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सोमवार, 31 जुलाई 2017

साम्प्रदायिकता और संस्कृति

साम्प्रदायिकता और संस्कृति

प्रेमचन्द



'साम्प्रदायिकता और संस्कृति' प्रेमचंद का महत्वपूर्ण लेख है जिस में साम्प्रदायिकता के पाखंड को उजागर करते हुए बताया गया है कि संस्कृति और साम्प्रदायिकता का वही संबंध है जो सिंह और सिंह की खाल ओड़े गधे का होता है।


साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भाँति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गये हैं कि अब न कहीं हिन्दू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति। अब संसार में केवल एक संस्कृति है, और वह है आर्थिक संस्कृति मगर आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं। हालाँकि संस्कृति का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है। हिन्दू मूर्तिपूजक हैं, तो क्या मुसलमान क़ब्रपूजक और स्थान-पूजक नहीं है। ताजि़ये को शर्बत और शीरीनी कौन चढ़ाता है, मस्जिद को ख़ुदा का घर कौन समझता है। अगर मुसलमानों में एक सम्प्रदाय ऐसा है, जो बड़े से बड़े पैगम्बरों के सामने सिर झुकाना भी कुफ़्र समझता है, तो हिन्दुओं में भी एक ऐसा है जो देवताओं को पत्थर के टुकड़े और नदियों को पानी की धारा और धर्मग्रन्थों को गपोड़े समझता है। यहाँ तो हमें दोनों संस्कृतियों में कोई अन्तर नहीं दिखता।

तो क्या भाषा का अन्तर है? बिल्कुल नहीं। मुसलमान उर्दू को अपनी मिल्ली भाषा कह लें, मगर मद्रासी मुसलमान के लिए उर्दू वैसी ही अपरिचित वस्तु है, जैसे मद्रासी हिन्दू के लिए संस्कृत। हिन्दू या मुसलमान जिस प्रान्त में रहते हैं सर्वसाधारण की भाषा बोलते हैं, चाहे वह उर्दू हो या हिन्दी, बंग्ला हो या मराठी। बंगाली मुसलमान उसी तरह उर्दू नहीं बोल सकता और न समझ सकता है, जिस तरह बंगाली हिन्दू। दोनों एक ही भाषा बोलते हैं। सीमाप्रान्त का हिन्दू उसी तरह पश्तो बोलता है, जैसे वहाँ का मुसलमान।

फिर क्या पहनावे में अन्तर है? सीमाप्रान्त के हिन्दू और मुसलमान स्त्रियों की तरह कुरता और ओढ़नी पहनते-ओढ़ते हैं। हिन्दू पुरुष भी मुसलमानों की तरह कुलाह और पगड़ी बाँधता है। अक्सर दोनों ही दाढ़ी भी रखते हैं। बंगाल में जाइए, वहाँ हिन्दू और मुसलमान स्त्रियाँ दोनों ही साड़ी पहनती हैं, हिन्दू और मुसलमान पुरुष दोनों कुरता और धोती पहनते हैं, तहमद की प्रथा बहुत हाल में चली है, जब से साम्प्रदायिकता ने ज़ोर पकड़ा है।

खान-पान को लीजिए। अगर मुसलमान मांस खाते हैं, तो हिन्दू भी अस्सी फ़ीसदी मांस खाते हैं। ऊँचे दरजे के हिन्दू भी शराब पीते हैं, ऊँचे दरजे के मुसलमान भी। नीचे दरजे के हिन्दू भी शराब पीते है, नीचे दरजे के मुसलमान भी। मध्यवर्ग के हिन्दू या तो बहुत कम शराब पीते हैं, या भंग के गोले चढ़ाते हैं, जिसका नेता हमारा पण्डा-पुजारी क्लास है। मध्यवर्ग के मुसलमान भी बहुत कम शराब पीते है, हाँ कुछ लोग अफ़ीम की पीनक अवश्य लेते हैं, मगर इस पीनकबाज़ी में हिन्दू भाई मुसलमानों से पीछे नहीं है। हाँ, मुसलमान गाय की क़ुर्बानी करते हैं। और उनका मांस खाते हैं, लेकिन हिन्दुओं में भी ऐसी जातियाँ मौजूद हैं, जो गाय का मांस खाती हैं यहाँ तक कि मृतक मांस भी नहीं छोड़तीं, हालाँकि बधिक और मृतक मांस में विशेष अन्तर नहीं है। संसार में हिन्दू ही एक जाति है, जो गो-मांस को अखाद्य या अपवित्र समझती है। तो क्या इसलिए हिन्दुओं को समस्त विश्व से धर्म-संग्राम छेड़ देना चाहिए?

संगीत और चित्रकला भी संस्कृति का एक अंग है, लेकिन यहाँ भी हम कोई सांस्कृतिक भेद नहीं पाते। वही राग-रागनियाँ दोनों गाते हैं और मुग़लकाल की चित्रकला से भी हम परिचित हैं। नाट्य कला पहले मुसलमानों में न रही हो, लेकिन आज इस सींगे में भी हम मुसलमान को उसी तरह पाते हैं जैसे हिन्दुओं को।

फिर हमारी समझ में नहीं आता कि वह कौन सी संस्कृति है, जिसकी रक्षा के लिए साम्प्रदायिकता इतना ज़ोर बाँध रही है। वास्तव में संस्कृति की पुकार केवल ढोंग है, निरा पाखण्ड। शीतल छाया में बैठे विहार करते हैं। यह सीधे-सादे आदमियों को साम्प्रदायिकता की ओर घसीट लाने का केवल एक मन्त्र है और कुछ नहीं। हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति के रक्षक वही महानुभाव और वही समुदाय हैं, जिनको अपने ऊपर, अपने देशवासियों के ऊपर और सत्य के ऊपर कोई भरोसा नहीं, इसलिए अनन्त तक एक ऐसी शक्ति की ज़रूरत समझते हैं जो उनके झगड़ों में सरपंच का काम करती रहे।

इन संस्थाओं को जनता के सुख-दुख से कोई मतलब नहीं, उनके पास ऐसा कोई सामाजिक या राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है, जिसे राष्ट्र के सामने रख सकें। उनका काम केवल एक-दूसरे का विरोध करके सरकार के सामने फ़रियाद करना है। वे ओहदों और रियायतों के लिए एक-दूसरे से चढ़ा-ऊपरी करके जनता पर शासन करने में शासक के सहायक बनने के सिवा और कुछ नहीं करते।

मुसलमान अगर शासकों का दामन पकड़कर कुछ रियायतें पा गया है, तो हिन्दु क्यों न सरकार का दामन पकड़ें और क्यों न मुसलमानों की भाँति सुख़र्रू बन जायें। यही उनकी मनोवृत्ति है। कोई ऐसा काम सोच निकालना जिससे हिन्दू और मुसलमान दोनों एक राष्ट्र का उद्धार कर सकें, उनकी विचार-शक्ति से बाहर है। दोनों ही साम्प्रदायिक संस्थाएँ मध्यवर्ग के धनिकों, ज़मींदारों, ओहदेदारों और पदलोलुपों की हैं। उनका कार्यक्षेत्र अपने समुदाय के लिए ऐसे अवसर प्राप्त करना है, जिससे वह जनता पर शासन कर सकें, जनता पर आर्थिक और व्यावसायिक प्रभुत्व जमा सकें। साधारण जनता के सुख-दुख से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। अगर सरकार की किसी नीति से जनता को कुछ लाभ होने की आशा है और इन समुदायों को कुछ क्षति पहुँचने का भय है, तो वे तुरन्त उसका विरोध करने को तैयार हो जायेंगे। अगर और ज़्यादा गहराई तक जायें तो हमें इन संस्थाओं में अधिकांश ऐसे सज्जन मिलेंगे जिनका कोई न कोई निजी हित लगा हुआ है। और कुछ न सही तो हुक्काम के बंगलों पर उनकी रसोई ही सरल हो जाती है। एक विचित्र बात है कि इन सज्जनों की अफ़सरों की निगाह में बड़ी इज़्ज़त है, इनकी वे बड़ी ख़ातिर करते हैं।

इसका कारण इसके सिवा और क्या है कि वे समझते हैं, ऐसों पर ही उनका प्रभुत्व टिका हुआ है। आपस में ख़ूब लड़े जाओ, ख़ूब एक-दूसरे को नुक़सान पहुँचाये जाओ। उनके पास फ़रियाद लिये जाओ, फिर उन्हें किसका नाम है, वे अमर हैं। मज़ा यह है कि बाज़ों ने यह पाखण्ड फैलाना भी शुरू कर दिया है कि हिन्दू अपने बूते पर स्वराज प्राप्त कर सकते है। इतिहास से उसके उदाहरण भी दिये जाते हैं। इस तरह की ग़लतफ़हमियाँ फैला कर इसके सिवा कि मुसलमानों में और ज़्यादा बदगुमानी फैले और कोई नतीजा नहीं निकल सकता। अगर कोई ज़माना था, तो कोई ऐसा काल भी था, जब हिन्दुओं के ज़माने में मुसलमानों ने अपना साम्राज्य स्थापित किया था, उन ज़मानों को भूल जाइए। वह मुबारक़ दिन होगा, जब हमारे शालाओं में इतिहास उठा दिया जायेगा। यह ज़माना साम्प्रदायिक अभ्युदय का नहीं है। यह आर्थिक युग है और आज वही नीति सफल होगी जिससे जनता अपनी आर्थिक समस्याओं को हल कर सके जिससे यह अन्धविश्वास, यह धर्म के नाम पर किया गया पाखण्ड, यह नीति के नाम पर ग़रीबों को दुहने की कृपा मिटाई जा सके। जनता को आज संस्कृतियों की रक्षा करने का न अवकाश है न ज़रूरत। ‘संस्कृति’ अमीरों, पेटभरों का बेफि़क्रों का व्यसन है। दरिद्रों के लिए प्राणरक्षा ही सबसे बड़ी समस्या है।

उस संस्कृति में था ही क्या, जिसकी वे रक्षा करें। जब जनता मूर्छित थी तब उस पर धर्म और संस्कृति का मोह छाया हुआ था। ज्यों-ज्यों उसकी चेतना जागृत होती जाती है, वह देखने लगी है कि यह संस्कृति केवल लुटेरों की संस्कृति थी जो, राजा बनकर, विद्वान बनकर, जगत सेठ बनकर जनता को लूटती थी। उसे आज अपने जीवन की रक्षा की ज़्यादा चिन्ता है, जो संस्कृति की रक्षा से कहीं आवश्यक है। उस पुरान संस्कृति में उसके लिए मोह का कोई कारण नहीं है। और साम्प्रदायिकता उसकी आर्थिक समस्याओं की तरफ़ से आँखें बन्द किये हुए ऐसे कार्यक्रम पर चल रही है, जिससे उसकी पराधीनता चिरस्थायी बनी रहेगी।

शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

26:10 की धनतेरस


ज सुबह सो कर उठा तब तक उत्तमार्ध सारे घर की धुलाई कर चुकी थी, बस अंतिम चरण चल रहा था। कहने लगीं –कार घर से बाहर निकाल दो तो वहाँ भी धुलाई हो जाए। मैं कार को घर के बाहर खड़ी कर वापस घर में घुसा ही था कि दूध वाला दूध देने आ गया। मुझे गीले फर्श पर चल कर दूध लेने जाना पड़ता इसलिए बरतन उत्तमार्ध ने ले लिया। वह किचन तक पहुँचती कि ढोल वाला आ कर दरवाजे के बाहर आ कर ढोल बजाने लगा। यह आज के दिन का आरंभ था। आज धनतेरस है न, तो अखबार और दिनों से दुगना भारी है। 16 के स्थान पर 36 पृष्ठ, बीस पृष्ठ की रद्दी बेशी। लेकिन उन में से 23 के प्रत्यक्ष विज्ञापन हैं, बचे 13, उन में से भी तीन पृष्ठ की सामग्री केवल विक्रेताओं के लिए ग्राहकों को लुभाने वाली है। सीधा सीधा गणित है 26:10 के अनुपात का। यानी 10 का माल 36 में बेचो 26 का मुनाफा कमाओ। ऐसा सब के साथ हो जाए तो दुनिया की धनतेरस चंगी हो जाए। पर ऐसा होता नहीं है। जब 36 में 10 का माल मिलेगा तो सीधे-सीधे खरीददार को 72.22 परसेंट का नुकसान तो होना ही होना है। तैयार हो कर घर से निकलने लगे तो उत्तमार्ध जी ने पूछा –आज क्या खरीदोगे? मैं ने उन्हें ऊपर वाला गणित समझाया और कहा कि यदि धनतेरस करनी है तो आज बाजार से कुछ मत खरीदो। वर्ना दीवाली वाले दिन लक्ष्मी जी घर के बाहर से मुस्कुरा कर निकल जाएंगी। कहेंगी साल में जब वाहन बदलना होगा तो इस घर को याद रखेंगे।

र उन्हें इस तरह टालना संभव नहीं था। आठ बरस से जो मेरे दफ्तर में बैठने की टीकवुड की जो कुर्सी अपनी सेवाएँ दे रही थी, दो माह पहले उस की एक कील निकल गई थी, वह भी इस तरह कि वर्कशॉप जाए बिना उस का दुरुस्त होना संभव नहीं था। दूसरी साइड की कील आखिर कब तक अकेले दबाव बर्दाश्त करती दो दिन पहले वह भी निकल गई। दीवाली सिर पर थी, न तो कोई बढ़ई उसे दुरुस्त करने घर आने को तैयार था और न ही किसी वर्कशॉप को इतनी फुरसत की ये अड़गम-बड़गम काम करे। सब के सब दीवाली पर ग्राहकों को चेपे जाने वाले माल पर रंगरोगन में लगे थे। मैं भी उस बीमार कुर्सी को इस्तेमाल करता रहा। नतीजा ये हुआ कि परसों रात को जब मैं प्रिंटर में कागज लोड करने को एक तरफ झुका तो कुर्सी टू-पीस हो गई। उस ने मुजे जमीन पर ला दिया। आखिर उस वीआईपी कुर्सी के ध्वंसावशेषों को दफ्तर से हटाना पड़ा और एक विजिटर कुर्सी को अपने लिए रखना पड़ा। मैं ने उत्तमार्ध को बोला –कल बाजार में कुर्सियाँ देख कर आया हूँ, पर लाया नहीं। आज ले आउंगा। जरूरत भी पूरी हो जाएगी और धनतेरस का शगुन भी हो जाएगा। उत्तमार्ध के माथे पर पड़ रही सिलवटें कुछ कम हो गईं। मुझे भी चैन आ गया कि अब कम से कम घर में गड़बड़ होने की कोई संभावना नहीं है।

दालत जाते हुए बाबूलाल की दुकान पर पान खाने रुका तो मुझे देखते ही उस ने धनतेरस की शुभकामनाएँ ठोक मारीं। अब जवाब देना तो बनता था न। तो उत्तर में उसे कहा –बाबूलाल जी अपनी काहे की धनतेरस, धनतेरस तो बाजार की है। धनतेरस तो उन की है जो दुकाने सजाए बैठे हैं। मैं ने बाबूलाल को अखबार वाले का 26:10 के अनुपात का गणित समझाया। तब तक वह ‘हूँ कारे’ देता रहा। जब भी वह हूँ कारा देता मुझे, मोदी की पटना रैली याद आ जाती। मैं ने बाबूलाल जी को बोला –भाई¡ अपनी तो पूरे साल 365 दिन चौबीसों घंटे आप के लिए यही शुभकामनाएँ हैं कि आप की दुकान भन्नाट चलती रहे। आप को भी दाल-रोटी, खीर-पूरी मिलती रहे और हमें भी क्वालिटी वाला पान मिलता रहे। वर्ना आज कल तो पान की दुकानें महज गुटकों की दूकानें बन कर रह गई हैं। तब तक एक और ग्राहक जो अब तक अखबार में चेहरा छुपाए हुए था बोल पड़ा –वकील साहब, आप ठीक कह रहे हो। 23 तेईस पेज का मतलब तेईस लाख का धंधा तो अखबार वाले ने कर ही लिया है। मैं चौंका, ये मुझ से बड़ी गणित वाला कौन पान का ग्राहक निकल आया? पता किया तो वह इंटरनेशनल कूरियर वाला था।

दालत पहुँचा तो देखा जहाँ पार्किंग के लिए जगह तलाशनी पड़ती थी, वहाँ आज मैदान खाली है, कार कहीं पार्क कर दो। अपनी बैठने की जगह जा कर पता लगा कि बार एसोसिएशन ने आज धनतेरस के त्यौहार के कारण काम बंद कर दिया है। एक मुवक्किल से फीस आने की उम्मीद थी, उस के बारे में पूछा तो मुंशी जी ने बताया कि वह तो तारीख ले कर चला गया। अब अपनी धनतेरस की कमाई वाली रही सही उम्मीद भी जाती रही। मैं ने मुंशी जी को बोला बाकी के मुकदमों भी तारीख ही बदलनी है तो बदलवा दो तो वापस घर चलें।  कुल मिला कर एक घंटे में काम निपट गया। वापसी में दो दिन पहले मिला फीस का एक चैक बैंक में जमा करवा कर अपनी धनतेरस का शगुन किया। एक परिचित फर्नीचर वाले के यहाँ से नई कुर्सी खऱीद कर कार में रखवाई। कल पूछताझ करने का लाभ ये रहा कि परिचित ने कुर्सी की कीमत सौ रुपए कम ली।

ब दोपहर बाद से घर पर हूँ। अदालत से पेशी ले कर खिसक जाने वाले मुवक्किल का फोन आया था। मैं ने उसे उलाहना दिया –बिना हमारी धनतेरस कराए निकल लिए। वह मेरी बात पर बहुत हँसा। बिजली वाला कल शाम छत की मुंडेरों पर रोशनियाँ लगा गया था। उन्हें चैक कर आया हूँ। सात सिरीजें लगा गया है कुल 340 बल्ब हैं। मैं हिसाब लगा रहा हूँ कि वह कितने का बिल देगा। दीवाली पर बच्चों को इस बार छुट्टियाँ नहीं मिली हैं। शनिवार-रविवार की छुट्टियों में दीवाली निकल ली है। नौकरियों वालों कि इस साल ज्यादातर छुट्टियाँ शनिवार-रविवार खा गए। सब दुखी हैं, कहते हैं ये साल एम्प्लाइज का नहीं एम्प्लायरों का निकला। फिर भी बच्चे अपनी सीएल, ईएल ले कर दो-चार रोज के लिए घर आ रहे हैं। जो ठीक दीवाली के दिन सुबह पहुँचेंगे। असली दीवाली तो तभी शुरु होगी जब वे घर पहुँच लेंगे। शाम होने को है। उत्तमार्ध जी धनतेरस पर हरी साग के लिए बाहर बैठी मैथी साफ कर रही थी, अब उसे ले कर रसोई में जा चुकी हैं। मैं डर रहा हूँ कि वे जल्दी रसोई से छूट गई तो फिर से धनतेरस पर कुछ खरीदने की बात उन्हें याद न आ आ जाए। अब तो 26:10 के अनुपात का किस्सा भी उन पर कोई असर न करेगा।

शनिवार, 10 सितंबर 2011

समृद्धि और संयुक्त परिवार की संपत्ति में अधिकारों का दस्तावेज - रोट अनुष्ठान

'रोट', यह शब्द रोटी का पुल्लिंग है। यह विवाद का विषय हो सकता है कि रोटी पहले अस्तित्व में आई अथवा रोट। दोनों आटे से बनाए जाने वाले खाद्य पदार्थ हैं। रोटी जहाँ रोजमर्रा के उपयोग की वस्तु है और कोई भी व्यक्ति एक बार में एक से अधिक रोटियाँ खा सकता है। वहीं एक रोट एक साथ कई व्यक्तियों की भूख मिटा सकता है। रोटी जहाँ उत्तर भारतियों के नित्य भोजन का अहम् हिस्सा है और उस के बिना उन के किसी भोजन की कल्पना नहीं की जा सकती। भोजन में सब कुछ हो पर रोटी न हो तो क्षमता से अधिक खा चुकने पर भी उत्तर भारतीय व्यक्ति स्वयं को भूखा महसूस करता है। लेकिन रोट वे तो जिन परिवारों में बनते हैं वर्ष में एक ही दिन बनते हैं ओर जिन्हें पूरा परिवार पूरे अनुष्ठान और आदर के साथ ग्रहण करता है। यह रोट अनुष्ठान खेती के आविष्कार से संबद्ध इस पखवाड़े का अहम् हिस्सा है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों में यह अभी तक हिन्दू व जैन परिवारों में प्रचलित है। इस विषय पर मैं मैं तीन चिट्ठियाँ गणपति का आगमन और रोठ पूजा, सब से प्राचीन परंपरा, रोट पूजा, ऐसे हुई और समृद्धि घर ले आई गई मैं अनवरत पर लिख चुका हूँ। इस अनुष्ठान को जानने की जिज्ञासा रखने वालों को ये तीनों पोस्टें अवश्य पढ़नी चाहिए।
कुल देवता (नाग) के लिए बना लगभग चौदह इंच व्यास और सवा इंच मोटाई का रोट
रोट अनुष्ठान भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी से आरंभ हो कर भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तक चलता है। हर परिवार या समूह के लिए इन सोलह दिनों में से एक दिन निर्धारित है। हर परिवार इस दिन अपने कुल देवता या देवी या टोटेम की पूजा करता है और रोट बना कर उन्हें भेंट करता है। हर परिवार की पद्धति में कुछ भिन्नता है। लेकिन मूल तत्व एक जैसे हैं। स्त्रियाँ इस अनुष्ठान का आरंभ करती हैं। वे अनुष्ठान के दिन से एक दिन पहले ही पूरे घर की सफाई कर चुकी होती हैं। रोट बनाने के लिए अनाज (गेहूँ) को साफ कर उन की धुलाई कर सुखा लिया जाता है। फिर वे ही घर पर उस की पिसाई करती हैं। आटा मोटा पीसा जाता है। आज कल घरों पर चक्कियाँ नहीं रह गई हैं। इस कारण से बाजार की चक्की पर इसे पिसा लिया जाता है। चक्की वाला उस के लिए एक दिन निर्धारित कर अपने ग्राहकों को सूचित कर देता है। उस दिन के पहले की रात को चक्की धो कर साफ कर ली जाती है और उस दिन उस पर केवल रोट का ही आटा पीसा जाता है। सुबह सुबह रसोई और बरतनों को साफ कर स्त्रियाँ पूजा करती हैं और रोट के आटे की निश्चित मात्रा ले कर उन के निर्माण का संकल्प करती हैं। मसलन मेरे यहाँ सवा किलो आटा कुलदेवता के लिए, सवा किलो आटा प्रत्येक सुहागिन स्त्री के लिए, सवा किलो उस के पति के लिए और सवा किलो परिवार की बहनों और बेटियों के लिए संकल्पित किया जाता है। 

