मैं अंदर ही अंदर दहल जाता। मैं गलतियां करता और छिपाने के लिए दादा जी से, माँ से और अपने शिक्षक से झूठ बोलता था। मैं सोचता मुझे भी प्रायश्चित करना चाहिए। पर दादा जी की तरह तो नहीं कर सकता। फिर क्या कर सकता हूँ? मैं चाहता था कि मैं दादा जी से पूछूँ कि मुझे क्या करना चाहिए? पर डर लगता कि मेरे झूठों के बारे में पूछ लिया तो। मैं ने तय कर लिया मैं भी राम चरित मानस का पाठ करूंगा। आखिर एक साल नवान्ह पारायण करने बैठ गया। बड़ा आनंद मिला। लेकिन सिर्फ एक बार। अगले नवरात्र में वह आनंद जाता रहा। फिर कभी वैसा आनंद नहीं आया। हाँ, तुलसी के काव्य को समझने के लिए उसे कई कई बार अपनी रुचि से जब जब पढ़ा बहुत आनंद मिला और ज्ञान भी।
पहले नवरात्र से ही रामलीलाएँ शुरू हो जाती थीं। पहले एक गोल कमरा चौक पर होती। पंडित राधेश्याम की लिखी रामलीला के आधार पर। कुछ आधुनिक लोगों को वह पसंद नहीं आयी तो फुटबाल मैदान पर दूसरी होने लगी। लोग दोनों को देखते। कभी इस को कभी उस को। दोनों रामलीलाएँ शौकिया लोग करते थे। हिन्दू-मुसलमान दोनों ही उस में लगे रहते। वह पूरे शहर का पर्व था और उस में योगदान करना बहुत सम्मान की बात थी। हम भी रोज रामलीला देखने जाते। तीसरे चौथे दिन से दिन में सवारियाँ निकलनी शुरु हो जातीं। जिन में रामायण की घटनाओं और पात्रों को दिखाया जाता। वे शहर के मुख्य बाजार में घुमाई जाती। जगह जगह अखंड रामायण पाठ होते। पूरा शहर राममय हो जाता।
दशहरे के दिन दोपहर बाद सवारी निकलती। पहले रावण का दरबार निकलता। हमारे साथ रोज वाली बॉल खेलने वाले सुख पाल जी रावण बनते। ऐसे ठहाके लगाते कि बच्चे वाकई डर जाते। उस सवारी में एक दो जोकर भी जरूर होते। जो सवारी के आगे पैदल चलते और राहगीरों से चुहल करते चलते। बाद में राम लक्ष्मण की सवारी निकलती जिस में विभीषण, जामवंत, सुग्रीव और हनुमान भी होते और कुछ बालक वानर भी सभी वानर पैदल चलते। सवारी के आगे। हनुमान की हूँकार और राम का जयघोष देखने-सुनने लायक होता और दर्शकों को रोमांचित कर देता।
सवारी के निकलते ही हम दौड़ते हुए उस के आगे निकल जाते और सवारी के पहले दशहरा मैदान पहुँचते। जहाँ रावण, मेघनाद, कुंभकर्ण आदि के बड़े बड़े पुतले सजे होते। उन तक पहुंचने का रास्ता सवारी के लिए खाली होता। रावण के पहले ही एक छोटी सी अशोक वाटिका बनाई जाती जिस में माँ सीता बैठी होतीं जिन के आस पास घास की लंका बनाई जाती। सवारी नजदीक पहुंचती तो हनुमान दौड़ कर आते और माँ सीता से मिलते और लंका में आग लगा कर वापस राम जी की सवारी में जा मिलते। फिर रावण पर हमला होता। रावण जला दिया जाता।
हम रावण जलते ही चल देते। रास्ते में नदी किनारे बंकट की बगीची में। बंकट एक गुरू पहलवान था, ब्रह्मचारी। बगीची में रहता अखाड़ा चलाता और हनुमान जी की पूजा करता। सप्ताह में एक दिन बाजार से चंदा करता। दशहरे पर रावण वध के बाद हनुमान जी की पूजा होती। फिर खीर का प्रसाद बंटता। हम दोने में ले कर वहीं प्रसाद खाते और अपने मंदिर लौटते। वहाँ भी हनुमान जी की मूर्ति थी। पूजा करने की जिम्मेदारी मेरी। तबीयत से हनुमान जी का श्रंगार करता। आरती होती, प्रसाद बंटता। फिर परिवार के सभी बुजुर्गों के पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त करते। सब बच्चों को कुछ न कुछ आना-दो आना जरूर देते। तब तक भूख लगी होती। घऱ जा कर भोजन करते और राम लीला देखने भाग जाते।
