@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: अक्तूबर 2008

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

दिवाली अवकाश के बाद पहला काम का दिन

 पाँच दिनों के अवकाश के बाद आज छठे दिन अदालतें खुलनी थीं तो भी खराब हुई आदत मुकाम पर नहीं आई।  आज उठना नहीं है क्या? पत्नी की आवाज सुन कर। सामने घड़ी पर निगाह गई तो घंटे का कांटा सात से पार जा चुका था, मिनट कौन देखता। सीधे टायलट भागे लघुशंका को, वापस लौट कर रसोई के नल से पानी भर चार-पांच गिलास पिए। तब तक कॉफी बेडरूम में हाजिर थी। जब से कार्तिक का महिना लगा है। श्रीमती शोभा कब उठती हैं और कब स्नान वगैरह कर अपना पूजा-पाठ निपटाती हैं, पता नहीं लगता। इस से पहले हम उठते थे तो कॉफी पहले से बेडरूम की टी-टेबुल पर विराजमान रहती थी। टाइम टेबुल बदला तो हम समझ गए क्या चक्कर चला है। हमने तीसरे दिन कहा। लगता है कार्तिक स्नान चल रहा है? जवाब मुस्कुराहट में मिला। (इस का राज आप तलाशते रहें।)

कॉफी सुड़कते मेल देखी, ब्लागवाणी पर नजर दौड़ाई तो रात के बाद से कोई ज्यादा ब्लाग नहीं  थे। मेल में तीसरा खंबा में कानूनी सलाह के लिए एक सवाल था। सवाल बिलकुल कानूनी नहीं निजी था। जैसे मेरे ज्योतिषी दादाजी के पास अक्सर आया करते थे, और उन के पास कोई ज्योतिषीय उत्तर नहीं हुआ करता था। मैं सोच में था कि इस का क्या जवाब दूँ? फिर दादाजी वाला रास्ता अपनाया, वैसा ही जवाब दिया और तीसरा खंबा में पोस्ट किया। फिर लगे अदालत की तैयारी में। एक दावे का प्रारूप देना था एक सेवार्थी निगम को। टाइप हो कर तैयार था। प्रिंट निकालना चाहा तो अपने इंकजेटप्रिंटर ने इन्कार कर दिया। बोला नया पेन, नयी डायरी, नया बस्ता लाए हो दिवाली के लिए। नयी कैशबुक और लेजर लाए हो। मेरे लिए एक अदद नयी इंक कार्ट्रिज नहीं ला सकते? अब भी मुझे एचपी का अमरीकन बच्चा समझते हो? पांच बरस हो गए हैं इस घर में दीवाली मनाते। मुझे नयी कार्ट्रिज चाहिये, अभी और इसी वक्त चाहिए। मांग वाजिब थी। उसे कहा तो कि मंदी चल रही है पुरानी को रीफिल कर के काम चला लो। पर उस पर कोई असर नहीं हुआ। निगम का दावा धरा रह गया। कार्ट्रिज तो बाजार से ही संभव था जो 11 के पहले नहीं खुलता।

टाइम बरबाद करने के स्थान पर सीधे बाथरूम की शरण ली। ऑफिस का सारा काम तो प्रिंटर निपटा ही चुका था। स्नान-ध्यान करते ही भोजन मिल गया। रवानगी दर्ज कर ऑफिस आए तो पता लगा मुंशी नहीं आया था। उसे फोन किया तो पता लगा वह भी आज सीएल पर है। हम ने खुद ही अपनी फाइलें संभाली। समय लगा। अदालत पहुँच कर घड़ी देखी। तुरंत बड़े भाई टाइमखोटीकार का स्मरण हो आया। लगा वे हमें ही पूछ रहे थे कि बताओ किस के बारह बजे? वहाँ भी दो सहयोगी सीएल पर थे। एक ने बताया कि आज तो अदालतों में काम सस्पेंड कर दिया गया है। मैं ने कारण पूछा तो बताया गया कि एक वकील साहब की दीपावली के अवकाश में उन के भाई की मदद करते समय पूजा कर दी गई। अखबार में खबर तो मैं ने भी पढ़ी थी, लेकिन पुलिस ने पुजारी दल में से कुछ को पकड़ भी लिया था, इस लिए बिरादरी के सम्मान का कोई अवसर नहीं था। फिर भी सम्मान किया गया तो जरूर कोई राज रहा होगा। सम्मान के कारण केवल पेशियाँ नोट करने का ही काम शेष रह गया था।

मुंशी तो था नहीं। मैं खुद ही पेशियाँ नोट करने निकला,सोचा इस बहाने लोगों से दीवाली का राम-राम भी हो लेगा। जेब में पेन नहीं था तो पहले एक पेन भी खरीदना था। अपनी जगह से उठते ही राम-राम  शुरू हो ली। पेन वाले तक पहुंचने में घंटा भर लग गया। पेन खरीदा, एक अदालत से पेशी नोट कर बाहर निकला ही था कि मोबाइल थरथरा उठा। देखा तो सहयोगियों की घंटी थी कॉफी के लिए बुला रहे थे। हम सीधे केंटीन पहुँचे। कॉफी से निपट कर अदालतों का चक्कर लगाया तो पता लगा 80%  जज कैजुअल लीव पर हैं। काम वैसे ही नहीं होना था, एक-एक जज पर पांच-पांच अदालतों की फाइलों पर ऑटोग्राफ बनाने का भार था। बार ने अपने एक वकील के सम्मान का मौका भी न छोड़ा और न्याय प्रशासन की मदद भी कर दी। यह भी आकलन हो गया कि शनिवार को भी ये जज कैजुअल पर ही होंगे और काम नहीं होगा। सोमवार को निश्चित ही दीपावली मिलन का समारोह होना है, तो काम उस दिन भी नहीं होगा।

हमें भी सकून मिला कि अवकाश पर आए बच्चों के साथ चार दिन और बिताने को मिलेंगे।

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

किसे बचाने की आवश्यकता है? बैंकों को? नहीं, मनुष्य को?

कल दो समाचार पढ़ने को मिले जिन्हों ने कार्ल मार्क्स की पुस्तक "पूंजी" को पढ़ने और समझने की इच्छा को और तीव्र कर दिया। अब लगता है उसे पढ़ना और समझना जरूरी हो गया है। दोनों समाचार इस तरह हैं ...

म्युनिख (जर्मनी) के एक रोमन कैथोलिक आर्चबिशप रिन्हार्ड मार्क्स ने एक और दास कैपीटल लिख कर बाजार में उतार दी है। निश्चय ही वे इस समय कार्ल मार्क्स और उन की पूंजीवाद के विश्लेषण की पुस्तक "पूँजी" की बढ़ती हुई लोकप्रियता को अपने लिए भुनाना चाहते हैं। हालाँकि उन्हों ने कहा कि यह पुस्तक साम्यवाद के प्रचार और उस की रक्षा के लिए नहीं अपितु रोमन कैथोलिक संप्रदाय की सामाजिक शिक्षाओं को मौजूदा सामाजिक परिस्थितियों में लागू करने के लिए लिखा गया है। इस पुस्तक का प्रथम अध्याय 19वीं शताब्दी के विचारक कार्ल मार्क्स को संबोधित करते हुए एक पत्र की शैली में लिखा गया है। इस पुस्तक को बुधवार को जारी किया गया। इस से यह तो साबित हो ही गया है कि कार्ल मार्क्स इन दिनों तेजी से फैशन में आए हैं और शिखर पर मौजूद हैं।

उधर 1998 का साहित्य का नोबल पुरस्कार प्राप्त जोस सर्मागो ने जो पुर्तगाल के अब तक के अकेले नोबुल पुरस्कार प्राप्त व्यक्ति हैं, ब्राजीलियन मास्टर फर्नान्डो मियरलेस द्वारा निर्देशित एक फिल्म प्रस्तुत करते हुए कह दिया कि कार्ल मार्क्स उतने सही कभी भी नहीं थे जितना कि आज हैं। उन्हों ने कहा कि सारा धन बाजार में लगा दिया गया है, फिर भी वह इतनी तंगी है। ऐसे में किसे बचाने की आवश्यकता है?  बैंकों को?  नहीं, मनुष्य को?

