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बुधवार, 10 मार्च 2010

यूँ समापन हुआ होली पर्व का

यूँ तो हाड़ौती (राजस्थान का कोटा संभाग) में होली की विदाई न्हाण हो चुकने के उपरांत होती है। न्हाण इस क्षेत्र में होली के बारहवें दिन मनाया जाता है। हमारे बचपन में हम देखते थे कि होली के दिन रंग तो खेला जाता था लेकिन केवल सिर्फ गुलाल से। लेकिन गीले रंग या पानी का उपयोग बिलकुल नहीं होता था। लेकिन बारहवें दिन जब न्हाण खेला जाता था तो उस में गीले रंगों और रंगीन पानी का भरपूर उपयोग होता था। सब लोग अपनी अपनी जाति के पंचायत स्थल पर सुबह जुटते थे और फिर टोली बना कर नगर भ्रमण करते हुए जाति के प्रत्येक घर जाते थे। शाम को जाति की पंचायत होती थी जिस में पुरुष एकत्र होते थे। जिस में वर्ष भर के आय-व्यय का ब्यौरा रखा जाता था। पूरे वर्ष में पंचायत ने क्या-क्या काम किए उन पर चर्चा होती थी। अगले वर्ष में क्या-क्या किया जाना अपेक्षित है, इस पर चर्चा होती थी और निर्णय लिए जाते थे और अगले वर्ष के लिए पंच और मुखिया चुन लिए जाते थे। 
पंचायत में भाग लेने वालों को देशी घी के बूंदी के लड़्डू वितरित किए जाते थे जो कम से कम ढाई सौ ग्राम का एक हुआ करता था।पंचायतें अब भी जुटती हैं। लेकिन न्हाण लगभग समाप्त प्राय हो चला है। केवल ग्रामीण इलाकों में ही शेष रह गया है। कोटा जिले के एक कस्बे सांगोद में न्हाण को एक विशेष सांस्कृतिक पर्व के रूप में मनाया जाता है जो होली से ले कर न्हाण तक चलता रहता है। उस के बारे में फिर कभी।
मेरे यहाँ होली का आरंभ हुआ था बेटी और बेटे के आने से। कल दोनों चले गए। हम उन्हें छोड़ने स्टेशन गए। दोनों की ट्रेन में कोई घंटे भर का अंतर था। पहले बेटे को ट्रेन मिली और घंटे भर बाद बेटी को। बेटी सुबह अपने गंतव्य पर पहुँच गई। बेटा अभी सफर में है उस का सफऱ करीब छत्तीस घंटों का है। वह आज दोपहर बाद ही बंगलूरू पहुँच सकेगा। स्टेशन पर जाते समय उन के चित्र लिए जो यहाँ मौजूद हैं। आज घर एकदम सूना सा लगा। होली पर सब के साथ रहने से फेल गए घऱ को पुनः समेटने में आज पत्नी ने पूरा दिन लगा दिया। मेरे घऱ होली समाप्त हो गई है और घऱ सिमट गया है।

मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

छुट्टियों का एक दिन ..... दिल्ली की ओर ........

दिसंबर 26, 2009 को इस ब्लाग पर आलेख लिखा था अब हुई छुट्टियाँ शुरू, और दिसंबर 27 को अली भाई की मजेदार टिप्पणी मिली .......

वकालत व्यवसाय है ...लत नहीं...सो छुट्टी मुमकिन है...पर ब्लागिंग लत है...व्यवसाय नहीं...कभी छुट्टी लेकर बताइये !
हाहाहा !




