतपुर के एक कारखाने में काम करता था अपने अफसर को 'भैंचो' कहने के आरोप से आरोपित किया गया और घरेलू जाँच के उपरांत नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। मुकदमा चला और श्रम न्यायालय ने उस की बर्खास्तगी को सही माना कि उस ने अपने अफसर के साथ अभद्र बर्ताव किया था। मामला उच्चन्यायालय पहुँचा। संयोग से सुनवाई करने वाले जज स्वयं भी भरतपुर क्षेत्र के थे। बर्खास्त किए गए व्यक्ति की पैरवी करने वाले एक श्रंमिक नेता थे जिन की कानूनी योग्यता और श्रमिकों के क्षेत्र में उन के अनथक कार्य के कारण हाईकोर्ट ने अपने निर्णयों में 'श्रम विधि के ज्ञाता' कहा था और  जज उलझे श्रम मामलों में उन से राय करना उचित समझते थे। जब उस व्यक्ति के मामले की सुनवाई होने लगी तो श्रमिक नेता ने उन्हें कहा कि मैं इस मामले पर चैंबर में बहस करना चाहता हूँ। अदालत ने उन्हें इस की अनुमति दे दी। दोनों पक्ष जज साहब के समक्ष चैंबर में उपस्थित हुए। श्रमिक नेता ने कहा कि इस मामले में यह साबित है कि इस ने 'भैंचो' शब्द कहा है। स्वयं आरोपी भी इसे स्वीकार करता है। लेकिन वह भरतपुर का निवासी है और निम्नवर्गीय मजदूर है। भरतपुर क्षेत्र के वासियों के लिए इस शब्द का उच्चारण कर देना बहुत सहज बात है और सहबन इस शब्द का उच्चारण कर देना अभद्र नहीं माना जा सकता। इस व्यक्ति की बर्खास्तगी को रद्द कर देना चाहिए। हाँ यदि अदालत चाहे तो कोई मामूली दंड इस के लिए तजवीज कर दे।
ज साहब स्वयं भी अपने चैम्बर में होने के कारण अदालत की मर्यादा से बाहर थे। उन के मुख से अचानक निकला "भैंचो, भरतपुर में बोलते तो ऐसे ही हैं।"
इस के बाद श्रमिक नेता ने कहा कि मुझे अब कोई बहस नहीं करनी आप जो चाहे निर्णय सुना दें। आरोपी की बर्खास्तगी को रद्द कर के उसे पिछले आधे वेतन से वंचित करते हुए नौकरी पर बहाल कर दिया गया।

स घटना के उल्लेख के उपरांत मुझे भी आज आगे कुछ नहीं कहना है। कुछ दिन ब्लागीरी के मंच से अनुपस्थित रहूँगा। वापस लौटूंगा तो शायद कुछ नया ले कर। नमस्कार!

रविवार, 20 दिसंबर 2009

एक गाली चर्चा : अपनी ही टिप्पणियों के बहाने

पिछले साल के दिसम्बर में भी गालियों पर बहुत कुछ कहा गया था। मैं ने नारी ब्लाग पर एक टिप्पणी छोड़ी थी ......
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
किसी भी मुद्दे पर बात उठाने का सब से फूहड़ तरीका यह है कि बात उठाने का विषय आप चुनें और लोगों को अपना विषय पेलने का अवसर मिल जाए। गाली चर्चा का भी यही हुआ। बात गाली पर से शुरू हुई और गुम भी हो गई। शेष रहा स्त्री-पुरुष असामनता का विषय।

