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मंगलवार, 24 अगस्त 2010

सिंथेटिक मावा/खोया और उस की मिठाइयों का बहिष्कार करें ....

स कुछ देर में तारीख बदलने वाली है। हो सकता है यह आलेख प्रकाशित होते होते ही बदल जाए। नई तारीख रक्षा बंधन के त्यौहार की है। यूँ हमारे यहाँ तिथियाँ सूर्योदय से आरंभ होती हैं। इस कारण कल का सूर्योदय होती ही रक्षाबंधन आरंभ हो जाएगा। हम लोग अपने घरों पर श्रवणकुमार की पूजा करेंगे। घर के हर दरवाजे पर उस का प्रतीकात्मक चित्र बनाया जाएगा। उस की पूजा की जाएगी। उस के बाद रक्षा बंधन आरंभ हो जाएगा। हर बहिन अपने भाई को राखी बांधने के पहले टीका करेगी, फिर रुपया नारियल रख कर वारणे लेगी और मिठाई का डब्बा खोल कर कम से कम एक टुकड़ा मिठाई भाई के मुख में ऱख देगी। भाई ऐसे वक्त पर मना भी नहीं करेगा। 
राखी के त्यौहार पर आने वाली मिठाई में से अधिकांश खोये/मावे की बनी होगी। लेकिन इधर देखने में आ रहा है कि स्थान स्थान पर खोया/मावा पकड़ा जा रहा है जो जाँच पर नकली या खराब निकल रहा है। यहाँ ट्रेन में कल डेढ़ क्विंटल मावा  शौचालय में रखा मिला जो अवैध रूप से कहीं से लाया जा रहा था। अब इस के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होने में क्सी को संदेह हो सकता है? सिन्थेटिक दूध से मावा बनाया जा रहा है। सिन्थेटिक मावा या अवधिपार खराब हुआ मावा स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक है। सरकार की ओर से प्रचार किया जा रहा है कि मावा और उस से बनी मिठाई जाँच-परख के बाद विश्वसनीय होने पर ही खरीदें। लेकिन आम आदमी के पास जाँच का क्या साधन है। वह विश्वास पर जीता है लेकिन क्या कोई भी विश्वास के योग्य है? सिन्थेटिक मावा और दूध का निर्माण केवल मुनाफे के लिए नहीं होता। इस का एक कारण यह भी है कि शुद्ध दूध का उत्पादन मांग से कम है। त्यौहारों पर तो इस की मांग कई गुना बढ़ जाती है। इस मांग की पूर्ति किसी तरह संभव नहीं है। ऐसी हालत में सिंथेटिक दूध और मावे का बनना किसी हालत में नहीं रोका जा सकता।
से रोके जाने का एक हल हम उपभोक्ताओं के पास यह है कि हम मावा/खोया का बहिष्कार आरंभ करें। यह मौजूदा परिस्थितियों में संभव भी है। जब मावा स्वास्थ्य के लिए चुनौती बन गया है तो ऐसी स्थिति में मावे का सार्वजनिक बहिष्कार कर देना ही बेहतर है। इस से मावे की मांग में कमी आएगी। जब मावे के ग्राहक कम होंगे तो निश्चित रूप से इस का बनना कम हो जाएगा। जिस से दूध की उपलब्धता बढ़ जाएगी। दूध की उपलब्धता बढ़ने से सिन्थेटिक दूध के व्योपार भी फर्क पड़ेगा। मेरा तो यह मानना है कि राज्य सरकारों को रक्षाबंधन जैसे त्योहारों के एक सप्ताह पहले से एक सप्ताह बाद तक मावा/खोया और उस के उत्पादों के निर्माण और बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए।जिस से मावे का उत्पादन न हो दूध की उपलब्धता बनी रहे। इसी समय में सरकारी विभाग अपनी चौकसी और निरीक्षणों के बढ़ा दें तो इस समस्या से निजात पाया जा सकता है।
अब सरकार तो सोचेगी तब सोचेगी। हम तो सोच ही सकते हैं कि इस रक्षाबंधन पर न मावा/खोया खरीदेंगे और न उन से बनी मिठाइयाँ। मैं तो पिछले एक वर्ष से यही कर रहा हूँ। मेरे यहाँ मावा/खोया और उस की मिठाई नहीं आती। श्रीमती जी ने उस के विकल्प में दूसरी मिठाइयाँ घर पर ही बना ली हैं। क्या आप भी ऐसा करेंगे कि आज से ही खोया/मावा और उस से बनी मिठाइयाँ बनाना और लाना बंद कर दें?




सभी को रक्षाबंधन के त्यौहार पर हार्दिक शुभकामनाएँ!!!