इंडिया  गेट  के सामने  खिले फूल
त ही सही, पड़ गई सो पड़ गई। और  भी कई लतें हैं जो छूटती नहीं। पर  उन का उल्लेख फिर कभी, अभी बात छुट्टियों की। दिसंबर 27 को दी इतवार (दीतवार) था। बेटी पूर्वा का अवकाश। सुबह का स्नान, नाश्ता वगैरह करते-करते इतना समय हो गया कि कहीं बाहर जाना मुमकिन नहीं था।  दिन में कुछ देर आराम किया फिर शाम को  बाजार जाना हुआ। पूर्वा को घर का सामान खरीदना था। जाते समय  तीनों पैदल गए। बाजार में सामान लेने के साथ एक-एक समोसा  खाया गया। वापस आते वक्त सामान होने के कारण दोनों माँ-बेटी को  रिक्शे पर रवाना कर  दिया । मैं पैदल  चला। रास्ते में पान की गुमटी मिली तो पान खाया, लेकिन वह मन के मुताबिक न था। पान वाले से बात भी की। वह कह रहा था। पान का धंधा हम पान वालों ने ही बरबाद कर दिया है। हम ही लोगों ने पहले गुटखे बनाए। लोगों को अच्छे  लगे तो पूंजी  वाले उसे ले  उड़े। उन्हों ने पाउचों में उन्हें भर दिया। खूब विज्ञापन  किया। अब गुटखे के ग्राहक हैं, पान के नहीं, तो पान कैसे मजेदार बने?  बड़े चौराहों पर जहाँ पान के दो-तीन सौ ग्राहक दिन में हैं, वहाँ अब भी पान मिलता है, ढंग  का। खैर उस की तकरीर सुन हम वापस लौट लिए।  शाम फिर बातें करते बीती। भोजन कर फिर एक बार पैदल निकले  पान की तलाश में इस बार भी जो गुमटी मिली वहाँ फिर दिन वाला किस्सा था। सोचता रहा कहीँ ऐसा न हो कि किसी जमाने में पान गायब ही हो ले। पर जब मैं मध्यप्रदेश और राजस्थान के अपने हाड़ौती अंचल के बारे में सोचता हूँ तो लगता है यह सब होने में सदी तो  जरूर ही  लग जाएगी।  हो सकता है तब तक लोगों  की गुटखे  की लत  वापस  पान पर लौट  आए।
स दिन कुछ और न लिखा गया। हाँ, शिवराम जी की एक कविता जरूर आप लोगों तक पहुँचाई। वह भी देर रात को। इच्छा तो यह भी थी कि तीसरा खंबा पर भारत का  विधि इतिहास की अगली  कड़ी लिख कर ही खुद को  रजाई के हवाले किया जाए। पर बत्ती जल रही थी। पूर्वा और उस की प्यारी  माँ  सो  चुकी थीं। मुझे लगा बत्ती उन की नींद में खलल डाल सकती है। देर रात तक जागने का सबब यह भी हो सकता है कि सुबह देर तक नींद न खुले। अगले दिन पूर्वा का अवकाश का  दिन था। हो सकता है वह सुबह सुबह कह दे कि कहीं घूमने चलना है, और मैं देर से नींद खुलने के कारण तैयार ही न हो सकूँ। आखिर मैं ने भी बत्ती बंद कर दी और रजाई की  शरण ली।
सुबह तब हुई, जब शोभा ने कॉफी की प्याली बिस्तर पर ही थमाई। कोटा में यह सौभाग्य शायद ही कभी मिलता हो।  मैं ने भी उसे पूरा सम्मान दिया।  बिना बिस्तर से नीचे उतरे पास रखी  बोतल से दो घूंट पानी गटका और कॉफी पर पिल  पड़ा।  हमेशा कब्ज की आशंका से त्रस्त आदमी के लिए यह खुशखबर थी, जो कॉफी का आधा प्याला अंदर जाने  के बाद पेट के भीतर से आ रही थी। जल्दी से कॉफी पूरी कर भागना पड़ा। पेट एक  ही बार में साफ हो लिया।  नतीजा ये कि स्नानादि से सब से पहले मैं निपटा। फिर शोभा और सब से बाद में पूर्वा। पूर्वा ने स्नानघर से बाहर निकलते ही घोषणा की कि दिल्ली घूमने चलते हैं। हम ने तैयारी आरंभ कर दी। फिर  भी घर से निकलते निकलते साढ़े दस बज गए। बल्लभगढ़ से 11.20 की  लोकल पकड़नी थी। टिकटघर पर लंबी लाइनें थीं। ऐसे  में टिकटबाबुओं को  तेजी से काम निपटाना  चाहिए। पर  वे पूरी सुस्ती से अपनी  ड्यूटी कर रहे थे। मुझे पुरा अंदेशा था कि टिकट  मिलने  तक  लोकल निकल  जाने वाली थी। पर पूर्वा किसी तरह टिकट  ले आई। लोकल दस मिनट लेट  थी, हम उस में सवार हो सके।  नई दिल्ली स्टेशन के लिए। 