सरमागो ने कहा कि अभी इस से भी खराब स्थिति आने वाली है। उन से जब पूछा गया कि फिल्म की थीम और अर्थव्यवस्था के संकट में क्या संबंध है तो उन्होंने कहा कि " हम हमेशा थोड़े बहुत अंधे होते हैं, विशेष रुप से इस मामले में कि कौन सी बात जरूरी है"। सरमागो के करीब तीस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिन में कविता, गद्य और नाटक सम्मिलित हैं। अभी निमोनिया से उबरने के उपरांत उन्हों ने अपना नवीनतम उपन्यास "एक हाथी की यात्रा" सम्पन्न किया है, जिस में एक एशियाई हाथी की सोलहवीं शताब्दी में यूरोप की कहानी का वर्णन है।

इन दोनों समाचारों को पढ़ने के बाद अपने एक अजीज मित्र से कार्ल मार्क्स की "पूँजी" को अपने कब्जे में करने का इन्तजाम आज कर लिया गया है। हो सकता है, अगले रविवार तक वह मेरे कब्जे में आ जाए। फिर उसे पढ़ने और आप सब के साथ मिल बांटने का अवसर प्राप्त होगा।
  • चित्र - 1998 का साहित्य का नोबल पुरस्कार प्राप्त जोस सर्मागो

बुधवार, 29 अक्तूबर 2008

जय जय गोरधन! गीत-हरीश भादानी

आज गोवर्धन पूजा है। इस मौके पर स्मरण हो आता है हरीश भादानी जी का गीत "जय जय गोरधन !"
हरीश भादानी राजस्थान के मरुस्थल की रेत के कवि हैं।राजस्थानी और हिन्दी में उन का समान दखल है।   11 जून 1933 बीकानेर में (राजस्थान) में जन्मे । 1960 से 1974 तक वातायन (मासिक) का संपादन किया। कोलकाता से प्रकाशित मार्क्सवादी पत्रिका 'कलम' (त्रैमासिक) से भी आपका गहरा जुड़ाव रहा है। अनौपचारिक शिक्षा, पर 20-25 पुस्तिकायें प्रकाशित। राजस्थान साहित्य अकादमी से "मीरा" प्रियदर्शिनी अकादमी, परिवार अकादमी, महाराष्ट्र, पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी(कोलकाता) से "राहुल"  और  के.के.बिड़ला फाउंडेशन से "बिहारी" सम्मान से आपको सम्मानीत किया जा चुका है।

"जय जय गोरधन"  सत्ता के अहंकार के विरुद्ध जनता का गीत है..



 
।। जय जय गोरधन ।।
* हरीश भादानी *


काल का हुआ इशारा
लोग हो गए गोरधन !

 
हद कोई जब
माने नहीं अहम,
आँख तरेरे,
बरसे बिना फहम, 
 तब बाँसुरी बजे
बंध जाए हथेली
ले पहाड़ का छाता 
जय जय गोरधन 
काल का हुआ इशारा!

हठ का ईशर 
जब चाहे पूजा,
एक देवता
और नहीं दूजा,
तब सौ हाथ उठे
सड़कों पर रख दे
मंदिर का सिंहासन
जय जय गोरधन 
काल का हुआ इशारा!

सेवक राजा 
रोग रंगे  चोले,
भाव ताव कर
राज धरम तोले,
तब सौ हाथ उठे,
उठ थरपे गणपत
 गणपत बोले गोरधन
जय जय गोरधन !

काल का हुआ इशारा
 लोग हो गए गोरधन !
  *******
 

सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

पता नहीं उन की दीवाली कैसी होगी?

कल से ही घर पर हूँ, दीवाली की तैयारियाँ जोरों पर हैं। बिजली वाला बल्ब लगा गया है, कल रात से ही जलने लगे हैं। शोभा (पत्नी) लगातार व्यस्त है पिछले कई दिनों से। बल्कि यूँ कहूँ कि महिनो से। कभी सफाई, कभी पुताई, कभी धुलाई, बच्चों के लिए कपड़े, त्यौहार के लिए मिठाइयाँ और पकवान निर्माण और इन सब के साथ-साथ घर का रोजमर्रा का काम। कितनी ऊर्जा भरी पड़ी है महिलाओं में, मैं दंग रह जाता हूँ। बच्चे आ गए पहले बेटा आया उस ने कुछ कामों में हाथ बंटाया, बाकी समय अपने मित्रों से मिलने में लगा रहा। सब घर जो आए हैं दीवाली पर। बेटी आई तब से कहीं नहीं गई। एक पुराने काम वाले टॉपर को ठीक करने में लगी है दो दिन से बाकी माँ का हाथ बंटा रही है।  उसे वापसी का रिजर्वेशन दो नवम्बर का चाहिए, चार का उस के पास है। तत्काल में हो सकता है। लेकिन रेल्वे की कोई साइट यह नहीं बता रही है किस ट्रेन में कितनी सीटें खाली हैं। कल ही सुबह रिजर्वेशन विण्डो पर सबसे पहले लाइन में लगने के लिए कितने घंटे पहले जाना होगा हम यही कयास लगाने आज जा कर सुबह आठ बजे विण्डो का नजारा करने गए। कुल मिला कर काम उतना ही कठिन जितना हनुमान के लंका जा कर सीता का पता लगाने का था। वे लंका जला आए थे, हम से तो आज लाइटर से गैस भी न जली, माचिस से जलाना पड़ा। कल रिजर्वेशन करा पाएँगे या नहीं मैं तो क्या भगवान भी न बता पाएंगे।

दोपहर भोजनोपरांत कम्प्यूटर पर बैठा ही था कि फोन घनघना उठा। एक पुराने मुवक्किल का था। कहने लगा एक केस ले कर आ रहा हूँ, घर ही मिलना।  मैं सोच रहा था दीवाली के दिन कैसी विपत्ति आन पड़ी? अदालतें भी शुक्रवार के पहले नहीं खुलेंगी। फिर भी  वह सौ किलोमीटर दूर लाखेरी से कोटा आया हुआ है, तो जरूर कोई विपत्ति ही रही होगी, मैं ने आने को हाँ कह दिया। करीब बीस मिनट बाद वह मेरे घर के कार्यालय में था। करीब साठ की उम्र होगी उस की, साथ में एक तीस-पैंतीस की महिला और एक लड़का करीब पच्चीस साल का साथ था। उस ने बताया कि वह उस की बेटी और भान्जा है। फिर वह कथा बताने लगा।

 अठारह साल पहले बेटी का ब्याह किया था तब वह सोलह की थी। अब कोटा में ही अपने पति के साथ रहती है। उस के छह और आठ वर्ष के दो बेटे हैं। पति पेन्टिंग का काम करता है। बेटी ने बताया कि कई साल से वह सिलाई का काम करती है जिस से करीब तीन-चार हजार हर माह कमा लेती है। पति कभी काम पर जाता है कभी नहीं जाता। जितना कमाता है उस का क्या करता है? पता नहीं। तीन बार मकान बनाए तीनों बार बेच दिए। खुद किराए के मकान में रहते रहे। पिछली बार मकान बनाने पर कर्जा रह गय़ा था जिसे पिता जी से चालीस हजार ले कर चुकाया। लेकिन कुछ दिन बाद ही मकान को बेच कर एक प्लाट खरीद लिया और उस पर निर्माण का काम चालू कर दिया। उसने अपना कमाया एक लाख रुपया मकान बनाने में पति को दे दिया। करीब पचास हजार अपने पिता से ला कर और दे दिया। करीब  तीस हजार अपने सिलाई के ग्राहकों से उधार दिलवा दिया।

तीन माह पहले मकान तैयार होते ही वे उस में जा कर रहने लगे। एक कमरा मेरे पास है, एक ससुर के पास।  अब पति कहता है इस मकान से निकल मकान बेचूंगा। दारू पी कर मारता है। पुलिस में शिकायत भी कर चुकी हूँ। मोहल्ले में बदनाम करता है कि मेरी औरत अच्छी और वफादार नहीं है। झगड़ा शुरू हुआ था, घर खर्च से, घर में सारा खर्च मैं डालती हूँ। बच्चों की फीस मैं देती हूँ। एक दिन बच्चों के रिक्शे वाले को किराया देने को कहा तो झगड़ा हुआ और आदमी से मार खाई। उस के बाद से अक्सर हाथ उठा लेता है। ससुर और देवर पति का साथ देते हैं। मुझे सताने को बच्चों को मारने लगता है। वह कहता है मैं मकान बेचूंगा। मैं कहती हूँ कि मकान में दो लाख से ऊपर तो मेरा लगा है। घर मैं चलाती हूँ। तेरा क्या है? कैसे मकान बेचेगा? एक दिन पीहर गई तो मकान के कागज निकाल कर ले गया और अभी अपनी बहिन से मेरे और खुद के नाम नोटिस भिजवाया है कि मकान बहिन का है हम उस में किराएदार हैं। पांच महीने से किराया नहीं दिया है। मकान खाली कर संभला दो नहीं तो मुकदमा करेगी। अभी पुलिस ने समझौते के लिए बुलाया था, नहीं माना। सहायता केन्द्र से बाहर आते ही धमकी दे दी कि मैं तो चाहता था कि तू मुकदमा करे तो मेरा रास्ता खुले। पुलिस वालों ने 498-ए, 406 और 420 आई पी सी में,  घरेलू हिंसा कानून में और मकान में हिस्से के लिए मुकदमे करने को कहा है। मेरे मुवक्किल, उस के पिता ने कहा कि मार-पीट से बचने को उस ने अपने भान्जे को उस के पास रख छोड़ा है।

खैर तुरंत कुछ हो नहीं सकता था। मैं ने पुलिस द्वारा अब तक की गई कार्यवाही के कागज लाने को कहा और अदालत खुलने पर शुक्रवार को आने को कहा। वे चले गए।