 ..... व्यंग्य चित्र मस्तान टून्स से साभार

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

मुश्किल का दूध

दिनांक - 6 अगस्त 2010, प्रातः 5:15,
भी-अभी दूध ले कर लौटे हैं। 
यूँ, छह माह पहले तक दूध घर पर आ जाया करता था। आधा किलोमीटर के दायरे में सात आठ दूध डेयरियाँ हैं। जिन में सरस दूध डेयरी के आउटलेट भी हैं, जिन में थैली बंद दूध भी मिलता है। लेकिन यह दूध कभी श्रीमती शोभाराय को पसंद नहीं आया। न जाने कब का निकला होता है। फिर उन का पेस्चराइजेशन कर के उसे थैलियों में बंद किया जाता है। निश्चित ही दूध का प्राकृतिक स्वाद उस से छिन जाता है। शोभा इन का दूध लाती भी थी तो केवल दही जमाने के लिए। 
गूजर की झौंपड़ी के बाहर भैंसें
हले गाँवों से आने वाले दूधियों से दूध लिया करते थे। सात-आठ साल पहले जब कोटा के आस पास लहसुन की खेती बढ़ गई तो दूध में उस की महक शामिल होने लगी। दूधियों का दूध बंद कर दिया गया। एक गूजर की डेयरी से दूध आने लगा। पाँच-छह साल उस से दूध आता रहा। उस का भी बड़ा अजीब किस्सा था। वह दो-तीन क्वालिटी का दूध सप्लाई किया करता था। एक सब से अधिक कीमत का, एक सब से कम कीमत का और दो उस के बीच की कीमत के। हमारे यहाँ सब से अधिक कीमत का दूध आता रहा। लेकिन उस की गुणवत्ता लगातार गिरती रहती थी। तब तक, जब तक कि कीमतें न बढ़ जातीं। कीमतें बढ़ जाने पर अचानक गुणवत्ता में सुधार हो जाता था। चार-छह माह बाद फिर से उस की गुणवत्ता गिरने लगती थी और तब तक गिरती रहती थी जब तक कि फिर से एक बार दूध की कीमतें न बढ़ जातीं। साल भर पहले इस डेयरी के दूध में भी लहसुन की महक आने लगी। शिकायत की गई तो कहा कि वह ऐसा दूध घर पर सप्लाई नहीं कर सकता, दूध डेयरी से लेने आना पड़ेगा। बिना महक का दूध सिर्फ बोराबास के पठार से आता है। उधर लहसुन की खेती नहीं होती। उधर लहसुन की खेती क्या होती? उधर खेती होती ही नहीं थी, मीलों जंगल जो है। मैं कोई साल भर तक उस के यहाँ से दूध लाता रहा। लेकिन कभी-कभी वहाँ भी गड़बड़ हो जाती। आखिर उस का दूध बंद करना पड़ा। अब समस्या खड़ी हुई कि दूध कहाँ से लाएँ?
गूजर की झौंपड़ी
ब श्रीमती जी ने एक नया स्रोत तलाश किया। कोई एक किलोमीटर पर दशहरा मैदान है। उसी में कोई बीस-तीस गूजरों ने अपनी झोंपड़ियाँ डाल रखी हैं। वे भैंस-गाय पालते हैं। सुबह-शाम ग्राहकों को दूध सामने दुह कर देते हैं। वहीं कुछ व्यापारियों के डेरे भी हैं जो दिन में दो बजे और सुबह दो बजे अपने जानवर दुहते हैं। सुबह का दूध तो खुद दूधिए बस्ती में बेचने के लिए ले जाते हैं और उस में उतना ही पानी मिला कर सस्ते में बेचते हैं। दिन का दूध अवश्य सीधे ग्राहकों को मिल जाता है।  डेयरी से दूध बंद हुआ तो उस के सब से अच्छे दूध का भाव पच्चीस रूपये लीटर था। लेकिन ये सामने दुहने वाले गूजर तीस के भाव सामने भैंस दुह कर दूध देते थे। परेशानी यही थी कि वहाँ दूध दुहने के समय के पहले पहुँचना पड़ता है। जरा भी देरी हुई कि दूध में पानी या गाय का दूध मिला देना गूजरों के बाँए हाथ का खेल है। अब रोज-रोज दशहरा मैदान जाना तो संभव नहीं। हम ने तीन दिनों का दूध एक साथ लाना आरंभ कर दिया। सरस डेयरी ने दूध के भाव बढ़ाए शहर की दूसरी डेयरियों ने भी भाव में वृद्धि कर दी। दशहरा मैदान में भी भैंस का दूध तीस से पैंतीस हो गया। इस साल जुलाई माह बिना बरसात के निकल गया। 
गूजर की झौंपड़ी के पास उपला उद्योग
म जिस गूजर के यहाँ से दूध लाते हैं वह सुबह पौने पाँच बजे और शाम को चार बजे अपने जानवरों को दुहता है। अब इसी समय वहाँ जाया जाए तभी दूध सही मिले। अब अक्सर अदालत से लौटते तो पाँच से ऊपर का समय हो जाता है। हम सुबह के समय दूध लाने लगे। सप्ताह में तीन दिन सुबह साढ़े-चार उठना और कार से दूध लाना आरंभ हो गया। गूजर की झौंपड़ी मुख्य सड़क से कोई सौ-डेढ़ सौ मीटर अंदर मैदान में है। जुलाई में तो बरसात न हुई अगस्त के आरंभ से बरसात होने लगी तो मैदान में कीचड़ होने लगा। पैदल चलना तो कठिन था ही कार का जाना भी कठिन हो गया। आज तो पक्की सड़क पर भी कार चलाना कठिन हो गया। कल सुबह बरसात हुई थी। मैदान में आज सुबह तक कीचड़ था। गाएँ सारी सड़क पर आ बैठी थीं और सारी सड़क उन्हों ने अवरुद्ध कर रखी थी। हम जैसे-तैसे कार ले कर गूजर की झोंपड़ी से बीस मीटर दूर तक पहुँचे। लेकिन वे दस मीटर भी पार करना भारी था। गूजर के यहाँ एक ग्राहक बैठा था और वह भैंस दुह रहा था। श्रीमती जी कार से उतरी लेकिन वे मुश्किल से दस मीटर तक पहुँच सकीं आगे कीचड़ के कारण जाना कठिन था। आखिर शेष दस मीटर गूजर खुद दूध की बाल्टी ले कर आया और दूध नाप गया। श्रीमती जी वापस लौट कर कार में बैठीं तो कार को वापस मोड़ना कठिन हो गया। जैसे-तैसे आगे पीछे कर कार को वापस घुमाया और अपने घर पहुँचे।
गूजर से दूध ले कर लौटती श्रीमती शोभाराय
 मैं ने कहा - आज का दूध बहुत मुश्किल का दूध है, और इस का भरोसा भी नहीं कि इस में पानी मिला है या गाय का दूध। श्रीमती जी कहने लगीं अभी गर्म करते ही पता लग जाता है। खैर पोस्ट समाप्त होने के पहले वे कॉफी का प्याला टेबुल पर रख गईं। मैं टाइप करते-करते उसे खत्म भी कर चुका हूँ। मुझे दूध में कोई खोट नहीं दिखा, न स्वाद का न पानी का।