शोभा रोट बनाते हुए, प्रत्येए लोए से एक रोट बनना है।
 संकल्पित आटे की मात्रा का यह अनुपात मुझे प्राचीन काल में संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में उस के सदस्यों की सहभागिता के अनुरूप मालूम होता है। इस से यह अनुमान किया जा सकता है कि परिवार की संयुक्त संपत्ति में परिवार के प्रत्येक विवाहित पुरुष के का एक भाग, उस की पत्नी का एक भाग और विवाहित और अविवाहित बहनों-बेटियों का कुल मिला कर एक भाग तथा कुल देवता के लिए एक भाग जिस पर परिवार के पुरुषों का संयुक्त अधिकार है। उस का उपभोग करने के भी नियम हैं। कुलदेवता के लिए संकल्पित आटे का एक ही बड़ा मोटा रोट बनाया जाता है। इस का उपभोग परिवार के वे पुरुष ही कर सकते हैं जो किसी एक पूर्वज के पुरुष वंशज हैं। उन के अतिरिक्त कोई भी उन का उपभोग नहीं कर सकता। विवाहित स्त्री-पुरुष का के दो भाग परिवार का कोई भी सदस्य उपभोग कर सकता है। लेकिन बहिन-बेटियों के हिस्से के एक भाग को केवल बहन-बेटियाँ ही उपभोग कर सकती हैं, परिवार का कोई पुरुष या उस की पत्नी नहीं।

रोट बेल दिया गया है, और मिट्टी के तवे (पोवणी/उन्हाळा) पर सेके जाने के लिए तैयार है
नुष्ठान के दिन केवल रोट और खीर ही बनाई जाती है, कुछ परिवारों में कोई खास सब्जी भी बनाई जाती है। खाद्य तैयार हो जाने पर परिवार के पुरुष कुल देवी या कुल देवता या टोटेम की पूजा करते हैं। कुछ परिवारों में यह पूजा भी स्त्रियाँ ही करती हैं। फिर परिवार के सभी सदस्य समृद्धि की कामना के साथ पूज्य का स्मरण कर भोजन ग्रहण करते हैं। गणेश चतुर्थी के दूसरे दिन 2 सितम्बर को मेरे यहाँ यह अनुष्ठान हुआ। पूरा दिन इसी में निकल गया। बच्चे भी उसी में व्यस्त रहे। तीन वर्ष पूर्व मेरी पोस्टों पर यह आग्रह हुआ था कि रोट के चित्र भी अवश्य प्रस्तुत करने चाहिए थे। वे चित्र इस बार मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ।

दायीं और उलटे रखे गए मिट्टी के तवे (पोवणी/उन्हाळा) पर सिकता रोट





एक तरफ से पोवणी पर सिक जाने के बाद अब इसे ओवन में सेका जाएगा
अब एक ओवन में है और दूसरा पोवणी पर सेका जा रहा है
कोयले को दूध में बुझा कर घिस कर बनाई गई स्याही से दीवार पर पूजा के लिए बनाया गया कुल देवता (टोटेम-नाग) का चित्र, सामने रखे रोट और खीर, दो रोटों पर दीपक जल रहे हैं।



पत्नी/पति के भाग का रोट

बहन-बेटियों के भाग का रोट

पत्नी शोभा जिस ने कुल परंपरा को सहेजने और उस की निरंतरता बनाए रखने का दायित्व वैवाहिक जीवन के 36 वें वर्ष में भी निभाया







देवी पूजा और गणपति

वैसे तो यह पूरा पखवाड़ा कृषि उपज और समृद्धि से संबंध रखने वाले त्यौहारों का है, जिन के मनाए जाने वाले उत्सवों में मनुष्य के आदिम जीवन से ले कर आज तक के विकास की स्मृतियाँ मौजूद हैं। बेटी-बेटा पूर्वा-वैभव दोनों ईद के दिन ही पहुँचे थे। सारे देश के मुसलमान उस दिन भाईचारे, सद्भाव और खुशियों का त्योहार ईद मना रहे थे तो उसी दिन देश की स्त्रियों का एक बड़ा हिस्सा हरतालिका तीज का व्रत रखे था जिस में पति के दीर्घायु होने की कामना से देवी माँ की उपासना की जाती है। हाडौती अंचल में इस दिन अनेक परिवार रक्षाबंधन भी मनाते हैं। कहा जाता है कि जिन परिवारों में भूतकाल में राखी के दिन किसी का देहान्त हो गया हो वे परिवार श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन को अशुभ मानते हुए हरतालिका तीज को रक्षाबंधन मनाते हैं। मेरे ससुराल में रक्षाबंधन इसी दिन मनाया जाता है। दोनों बहिन-भाई रक्षाबंधन पर नहीं मिल पाये थे और उस के बाद इसी दिन आपस में मिल रहे थे। मेरे साले का पुत्र भी कोटा में ही अध्ययन कर रहा है, उस के लिए तो वह राखी का ही दिन था वह भी आ गया और हमारे घर पूरे दिन रक्षाबंधन की धूम रही। ईद के दिन मैं अपने मित्रों से ईद मिलने जाता हूँ, लेकिन उस दिन घर में ही मंगल होने से नहीं जा सका। 

गला दिन गणेश चतुर्थी का था। वे समृद्धि के देवता कहे जाते हैं। समृद्धि के साथ स्त्रियों का अभिन्न संबंध रहा है। जब तक मनुष्य अपने विकास क्रम में संपत्ति संग्रह करने की अवस्था तक नहीं पहुँच गया था, तब तक समृद्धि का अर्थ केवल और केवल मात्र एक नए सदस्य का जन्म ही था। एक नए सदस्य को केवल स्त्री ही जन्म दे सकती थी। वनोपज के संग्रह काल में वनोपज को संग्रह करने का काम भी स्त्रियाँ ही किया करती थीं। पौधों के जीवनचक्र को उन्हों ने नजदीक से देखा था, जिस का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ था कि उन्हों ने ही सब से पहले कृषि का आरंभ किया था। वर्षाकाल के आरंभ में बोये गये बीजों से पौधों का भूमि से ऊपर निकल आना और वर्षा ऋतु के उतार पर उन में फूलों और फलों का निकल आना निश्चय ही समृद्धि का द्योतक था। ऐसे काल में समृद्धि के लिए किसी नारी देवता का अनुष्ठान एक स्वाभाविक बात थी। लेकिन हरतालिका तीज पर देवी पूजा के अगले ही दिन एक पुरुष देवता गणपति की पूजा करना कुछ अस्वाभाविक सा लगता है। लेकिन यदि हम ध्यान से अध्ययन करें तो पाएंगे कि गणपति वास्तव में पुरुष कम और स्त्री देवता अधिक है। (इस संबंध में आप अनवरत के पुरालेख गणेशोत्सव और समृद्धि की कामना और क्या कहता है गणपति का सिंदूरी रंग और उन की स्त्री-रूप प्रतिमाएँ? अवश्य पढ़ें।)

च्चे सुबह से ही कह रहे थे कि मम्मी इस साल गणपति घर ला कर बिठाने वाली है। मेरी उत्तमार्ध शोभा ने मुझ से इस का उल्लेख बिलकुल नहीं किया था। लेकिन मैं ने इस काम में कोई दखल दिया। सोचता रहा कि लाए जाएंगे तब देखा जाएगा। पर दुपहर तक का समय बच्चों से बतियाते ही गुजर गया। गणेश चतुर्थी से अगला दिन ऋषिपंचमी का है, और उस दिन मेरे यहाँ रोट बनते हैं। यह अनुष्ठान भी खेती और उस की उपज से उत्पन्न समृद्धि की कामना से जुड़ा है। इस दिन खीर बनती है। घर में चार सदस्य थे, इस कारण से कम से कम तीन किलो दूध की खीर तो बननी ही थी और दूध की व्यवस्था करनी थी। शाम को शोभा और मैं दोनों गूजर के यहाँ जा कर सामने निकाला हुआ भैंस का तीन किलो दूध ले आए और तीन किलो सुबह लेने की बात कह आए। जब वापस लौट रहे थे तो मार्ग में मूर्तिकार के यहाँ से गणपति की प्रतिमाएँ लाने वाले गणेश मंडलों के जलूस मिले। तब मैं ने शोभा से पूछा तो उस ने बताया कि उस की गणपति लाने की कोई योजना नहीं थी और वह वैसे ही बच्चों से बतिया रही थी। (रोट के बारे में कल चित्रों सहित ...)

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

नैण क्यूँ जळे रे म्हारो हिवड़ो बळे

ब के ताँई बड़ी सँकराँत को राम राम!
खत खड़ताँ देर न्हँ लागे। दन-दन करताँ बरस खड़ग्यो, अर आज फेरूँ सँकराँत आगी। पाछले बरस आप के ताँईं दा भाई! दुर्गादान जी को हाडौती को गीत 'बेटी' पढ़ायो छो। आप सब की य्हा क्हेण छी कै ईं को हिन्दी अनुवाद भी आप के पढ़बा के कारणे अनवरत पे लायो जावे। भाई महेन्द्र 'नेह' ने घणी कोसिस भी करी, पण सतूनों ई न्ह बेठ्यो। आखर म्हें व्हानें क्हे दी कै, ईं गीत को हिन्दी अनुवाद कर सके तो केवल दुर्गादान जी ही करै। न्हँ तो ईं गीत की आत्मा गीत म्हँ ही रे जावे, अनुवाद म्हँ न आ सके। म्हारी कोसिस छे, कै दुर्गादान जी गीत 'बेटी' को हिन्दी अनुवाद कर दे। जश्याँ ई अनुवाद म्हारे ताईँ हासिल होवेगो आप की सेवा में जरूर हाजर करुंगो। 
ज दँन मैं शायर अर ‘विकल्प’ जन सांस्कृतिक मंच का सचिव शकूर अनवर का घर 'शमीम मंजिल' पे ‘सृजन सद्भावना समारोह 2011’ छै। आज का ईं जलसा म्हँ हाडौती का सिरमौर गीतकार रघुराज सिंह जी हाड़ा को सम्मान होवेगो। ईं बखत म्हारी मंशा तो या छी कै व्हाँ को कोई रसीलो गीत आप की नजर करतो। पण म्हारे पास मौजूद व्हाँ की गीताँ की पुस्तक म्हारा पुस्तकालय में न मल पायी। पण आज तो सँकरात छे, आप के ताँईं हाडौती बोली को रसास्वादन कराबा बनाँ क्श्याँ रेह सकूँ छूँ। तो, आज फेरूँ दा भाई दुर्गादान जी को सब सूँ लोकप्रिय गीत ' नैण क्यूँ जळे रे ...' नजर करूँ छूँ ........