ऐन दिवाली के बीच, जब मैं सब को हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित कर रहा हूँ, परिवार के लिए सर्वांग समृद्धि की कामना कर रहा हूँ। वहाँ एक घर टूट रहा है। एक महिला ने अपने पैरों पर खड़े हो कर एक घर बनाया, उसे वह बचाना भी चाहती है। अच्छे खासे पेंटर पति को जो रोज कम से कम दो सौ रुपए, माह में पाँच हजार कमा सकता है। मकान बना कर बेचने और मुनाफा कमाने का ऐसा चस्का लगा है कि उस में उस ने अपने काम को  छोड़ दिया, पत्नी और अपने ससुर का कर्जदार हो गया, लेकिन उस कर्ज को चुकाना नहीं चाहता। चाहता है पत्नी घर चलाती रहे, वह मकान बनाए और बेचे। जल्दी ही करोड़ पति हो जाए। सम्पत्ति उस के पास रहे और पत्नी मार खाती रहे, बच्चे बिना कसूर पिटते रहें। पत्नी और बच्चे ऐसे रहें कि जब चाहो तब उन्हें घर से बाहर धकेल दो। 

खुद्दार, खुदमुख्तार पत्नी अब पिटना नहीं करना चाहती, वह अपने पैरों पर खड़ी है। केवल इतना चाहती है उस का घर बसे। लेकिन पति भी तो सहयोग करे। अभी वे सब एक ही घर में हैं। पर इस शीत-युद्ध के बीच पता नहीं कैसे उन की दीवाली होगी? और छह-आठ वर्ष के बच्चे पता नहीं उन की दीवाली कैसी होगी? और कब तक उन का घर बचा रहेगा?

शनिवार, 25 अक्तूबर 2008

लघुत्तम आलेख - मेरे घर दीवाली आ गई है।


पूर्वा (बेटी) अभी-अभी घर पहुँची है, वैभव (बेटा) परसों दोपहर ही पहुँच चुका था, मेरे घर दीवाली आ गई है।






आप सभी को दीपावली पर ढेरों शुभ कामनाएँ!

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

मार्क्स फिर से फैशन में .....

हसन सरूर लंदन से दी हिन्दू के लिए लिखते हैं ....... 

पूंजीवाद के वैश्विक संकट के समय कार्ल मार्क्स पश्चिम में फिर से फैशन में लौट आए हैं। उन का मौलिक काम दास कैपीटल फिर से बेस्ट-सेलर्स की सूची में है। उन की अपनी मातृभूमि जर्मनी में इस किताब की  अलमारियां खाली हो रही हैं, क्यों कि असफल बैंकर्स और स्वतंत्र बाजार के अर्थशास्त्रियों की  वैश्विक आर्थिक गलन को समझने की कोशिश नाकाम रही। मार्क्स के जन्मस्थान ट्रायर में दर्शनार्थियों की संख्या अचानक बढ़ गई है और एक फिल्मकार एलेक्जेंडर क्लूग दास कैपिटल के फिल्मीकरण की योजना बना रहे हैं। फ्रांसिसी राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ने इसे दिशा-निर्धारक कहा है, जर्मन वित्त मंत्री पीर स्टीनब्रुक सर्वत्र इस की प्रशंसा कर रहे हैं और पोप इस के महान विश्लेषणात्मक गुणों की सराहना।

आर्चविशप कैंटरबरी रोवन विलियम्स मार्क्स के विश्लेषण को स्मरण करते हुए कहते हैं कि मार्क्स ने बहुत पहले दिखा दिया था कि निरंकुश पूँजीवाद एक प्रकार की पौराणिक कथा, घिसी हुई वास्तविकता और निर्जीव शक्तियों का अभिकर्ता हो जाएगा।  

आखिर क्या है? इस मार्क्स की दास कैपीटल में कि इस के लेखक को पूरी एक शताब्दी तक जम कर गालियाँ दी गई, जम कर कोसा गया।  आज फिर उन्हीं गालियाँ देने वालों के अनुयायी फिर से उसी मार्क्स को स्मरण कर रहे हैं। आखिर कुछ तो लिखा होगा उस ने।

बहुत पहले, करीब तीस साल पहले जब कार्ल मार्क्स भारत में बहुत चर्चा का विषय था। मैं ने पूंजी का हिन्दी अनुवाद खरीदा था, बहुत सस्ते में। मगर इस साल दीवाली की सफाई में वह नहीं मिला। मुझे उसे पढ़ने की फुरसत मिलती इस से पहले कोई उसे खुद अपने पढ़ने के लिए या फिर अपना पुस्तकालय सजाने के लिए ले गया।  

सोचता हूँ मार्क्स की पूंजी दास कैपिटल की एक प्रति मैं भी कहीं से प्राप्त कर पढ़ लूँ। जान लूँ , कि क्यों इन तमाम जाने माने लोगों को यह किताब पूँजी के वैश्विक संकट के समय याद आ रही है? वह मुझे मिल गई तो उसे जरूर पढ़ूंगा और आप को बताऊंगा भी, कि क्या लिखा है उस में? 

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2008

लिव-इन-रिलेशनशिप क्या पसंद का मामला नहीं है?

मैं ने लिव-इन के बारे में कानूनी पहलू रखे। लेकिन इस संबंध के लिए एक गंभीर और महत्वपूर्ण सोच की तलाश में था। मैं पढ़ता रहा और पढ़ता रहा। मुझे जो पहला आलेख इस विषय पर गंभीरता के साथ विमर्श करता हुआ लगा, वह भोपाल के एक पत्रकार ब्लॉगर अजय का था। अजय ने यह आलेख अपने मित्रों और सहकर्मियों के साथ लम्बी बहस और इस विषय पर बहुत कुछ पढ़ने के बाद लिखा है। मैं उन के इस आलेख से बहुत प्रभावित हुआ और उन के तर्कों से सहमत भी।
मैं अजय से परिचित नहीं हूँ, लेकिन उन के अंग्रेजी ब्लॉग कैफे चॉट (cafechat) पर जो कुछ उन्हों ने इस संबंध में लिखा है वह बहुत महत्वपूर्ण है।
वे प्रश्न करते हैं कि क्या हम ने वास्तव में इस लिव-इन संबंध को समझते हैं? इस के बाद करीब पन्द्रह प्रश्नों को सामने रखते हुए अंत में कहते हैं कि क्या इस संबंध अर्थ यह है कि यह आवश्यक रूप से शारीरिक संबंधों के साथ आरंभ होता है? और यही वह बात है जो इस शोरगुल के पीछे खड़ी है या कथित विचारकों के जेहन में है। वे कहते हैं कि इस तरह आप विवाहपूर्व और विवाहेतर संबंधों को कानूनी शक्ल दे देंगे। पर क्या इस तरह के संबंध कानूनी शक्ल   दिए बिना भी कानून के अस्तित्व में नहीं है? और क्या इसे कानून की शक्ल दे देने के बाद भी बने नहीं रहेंगे? यदि हम भारत में किए गए सर्वेक्षणों को देखें तो आप के जबड़े घुटनों पर आ जाएंगे।
उन्होंने तथ्य प्रस्तुत करते हुए अनेक प्रश्न सामने रखे हैं।
जैसे ....
क्या गारंटी है कि पुरुष विवाह होने के बाद अपनी संगिनी को धोखा नहीं देगा?
क्या विवाह दो ऐसे व्यक्तियों को जो एक दूसरे के पसीने की गंध से वाकिफ नहीं उन्हें साथ सोने को कह देता है। क्या इसे पसंद का मामला नहीं होना चाहिए।
इस तरह के अनेक प्रश्नों पर वे विचार करते हैं। यदि आप को इस विषय में रुचि है और अंग्रेजी पढ़ने में आप को कोई परेशानी नहीं है तो आप को यह आलेख अवश्य ही पढ़ना चाहिए।  
आप चाहें तो यहाँ Is It Not A Matter Of Choice? पर जा कर उसे स्वयं पढ़ सकते हैं। हालांकि वे जो लिख रहे हैं यह उस का पहला भाग है। मैं समझता हूँ सभी भाग रोचक, महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक होंगे।

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2008

बीस साल बाद? लौट रहा है उस का प्रेत

बीस साल पहले जिसे दफ़्न कर दिया गया था। नगर के बीच की दीवार गिरा दी गई थी और उस के मलबे के ढेर के नीचे उस की कब्र को दबा दिया गया था। कभी न खुल सके उस की कब्र। कोई भूले से भी उसे याद न करे। वह अच्छे बुरे सपनों में भी न आए। लेकिन अब उसी कब्र में प्रेत अब लौट रहा है। दुनिया के मशहूर खबरची रॉयटर ने यही खबर दी है।

बर्लिन की दीवार के गिरने के बीस साल बाद जर्मनी के पुस्तक विक्रेताओं के लिए 141 वर्ष पुरानी एक किताब बेस्ट सेलर हो गई है। जी, हाँ¡ यह साम्यवाद के संस्थापक पिता कार्ल मार्क्स की पूँजीवाद की आलोचनात्मक समीक्षा की पुस्तक दास कैपिटल (पूँजी) है। अकादमिक प्रकाशक दीत्ज़ वेर्लाग के लिए यह एक बेस्ट सेलर है। हर प्रकाशक सोचता था कि इस किताब को कभी कोई मांगेगा। लेकिन वे 1990 के मुकाबले दास कैपिटल सौ गुना प्रतियाँ बेच चुके हैं। यहाँ तक कि इन दिनों बैंकर्स और प्रबंधक दास कैपिटल पढ़ रहे हैं।

