रोट या रोठ? मेरे विचार में रोट शब्द ही उचित है। क्यों कि यह रोटी का पुर्लिंग है, और हिन्दी में आकार में छोटी और पतली चीजों को जब वे बड़ी या मोटी होती हैं तो उन का पुर्लिंग बना कर प्रयोग कर लिया जाता है। पर मेरे यहाँ हाड़ौती में उस का उच्चारण रोठ हो गया है जैसा कि अन्य अनेक शब्दों में ट उच्चारण में ठ हो जाता है। पिछले आलेख पर आई प्रतिक्रियाओं से एक बात और स्पष्ट हुई कि यह परंपरा मालवा में केवल नाम मात्र के परिवारों में है, लेकिन उत्तर प्रदेश में बड़ी मात्रा में जीवित है। हमारे परिवारों में यह परंपरा सब से प्राचीन प्रतीत होती है, संभवतः इस का संबंध हमारे पशुपालक जीवन से खेती के जीवन में प्रवेश करने से है, इस का धार्मिक महत्व उतना अधिक नहीं जितना उत्पादन की उस महान नयी प्रणाली खेती के आविष्कार से है, जिस से मनुष्य जीवन अधिक सुरक्षित हुआ। अपने निष्कर्ष अंकित करने के पहले रोट या रोठ की इस कहानी को पूरा कर लिया जाए।
रोट के लिए मोटा आटा दो दिन पहले ही पड़ौसी की घरेलू-चक्की पर शोभा (मेरी पत्नी) पीस कर तैयार कर चुकी थी। एक दिन पहले उस ने सारे घर की सफाई की, विशेष तौर पर रसोईघर की। सारे बरतन धो कर साफ किए। अलमारियों में बिछाने के कागज बदले गए। जब दिन में यह काम पूरा हो गया तो शाम के वक्त बाजार से आवश्यक घी, चीनी और पूजा सामग्री आदि को ले कर आई। केवल दो चीजें लाने को रह गईं। एक दूध जो सुबह ताजा आना था और दूसरे पूजा के लिए कोरे नागरबेल के पान।
कल सुबह ही उस ने फिर पूरे घर को साफ किया। चाय आदि पीने के बाद रसोई की धुलाई की। मुझे ताजा दूध व पान लाने भेजा गया। मैं पान छोड़ आया, उन्हें मैं दोपहर अदालत से वापस आने के वक्त लाने वाला था। इस पूजा में सम्मिलित होने के लिए बेटे को कहा गया था, वह इंदौर से दो दिन पहले ही आ चुका था। बेटी मुम्बई में होने से आ ही नहीं सकती थी।
अब शुरू हुआ शोभा का काम। स्नान और पूजादि से निवृत्त हो कर उस ने रसोई संभाली। दूध-चावलों की केसर युक्त खीर सब से पहले बनी। फिर हुआ रोटों के लिए आटा चुनना। तौल कर आटे की तीन ढेरियाँ बनाईँ। दो सवा-सवा किलो की और एक ढाई किलो की। अब उन का संकल्प शुरु हुआ। एक हाथ में साबुत धनिया, चने की दाल कुछ जल और दक्षिणा का रुपया ले कर पहला सवा किलो आटे का संकल्प कुल देवता अर्थात् नागों के लिए छोड़ा गया। दूसरा सवा किलो परिवार की बेटियों के लिए, और तीसरा अढ़ाई किलो का संकल्प हम पति-पत्नी के लिए। हमारे एकल परिवार के स्थान पर संयुक्त परिवार होता तो जितने जोड़े होते उतने ही अढ़ाई किलो के भाग और जोड़े जाते। तीनों भागों को अलग अलग बरतनों में रखा गया। तीनों में देसी घी का मौइन मिलाया गया, उन्हें अलग अलग गूंथा गया, वह भी जितना गाढ़ा गूंथा जा सकता था, उतना।
सब से पहले कुल देवता नागों के भाग के सवा किलो आटे का एक ही रोट बेला गया। जिस का व्यास कोई एक फुट रहा और मोटाई करीब एक इंच से कुछ अधिक। इसे सेंकने के लिए रखा गया। सेंकने के लिए मिट्टी का उन्हाळा लाया गया था। यह एक छोटे घड़े के निचले हिस्से जैसा होता है। घड़ा ही समझिए, बस उस के गर्दन नहीं होती। उस पर कोई रंग नहीं होता। उसे उलटा कर चूल्हे पर चढ़ा दिया जाता है। अब लकड़ी के चूल्हे तो हैं नहीं, इस कारण उसे गैस चूल्हे पर ही