वैसे गालियों की उत्पत्ति का प्रमुख कारण यह विभेद ही है।
 इस टिप्पणी पर एक प्रतिटिप्पणी सुजाता जी की आई .......
सुजाता said...
वैसे गालियों की उत्पत्ति का प्रमुख कारण यह विभेद ही है।
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दिनेश जी जब आप मान ही रहे हैं कि स्त्री पुरुष असमानता और गाली चर्चा में प्रमुख सम्बन्ध है फिर आपको यह बात उठाने का फूहड़ तरीका कैसे लग सकता है।
अथवा आप कहना चाहते हैं कि क्योंकि मैने मुद्दे को सही तरीके से उठाया इसलिए कोई cmpershad सरे आम गाली दे जाना जायज़ साबित हो जाता है।
माने आपको मेरी बात पसन्द नहीं आएगी तो क्योंकि आप पुरुष हैं तो आप भी ऐसी ही कोई भद्दी बात कहने के हकदार हो जाएंगे।
मैं नारी ब्लाग की उस पोस्ट पर दुबारा नहीं जा पाया इस कारण से मुझे साल भर तक यह भी पता नहीं लगा कि सुजाता जी ने कोई प्रति टिप्पणी की थी और उस में ऐसा कुछ कहा था। साल भर बाद भी शायद मुझे इस का पता नहीं लगता। लेकिन आज सुबह नारी ब्लाग की पोस्ट "पी.सी. गोदियाल जी अफ़सोस हुआ आप कि ये पोस्ट पढ़ कर ये नहीं कहूँगी क्युकी इस से भी ज्यादा अफ़सोस जनक पहले पढ़ा है।"  पर फिर से कुछ ऐसा ही मामला देखने को मिला। वहाँ छोड़ी गई लिंक से पीछे जाने पर चिट्ठा चर्चा की पोस्ट पर मुझे अपनी ही यह टिप्पणी मिली .....
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said:  
देर से आने का लाभ,
चिट्ठों पर चर्चा के साथ
चर्चा पर टिप्पणी और,
उस पर चर्चा
वर्षांत में दो दो उपहार।
वहाँ से सिद्धार्थ जी के ब्लाग पर पहुँचा और पोस्ट गाली-गलौज के बहाने दोगलापन पर अपनी यह टिप्पणी पढ़ने को मिली ...
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
लोग गालियाँ क्यों देते हैं ? और पुरुष अधिक क्यों? यह बहुत गंभीर और विस्तृत विषय है। सदियों से समाज में चली आ रही गालियों के कारणों पर शोध की आवश्यकता है। समाज में भिन्न भिन्न सामाजिक स्तर हैं। मुझे लगता है कि बात गंभीरता से शुरू ही नहीं हुई। हलके तौर पर शुरू हुई है। लेकिन उसे गंभीरता की ओर जाना चाहिए।
यहाँ से पहुँचा मैं लूज शंटिंग 
पर दीप्ति की लिखी पोस्ट पर वहाँ भी मुझे अपनी यह टिप्पणी देखने को मिली .....
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
लोगों को पता ही नहीं होता वे क्या बोल रहे हैं। शायद कभी कोई भाषा क्रांति ही इस से छुटकारा दिला पाए।
फिर दीप्ती की पोस्ट पर लिखी गई चोखेरबाली की  पोस्ट पर अपनी यह टिप्पणी पढ़ी।
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
बस अब यही शेष रह गया है कि यौनिक गालियाँ मजा लेने की चीज बन जाएं। जो चीज आप को मजा दे रही है वही कहीं किसी दूसरे को चोट तो नहीं पहुँचा रही है।
न सब आलेखों पर जाने से पता लगा कि यौनिक गालियों के बहाने से बहुत सारी बहस इन आलेखों में हुई। मैं सब से पहले आना चाहता हूँ सुजाता जी की प्रति टिप्पणी पर। शायद सुजाता जी ने उस समय मेरी बात को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं लिया। मेरी टिप्पणी का आशय बहुत स्पष्ट था कि किसी भी मुद्दे को इस तरीके से उठाना उचित नहीं कि उठाया गया विषय गौण हो जाए और कोई दूसरा ही विषय वहाँ प्रधान हो जाए। यदि हो भी रहा हो तो पोस्ट लिखने वाले को यह ध्यान दिलाना चाहिए कि आप विषय से भटक रहे हैं। मेरा स्पष्ट मानना है कि विषय को भटकाने वालों को सही जवाब दिया जा कर विषय पर आने को कहना चाहिए और यह संभव न हो तो विषय से इतर भटकाने वाली टिप्पणियों को मोडरेट करना चाहिए। सुजाता जी ने अपनी बात कही, मुझे उस पर कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन वे समझती हैं कि मेरी टिप्पणी इस लिए थी कि मैं पुरुष हूँ, तो यह बात गलत है, वह टिप्पणी पुरुष की नहीं एक ब्लागर की ही थी।