'हाडौती गीत' 

नैण क्यूँ जळे
  • दुर्गादान सिंह गौड़
नैण क्यूँ जळे रे म्हारो हिवड़ो बळे
धरती थारा जाया लाल भूखाँ क्यूँ मरे 
गोरा गोरा गालाँ पै ये आँसू क्यूँ ढळे? 


याँ काँपता होठाँ की थैं कहाण्याँ तो सुणो
याँ खेत गोदता हाथाँ की लकीराँ तो गणो
लगलगतो स्यालूडो़ काँईं रूहणी तपतो जेठ 
मेहनत करताँ भुजबल थाक्या तो भी भूखो पेट

कोई पाणत करे रे कोई खेताँ नें हळे
धरती थारा जाया लाल भूखाँ क्यूँ मरे 
गोरा गोरा गालाँ पै ........

रामराज माँही आधी छाया आधी धूप
पसीना म्हँ बह-बह जावे चम्पा बरण्यो रूप
ओ मुकराणा सो डील गोरी को मोळ मोळ जाय
बळता टीबा गोरी पगथळियाँ छाला पड़ पड़ जाय

झीणी चूँदड़ी गळे रे य्हाँ की उमर ढळे 
धरती थारा जाया लाल भूखाँ क्यूँ मरे 
गोरा गोरा गालाँ पै ........


अब के बेटी परणाँ द्यूंगो आबा दे बैसाख
ज्वार-बाजरा दूँणा होसी नपै आपणी साख
पण पड़्या मावठी दूंगड़ा रे फसलाँ सारी गळगी
दन-दन खड़ताँ पूतड़ी की धोळी मींड्याँ पड़गी

तकदीराँ की मारी उबी नीमड़ी तळे
धरती थारा जाया लाल भूखाँ क्यूँ मरे 
गोरा गोरा गालाँ पै ........

मत बिळखे मत तड़पे कान्ह  कुँवर सा पूत
मत रबड़े रीती छात्याँ नें कोनें य्हाँ में दूध
मती झाँक महलाँ आड़ी वे परमेसर का बेटा
वे खावैगा दाख-छुहारा, थैं जीज्यो भूखाँ पेटाँ

रहतो आयो अन्धारो छै दीप के तळे
धरती थारा जाया लाल भूखाँ क्यूँ मरे 
गोरा गोरा गालाँ पै ........
स गीत में दुर्गादान जी ने इस वर्गीय समाज के एक साधारण किसान परिवार की व्यथा को सामने रखा है। वह कड़ाके की शीत  रात्रियों में और जेठ की तपती धूप में अपने शरीर को खेतों में गलाता है। उस का मासूम शिशु फिर भी भूख से तड़पता रहता है और शिशु की माता के गालों पर उस की इस दशा को देख आँसू टपकते रहते हैं। साथ में श्रम करते हुए सुंदर पुत्री का रूप पसीने बहता रहता है और गर्म रेत पर चलने से पैरों के तलवों में छाले पड़ जाते हैं वह सोचता है कि अब की बार फसल अच्छी हो तो वह बेटी का ब्याह कर देगा। लेकिन तभी मावठ में ओले गिरते हैं और फसल नष्ट हो जाती है। घर में खाने को भी लाले पड़ जाते हैं। वैसे में बच्चे जब जमींदार और साहुकारों के घरों की ओर आशा से देखते हैं तो किसान उन को कहता है कि वे तो परमेश्वर के बेटे हैं जिन का भाग्य दीपक जैसा है और हम उस के तले में अंधेरा काट रहे हैं।

अंत में फिर से सभी को मकर संक्रान्ति का नमस्कार!

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

'विकल्प' सृजन सम्मान 2011 वरिष्ठ साहित्यकार रघुराज सिंह हाड़ा को

दैनिक भास्कर के कोटा संस्करण में आज यह खबर छपी है -
वरिष्ठ साहित्यकार रघुराजसिंह हाड़ा होंगे सम्मानित 
‘विकल्प’ जन सांस्कृतिक मंच की ओर से नववर्ष एवं मकर संक्रांति के अवसर पर 14 जनवरी को दोपहर 1:30 बजे श्रीपुरा स्थित शमीम मंजिल पर ‘सृजन सद्भावना समारोह 2011’ का आयोजन होगा। विकल्प के सचिव शकूर अनवर ने बताया कि इस वर्ष विकल्प का सृजन सम्मान वरिष्ठ साहित्यकार रघुराजसिंह हाड़ा (झालावाड़) को दिया जाएगा। समारोह के मुख्य अतिथि कवि बशीर अहमद मयूख होंगे। अध्यक्षता अंबिकादत्त, प्रो. हितेश व्यास एवं रोशन कोटवी करेंगे। विशिष्ठ अतिथि मेजर डीएन शर्मा ‘फजा’, प्रो. एहतेशाम अख्तर, निर्मल पांडेय, दुर्गाशंकर गहलोत, टी विजय कुमार व रिजवानुद्दीन होंगे। सम्मान समारोह के बाद वृहद काव्य गोष्ठी का आयोजन होगा, जिसमें हाड़ौती अंचल के प्रमुख कवि एवं शायरों का काव्यपाठ होगा। संचालन चांद शेरी एवं हलीम आईना करेंगे। सृजन सम्मान वाचन कृष्णा कुमारी करेंगी तथा सद्भावना वक्तव्य अरुण सेदवाल देंगे।
जी, हाँ! हर मकर संक्रांति पर शकूर 'अनवर' के घर 'शमीम मंजिल' पर एक हंगामा समारोह होता है। शांति के प्रतीक श्वेत कपोतों की उड़ानें, फिर आसमान में इधर-उधर गोते खाती, पेंच लड़ाती पतंगों में शामिल होती शमीम मंजिल की पतंगें, गुड़-तिल्ली की मिठाइयाँ और चावल-दाल की खिचड़ी, हाड़ौती अंचल के किसी कवि-साहित्यकार का सम्मान और काव्यगोष्टी। पिछले वर्ष के इस हंगामा समारोह के चित्र और रिपोर्ट यहाँ मौजूद हैं।
यह चित्र पिछले साल के समारोह का है, जिस में दिखाई दे रहे हैं शकूर 'अनवर', महेन्द्र 'नेह',बशीर अहमद मयूख श्रीमती लता, ऐहतेशाम अख़्तर और चांद शेरी डॉ. कमर जहाँ बेगम का शॉल ओढ़ा कर सम्मान करते हुए। इस में मैं भी हूँ जनाब अब इसे पहेली समझते हुए बताइए कि कहाँ हूँ, पहेली का जवाब इस साल के समारोह की रिपोर्ट में देखियेगा।
ब आप सोच रहे होंगे कि ऊपर वाली खबर में भी दिनेशराय द्विवेदी तो कहीं हैं ही नहीं। तो भाई, इस खबर में सिर्फ कवियों के नाम छपे हैं। बाकी सारे काम तो अपने ही जिम्मे हैं, जैसे पतंग उड़ाना, तिल्ली-गुड़ के लड्डू और खिचड़ी उदरस्थ करना और फोटो उतारना। आ सकें, तो आप भी आएँ, यह एक आनंदपूर्ण दिन होगा।

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

जन्माष्टमी दो दिन क्यों? जानें, चंद्रकलाएँ , तिथि, दिनमान और रात्रिमान .........