पूर्वी जर्मनी भारी बेरोजगारी से गुजर रहा है, ऐसे में कार्ल मार्क्स की वापसी को पूँजीवाद को खारिज करने के रूप में देखा जा रहा है। अमरीका में पिछले माह हुई भारी आर्थिक उथल पुथल और सरकारी बेल-आउट की श्रंखला जर्मनी और हर जगह पूँजीवाद विरोधी भावनाओं को पुनर्स्थापित कर रहा है।

एक ताजा सर्वे के अनुसार 52% पूर्वी जर्मनों की राय में स्वतंत्र बाजार की अर्थव्यवस्था उचित नहीं है। 43% की समझ है कि पूँजीवाद के मुकाबले समाजवाद बेहतर है। 46 वर्ष के एक आई टी प्रोफेशनल ने कहा कि हमने स्कूलों में पूँजीवाद की भयावहता के बारे में पढ़ा था, वह सब सही निकला। मेरा जीवन बर्लिन की दीवार गिरने के पहले बेहतर था। धन के बारे में किसी को दुख नहीं है क्यों कि उस का कोई महत्व नहीं है। आप नहीं चाहने पर भी आप के लिए एक नौकरी है, इस साम्यवादी विचार का कोई मुकाबला नहीं है। पूर्वी जर्मनी में बेरोजगारी 14 प्रतिशत है और वेतन कम हैं। जर्मनी के एकीकरण के बाद दसियों लाख नौकरियाँ चली गई हैं। बहुत से कारखाने पश्चिमी प्रतियोगियों ने खरीदे और उन्हें बंद कर के चले गए।

पुराने पूर्वी बर्लिन के एक 76 वर्षीय लुहार ने कहा कि मैं सोचता था कि साम्यवाद बुरा है लेकिन पूँजीवाद उस से भी बुरा है। स्वतंत्र बाजार क्रूर है, पूँजीपति अपने लिए और, और, और मुनाफा चाहते हैं। 46 वर्षीय क्लर्क मोनिका वेबर ने कहा कि मेरी सोच से पूँजीवाद  उचित व मानवीय व्यवस्था नहीं है। समृद्धि का वितरण अनुचित है, मेरे जैसे छोटे लोग देख रहे हैं कि लालची बेंकरों के संकट का भुगतान हम कर रहे हैं।

लेकिन सब ऐसा सोचने वाले नहीं है। कुछ यह भी कह रहे हैं कि पूँजीवाद बुरा है लेकिन समाजवाद में भी कुछ तो खामियाँ थीं।

खुश खबरी, जेट की छंटनी वापस, लोग चटनी न हुए

अभी अभी खबर मिली है कि जेट एयरवेज की छंटनी प्रबंधकों  ने वापस ले ली है। मेरे लिए इस से अच्छी खबर कोई नहीं हो सकती। मैं ने कोटा के जे.के. सिन्थेटिक्स लि. में 1983 जनवरी में हुई 2400 स्थाई कर्मचारियों की छंटनी और 5000 अन्य लोगों का बेरोजगार होना देखा है। उस छंटनी का अभिशाप कोटा नगर आज तक झेल रहा है। उस के बाद 1997 में जे. के. सिन्थेटिक्स के कोटा और झालावाड़ के सभी कारखानों का बंद होना और आज तक उन का हिसाब कायदे से नहीं देना भी देखा। उन कर्मचारियों और उन के परिवारों में से डेढ़ सैंकड़ा से अधिक को आत्महत्या करते भी देखा है। आज तक वे परिवार नहीं उठ पाए हैं।

जिस समस्या के हल के लिए छंटनी की जा रही थी। छंटनी उसे और तीव्र करती है। मंदी का मूल कारण था मुनाफे का लगातार पूंजीकरण और आम लोगों तक प्रगति का लाभ नहीं पहुँचना। जब आम लोगों तक धन पहुँचेगी ही नहीं तो बाजार में खरीददार आएगा कहाँ से? छंटनी से तो आप आम लोगों तक धन की पहुँच आप और कम कर रहे हैं। सीधा सीधा अर्थ है कि आप बाजार के संकुचन में वृद्धि कर रहे हैं। आग में घी ड़ाल रहे हैं।

इसी को कहते हैं, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना। अपनी कब्र खुद अपने हाथों खोद डालना। पूँजीवाद यही करता है और कर रहा है। सदी पहले मंदी का दौर 15-16 वर्ष में आता था। सदी भर में यह 6-8 वर्ष रह गया। अब हालात है कि विश्व एक मंदी से उबर ही रहा होता है कि अगली मंदी की आगाज हो जाता है। सपने अंत तक देखें जाएँ उस के पहले ही टूट रहे हैं।

हम ने मार्क्सवाद और इतिहास के अंत की घोषणाएँ सुनी और उस पर विश्वास भी किया। समाजवाद को दफ्न कर दिया ताकि मनुष्यों को रौंदता पूँजीवाद अमर हो जाए। पर अमृत की तलाश तो सभी को थी। दास-युग, सामंतवाद को भी। वे अमर नहीं हो सके। कोई अमर नहीं है, सिवाय इस दिशा-काल-पदार्थ-ऊर्जा की इस शाश्वत व्यवस्था के। यह पूँजीवाद भी अमर नहीं। सोचना तो पड़ेगा कि मनुष्य समाज आगे किस व्यवस्था में प्रवेश करने वाला है?

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

सुंदर कितना लगता है, पूनम का ये चांद,? शहर से बाहर आओ तो .......

स्मृति और विस्मृति पल पल आती है, और चली जाती हैं। कल तक स्मरण था। आज काम में विस्मृत हो गया। पूरा एक दिन बीच में से गायब हो गया। दिन में अदालत में किसी से कहा कल शरद पूनम है तो कहने लगा नहीं आज है। मैं मानने को तैयार नहीं। डायरी देखी तो सब ठीक हो गया। शरद पूनम आज ही है। शाम का भोजन स्मरण हो आया। कितने बरस से मंगलवार को एक समय शाम का भोजन चल रहा है स्मरण नहीं। शाम को घर पहुँचा तो शोभा को याद दिलाया आज शरद पूनम है। कहने लगी -आप ने सुबह बताया ही नहीं, मेरा तो व्रत ही रह जाता। वह तो पडौसन ने बता दिया तो मैं ने अखबार देख लिया।

- तो मैं दूध ले कर आऊँ?
- हाँ ले आओ, वरना शाम को भोग कैसे लगेगा? रात को छत पर क्या रखेंगे?
मुझे स्मरण हो आया अपना बालपन और किशोरपन। शाम होने के पहले ही मंदिर की छत पर पूर्व मुखी सिंहासन को  सफेद कपड़ों से सजाया जाता। संध्या आरती के बाद फिर से ठाकुर जी का श्रंगार होता। श्वेत वस्त्रों से। करीब साढ़े सात बजे, जब चंद्रमा बांस  भर आसमान चढ़ चुका होता। ठाकुर जी को खुले आसमान तले सिंहासन पर सजाया जाता। कोई रोशनी नहीं, चांदनी और चांदनी, केवल चांदनी। माँ मन्दिर की रसोई में खीर पकाती। साथ में सब्जी और देसी घी की पूरियाँ। फिर ठाकुर जी को भोग लगता। आरती होती। जीने से चढ़ कर दर्शनार्थी छत पर आ कर भीड़ लगाते। कई लोग अपने साथ खीर के कटोरे लाते उन्हें भी ठाकुर जी के भोग में शामिल किया जाता।

किशोर हो जाने के बाद से मेरी ड्यूटी लगती खीर का प्रसाद बांटने में। एक विशेष प्रकार की चम्मच थी चांदी की उस से एक चम्मच सभी को प्रसाद दिया जाता। हाथ में प्रसाद ले कर चल देते। लेकिन बच्चे उन्हें सम्हालना मुश्किल होता। वे एक बार ले कर दुबारा फिर अपना हाथ आगे कर देते। सब की सूरत याद रखनी पड़ती। दुबारा दिखते ही डांटना पड़ता। फिर भी अनेक थे जो दो बार नहीं तीन बार भी लेने में सफल हो जाते।

कहते हैं शरद पूनम की रात अमृत बरसता है। किसने परखा? पर यह विश्वास आज भी उतना ही है। जब चांद की धरती पर मनुष्य अपने कदमों की छाप कई बार छोड़ कर आ चुका है। सब जानते हैं चांदनी कुछ नहीं, सूरज का परावर्तित प्रकाश है। सब जानते हैं चांदनी में कोई अमृत नहीं। फिर भी शरद की रात आने के पहले खीर बनाना और रात चांदनी में रख उस के अमृतमय हो जाने का इंतजार करना बरकरार है।

शहरों में अब शोर है, चकाचौंध है रोशनी की। चकाचौंध में हिंसा है। और रात में किसी भी कृत्रिम स्रोत के  प्रकाश के बिना कुछ पल, कुछ घड़ी या एक-दो प्रहर शरद-पूनम की चांदनी में बिताने की इच्छा एक प्यास है। वह चांदनी पल भर को ही मिल जाए, तो मानो अमृत मिल गया। अमर हो गए। अब मृत्यु भी आ जाए कोई परवाह नहीं। भले ही दूसरे दिन यह अहसास चला जाए। पर एक रात को यह रहे, वह भी अमृत से क्या कम है।