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

सुंदर कितना लगता है, पूनम का ये चांद,? शहर से बाहर आओ तो .......

स्मृति और विस्मृति पल पल आती है, और चली जाती हैं। कल तक स्मरण था। आज काम में विस्मृत हो गया। पूरा एक दिन बीच में से गायब हो गया। दिन में अदालत में किसी से कहा कल शरद पूनम है तो कहने लगा नहीं आज है। मैं मानने को तैयार नहीं। डायरी देखी तो सब ठीक हो गया। शरद पूनम आज ही है। शाम का भोजन स्मरण हो आया। कितने बरस से मंगलवार को एक समय शाम का भोजन चल रहा है स्मरण नहीं। शाम को घर पहुँचा तो शोभा को याद दिलाया आज शरद पूनम है। कहने लगी -आप ने सुबह बताया ही नहीं, मेरा तो व्रत ही रह जाता। वह तो पडौसन ने बता दिया तो मैं ने अखबार देख लिया।

- तो मैं दूध ले कर आऊँ?
- हाँ ले आओ, वरना शाम को भोग कैसे लगेगा? रात को छत पर क्या रखेंगे?
मुझे स्मरण हो आया अपना बालपन और किशोरपन। शाम होने के पहले ही मंदिर की छत पर पूर्व मुखी सिंहासन को  सफेद कपड़ों से सजाया जाता। संध्या आरती के बाद फिर से ठाकुर जी का श्रंगार होता। श्वेत वस्त्रों से। करीब साढ़े सात बजे, जब चंद्रमा बांस  भर आसमान चढ़ चुका होता। ठाकुर जी को खुले आसमान तले सिंहासन पर सजाया जाता। कोई रोशनी नहीं, चांदनी और चांदनी, केवल चांदनी। माँ मन्दिर की रसोई में खीर पकाती। साथ में सब्जी और देसी घी की पूरियाँ। फिर ठाकुर जी को भोग लगता। आरती होती। जीने से चढ़ कर दर्शनार्थी छत पर आ कर भीड़ लगाते। कई लोग अपने साथ खीर के कटोरे लाते उन्हें भी ठाकुर जी के भोग में शामिल किया जाता।

किशोर हो जाने के बाद से मेरी ड्यूटी लगती खीर का प्रसाद बांटने में। एक विशेष प्रकार की चम्मच थी चांदी की उस से एक चम्मच सभी को प्रसाद दिया जाता। हाथ में प्रसाद ले कर चल देते। लेकिन बच्चे उन्हें सम्हालना मुश्किल होता। वे एक बार ले कर दुबारा फिर अपना हाथ आगे कर देते। सब की सूरत याद रखनी पड़ती। दुबारा दिखते ही डांटना पड़ता। फिर भी अनेक थे जो दो बार नहीं तीन बार भी लेने में सफल हो जाते।

कहते हैं शरद पूनम की रात अमृत बरसता है। किसने परखा? पर यह विश्वास आज भी उतना ही है। जब चांद की धरती पर मनुष्य अपने कदमों की छाप कई बार छोड़ कर आ चुका है। सब जानते हैं चांदनी कुछ नहीं, सूरज का परावर्तित प्रकाश है। सब जानते हैं चांदनी में कोई अमृत नहीं। फिर भी शरद की रात आने के पहले खीर बनाना और रात चांदनी में रख उस के अमृतमय हो जाने का इंतजार करना बरकरार है।