ल यह तलाशते हुए कि जन्माष्टमी आखिर दो क्यों? हम चांद्रमासों को जानने लगे थे। हम ने जितने भी चांद्र मासों को जाना उन सब का कोई न कोई वैज्ञानिक आधार था। लेकिन आम लोगों के लिए तो इन सब तरह के चांद्रमासों को जानना आसान नहीं है। वे तो चंद्रमा को पूर्ण होता हुआ, फिर उसे घटता और गायब होता हुआ और फिर नये चंद्रमा को देखते हैं। सदियों से चंद्र-कलाओं से  ही वे अपने रोजमर्रा के कामों और आध्यात्मिक जीवन को जोड़ते आए हैं। चंद्र और उस की कलाएँ आम जनजीवन से अभिन्न रूप से जुड़ी हैं। यही कारण है कि साइनोडिक या संयुति मास ही दुनिया भर में सर्वाधिक लोकप्रिय है। इस मास की अवधि 29.53059 दिनों की है। इसी कारण से इसे पूर्ण संख्या में तीस दिनों का मान लिया गया है। लेकिन एक मास तीस दिनों का होने पर अगला मास ही उन्तीस दिनों का हो जाता है। भारतीय पद्धति में इसी कारण चंद्रमा की तीस कलाओं की कल्पना की गई है। ये तीस कलाएँ चंद्रमा के दृष्य आकार को प्रकट करती हैं। चंद्रमा की कक्षा दीर्घवृत्ताकार होने से एक एक कला की अवधि में भिन्नता होती है। इस का कारण कभी चंद्रमा पृथ्वी से दूर होना और कभी पास होना है। प्रत्येक कला के आरंभ और समाप्त होने की अवधि को एक तिथि माना है। नीचे के चित्र में चंद्रमा की 29 कलाएँ देखी जा सकती हैं। इस में से तीसवीं कला गायब है यह वह कला है जिसे हम अमावस्या कहते हैं और इस दिन चंद्रमा दिखाई नहीं देता है।5
ये कलाएँ अमावस्या के बाद की प्रतिपदा से आरंभ हो कर अमावस तक की हैं। यदि हम देखें तो शुक्ल प्रतिपदा और कृष्ण चतुर्दशी की कलाएँ एक समान हैं। इस तरह चौदह कलाएँ एक जैसी हैं और दो कलाएँ पूर्णिमा और अमावस की मिला कर कुल सोलह कलाएँ हैं। यहीं से सोलह कलाएँ जानने वाले को संपूर्ण व्यक्ति माना जाने लगा है। खैर, एक कला में चंद्रमा जितनी देर रहता है वह एक तिथि हुई। अब यह कला दिवस के किसी भी भाग से आरंभ हो सकती है। इस कारण से किस दिन कौन सी तिथि कही जाए यह समस्या है। लेकिन इस समस्या का समाधान किया गया। दिवस का अर्थ है एक सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक का समय। इस तरह दिवस सूर्योदय से आरंभ होता है। इसे हमने 60 घटी या 24 घंटों में बांटा है। फिर घटी को पल और विपलों में तथा घंटों को मिनट और सैकंडों में बांटा है। सूर्योदय से सूर्यास्त तक के समय को दिनमान कहा गया है और सूर्यास्त से सूर्योदय तक के समय को रात्रिमान। इसी तरह एक कला के आरंभ से अगली कला के आरंभ तक के समय को तिथिमान कहा गया है। तिथि के संबंध में समाधान यह किया गया है कि सूर्योदय के समय जो भी तिथि होगी वही पूरे दिवस की अर्थात अगले सूर्योदय तक की तिथि मानी जाएगी। इस तरह हो सकता है कोई तिथि सूर्योदय के ठीक दो मिनट बाद समाप्त हो जाए और अगली तिथि आरंभ हो जाए लेकिन अगले सू्योदय तक वही तिथि मानी जाएगी। इस तरह जिस दिन का सूर्योदय जिस तिथि में होगा उस दिन वही तिथि मानी जाएगी। जैसे कल का सूर्योदय सप्तमी तिथि में हुआ था तो आज के सूर्योदय के पूर्व तक सप्तमी तिथि मानी गई, आज का सूर्योदय अष्टमी तिथि में उदय हुआ है तो कल सुबह के सूर्योदय के पहले तक अष्टमी तिथि ही मानी जाएगी।
तिथियों के मामले में एक बात और देखने को मिलती है। साइनोडिक या संयुति चांद्रमास 29.53059 दिनों का ही होता है। जब कि कलाएँ और तिथियाँ तीस हो जाती हैं। इस तरह हम देखते हैं कि किसी माह में तीस तिथियों में सूर्योदय हो सकते हैं और बारह चांद्रमासों में कुल 354.36708 दिन होंगे। जब कि तिथियां 360 हो जाएंगी। इस तरह वर्ष में कम से कम पाँच तिथियाँ तो ऐसी होंगी ही जिन में सूर्योदय नहीं होंगे। यह संख्या बढ़ भी सकती है। क्यों कि कभी तिथिमान 24 घंटों से अधिक का भी हो जाता है और दो सूर्योदय एक ही तिथि में हो सकते हैं। तब एक वर्ष में जितनी बार एक तिथि में दो सूर्योदय होंगे। उतनी ही तिथियों में और सूर्योदय नहीं हो सकेंगे। लेकिन यह माना गया है कि जिस तिथि में सूर्योदय होगा अगले सूर्योदय तक वही तिथि मानी जाएगी। इस कारण से जिन लगातार दो दिनों के सूर्योदय एक ही तिथि में हो रहे हैं उन दो दिनों को एक ही तिथि मानी जाएगी। इस तरह किसी मास में दो दिनों तक एक ही तिथि रहेगी। हम इसी कारण से दो दो दिनों तक एक ही तिथि मानते हैं। दो एकादशी और दो चतुर्दशी हो जाती हैं। जिन तिथियों में कोई सूर्योदय नहीं होता है उसे क्षय तिथि माना जाता है। अर्थात वह तिथि उस माह किसी भी दिन को आवंटित नहीं होगी।
तिथियों, कलाओं आदि का यह प्रकरण तो हम आगे भी चला सकते हैं। आज हम जन्माष्टमी की बात करें। कृष्ण के लिए प्राचीन पुस्तकों में उल्लेख हुआ है कि उन का जन्म भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को अर्धरात्रि को हुआ था। अब हमारी मान्यता के अनुसार यह हो सकता है कि उस दिन अष्टमी सुबह सूर्योदय के उपरांत केवल 30 पल अर्थात आधी घटी ही रही हो। फिर भी उस दिन को अष्टमी ही कहा गया होगा और जब कृष्ण का जन्म हुआ तब नवमी तिथि चल रही होगी। इस मामले में कुछ स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता कि कृष्ण जन्म के समय कौन सी तिथि चल रही थी। इस कारण से हम कृष्ण जन्माष्टमी मनाते समय उस दिन ही मनाएंगे जिस दिन का सूर्योदय अष्टमी तिथि में हुआ हो न कि सप्तमी तिथि में जब कि अर्धरात्रि को अष्टमी आ गई हो। लेकिन यह विवरण भी मिलता है कि कृष्ण जन्म के समय रोहिणी नक्षत्र चल रहा था। इस कारण से कुछ संप्रदाय यह मानते हैं कि जिस दिन अर्ध रात्रि को रोहिणी नक्षत्र पड़ रहा हो और अष्टमी तिथि भी आरंभ हो चुकी हो उस दिन कृष्ण जन्माष्टमी मनाना चाहिए। इस तरह नक्षत्र और तिथिमान में जन्म समय आ जाने पर जन्माष्टमी मनाने की बात करने वाले संप्रदायों को मानने वालों की संख्या अत्यल्प है। यही कारण है कि कल जन्माष्टमी मनाने वालों की संख्या कम रही और सारा देश आज ही कृष्ण जन्माष्टमी मना रहा है।
ल की पोस्ट पर अभिषेक ओझा की टिप्पणी में कहा गया कि हम कब जन्माष्टमी मनाएँ? तो मुझे भी सोचना पड़ गया, वे आजकल संयुक्त राज्य में है। तब मैं ने उन्हें उत्तर दिया कि आप के यहाँ जब 1 सितंबर का सूर्योदय हुआ तो अष्टमी तिथि आरंभ हो चुकी थी इस कारण से आप को तो जन्माष्टमी 1 सितंबर में ही मनानी चाहिए। सौभाग्य यह कि 1 सितंबर की अर्धरात्रि तक यूएस में अष्टमी बनी रही। तो वहाँ एक सितंबर में ही जन्माष्टमी मनाना उचित था। कनाडा से समीर भाई ने भी यही समाचार दिया है कि उन्हों ने एक सितंबर में ही जन्माष्टमी मना ली है। इस से एक निष्कर्ष और यह भी निकला कि किस दिन कौन सी तिथि होनी चाहिए यह पृथ्वी पर हर देशांतर पर अलग अलग तय होगा।

जय कन्हैया लाल की!          जय नंद किशोर की!!            जय जसोदा नंदन की!!!

बुधवार, 1 सितंबर 2010

जन्माष्टमी आज या कल ? //// कितनी तरह के चांद्रमास ?

कुछ लोग आज कृष्ण जन्माष्टमी मना रहे हैं। कुछ लोग कल मनाएंगे। इस विविधता को ले कर कई लोगों के मन में हिन्दू परंपराओं को ले कर प्रश्न खड़े होते हैं, कि आखिर हम एक बड़े पर्व को मनाने के लिए भी क्यों नहीं एकमत हो सकते? पर यह प्रश्न इतना आसान नहीं है। वैसे तो इस्लाम के अनेक फिरके हैं। वहाँ भी ईद मनाने को ले कर विवाद खड़े होते रहे हैं। दाऊदी समुदाय कलेंडर के हिसाब से ईद मनाता है लेकिन अन्य फिरके चांद देख कर ही ईद का निश्चय करते हैं। चांद यदि माह के 29वें दिन दिखाई दे गया तो माह 29 दिन का हुआ अन्यथा वह 30 दिन का तो होगा ही। यदि रमजान के 29वें दिन चांद दिखाई दे गया तो अगले दिन ईद हो जाती है। वरना उस से अगले दिन तो होगी ही। यही कारण है कि अगले दिन चांद देखने की उत्सुकता भी वहीं समाप्त हो जाती है। कुछ पक्के ईमान वाले लोगों की गवाही पर काजी जी या इमाम ईद की घोषणा कर देते हैं। ............
भारतीय परंपरा के त्योहारों का मामला कुछ अलग है। जहाँ तक भारतीय तिथियोंका प्रश्न है वे चंद्रमा की कलाओं से निर्धारित होती हैं। प्रथम पक्ष की 15 तिथियाँ और द्वितीय पक्ष की 15 तिथियाँ। लेकिन चंद्रमा का एक माह अर्थात एक चांद्रमास कितने ही प्रकार के हो सकते हैं। 
1. नोडल-मास या ड्रेकोनियन-मास -हम जानते हैं कि पृथ्वी सूर्य की और चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं। इस तरह दोनों की अपनी कक्षाएँ हैं लेकिन इन कक्षाओं की स्थिति में लगभग 15 डिग्री का अंतर है और चंद्रमा की कक्षा दो स्थानों पर पृथ्वी की कक्षा को काटती है इन्हें अंग्रेजी में नोड कहते हैं। एक नोड से यात्रा आरंभ कर उसी नोड पर पुनः पहुँचने में लगने वाले समंय को हम एक चांद्र मास कह सकते हैं। यह चांद्रमास नोडल-मास या ड्रेकोनियन-मास कहलाता है।  यह 27.21222 दिनों का होता है। 
2. ट्रॉपिकल या उष्णकटिबंधीय मास - हम जानते हैं कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। उस के घूमने की एक दिशा है। साथ ही वह सूर्य के भी वर्ष में एक चक्कर लगाती है। हमें आकाशीय पृष्ठभूमि में सूर्य वर्ष में पृथ्वी का एक चक्कर लगाता हुआ जान पड़ता है। इस तरह वर्ष भर में जिस वृत्त में सूर्य पृथ्वी से भ्रमण करता हुआ दिखाई देता है उसे हम क्रांतिवृत्त कहते हैं। पूरे वर्ष में दो बार ऐसा होता है कि जब पृथ्वी की विषुवत रेखा से हो कर यह क्रांतिवत्त गुजरता है। इन्हीं बिन्दुओं को हम विषुव कहते हैं। तथा मार्च माह में पड़ने वाले विषुव बिन्दु को ही पाश्चात्य ज्योतिष में मेष राशि का प्रस्थान बिंदु माना है। इस तरह क्रांतिवृत्त के किसी भी बिंदु से वापस उसी बिंदु तक चंद्रमा की एक यात्रा में लगा समय ट्रॉपिकल या उष्णकटिबंधीय मास कहलाता है। यह 27.3215 दिनों का होता है।  
3. साइडरियल या नाक्षत्र मास - खगोल में हम ग्रहों और उपग्रहों की गतियों की गणना के लिए नक्षत्रों को स्थिर मानते हैं। वस्तुतः ये तारे होते हैं। किसी एक तारे से उसी तारे तक की चंद्रमा की एक यात्रा में लगने वाले समय को हम साइडरियल या नाक्षत्र मास कहते हैं। यह 27.32166 दिनों का होता है।
4. एनोमेलिस्टिक या सामीप्य मास - हम जानते हैं की चंद्रमा की पृथ्वी के गिर्द चक्कर लगाने की कक्षा लगभग वृत्तीय है लेकिन पूरी तरह से नहीं। वह भी दीर्घवृत्तीय ही है। इस का नतीजा यह होता है कि चंद्रमा कभी पृथ्वी के निकटतम होता है और कभी अधिकतम दूरी पर होता है। इस कक्षा के उस बिंदु से जिस पर चंद्रमा पृथ्वी के सब से निकट होता है वापस उसी बिंदु तक लौटने की चंद्रमा की एक यात्रा में व्यतीत समय को हम एनोमेलिस्टिक मास कहते हैं। हम इसे सामीप्य मास भी कह सकते हैं। यह 27.55455 दिनों का होता है। 
5. साइनोडिक या संयुति मास - हम ने अब तक जितने भी चांद्रमास देखे हैं उन की अवधि लगभग 27.2 से 27.5 दिन के बीच की है। लेकिन हम यहाँ जिस महिने को व्यवहार में लाते हैं वह चांद्रमास तो इस से दो दिन अधिक का और लगभग 30 दिनों का होता है। जब भी हम महीना शब्द का उपयोग करते हैं तो उसे 30 दिनों का ही समझते हैं। इस का कारण है कि हम चंद्रमा को उस के पूर्ण होने और गायब हो जाने से जानते हैं। चंद्रमा जिस बिंदु पर पूर्ण दिखाई पड़ता है वह बिंदु वह है जब पृथ्वी चंद्रमा और सूर्य एक रेखा पर आ जाते हैं और पृथ्वी दोनों के बीच होती है। इसे ही हम पूर्णिमा कहते हैं। लेकिन एक रेखा पर तो वे अमावस्या को भी आते हैं, लेकिन तब चंद्रमा सूर्य और पृथ्वी के मध्य होता है। इसी बिंदु को हम नवचंद्र  बिंदु भी कहते हैं। नवचंद्र बिन्दु से नवचंद्र बिन्दु तक की चंद्रमा की यात्रा में लगने वाला समय साइनोडिक या संयुति मास कहलाता है। यह 29.53059 दिनों का होता है। 
न पाँच तरह के चांद्रमासों के अलावा और भी कितने ही तरह के महिने हैं। जैसे सौर मास और कलेंडर मास आदि आदि। यह लम्बी कहानी है। अब आप ही देखिए न मैं बात करने चला था जन्माष्टमी की कि वह दो दिन क्यों मनाई जा रही है। लेकिन बीच में ही यह चांद्रमास गाथा आरंभ हो गई। चलो आज अब इतना ही समय है। जन्माष्टमी की बात कल करें आखिर कल भी जन्माष्टमी है और फिर परसों हम कृष्ण जन्मोत्सव भी तो मनाएँगे। अभी तो हम जय बोल देते हैं। जय बोलो नन्द लाला, नन्द किशोर की। (एक बात बता दूँ, इन दो नामों में बाद वाला  नाम मेरी वल्दियत भी है)