चढ़ा दिया जाता है। गैस के जलने से उन्हाळा गरम होने लगता है और इस उन्हाले की पीठ पर रोट को रख दिया जाता है। उन्हाळे की पीठ गोल होने से उलटे तवे जैसी हो जाती है। उस पर सिकता रोट भी बीच में से गहरा और किनारों पर से उठा हुआ एक तवे जैसी आकृति में ढल जाता है। इसे उन्हाळे पर उलट कर नहीं सेका जा सकता क्यों कि ऐसा करने से रोट टूट सकता है। एक तरफ सिकने के बाद रोट उतार लिया जाता है और उंगलियों से उस में गहरे गड्ढे बना दिए जाते हैं। फिर उसे कंड़ों की आँच में सेका जाना चाहिए, लेकिन अब उन के स्थान पर गैस ओवन आ गया है। रोट को ओवन में सेंका गया। इस सवा किलो आटे के रोट को सिकने में करीब डेढ़ घंटा से कुछ अधिक समय लगा।
बाकी जो दो हिस्से थे उन में से ढाई किलो आटा जिस का संकल्प हम पति-पत्नी के लिए छोड़ा गया था में से आधा आटा निकाल कर अलग रख दिया गया और करीब आधे का एक रोट बनाया गया। तीसरा हिस्सा बेटियों का था। बेटी उपलब्ध नहीं थी, इस कारण कोई दो सौ ग्राम आटे का एक रोट बनाया गया और शेष आटे को अलग से रख दिया गया। इस तरह कुल तीन रोट बने। इस बीच मैं अदालत चला गया और वहाँ का काम निबटा कर दो बजे वापस लौटा। रास्ते में पान लेने रुका, वहाँ बेटे का फोन आ गया कि जल्दी घर पहुँचूँ।
रसोई घर की पश्चिमी दीवार पर (अन्य कोई दीवार खाली न होने से अन्यथा यह पूरब की होती) खड़िया से लीप कर करीब सवा गुणा सवा फुट का एक आकार बनाया गया था। लकड़ी जला कर कच्चे दूध में बुझा कर बनाए गए कोयले को कच्चे दूध में ही घिस कर बनाई गई स्याही से इस आकार पर एक मंदिर जैसा चित्र बनाया गया और उसमें बीच में पांच नाग आकृतियाँ बनाई गई थीं। मन्दिर के उपर एक गुम्बद और पास में ध्वज फहराता हुआ अंकित किया गया था। ऊपर के दोनों कोनों पर सूरज और चांद बनाए गए थे। सब से नीचे मंदिर का द्वार बनाया गया था। यही हमारे कुल देवता थे। हो सकता है यह कुल देवता हमारे पशुपालन से पहले रहे वनोपज एकत्र कर जीवन यापन करने के दिनों में हमारे कबीले के टोटेम रहे हों और जिन की स्मृति आज तक इस परंपरा के रूप में हमारे साथ है। यहाँ मैं शिकारी-जीवन शब्द का प्रयोग शाकाहारी हो जाने के कारण स्वाभाविक संकोच के कारण नहीं कर रहा हूँ। इस मंदिर के आगे एक उच्चासन पर गणपति विराजमान थे। उन के आगे तीन थालियों में घी से चुपड़े हुए रोट रखे थे। रोट में घी भर दिया गया था, जिस में रुई की बनाई गई एक-एक बत्ती रखी थी। एक बड़ी भगोनी में खीर थी। एक दीपक, एक कलश जिस पर रखा एक नारियल।
दीपक जलाने से पूजा शुरू हुई। इस परंपरा को जीवित रखने का एकमात्र श्रेय जिस महिला अर्थात शोभा को है, वह बिना कहे ही बाहर चली गई। हम पिता-पुत्र ने पूजा आरंभ की। इस पूजा में और कोई नया देवता प्रवेश नहीं कर पाया, लेकिन गणपति यहाँ भी प्रथम पूज्य के रूप में उपस्थित थे। शायद वे भी कृषि जीवन के आरंभ के दिनों के हमारे कुल-गणों के मुखिया या देवता के रूप में मौजूद थे और आज तक हमारे ही साथ नहीं चले आए, अपितु भारत भर तमाम गणों के अलग अलग मुखियाओँ के एक सम्मिलित प्रतीक के रूप में स्थापित हो कर प्रथम पूज्य हो चुके हैं।