शहरों में अब शोर है, चकाचौंध है रोशनी की। चकाचौंध में हिंसा है। और रात में किसी भी कृत्रिम स्रोत के  प्रकाश के बिना कुछ पल, कुछ घड़ी या एक-दो प्रहर शरद-पूनम की चांदनी में बिताने की इच्छा एक प्यास है। वह चांदनी पल भर को ही मिल जाए, तो मानो अमृत मिल गया। अमर हो गए। अब मृत्यु भी आ जाए कोई परवाह नहीं। भले ही दूसरे दिन यह अहसास चला जाए। पर एक रात को यह रहे, वह भी अमृत से क्या कम है।

साढ़े सात बजे दूध वाले के पास जा कर आया। दूध नहीं था। कहने लगा आज गांव से दूध कम आया और शरद पूनम की मांग के कारण जल्दी समाप्त हो गया। फिर शरद पूनम कैसे होगी?  कैसे बनेगी खीर? और क्या आज की रात अमृत बरसा, तो कैसे रोका जाएगा उसे? उसे तो केवल एक धवल दुग्ध की धवल अक्षतों के साथ बनी खीर ही रोक सकती है। दूध वाले से आश्वासन मिला, दूध रात साढ़े नौ तक आ रहा है। मैं ले कर आ रहा हूँ। मेरे जान में जान आई। घर लौटा तो शोभा ने कहा स्नान कर के भोजन कर लो। जब दूध आएगा, खीर बन जाएगी। रात को छत पर चांदनी में रख अमृत सहेजेंगे। प्रसाद आज नहीं सुबह लेंगे। पूनम को नहीं कार्तिक के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को।

मैं ने वही किया जो गृहमंत्रालय का फरमान था। अब बैठा हूँ, दूग्धदाता की प्रतीक्षा में। दस बज चुके हैं। वह आने ही वाला होगा। टेलीफोन कर पूछूँ? या खुद ही चला जाऊँ लेने? मैं उधर गया और वह इधर आया तो? टेलीफोन ही ठीक रहेगा।

मैं बाहर आ कर देखता हूँ। चांद भला लग रहा है। जैसे आज के दिन ही उस का ब्याह हुआ हो। लेकिन ये दशहरा मेले की रोशनियाँ, शहर की स्ट्रीट लाइटस् और पार्क के खंबों की रोशनियाँ कहीं चांद को मुहँ चिढ़ा रही हैं जैसे कह रही हों अब जहाँ हम हैं तुम्हें कौन पूछता है? मेरा दिल कहता है थोड़ी देर के लिए बिजली चली जाए। मैं चांद को देख लूँ। चांद मुझे देखे अपनी रोशनी में। मैं सोचता हूँ, मेरी कामना पूरी हो,  बिजली चली जाए उस से पहले मैं इस आलेख को पोस्ट कर दूँ। मेरी अवचेतना में किसी ग्रामीण का स्वर सुनाई देता है ......

सुंदर कितना लगता है? पूनम का ये चांद,
जरा शहर से बाहर आओगे तो जानोगे,
खंबों टंगी बिजलियाँ बुझाओ तो जानोगे........


पुनश्चः - दूध वाला नहीं आया।  आए कमल जी मेरे कनिष्ठ अधिवक्ता। मैं ने कहा - दूध लाएँ? वह अपनी बाइक ले कर तैयार दूध वाला गायब दुकान बंद कर गया। उसे कोसा। अगली दुकान भी बंद। कमल जी ने बाइक अगले बाजार में मोड़ी। वहाँ दूध की दुकान खुली थी। मालिक खुद बैठा था। उस के खिलाफ कुछ दिन पहले तक मुकदमा लड़ा था। मैं ने कहा - दूध दो बढ़िया वाला।
उस ने नौकर को बोला - प्योर वाला देना।

दूध ले कर आए। अब खीर पक रही है।
फिर जाएंगे उसे ले कर छत पर। अमृत घोलेंगे उस में। घड़ी, दो घड़ी।
अब बिजली चली ही जाना चाहिए, घड़ी भर के लिए......

शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

सब से प्राचीन परंपरा, रोट पूजा, ऐसे हुई

रोट या रोठ? मेरे विचार में रोट शब्द ही उचित है। क्यों कि यह रोटी का पुर्लिंग है, और हिन्दी में आकार में छोटी और पतली चीजों को जब वे बड़ी या मोटी होती हैं तो उन का पुर्लिंग बना कर प्रयोग कर लिया जाता है। पर मेरे यहाँ हाड़ौती में उस का उच्चारण रोठ हो गया है जैसा कि अन्य अनेक शब्दों में उच्चारण में हो जाता है। पिछले आलेख पर आई प्रतिक्रियाओं से एक बात और स्पष्ट हुई कि यह परंपरा मालवा में केवल नाम मात्र के परिवारों में है, लेकिन उत्तर प्रदेश में बड़ी मात्रा में जीवित है। हमारे परिवारों में यह परंपरा सब से प्राचीन प्रतीत होती है, संभवतः इस का संबंध हमारे पशुपालक जीवन से खेती के जीवन में प्रवेश करने से है, इस का धार्मिक महत्व उतना अधिक नहीं जितना उत्पादन की उस महान नयी प्रणाली खेती के आविष्कार से है, जिस से मनुष्य जीवन अधिक सुरक्षित हुआ। अपने निष्कर्ष अंकित करने के पहले रोट या रोठ की इस कहानी को पूरा कर लिया जाए।
रोट के लिए मोटा आटा दो दिन पहले ही पड़ौसी की घरेलू-चक्की पर शोभा (मेरी पत्नी) पीस कर तैयार कर चुकी थी। एक दिन पहले उस ने सारे घर की सफाई की, विशेष तौर पर रसोईघर की। सारे बरतन धो कर साफ किए। अलमारियों में बिछाने के कागज बदले गए। जब दिन में यह काम पूरा हो गया तो शाम के वक्त बाजार से आवश्यक घी, चीनी और पूजा सामग्री आदि को ले कर आई। केवल दो चीजें लाने को रह गईं। एक दूध जो सुबह ताजा आना था और दूसरे पूजा के लिए कोरे नागरबेल के पान।
कल सुबह ही उस ने फिर पूरे घर को साफ किया। चाय आदि पीने के बाद रसोई की धुलाई की। मुझे ताजा दूध व पान लाने भेजा गया। मैं पान छोड़ आया, उन्हें मैं दोपहर अदालत से वापस आने के वक्त लाने वाला था। इस पूजा में सम्मिलित होने के लिए बेटे को कहा गया था, वह इंदौर से दो दिन पहले ही आ चुका था। बेटी मुम्बई में होने से आ ही नहीं सकती थी।
अब शुरू हुआ शोभा का काम। स्नान और पूजादि से निवृत्त हो कर उस ने रसोई संभाली। दूध-चावलों की केसर युक्त खीर सब से पहले बनी। फिर हुआ रोटों के लिए आटा चुनना। तौल कर आटे की तीन ढेरियाँ बनाईँ। दो सवा-सवा किलो की और एक ढाई किलो की। अब उन का संकल्प शुरु हुआ। एक हाथ में साबुत धनिया, चने की दाल कुछ जल और दक्षिणा का रुपया ले कर पहला सवा किलो आटे का संकल्प कुल देवता अर्थात् नागों के लिए छोड़ा गया। दूसरा सवा किलो परिवार की बेटियों के लिए, और तीसरा अढ़ाई किलो का संकल्प हम पति-पत्नी के लिए। हमारे एकल परिवार के स्थान पर संयुक्त परिवार होता तो जितने जोड़े होते उतने ही अढ़ाई किलो के भाग और जोड़े जाते। तीनों भागों को अलग अलग बरतनों में रखा गया। तीनों में देसी घी का मौइन मिलाया गया, उन्हें अलग अलग गूंथा गया, वह भी जितना गाढ़ा गूंथा जा सकता था, उतना।
सब से पहले कुल देवता नागों के भाग के सवा किलो आटे का एक ही रोट बेला गया। जिस का व्यास कोई एक फुट रहा और मोटाई करीब एक इंच से कुछ अधिक। इसे सेंकने के लिए रखा गया। सेंकने के लिए मिट्टी का उन्हाळा लाया गया था। यह एक छोटे घड़े के निचले हिस्से जैसा होता है। घड़ा ही समझिए, बस उस के गर्दन नहीं होती। उस पर कोई रंग नहीं होता। उसे उलटा कर चूल्हे पर चढ़ा दिया जाता है। अब लकड़ी के चूल्हे तो हैं नहीं, इस कारण उसे गैस चूल्हे पर ही चढ़ा दिया जाता है।  गैस के जलने से उन्हाळा गरम होने लगता है और इस उन्हाले की पीठ पर रोट को रख दिया जाता है। उन्हाळे की पीठ गोल होने से उलटे तवे जैसी हो जाती है। उस पर सिकता रोट भी बीच में से गहरा और किनारों पर से उठा हुआ एक तवे जैसी आकृति में ढल जाता है। इसे उन्हाळे पर उलट कर नहीं सेका जा सकता क्यों कि ऐसा करने से रोट टूट सकता है। एक तरफ सिकने के बाद रोट उतार लिया जाता है और उंगलियों से उस में गहरे गड्ढे बना दिए जाते हैं। फिर उसे कंड़ों की आँच में सेका जाना चाहिए, लेकिन अब उन के स्थान पर गैस ओवन आ गया है। रोट को ओवन में सेंका गया। इस सवा किलो आटे के रोट को सिकने में करीब डेढ़ घंटा से कुछ अधिक समय लगा।