साढ़े सात बजे दूध वाले के पास जा कर आया। दूध नहीं था। कहने लगा आज गांव से दूध कम आया और शरद पूनम की मांग के कारण जल्दी समाप्त हो गया। फिर शरद पूनम कैसे होगी?  कैसे बनेगी खीर? और क्या आज की रात अमृत बरसा, तो कैसे रोका जाएगा उसे? उसे तो केवल एक धवल दुग्ध की धवल अक्षतों के साथ बनी खीर ही रोक सकती है। दूध वाले से आश्वासन मिला, दूध रात साढ़े नौ तक आ रहा है। मैं ले कर आ रहा हूँ। मेरे जान में जान आई। घर लौटा तो शोभा ने कहा स्नान कर के भोजन कर लो। जब दूध आएगा, खीर बन जाएगी। रात को छत पर चांदनी में रख अमृत सहेजेंगे। प्रसाद आज नहीं सुबह लेंगे। पूनम को नहीं कार्तिक के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को।

मैं ने वही किया जो गृहमंत्रालय का फरमान था। अब बैठा हूँ, दूग्धदाता की प्रतीक्षा में। दस बज चुके हैं। वह आने ही वाला होगा। टेलीफोन कर पूछूँ? या खुद ही चला जाऊँ लेने? मैं उधर गया और वह इधर आया तो? टेलीफोन ही ठीक रहेगा।

मैं बाहर आ कर देखता हूँ। चांद भला लग रहा है। जैसे आज के दिन ही उस का ब्याह हुआ हो। लेकिन ये दशहरा मेले की रोशनियाँ, शहर की स्ट्रीट लाइटस् और पार्क के खंबों की रोशनियाँ कहीं चांद को मुहँ चिढ़ा रही हैं जैसे कह रही हों अब जहाँ हम हैं तुम्हें कौन पूछता है? मेरा दिल कहता है थोड़ी देर के लिए बिजली चली जाए। मैं चांद को देख लूँ। चांद मुझे देखे अपनी रोशनी में। मैं सोचता हूँ, मेरी कामना पूरी हो,  बिजली चली जाए उस से पहले मैं इस आलेख को पोस्ट कर दूँ। मेरी अवचेतना में किसी ग्रामीण का स्वर सुनाई देता है ......

सुंदर कितना लगता है? पूनम का ये चांद,
जरा शहर से बाहर आओगे तो जानोगे,
खंबों टंगी बिजलियाँ बुझाओ तो जानोगे........


पुनश्चः - दूध वाला नहीं आया।  आए कमल जी मेरे कनिष्ठ अधिवक्ता। मैं ने कहा - दूध लाएँ? वह अपनी बाइक ले कर तैयार दूध वाला गायब दुकान बंद कर गया। उसे कोसा। अगली दुकान भी बंद। कमल जी ने बाइक अगले बाजार में मोड़ी। वहाँ दूध की दुकान खुली थी। मालिक खुद बैठा था। उस के खिलाफ कुछ दिन पहले तक मुकदमा लड़ा था। मैं ने कहा - दूध दो बढ़िया वाला।
उस ने नौकर को बोला - प्योर वाला देना।

दूध ले कर आए। अब खीर पक रही है।
फिर जाएंगे उसे ले कर छत पर। अमृत घोलेंगे उस में। घड़ी, दो घड़ी।
अब बिजली चली ही जाना चाहिए, घड़ी भर के लिए......

कोटा के कोचिंग छात्रों पर पुलिस का शिकंजा

श्री वी के बंसल बसंल क्लासेज कोटा 
के संचालक और उन के संस्थान की 
नयी इमारत
कुछ दिनों से यह सिलसिला चल रहा है। कोटा शहर में अपराधों की बाढ़ अचानक नहीं आयी है। यह कुछ राजनीति के चलते पुलिस का अपाराध नियंत्रण ढीला होते जाने का असर है। कोटा में 60-70 विद्यार्थी पूरे देश से आईआईटी, इंजिनियरिंग और मेडीकल कोर्सों में दाखिले के लिए कोचिंग करने आते हैं। कोटा के बंसल क्लासेज, एलन कैरियर, कैरियर पाइंट और रेजोनेन्स आदि कोचिंग संस्थान देश में ही नहीं विदेशों में भी लोकप्रिय हैं। इन के अलावा सैंकड़ों शिक्षक हैं जो पूरे श्रम और काबिलियत से छात्रों को ट्यूशन प्रदान करते हैं। इन संस्थानों में आने वाले विद्यार्थी अधिकतर विज्ञाननगर, तलवंडी, महावीर नगर, इन्द्रविहारऔर कैशवपुरा में किराये के मकानों और छात्रावासों में अपने अस्थाई घोंसले बनाते हैं। बाहर से आए इन विद्यार्थियों के बीच सभी पढ़ने वाले हों यह आवश्यक नहीं। इन में अनेक धनिक परिवारों के विद्रोही भी हैं जो घर के पैसे पर साल दो साल मौज करने यहाँ आते हैं और उन में से अनेक अपराधों में लिप्त हो जाते हैं। इन इलाकों में अपरिचिच चेहरों के बीच अपराधियों को छुपने का भी अच्छा अवसर प्राप्त हो सकता है।

इन अल्पवय विद्यार्थियों के साथ मोबाइल चुरा लेना, पैसे चुरा लेना लड़कियों को छेड़ना आदि छोटे अपराध होते रहते हैं। लेकिन इन इलाकों में कुछ बहुत गंभीर अपराध डकैती और हत्याओं के हुए हैं। पुलिस अपने ही अनियंत्रण से परेशान है। उस ने पिछले दिनों नयी युक्ति निकाली कि ऐसे छात्रों की सूचियाँ कोचिंग संस्थानों से मांगी जो अनियमित हैं या बहुत लंबे समय तक अनुपस्थित रहे हैं। उन की जाँच किये बिना या जाँच कर के उन्हें कोचिंग संस्थानों से नोटिस दिलवाये गए हैं। अनेक छात्र जो बीमारी या दूसरे वाजिब कारणों से कुछ दिनों से अपने संस्थानों से गैरहाजिर रहे थे उन्हें भी नोटिस मिल गए वे भी परेशान हैं। नतीजा यह कि बात टीवी चैनलों तक पहुँच गई और कल उस पर रिपोर्ट पढ़ने को मिली।

आज खबर है कि पुलिस ने 500 छात्रों की सूचि बना ली है। दो पुलिस थानों को उन्हें जाँचने की जिम्मेदारी दे कर विशेष दल बनाया गया है। पहले पुलिस मामूली शिकायतों पर छात्रों को डरा धमका कर, समझा कर, समझौता करवा कर छोड़ दिया करता था। लेकिन अब गलती पर हिदायत देने के बजाय सीधे एफआईआर दर्ज की जाएगी। पूरी तरह भटका हुआ पाए जाने पर छात्र के अभिभावकों को सूचित करेगा और उसे वापस घर भिजवाने की व्यवस्था कर देगा।
इस से बड़े अपराध तो क्या कम होंगे? लेकिन छात्रों पर अंकुश जरूर लग जाएगा।

रविवार, 12 अक्तूबर 2008

रावण कैसे मरे?

रावण कैसे मरे? 
  • दिनेशराय द्विवेदी
इस साल नगर निगम ने 
रावण के पुतले के लिए 
ढाई लाख मंजूर किए। 

15% का रावण बना,
बाकी रकम गई 
महापौर, सीईओ, आयुक्त  
और बाबुओं की जेब में।

इलाके के मंत्री भी शामिल थे।
रावण मरा केवल 15%  
85% जिन्दा रहा।
 
आप बताएँ 
रावण कैसे मरे?

शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

लिव-इन-रिलेशनशिप 65% से अधिक भारतीय समाज की वास्तविकता है

समाज और लोग कितना ही नाक भौंह सिकोडें, कितने ही कुढ़ लें और कितनी ही आलोचना कर लें। लिव-इन-रिलेशन (सहावासी) रिश्ता अब एक ठोस वास्तविकता है, इस नकारा जाना नामुमकिन है। विवाह जहाँ एक सामाजिक बन्धन है वहीं इस रिश्ते में सामाजिक मुक्ति है। न कोई सामाजिक दायित्व है और न ही कोई कर्तव्य। कोई एक दूसरे के लिए कुछ दायित्व समझता भी है, तो बिना किसी दबाव के। एक पुरुष और एक स्त्री साथ रहने लगते हैं। वे किसी सामाजिक और कानूनी बंधन में नहीं बंधते। फिर भी उन के बीच एक बंधन है। क्या चीज  है? जो उन्हें बांधती है। यह अब एक शोध का विषय हो सकता है। इस विषय पर सामाजिक विज्ञानी काम कर सकते हैं। "भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष के बीच सहावासी संबंध" समाज विज्ञान के किसी विद्यार्थी के लिए पीएचडी का विषय हो सकता है। हो सकता है कि किसी विश्वविद्यालय ने इस विषय का पंजीयन कर लिया ह,  न भी किया हो तो शीघ्र ही भारतीय विश्वविद्यालयों के लिए सहावासी संबंध शोध के लिए लोकप्रिय होने वाला है और अनेक लोग इसे पंजीकृत करवाने वाले हैं।

समाज सदैव से एक जैसा नहीं रहा है। आदिम युग से ले कर आज तक उसने अनेक रूप बदले हैं। समाज की इकाई परिवार भी अनेक रूप धारण कर आज के विकसित परिवार तक पहुँचा है। पुरुष और स्त्री के मध्य संबंधों ने भी अनेक रूप बदले हैं और अभी भी रूप बदला जा रहा है। सहावास का रिश्ता जब इक्का दुक्का था, समाज को इस से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, केवल निन्दा और बहिष्कार से काम चल जाता था।। लेकिन जब उस ने विस्तार पाना प्रारंभ कर दिया तो समाज के माथे पर लकीरें खिंचनी शुरू हो गई। भारत की सर्वोच्च अदालत ने कहा -कि जो पुरुष पहली पत्नी के साथ संबंध विच्छेद किए बिना, किसी भी एक पक्ष के रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह कर दूसरी पत्नी के साथ रहने लगते हैं। ऐसे विवाह को पर्सनल कानून के अनुसार साबित करना असंभव हो जाता है। इस कथन पर अपराधिक न्याय व्यवस्था पर मालीमथ कमेटी की रिपोर्ट ने महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के सम्बन्ध में अपनी बात रखते हुए कहा -कि जब एक पुरुष और स्त्री एक लम्बे समय तक पति-पत्नी की तरह साथ रहने की साक्ष्य आ  जाए तो यह मान लेने के लिए पर्याप्त होना चाहिए कि वे अपने रीति रिवाजों के अनुसार विवाह कर चुके हैं। ऐसी स्थिति में किसी पुरुष के पास अपनी इस दूसरी पत्नी के भरण पोषण से बचने का यह मार्ग शेष नहीं रहना चाहिए कि वह महिला पुरुष की विधिवत विवाहित पत्नी नहीं है।

सर्वोच्च न्यायालय के इस प्रेक्षण और मालिमथ कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर ही महाराष्ट्र सरकार ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के पत्नी शब्द के स्पष्टीकरण में इस संशोधन का प्रस्ताव किया है कि उचित समय तक सहावासी रिश्ते के रूप में निवास करने वाली स्त्री को भी पत्नी माना जाएगा। ( इस संबंध में एक आलेख लिव-इन-रिलेशनशिप और पत्नी पर बेमानी बहस तीसरा खंबा पर पढ़ा जा सकता है।)

इस मसले पर समस्त माध्यमों में बहस प्रारंभ हो गई है, और बिना सोचे समझे दूर तक जा रही है। लेकिन न्यायालय ने तो केवल समाज की वर्तमान स्थिति में न्याय करने में हो रही कठिनाइयों का उल्लेख किया था। उस कठिनाई को हल करने के लिए विधायिका एक कदम उठा रही है। वास्तव में यह रिश्ता एक सामाजिक यथार्थ बन चुका है।

भारतीय समाज में अनुसूचित जातियों की जनसंख्या 16.2 % अनुसूचित जन जातियों की जनसंख्या 8.2 % तथा अन्य पिछड़ी जातियों की जनसंख्या 41.1% है। इन तीनों की कुल जनसंख्या देश की 65.5 % है और लगभग इन सभी जातियों में नाता प्रथा है। अर्थात दूसरा विवाह कर लेने का रीति रिवाज कायम है और ये समाज इस सहावासी रिश्ते को मान्यता देते हैं। तब यदि कानून इस रिश्ते को अनदेखा कर दे तो वहाँ पारिवारिक न्याय कर पाना और पारिवारिक अपराधों को रोक पाना कठिन हो जाएगा, और यह हो रहा है।

इस विषय पर जो लम्बी-चौड़ी नैतिक बहसें चल रही हैं, उन्हें कुलीन समाज का विलाप मात्र  ही कहा जा सकता है कि देश का कानून यदि 65% जनता को मान्य रिश्ते को कानूनी रुप प्रदान करता है तो इस से कुलीन समाज और विवाह संस्था की पवित्रता नष्ट हो जाएगी।

बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

नवरात्र और दशहरा : जब हम किशोर थे

किशोरावस्था में नवरात्र और दशहरा एक उल्लास भरा त्योहार था। दादा जी नगर के एक बड़े मंदिर के पुजारी थे। दादा जी के साथ मैं मन्दिर पर ही रहता था। दादा जी  की दिनचर्या सुबह चार बजे प्रारंभ होती थी। वे उठते मंदिर बुहारते, कुएँ से पानी लाते, स्नान करते, मंदिर की सुबह की पूजा श्रंगार होता। फिर बारह बजे तक दर्शनार्थी आते रहते। वे साढ़े बारह बजे मंदिर से फुरसत पाते। फिर स्नान कर दुर्गा सप्तशती का पाठ करते। नौ दिनों तक अपना भोजन स्वयं बनाते और एक समय खाते। हमारे लिए वे कोई पवित्र अनुष्ठान कर रहे होते। शाम को तीन बजे से फिर मंदिर खुल जाता। रात नौ बजे तक वे वहीं रहते। नवरात्र के नौ दिन वे मंदिर से बाहर भी नहीं जाते। मैं  ने उन से पूछा आप का इतना कठोर सात्विक जीवन है। आखिर वे इतना कठोर अनुष्ठान क्यों करते है? कहने लगे मैं लोगों को मुहूर्त बताता हूँ, ज्योतिष का काम करता हूँ। यह बहुत अच्छा काम नहीं है। मेरी बताई बहुत सी बातें गलत भी निकलती हैं। उस के लिए वर्ष में दो बार नवरात्र में माँ से क्षमा मांगता हूँ, प्रायश्चित करता हूँ। शायद माँ माफ कर दें मुझे मेरी गलतियों के लिए पापों के लिए। मुझे आश्चर्य होता कि एक व्यक्ति जिसे मैं होश संभालने से देख रहा हूँ, जिसे कभी कोई पाप  या गलत काम करते नहीं देखा, वह भी क्षमा मांगता है, और अपने अनजान पापों के लिए प्रायश्चित करता है। फिर उन का क्या जो जान कर पाप करते हैं?

मैं अंदर ही अंदर दहल जाता। मैं गलतियां करता और छिपाने के लिए दादा जी से, माँ से और अपने शिक्षक से झूठ बोलता था। मैं सोचता मुझे भी प्रायश्चित करना चाहिए। पर दादा जी की तरह तो नहीं कर सकता। फिर क्या कर सकता हूँ? मैं चाहता था कि मैं दादा जी से पूछूँ कि मुझे क्या करना चाहिए? पर डर लगता कि मेरे झूठों के बारे में पूछ लिया तो। मैं ने तय कर लिया मैं भी राम चरित मानस का पाठ करूंगा। आखिर एक साल नवान्ह पारायण करने बैठ गया। बड़ा आनंद मिला। लेकिन सिर्फ एक बार। अगले नवरात्र में वह आनंद जाता रहा। फिर कभी वैसा आनंद नहीं आया। हाँ, तुलसी के काव्य को समझने के लिए उसे कई कई बार अपनी रुचि से जब जब पढ़ा बहुत आनंद मिला और ज्ञान भी।

पहले नवरात्र से ही रामलीलाएँ शुरू हो जाती थीं। पहले एक गोल कमरा चौक पर होती। पंडित राधेश्याम की लिखी रामलीला के आधार पर। कुछ आधुनिक लोगों को वह पसंद नहीं आयी तो फुटबाल मैदान पर दूसरी होने लगी। लोग दोनों को देखते। कभी इस को कभी उस को। दोनों रामलीलाएँ शौकिया लोग करते थे। हिन्दू-मुसलमान दोनों ही उस में लगे रहते। वह पूरे शहर का पर्व था और उस में योगदान करना बहुत सम्मान की बात थी। हम भी रोज रामलीला देखने जाते। तीसरे चौथे दिन से दिन में सवारियाँ निकलनी शुरु हो जातीं। जिन में रामायण की घटनाओं और पात्रों को दिखाया जाता। वे शहर के मुख्य बाजार में घुमाई जाती। जगह जगह अखंड रामायण पाठ होते। पूरा शहर राममय हो जाता।

दशहरे के दिन दोपहर बाद सवारी निकलती। पहले रावण का दरबार निकलता। हमारे साथ रोज वाली बॉल खेलने वाले सुख पाल जी रावण बनते। ऐसे ठहाके लगाते कि बच्चे वाकई डर जाते। उस सवारी में एक दो जोकर भी जरूर होते। जो सवारी के आगे पैदल चलते और राहगीरों से चुहल करते चलते। बाद में राम लक्ष्मण की सवारी निकलती जिस में विभीषण, जामवंत, सुग्रीव और हनुमान भी होते और कुछ बालक वानर भी सभी वानर पैदल चलते। सवारी के आगे। हनुमान की हूँकार और राम का जयघोष देखने-सुनने लायक होता और दर्शकों को रोमांचित कर देता।

