@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: दादा जी
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शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

दादा जी! जरा अपने पोते पोतियों के दोस्त तो बनें!

श्री  विष्णु बैरागी जी के ब्लाग एकोऽहम् पर कुछ दिन पहले एक पोस्ट थी  'वृद्धाश्रम: मकान या मानसिकता'। मैं ने इस पर टिप्पणी की थी "काका साहब बेटे बहू और पोते पोती के दोस्त क्यों नहीं बन जाते हैं? क्यों दादा ही बने रहना चाहते हैं? मेरे पिता जी के काका जी ने यही किया था। वे हमारे और पिताजी के दोस्त बन गए थे। कभी पूरी बात लिखूंगा। शायद जल्दी ही।" इस पोस्ट को पढ़ कर जो कुछ मेरे स्मरण में आया उसे ही आज दोहरा रहा हूँ।

वे मेरे सब से छोटे दादा जी थे। कुल पाँच में से मेरे दादा जी और उन के छोटे भाई एक से, दो एकसे, और एक एक से कुल मिला कर मेरे पाँचों दादा जी तीन दंपतियों की संतान थे। सब से छोटे दादा जी से मेरे दादा जी का संबंध तीन पीढ़ी पहले से था। पर दादा जी ने जिस तरह परिवार को एक रखा था हमें बहुत बाद में पता लगा कि पांचों दादा जी एक माता-पिता की संतान नहीं थे।  छोटे दादा जी ने जीवन में बहुत पापड़ बेले। वे पहले एक दादा जी के साथ कोटा में व्यवसाय में थे, फिर अपना बिजली का काम करने लगे। जिन दादा जी के साथ वे थे वे लापता हो गए। तो सब भाइयों ने मिल कर उन की तीन बेटियों के ब्याह किए। छोटे दादा जी के खुद दो ब्याह हुए, एक बेटी भी हुई। पत्नियाँ कम उम्र में उन का साथ छोड़ गईं। वे अकेले रह गए तो कोटा छोड़ उज्जैन की एक कपड़ा मिल में नौकरी करने चले गए। बाद में वे बड़ी दादी को अपने साथ ले गए। छोटे दादा जी साल में एक-दो बार बारा आते हम बच्चों के लिए कुछ न कुछ ले कर आते। पिताजी और उन की खूब निभती थी। बारां में काका भतीजे दोनों चौबीसों घंटे साथ रहते।  
 
ब मैं सात आठ वर्ष का था, पिता जी अम्माँ, मुझे और दो बहनों को ले कर उज्जैन गए। हम वहाँ कोई आठ-दस दिन रुके। रोज शाम दादा जी हमें टेकरी पर घुमाने ले जाते, कभी आइसक्रीम खिलाते कभी कुछ और। इस तरह पाँच दिन निकल गए। छठे दिन सुबह सुबह ही दादा जी मुझ से पूछने लगे -तुम्हें यहाँ आए कितने दिन हो गए? मैं ने बताया पाँच दिन। तो कहने लगे -तुम कैसे बेकार बच्चे हो? तुम्हें यहाँ उज्जैन आए पाँच दिन हो गए हैं और अभी तक तुमने सिनेमा देखने की जिद नहीं की? सिनेमा नहीं देखा तो नए जमाने को कैसे पहचानोगे? मुझे यह सब जान कर बहुत आश्चर्य हुआ कि वे हम से इस तरह बात कर सकते हैं। पिताजी तो सिनेमा के कट्टर विरोधी थे। हमारी कभी उन से सिनेमा जाने कहने की हिम्मत नहीं होती थी। जाते भी थे तो तब जब वे बाराँ में नहीं होते थे, वह भी छोटे काका के साथ। धीरे-धीरे हम समझ गए कि ये दादा जी हैं जिन से अपनी इच्छा खुल कर कही जा सकती है और बहुत सी बातें ऐसी भी की जा सकती हैं जो हम परिवार के किसी दूसरे बुजुर्ग के साथ नहीं कर सकते। 
 
कोई पाँच सात बरस बाद परिवार की एक शादी में हम जोधपुर में थे। बाजार में निकले छोटे दादा जी ने वहाँ की मावा कचौरी और मिर्ची बड़े खिलवाए। छोटी बहिन कहने लगी मुझे चप्पलें लेनी हैं। हम सभी चप्पल की दुकान पर पहुँचे। बहिन ने पिता जी की उपस्थिति में सादी सी चप्पलें पसंद कीं, जिन्हें छोटे दादा जी ने रिजेक्ट कर दिया। कहने लगे -ये भी कोई चप्पलें हैं? बिलकुल आउट ऑफ फैशन। जरा ऊंची ऐड़ी वाली कुछ तड़क भड़क वाली खरीदो तो सहेलियाँ बार बार पूछें कि कहाँ से लाई है? कितने की लाई है? छोटे दादा जी ने उसे जबरन नवीनतम फैशन की चप्पलें पहनाईं। छोटे दादाजी हम सभी बच्चों के मित्र थे। वे हमारे मन को पढ़ सकते थे। इस का नतीजा था कि हम सब बच्चे उन का हमेशा ख्याल रखा करते। उन्हें क्या पसंद है और क्या पसंद नहीं है? केवल हम ही नहीं  मेरी सब बुआएँ और उन के बच्चे उन के साथ रहना पसंद करते थे।  मैं समझता हूँ कि मेरे छोटे दादा जी की ही तरह तमाम बुजुर्ग चाहें तो अपने बच्चों और उन के बच्चों के मित्र बन सकते हैं।

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

सुंदर कितना लगता है, पूनम का ये चांद,? शहर से बाहर आओ तो .......