खैर, इस बात को जाने दीजिए। मेरी आपत्ति तो इस बात पर है कि पिछले साल गालियों पर हुई चर्चा का समापन अभी तक नहीं हो सका है। वह बहस नारी की आज की पोस्ट पर फिर जीवित नजर आई। हो सकता है यह बहस लम्बे समय तक रह रह कर होती रहे। लेकिन यह एक ठोस सत्य है कि समाज में यौनिक गालियाँ मौजूद हैं और उन का इस्तेमाल धड़ल्ले से जारी है। इस सत्य को हम झुठला नहीं सकते। यह भी सही है कि सभ्यता और संस्कृति के नाम पर स्त्रियों से  इन से बचे रहने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि स्त्रियाँ इस से अछूती रही हों। मुझे 1980 में किराये का घर इसीलिए बदलना पड़ा था कि जिधर मेरे बेडरूम की खिड़की खुलती थी उधर एक चौक था। उस चौक में जितने घरों के दरवाजे खुलते थे उन की स्त्रियाँ धड़ल्ले से यौनिक गालियों का प्रयोग करती थीं, पुरुषों की तो बात ही क्या उन्हें तो यह पुश्तैनी अधिकार लगता था।
मेरे पिता जी को कभी यौनिक तो क्या कोई दूसरी गाली भी देते नहीं देखा। मेरी खुद की यह आदत नहीं रही कि ऐसी गालियों को बर्दाश्त कर सकूँ। ऐसी ही माँ से सम्बंधित गाली देने पर एक सहपाठी को मैं ने पीट दिया था और मुझे उसी स्कूल में नियुक्त अपने पिता से पिटना पड़ा था। 
म बहुत बहस करते हैं। लेकिन  ये गालियाँ समाज में इतनी गहराई से प्रचलन में क्यों हैं, इन का अर्थ और इतिहास क्या है? इसे जानने की भी कोशिश करनी चाहिए। जिस से हम यह तो पता करें कि आखिर मनुष्य ने इन्हें इतनी गहराई से क्यों अपना लिया है? क्या इन से छूटने का कोई उपाय भी है? काम गंभीर है लेकिन क्या इसे नहीं करना चाहिए? मेरा मानना है कि इस काम को होना ही चाहिए। कोई शोधकर्ता इसे अधिक सुगमता से कर सकता है। मैं अपनी ओर से इस पर कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन यह चर्चा लंबी हो चुकी है। अगले आलेख में प्रयत्न करता हूँ। इस आशा के साथ कि लोग गंभीरता से उस पर विचार करें और उसे किसी मुकाम तक पहुँचाने की प्रयत्न करें।

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

भाया ! बैल बगाग्यो

पंडित श्याम शंकर जी व्यास अपने जमाने के जाने माने अध्यापक थे। उन के इकलौते पुत्र थे कमल किशोर व्यास।  उन्हें खूब मार पीट कर पढ़ाया गया।  पढ़े तो कमल जी व्यास खूब, विद्वान भी हो गए। पर परीक्षा में सफल होना नहीं लिखा था। हुए भी तो कभी डिविजन नहीं आया, किस्मत में तृतीय श्रेणी लिखी थी।  जैसे-तैसे संस्कृत में बी.ए, हुए। कुछ न हो तो मास्टर हो जाएँ यही सोच उन्हें बी.एस.टी.सी. करा दी गई। वे पंचायत समिति में तृतीय श्रेणी शिक्षक हो गए।  पंचायत समिति के अधीन सब प्राइमरी के स्कूल थे। वहाँ विद्वता की कोई कद्र न थी। गाँव में पोस्टिंग होती। हर दो साल बाद तबादला हो जाता। व्यास जी गाँव-गाँव घूम-घूम कर थक गए। 