सवारी के निकलते ही हम दौड़ते हुए उस के आगे निकल जाते और सवारी के पहले दशहरा मैदान पहुँचते। जहाँ रावण, मेघनाद, कुंभकर्ण आदि के बड़े बड़े पुतले सजे होते। उन तक पहुंचने का रास्ता सवारी के लिए खाली होता। रावण के पहले ही एक छोटी सी अशोक वाटिका बनाई जाती जिस में माँ सीता बैठी होतीं जिन के आस पास घास की लंका बनाई जाती। सवारी नजदीक पहुंचती तो हनुमान दौड़ कर आते और माँ सीता से मिलते और लंका में आग लगा कर वापस राम जी की सवारी में जा मिलते। फिर रावण पर हमला होता। रावण जला दिया जाता।

हम रावण जलते ही चल देते। रास्ते में नदी किनारे बंकट की बगीची में। बंकट एक गुरू पहलवान था, ब्रह्मचारी। बगीची में रहता अखाड़ा चलाता और हनुमान जी की पूजा करता। सप्ताह में एक दिन बाजार से चंदा करता। दशहरे पर रावण वध के बाद हनुमान जी की पूजा होती। फिर खीर का प्रसाद बंटता। हम दोने में ले कर वहीं प्रसाद खाते और अपने मंदिर लौटते। वहाँ भी हनुमान जी की मूर्ति थी। पूजा करने की जिम्मेदारी मेरी। तबीयत से हनुमान जी का श्रंगार करता। आरती होती, प्रसाद बंटता। फिर परिवार के सभी बुजुर्गों के पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त करते। सब बच्चों को कुछ न कुछ आना-दो आना जरूर देते। तब तक भूख लगी होती। घऱ जा कर भोजन करते और राम लीला देखने भाग जाते।

दशहरे के दूसरे दिन संध्या काल में दो सवारियाँ निकलतीं जिस में एक में राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान और वानर सेना होती, अयोध्या को लौटती हुई। दूसरी में भरत होते हाथों में पादुकाएँ लिए हुए वनवासी वेश में। बाजार के बीच चौक में दोनों का मिलन होता। सारे मिलते ही खूब आँसू बहाते। ऐसा दृश्य बनता कि सारे दर्शकों की आँखों से भी आँसू बह रहे होते। वहीं एक मंच बनाया जाता। राम, लक्ष्मण, सीता और भरत कहीं चले जाते। दर्शक इन्तजार करते। फिर चारों राजसी पोशाकों में सज कर आते और राम का राजतिलक होता। लोग खूब रुपया भेंट करते। इतना कि दशहरे के दिनों सवारियों पर किया गया सारा खर्च निकाल कर भी बच जाता जो अगले साल के लिए रख लिया जाता। उन दिनों के नवरात्र और दशहरा कभी नहीं भुलाए जा सकते।
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दुर्गा पूजा और दशहरा पर्व पर सभी को शुभकामनाएँ।
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सोमवार, 6 अक्तूबर 2008

बलबहादुर सिंह की ऐंजिओप्लास्टी

इन्दौर के होल्कर राज्य की सेना में बहादुरी के बदले उन्हें राजपूताना की सीमा पर 12 गाँवों की जागीर बख्शी गई। पाँच पीढ़ियाँ गुजर जाने और जागीरें समाप्त हो जाने पर उन के वंशज अब किसान हो कर रह गए हैं। गाँव में रहते और किसानी करते करते वही ग्रामीण किसान का सीधापन उन के अंदर घर कर गया। जागीरदारी का केवल सम्मान शेष रहा। सीधेपन और सरल व्यवहार ने उस परिवार के सम्मान को नई ऊंचाइयाँ दीं। इसी परिवार के एक 68 वर्षीय बुजुर्ग बलबहादुर सिंह इसी साल 19 अगस्त को अपने गांव रावली के पास के निकटतम कस्बे सोयत जिला शाजापुर मध्य प्रदेश से अपने कुछ रिश्तेदारों से मिलने कोटा आने के लिए बस में बैठे पुत्र चैनसिंह साथ था।

बस कोटा से कोई तीस किलोमीटर दूर मंड़ाना के पास पहुँची थी कि बलबहादुर को पेट में दर्द होने लगा उन्हों ने इस का उल्लेख अपने पुत्र और सहयात्रियों से किया।कोटा के नजदीक आते आते पेट दर्द बहुत बढ़ गया तो सहयात्रियों ने सलाह दी कि वे कोटा में कामर्स कॉलेज चौराहे पर उतर कर वहाँ के किसी अच्छे अस्पताल में दिखा कर इलाज ले लें। बस कॉमर्स कॉलेज चौराहा पहुँची तो बलबहादुर सिंह अपने पुत्र सहित वहीं उतर गए और सब से नजदीकी अस्पताल पहुँचे। वे अस्पताल के गेट से अंदर प्रवेश कर ही रहे थे कि विजयसिंह नाम का एक नौजवान उन्हें मिला। उस ने उन से बातचीत की। खुद को उन की जाति का और सोयत में अपनी रिश्तेदारी बताई और उन्हें विश्वास में ले कर सलाह दी कि यह अस्पताल तो अब बेकार हो गया है। अच्छा इलाज तो पास के दूसरे अस्पताल में होता है, अस्पताल भी बड़ा है और वहाँ सारी आधुनिक सुविधाएँ मौजूद हैं। मैं वहीं नौकरी करता हूँ। आप को डाक्टर को दिखा कर अच्छा इलाज करवा दूंगा। मेरे कारण आप को खर्च भी कम पड़ेगा। एक तो जात का, दूसरे गांव के पास ही उस की रिश्तेदारी, बलबहादुर ने उस का विश्वास किया और उस के साथ उस बड़े अस्पताल आ गए।

अस्पताल पहुँचते ही विजयसिंह ने वहाँ के प्रधान डॉक्टर मिलवाया। डॉक्टर ने खुद जाँच की फिर दो अन्य डॉक्टरों को बुला कर दिखाया। सभी डॉक्टरों ने आपस में सलाह कर बताया कि अभी और जांचें करनी पड़ेंगी जिस का खर्च पाँच-छह हजार आएगा, यह राशि तुरंत जमा करानी पड़ेगी। विजय सिंह बलबहादुर के पुत्र चैन सिंह को अलग ले गया और कहा कि तुम्हारे पिता को तो हार्ट अटैक आने वाला है, इन का तुरंत इलाज जरूरी है, अन्यथा या तो इन से हाथ धो बैठोगे या फिर इन को लकवा हो जाएगा तो जीवन भर के लिए पलंग पकड़ लेंगे। लेट्रिन-बाथरूम के लिए भी दूसरों पर निर्भर हो जाएंगे। चैन सिंह कुछ समझता और निर्णय लेता उस से पूर्व ही डॉक्टरों ने उसे कहा कि 50-60 हजार रुपयों का इन्तजाम करो इन का तुरंत आपरेशन करना पड़ेगा। चैन सिंह भौंचक्का रह गया उस इतने पैसे का तुंरत तो इन्तजाम नहीं हो पाएगा कल तक कोशिश कर सकता हूँ। उसे जवाब मिला -इतना समय नहीं है, जितने पैसे अभी हों उतने अभी जमा करा दो तो हम इलाज चालू करें। इस बीच तुम जितना हो सके इंतजाम करो। पिता की तत्काल मृत्यु की आशंका से भयभीत हुए चैनसिंह ने अपने और पिता के पास के सवा तीन हजार रुपए जमा करवा दिए। वह रुपयों के इन्तजाम जुटा और बलबहादुर को अस्पताल के ऑपरेशन थियेटर में पहुँचा दिया गया।

उसी दिन बल बहादुर का ऑपरेशन कर के दो घंटे बाद जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया। दूसरे दिन चैनसिंह किसी तरह बीस हजार रुपये जुटा कर लाया लाया जिसे अस्पताल वालों ने जमा कर रसीद दे दी। लिया। उसे कहा गया कि अभी उस के पिता का इलाज शेष है, चालीस हजार रुपयों का इंतजाम और कर के जमा कराओ। हम कल तक इन की अस्पताल से छुट्टी कर देंगे। चैनसिंह ने अपने मौसा को खबर भेजी। तीसरे दिन वे चालीस हजार रुपया और ले कर आए वह भी अस्पताल में जमा करा दिया गया। यह रुपया जमा हो जाने पर बलबहादुर को बताया गया कि उस की एंजियोग्राफी और एंजियोप्लास्टी 19 अगस्त को ही कर दी गई है।