स्मृति और विस्मृति पल पल आती है, और चली जाती हैं। कल तक स्मरण था। आज काम में विस्मृत हो गया। पूरा एक दिन बीच में से गायब हो गया। दिन में अदालत में किसी से कहा कल शरद पूनम है तो कहने लगा नहीं आज है। मैं मानने को तैयार नहीं। डायरी देखी तो सब ठीक हो गया। शरद पूनम आज ही है। शाम का भोजन स्मरण हो आया। कितने बरस से मंगलवार को एक समय शाम का भोजन चल रहा है स्मरण नहीं। शाम को घर पहुँचा तो शोभा को याद दिलाया आज शरद पूनम है। कहने लगी -आप ने सुबह बताया ही नहीं, मेरा तो व्रत ही रह जाता। वह तो पडौसन ने बता दिया तो मैं ने अखबार देख लिया।

- तो मैं दूध ले कर आऊँ?
- हाँ ले आओ, वरना शाम को भोग कैसे लगेगा? रात को छत पर क्या रखेंगे?
मुझे स्मरण हो आया अपना बालपन और किशोरपन। शाम होने के पहले ही मंदिर की छत पर पूर्व मुखी सिंहासन को  सफेद कपड़ों से सजाया जाता। संध्या आरती के बाद फिर से ठाकुर जी का श्रंगार होता। श्वेत वस्त्रों से। करीब साढ़े सात बजे, जब चंद्रमा बांस  भर आसमान चढ़ चुका होता। ठाकुर जी को खुले आसमान तले सिंहासन पर सजाया जाता। कोई रोशनी नहीं, चांदनी और चांदनी, केवल चांदनी। माँ मन्दिर की रसोई में खीर पकाती। साथ में सब्जी और देसी घी की पूरियाँ। फिर ठाकुर जी को भोग लगता। आरती होती। जीने से चढ़ कर दर्शनार्थी छत पर आ कर भीड़ लगाते। कई लोग अपने साथ खीर के कटोरे लाते उन्हें भी ठाकुर जी के भोग में शामिल किया जाता।

किशोर हो जाने के बाद से मेरी ड्यूटी लगती खीर का प्रसाद बांटने में। एक विशेष प्रकार की चम्मच थी चांदी की उस से एक चम्मच सभी को प्रसाद दिया जाता। हाथ में प्रसाद ले कर चल देते। लेकिन बच्चे उन्हें सम्हालना मुश्किल होता। वे एक बार ले कर दुबारा फिर अपना हाथ आगे कर देते। सब की सूरत याद रखनी पड़ती। दुबारा दिखते ही डांटना पड़ता। फिर भी अनेक थे जो दो बार नहीं तीन बार भी लेने में सफल हो जाते।

कहते हैं शरद पूनम की रात अमृत बरसता है। किसने परखा? पर यह विश्वास आज भी उतना ही है। जब चांद की धरती पर मनुष्य अपने कदमों की छाप कई बार छोड़ कर आ चुका है। सब जानते हैं चांदनी कुछ नहीं, सूरज का परावर्तित प्रकाश है। सब जानते हैं चांदनी में कोई अमृत नहीं। फिर भी शरद की रात आने के पहले खीर बनाना और रात चांदनी में रख उस के अमृतमय हो जाने का इंतजार करना बरकरार है।

शहरों में अब शोर है, चकाचौंध है रोशनी की। चकाचौंध में हिंसा है। और रात में किसी भी कृत्रिम स्रोत के  प्रकाश के बिना कुछ पल, कुछ घड़ी या एक-दो प्रहर शरद-पूनम की चांदनी में बिताने की इच्छा एक प्यास है। वह चांदनी पल भर को ही मिल जाए, तो मानो अमृत मिल गया। अमर हो गए। अब मृत्यु भी आ जाए कोई परवाह नहीं। भले ही दूसरे दिन यह अहसास चला जाए। पर एक रात को यह रहे, वह भी अमृत से क्या कम है।

