बीस साल पहले जिसे दफ़्न कर दिया गया था। नगर के बीच की दीवार गिरा दी गई थी और उस के मलबे के ढेर के नीचे उस की कब्र को दबा दिया गया था। कभी न खुल सके उस की कब्र। कोई भूले से भी उसे याद न करे। वह अच्छे बुरे सपनों में भी न आए। लेकिन अब उसी कब्र में प्रेत अब लौट रहा है। दुनिया के मशहूर खबरची रॉयटर ने यही खबर दी है।
बर्लिन की दीवार के गिरने के बीस साल बाद जर्मनी के पुस्तक विक्रेताओं के लिए 141 वर्ष पुरानी एक किताब बेस्ट सेलर हो गई है। जी, हाँ¡ यह साम्यवाद के संस्थापक पिता कार्ल मार्क्स की पूँजीवाद की आलोचनात्मक समीक्षा की पुस्तक दास कैपिटल (पूँजी) है। अकादमिक प्रकाशक दीत्ज़ वेर्लाग के लिए यह एक बेस्ट सेलर है। हर प्रकाशक सोचता था कि इस किताब को कभी कोई मांगेगा। लेकिन वे 1990 के मुकाबले दास कैपिटल सौ गुना प्रतियाँ बेच चुके हैं। यहाँ तक कि इन दिनों बैंकर्स और प्रबंधक दास कैपिटल पढ़ रहे हैं।
पूर्वी जर्मनी भारी बेरोजगारी से गुजर रहा है, ऐसे में कार्ल मार्क्स की वापसी को पूँजीवाद को खारिज करने के रूप में देखा जा रहा है। अमरीका में पिछले माह हुई भारी आर्थिक उथल पुथल और सरकारी बेल-आउट की श्रंखला जर्मनी और हर जगह पूँजीवाद विरोधी भावनाओं को पुनर्स्थापित कर रहा है।
एक ताजा सर्वे के अनुसार 52% पूर्वी जर्मनों की राय में स्वतंत्र बाजार की अर्थव्यवस्था उचित नहीं है। 43% की समझ है कि पूँजीवाद के मुकाबले समाजवाद बेहतर है। 46 वर्ष के एक आई टी प्रोफेशनल ने कहा कि हमने स्कूलों में पूँजीवाद की भयावहता के बारे में पढ़ा था, वह सब सही निकला। मेरा जीवन बर्लिन की दीवार गिरने के पहले बेहतर था। धन के बारे में किसी को दुख नहीं है क्यों कि उस का कोई महत्व नहीं है। आप नहीं चाहने पर भी आप के लिए एक नौकरी है, इस साम्यवादी विचार का कोई मुकाबला नहीं है। पूर्वी जर्मनी में बेरोजगारी 14 प्रतिशत है और वेतन कम हैं। जर्मनी के एकीकरण के बाद दसियों लाख नौकरियाँ चली गई हैं। बहुत से कारखाने पश्चिमी प्रतियोगियों ने खरीदे और उन्हें बंद कर के चले गए।
पुराने पूर्वी बर्लिन के एक 76 वर्षीय लुहार ने कहा कि मैं सोचता था कि साम्यवाद बुरा है लेकिन पूँजीवाद उस से भी बुरा है। स्वतंत्र बाजार क्रूर है, पूँजीपति अपने लिए और, और, और मुनाफा चाहते हैं। 46 वर्षीय क्लर्क मोनिका वेबर ने कहा कि मेरी सोच से पूँजीवाद उचित व मानवीय व्यवस्था नहीं है। समृद्धि का वितरण अनुचित है, मेरे जैसे छोटे लोग देख रहे हैं कि लालची बेंकरों के संकट का भुगतान हम कर रहे हैं।
लेकिन सब ऐसा सोचने वाले नहीं है। कुछ यह भी कह रहे हैं कि पूँजीवाद बुरा है लेकिन समाजवाद में भी कुछ तो खामियाँ थीं।
25 टिप्पणियां:
दोनों के चरम रूप में खामियां हैं... बीच का ही हल बेहतर होगा.. ये मेरी मान्यता है !