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

संतानों के प्रति उन के जन्मदाताओं के दायित्व और संतानों के अधिकार कानून द्वारा निश्चित हों

ये मोटे-मोटे आंकड़े हैं-
2001 की जनगणना के मुताबिक भारत की कुल जन संख्या में 80% हिन्दू, 12% मुस्लिम, 2% से कुछ अधिक ईसाई, 2% सिख, 0.7% बौद्ध और 0.5 प्रतिशत जैन हैं। 0.01 प्रतिशत पारसी और कुछ हजार यहूदी हैं। शेष न्य धर्मों के लोग अथवा वे लोग हैं जो जनगणना के समय अपना धर्म नहीं प्रदर्शित नहीं करते। 
चूंकि हिन्दू विवाह अधिनियम  मुस्लिमों, ईसाइयों, पारसियों और यहूदियों के अतिरिक्त सभी पर प्रभावी है। इस कारण से इस के प्रभाव क्षेत्र की जनता की जनसंख्या हम 85 प्रतिशत के लगभग मान सकते हैं। 
हिन्दू विवाह अधिनियम अनुसूचित जन-जातियों के लोगों पर प्रभावी नहीं है। जिन की जनसंख्या भारत में मात्र 8.2 प्रतिशत है।  इन्हें कम करने पर हम इस अधिनियम से प्रभावित जनसंख्या 77% रह जाती है। 
भारत में अनुसीचित जाति के लोगों की जन संख्या 16.2 प्रतिशत है और अन्य पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या 52 प्रतिशत है। सभी अनुसूचित जातियों और लगभग सभी अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों में नाता प्रथा प्रचलित है। यदि इस आधार पर हम इन्हें भी हिन्दू विवाह अधिनियम के पूर्ण प्रभाव क्षेत्र अलग मानें तो शेष लोगों की जनसंख्या केवल 9 प्रतिशत शेष रह जाती है। 
नाता प्रथा देश के लगभग सभी भागों में प्रचलित है। होता यह है कि कोई भी विवाहित स्त्री घोषणा कर देती है कि वह अपने पति से परेशान है और उस के साथ नहीं रहना चाहती। इस के लिए वह स्टाम्प पेपर पर शपथ पत्र निष्पादित कर देती है। इस शपथ पत्र के निष्पादन के उपरांत यह मान लिया जाता है कि वह स्त्री अब अपने पति के बंधन से आजाद हो गई है। कोटा की अदालत में प्रत्येक कार्य दिवस पर इस तरह आजाद होने वाली स्त्रियों की संख्या औसतन तीन होती है। जब कि कोटा के पारिवारिक न्यायालय में माह में मुश्किल से पाँच तलाक भी मंजूर नहीं होते।
जाद होने के बाद वह स्त्री एक अन्य शपथ पत्र निष्पादित कर अपने इच्छित पुरुष के साथ रहने की सहमति दे देती है। पुरुष भी उसे भली तरह रखने के लिए एक शपथपत्र निष्पादित करता है। इस के उपरांत दोनों स्त्री-पुरुष साथ साथ कुछ फोटो खिंचाते हैं। जिस की सुविधा आज कल अदालत परिसर में चल रहे कंप्यूटर ऑपरेटरों के यहाँ उपलब्ध है। अब दोनों स्त्री-पुरुष साथ रहने को चले जाते हैं। इसी को नाता करना कहते हैं। इन स्त्री-पुरुषों के साथ इन के कुछ परिजन साथ होते हैं।
बाद में जब पति को इस की जानकारी होती है तो वह अपनी पत्नी के परिजनों को साथ लेकर उस पुरुष के घर जाते हैं जहाँ वह स्त्री रहने गई है और झगड़ा करते हैं। इस झगड़े का निपटारा पंचायत में होता है।  जिस पुरुष के साथ रहने को वह स्त्री जाती है वह उस स्त्री  के पति को  पंचायत द्वारा निर्धारित राशि मुआवजे के बतौर दे देता है। 
न्य पिछड़ा वर्ग की जातियों में नाता बहुत कम होता है लेकिन इन जातियों में इसे गलत दृष्टि से नहीं देखा जाता। इस तरह भारत की 85 प्रतिशत हिन्दू जनसंख्या में से लगभग 15 से 20 % को छोड़ कर शेष  65-70 % जनसंख्या में विवाह के कानूनी और शास्त्रीय रूप के अलावा अन्य रूप प्रचलित हैं और समाज ने उन्हें एक निचले दर्जे के संबंध के रूप में ही सही पर मान्यता दे रखी है। विवाह के इन रूपों में समय के साथ परिवर्तन भी होते रहे हैं। लिव-इन-रिलेशन को ले कर इन जातियों में कोई चिंता नहीं दिखाई देती है। जितनी भी चिंता दिखाई देती है या अभिव्यक्त की जा रही है वह केवल इस 15-20% जनता में से ही अभिव्यक्त की जा रही है। लिव-इन-रिलेशन को ले कर भी चिंता अधिक इसी बात की है कि इस संबंध से उत्पन्न होने वाली संतानों के क्या अधिकार होंगे।  
कानून में कभी भी बिना विवाह किए स्वतंत्र स्त्री-पुरुष के संबंध को अपराधिक नहीं माना गया है। आज के मानवाधिकार के युग में इसे अपराधिक कृत्य ठहराया जाना संभव भी नहीं है। सरकार की स्थिति ऐसी है कि वह वर्तमान वैवाहिक विवादों के तत्परता के हल के लिए पर्याप्त न्यायालय स्थापित करने में अक्षम रही है। मेरा तो यह कहना भी है कि वैवाहिक विवादों के हल होने में लगने वाला लंबा समय भी लिव-इन-रिलेशन को बढ़ावा देने के लिए एक हद तक जिम्मेदार है। ऐसे में यही अच्छा होगा कि लिव-इन-रिलेशन अथवा विवाह के अतिरिक्त नाता जैसे संबंधों से उत्पन्न होने वाली संतानों के प्रति उन के जन्मदाताओं के दायित्व और इन संतानों के अधिकार कानून द्वारा निश्चित किए जाने आवश्यक हैं।

बुधवार, 31 मार्च 2010

एक लोक गायक का गीत राजस्थानी लोकवाद्य रावणहत्था के साथ

रावण हत्था राजस्थान का एक लोक वाद्य है जो बांस के एक तने पर नारियल के खोल, चमड़े की मँढ़ाई और तारों की सहायता से निर्मित किया जाता है। पश्चिमी राजस्थान के पर्यटन स्थलों पर इस वाद्य को बजाने वाले आप को आम तौर पर मिल जाएंगे। लेकिन इस वाद्य की संगत में गाने वाला लोक गायक कभी अदालत में मुझ तक पहुँच जाएगा और हमें मंत्र मुग्ध कर देगा मैं ने ऐसा सोचा भी नहीं था।

पिछले वर्ष 30 मई को जब मैं कोटा जिला न्यायालय परिसर मैं अपने स्टाफ के साथ बैठा था तो वहाँ एक लोकगायक आया। यह लोक गायक अपने गीतों को राजस्थानी तार वाद्य रावणहत्था को बजाते हुए गाता था। उस ने दो-तीन गीत हमें सुनाए। एक गीत को मेरे कनिष्ट अभिभाषक रमेशचंद्र नायक ने अपने मोबाइल पर रेकॉर्ड कर लिया था। आज उस गीत को फुरसत में मेरे दूसरे कनिष्ट नंदलाल शर्मा मोबाइल पर सुन रहे थे। मुझे भी आज वह गीत अच्छा लगा। मैं उसे रिकॉर्ड कर लाया। यह गायक जिस का नाम मेरी स्मृति के अनुसार बाबूलाल था और वह राजस्थान के कोटा, सवाईमाधोपुर व बाराँ जिलों के सीमावर्ती मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले के किसी गाँव से आया था। 
हाँ वही रिकॉर्डिंग प्रस्तुत है। इसे आप-स्निप से डाउनलोड कर सुन सकते हैं। साथ में प्रस्तुत हैं यू-ट्यूब खोजे गए रावण हत्था के दो वीडियो। 

Rawanhattha
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सोमवार, 29 मार्च 2010