साढ़े सात बजे दूध वाले के पास जा कर आया। दूध नहीं था। कहने लगा आज गांव से दूध कम आया और शरद पूनम की मांग के कारण जल्दी समाप्त हो गया। फिर शरद पूनम कैसे होगी?  कैसे बनेगी खीर? और क्या आज की रात अमृत बरसा, तो कैसे रोका जाएगा उसे? उसे तो केवल एक धवल दुग्ध की धवल अक्षतों के साथ बनी खीर ही रोक सकती है। दूध वाले से आश्वासन मिला, दूध रात साढ़े नौ तक आ रहा है। मैं ले कर आ रहा हूँ। मेरे जान में जान आई। घर लौटा तो शोभा ने कहा स्नान कर के भोजन कर लो। जब दूध आएगा, खीर बन जाएगी। रात को छत पर चांदनी में रख अमृत सहेजेंगे। प्रसाद आज नहीं सुबह लेंगे। पूनम को नहीं कार्तिक के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को।

मैं ने वही किया जो गृहमंत्रालय का फरमान था। अब बैठा हूँ, दूग्धदाता की प्रतीक्षा में। दस बज चुके हैं। वह आने ही वाला होगा। टेलीफोन कर पूछूँ? या खुद ही चला जाऊँ लेने? मैं उधर गया और वह इधर आया तो? टेलीफोन ही ठीक रहेगा।

मैं बाहर आ कर देखता हूँ। चांद भला लग रहा है। जैसे आज के दिन ही उस का ब्याह हुआ हो। लेकिन ये दशहरा मेले की रोशनियाँ, शहर की स्ट्रीट लाइटस् और पार्क के खंबों की रोशनियाँ कहीं चांद को मुहँ चिढ़ा रही हैं जैसे कह रही हों अब जहाँ हम हैं तुम्हें कौन पूछता है? मेरा दिल कहता है थोड़ी देर के लिए बिजली चली जाए। मैं चांद को देख लूँ। चांद मुझे देखे अपनी रोशनी में। मैं सोचता हूँ, मेरी कामना पूरी हो,  बिजली चली जाए उस से पहले मैं इस आलेख को पोस्ट कर दूँ। मेरी अवचेतना में किसी ग्रामीण का स्वर सुनाई देता है ......

सुंदर कितना लगता है? पूनम का ये चांद,
जरा शहर से बाहर आओगे तो जानोगे,
खंबों टंगी बिजलियाँ बुझाओ तो जानोगे........


पुनश्चः - दूध वाला नहीं आया।  आए कमल जी मेरे कनिष्ठ अधिवक्ता। मैं ने कहा - दूध लाएँ? वह अपनी बाइक ले कर तैयार दूध वाला गायब दुकान बंद कर गया। उसे कोसा। अगली दुकान भी बंद। कमल जी ने बाइक अगले बाजार में मोड़ी। वहाँ दूध की दुकान खुली थी। मालिक खुद बैठा था। उस के खिलाफ कुछ दिन पहले तक मुकदमा लड़ा था। मैं ने कहा - दूध दो बढ़िया वाला।
उस ने नौकर को बोला - प्योर वाला देना।

दूध ले कर आए। अब खीर पक रही है।
फिर जाएंगे उसे ले कर छत पर। अमृत घोलेंगे उस में। घड़ी, दो घड़ी।
अब बिजली चली ही जाना चाहिए, घड़ी भर के लिए......

बुधवार, 30 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में (5) .... बाबा की कीर्ति

मैं -बाबा, समस्या तो नहीं कहूँगा, हाँ चिन्ताएँ जरूर हैं। बेटी पढ़-लिख गई है, नौकरी करती है। उस की शादी होना चाहिए, योग्य वर मिलना चाहिए।

बाबा -बेटी की आप फिक्र क्यों करते हैं। वह स्वयं सक्षम है, और आप की चिन्ता वह स्वयं ही दूर कर देगी। बाबा बोले।

मैं -समस्या ही यही है कि बेटी कहती है कि वर तलाशना पिता का कर्तव्य है उस का नहीं। फिर वह शुद्ध शाकाहारी, ब्राह्मण संस्कार वाला, उसे और उस के काम को समझने वाला वर चाहती है, और जहाँ तक मेरा अपना दायरा है, मुझे कोई उस की आकांक्षा जैसा दिखाई नहीं देता।

बाबा –हाँ, तब तो समस्या है। फिर भी आप चिंता न करें। वर्ष भर में सब हो लेगा। आप की चिंता दूर हो जाएगी। और बताएँ।

मैं –बेटे के अध्ययन का आखिरी साल है। वह चिंतित है कि उस का कैम्पस सैलेक्शन होगा या नहीं। नौकरी के लिए चक्कर तो नहीं लगाने पड़ जाएंगे?

बाबा -केंम्पस तो नहीं हो सकेगा। लेकिन प्रयत्न करेगा, तो उसे बिलकुल बैठा नहीं रहना पड़ेगा। वैसे, आप को दोनों ही संतानों की ओर से चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है।

मैं ने कहा –बाबा, एक नया मकान भी बनाना चाहता हूँ, अपने हिसाब का?

बाबा -आप की वह योजना दीपावली के बाद ही परवान चढेगी। ..... और कुछ?