व्यास जी के बीस बीघा जमीन थी बिलकुल कौरवान। पानी का नाम न था। खेती बरसात पर आधारित थी। व्यास जी उसे गाँव के किसान को मुनाफे पर दे देते और साल के शुरु में ही मुनाफे की रकम ले शहर आ जाते। बाँध बना और नहर निकली तो जमीन नहर की हो गई।  मुनाफा बढ़ गया।  गाँव-गाँव घूम कर थके कमल किशोर जी व्यास ने सोचा, इस गाँव-गाँव की मास्टरी से तो अच्छा है अपने गाँव स्थाई रूप से टिक कर खेती की जाए।

खेती का ताम-झाम बसाया गया। बढ़िया नागौरी बैल खरीदे गए। खेत हाँकने का वक्त आ गया। कमल किशोर व्यास जी खुद ही खेत हाँकने चल दिए। दो दिन हँकाई की, तीसरे दिन हँकाई कर रहे थे कि एक बैल नीचे गिरा और तड़पने लगा। अब व्यास जी परेशान।  अच्छे खासे बैल को न जाने क्या हुआ? बड़ी मुश्किल से महंगा बैल खरीदा था, इसे कुछ हो गया तो खेती का क्या होगा? दूर दूर तक जानवरों का अस्पताल नहीं ,बैल को कस्बे तक कैसे ले जाएँ? और डाक्टर को कहाँ ढूंढें और कैसे लाएँ?  बैल को वहीं तड़पता छोड़ पास के खेत में भागे, जहाँ दूसरा किसान खेत हाँक रहा था। उसे हाल सुनाया तो वह अपने खेत की हँकाई छोड़ इन के साथ भागा आया। किसान ने बैल को देखा और उस की बीमारी का निदान कर दिया। भाया यो तो बैल 'बगाग्यो' ।   व्यास जी की डिक्शनरी में तो ये शब्द था ही नहीं। वे सोच में पड़ गए ये कौन सी बीमारी आ गई? बैल जाने बचेगा, जाने मर जाएगा? 

किसान ने उन से कहा मास्साब शीशी भर मीठा तेल ल्याओ।  मास्टर जी भागे और अलसी के तेल की शीशी ले कर आए।  किसान ने शीशी का ढक्कन खोला और उसे बैल की गुदा में लगा दिया, ऐसे  कि जिस से उस का तेल गुदा में प्रवेश कर जाए। कुछ देर बाद शीशी को हटा लिया। व्यास जी महाराज का सारा ध्यान बैल की गुदा की तरफ था। तेल गुदा से वापस बाहर आने लगा मिनटों में बैल की गुदा में से तेल के साथ एक उड़ने वाला कीड़ा (जिसे हाड़ौती भाषा में बग्गी कहते हैं) निकला और उड़ गया। व्यास जी को तुरंत समझ आ गया कि 'बगाग्यो' शब्द का अर्थ क्या है। उन का संस्कृत और हिन्दी का अध्ययन बेकार गया। 

पंडित कमल किशोर व्यास हाड़ौती का शब्दकोश तलाशने बैठे तो पता लगा कि ऐसा कोई शब्दकोश बना और छपा ही नहीं है । बस बैल की गुदा में बग्गी घुसी थी, इस कारण से बीमारी का नाम पड़ा 'बगाग्यो'।  यह तो वही हुआ "तड़ से देखा, भड़ से सोचा और खड़ से बाहर आ गये"। 