आश्चर्य है कि कुछ समय पहले खबर पढ़ी थी कि भारत मे वामपंथ के गढ़ में दास कैपिटल की बिक्री घट रही है। जो भी हो...इसकी बढ़ती बिक्री भी किसी बाजार पर ही निर्भर है। सम्पर्ण तो कोई व्यवस्था नहीं होती । दिक्कत ये है कि उस व्यवस्था की अच्छाइयों की जगह हम बुराइयों को पहले हावी होने देते हैं । फिर उन्हें यूं गिनाते हैं जैसे वे हम पर थोपी गई हैं। फिर नई व्यवस्था की वकालत करने लगते हैं।
....और वर्तमान व्यवस्थाओं की अच्छाइयों को बहाल करने के बारे में कभी सोचा नहीं जाता। सुख हमेशा उस पार क्यो दिखता है ?
पुर्वी जर्मनी आजाद होने से पहले एक भुखा नगां देश था, ओर वहाम के लोग चोरी छुपे पश्चिमी जरमनी मै घुस आते थे, यह लोग पेसे के लिये अपनी बीबी ओर ओरतो को सस्ते मे बेचते भी थे,शायद केला ओर चाकेलेट इन्होने साल मे एक बार ही खाई होगी, बहुत ही बुरा हाल था,
९/११/१९८९ को बर्लिन की दिवार गिराई गई थी, जब की पश्चिम जरमनी के लोग नही चाहते थे, पश्चिम जर्मनी के लोग मेहनती ओर साफ़ दिल के है,ओर लडाई झगडो से दुर, लेकिन पुर्वी जर्मनी के लोग बिलकुल इस से उलट, ओर दिवार िराने से पहले पुर्वी जर्मनी का हाल बहुत बुरा था,सडके , घर सब कुछ बुरे हाल मे था हमारे भारत से भी बहुत बुरा हाल ,
फ़िर जब दोनो देश आपिस मै मिले तो , पश्चिम के लोगो ने दिल खोल कर इन लोगो का स्बागत किया, यहां से बहुत सी कम्पनिया उधर गई, ओर ४, ५ साल मे ही पुर्वी जर्मन पश्चिम से भी सुन्दर बन गया, ओर जितनी भी कम्प्निया उधर गई सब का दिवाला निकल गया, क्योकि वह लोग कामचोर, ओर चालाक है, फ़िर सारी कम्पनिया धीरे धीरे वापिस आ गई, ओर उधर के आधे से ज्यादा आवादी इधर आ गई, ओर हमे भी भुखा नगां कर दिया, हमारे यहां पेंशन सिस्टम है, ओर पुर्वी जर्मनी मै ऎसा कोई सिस्टम नही था, सब मिला कर वह लोग एह्सान फ़रोस है, सब कुछ ले कर भी अकड रहै है, अगर आप कभी भी पश्चिम ओर पुर्वी जर्मन के लोगो को साथ खडा देखे तो खुद ही पहचान जायेगे कि कोन कहा का है
धन्यवाद.
"दास केपिटल"
कम्यिनिस्टोँ के लिये,
बाइबल सी पुस्तक है..
पर रशिया मेँ
वह ( Communist manifesto )फेल हुआ ..
अब फ्री मार्केट लट्टू की तरह बेकाबू
होकर घुम रहा है ..
चारोँ खाने चित्त तो हमेशा
आम जनता का बँदा ही होता आया है !