मुझे बाबा थके-थके और विश्राम के आकांक्षी प्रतीत हुए। वे आराम चाहते थे। मैं भी वहाँ से खिसकना चाहता था। हम ने बाबा को नमस्कार किया और वहाँ से चल दिए। हमारे साथ के लोग भी सब चले आए। हम सीढ़ियों से नीचे उतर कर आए ही थे कि पीछे से किसी ने आ कर सीढ़ियों का दरवाजा अंदर से बन्द कर लिया। बाबा अब विश्राम कर रहे थे।

जो काम बाबा कर रहे थे, वह मैं अपने परिवार में हमेशा से होता देखता आया था। मेरे दादा खुद ज्योतिषी थे। वे जन्म पत्रिकाएँ बनाते थे। लोग उन के पास समस्याएँ ले कर आते थे, और वे परंपरागत ज्योतिष ज्ञान के आधार पर उन्हें सलाह देते थे, उन की चिन्ताएँ कम करते थे और उन्हें समस्याओं के हल के लिए कर्म के मार्ग पर प्रेरित करते थे। पिता जी खुद श्रेष्ठ अध्यापक थे। परंपरागत ज्योतिष ज्ञान उन्हों ने भी प्राप्त किया था। प्रधानाध्यापक के पद से सेवानिवृत्त होने पर वे नित्य दोपहर तक घर पर आने वाली लड़कियों को पढ़ाते थे, जिन में अधिकांश उन के अपने विद्यार्थियों की बेटियाँ होती थीं। अपरान्ह भोजन और विश्राम के उपरांत उन के पास उन के परिचित मिलने आते और तरह तरह की समस्याएँ ले कर आते। वे उन्हें ज्योतिष के आधार पर या अपने अनुभव व ज्ञान के आधार पर कर्म के लिए प्रेरित करते थे। जहाँ हो सकता था उन की सहायता भी करते। अधिकांश लोगों की समस्याएं हल हो जाती थीं। दादाजी और पिताजी को इस तरह लोगों की समस्याएँ हल करने में सुख मिलता था। दोनों ही अच्छे ज्योतिषी जाने जाते थे। लेकिन न तो दादा जी ने और न ही पिता जी ने ज्योतिष को अपने जीवन यापन का आधार बनाया था।

मेरे दादाजी, पिताजी और 'बाबा' में एक मूल अंतर था। दादाजी और पिताजी ने कभी इस बात का उपक्रम नहीं किया था कि कोई अतीन्द्रिय शक्ति है, जिस से वे लोगों का कल्याण कर रहे थे। लेकिन बाबा यह कर रहे थे। वे लोगों को अपने अनुभव और सामान्य अनुमान से सांत्वना देते थे। बाबा के उत्तरों में कुछ भी असाधारण नहीं था। वे केवल लोगों को उन की समस्याओं को निकट भविष्य में हल होने का विश्वास जगाते थे। असंभव हलों के होने से इन्कार कर देते थे। और संभव हलों को हासिल करने के लिए लोगों को प्रयत्न करने को प्रेरित करते थे। मेरे समक्ष तो ऐसी कोई बात सामने नहीं आई थी, लेकिन मुझे अनेक लोगों ने यह भी बताया था कि लोग समस्याओं के हल के लिए उपाय करने के लिए भी उन से पूछते थे और वे लोगों को उपाय भी बताते थे। इन उपायों में एक उपाय यह भी था कि भक्त यहाँ या कहीं भी हनुमान मंदिर की 11, 21, 51 परिक्रमा लगाना जैसे उपाय सम्मिलित थे। ये उपाय ऐसे थे जिन में समय तो खर्च होता था पर पैसा नहीं, और जो लोगों में, स्वयं में विश्वास जगाते थे तथा समस्या के हल के लिए कर्म करने को प्रेरित करते थे। अधिकांश लोग स्वयं के प्रयासों से ही समस्याओं का हल कर लेने में समर्थ होते थे। लोगों का बाबा में विश्वास उपज रहा था। कुछ जंगल में स्थित मंदिर में बैठे हनुमान जी का लोगों पर प्रभाव था। बाबा के भक्तों की संख्य़ा में निरंतर वृद्धि होती जा रही थी, उन में अतीन्द्रीय शक्तियाँ होने के विश्वासियों की संख्या लगातार बढ़ रही थी,  जो आश्रम और बाबा की कीर्ति और भौतिक समृद्धि का विस्तार कर रही थी।

सीढ़िय़ों से नीचे उतर कर घड़ी देखी तो चार बज चुके थे। मुझे कॉफी की याद आने लगी थी। चाय मैं सोलह वर्षों से नहीं पीता और कॉफी यहाँ उपलब्ध नहीं थी। सुबह रवाना होने की हड़बड़ी में मुझे कॉफी के पाउच साथ रखने का ध्यान नहीं रहा था। मैं ने बाहर दुकानों पर जा कर पता किया तो एक दुकान वाला रखता ही नहीं था। दूसरे ने कहा -उस के यहाँ खतम हो गई है। शायद वह अधिक होशियार था जो यह प्रदर्शित नहीं करना चाहता था वह कॉफी रखता ही नहीं। मैं दुकानदारों से आश्रम के बारे में बातें करने लगा। (अगले आलेख में समाप्य)