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

जी, वकालत करता हूँ।

अंग्रेजी शब्दों का हिन्दी में अनुवाद करना और उन का प्रचलित होना भी अजीब झमेला है।  भारत का हिन्दी बोलने और व्यवहार करने वाला क्षेत्र बहुत ही व्यापक है, और इसी लिए जो नतीजे सामने आते हैं वे भी बहुत विविध होते हैं।  अब अंग्रेजी में दो शब्द हैं, लॉ'यर (Lawyer) और एड'वॅकेट (Advocate)।  पहले शब्द का अर्थ होता है जो विधि (कानून) की जानकारी रखता है और उसी का व्यवसाय करता है।  दूसरे शब्द का अर्थ है किसी अन्य की पैरवी करने वाला।  भारत में अंग्रेजी का प्रभाव आरंभ होने के सदियों पहले से इन दोनों शब्दों के लिए एक बहुत ही सुंदर शब्द प्रचलित है 'वकील' जिस में ये दोनों भाव मौजूद हैं।  मुस्लिम निकाह के दौरान जहाँ वधू पर्दे में होती है और सब के सामने नहीं आ सकती, वहाँ वर की ओर से वधू को अपनी जीवन संगिनी बनाए जाने का प्रस्ताव ले कर वधू के पास जाने वाले और उस का उत्तर ले कर काजी तक पहुँचाने वाले व्यक्ति को भी वकील कहते हैं।  क्यों कि वह वर का प्रस्ताव ले जा कर वधू को देता है।  इस से यह स्पष्ट है कि इस शब्द में दूसरे की बात को किसी तीसरे के सामने रखने वाले व्यक्ति को वकील कहा जाता है।  सामान्य रूप से यदि कहीं किसी विवाद में हम अनपेक्षित रूप से किसी को अचानक किसी उपस्थित या अनुपस्थित व्यक्ति का तर्क सहित समर्थन करता देखें तो तुरंत उसे यह कह बैठते हैं कि, तुम उस के वकील हो क्या?  कुल मिला कर वकील एक व्यापक शब्द है जो अंग्रेजी के उक्त दोनों शब्दों के लिए पूरी तरह उपयुक्त है, व्यवहार में आसान है और इसलिए हिन्दी भाषियों के बीच बहुप्रचलित है।

लॉ'यर (Lawyer) शब्द जिन के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है, जरूरी नहीं कि वे किसी की पैरवी भी करते हों।  वे केवल कानून के व्याख्याकार भी हो सकते हैं।  किसी समस्या के समय उपस्थित होने वाले इस प्रश्न को कि, कानून उन्हें किस प्रकार से व्यवहार करने को कहता है?  हल करने वाले को भी लॉ'यर (Lawyer) कहते हैं।  भारत की अदालतों में जब पैरवी करने वालों के व्यवसाय के नियमन के लिए कानून की जरूरत हुई तो  एडवोकेट, शब्द का उपयोग हुआ और एडवोकेट एक्ट बनाया गया। जो व्यक्ति बार कौंसिल में पंजीकृत हो और व्यावसायिक रूप से अदालतों के समक्ष पैरवी करने को अधिकृत हो उसे एडवोकेट कहा गया।  इस कानून के पहले तक इस व्यवसाय को करने वालों को सामान्य रूप से वकील ही कहा जाता था।  वे लोग भी वकील कहे जाते थे जो बिना किसी विशिष्ठ शैक्षणिक प्रमाण पत्र या डिग्री के भी स्वयमेव अभ्यास से हासिल योग्यता के आधार पर पैरवी करने के लिए मान्यता हासिल कर लेते थे।  इस कानून के बनने के बाद बिना मानक शैक्षणिक योग्यता के पैरवी का अधिकार प्राप्त करना असंभव हो गया।

