बीएससी के बाद जब एलएल.बी. में एडमिशन लिया तब केवल कानून पढ़ने का इरादा था और पत्रकार बनने का। पर फिर कुछ ऐसा हुआ कि जनवरी 1978 में सारे सपने पीछे छोड़ वकील बनने का इरादा कर लिया। 1978 मई में एलएल.बी. का आखिरी पर्चा देने के दिन रात 12 बजे अपने घर बाराँ पहुँचा। अगले दिन सुबह साढ़े नौ बजे एडवोकेट हरीशजी गोयल के दफ्तर में था। मुझे देख उन्होंने पूछा, “तेरी परीक्षा हो गयी?” मैंने कहा, “कल आखिरी पर्चा था।“ वे पूछने लगे, “अब क्या करना?” मैंने कहा, “करना क्या है? आज से आपकी फाइलों का बस्ता लेकर अदालत चलना है, वकालत का अभ्यास शुरू।” उन्होंने कहा, “बस्ता संभालने के लिए तो मुंशी जी हैं। आ, खाना खा लेते हैं फिर चलते हैं अदालत।“ मैंने बताया कि “मैं तो खा कर आया हूँ। आप भोजन करके आइए।“
शनिवार, 23 दिसंबर 2023
पैंतालीस साल
बीएससी के बाद जब एलएल.बी. में एडमिशन लिया तब केवल कानून पढ़ने का इरादा था और पत्रकार बनने का। पर फिर कुछ ऐसा हुआ कि जनवरी 1978 में सारे सपने पीछे छोड़ वकील बनने का इरादा कर लिया। 1978 मई में एलएल.बी. का आखिरी पर्चा देने के दिन रात 12 बजे अपने घर बाराँ पहुँचा। अगले दिन सुबह साढ़े नौ बजे एडवोकेट हरीशजी गोयल के दफ्तर में था। मुझे देख उन्होंने पूछा, “तेरी परीक्षा हो गयी?” मैंने कहा, “कल आखिरी पर्चा था।“ वे पूछने लगे, “अब क्या करना?” मैंने कहा, “करना क्या है? आज से आपकी फाइलों का बस्ता लेकर अदालत चलना है, वकालत का अभ्यास शुरू।” उन्होंने कहा, “बस्ता संभालने के लिए तो मुंशी जी हैं। आ, खाना खा लेते हैं फिर चलते हैं अदालत।“ मैंने बताया कि “मैं तो खा कर आया हूँ। आप भोजन करके आइए।“
गुरुवार, 14 दिसंबर 2023
'कहानी' गिरगिट -अन्तोन चेखॉव
“अच्छा! तो तू काटेगा? शैतान कहीं का!” ओचुमेलोव के कानों में सहसा यह आवाज आयी, “पकड़ तो लो, छोकड़ो! जाने न पाये! अब तो काटना मना हो गया है! पकड़ लो! आ…आह!”
कुत्ते की पैं-पैं की आवाज सुनायी दी। आचुमेलोव ने मुड़कर देखा कि व्यापारी पिचूगिन की लकड़ी की टाल में से एक कुत्ता तीन टांगों से भागता हुआ चला आ रहा है। कलफदार छपी हुई कमीज पहने, वास्कट के बटन खोले एक आदमी उसका पीछा कर रहा है। वह कुत्ते के पीछे लपका और उसे पकड़ने की काशिश में गिरते-गिरते भी कुत्ते की पिछली टांग पकड़ ली। कुत्ते की पैं-पैं और वहीं चीख, “जाने न पाये!” दोबारा सुनाई दी। ऊंखते हुए लोग दुकानों से बाहर गरदनें निकालकर देखने लगे, और देखते-देखते एक भीड़ टाल के पास जमा हो गयी, मानो जमीन फाड़कर निकल आयी हो।
“हुजूर! मालूम पड़ता है कि कुछ झगड़ा-फसाद हो रहा है!” सिपाही बोला।
आचुमेलोव बाईं ओर मुड़ा और भीड़ की तरफ चल दिया। उसने देखा कि टाल के फाटक पर वही आदमी खड़ा है। उसकी वास्कट के बटन खुले हुए थे। वह अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाये, भीड़ को अपनी लहूलुहान उंगली दिखा रहा था। लगता था कि उसके नशीले चेहरे पर साफ लिखा हुआ हो “अरे बदमाश!” और उसकी उंगली जीत का झंडा है। आचुमेलोव ने इस व्यक्ति को पहचान लिया। यह सुनार खूकिन था। भीड़ के बाचोंबीच अगली टांगे फैलाये अपराधी, सफेद ग्रे हाउंड का पिल्ला, छिपा पड़ा, ऊपर से नीचे तक कांप रहा था। उसका मुंह नुकिला था और पीठ पर पीला दाग था। उसकी आंसू-भरी आंखों में मुसीबत और डर की छाप थी।
“यह क्या हंगामा मचा रखा है यहां?” आचुमलोव ने कंधों से भीड़ को चीरते हुए सवाल किया। “यह उंगली क्यों ऊपर उठाए हो? कौन चिल्ला रहा था?”