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में -3.......... मन्दिर में

पदपथ समाप्त होने पर कोई दस फुट की दूरी पर दीवार में साधारण सा द्वार था, बिना किवाड़ों के। उस में घुसते ही दीवार नजर आई जिस के दोनों सिरों पर रास्ता निकल रहा था। जीवन के बीस वर्ष मंदिर में गुजारने के अनुभव ने बता दिया कि तुम मंदिर की परिक्रमा में हो और परिक्रमा के पिछले द्वार से प्रवेश कर गए हो। दादा जी जिस मंदिर के पुजारी थे वहाँ भी हमारे प्रवेश का द्वार यही था। पीछे एक बाड़ा था और उस के पीछे घर। हम घर से निकलते और परिक्रमा वाले द्वार पर जूते चप्पल उतारते और मंदिर में प्रवेश करते थे। बिलकुल वही नजारा था मैं बायीँ ओर चला। तो सीधे मंदिर के गर्भगृह के सामने वाले हॉल में पहुँच गया। फर्श पर संगमरमर जड़ा था।

गर्भगृह के सामने की छह फुट चौड़ी मध्य पट्टिका के उस पार एक रेलिंग लगी थी जहाँ एक छोटे मंदिर में एक वृद्ध संत की साधारण वेशभूषा वाली मूर्ति थी। यही इस आश्रम के जन्मदाता की मूर्ति थी। यह रेलिंग हॉल को दो बागों में बांट रही थी। मूर्ति वाले हिस्से में उन से सट कर ही एक मंच पर अखंड रामायण पाठ चल रहा था। मैले कपड़े पहने नौजवान विलम्बित लय में रामचरितमानस का पाठ कर रहा था। सामने एक माइक था जिस से जुड़े लाउडस्पीकर के जरिए पाठ के स्वर आश्रम की सीमा के बाहर जंगल में भी गूँज रहे थे। मूर्ति वाले हिस्से के बाकी स्थान को रामायण पाठ करने वालों और मंदिर को सम्भालने वाले पुजारी के उठने बैठने, विश्राम करने के स्थान में परिवर्तित कर दिया गया था और अन्दर वाली परिक्रमा को बंद कर दिया गया था। जिस की पूर्ति बाहर वाला पदपथ कर रहा था।

मैं गर्भगृह की ओर झाँका, तो वहाँ लाल रंग का पर्दा लटका था, इस तरह की बीच से मूर्ति के दर्शन न हो सकें लेकिन पर्दे के दोनों ओर से झाँका जाए तो हनुमान जी की मूर्ति के दर्शन हो जाएं। साधारण सी मूर्ति और उस पर सिंदूर से चढ़ा चोला। सफेद चमकीली रंगीन पन्नियों से हनुमान जी के आकार को स्पष्ट कर दिया गया था। कोई विशेष सज्जा नहीं। गर्भगृह के बाहर एक जगह बिना आग का धूप दान जिस में सेरों भभूत (राख)। वही एक चौकी जिस पर श्रद्धालुओं द्वारा अर्पित माला, अगरबत्ती, प्रसाद और पूजा के सामानों की थैलियाँ रखी थीं। यह हनुमान जी के सोने का समय था। और यह सब उन्हें जागने पर अर्पित किया जा कर प्रसाद वापस लौटाना था। मेरा प्रसाद शोभा के पास बैग में था। मेरी घंटा बजाने की इच्छा हुई थी, लेकिन हनुमान जी को सोया देख उन्हें होने वाली परेशानी को देख पीछे हट गया। अपने आप को वहाँ अवांछित पा कर सामने के द्वार से बाहर आ गया।