- लावण्या
समाजवाद एक ऐसी अवधारणा है जिसका अन्त रूस के ढहने के साथ सारी दुनिया ने देखा व अब चीन को अमेरिका के रास्ते जाते देखकर सारी दुनिया दुबारा देख रही है। टूटे हुए रूस के लोगों से समाजवाद की निष्क्रियता के लाखों लाख किस्से सुने जा सकते हैं, जग जाहिर तो हैं ही। जब व्यक्ति को उसी प्रतिभा व श्रम का लाभ नहीं मिलता(या कहें कि अपारंगत,कामचोर,आलसी व निकम्मे को भी बराबर लाभ मिलते हैं) तो समाज में अराजकता व विद्रोह के साथ-साथ आपसी घृणा के भी फल दिखाई देते हैं।
कामचोर पूर्वी जर्मनी वालों के प्रमाद का ही यह प्रतिफल है कि ८५ तक तक्नॊलॊजी व सम्पदा के सिरमौर रहे पश्चिमी जर्मनी का आज हाल बेहाल है। अधिक गहरे जाने की जरूरत नहीं । ८३ तक स्थिति यह थी कि जिस प्रकार अमेरिका से भारत आने पर भारत में पाँव रखते ही सब और गन्दा गन्दा लगता है वैसे ही जर्मनी से अमेरिका जाने पर अमेरिका बहुत गन्दा लगा करता था। और आप आज का जर्मनी देख लीजिए। फ़्रैकफ़ुर्ट नगर में ही जरा एयरपोर्ट से बाहर निकल कर देखें तो मोहल्लों में जगह जगह दीवारें पुती हुईं, कागज उड़ते हुए और बहुत कुछ अस्तव्यस्त दिखाई देगा। समाजवादियों की भूख मिटाने के चक्कर में पूरा देश १०० से ३० पर आ गया, पर भूख न मिटी।
इसलिए इस आर्थिक समस्या या वित्तीय संकट का हल पूँजी के समान वितरण में नहीं निहित है। वह हल कहीं ओर है। ....
टिप्पणी बहुत लम्बी हो गई, लगता है अब हल की चर्चा के लिए अपने ब्ळोग पर कुछ लिखना ही पड़ेगा।
द्विवेदी जी की पोस्ट ने अच्छा चिन्तन को प्रेरित किया। आभार।
समाजवादी जहाज़ में इतने ज़्यादा सुराख हैं की उसे डूबना ही है. तानाशाहों और हत्यारों के अलावा इस समाजवाद ने किसको क्या दिया? क्यूबा हो या पूर्वी जर्मनी, उत्तर कोरिया हो या चीन - समाजवादी मॉडल ने आम जनता को भ्रष्टाचार, निकम्मेपन, गरीबी और शासकों की निर्दयता के अलावा कुछ दिया नहीं.
मुक्त अर्थ व्यवस्था में लोग दो भागों में बट जातें हैं यानी या तो आप शिकार कीजिए या शिकार हो जाइए | मुझे नहीं लगता है कि कोई व्यवस्था अच्छी या कोई ख़राब है सारा कुछ राजा और प्रजा पर निर्भर करता है | अगर दोनों अच्छे हैं तो वो किसी भी ऊंचाई को छू सकतें हैं पर अगर दोनों में से एक भी ख़राब है तो वो किसी भी नीची अवस्था को पा सकतें हैं |
किसी भी वाद की उपयोगिता/अनुपयोगिता और घटनाओं में एक फेज लैग होना चाहिये। इन्स्टेण्ट रियेक्शन तो बदलती रहती है।
दास कैपिटल!!! विवादित कथा है...अमरीका पर संकट--बस, वही गैर विवादित अटल सत्य है. यूँ तो ये कभी भी संकट ग्रस्त हो लेते हैं. चाहे आप तरक्की करें या आप गैरत में जायें..कहीं कोई छींक दे..हर हाल अमरीका पर संकट ला देता है और ये उससे उबरने के लिए संकट मोचन जॉब में लग लेते हैं और उसका पैकेज डील, सबके मिल बांट कर खाने के लिए, लेकर आते हैं ...जैसे अभी आर्थिक संकट मे TRAP वाला ७०० मिलियन लाये हैं..इसमें और कोई आंकड़े और थ्योरी मान्य नहीं है, वकील साहेब!!!
अच्छी पोस्ट !
दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं /दीवाली आपको मंगलमय हो /सुख समृद्धि की बृद्धि हो /आपके साहित्य सृजन को देश -विदेश के साहित्यकारों द्वारा सराहा जावे /आप साहित्य सृजन की तपश्चर्या कर सरस्वत्याराधन करते रहें /आपकी रचनाएं जन मानस के अन्तकरण को झंकृत करती रहे और उनके अंतर्मन में स्थान बनाती रहें /आपकी काव्य संरचना बहुजन हिताय ,बहुजन सुखाय हो ,लोक कल्याण व राष्ट्रहित में हो यही प्रार्थना में ईश्वर से करता हूँ ""पढने लायक कुछ लिख जाओ या लिखने लायक कुछ कर जाओ "" कृपा बनाए रखें /
सही कहा आपने यह प्रेत अब मानवता का कितना नुक्सान करता है -देखा जाना है -पर क्या हम यूँ ही चुपचाप देखते रहेंगे ?