“हुजूर! मैं चुपचाप अपनी राह जा रहा था, बिल्कुल गाय की तरह,” खूकिन ने अपने मुंह पर हाथ रखकर, खांसते हुए कहना शुरू किया, “मिस्त्री मित्रिच से मुझे लकड़ी के बारे में कुछ काम था। एकएक, न जाने क्यों, इस बदमाश ने मरी उंगली में काट लिया।..हुजूर माफ करें, पर मैं कामकाजी आदमी ठहरा,… और फिर हमारा काम भी बड़ा पेचिदा है। एक हफ्ते तक शायद मेरी उंगुली काम के लायक न हो पायेगी।क मुझे हरजाना दिलवा दीजिए। और हुरूर, कानून में भी कहीं नहीं लिखा है कि हम जानवरों को चुपचाप बरदाश्त करते रहें।..अगर सभी ऐसे ही काटने लगें, तब तो जीना दूभर हो जायेगा।”
“हुंह..अच्छा..” ओचुमेलाव ने गला साफ करके, त्योरियां चढ़ाते हुए कहा, “ठीक है।…अच्छा, यह कुत्ता है किसका? मैं इस मामले को यहीं नहीं छोडूंगा! कुत्तों को खुला छोड़ रखने के लिए मैं इन लोगों को मजा चखाउंगा! जो लोग कानून के अनुसार नहीं चलते, उनके साथ अब सख्ती से पेश आना पड़ेगा! ऐसा जुरमाना ठोकूंगा कि छठी का दूध याद आ जायेगा।बदमाश कहीं के! मैं अच्छी तरह सिखा दूंगा कि कुत्तों और हर तरह के ढोर-डगार को ऐसे छुट्टा छोड़ देने का क्या मतलब है! मैं उसकी अकल दुरुस्त कर दूंगा, येल्दीरिन!”
सिपाही को संबोधित कर दरोगा चिल्लाया, “पता लगाओ कि यह कुत्ता है किसका, और रिपोर्ट तैयार करो! कुत्ते को फौरन मरीवा दो! यह शायद पागल होगा।…..मैं पूछता हूँ, यह कुत्ता किसका है?”
“शायद जनरल जिगालोव का हो!” भीड़ में से किसी ने कहा।
“जनरल जिगालोव का? हुंह…येल्दीरिन, जरा मेरा कोट तो उतारना। ओफ, बड़ी गरमी है।…मालूम पड़ता है कि बारिश होगी। अच्छा, एक बात मेरी समझ में नही आती” कि इसने तुम्हें काटा कैसे?” ओचुमेलोव खूकिन की ओर मुड़ा, “यह तुम्हारी उगली तक पहुंचा कैसे? ठहरा छोटा-सा और तुम हो पूरे लम्बे-चौड़े। किसी कील-वील से उंगली छी ली होगी और सोचा होगा कि कुत्ते के सिर मढ़कर हरजाना वसूल कर लो। मैं खूब ससमझता हूँ! तुम्हारे जैसे बदमाशों की तो मैं नस-नस पहचानता हूँ!”
“इसने उसके मुंह पर जलती सिगरेट लका दी थी, हुजूर! यूं ही मजाक में और यह कुत्ता बेवकूफ तो है नहीं, उसने काट लिया। यह शख्स बड़ा फिरती है, हुजूर!”
“अब! झूठ क्यों बोलता है? जब तूने देखा नहीं, तो गप्प क्यों मारता है? और सरकार तो खुद समझदार हैं। वह जानते हैं कि कौन झूठा है और कौन सच्चा। अगर हैं, खुद मेरा भाई पुलिस में है।..बताये देता हूँ….हां….”
“बंद करो यह बकवास!”
“नहीं, यह जनरल साहब का कुत्ता नहीं है,” सिपाही ने गंभीरता पूर्वक कहा, “उनके पास ऐसा कोई कुत्ता है ही नहीं, उनके तो सभी कुत्ते शिकारी पौण्डर हैं।”
“तुम्हें ठीक मालूम है?”
“जी सरकार।”
“मैं भी जनता हूँ। जनरल साहब क सब कुत्ते अच्छी नस्ल के हैं, एक-से-एक कीमती कुत्ता है उनके पास। और यह! तो बिल्कुल ऐसा-वैसा ही है, देखो न! बिल्कुल मरियल है। कौन रखेगा ऐसा कुत्ता? तुम लोगों का दिमाग तो खराब नहीं हुआ? अगर ऐसा कुत्ता मास्का या पीटर्सबर्ग में दिखाई दे तो जानते हो क्या हो? कानून की परवा किये बिना, एक मिनट में उससे छुट्टी पाली जाये! खूकिन! तुम्हें चोट लगी है। तुम इस मामले को यों ही मत टालो।…इन लोगों को मजा चखाना चाहिए! ऐसे काम नहीं चलेगा।”
“लेकिन मुमकिन है, यह जनरल साहब का ही हो,” सिपाही बड़बड़ाया, “इसके माथे पर तो लिखा नहीं है। जनरल साहब के अहाते में मैंने कल बिल्कुल ऐसा ही कुत्ता देखा था।”
“हां-हां, जनरल साहब का तो है ही!” भीड़ में से किसी की आवाज आयी।
“हूँह।…येल्दीरिन, जरा मुझे कोट तो पहना दो। अभी हवा का एक झोंका आया था, मुझे सरदी लग रही है। कुत्ते को जनरल साहब के यहां जाओ और वहां मालूम करो। कह देना कि मैने इस सड़क पर देखा था और वापस भिजवाया है। और हॉँ, देखो, यह कह देना कि इसे सड़क पर न निकलने दिया करें। मालूम नहीं, कितना कीमती कुत्ता हो और अगर हर बदमाश इसके मुंह में सिगरेट घुसेड़ता रहा तो कुत्ता बहुत जल्दी तबाह हो जायेगा। कुत्ता बहुत नाजुक जानवर होता है। और तू हाथ नीचा कर, गधा कहीं का! अपनी गन्दी उंगली क्यों दिखा रहा है? सारा कुसूर तेरा ही है।”
“यह जनरल साहब का बावर्ची आ रहा है, उससे पूछ लिया जाये।…ऐ प्रोखोर! जरा इधर तो आना, भाई! इस कुत्ते को देखना,तुम्हारे यहां का तो नहीं है?”