बाकी जो दो हिस्से थे उन में से ढाई किलो आटा जिस का संकल्प हम पति-पत्नी के लिए छोड़ा गया था में से आधा आटा निकाल कर अलग रख दिया गया और करीब आधे का एक रोट बनाया गया। तीसरा हिस्सा बेटियों का था। बेटी उपलब्ध नहीं थी, इस कारण कोई दो सौ ग्राम आटे का एक रोट बनाया गया और शेष आटे को अलग से रख दिया गया। इस तरह कुल तीन रोट बने। इस बीच मैं अदालत चला गया और वहाँ का काम निबटा कर दो बजे वापस लौटा। रास्ते में पान लेने रुका, वहाँ बेटे का फोन आ गया कि जल्दी घर पहुँचूँ।
रसोई घर की पश्चिमी दीवार पर (अन्य कोई दीवार खाली न होने से अन्यथा यह पूरब की होती) खड़िया से लीप कर करीब सवा गुणा सवा फुट का एक आकार बनाया गया था। लकड़ी जला कर कच्चे दूध में बुझा कर बनाए गए कोयले को कच्चे दूध में ही घिस कर बनाई गई स्याही से इस आकार पर एक मंदिर जैसा चित्र बनाया गया और उसमें बीच में पांच नाग आकृतियाँ बनाई गई थीं। मन्दिर के उपर एक गुम्बद और पास में ध्वज फहराता हुआ अंकित किया गया था। ऊपर के दोनों कोनों पर सूरज और चांद बनाए गए थे। सब से नीचे मंदिर का द्वार बनाया गया था। यही हमारे कुल देवता थे। हो सकता है यह कुल देवता हमारे पशुपालन से पहले रहे वनोपज एकत्र कर जीवन यापन करने के दिनों में हमारे कबीले के टोटेम रहे हों और जिन की स्मृति आज तक इस परंपरा के रूप में हमारे साथ है। यहाँ मैं शिकारी-जीवन शब्द का प्रयोग शाकाहारी हो जाने के कारण स्वाभाविक संकोच के कारण नहीं कर रहा हूँ। इस मंदिर के आगे एक उच्चासन पर गणपति विराजमान थे। उन के आगे तीन थालियों में घी से चुपड़े हुए रोट रखे थे। रोट में घी भर दिया गया था, जिस में रुई की बनाई गई एक-एक बत्ती रखी थी। एक बड़ी भगोनी में खीर थी। एक दीपक, एक कलश जिस पर रखा एक नारियल।
दीपक जलाने से पूजा शुरू हुई। इस परंपरा को जीवित रखने का एकमात्र श्रेय जिस महिला अर्थात शोभा को है, वह बिना कहे ही बाहर चली गई। हम पिता-पुत्र ने पूजा आरंभ की। इस पूजा में और कोई नया देवता प्रवेश नहीं कर पाया, लेकिन गणपति यहाँ भी प्रथम पूज्य के रूप में उपस्थित थे। शायद वे भी कृषि जीवन के आरंभ के दिनों के हमारे कुल-गणों के मुखिया या देवता के रूप में मौजूद थे और आज तक हमारे ही साथ नहीं चले आए, अपितु भारत भर तमाम गणों के अलग अलग मुखियाओँ के एक सम्मिलित प्रतीक के रूप में स्थापित हो कर प्रथम पूज्य हो चुके हैं।
गणपति की पूजा के पश्चात पहले रोटों की और फिर नाग देवता की पूजा की गई। पहले नाग देवता के रोट में घी भर कर पूजा की वही सामान्य पद्धति, आव्हान, पद-प्रक्षालन, आचमन, स्नान, पंचामृत-अभिषेक, शुद्धस्नान, वस्त्र, सुगंध, चन्दन, रक्त चंदन या रोली का टीका, भोग, दक्षिणा, आरती और प्रणाम। विशेष कुछ था तो नाग देवता का प्रिय पेय कच्चा दूध। रोट की पूजा करने के पहले बड़े रोट पर रखी बत्ती जला दी गई थी। पूजा संपन्न होते ही हम पिता-पुत्र ने एक दूसरे को रोली-अक्षत का टीका कर समृद्धि की शुभ कामना की और लच्छे से दाहिने हाथ में रक्षा-सूत्र बांधा। नागदेवता वाले रोट पर जलती बत्ती को एक कटोरी से ढक दिया गया, ताकि उस की ज्योति हम दोनों के अलावा कोई और न देख ले। इस के बाद हम रसोई से बाहर निकले, पत्नी का पुनर्प्रवेश हुआ। उसने अपने और बेटियों के रोट की बत्ती जलाई और प्रणाम कर बाहर आई।
इस के बाद हम पिता-पुत्र को शोभा ने खीर-रोट परोसे और हम ने छक कर खाए, स्वाद के लिए साथ में कच्चे आम का अचार ले लिया गया। नाग देवता का जो रोट है वह हम दोनों पिता-पुत्र को ही खाना है, चाहे वह तीन दिनों में बीते। उसे और कोई नहीं खा सकता। यह रोट स्वादिष्ट और इतना करारा था कि हाथ से जोर से दबाने पर बिखरा जा रहा था, जिसे खीर में या अचार के मसाले के साथ मिला कर खाया जा सकता था। जोड़े का जो रोट है उसे परिवार का कोई भी सदस्य खा सकता है। लेकिन बेटियों का रोट केवल परिवार की बेटियाँ ही खा सकती हैं। शाम को जा कर बेटियों का रोट शोभा की बहिन की बेटी को देकर आए खीर के साथ, और बेटियों के रोट के संकल्प का शेष आटा भी उसी के यहाँ रख कर आए ताकि वह उसे काम में ले ले। शेष आटा जो बचा वह अनंत चतुर्दशी के पहले बाटी आदि बना कर काम में ले लिया जाएगा, और उस का समापन न होने पर गाय को दिया जाएगा। क्यों कि फिर आ जाएंगे श्राद्ध, तब बाटी नहीं बनाई जा सकतीं हैं। हम यह परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों के अलावा किसी को खिला तो दूर दिखा भी नहीं सकते ऐसी ही परंपरा है।
यह हुई रोट-कथा। इस परंपरा के बारे में मेरी अपनी समझ और इस के महत्व के बारे में आगे .......