जब केवल मानक शैक्षणिक योग्यता वाले लोग ही वकील बनने लगे तो उन्हों ने खुद को पुराने अभ्यास के आधार पर वकील बने लोगों से खुद को अलग दिखाने के लिए खुद को एडवोकेट लिख कर प्रचारित करना प्रारंभ कर दिया जिस से वे ये दिखा सकें कि वे केवल अभ्यासी नहीं अपितु विधि स्नातक की योग्यता धारी वकील हैं।  जब अंग्रेजी शब्दों का हिन्दीकरण शुरू हुआ तो इस एडवोकेट शब्द का भी हिन्दीकरण आरंभ हो गया।  जो कहीं अभिभाषक हुआ तो कहीं अधिवक्ता हो गया।  इस का नतीजा यह हुआ कि यहाँ राजस्थान में हम एडवोकेट को अभिभाषक कहते हैं और बार ऐसोसिएशन अभिभाषक  परिषद लेकिन छत्तीसगढ़ में उसे हिन्दी में अधिवक्ता और अधिवक्ता संघ कहते हैं।  लेकिन यह लिखने भर को ही है।  एडवोकेट शब्द के लिए अब वकील शब्द ही सर्वाधिक उपयोग में लिया जाता है और वकीलों के संगठन के लिए बार एसोसिएशन शब्द।

शब्दों के उपयोग और उनके प्रचलन के अनेक आधार हैं।  यहाँ उन की चर्चा अप्रासंगिक होगी और उस का अधिकार केवल भाषा-शास्त्रियों को है, मुझे नहीं।  लेकिन शब्दों का उपयोग लोग अपनी सुविधा के अनुरूप करते हैं,  किसी कानून और कायदे से नहीं।  यही कारण है कि भाषाओं के विकास को कभी भी नियंत्रित किया जाना संभव नहीं हो सका है और न कभी हो पाएगा।  अंत में इतनी सी बात और कि कोई खुद को एडवोकेट, अभिभाषक, अधिवक्ता या वकील कुछ भी कहना-कहलाना पसंद करता हो लेकिन जब उस से पूछा जाता है कि वह क्या करता है तो वह यही कहता है,  जी, वकालत करता हूँ !

शुक्रवार, 2 जनवरी 2009

विराम चिन्हों पर फिर से एक विचार

अनवरत के आलेख अर्धविराम (;), अल्पविराम (,), प्रश्नवाचक चिन्ह(?) और संबोधन चिन्ह (!) कैसे लगाएँ? पर अनेक टिप्पणियाँ हुई।  एक अन्य ब्लाग पर एक आलेख में इस पर एक स्नेहासिक्त छेड़ छाड़ भी पढ़ने को मिली। वहाँ जो बात लपेट कर कही गई थी, उस पर मैं उतने ही आदर के साथ टिपिया कर आ गया हूँ।

बैरागी जी, इस मामले को यहीं न छोड़ने के लिए आदेश दिया था।  इसलिए फिर से एक संक्षिप्त बात यहाँ कर रहा हूँ।

मैं ने उस आलेख में जो भी कुछ लिखा था,  वह न तो व्याकरण से संबंध रखता था और न ही भाषा से। उस का संबंध विराम चिन्हों से भी नहीं था।  सभी भाषा को अपने हिसाब से सीखते हैं और अपने हिसाब से लिखते हैं। जो भी लिखता है उस का संबंध अपने लिखे से होता है।  लेखक का लेखन एक तरह से लेखक के व्यक्तित्व के एक पक्ष को सामने लाता है। यह प्रत्येक व्यक्ति की अपनी आजादी है कि वह किस तरह से स्वयं को और अपने विचारों को प्रकट करना चाहता है।  मेरे आलेख का आशय कतई यह नहीं था कि मैं किसी की अपनी आजादी में दखल देना चाहता हूँ,   या किसी की गलती की ओर उस का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। 

मेरा उस आलेख का मंतव्य मात्र इतना ही था कि विराम चिन्ह इस तरह लगें कि पूर्ण विराम वाक्य के अंत में इस तरह लगे कि उस का एक अभिन्न भाग बना रहे।  उस से अगले वाक्य का भाग न लगे। विशेष रुप से ऐसा तो कभी न हो कि वाक्य एक पंक्ति में समाप्त हो जाए और पूर्ण विराम अगली पंक्ति के आरंभ में लगा हो और अगला वाक्य वहाँ से आरंभ हो रहा हो।