“वाह! हमारे यहां कभी भी ऐसा कुत्ता नहीं था!”
“इसमें पूछने की क्या बात थी? बेकार वक्त खराब करना है,” ओचुमेनलोव ने कहा, “आवारा कुत्ता यहां खड़े-खड़े इसके बारे में बात करना समय बरबाद करना है। तुमसे कहा गया है कि आवारा है तो आवारा ही समझो। मार डालो और छुट्टी पाओ?
“हमारा तो नहीं है,”प्रोखोर ने फिर आगे कहा, “यह जनरल साहब के भाई का कुत्ता है। हमारे जनरल साहब को ग्र हाउ।ड के कुत्तों में कोई दिलचस्पी नहीं है, पर उनके भाई साहब को यह नस्ल पसन्द है।”
“क्या? जनरल साहब के भाई आये हैं? ब्लादीमिर इवानिच?” अचम्भे से ओचुमेलोव बोल उठा, उसका चेहरा आह्वाद से चमक उठा। “जर सोचो तो! मुझे मालूम भी नहीं! अभी ठहरंगे क्या?”
“हां।”
कहानी गिरगिट के नाट्य रूपान्तरण के मंचन का एक दृश्य |
“वाह जी वाह! वह अपने भाई से मिलने आये और मुझे मालूम भी नहीं कि वह आये हैं! तो यह उनका कुत्ता है? बहुत खुशी की बात है। इसे ले जाओ। कैसा प्यारा नन्हा-सा मुन्ना-सा कुत्ता है। इसकी उंगली पर झपटा था! बस-बस, अब कांपो मत। गुर्र…गुर्र…शैतान गुस्से में है… कितना बढ़िया पिल्ला है!
प्रोखोर ने कुत्ते को बुलाया और उसे अपने साथ लेकर टाल से चल दिया। भीड़ खूकिन पर हंसने लगी।
“मैं तुझे ठीक कर दूंगा।” ओचुमेलोव ने उसे धमकाया और अपना लबादा लपेटता हुआ बाजार के चौक के बीच अपने रास्ते चला गया।
शनिवार, 2 दिसंबर 2023
एग्नोडिस : प्राचीन ग्रीस की पहली स्त्री चिकित्सक
शुक्रवार, 10 नवंबर 2023
धन्वन्तरि जयन्ती
आज धन्वन्तरि जयंती है। कहते हैं धन्वन्तरि उज्जयनी के राजा विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्न थे। उन्हें विष्णु का एक अवतार भी कहा जाता है।
यह भी कहते हैं कि 800 या 600 वर्ष ईसा पूर्व प्राचीन
काल के महान शल्य चिकित्सक सुश्रुत ने धनवन्तरि से वैद्यक की शिक्षा ग्रहण की थी।
इसी तरह की बहुत सी विरोधाभासी सूचनाएँ हैं जो
विभिन्न माध्यमों में मिल जाती हैं।
मनुष्य आदिकाल से बीमारियों और स्वास्थ्य रक्षा के
लिए प्रयत्न करता रहा है। जिसने जो खोजा, जो ज्ञान प्राप्त किया उसे आने वाली
पीढ़ी को हस्तान्तरित कर दिया। मोर्य और गुप्त काल में जब चिकित्साशास्त्र को
संहिताबद्ध किया जा रहा था तो इस विद्या के लिए एक काल्पनिक देवता का आविष्कार कर
लिया गया जिसे धन्वन्तरि कहा गया। पुराणों में धन्वन्तरि की उत्पत्ति समुद्र मंथन
से कही जाती है। जब समुद्र मंथन का आख्यान रचा गया। चिकित्सा के व्यवसाय में अधिकांश
ब्राह्मण ही थे। पुराणों की रचना के दौरान मनुष्य का समस्त ज्ञान और कृतित्व ईश्वर
को समर्पित कर दिया गया। तभी चिकित्सा के लिए हुए तब तक के तमाम प्रयास और प्राप्त
ज्ञान को भी ईश्वर को समर्पित कर दिया गया।
दादाजी थोड़े बहुत, और पिताजी पूरे वैद्य थे। मैंने
भी आयुर्वेद की शिक्षा ग्रहण की। दिल्ली विद्यापीठ से वैद्य विशारद किया और आयुर्वेदिक
चिकित्सालय में इन्टर्नशिप भी की। बचपन से ही निकट के आयुर्वेद औषधालयों में
धनतेरस के दिन भगवान धन्वन्तरि की पूजा होती देखी है और उन पूजाओं में शामिल भी
हुआ हूँ। यह पूजा भारतीय चिकित्साशास्त्र में अपना योगदान करने वाले तमाम
चिकित्सकों का स्मरण और आभार प्रकट करने का अवसर है। इस अवसर का हमें कभी त्याग
नहीं करना चाहिए। जब से धनतेरस का मिथक धन-संपदा के साथ जुड़ा है तब से धन्वन्तरि