गणपति की पूजा के पश्चात पहले रोटों की और फिर नाग देवता की पूजा की गई। पहले नाग देवता के रोट में घी भर कर पूजा की वही सामान्य पद्धति, आव्हान, पद-प्रक्षालन, आचमन, स्नान, पंचामृत-अभिषेक, शुद्धस्नान, वस्त्र, सुगंध, चन्दन, रक्त चंदन या रोली का टीका, भोग, दक्षिणा, आरती और प्रणाम। विशेष कुछ था तो नाग देवता का प्रिय पेय कच्चा दूध। रोट की पूजा करने के पहले बड़े रोट पर रखी बत्ती जला दी गई थी। पूजा संपन्न होते ही हम पिता-पुत्र ने एक दूसरे को रोली-अक्षत का टीका कर समृद्धि की शुभ कामना की और लच्छे से दाहिने हाथ में रक्षा-सूत्र बांधा। नागदेवता वाले रोट पर जलती बत्ती को एक कटोरी से ढक दिया गया, ताकि उस की ज्योति हम दोनों के अलावा कोई और न देख ले। इस के बाद हम रसोई से बाहर निकले, पत्नी का पुनर्प्रवेश हुआ। उसने अपने और बेटियों के रोट की बत्ती जलाई और प्रणाम कर बाहर आई।
इस के बाद हम पिता-पुत्र को शोभा ने खीर-रोट परोसे और हम ने छक कर खाए, स्वाद के लिए साथ में कच्चे आम का अचार ले लिया गया। नाग देवता का जो रोट है वह हम दोनों पिता-पुत्र को ही खाना है, चाहे वह तीन दिनों में बीते। उसे और कोई नहीं खा सकता। यह रोट स्वादिष्ट और इतना करारा था कि हाथ से जोर से दबाने पर बिखरा जा रहा था, जिसे खीर में या अचार के मसाले के साथ मिला कर खाया जा सकता था। जोड़े का जो रोट है उसे परिवार का कोई भी सदस्य खा सकता है। लेकिन बेटियों का रोट केवल परिवार की बेटियाँ ही खा सकती हैं। शाम को जा कर बेटियों का रोट शोभा की बहिन की बेटी को देकर आए खीर के साथ, और बेटियों के रोट के संकल्प का शेष आटा भी उसी के यहाँ रख कर आए ताकि वह उसे काम में ले ले। शेष आटा जो बचा वह अनंत चतुर्दशी के पहले बाटी आदि बना कर काम में ले लिया जाएगा, और उस का समापन न होने पर गाय को दिया जाएगा। क्यों कि फिर आ जाएंगे श्राद्ध, तब बाटी नहीं बनाई जा सकतीं हैं। हम यह परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों के अलावा किसी को खिला तो दूर दिखा भी नहीं सकते ऐसी ही परंपरा है।
यह हुई रोट-कथा। इस परंपरा के बारे में मेरी अपनी समझ और इस के महत्व के बारे में आगे .......
19 टिप्पणियां:
वाह बहुत रोचक लगा यह ..पुरानी बातें कितनी अच्छी लगती है .हमें अब इनके बारे में कोई जानकारी नही है ..आने वाली पीढी को क्या होगी पता नही :)
ऐसी कई पूजा घर पे होती है... लेकिन धीरे-धीरे शायद कुछ पीढियों के बाद बंद हो जाय... घर पर कई बार चर्चा हो जाती है इनके महत्त्व को लेकर. वेद, शास्त्र और ग्रंथों के अलावा 'लोक में प्रचलित' भी कई प्रथाएं हैं. कई बार इनका मानव की खुशी से भी नाता होता है... कई बार प्रकृति के डर से. छोटी-छोटी खुशियाँ जो साल के एक ख़ास समय पर होती हैं (फसल कटाइ इत्यादि) उस समय पर कई त्यौहार हैं. आपकी समझ पढने से थोड़ा और साफ़ होगा.
हमारी समझ बढ़ा दी आपने शुक्रिया.....
ऎसी पुजा इस लिये होती थी, ओर हे, कि परिवार मे प्यार बना रहे, एकता रहे, सभी एक दुसरे का ख्याल रखे, लेकिन आज ना यह सोच रही ना ही ऎसे त्योहार मनाने वाले, आज इस की जगह अंहकार ने ले लि हे,
बहुत ही सुन्दर लगी आप की पुजा की बिधि, हमारी मां ओर हमारी बीबी भी कुछ ऎसी ही पुजा करती बस नाम अलग हे.
धन्यवाद
बचपन याद आ गया जब दादी पूजा किया करती थी और हम
बड़े ध्यान से देखा करते थे...बहुत अच्छा लगता था... उसके बाद
तो बस यादे रह गई..फिर से सब जानकर अच्छा लगा...