मंदिर के सामने चौक था फर्श पर कच्ची मिट्टी पर उगी दूब भली लग रही थी। बाहर एक और लम्बे काष्ठ स्थम्भ पर हनुमान जी का लाल झंडा फहरा रहा था। चौक की दूसरी ओर भी एक मंदिर जैसा निर्माण था। जिस का द्वार भी साधारण बना था। पूछने पर जानकारी मिली कि वहाँ शिव मंदिर है। वहाँ से हमारी अस्थाई भोजनशाला दिखाई दे रही थी। पकौड़े तले जा चुके थे। उन्हें कागज की प्लेटों में रख कर वितरण की तैयारी थी। दूसरी मंदिर में स्थापित देवों के विश्राम में खलल उत्पन्न करने के स्थान पर जाग्रत अन्न देवता को तरजीह देना उचित समझ, उधर चल पड़ा। राह में ही हमारे कनिष्ट उपाध्याय जी और लिपिक दुर्गेश मिल गए। दुर्गेश ने सूचना दी, भाई साहब¡ यहाँ तो विजय भास्कर (95 प्रतिशत भंग मिश्रित स्वादिष्ट चूर्ण) भी उपलब्ध है, लाऊँ? मैं उसे कुछ कहता उस से पहले ही हमारे कनिष्ठ ने आदेश दिया- ले आ, पाँच-दस पुड़िया। पर यहाँ जंगल में, विजय भास्कर? दुर्गेश ने बताया कि बाहर दुकानदार रखता है छुपा कर मांगने पर दे देता है। राजस्थान में इस पर पाबंदी है पर पुलिसवालों ने ऐसे धार्मिक स्थानों पर अपने स्तर पर छूट दे रखी है, छिपा कर बेचने की। दुर्गेश गायब हो गया था। मैं भोजनशाला के नजदीक पहुँचा तो एक ने मुझे पकौड़े ला कर दिए, प्लेट में सॉस भी था। मैं वहीं पदपथ पर पैर लटका कर बैठ खाने लगा। समय देखा तो एक बज रहा था। मैं स्नान के बाद पाँच मिनट भूख बर्दाश्त न करने वाला करीब पाँच घंटों के संयम के उपरांत उन पर टूट पड़ रहा था। इस बीच दुर्गेश विजय-भास्कर के पाउच ले कर लौटा। कहने लगा। आधे पकौड़े निकल चुके हैं बाकी के घोल में डाल दूँ? उस की आँखों में शरारत थी। मैं ने उसे आँखें दिखाईं और सारे पाउच ले कर अपनी जेब के हवाले किए। उसे कहा कि किसी को जरूरत होगी तो मुझ से ले लेगा। पकौड़े खत्म होते तब तक और आ गए। सब ने जम कर छके। पेट पूजा होते ही सब को सफर की थकान सताने लगी। मैं भी स्थान देख रहा था जहाँ झपकी ली जा सके। उधर बाबा के मकान के पास एक पेड़ के नीचे सारी महिलाएँ बतिया रहीं थीं। इधर नन्द जी के गाँव से आया एक नौजवान लड़का छैला बना था, सभी उस की मजाक बना रहे थे। ट्रेन भर में उस के जोड़ की लड़की तलाश करते रहे। कभी इसे पसंद कराते, कभी उसे। इस काम में कुछ महिलाएँ भी पीछे नहीं थीं। मजे का विनोद चल रहा था। जीप में उसे किसी दूसरे यात्री दल की लड़कियों के बीच बिठा दिया गया था। जैसे तैसे अपने छैलेपन की सजा भुगतते उस ने आश्रम तक का सफर किया था। अब दूसरे दल की दूर खाना बनाने में व्यस्त उन्हीं दो लड़कियों को इंगित कर उसे कहा जा रहा था कि वह जा कर उन की मदद करे, तो उन में से एक जरूर उसे पसंद कर लेगी।

पकौड़े पेट में जाते ही दो प्रतिक्रियाएं हुईं। दोनों दिमाग में। एक तो सुस्ती छाई, नीन्द सी आने लगी। दूसरे सुबह ठीक से शौच न होने का तनाव कि किसी भी वक्त जाने की जरूरत पड़ सकती थी। मैं पूछताछ करने लगा कि यहाँ जंगल में पानी कहाँ और कितनी दूर होगा? कोई भी ठीक से नहीं बता सका। फिर एक ने बताया कि आप को शौचादि की जरूरत हो तो आश्रम के पश्चिम में नीचे, गौशाला की बगल शौचालय और स्नानघर बने हैं। मैं ने तुरंत उन का निरीक्षण किया। वे अच्छे और साफ थे। एक शौचालय में एंग्लो इंडियन कमोड भी लगा था। दो स्नानघर थे। साफ और पानी की निरंतर व्यवस्था। उन्हें देख कर मुझे बहुत राहत मिली। उस समय उन की जरूरत नहीं थी मैं वापस लौटा तो। पेड़ के नीचे दरी बिछा कर बैठी महिलाएँ मन्दिर जा चुकीं थीं। दरी पर बहुत स्थान रिक्त था। मैं वहीं लमलेट हो गया। हवा नहीं थी। ऊमस बहुत थी। बादल बहुत कम और हलके थे। विपरीत परिस्थितियों में भी दिमाग के भारी पन से मुझे झपकी लग गई। (जारी)

कुछ पाठकों ने तस्वीरें चाहीं हैं। मेरे पास कैमरा नहीं था, मोबाइल में भी नहीं। एक अन्य मोबाइल से तस्वीरें ली गईं थी। पर वह जिन सज्जन का था। उन के साथ चला गया। वह उपलब्ध हो सका तो तस्वीरें भी दिखेंगी। लेकिन मैं ने तस्वीरों की कमी अपने शब्दों से करने की कोशिश की है। आप ही बताएँगे कि कितनी सफलता मुझे मिल सकी है?