को लोग विस्मृत करते चले जा रहे हैं। आज धन्वन्तरि का स्मरण करने वाले बहुत
उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। दूसरी ओर बाजार आज जगमग है, भारी भीड़ है। लोग एक
दूसरे से सटे हुए निकल रहे हैं।
आज धन्वन्तरि जयन्ती के इस अवसर पर भारत के तथा दुनिया भर के चिकित्सकों और चिकित्साशास्त्र में अपना योगदान करने वाले तमाम वैज्ञानिकों का आभार प्रकट करता हूँ। अनन्त शुभकामनाएँ कि सभी को चिकित्सा और स्वास्थ्य प्राप्त हो।
सोमवार, 9 अक्तूबर 2023
इमोजियाँ
व्यंजन सभी भविष्य के गर्भ में छिपे थे
शनैः शनैः मनुष्य ने उच्चारना सीखा
तब जनमें व्यंजन
वह पत्थरों पर पत्थरों से
उकेरता था चित्र
वही उसकी अभिव्यक्ति थी
शनैः शनैः चित्र बदलते गए अक्षर लिपियों में
अक्षर लिपियों और उच्चारण के
संयोग से जनमी भाषाएँ
लिखना बदला टंकण में
और कम्प्यूटर के आविष्कार के बाद
चीजें बहुत बदल गईं दुनिया में
अभिव्यक्ति के नए आयाम खुले
अब शब्दों ही नहीं वाक्यों को भी
प्रकट करती हैं इमोजियाँ
लगता है मनुष्य वापस लौट आया है
चित्र लिपियों के युग में
मैंने अपने आप को देखा
मैं खड़ा था बहुत ऊँचे
मैं नीचे झाँका
तो वहाँ बहुत नीचे
ठीक मेरी सीध में दिखाई दिए
आदिम मनुष्य द्वारा अंकित चित्र
और चित्र लिपियाँ
लौट आया था मैं उसी बिन्दु पर
लेकिन नहीं था ठीक उसी जगह
उससे बहुत ऊँचाई पर था।
गुरुवार, 31 अगस्त 2023
रुक गए और पीछे को लौट रहे लोगों को साथ लेने की कोशिश भी जरूरी है
बुधवार, 30 अगस्त 2023
मुहूर्तों की निस्सारता
मुझे भी अपनी किशोरावस्था में ज्योतिष और पंडताई का काम दादाजी ने सिखाया, उद्देश्य यही था कि यदि जीवन में कुछ सार्थक नहीं कर सका तो ब्राह्मण का बच्चा है यही सब करके पेट भराई तो कर ही लेगा।
उस समय जो सीखा और बाद में खोजबीन करके पढ़ा उसके हिसाब से मेरी समझ में यह सारा ज्ञान मिथ्या है और केवल डराने और रोजी रोटी चलाने का जरिया मात्र है।
मेरी एक कविता है...
क्या जोशी, क्या डाक्टर, क्या वकील
डरे को और डरावे,
फिर डर से निकलने का रास्ता बतावै,
जो ऐसा न करे तो घर के गोदड़े बिकावै।
ज्यादातर ब्राह्मणों को भद्रा के मामले में शास्त्रीय तथ्यों का ज्ञान तक नहीं है, वे भद्रा भद्रा करके लोगों को डराते हैं।
हालाँकि किसी भी ग्रंथ में रक्षाबंधन, प्रथम श्रावणी के अलावा बाद वाले श्रावणी कर्म और श्रवण पूजा हेतु शुभाशुभ देखने की जरूरत होने के बारे में कुछ भी नहीं कह रखा है। इसलिए कभी भी रक्षाबंधन मनाया जा सकता है।
महुर्त चिंतामणि ग्रन्थ कहता है, पूर्णिमा तिथि के पूर्वार्थ में भद्रा रहती है, तथा तिथि के पूर्वार्ध में होने वाली भद्रा रात्रि में शुभ होती है। इस का सीधा अर्थ है कि आज 10.58 सुबह से पूर्णिमा आरंभ हो रही है उसमें पूर्वार्ध में अर्थात रात्रि 9.01 तक भद्रा रहेगी। लेकिन तिथि के पूर्वार्ध की भद्रा होने से रात्रि में शुभ है। जिसका अर्थ है कि सूर्यास्त के बाद वह शुभ है, सूर्यास्त के बाद रक्षाबंधन मनाया जा सकता है।
इसलिए जिन्हें रक्षाबंधन मनाना है मुहूर्त की टेंशन छोड़ो, मस्ती से पूरे दिन और रात कभी भी रक्षाबंधन मनाओ।
मंगलवार, 8 अगस्त 2023
पितृसत्ता खुद ही खुद को नष्ट करने के उपाय कर रही है
मंगलवार, 1 अगस्त 2023
नस्लीय और धार्मिक राष्ट्रवाद लोगों को हत्यारों में तब्दील कर देते हैं
क्या आप जानते हैं साथ के इस चित्र में यह क्या है? इसे क्या कहते हैं?