लिव-इन-रिलेशनशिप को शीघ्र ही कानून के दायरे में लाना ही होगा

नवरत पर पिछली पोस्ट में शकुन्तला और दुष्यंत की कहानी प्रस्तुत करते हुए यह पूछा गया था कि उन दोनों के मध्य कौन सा रिश्ता था? मैं  ने यह भी कहा था कि भारतीय पौराणिक साहित्य में  शकुन्तला और दुष्यंत के संबंध को गंधर्व विवाह की संज्ञा दी गई है। मेरा प्रश्न यह भी था कि क्या लिव-इन-रिलेशनशिप गंधर्व विवाह नहीं है? इस पोस्ट पर पाठकों ने अपनी शंकाएँ, जिज्ञासाएँ और कतिपय आपत्तियाँ प्रकट की हैं। अधिकांश ने लिव-इन-रिलेशनशिप को गंधर्व विवाह मानने से इन्कार कर दिया। उन्हों ने गंधर्व विवाह को आधुनिक प्रेम-विवाह के समकक्ष माना है। सुरेश चिपलूनकर जी को यह आपत्ति है कि हिन्दू पौराणिक साहित्य से ही उदाहरण क्यों लिए जा रहे हैं?  इस तरह तो कल से पौराणिक पात्रों को ....... संज्ञाएँ दिए जाने का प्रयत्न किया जाएगा। मैं उन संज्ञाओं का उल्लेख नहीं करना चाहता जो उन्हों ने अपनी टिप्पणी में दी हैं। मैं उन्हें उचित भी नहीं समझता। लेकिन इतनी बात जरूर कहना चाहूँगा कि जब मामला भारतीय दंड विधान से जुड़ा हो और हिंदू विवाह अधिनियम  से जुड़ा हो तो सब से पहले हिंदू पौराणिक साहित्य पर ही नजर जाएगी, अन्यत्र नहीं।
पिछले दिनों भारत के न्यायालयों ने जो निर्णय दिए हैं उस से एक बात स्पष्ट हो गई है कि हमारा कानून दो वयस्कों के बीच स्वेच्छा पूर्वक बनाए गए सहवासी रिश्ते को मान्यता नहीं देता, लेकिन उसे अपराधिक भी नहीं मानता, चाहे ये दो वयस्क पुरुष-पुरुष हों, स्त्री-स्त्री हों या फिर स्त्री-पुरुष हों। इस से यह बात  भी स्पष्ट हो गई है  कि इस तरह के रिश्तों के कारण एक दूसरे के प्रति जो दीवानी कानूनी दायित्व और अधिकार उत्पन्न नहीं हो सकते। कानून की मान्यता न होने पर भी इस तरह के रिश्ते सदैव से मौजूद रहे हैं। परेशानी का कारण यह  है कि समाज में इस तरह के रिश्तों का अनुपातः बढ़ रहा है।  अजय कुमार झा ने अपनी पोस्ट लिव इन रिलेशनशिप : फ़ैसले पर एक दृष्टिकोण में बहुत खूबसूरती से अपनी बात को रखा है। लिव-इन-रिलेशनशिप स्त्री-पुरुष के बीच ऐसा संबंध है जिस में दोनों एक दूसरे के प्रति किसी कानूनी दायित्व या अधिकार में नहीं बंधते। जब कि विवाह समाज विकास के एक स्तर पर विकसित हुआ है, जो पति-पत्नी को एक दूसरे के प्रति कानूनी दायित्वों और अधिकारों में बांधता है। जहाँ तक पितृत्व का प्रश्न है वह तो लिव-इन-रिलेशन में भी रहता है और संतान के प्रति दायित्व और अधिकार भी बने रहते हैं। इस युग में जब कि डीएनए तकनीक उपलब्ध है कोई भी पुरुष अपनी संतान को अपनी मानने से इंन्कार नहीं कर सकता।
म इतिहास में जाएंगे तो भारत में ही नहीं दुनिया भर में विवाह का स्वरूप हमेशा एक जैसा नहीं रहा है। 1955 के पहले तक हिन्दू विवाह में एक पत्नित्व औऱ विवाह विच्छेद अनुपस्थित थे। यह अभी बहुत पुरानी बात नहीं है जब दोनों पक्षों की सहमति से वैवाहिक संबंध विच्छेद हिन्दू विवाह अधिनियम में सम्मिलित किया गया है। भारत में जिन आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख मिलता है। वस्तुतः वे सभी विवाह हैं भी नहीं। स्त्री-पुरुष के बीच कोई भी ऐसा संबंध जिस के फलस्वरूप संतान उत्पन्न हो सकती है उसे विवाह मानते हुए उन्हें आठ विभागों में बांटा गया। जिन में से चार को समाज और राज्य ने कानूनी मान्यता दी और शेष चार को नहीं। गंधर्व विवाह में सामाजिक मान्यता, समारोह या कर्मकांड अनुपस्थित था। यह स्त्री-पुरुष के मध्य साथ रहने का एक समझौता मात्र था। जिस के फल स्वरूप संतानें उत्पन्न हो सकती थीं। सामाजिक मान्यता न होने के कारण उस से उत्पन्न दायित्वों और अधिकारों का प्रवर्तन भी संभव नहीं था। मौजूदा हिन्दू विवाह अधिनियम इस तरह के गंधर्व विवाह को विवाह की मान्यता नहीं देता है। 
लिव-इन-रिलेशन भी अपने अनेक रूपों के माध्यम से भारत में ही नहीं विश्व भर में मौजूद रहा है लेकिन आटे में नमक के बराबर। समाज व राज्य ने उस का कानूनी प्रसंज्ञान कभी नहीं लिया। नई परिस्थितियों में इन संबंधों का अनुपात कुछ बढ़ा है। इस का सीधा अर्थ यह है कि विवाह का वर्तमान कानूनी रूप समकालीन समाज की आवश्यकताओं के लिए अपर्याप्त सिद्ध हो रहा है। कहीं न कहीं वह किसी तरह मनुष्य के स्वाभाविक विकास में बाधक बना है। यही कारण है कि नए रूप सामने आ रहे हैं। जरूरत तो इस बात की है कि विवाह के वर्तमान कानूनों और वैवाहिक विवादों को हल करने वाली मशीनरी पर पुनर्विचार हो कि कहाँ वह स्वाभाविक जीवन जीने और उस के विकास में बाधक बन रहे हैं?  इन कारणों का पता लगाया जा कर उन का समाधान किया जा सकता है। यदि एक निश्चित अवधि तक लिव-इन-रिलेशन में रहने वाले स्त्री-पुरुषों के दायित्वों और अधिकारों  को नि्र्धारित करने वाला कानून भी बनाया जा सकता है। जो अभी नहीं तो कुछ समय बाद बनाना ही पड़ेगा। यदि इस संबंध में रहने वाले स्त्री-पुरुष आपसी दायित्वों और अधिकारों के बंधन में नहीं बंधना चाहते तो कोई बाद नहीं क्यों कि वे वयस्क हैं। लेकिन इन संबंधों से उत्पन्न होने वाले बच्चों के संबंध में तो कानून तुरंत ही लाना आवश्यक है। आखिर बच्चे केवल उन के माता-पिता की नहीं समाज और देश की निधि होते हैं।

रविवार, 28 मार्च 2010

दुष्यंत और शंकुन्तला के बीच कौन सा संबंध था?

हाभारत संस्कृत भाषा का महत्वपूर्ण महाकाव्य (धर्मग्रंथ नहीं)। हालांकि महत्वपूर्ण धर्म ग्रंथ का स्थान ग्रहण कर चुकी श्रीमद्भगवद्गीता इसी महाकाव्य का एक भाग है। महाभारत बहुत सी कथाओं से भरा पड़ा है। इन्हीं में एक कथा आप सभी को अवश्य स्मरण होगी। यदि नहीं तो आप यहाँ इसे पढ़ कर अपनी स्मृति को ताजा कर कर लें .....
"हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट के लिए वन में गये। उसी वन में कण्व ऋषि का आश्रम था। ऋषि के दर्शन के लिये महाराज दुष्यंत उनके आश्रम पहुँचे। पुकार लगाने पर एक अति लावण्यमयी कन्या ने आश्रम से निकल कर कहा, “हे राजन्! महर्षि तो तीर्थ यात्रा पर गये हैं, किन्तु आपका इस आश्रम में स्वागत है।” उस कन्या को देख कर महाराज दुष्यंत ने पूछा, “बालिके! आप कौन हैं?” बालिका ने कहा, “मेरा नाम शकुन्तला है और मैं कण्व ऋषि की पुत्री हूँ।” उस कन्या की बात सुन कर महाराज दुष्यंत आश्चर्यचकित होकर बोले, “महर्षि तो आजन्म ब्रह्मचारी हैं फिर आप उनकी पुत्री कैसे हईं?” उनके इस प्रश्न के उत्तर में शकुन्तला ने कहा, “वास्तव में मैं मेनका और विश्वामित्र क पुत्री हूँ। मेरी माता ने मुझे जन्मते ही वन में छोड़ दिया था जहाँ शकुन्त  पक्षी ने मेरी रक्षा की। बाद में ऋषि की दृष्टि मुझ पर पड़ी तो वे मुझे अपने आश्रम में ले आये। उन्होंने ही मेरा भरण-पोषण किया। जन्म देने वाला, पोषण करने वाला तथा अन्न देने वाला – ये तीनों ही पिता कहे जाते हैं। इस प्रकार कण्व ऋषि मेरे पिता हुये।”
कुन्तला के वचनों को सुनकर महाराज दुष्यंत ने कहा, “शकुन्तले! तुम क्षत्रिय कन्या हो। तुम्हारे सौन्दर्य को देख कर मैं अपना हृदय तुम्हें अर्पित कर चुका हूँ। यदि तुम्हें किसी प्रकार की आपत्ति न हो तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ।” शकुन्तला भी महाराज दुष्यंत पर मोहित हो चुकी थी, अतः उसने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। दोनों नें गन्धर्व विवाह कर लिया। कुछ काल महाराज दुष्यंत ने शकुन्तला के साथ विहार करते हुये वन में ही व्यतीत किया। फिर एक दिन वे शकुन्तला से बोले, “प्रियतमे! मुझे अब अपना राजकार्य देखने के लिये हस्तिनापुर प्रस्थान करना होगा। महर्षि कण्व के तीर्थ यात्रा से लौट आने पर मैं तुम्हें यहाँ से विदा करा कर अपने राजभवन में ले जाउँगा।” इतना कहकर महाराज ने शकुन्तला को अपने प्रेम के प्रतीक के रूप में अपनी स्वर्ण मुद्रिका दी और हस्तिनापुर चले गये। 
क दिन उसके आश्रम में दुर्वासा ऋषि पधारे। महाराज दुष्यंत के विरह में लीन होने के कारण शकुन्तला को उनके आगमन का ज्ञान भी नहीं हुआ और उसने दुर्वासा ऋषि का यथोचित स्वागत सत्कार नहीं किया। दुर्वासा ऋषि ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोधित हो कर बोले, “बालिके! मैं तुझे शाप देता हूँ कि जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा।” दुर्वासा ऋषि के शाप को सुन कर शकुन्तला का ध्यान टूटा और वह उनके चरणों में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगी। शकुन्तला के क्षमा प्रार्थना से द्रवित हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, “अच्छा यदि तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति हो आयेगी।”
दुष्यंत के सहवास से शकुन्तला गर्भवती हो गई थी। कुछ काल पश्चात् कण्व ऋषि तीर्थ यात्रा से लौटे तब शकुन्तला ने उन्हें महाराज दुष्यंत के साथ अपने गन्धर्व विवाह के विषय में बताया। इस पर महर्षि कण्व ने कहा, “पुत्री! विवाहित कन्या का पिता के घर में रहना उचित नहीं है। अब तेरे पति का घर ही तेरा घर है।” इतना कह कर महर्षि ने शकुन्तला को अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर भिजवा दिया। मार्ग में एक सरोवर में आचमन करते समय महाराज दुष्यंत की दी हुई शकुन्तला की अँगूठी, जो कि प्रेम चिन्ह थी, सरोवर में ही गिर गई। उस अँगूठी को एक मछली निगल गई।
दुष्यंत के पास पहुँच कर कण्व ऋषि के शिष्यों ने शकुन्तला को उनके सामने खड़ी कर के कहा, “महाराज! शकुन्तला आपकी पत्नी है, आप इसे स्वीकार करें।” महाराज तो दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण शकुन्तला को विस्मृत कर चुके थे। अतः उन्होंने शकुन्तला को स्वीकार नहीं किया और उस पर कुलटा होने का लाँछन लगाने लगे। शकुन्तला का अपमान होते ही आकाश में जोरों की बिजली कड़क उठी और सब के सामने उसकी माता मेनका उसे उठा ले गई।
जिस मछली ने शकुन्तला की अँगूठी को निगल लिया था, एक दिन वह एक मछुआरे के जाल में आ फँसी। जब मछुआरे ने उसे काटा तो उसके पेट अँगूठी निकली। मछुआरे ने उस अँगूठी को महाराज दुष्यंत के पास भेंट के रूप में भेज दिया। अँगूठी को देखते ही महाराज को शकुन्तला का स्मरण हो आया और वे अपने कृत्य पर पश्चाताप करने लगे। महाराज ने शकुन्तला को बहुत ढुँढवाया किन्तु उसका पता नहीं चला।
कुछ दिनों के बाद देवराज इन्द्र के निमन्त्रण पाकर देवासुर संग्राम में उनकी सहायता करने के लिये महाराज दुष्यंत इन्द्र की नगरी अमरावती गये। संग्राम में विजय प्राप्त करने के पश्चात् जब वे आकाश मार्ग से हस्तिनापुर लौट रहे थे तो मार्ग में उन्हें कश्यप ऋषि का आश्रम दृष्टिगत हुआ। उनके दर्शनों के लिये वे वहाँ रुक गये। आश्रम में एक सुन्दर बालक एक भयंकर सिंह के साथ खेल रहा था। मेनका ने शकुन्तला को कश्यप ऋषि के पास लाकर छोड़ा था तथा वह बालक शकुन्तला का ही पुत्र था। उस बालक को देख कर महाराज के हृदय में प्रेम की भावना उमड़ पड़ी। वे उसे गोद में उठाने के लिये आगे बढ़े तो शकुन्तला की सखी चिल्ला उठी, “हे भद्र पुरुष! आप इस बालक को न छुयें अन्यथा उसकी भुजा में बँधा काला डोरा साँप बन कर आपको डस लेगा।” यह सुन कर भी दुष्यंत स्वयं को न रोक सके और बालक को अपने गोद में उठा लिया। अब सखी ने आश्चर्य से देखा कि बालक के भुजा में बँधा काला गंडा पृथ्वी पर गिर गया है। सखी को ज्ञात था कि बालक को जब कभी भी उसका पिता अपने गोद में लेगा वह काला डोरा पृथ्वी पर गिर जायेगा। सखी ने प्रसन्न हो कर समस्त वृतान्त शकुन्तला को सुनाया। शकुन्तला महाराज दुष्यंत के पास आई। महाराज ने शकुन्तला को पहचान लिया। उन्होंने अपने कृत्य के लिये शकुन्तला से क्षमा प्रार्थना की और कश्यप ऋषि की आज्ञा लेकर उसे अपने पुत्र सहित अपने साथ हस्तिनापुर ले आये।
हाराज दुष्यंत और शकुन्तला के इस पुत्र का नाम भरत था। बाद में वे भरत महान प्रतापी सम्राट बने और उन्हीं के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष हुआ।
ति कथाः।  क्या यह गंधर्व विवाह "लिव-इन-रिलेशनशिप" नहीं है? यदि है, तो उसे कोसा क्यों जा रहा है? आखिर हमारे देश का नाम उसी संबंध से उत्पन्न व्यक्ति के नाम पर पड़ा है। कैसे कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति को 'लिव-इन-रिलेशनशिप' से खतरा है?