शुक्रवार, 25 जनवरी 2008

कहाँ हैं दादा जी जैसे कथावाचक

शाम साढ़े पांच बजे अदालत से घर पहुँचा तो शोभा जी (मेरी पत्नी) किसी धार्मिक टीवी चैनल पर आधुनिक नामचीन्ह कथावाचक की लाइव कथा सुन रही थीं। प्रसंग था दक्ष के यज्ञ में भगवान शिव के अपमान और यज्ञ के विध्वंस का। वाचकश्री कथा कहते-कहते सिखाने लगे कि दो के झगड़े में तीसरे को नहीं बोलना चाहिए और इस बहाने एक बहुश्रुत चुटकुला सुना गए। फिर कुछ देर बाद ही उन्हों ने एक भजन की पहली पंक्ति आरम्भिक शब्द गुनगुनाए, जिस के इशारे से प्लेबैक सिंगिंग शुरु हो गया। अनेक श्रोता महिलाएं और बालाएं (उनमें से कुछ प्रायोजित भी हों तो इस का पता पत्रकार बंधु दें) नृत्य करने लगीं। सारा वातावरण भक्ति नृत्य-संगीत से सराबोर हो उठा। अब वाचकश्री केवल होंट हिला रहे थे, प्लेबैक सिंगर पूरे व्यावसायिक कौशल से गा रहे थे। वादक उन का साथ दे रहे थे, कुछ लोग पांडाल से बाहर जाने को रास्ता बनाने लगे, कुछ वाचकश्री के निकट-दर्शन लाभ की इच्छा से भव्य मंच की ओर राह बनाने लगे। यह भजन कथा के इस दिन के सोपान के समापन का संकेत था। इस बीच कैमरा घूमने लगा। मुझे उस की भव्यता के और विशेष कर इस भव्य संयोजन के लिए सिद्धहस्त व्यावसायिक कलाकारों और तकनीशियनों के कौशल की अनुभूति हुई। मेरे सामने अपने अतीत की स्मृतियां आ खड़ी हुई।

मेरे दादा जी पं. राम कल्याण शर्मा एक अच्छे कथावाचक थे, संस्कृत और ज्योतिष के विद्वान, एक बड़े मन्दिर के पुजारी। गृहस्थ, लेकिन स्वभाव से बिलकुल संन्यासी। अपने बचपन और युवावस्था में अनेक विपदाओं के मध्य उन का जीवन अंततः इस मंदिर में आ कर ठहरा था। वे गांव में अपर्याप्त आय वाला ब्राह्णण कर्म और साप्ताहिक हाट में कुछ व्यापार कर परिवार का जीवन चला रहे थे। पिता जी के सरकारी अध्यापक हो कर इस व्यावसायिक नगर में आने के दो-एक बरस बाद जब महाजनों के जातीय मंदिर को तत्काल आवश्यकता हुई तो दादाजी को जानने वाले पंचों ने उन्हें रातों-रात गांव से लाकर इस मंदिर का पुजारी बना दिया। हालांकि इस नए कर्तव्य के लिए वे तभी तैयार हुए जब उन्हें हटाए जाने वाले पुजारी ने अपना अनापत्ति प्रमाण-पत्र दे दिया। उन का जीवन एक लम्बी कथा है, लेकिन अभी केवल प्रसंगवश केवल उन का कथावाचक का रूप।

मुझे उन के साथ १९५७ से १९७९ तक अनवरत साथ रहने का अवसर प्राप्त हुआ। माँ के बाद मेरे पहले गुरू वे ही थे उन्हों ने मेरे लिखना सीखने के पहले ही मुझे गणित का प्रारंभिक अभ्यास कराया था। मैं ने उन्हें सैंकड़ों बार कथा वाचन करते देखा सुना। वे पूर्णिमा को श्री सत्यनारायण-कथा, एकादशी को एकादशी-कथा, कार्तिक, वैशाख, व पुरूषोत्तम मास में दैनिक मास कथा का वाचन करते। भागवत कथा का एक अध्याय तो नित्य ही वाचन होता था। इस कथा-वाचन से वे इतने बंधे थे कि उनका कहीं बाहर आना-जाना भी नहीं होता था। जाते भी तो उस दिन के लिए एवजी कथा वाचक की व्यवस्था वे ही करते। आखिर कथा की नियमितता भंग नहीं होनी चाहिए थी। नौ वर्ष की आयु में जब मेरा यज्ञोपवीत हो गया तो कथा के दौरान मंदिर में पुजारी के काम के लिए मेरी ड्यूटी लगने लगी। यहीं मुझे उन की कथाओं को नियमित रूप से श्रवण करने का अवसर मिलने लगा।