उस समय की वैश्विक आर्थिक परिस्थितियों ने इस विचारधारा के लिए खाद पानी का काम किया। पूंजीवाद भयानक मंदी में फँसा था। साम्राज्यवादी देशों को नए बाजार चाहिए थे। जनता में असन्तोष था। उस असंतोष को दबाने के लिए शासकों को लगा कि राष्ट्रवाद का झुनझुना बढ़िया है और नासमझ जनता में बहुत बढ़िया तरीके से काम करता है।
मुसोलिनी से प्रेरणा प्राप्त कर लगभग एक सदी पहले भारत में भी एक संगठन खड़ा किया गया जिसे हम राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ नाम दिया गया। इसने भारत में हिन्दू धार्मिक राष्ट्रवाद को फैलाने की कोशिश की। बाद में जिस तरह नस्लीय राष्ट्रवाद को जर्मनी में नाजिज्म नाम दिया गया था, यहाँ भारत में उसी तरह इस विचारधारा को हिन्दुत्व नाम प्राप्त हुआ है, जो भारतीय सनातन धर्म की मूल शिक्षाओं के बिलकुल विपरीत विचार है।
यह विचारधारा लोगों को व्यक्तिगत रूप से एक हत्यारे के रूप में परिवर्तित कर देती है। इसका उदाहरण कल जयपुर मुंबई एक्सप्रेस में इसी विचार से प्रभावित आरपीएफ के एक सिपाही ने आरपीएफ के ही एक अधिकारी और तीन यात्रियों की हत्या कर दी है।
सोमवार, 31 जुलाई 2023
क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं? – प्रेमचंद
यह तो हम पहले भी जानते थे और अब भी जानते हैं कि साधारण भारतवासी राष्ट्रीयता का अर्थ नहीं समझता, और यह भावना जिस जागृति और मानसिक उदारता से उत्पन्न होती है, वह अभी हममें बहुत थोड़े आदमियों में आयी है. लेकिन इतना ज़रूर समझते थे कि जो पत्रों के सम्पादक हैं, राष्ट्रीयता पर लम्बे–लम्बे लेख लिखते हैं और राष्ट्रीयता की वेदी पर बलिदान होने वालों की तारीफों के पुल बांधते हैं, उनमें ज़रूर यह जागृति आ गयी है और वह जात–पांत की बेड़ियों से मुक्त हो चुके हैं, लेकिन अभी हाल में ‘भारत’ में एक लेख देखकर हमारी आंखे खुल गयीं और यह अप्रिय अनुभव हुआ कि हम अभी तक केवल मुंह से राष्ट्र–राष्ट्र का गुल मचाते हैं, हमारे दिलों में अभी वही जाति–भेद का अंधकार छाया हुआ है. और यह कौन नहीं जानता कि जाति भेद और राष्ट्रीयता दोनों में अमृत और विष का अंतर है. यह लेख किन्हीं ‘निर्मल’ महाशय का है और यदि यह वही ‘निर्मल’ हैं, जिन्हें श्रीयुत ज्योतिप्रसाद जी ‘निर्मल’ के नाम से हम जानते हैं, तो शायद वह ब्राह्मण हैं. हम अब तक उन्हें राष्ट्रवादी समझते थे, पर ‘भारत’ में उनका यह लेख देखकर हमारा विचार बदल गया, जिसका हमें दुख है. हमें ज्ञात हुआ कि वह अब भी उन पुजारियों का, पुरोहितों का और जनेऊधारी लुटेरों का हिंदू समाज पर प्रभुत्त्व बनाये रखना चाहते हैं जिन्हें वह ब्राह्मण कहते हैं पर हम उन्हें ब्राह्मण क्या, ब्राह्मण के पांव की धूल भी नहीं समझते. ‘निर्मल’ की शिकायत है कि हमने अपनी तीन–चौथाई कहानियों में ब्राह्मणों को काले रंगों में चित्रित करके अपनी संकीर्णता का परिचय दिया है जो हमारी रचनाओं पर अमिट कलंक है. हम कहते हैं कि अगर हममें इतनी शक्ति होती, तो हम अपना सारा जीवन हिंदू–जाति को पुरोहितों, पुजारियों, पंडों और धर्मोपजीवी कीटाणुओं से मुक्त कराने में अर्पण कर देते. हिंदू–जाति का सबसे घृणित कोढ़, सबसे लज्जाजनक कलंक यही टकेपंथी दल हैं, जो एक विशाल जोंक की भांति उसका खून चूस रहा है, और हमारी राष्ट्रीयता के मार्ग में यही सबसे बड़ी बाधा है. राष्ट्रीयता की पहली शर्त है, समाज में साम्य–भाव का दृढ़ होना. इसके बिना राष्ट्रीयता की कल्पना ही नहीं की जा सकती. जब तक यहां एक दल, समाज की भक्ति, श्रद्धा, अज्ञान और अंधविश्वास से अपना उल्लू सीधा करने के लिए बना रहेगा, तब तक हिंदू समाज कभी सचेत न होगा. और यह दस–पांच लाख व्यक्तियों का नहीं है, असंख्य है. उसका उद्यम यही है कि वह हिंदू जाति को अज्ञान की बेड़ियों में जकड़ रखे, जिससे वह जरा भी चूं न कर सके. मानो आसुरी शक्तियों ने अंधकार और अज्ञान का प्रचार करने के लिए स्वयंसेवकों की यह अनगिनत सेना नियत कर रखी है.