कंप्यूटर पर आरंभ में जब मैं टाइपिस्ट से टाइप कराने लगा तभी यह समस्या सामने आई थी और तब हम ने उस का हल यही खोज निकाला था कि वाक्य के अंतिम शब्द और पूर्ण विराम के बीच कोई रिक्ती (स्पेस) न छोड़ी जाए।   हमने देखा कि बिना कोई स्पेस छोडे़ पूर्ण विराम लगाने के उपरांत एक रिक्ति (स्पेस) छोड़ कर अगला वाक्य प्रारंभ करने पर भी पूर्ण विराम बीच में मध्यस्थ की भांति खड़ा नजर आता है।  तो हमने पूर्ण विराम के उपरांत दो रिक्तियाँ (डबल स्पेस) छोड़ना आरंभ कर दिया।  इस से टाइपिंग की सुंदरता बढ़ गई और अपरूपता समाप्त हो गई। 

बाद में जब मैं ने कम्प्यूटर लिया और खुद टाइपिंग की जरूरत पड़ी तो मैं बाजार से टाइपिंग सिखाने वाली पुस्तक खरीद कर लाया, जो मनोज प्रकाशन मंदिर, 31/8, जागृति विहार, मेरठ द्वारा प्रकाशित है।  इस पुस्तक के टंकण गति प्राप्त करने के नियमों में पहला नियम यही है कि, "प्रत्येक विद्यार्थी को हिन्दी तथा अंग्रेजी टंकण में पूर्ण विराम, प्रश्नवाचक चिन्ह, विस्मय बोधक चिन्ह को शब्द के तुरंत बाद लगा कर दो स्पेस छोड़ना चाहिए, अन्यथा आधी गलती मानी जाएगी।"

मैं ने उक्त नियम का पालन किया, और कर रहा हूँ।  इस से सुन्दरता बढ़ी है और गति भी।   इस पुस्तक में और भी नियम दिए हैं. वे कभी बाद में, आज इतना ही बहुत है।  हाँ बेंगाणी जी ने कहा है कि वे पूर्ण विराम के स्थान पर अंग्रेजी में प्रयुक्त होने वाले बिंदु का प्रयोग करते हैं।  वह भी सही है क्यों कि कोई चालीस वर्ष पहले यह तय हुआ था कि विराम चिन्ह और अंक अंग्रेजी वाले ही प्रयोग किये जाएँ जिस से सभी भाषाओं में एक रूपता बनी रहे।  इस बहुत से प्रकाशनों ने अपनाया।  करीब चालीस वर्ष से तो टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशनों में सभी में इन का प्रयोग होता चला आ रहा है।  मुझे देवनागरी लिखते समय जिस में सभी अक्षर समान लंबाई के होते हैं पूर्ण विराम के स्थान बिंदु लगाना सौंदर्य की दृष्टि से ठीक नहीं लगा और मैं ने छोड़ दी गई खड़ी पाई को फिर से अपना लिया।  कम से कम वह बिना मात्रा के अक्षर के बराबर तो होती है। बिंदु तो नीचे की तरफ वाहन के टायर के नीचे लगाए गए ओट के पत्थर की तरह लगता है।  यह मेरी स्वयं की सौंदर्य दृष्टि के कारण ही है।  हालांकि मैं भी मानता हूँ कि बेंगाणी जी का सुझाव अधिक उत्तम है।  यदि देवनागरी लिखने वाले अधिकांश लेखक बिंदु को पूर्ण विराम की खड़ी पाई के स्थान पर अपना लें तो लिखने पढ़ने वालों की सौंदर्यदृष्टि भी बदलेगी और बिंदु भी सुंदर लगने लगेगा।