दशहरे के दूसरे दिन संध्या काल में दो सवारियाँ निकलतीं जिस में एक में राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान और वानर सेना होती, अयोध्या को लौटती हुई। दूसरी में भरत होते हाथों में पादुकाएँ लिए हुए वनवासी वेश में। बाजार के बीच चौक में दोनों का मिलन होता। सारे मिलते ही खूब आँसू बहाते। ऐसा दृश्य बनता कि सारे दर्शकों की आँखों से भी आँसू बह रहे होते। वहीं एक मंच बनाया जाता। राम, लक्ष्मण, सीता और भरत कहीं चले जाते। दर्शक इन्तजार करते। फिर चारों राजसी पोशाकों में सज कर आते और राम का राजतिलक होता। लोग खूब रुपया भेंट करते। इतना कि दशहरे के दिनों सवारियों पर किया गया सारा खर्च निकाल कर भी बच जाता जो अगले साल के लिए रख लिया जाता। उन दिनों के नवरात्र और दशहरा कभी नहीं भुलाए जा सकते।
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18 टिप्पणियां:
मैं भी बचपन में रामलीला का काफी आनन्द लेता था |
पिता जी हम लोगों को रामलीला ले जाते थे | बड़े
मज़ेदार दिन थे वो | ज़ब से नौकरी लगी और मैं
अमेरिका आ गया उसके बाद से काफी समय से
दशहरा दीवाली का पुराना मज़ा नहीं आ रहा है |
आपसे बहुत कम उम्र है मेरी , फ़िर भी इतने समय में भी समाज में काफी परिवर्तन आया है / आप की यह पोस्ट से मुझे भी अपने बचपन के दिन याद आ गए जो की २०-२५ वर्षा पहले ही की बात है / जाहिर है आप के बचपन का मजा ही कुछ और रहा होगा / आप इस मामले में मुझसे अधिक भाग्यशाली हैं / इन यादों को पुनर्जीवित करने के लिए कोटि कोटि धन्यवाद्!
मुझे भी याद है अपने नानाजी के कन्धों पर बैठकर रामलीला की झांकियां देखना. पंडित राधेश्याम उनके कुल में से ही थे. अब तो उन दिनों की बस मधुरिम यादें ही बची हैं.
"उस के लिए वर्ष में दो बार नवरात्र में माँ से क्षमा मांगता हूँ, प्रायश्चित करता हूँ। शायद माँ माफ कर दें मुझे मेरी गलतियों के लिए पापों के लिए। "
कितने लोगो में आज यह साहस बचा है ? अपने को स्वयं को भी ग़लत मान लेना और फ़िर क्षमा मांगना ! परम-पूज्य दादाजी को आज नवमी पर्व पर मेरे प्रणाम ! काश उनके आशीर्वाद से हम भी यह साहस जुटा पाये तो यह जीवन भी अलौकिक हो सकता है ! मैं भी नवरात्र करता हूँ पर शायद ये साहस नही जुटा पाया ! आज माँ के सामने ये प्रार्थना जरुर करूंगा और इसको नियमित जीवन में भी अपना लिया जाए तो मैं सोचता हूँ की ये एक अद्भुत प्रार्थना होगी ! आपने जिस तरह से बचपन की यादों का खाका खींचा हैं वो मन तो मोहता ही है , सारी यादे आँखों के सामने ले आता हैं ! आपको बहुत २ शुभकामनाएं !
बचपन की ख़ूबसूरत यादे मन में उत्साह
और उमंगो की तरंगे पैदा कर देता है ,
मै भी बचपन में काफी रामलीला देखा
करता था और यही यादो को सहेजने
के लिए ब्लॉग निरंतर में रामलीलाओं के
सम्बन्ध में लिख रहा हूँ . जबलपुर में
रामलीलाओं का इतिहास काफी पुराना
है और आज भी उनकी लोकप्रियता
बरकरार है . बढ़िया आलेख प्रस्तुति
के लिए आभार.
जे मान भवानी सदा सहाय करे.