अगर हिंदू समाज को पृथ्वी से मिट नहीं जाना है, तो उसे इस अंधकार–शासन को मिटाना होगा. हम नहीं समझते, आज कोई भी विचारवान हिंदू ऐसा है, जो इस टके पंथी दल को चिरायु देखना चाहता हो, सिवाय उन लोगों के जो स्वयं उस दल में हैं और चखौतियां कर रहे हैं. निर्मल, खुद शायद उसी टकेपंथी समाज के चौधरी हैं, वरना उन्हें टकेपंथियों के प्रति वकालत करने की ज़रूरत क्यों होती? वह और उनके समान विचारवाले उनके अन्य भाई शायद आज भी हिंदू समाज को अंधविश्वास से निकलने नहीं देना चाहते, वह राष्ट्रीयता की हांक लगाकर भी भावी हिंदू समाज को पुरोहितों और पुजारियों ही का शिकार बनाये रखना चाहते हैं. मगर हम उन्हें विश्वास दिलाते हैं कि हिंदू–समाज उनके प्रयत्नों और सिरतोड़ कोशिशों के बावजूद अब आंखें खोलने लगा है और इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि जिन कहानियों को ‘निर्मल’ जी ‘वर्तमान’ के सम्पादक श्री रमाशंकर अवस्थी, ‘सरस्वती’ के सम्पादक श्री देवीदत्त शुक्ल, ‘माधुरी’ के सम्पादक पं. रूपनारायण पांडे, ‘विशाल भारत’ के सम्पादक श्री बनारसीदास चतुर्वेदी आदि सज्जनों को ब्राह्मण समझते हैं या नहीं, पर इन सज्जनों ने उन कहानियों को छापते समय ज़रा भी आपत्ति न की थी. वे उन कहानियों को आपत्तिजनक समझते, तो कदापि न छापते. हम उनका गला तो दबा न सकते थे. मुरौवत में पड़कर भी आदमी अपने धार्मिक विश्वास को तो नहीं त्याग सकता. ये कहानियां उन महानुभावों ने इसीलिए छापीं, कि वे भी हिंदू समाज को टके पंथियों के जाल से निकालना चाहते हैं, वे ब्राह्मण होते हुए भी इस ब्राह्मण जाति को बदनाम करनेवाले जीवों का समाज पर प्रभुत्व नहीं देखना चाहते. हमारा खयाल है कि टकेपंथियों से जितनी लज्जा उन्हें आती होगी, उतनी दूसरे समुदायों को नहीं आ सकती, क्योंकि यह धर्मोपजीवी दल अपने को ब्राह्मण कहता है. हम कायस्थ कुल में उत्पन्न हुए हैं और अभी तक उस संस्कार को न मिटा सकने के कारण किसी कायस्थ को चोरी करते या रिश्वत लेते देखकर लज्जित होते हैं. ब्राह्मण क्या इसे पसंद कर सकता है, कि उसी समुदाय के असंख्य प्राणी भीख मांगकर, भोले–भाले हिंदुओं को ठगकर, बात–बात में पैसे वसूल करके, निर्लज्जता के साथ अपने धर्मात्मापन का ढोंग करते फिरें. यह जीवन व्यवसाय उन्हीं को पसंद आ सकता है जो खुद उसमें लिप्त हैं और वह भी उसी वक्त तक, जब तक कि उनकी अधः स्वार्थ भावना प्रचंड है और भीतर की आंखें बंद हैं. आंखें खुलते ही वह उस व्यवसाय और उस जीवन से घृणा करने लगेंगे. हम ऐसे सज्जनों को जानते हैं, जो पुरोहितकुल में पैदा हुए, पर शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद उन्हें वह टकापंथपन इतना जघन्य जान पड़ा कि उन्होंने लाखों रुपये साल की आमदनी पर लात मार स्कूल में अध्यापक होना स्वीकार कर लिया. आज भी कुलीन ब्राह्मण पुरोहितपन और पुजारीपन को त्याज्य समझता है और किसी दशा में भी यह निकृष्ट जीवन अंगीकार न करेगा. ब्राह्मण वह है, जो निस्पृह हो, त्यागी हो और सत्यवादी हो. सच्चे ब्राह्मण महात्मा गांधी, म. मालवीय जी हैं, नेहरू हैं, सरदार पटेल हैं, स्वामी श्रद्धानंद हैं. वह नहीं जो प्रातःकाल आपके द्वार पर करताल बजाते हुए– ‘निर्मलपुत्र देहि भगवान’ की हांक लगाने लगते हैं, या गनेश–पूजा और गौरी पूजा और अल्लम–गल्लम पूजा पर यजमानों से पैसे रखवाते हैं, या गंगा में स्नान करनेवालों से दक्षिणा वसूल करते हैं, या विद्वान होकर ठाकुर जी और ठकुराइन जी के शृंगार में अपना कौशल दिखाते हैं, या मंदिरों में मखमली गाव तकिये लगाये नर्तकियों का नृत्य देखकर भगवान से लौ लगाते हैं.
हिंदू बालक जब से धरती पर आता है और जब तक वह धरती से प्रस्थान नहीं कर जाता, इसी अंधविश्वास और अज्ञान के चक्कर में सम्मोहित पड़ा रहता है. और नाना प्रकार के दृष्टांतों से मनगढ़ंत किस्से कहानियों से, पुण्य और धर्म के गोरख–धंधों से, स्वर्ग और नरक की मिथ्या कल्पनाओं से, वह उपजीवी दल उनकी सम्मोहनावस्था को बनाये रखता है. और उनकी वकालत करते हैं हमारे कुशल पत्रकार ‘निर्मल’ जी, जो राष्ट्रवादी हैं. राष्ट्रवाद ऐसे उपजीवी समाज को घातक समझता है और समाजवाद में तो उसके लिए स्थान ही नहीं. और हम जिस राष्ट्रीयता का स्वप्न देख रहे हैं उसमें तो जन्मगत वर्णों की गंध तक न होगी, वह हमारे श्रमिकों और किसानों का साम्राज्य होगा, जिसमें न कोई ब्राह्मण होगा, न हरिजन, न कायस्थ, न क्षत्रिय. उसमें सभी भारतवासी होंगे, सभी ब्राह्मण होंगे, या सभी हरिजन होंगे.