रविवार, 25 मई 2008

गुर्जर-2............यह आँदोलन है या दावानल ?

कोटा के आज के अखबारों में गुर्जर आंदोलन छाया हुआ है।

अखबारों ने जो शीर्षक लगाए हैं, उन्हें देखें.....................

सिकन्दरा में कहर - हालात बेकाबू, 23 और मरे, दो दिन में 39 लोग मारे गए, 100 से अधिक घायल - जवानों ने की एसपी व एसडीएम की पिटाई - हिंसक आंदोलन बर्दाश्त नहीं...वसुन्धरा - तीन कलेक्टर दो एसपी बदले - मौत का बयाना - कोटा में आज दूध की सप्लाई बंद, हाइवे पर जाम लगाएँगे - रेल यातायात ठप, बसें भी नहीं चलीं - टिकट विंडो भी रही बन्द - कोटा-दिल्ली-आगरा के बीच रेल सेवाएँ ठप,यात्रियों ने आरक्षण रद्द कराए, परेशानी उठानी पड़ी, रेल प्रशासन को करोड़ों का नुकसान, कई परीक्षाएँ स्थगित - लाखों के टिकट रद्द - श्रद्धांजली देने के खातिर गूजर नहीं बाँटेंगे दूध - ट्रेनें रद्द होने से कई परीक्षाएँ रद्द - एम.एड. परीक्षा टली - प्री बी.एड परीक्षा बाद में होगी - रेलवे ट्रेक की भी क्षति - श्रद्धांजलि देने की खातिर गुर्जर नहीं बाँटेंगे दूध - गुर्जर आंन्दोलन की आँच हाड़ौती में भी फैली - नैनवाँ पुलिस पर हमला - चार पुलिसकर्मी घायल- गर्जरों ने पहाड़ियों पर जमाया मोर्चा - राष्ट्रीय राजमार्ग 76 पर बाणगंगा नदी के पास जाम - कोटा शिवपुरी ग्वालियर सड़क संपर्क दो घंटे बन्द रहा - बून्दी बारां व झालावाड़ में जाम - स्टेट हाईवे 34 पर आवागमन बन्द - रावतभाटा रोड़ पर देर रात जाम - बून्दी जैतपुर में जाम पुलिसकर्मी पिटे - झालावाड़ बसें बन्द - 17 गुर्जर बन्दियों ने दी अनशन की धमकी - सेना सतर्क, बीएसएफ पहुँची, आरफीएसएफ की एक कम्पनी बयाना जाएगी - हर थाने को दो गाड़ियाँ - रात को दबिश - हाड़ौती के कई कस्बों में आज बन्द - राजस्थान विश्व विद्यालय की परीक्षाएं स्थगित - पटरी पर कुछ भी नहीं - ... प्रदेश में अशांति की अंतहीन लपटें - भरतपुर बयाना के हालात=पटरियाँ तोड़ी फिश प्लेटें उखाड़ी - दूसरे दिन बयाना में पहुँची सेना, शव लेकर रेल्वे ट्रेक पर बैठे रहे बैसला - डीजीपी ने हेलीकॉप्टर से लिया जायजा - चिट्ठी आने तक नहीं हटेंगे बैसला- गुर्जर आन्दोलन = गुस्सा+ जोश= पाँच किलोमीटर - यह तो धर्मयुद्ध है - जोर शोर से पहुँची महिलाएँ - चाहे चारों भाई हो जाएँ कुर्बान - मेवाड़ में सड़कों पर उतरे गुर्जर - राजसमन्द में हाईवे जाम - हजारों गुर्जरों का बयाना कूच - छिन गया सुख चैन- ठहरी साँसें - अटकी राहें - सहमी निगाहें - हैलो भाई तुम ठीक तो हो - कई रास्ते बंद जयपुर रोड़ पर खोदी सड़क - 8 कार्यपालक मजिस्ट्रेट नियुक्त - किशनगढ़ भीलवाड़ा बन्द सफल - दो गुर्जर नेता गिरफ्तार - करौली -टोक में सड़कें सुनसान - चित्तौड़गढ़ अजमेर अलवर और करौली आज बन्द - सहमे रहे लोग आशंकाओं में बीता दिन - शकावाटी में भी बिफरे गुर्जर - नीम का थाना में एक बस को आग के हवाले किया - चार बसों में तोड़ फोड़ - बस चालक घायल कई जगह रास्ता जाम- पाटन में सवारियों से भरी बस को आग लगाने का प्रयास - सीकर झुन्झुनु के गुढ़ागौड़ जी व खेतड़ी में गुर्जरों की सभाएँ और सीएम का पुतला फूँका ............