पचपन में बचपन को याद दिलाती जोरदार पोस्ट !
तुलसी के काव्य को समझने के लिए उसे कई कई बार अपनी रुचि से जब जब पढ़ा बहुत आनंद मिला और ज्ञान भी।
सहमत !!
रावण मरते ही फ़िर पैदा हो रहा है। हमारे छत्तीसगढ मे तो हर शहर ,हर कस्बे मे एक इलाका या मैदान रावण के नाम पर होता है,रावणभाठा कहा जाता है उसे।हर साल रावण मारना पड रहा है मगर रावण मरने का नाम ही नही लेता। आपको पढ कर बचपन याद आ गया। अब तो लगता है त्योहार के नाम पर औपचारिकतायें ही पूरी की जाती है। आपके पूज्य दादाजी को नमन करता हूं।कोशिश करूंगा की अपनी गल्तियों की माफ़ी मांगना शुरु कर सकुं।
आपने मुझे मेरे गांव की सैर करा दी । रामलीला में मैं सती सुलोचना की भूमिका (जिसे 'पार्ट' कहा जाता है) निभाता और अपने मृतक पति की कटी भुजा हाथों में लेकर विलाप करता । अब तो रामलीला का स्वष्प भी बदलने लगा है । यह स्वाभाविक ही है ।
मैंने तो कभी रामलीला नहीं देखी ना ही तुलसी को पढ़ा हां पर इसे देखने-पढ़ने की विकट इच्छा है....शायद कभी पूरी ना हो पाये
हां इस त्यौहार के मौसम में बचपन में पटाखे चलाने का बड़ा शौक था....कहीं न कहीं से पैसे कबाड़कर रोज पटाखे की दुकान पर पहुंच जाते थे
आपसे उम्र में बहुत छोटा हूँ पर रावण दहन देखने जाना आज भी याद है .अब वक़्त बदल गया है .भीड़ भले इलाके में जाने से दहशत होती है ...
राम लीला की यादे ताजा हो गई ..
रामलीला, माँ की आराधना दादाजी का सत्`चरित्र, झाँकीयाँ, गाँव का अखाडा और हनुमान जी,विविध पात्र सब सजीव हो गया
सँस्मरनोँ की ताकत चुम्बकीय है -साकार जीवनमय !बहुत सुखकर !आपके पूज्य दादाजी को सादर नमन ! ऐसे लेख और लिखियेगा
आभार आज के आलेख का ~~
- लावण्या
बहुत बढ़िया संस्मरण। और मनोयोग से अपने प्रस्तुत भी किया।
नवरात्र हिन्दू पर्यूषण पर्व है - यह भी मैने जाना।
हृदय से धन्यवाद इस पोस्ट के लिये।
रामलीला तो हमने भी बहुत देखी है बचपन में लेकिन ऐसा पाठ वगैरह कभी नही किया
बचपन से युवावस्था तक दशहरे की स्मृतियां अपूर्व है...
अच्छा संस्मरण । विजया दशमी की बधाइयां....
आदरणीय दिवेदी जी /अभी में आपका लेख औधोगिक विवाद अधिनियम पढ़ रहा था =आप २५ साल से इस क्षेत्र की याने शायद श्रमिकों की ओर से या कम्पनी की ओर से विकालत कर रहे हैं और श्रमिकों की परेशानी से अबगत करा रहे थे उसे छोड़ा मैंने कहा वहाँ चलो जहाँ कुछ शान्ति मिले ,सो मजदूरों को छोड़ रामलीला में आगया हमें भी गुज़रे वक्त की रामलीला याद आगई /क्या आनंद था /रावण का दरवार ,अंगद पहुचे ,ज़ोर से चिल्लाये ""रखा है पाँव अंगद ने ""-फिर चीखे अरे मर गया रे / मंच में एक जगह कील निकली थी और उसी पर अंगद ने पैर ज़ोर से दे मारा
सार्थक और बहाब पूर्ण आलेख के लिए धन्यवाद आपका आगमन मेरा सौभाग्य है हार्दिक धन्यबाद आपका आगमन नियमित बनाए रखें मेरी नई रचना पढ़े
हिन्दी काव्य मंच: दिल की बीमारी
तुलसी साहित्य की बात तो शत प्रतिशत सच है. खास कर 'मानस' जीतनी बार पढिये कुछ न कुछ नया मिलता ही है.
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