कुछ मित्रों की यह राय हो सकती है कि माना टकेपंथी समाज निकृष्ट है, त्याज्य है, पाखंडी है, लेकिन तुम उसकी निंदा क्यों करते हो, उसके प्रति घृणा क्यों फैलाते हो, उसके प्रति प्रेम और सहानुभूति क्यों नहीं दिखलाते, घृणा तो उसे और भी दुराग्रही बना देती है और फिर उसके सुधार की सम्भावना भी नहीं रहती. इसके उत्तर में हमारा यही नम्र निवेदन है कि हमें किसी व्यक्ति या समाज से कोई द्वेष नहीं, हम अगर टकेपंथीपन का उपहास करते हैं, तो जहां हमारा एक उद्देश्य यह होता है कि समाज में से ऊंच–नीच, पवित्र–अपवित्र का ढोंग मिटावें, वहां दूसरा उद्देश्य यह भी होता है कि टकेपंथियों के सामने उनका वास्तविक और कुछ अतिरंजित चित्र रखें, जिसमें उन्हें अपने व्यवसाय, अपनी धूर्तता, अपने पाखंड से घृणा और लज्जा उत्पन्न हो, और वे उसका परित्याग कर ईमानदारी और सफाई की ज़िंदगी बसर करें और अंधकार की जगह प्रकाश के स्वयंसेवक बन जायें. ‘ब्रह्मभोज’ और ‘सत्याग्रह’ नामक कहानियों ही को देखिए, जिन पर ‘निर्मल’ जी को आपत्ति है. उन्हें पढ़कर क्या यह इच्छा होती है कि चौबे जी या पंडित जी का अहित किया जाय? हमने चेष्टा की है कि पाठक के मन में उनके प्रति द्वेष न उत्पन्न हो, हां परिहास–द्वारा उनकी मनोवृत्ति दिखायी है. ऐसे चौबों को देखना हो, तो काशी या वृंदावन में देखिए और ऐसे पंडितों को देखना हो तो, वर्णाश्रम स्वराज्य संघ में चले जाइए, और निर्मल जी पहले ही उस धर्मात्मा दल में नहीं जा मिले हैं, तो अब उन्हें चटपट उस दल में जा मिलना चाहिए, क्योंकि वहां उन्हीं की मनोवृत्ति के महानुभाव मिलेंगे. और वहां उन्हें मोटेराम जी के बहुत से भाई–बंधु मिल जायेंगे, जो उनसे कहीं बड़े सत्याग्रही होंगे. हमने कभी इस समुदाय की पोल खोलने की चेष्टा नहीं की, केवल मीठी चुटकियों से और फुसफुसे परिहास से काम लिया, हालांकि ज़रूरत थी बर्नाडशा जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति की, जो घन से चोट लगाता है.
निर्मल जी को इस बात की बड़ी फिक्र है कि आज के पचास साल बाद के लोग जो हमारी रचनाएं पढ़ेंगे, उनके सामने ब्राह्मण समाज का कैसा चित्र होगा और वे हिंदू समाज से कितने विरक्त हो जायेंगे. हम पूछते हैं कि महात्मा गांधी के हरिजन आंदोलन को लोग आज के एक हजार साल के बाद क्या समझेंगे? यह कि हरिजनों को ऊंची जाति के हिंदुओं ने कुचल रखा था. हमारे लेखों से भी आज के पचास साल बाद लोग यही समझेंगे कि उस समय हिंदू समाज में इसी तरह के पुजारियों, पुरोहितों, पंडों, पाखंडियों और टकेपंथियों का राज था और कुछ लोग उनके इस राज को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न कर रहे थे. निर्मल जी इस समुदाय को ब्राह्मण कहें, हम नहीं कह सकते. हम तो उसे पाखंडी समाज कहते हैं, जो अब निर्लज्जता की पराकाष्ठा तक पहुंच चुका है. ऐतिहासिक सत्य चुप–चुप करने से नहीं दब सकता. साहित्य अपने समय का इतिहास होता है, इतिहास से कहीं अधिक सत्य. इसमें शर्माने की बात अवश्य है कि हमारा हिंदू समाज क्यों ऐसा गिरा हुआ है और क्यों आंखें बंद करके धूर्तों को अपना पेशवा मान रहा है और क्यों हमारी जाति का एक अंग पाखंड को अपनी जीविका का साधन बनाये हुए है, लेकिन केवल शर्माने से तो काम नहीं चलता. इस अधोगति की दशा सुधार करना है. इसके प्रति घृणा फैलाइए, प्रेम फैलाइए, उपहास कीजिए या निंदा कीजिए सब जायज है और केवल हिंदू–समाज के दृष्टिकोण से ही नहीं जायज है, उस समुदाय के दृष्टिकोण से भी जायज है, जो मुफ्तखोरी, पाखंड और अंधविश्वास में अपनी आत्मा का पतन कर रहा है और अपने साथ हिंदू–जाति को डुबोए डालता है. हमने अपने गल्पों में इस पाखंडी समुदाय का यथार्थ रूप नहीं दिखाया है, वह उससे कहीं पतित है, मगर यह हमारी कमज़ोरी है कि बहुत–सी बातें जानते हुए भी उनके लिखने का साहस नहीं रखते और अपने प्राणों का भय भी है, क्योंकि यह समुदाय कुछ भी कर सकता है. शायद इस साप्रदायिक प्रसंग को इसीलिए उठाया भी जा रहा है कि पंडों और पुरोहितों को हमारे विरुद्ध उत्तेजित किया जाय.
