आज राजस्थान पत्रिका के संपादकीय पृष्ठ पर समाज शास्त्री और स्तंभकार ऋतु सारस्वत का लेख छपा है "विवाह संस्था को कमजोर करेंगे लैंगिक आधार पर बने कानून"।
इस लेख में अन्य कारकों पर विचार किए बिना महिला सुरक्षा के लिए बने कानूनों के दुरुपयोग के आधार पर यह निष्कर्ष आरोपित किया गया है कि ये कानून ही झगड़े की जड़ हैं। स्वर यह निकल रहा है कि स्त्री सुरक्षा के लिए तथा पुरुषों के अपराधों के लिए उन्हें दंडित किए जाने और अपराधों की रोकथाम के लिए बने कानून ही पुरुषों पर दमन के अपराधी हैं और इन्हें स्टेच्यूट बुक से हटा देना चाहिए।
इस लेख में जो निष्कर्ष निकाले गए हैं उनमें अन्य आधारों का कोई उल्लेख नहीं किया गया है। जब कि पिछले दिनों अनेक घटनाओं से यह पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है कि कानूनों में कोई खामी नहीं है बल्कि किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने और पुलिस जाँच में जो भ्रष्टाचार और राजनैतिक हस्तक्षेप व्याप्त है वही मूल रोग की जड़ है। आज भी पुलिस और राजनीति में पितृसत्ता का बोलबाला है। वहाँ हर बात का रुख पितृसत्ता तय करती है। पुरुषों के विरुद्ध जो गलत मुकदमे दर्ज होते हैं उनके पीछे पुरुषों की योजना और साधन काम करते हैं। लगभग सभी मामलों में स्त्रियाँ पितृसत्ता के लिए औजार बना दी जाती हैं।
कहने को लेखिका समाजशात्री हैं, लेकिन इस पूरे लेख में किसी सामाजिक अध्ययन का उल्लेख नहीं किया गया। तथ्यों और आँकड़े लेख से गायब हैं। इस का सीधा अर्थ है कि खोखले लेखों के जरीए प्रिंट मीडिया भी सत्ता और पितृसत्ता की सेवा में मुब्तिला है। यहाँ तक कि स्त्री सुरक्षा के लिए निर्मित इन कानूनों को परिवार तोड़ने वाला बता कर जो थोड़ी बहुत सुरक्षा और हिम्मत स्त्रियाँ इन कानूनों से प्राप्त करती हैं उसका अंत करने की तैयारी है। वैसे ही दुरुपयोग के आधार पर इन कानूनों के दाँत तोड़ दिए गये है।
मैं इस बात से इन्कार नहीं करता कि कानूनों का दुरुपयोग नहीं होता। वह होता है, और खूब होता है। लेकिन दुरुपयोग की जड़ हमारी पुलिस, सरकारी अफसर और राजनेता हैं जो पितृसत्ता को बनाए रखते हैं। इस समस्या का गंभीर रूप से सामाजिक अध्ययन होना चाहिए। प्रधानमंत्री गली-गली यूनिवर्सिटी खोलने की बातें करते हैं यहाँ तक कि विदेश तक में कर आते हैं। लेकिन इस लेख में किसी एक विश्वविद्यालय द्वारा किए गए सामाजिक अध्ययन या शोध का कोई उल्लेख नहीं है।
समस्या की सारी जड़ पितृसत्ता में है। आज जब संविधान स्त्री और पुरुष को समान अधिकार देता है, तब समाज हर अधिकार और व्यवहार को पितृसत्ता की कसौटी पर कसने को तैयार रहता है। हम अपने समाज में जनतांत्रिक मूल्यों का विकास ही नहीं कर पाए हैं और न ही उन मूल्यों को समाज में स्थापित करने के बारे में कोई तैयारी नजर आती है। इस लेख में विवाह संस्था के नष्ट होने का खतरा बहुत जोरों से बताया गया है जैसे शहर पर स्काईलेब गिरने वाली हो। लेकिन विवाह संस्था इन कानूनों की वजह से नहीं बल्कि पितृसत्ता के दासयुगीन और सामंती सोच के कारण टूट रही है। उसे खुद पितृसत्ता से खतरा है, किसी कानून से नहीं। हमारे समाज को सामाजिक व्यवहारों में और परिवार में जनतांत्रिक व्यवहार सीखना होगा, स्त्री-पुरुष के मध्य कागजी और कानूनी समानता के स्थान पर वास्तविक समानता स्थापित करनी होगी तभी ये समस्याएँ हल हो सकेंगी। उसके बिना इस समस्या से कोई निजात नहीं है। आज कम संख्या में ही सही पर स्त्रियाँ पितृसत्ता को चुनौती दे रही हैं। पितृसत्ता को यह खतरा सबसे बड़ा नजर आता है उसका परिणाम यह लेख है, जो एक स्त्री से लिखवाया गया है और एक स्त्री अखबार में नाम तथा मामूली पारिश्रमिक के लिए इसे लिख रही है। ऐसी लेखिकाओं को भी सोचना चाहिए कि वे आखिर एक स्त्री हो कर पितृसत्ता का टूल कैसे बन रही हैं।
आप इसी तथ्य से सोच सकते हैं कि पितृसत्ता कितनी घबराई हुई है कि एक मुख्यमंत्री ने यह कहा है वे इस बात पर शोध करवा रहे हैं कि लव मैरिज में कैसे मातापिता की सहमति को अनिवार्य किया जा सकता है। यानी अब एक वयस्क स्त्री और पुरुष से यह अधिकार भी छीन लिया जाएगा कि वह अपनी मर्जी से ऐसा जीवन साथी चुन कर विवाह करे जिसके साथ उसे पूरा जीवन बिताना है। ऐसा कानून बना कर आप विवाहेतर संबंधों को बढ़ावा तो दे ही रहे हैं लेकिन उसके साथ ही विवाह संस्था को क्षतिग्रस्त भी कर रहे हैं क्योंकि तब बहुत सारे स्त्री-पुरुष बिना विवाह किए साथ रहना अर्थात सहजीवन में (Live in) रहना पसंद करेंगे। जो बड़े पैमाने पर अब हमारे महानगरों में देखने को मिल रहा है। कुल मिला कर हालात ये हैं कि पितृसत्ता खुद ही खुद को नष्ट करने के उपाय कर रही है।
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