..........................................आपने पढ़े खबरों के हेडिंग ये एक दिन के एक ही अखबार से हैं। दूसरे अखबार से शामिल नहीं किये गए हैं। अब आप अंदाज लगाएँ कि यह आँदोलन है या दावानल ?

इस दावानल का स्रोत कहाँ है? वोटों के लिए और सिर्फ वोटों के लिए की जा रही भारतीय राजनीति में ?  पूरी जाति,  वह भी पशु चराने और उन के दूध से आजीविका चलाने वाली जाति से आप क्या अपेक्षा रख सकते हैं। यह पीछे रह गए हैं तो उस में दोष किस का है? इन के साथ के मीणा अनुसूचित जाति में शामिल हो कर बहुत आगे बढ़ गए हैं। गुर्जरों को यह बर्दाश्त नहीं। उन्हें राजनीतिक हल देना पड़ेगा। पर मीणा वोट अधिक हैं। उन्हें नाराज कैसे करें?

  

पिछड़ेपन को दूर करने की नाकाम दवा आरक्षण के जानलेवा साइड इफेक्टस हैं ये।

ये आग भड़क गई है। नहीं बुझेगी आरक्षण से। पीछे कतार में अनेक जातियाँ खड़ी हैं।

आरक्षण को समाप्ति की ओर ले जाना होगा। पिछड़ेपन को दूर करने और समानता स्थापित करने का नया रास्ता तलाशना पड़ेगा। मगर कौन तलाशे?

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008

वह थी औरत (दूध मां का)

मुझे मेरे एक मित्र ने ही इस घटना का ब्यौरा दिया था। मस्तिष्क के किसी कोने में पड़े रहने के कारण हो सकता है इस में कुछ उलट फेर हो गया हो। लेकिन जिस तरह की बहसें छिड़ गई हैं उन में यह प्रासंगिक है।

वाई माधोपुर से गंगापुर सिटी के बीच ट्रेन के दूसरे दर्जे के डब्बे में किसी जवां मर्द ने एक महिला की छातियां दबा दीं और आगे खिसक लिया। बिलकुल ग्रामीण कामकाजी महिला, वैसी ही उसकी वेशभूषा, गौर वर्ण, सुगठित शरीर। महिला ने उस युवक पर निगाह रखी। उसे अपने से दूर न होने दिया। गंगापुर सिटी स्टेशन पर युवक दरवाजे की ओर बढ़ा, पीछे-पीछे वह महिला भी। दोनों आगे-पीछे नीचे प्लेटफॉर्म पर उतरे।

नीचे उतरते ही महिला ने एक हाथ से युवक का हाथ पकड़ा, दूसरे हाथ से अपनी अंगिया ऊँची कर छातियाँ उघाड़ दीं और जोर से कहने लगी -लल्ला। तेरी अम्मां जल्दी मर गई बेचारी, सो कसर रह गई दूध पिलाने की। अम्माँ को दूध पी लियो होतो तो छिछोरापन ना होतो। वो कसर आज पूरी कर देऊँ हूँ। पी ले दूध मेरो। आगे से कोई तेरी माँ को गाली ना देगो तेरी हरकत के कारन। तू ने तो सारे जग की मैयन की शान बिगार दीन्हीं।

युवक ने बहुत कोशिश की हाथ छुड़ाने की, पर हाथ तो लौह-शिकंजे में जकड़ गया था जैसे। प्लेटफॉर्म पर भीड़ जुट गई। युवक महिला के सामने गिड़गिड़ाने लगा। मैया छोड़ दे मोहे। गलती हो गई मोसे। आगे से नहीं होगी।
बहुत गिड़गिड़ाने पर महिला ने कहा- खा कसम तेरी मैया की।
-मैया कसम, कभी गलती नाहीं होगी।
-मेरे सर पर हाथ धर के खा, कसम।
युवक ने महिला के सर हाथ धर के कसम खाई - मैया कसम, आगे कभी गलती नाहीं होगी।
- मैं तेरी कौन?
-तू मेरी मैया।

हाँ भीड़ में जुटी महिलाओं की ओर इंगित कर कहा-और ये कौन तेरी?
-ये सब भी मेरी मैया।
तब उस महिला ने कहा। चल बेटा सामान उठा मेरा और मेरे कूँ मोटर में बिठा।

युवक ने महिला का सामान उठाया और चल दिया मैया को मोटर में बिठाने। पीछे पीछे था लोगों का हजूम।