निर्मल जी ने हमें ‘आदर्शवाद’ और कला के विषय में भी कुछ उपदेश देने की कृपा की है, पर हम यह उपदेश ऐसों से ले चुके हैं, जो उनसे कहीं ऊंचे हैं. आदर्शवाद इसे नहीं कहते कि अपने समाज में जो बुराइयां हों, उनके सुधार के बदले उनपर परदा डालने की चेष्टा की जाय, या समाज को एक लुटेरे समुदाय के हाथों लुटते देखकर जबान बंद कर ली जाय. आदर्शवाद का जीता–जागता उदाहरण हरिजन–आंदोलन हमारी आंखों के सामने है. निर्मल जी को मंदिरों का खुलना और मंदिरों के ठेकेदारों के प्रभुत्व का मिटना, ज़हर ही लग रहा होगा, मगर बेचारे मजबूर हैं, क्या करें?
निर्मल जी हमें ब्राह्मण द्वेषी बताकर संतुष्ट नहीं हुए. उन्होंने हमें हिंदू द्रोही भी सिद्ध किया है, क्योंकि हमने अपनी रचनाओं में मुसलमानों को अच्छे रूप में दिखाया है. तो क्या आप चाहते हैं, हम मुसलमानों को भी उसी तरह चित्रित करें जिस तरह पुरोहितों और पाखंडियों को करते हैं? हमारी समझ में मुसलमानों से हिंदू जाति को उसकी शतांश हानि नहीं पहुंचती है, जितनी इन पाखंडियों के हाथों पहुंची और पहुंच रही है. मुसलमान हिंदू को अपना शिकार नहीं समझता, उसकी जेब से धोखा देकर और अश्रद्धा का जादू फैलाकर कुछ ऐंठने की फिक्र नहीं करता. फिर भी मुसलमानों को मुझसे शिकायत है कि मैंने उनका विकृत रूप खींचा है. हम ऐसे मुसलमान मित्रों के खत दिखा सकते हैं, जिन्होंने हमारी कहानियों में मुसलमानों के प्रति अन्याय दिखाया है. हमारा आदर्श सदैव से यह रहा है कि जहां धूर्तता और पाखंड और सबलों द्वारा निर्बलों पर अत्याचार देखो, उसको समाज के समाने रखो, चाहे हिंदू हो, पंडित हो, बाबू हो, मुसलमान हो, या कोई हो. इसलिए हमारी कहानियों में आपको पदाधिकारी, महाजन, वकील और पुजारी गरीबों का खून चूसते हुए मिलेंगे, और गरीब किसान, मज़दूर, अछूत और दरिद्र उनके आघात सहकर भी अपने धर्म और मनुष्यता को हाथ से न जाने देंगे, क्योंकि हमने उन्हीं में सबसे ज़्यादा सच्चाई और सेवा–भाव पाया है. और यह हमारा दृढ़ विश्वास है कि जब तक यह सामुदायिकता और साप्रदायिकता और यह अंधविश्वास हममें से दूर न होगा, जब तक समाज को पाखंड से मुक्त न कर लेंगे तब तक हमारा उद्धार न होगा. हमारा स्वराज्य केवल विदेशी जुए से अपने को मुक्त करना नहीं है, बल्कि सामाजिक जुए से भी, इस पाखंडी जुए से भी, जो विदेशी शासन से कहीं अधिक घातक है, और हमें आश्चर्य होता है कि निर्मल जी और उनकी मनोवृत्ति के अन्य सज्जन कैसे इस पुरोहिती शासन का समर्थन कर सकते हैं. उन्हें खुद इस पुरोहितपन को मिटाना चाहिए, क्योंकि वह राष्ट्रवादी हैं. अगर कोई ब्राह्मण, कायस्थों की दहेज–प्रथा, उनके मदिरा सेवन की, या उनकी अन्य बुराइयों की निंदा करे, तो मुझे ज़रा भी बुरा न लगेगा. कोई हमारी बुराई दिखाये और हमदर्दी से दिखाये, तो हमें बुरा लगने या दांत किटकिटाने का कोई कारण नहीं हो सकता.
अंत में मैं अपने मित्र निर्मल जी से बड़ी नम्रता के साथ निवेदन करूंगा कि पुरोहितों के प्रभुत्व, के दिन अब बहुत थोड़े रह गये हैं और समाज और राष्ट्र की भलाई इसी में है कि जाति से यह भेद-भाव, यह एकांगी प्रभुत्व यह खून चूसने की प्रवृत्ति मिटायी जाय, क्योंकि जैसा हम पहले कह चुके हैं, राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्णव्यवस्था, ऊंच-नीच के भेद और धार्मिक पाखंड की जड़ खोदना है. इस तरह के लेखों से आपको आपके पुरोहित भाई चाहे अपना हीरो समझें और मंदिर के महंतों और पुजारियों की आप पर कृपा हो जाय, लेकिन राष्ट्रीयता को हानि पहुंचती है और आप राष्ट्र-प्रेमियों की दृष्टि से गिर जाते हैं. आप यह ब्राह्मण समुदाय की सेवा नहीं, उसका अपमान कर रहे हैं.
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- प्रेमचंद