भारत तो मिक्स्ड वेज कटलेट जैसा है,इसमे क्या मिला है,या डला है,माथापच्ची का काम है,यहां न केवल साम्यवाद बल्कि तरह-तरह के वादों का अद्भुत इंद्रधनुषी संगम है।सब कुछ चल्ता है यहां,खोटे सिक्के भी।
एक जानकारी से भरी पोस्ट और अच्छी भी। हमारी तो आदत होगई है जैसे कि कहने की कि सब चलता है।
वर्तमान व्यवस्था से कभी कोई खुश नहीं रहा है, परिवर्तन की कामना हर युग में बनी रहती है। कहने को हम हमेशा कहते रहे हैं कि आम आदमी को हाशिए से हटाकर जो मुख्य धारा में शामिल कर पाए, वही व्यवस्था दीर्घकालिक और कारगर रहेगी, लेकिन यह कई बार काल्पनिक ही लगता है, हम असंभव की बाट जोह रहे हैं।
सही है। कम से कम जर्मन जानकारी हिंदी तो कर दी आपने। बहस होने दीजिए। समाजवाद से डरता है पूंजीवाद। जीतने के बाद भी।
मेरा एक मित्र कहता था कि अगर कुछ ग़लत है तो है 'वाद'. पूँजी अपने आप में ग़लत नहीं है, पर जब उस के साथ 'वाद' मिल जाता और पूँजीवाद बन जाता है तो लोग बट जाते हैं.मानवता अपने आप में एक गुण है पर जब 'वाद' उस के साथ मिल कर उसे मानवतावाद बना देता है तो वह लोगों को बाँट देती है. ऐसा हर उस बिचार, बस्तु के साथ होता है जिस के साथ 'वाद' जुड़ जाता है.
राज जी ओर कविता जी से कुछ हद तक सहमत हूँ
बहुत सुंदर लेख और उस पर उतनी ही सुंदर बहस ! धन्यवाद !
कोई भी व्यवस्था सम्पूर्ण निर्दोष नहीं होती । उसके क्रियान्वयन के तौर-तरीके और उसमें भागीदारी कर रहे लोगों की मानसिकता पर भी काफी कुछ निर्भर होता है । कठिनाई यह है कि लोग केवल अधिकार भोगना चाहते हैं, जिम्मेदारी उठाना नहीं ।
एक सार्थक लेख और उससे ज्यादा सार्थक चर्चा
भारत के दृष्टिकोण से सोचें तो पूँजीवाद और समाजवाद की मिश्रित व्यवस्था हमें किसी भी गम्भीर संकट से बचाए रखेगी।
किसी एक व्यवस्था पर पूरी तरह आश्रित हो जाने से संकटकाल में विकल्पहीनता कि स्थिति आ जाती है। रूसी साम्यवाद का पराभव भी इसी लिए हुआ और अमेरिकी पूँजीवाद भी इसी लिए गोते खा रहा है।
शायद अबसे बीस साल बाद भारत को विश्व का अगुआ बताने वाली कतिपय भविष्यवाणियाँ सच होने वाली हैं।
जब तक सब ठीक चल रहा होता है, पूँजीवाद ही सही लगता है । जैसे ही नौकरी छूटने का भय बनता है, साम्यवाद दवा लगने लगता है । साम्यवाद कभी भी सही नहीं हो सकता । दो व्यक्ति कभी समान रूप से अच्छा काम नहीं कर सकते । जब घोड़े और गधे एक ही लाठी से हाँके जाएँ तो गधे ही खुश रह पाते हैं ।
घुघूती बासूती
Bahut mahatwapurna lekh. Asthirta ke daur mein pura viswa vikalp ki khoj mein hai, parantu mera manana hai ki hamesha ki tarah vikalp ki roshni Asia se hi nikalegi. Aur jab hamare paas Gandhi ji jaise chintak hain to fir ham befikra ho kah sakte hain-' tension nahi lene ka, bapu hain na'.
लीजिए, यहां टिपिया देते हैं....आपकी अच्छी सूचना-पोस्ट पर टिप्पणियों की टिपटिप
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