गुरुवार, 18 मार्च 2010

लोगों के अपकारी काम धर्मों को समेट रहे हैं

कुछ दिनों से ब्लाग जगत में बहस चल रही है कि किस किस धर्म में क्या क्या अच्छाइयाँ हैं और किस किस धर्म में क्या क्या बुराइयाँ हैं। हर कोई अपनी बात पर अड़ा हुआ है। दूसरा कोई जब किसी के धर्म की बुराई का उल्लेख करता है तो बुरा अवश्य लगता है। इस बुरा लगने पर प्रतिक्रिया यह होती है कि फिर दूसरे के धर्म की बुराइयाँ खोजी जाती हैं और वे बताई जाती हैं। नतीजा यह है कि हमें धर्मों की सारी खामियाँ पता लग रही हैं। ऐसा लगता है कि सभी धर्म बुराइयों से भरे पड़े हैं। यह लगना भी उन लोगों के कारण है जो खुद धार्मिक हैं।
मैं खुद एक धार्मिक परिवार में पैदा हुआ। कुछ अवसर ऐसा मिला कि मुझे कोई बीस बरस तक मंदिर में भी रहना पड़ा। मुझे स्कूल में संस्कृत शहर के काजी साहब ने पढ़ाई। उन्हों ने खुद संस्कृत स्कूल में मेरे पिताजी से पढ़ी थी। काजी साहब ने कभी यह नहीं कहा कि कोई मुसलमान बने। उन की कोशिश थी कि जो मुसलमान हैं वे इस्लाम की राह पर चलें। क्यों कि अधिकतर जो मुसलमान थे वे इस्लाम की राह पर मुकम्मल तरीके से नहीं चल पाते थे। वे यही कहते थे कि लोगों को अपने अपने धर्म पर मुकम्मल तरीके से चलने की कोशिश करनी चाहिए। सभी धार्मिक लोग यही चाहते हैं कि लोग अपने अपने धर्म की राह पर चलें। 
मेरे 80 वर्षीय ससुर जी जो खुद एक डाक्टर हैं, मधुमेह के रोगी हैं। लेकिन वे नियमित जीवन बिताते है और आज भी अपने क्लिनिक में मरीजों को देखते हैं। कुछ दिनों से पैरों में कुछ परेशानी महसूस कर रहे थे। मैं ने उन्हें कोटा आ कर किसी डाक्टर को दिखाने को कहा। आज सुबह वे आ गए। मैं उन्हें ले कर अस्पताल गया। जिस चिकित्सक को दिखाना था वे सिख थे। जैसे ही हम अस्पताल के प्रतीक्षालय में पहुँचे तो एक सज्जन ने उन्हें नमस्ते किया। वे दाऊदी बोहरा संप्रदाय के मुस्लिम थे। दोनों ने एक दूसरे से कुछ विनोद किया। डाक्टर ने ससुर जी को कुछ टेस्ट कराने को कहा। जब हम मूत्र और रक्त के सेंपल देने पहुँचे तो सैंपल प्राप्त करने वाली नर्स ईसाई थी। उस ने सैंपल लिए और दो घंटे बाद आने को कहा। एक सज्जन ने जो तकनीशियन थे  ससुर जी के पैरों की तंत्रिकाओं की  जाँच की। इन को मैं ने अनेक मजदूर वर्गीय जलसों में देखा है वे एक कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हैं और किसी धर्म को नहीं मानते।  शाम को सारी जाँचों की रिपोर्ट ले कर हम फिर से चिकित्सक के पास गए उस ने कुछ दवाएँ लिखीं और कुछ हिदायतें दीं। इस तरह सभी धर्म वाले लोगों ने एक दूसरे की मदद की। सब ने एक दूसरे के साथ धर्मानुकूल आचरण किया। न किसी ने यह कहा कि उस का धर्म बेहतर है और न ही किसी दूसरे के धर्म में कोई खामी निकाली। 

मुझे लगता है कि वे सभी लोग जो अपने धर्मानुकूल आचरण कर रहे थे। उन से बेहतर थे जो सुबह शाम किसी न किसी धर्म की बेहतरियाँ और बदतरियों की जाँच करते हैं। धर्म निहायत वैयक्तिक मामला है। यह न प्रचार का विषय है और न श्रेष्ठता सिद्ध करने का। जिस को लगेगा कि उसे धर्म में रुचि लेनी चाहिए वह लेगा और उस के अनुसार अपने आचरण को ढालने का प्रयत्न करेगा। अब वह जो कर रहा है वह अपनी समझ से बेहतर कर रहा है। किसी को उसे सीख देने का कोई अधिकार नहीं है। हाँ यदि वह स्वयं खुद जानना चाहता है स्वयं ही सक्षम है कि उसे इस के लिए किस के पास जाना चाहिए। दुनिया में धर्म प्रचार और खंडन  के अलावा करोड़ों उस से बेहतर काम शेष हैं। 
लते चलते एक बात और कि लोगों के उपकारी कामों ने उन के धर्म को दुनिया में फैलाया था। अब लोगों के अपकारी काम उन्हें समेट रहे हैं।

सोमवार, 1 मार्च 2010

भांग की तरंग होली के चित्रों के संग

होली की पूर्व संध्या पर काव्य-मधुबन के कार्यक्रम फुहार2010 में सूर्यकुमार पाण्डेय को ग्यारहवाँ व्यंग्य श्री सम्मान प्रदान किया गया। इस समारोह में जाने के पहले ही बच्चा-लोगों ने हमारे घर विजया की ठंडाई घोंटी थी। उस के चित्र देखिए--

 तैयारी जारी है

 जरा और घोंट भाई!

 अब मामला तैयार है

 थोड़ी ही लूंगा

 अपने को कितनी भी चलेगी
 सूर्य कुमार पाण्डेय जी से सम्मान समारोह के बाद आग्रह किया गया कि सुबह ग्यारह बजे महेन्द्र जी के यहाँ विकल्प की गोष्ठी में पधारें। आग्रह अविलंब स्वीकार कर लिया गया। गोष्टी हुई मेरे और महेन्द्र 'नेह' के घर के सामने वाले सत्यम उद्यान में। गोष्ठी में सभी कवियों ने रचनाएँ पढ़ीं और स्वयं पाण्डेय जी ने भी बहुत ही रोचक रचनाएँ सुनाईं। शिवाराम  की कविता 'अनुभवी सीख' सर्वाधिक चर्चित रही।

अतुल चतुर्वेदी, भगवती प्रसाद गौतम, सूर्यकुमार पाण्डेय

 महेन्द्र 'नेह' कविता पाठ करते हुए

  शिवाराम कविता पाठ करते हुए

गोष्ठी का संचालन करते हुए शकूर 'अनवर'

 दिन कैसे निकला पता ही नहीं लगा। शाम को हम बाजार गए, सोचा था मिठाइयाँ खरीदेंगे और वहीं कुछ खा भी आएँगे। लेकिन बाजार में भीड़ देखते हुए बाहर खाने का इरादा त्यागा और मिठाइयाँ ले कर वापस लौट आए। शोभा भोजन बनाने सीधे रसोई में घुस गई। मैं और पूर्वा होली देखने पार्क में घुसे। पूरा पार्क पेड़ों और दूब से ढका है। लेकिन पार्क का एक कोना केवल होली के निमित्त ही खाली है। वहीँ होली बनाई गई थी। एक लंबे बांस से लगा ऊँचा लाल रंग का गोटे लगा झंडा और उस के इर्द-गिर्द लकडियाँ लगी हुईं। लोग अपने घरों से उपले ला कर डाल गए थे। महिलाएँ होली की पूजा कर जा रही थीं। कुछ ही देर में होली जलने की तैयारी थी। फोन कर के शोभा को भी बुला लिया गया। जब मुहल्ले के सब लोग आ गए तो होली जलाई गई। मौके पर माचिस नहीं थी। एक मिली तो उस में  एक ही तीली थी और कवर गीला। फिर एक एक्सपर्ट आए उन्हों ने इकलौती तीली को सुलगा लिया। फिर एक गत्ता सुलगाया गया। फिर होली में आग डाल दी गई।

 होली जलने लगी

 कुछ ही देर में उस ने आग पकड़नी आरंभ कर दी

 फिर ताप इतना बढ़ा कि लोगों को दूर हटना पड़ा

 महिलाओं ने जलती हुई होली की परिक्रमा की

फिर लोगों ने डेक के संगीत पर थिरकना आरंभ किया
 
 क्या बच्चे, क्या जवान? क्या पुरुष क्या स्त्रियाँ सभी नाचने लगे

 सब ने अपना नृत्य कौशल दिखलाया

 सब अपनी उमंग भर नाचे

 देर रात तक यह नृत्य चलता रहा


तब तक होली का मुख्य स्तंभ गिर गया, 
उस में लगा झंडा साबुत ही बाहर आ गया। 
लोगों ने कहा होली जल गई प्रहलाद साबुत निकल आया।