आपने सविस्तार पूरे अनुष्ठान को समझाया और उसके पुरातन प्रतीकों,निहितार्थों की भी विवेचना की। निश्चित तौर पर आज जितने भी अनुष्ठान और रीतियां शेष हैं अधकतर कृषिआधारित प्राचीन समाजों से परंपरास्वरूप चली आ रही हैं। उनकी विवेचना न करते हुए अंध विश्वास के तहत उसकी व्याख्या जब पढ़े लिखे लोग करते हैं तो अजीब लगता है। वहीं प्राचीन काल में वैज्ञानिक दृष्टि से इन अनुष्ठानों की परिपाटी बनना उन समाजों की चिंतनशीलता दर्शाता है।
बचपन में हमने भी राजगढ़ में रोठ खाए हैं। खासतौर पर मेड़तवाल बनियों के यहां भी यह परंपरा निभाई जाती थी और वे राजस्थान से ही आकर बसे थे।
बहुत रोचक...बहुत बढ़िया जानकारी, आभार!
aap ne puja ki parampara ko is daur me bhi kayam rakha,aap dhanya hian,humare ghar me bhi mataji pit-pat ke pooja karwati hai,pata nahi unke baad kya hoga.achhi jankari di aapne.aabhar
हमने अपने घर में तो ऐसी कोई पूजा होते नहीं देखी लेकिन इसके बारे में जान कर बहुत अच्छा लगा। याद आ रहा है कि मुलतानियों और सिंधियों में एक त्यौहार आता है "ठंडा" जिस दिन वो घर में चुल्हा नहीं जलाते और ऐसी ही मोटी मोटी मीठी रोटियां बना कर रखी जाती हैं, लेकिन बाहर वालों के साथ मिल बांट कर खाने पर कोई पांबदी नहीं होती। रोट की प्रथा के महत्त्व जानने का इंतजार रहेगा
रोट के बहाने आपने एक सान्सिकृतिक दृश्यावाली /झांकी ही सृजित कर दी -इस जीवंत वर्णन के लिए आभार यह हमें अपने उदगम और सुखद स्मृति शेषों से परिचित कराती है .इन विषयों को इतनी जीवन्तता के साथ वर्णित करने वाले विरले ही हैं -और हमें गर्व है कि आप उनमें से एक हैं !
यह तो लगभग वैसा ही है - जैसा मेरी स्मृति में है। हां, वह स्मृति पुरानी और धुन्धली हो चली थी। इस पोस्ट ने ताजा करदी!
यह दीया यूँ ही जलाये रखिए... आभार।
काफी बारीकी से लिखा है आपने..मेरी माँ भी करती रही है.पर मुझे ही अजीब लगता है जाने क्यों.हाँ पूजा कोई भी हो प्रसाद खाने में हम आगे.
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एक अपील - प्रकृति से छेड़छाड़ हर हालात में बुरी होती है.इसके दोहन की कीमत हमें चुकानी पड़ेगी,आज जरुरत है वापस उसकी ओर जाने की.
सारा विवरण पढ़कर बहुत अच्छा लगा. पहले भी कहना चाहता था, मगर रोठ वर्णन के बाद कहना ज़रूरी है कि आप हर बात को बहुत ही अच्छी तरह से समझाकर कहते हैं और वह भी नपे-तुले शब्दों में.
यह जानकारी भी हमारे लोक-इतिहास का भाग है. इसके लिए धन्यवाद!
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मुंहदेखी टिप्पणी मुझसे होती नहीं, और..
यदि मैं मन में चल रहे विचार लिखूँ,
तो आप नाराज़ हो जायेंगे
एक बार हो भी चुके हैं
मेरा नमस्कार लें
रोट के बारे मे तो हम बिल्कुल भी नही जानते थे आज पहली बार जाना।
आपने बहुत ही बारीकी से सब कुछ समझाया है।
अंत तक आते-आते हम सोच रहे थे की आपसे कहेंगे की रोट की फोटो लगाइए पर आख़िर मे आपने लिख ही दिया है की इसे किसी को दिखाया नही जा सकता ।
वाह बहुत सुन्दर लिखा है।
बहुत विस्तार से वर्णन किया है। चित्रात्मक शैली ने रचना की रोचकता बढा दी है। बधाई स्वीकारें।
आपका सोचना सही ही - वह 'रोट' ही है, 'रोठ' नहीं ।
जिसे आपने 'उन्हाला' लिखा है, उसे मेरी तां 'उंधाला'कहती थी जो 'औंधाला' का अपभ्रंश लगता है । 'औंधाला' याने 'उल्टा' जिसका मतलब हो सकता है - उलटा तवा ।
यह परम्परा राजस्थान की ही है । राजस्थान से सटे मालवा के गांवों में भी यह परम्परा पाई जाती है । राजस्थान से बाहर जा बसे, श्रेष्ठि समाज के परिवारों में रोट की पूजा तो नहीं होती लेकिन उस दिन रोट बनाया जरूर जाता है । 'संझा' वाले दिनों में एक दिन गजकडा बनाया जाता है जो रोट जैसा ही होता है ।
आपकी पोस्ट ने मुझे मेरी मां की गोद में बैठा दिया । इस सबमें भावुकता वाली बात तो कहीं नहीं थी लेकिन मेरी आंखें भर आई -पता नहीं क्यों ।
शुक्रिया ।
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