उन की कथा में कोई सहायक व्यवस्थायें नहीं थीं। मन्दिर में गर्भगृह के सामने आंगन था, आंगन व गर्भगृह के मध्य एक पंचबारी थी। आंगन के दाएं-बाएं भी दो पचबारियां, चौथी ओर मन्दिर का प्रवेशद्वार था। दाईँ ओर की पंचबारी के दूसरे द्वार के दोनों स्थम्भों के मध्य प्रवेशद्वार के स्तम्भ से सटा एक चौकी रखी होती थी, जिस पर एक कपड़े का सुन्दर कवर बिछा होता, उस पर दादाजी के भगवान की तस्वीर होती। और उसी पर उन की कथा पुस्तकें कपड़े के बस्ते में लिपटी रखी होतीं थीं। पंचबारी के इस द्वार के दूसरे स्तम्भ के साथ एक आसन रखा होता। यही दादाजी की व्यास पीठ थी। यही उन की कथा का समूचा सहायक तंत्र।

प्रातः दस बजे के लगभग उन की कथा का समय होता, उन के श्रोता आते मन्दिर आते दर्शन करते। उनमें से ही कोई फर्श बिछा देता फिर एक-एक कर उस पर बैठने लगते, दादा जी मन्दिर की सेवा किसी अन्य परिजन(यज्ञोपवीत के बाद अक्सर मुझे, मेरा स्कूल सदैव दोपहर की शिफ्ट में १२बजे का रहा) सोंप कर व्यास पीठ सम्भालते। तस्वीर वाले ठाकुर जी की कुछ मंत्रों के साथ पूजा करते और उन की कथा प्रारंभ होती। उन के श्रोताओं में पन्द्रह-बीस स्थाई थे वे उन सभी के आने की तनिक प्रतीक्षा भी करते थे, शेष अस्थाई श्रोता थे। कोई स्थाई श्रोता को न आना होता तो कथा समय के पहले ही उन के पास उस की सूचना होती थी। वे कथा प्रारम्भ में देरी करते दिखाई पड़ते तो श्रोताओं में से कोई भी उन्हें बता देता था कि अनुपस्थित लोग आज किस एक्सेजेंसी के कारण नहीं आ पाएंगे। कथा प्रारंभ के साथ ही श्रोता बढ़ने लगते और उस के साथ ही दादाजी का स्वर भी ऊंचा होता जाता, उन्हें यह अहसास रहता था कि उन की कथा अंतिम श्रोता तक पहुँचनी चाहिए। कथा में वे पहले मूल संस्कृत श्लोक का अपनी शैली में वाचन करते, फिर उस की सीधे हाड़ौती बोली में टीका करते थे। कहीं बीच में अध्याय विराम होता तो गोविन्दम् माधवम् गोपिकावल्लभम्... उच्चारण कर छोड़ देते, उन के श्रोता इस संक्षिप्त भजन को दो मिनट में पूरा करते तब अगले अध्याय की कथा प्रारम्भ होती। उन की कथा में किसी अन्तर्कथा का कोई स्थान न था। हाँ, जब कथा में कोई गंभीर शिक्षा या संदेश होता तो उसे वे हाड़ौती में तनिक विस्तार से व्याख्या करते थे। कोई बात किसी श्रोता को साफ न होती तो वह कथा के बाद दादा जी से प्रश्न के माध्यम से पूछता था। बात जरा सी होती तो वे उसी समय प्रश्न का उत्तर दे देते और उन को लगता कि यह शंका अन्य श्रोता को भी हो सकती है, तो कहते कल कथा में इसे समझाउंगा। दूसरे दिन कथा के बीच ही वे उस प्रश्न का उत्तर दे देते।

कथा-श्रोताओं की संख्या मौसम के अनुसार घटती बढ़ती रहती थी, पूर्णिमा, एकादशी और विशेष मास कथाओं के दौरान यह बढ़ कर चरम सीमा पर होती थी तो बरसात के दिनों में मूसलाधार वर्षा के समय न्यूनतम भी। कभी-कभी ऐसा भी होता कि एक भी श्रोता नहीं होता था, वे कुछ समय प्रतीक्षा करते, फिर उन की कथा नित्य की भांति प्रारंभ हो जाती। प्रारंभ में जब मैं ने यह देखा तो मुझे विचित्र लगा कि आखिर वे किसे कथा सुना रहे हैं? मैं ने अत्यन्त साहस कर के पूछा तो उन्होंने अत्यन्त स्नेह से समझाया कि मैं कभी श्रोताओं के लिए कथा नहीं करता। मेरी कथा को मेरे ठाकुर जी और मैं तो सुनता हूँ, फिर मेरे गाल पर एक चपत मढ़ते हुए प्यार से कहा- और तू भी तो सुनता है।

मुझे लगता है कि आज दादा जी जैसे कथावाचक कहाँ हैं? हैं भी या नहीं?

मेरा कथन- आज का यह आलेख ज्ञान दत्त जी पाण्डे की पोस्ट वाणी का पर्स से प्रेरित है। मुझे लगा कि ब्लॉग में ब्लॉगर को स्वयं को खोलना चाहिए। जिस से वह पाठकों के लिए निजी निधि बने। यह एक प्रयास है। यदि इसे पाठकों का आशीर्वाद मिला तो सप्ताह में कम से कम एक दिन मेरी यह निजी अंतर्कथा सार्वजनिक होती रहेगी।