इस बीच बलबहादुर को सीने और पेट में दर्द होता, जिस की वह शिकायत करता तो उस से कहा जाता कि चुपचाप लेटे रहो, अभी बाहर से डाक्टर आएंगे और वही तुम्हें देखेंगे। बलबहादुर को अब तक लगने लगा कि वह कहीं इस अस्पताल में आ कर फंस तो नहीं गया है वह कुछ भी नहीं कर पा रहा था। उस ने प्रतिपक्षीगण से अस्पताल से छुट्टी देने की प्रार्थना की तो उसे अस्पताल बयालीस हजार का बिल और बताया गया और कहा गया कि जमा करा दोगे तो शेष रहा जीवन भर लगातार चलने वाला इलाज बता कर छुट्टी कर देंगे। जब तक रुपया जमा नहीं होगा छुट्टी नहीं मिलेगी। इस बीच पुत्र ने उसे हिंगोली की गोली बाजार से ला कर दी तो पेट दर्द कम हो गया। इस तरह के व्यवहार से बलबहादुर अपने अनिष्ट की आशंका से भयभीत हो गया। अस्पताल वाले लगातार रुपया जमा कराने को कहते रहे। बलबहादुर को लगने लगा कि अब इस अस्पताल में उस की खैर नहीं है, यहाँ दो दिन भी रहा तो वह शायद ही जीवित घर वापस लौट सके। इस तरह के डाक्टर तो पैसे के लिए कुछ भी कर सकते हैं। यहाँ से उसे निकलना पड़ेगा।

खुद को ठगा हुआ, फंसा हुआ और बंदी समझ कर बलबहादुर अपने पुत्र के साथ 22 अगस्त को चुपचाप अस्पताल छोड़ भागा। उसी दिन उस ने खुद को हृदयरोग विशेषज्ञ और मेडीकल कॉलेज कोटा के एक सहायक प्रोफेसर डाक्टर को दिखाया तो उन्हों ने कहा कि आप को मात्र गेस्ट्रिक प्रोब्लम थी। आप का गलत इलाज कर दिया गया। आप की ऐंजिओप्लास्टी करने की जरूरत ही नहीं थी। उस ने गेस्ट्रिक प्रोब्लम के लिए सामान्य दवाइयाँ लिखीं जिन को लेने के बाद तुरंत ही बलबहादुर खुद को सहज और स्वस्थ महसूस करने लगा। लेकिन उस की शंकाएं नहीं गईं। दूसरे दिन उस ने खुद को मेडीकल कॉलेज एक पूर्व अधीक्षक,पूर्व प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष मेडिसिन विभाग और हृदयरोग विशेषज्ञ, को दिखाया तो उन्हों ने भी यही कहा कि उसे हार्ट की कोई बीमारी ही नहीं थी जिस के इलाज की जरूरत होती। लेकिन अब एंजिओप्लास्टी कर दी गई है तो जीवन भर निरंतर दवाओं पर निर्भर रहना पड़ेगा। जिन का महिने भर का खर्च आठ सौ-हजार रुपए आएगा। यह खर्चा तो जीवन भर करना ही पड़ेगा।

इस बीच विजयसिंह बलबहादुर के गांव रावली जा पहुँचा, और घर में घुसते ही बलबहादुर और उस के परिवार वालों को चिल्ला कर अपशब्द कहते हुए कहा कि लोग अस्पताल में भरती हो कर इलाज करवा लेते हैं, और फिर बिना पैसा जमा कराए अस्पताल से भाग जाते हैं। पूछने पर बलबहादुर के परिवार वालों को उस ने बताया कि उन के परिवार के मुखिया ने उन के अस्पाताल मे इलाज करवाया और बिना रुपया दिए भाग आया है और धमकी दे गया कि बाकी का रुपया जमा करवा दो वरना इस का अंजाम बहुत बुरा होगा। परिवार वाले यह सब सुन कर घबरा गए, उन्हें बलबहादुर की बीमारी का कुछ पता ही नहीं था। वे बलबहादुर की खोज खबर करने को फोन पर फोन करने लगे। जब तक उन की बात उन से नहीं से हो गई उन्हें तसल्ली नहीं आई।

बाद में पता लगा कि यह अस्पताल अनेक लोगों के इसी तरह के आपरेशन कर चुका है। ऐसा करना उस की मजबूरी है। कुछ डॉक्टरों ने यह अस्पताल खोला था। बैंकों आदि से भारी कर्जे ले कर उसे तुरंत विस्तार दे दिया गया। अब जब तक रोज मरीज न मिलें तो कर्जे चुकाने ही भारी पड़ जाएँ। अस्पताल इसी तरह मरीज जुटाता है। अब बलबहादुर ने अपने भतीजे के वकील पुत्र की सलाह पर अस्पताल, उस के डाक्टरों और विजयसिंह के खिलाफ एक फौजदारी मुकदमा धोखाधड़ी के लिए किया है और उपभोक्ता अदालत में अलग से हर्जाना दिलाने की अर्जी पेश की है।

शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

शिवराम की कविताएँ "बड़ा आदमी"

शिवराम एक सामाजिक रुप से सजग और सक्रिय इंसान हैं। मुझे उन की निकट मित्रता पर गर्व है। वे नाटककार, नाट्यनिर्देशक, साहित्यकार, कवि, सधे हुए आलोचक, संपादक और अच्छे संगठक हैं। सुप्रसिद्ध नुक्कड़ नाटक "जनता पागल हो गई है" के इस लेखक से 1975 में आपातकाल के ठीक पहले मेरे जन्म नगर बाराँ में परिचय हुआ। उन के निर्देशन में नाटक में काम किया। पूरे आपातकाल में वे मुझ से खिंचे रहे और मैं उन की ओर खिंचता रहा। आपातकाल के बाद की गतिविधियों से निकटता बढ़ी और हम मित्र हो गए। उन का स्थानांतरण कोटा हुआ और मैं भी कुछ माह बाद ही कोटा आ गया वकालत करने। तब से यह मित्रता सतत चली आ रही है। दो दिन पहले उन के यहाँ जाना हुआ बहुत दिनों बाद उन के साथ तीन घंटे बैठा। बहुत बातें हुई। आप के साथ बांटने के लिए उन की कुछ कविताएँ ले आया हूँ। शिवराम आज से एक सप्ताह के लिए मुंबई में हैं। पेश हैं उन की कुछ कविताएँ "बड़ा आदमी" शीर्षक से ...
बड़ा आदमी 
(1)
बड़े आदमी का 
सब कुछ बड़ा होता है
बड़ी होती हैं आँखें
बड़े होते हैं दाँत
बड़े होते हैं नाखून
बड़ी होती हैं जीभ
बड़े होते हैं जूते
बड़ी होती हैं महत्वाकांक्षाएँ

बड़े आदमी का 
सब कुछ बड़ा होता है
बस दिल छोटा होता है
और शायद दिमाग भी

(2)

वह बड़ा आदमी है
क्यों कि उस की लम्बाई बड़ी है
वह बड़ा आदमी है 
क्यों कि उस की उम्र बड़ी है
वह बड़ा आदमी है
क्यों कि उस की जाति बड़ी है

वह बड़ा आदमी है 
क्यों कि उस का पद बड़ा है

और सब से बड़ी बात यह कि 
वह मर्द है 
औरत या किन्नर नहीं है

(3)

बड़े आदमी से डरो
वह तुम्हें थप्पड़ मार सकता है
भरी सभा में

बड़े आदमी डरो 
वह तुम्हें धुन सकता है
बीच सड़क पर

बड़े आदमी से डरो 
वह तुम्हारी जीभ निकाल कर 
रख सकता है 
तुम्हारे ही हाथों में

तुम्हारी नाक चबा सकता है
तुम्हारी नौकरी खा सकता है

वह कुछ भी कर सकता है
डरो ! बड़े आदमी से डरो !
डरो ! अपने आस पास से
वहाँ भी हो सकता है 
कोई बड़ा आदमी

(4)
एक बड़े आदमी ने 
अपना 'बड़ा' मिटा दिया 
वह आदमी हो गया

एक आदमी 
'बड़े' होने की कोशिश में जुट गया
वह 'बड़ा हो गया
आदमी नहीं रहा
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गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

सूनिए बापू का प्रिय गान

आज प्रिय बापू का जन्म-दिन है ..
सुनिए उन का प्रिय गान......
वैष्णव जन तो तैने कहिए........

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कोई काल नहीं जब नहीं था, वह

वह एक 
तब भी था
अब भी है
आगे भी रहेगा।
कोई काल नहीं जब 
नहीं था, वह
कोई काल नहीं होगा
जब वह नहीं होगा।
काल भी नहीं था,

तब भी था वह,
और तब भी जब
स्थान नहीं था। 
उस के बाहर नहीं था
कुछ भी 
न काल और न दिशाएँ
उस के बाहर आज भी नहीं 
कुछ भी।
न काल और न दिशाएँ 
और न ही प्रकाश
न अंधकार।
जो भी है सब कुछ 
है उसी के भीतर।
आप उसे सत् कहते हैं?
जो है वह सत् है जो था वह भी सत् ही था 
जो होगा वह भी सत् ही होगा।
असत् का तो 
अस्तित्व ही नही।
कोई नहीं उस का 
जन्मदाता,
वह अजन्मा है 
और अमर्त्य भी।
वही तेज भी 
और शान्त भी,
कौन मापेगा उसे? 
आप की स्वानुभूति।
वह मूर्त होगा
आप के चित् में।
क्या है वह? 
पुरुष? या 
प्रकृति?या 
प्रधान?

कुछ भी कहें 
वह रहेगा 
वही,
जो था 
जो है 
जो रहेगा।