स्टेशन पर  से बहुत भीड़ चढ़ी। पूर्वा और शोभा चढ़ीं महिला डब्बे में मैं  जनरल  में। बैठने का कोई  स्थान न था। गैलरी में  खड़ा रहा। फरीदाबाद से दो लड़के  चढ़े, बड़े-बड़े बैग लिए। भीड़ के कारण फंस गए थे वे। एक का सामान उठा कर आगे खिसकाया  तो  गैलरी में जगह हुई। दूसरा वहीं खड़ा रहा। उस ने बताया कि वह गाँव जा है,  भागलपुर, बिहार, उस का नाम अविनाश है। यहाँ दिल्ली में बी.ए. पार्ट फर्स्ट में पढ़ता है। मैं समझा वह भागलपुर के नजदीक किसी  गाँव का रहा होगा, पर उस ने बताया कि वह भागलपुर शहर का ही है। तो फिर वह बी.ए. पार्ट फर्स्ट  करने यहाँ दिल्ली क्यों आया? यह तो वह वहाँ रह कर भी कर सकता था ? पर उस ने खुद ही बताया कि वहाँ दोस्तों के साथ मटरगश्ती करते थे। इसलिए  पिताजी ने उसे यहाँ डिस्पैच कर दिया। यहाँ दो हजार में कमरा लिया है और एक डिपार्टमेंटल स्टोर पर सेल्समैन का  काम करता है। शाम तीन से ड्यूटी आरंभ होती है जो रात ग्यारह बजे तक चलती है। तीन बजे के पहले अपने क़ॉलेज पढ़ने जाते हैं। तब तक  अंदर  डब्बे  में  जगह हो गयी थी। अविनाश  अंदर डब्बे में  खसक  लिया।  उस की जगह दो और लड़के वहाँ आ कर  खड़े हो गए।  उन में से  एक  कोई बात  दूसरे को सुना रहा था।  वह हर वाक्य  आरंभ करने के पहले हर बार भैन्चो जरूर बोलता था। कोई  तीन-चार  मिनट में ही मेरे तो कान पक गए। पर उसे बिलकुल अहसास  नहीं था। वह उस का उच्चारण वैसे ही कर रहा था। हवन करते समय पंडित  हर मंत्र  के पहले ओउम  शब्द का उच्चारण करता है। मैं ने उन की बात से अपना ध्यान हटाने को 180 डिग्री घूम  गया। अब मेरा मुहँ अंदर सीट पर बैठै लोगों की ओर था। वहाँ सीट पर बैठी एक लड़की पास खड़े एक  लड़के के साथ  बातों में मशगूल थी। दोनों बांग्ला बोल रहे थे। मैं  उन  की बांग्ला समझने की कोशिश में लग  गया।
गे का विवरण  कल  पर दिल्ली में लिए कुछ चित्र  जरूर  आप  के लिए ......

शीशगंज गुरुद्वारा

गुरुवार, 25 जून 2009

जीन्स, टॉप, ड्रेस कोड और महिलाओं की सोच

समय का पहिया कैसे घूमता है इस का नमूना हमने पिछले दिनों देखा गया जब  उत्तर प्रदेश में ड्रेस कोड का हंगामा बरपा होता रहा।   कानपुर  जिले  में  चार महिला कॉलेजों ने अपनी छात्राओं को कैंपस में जींस पहनकर आने पर पाबंदी लगा दी।  कॉलेजों ने  यह काम छात्राओं के साथ छेड़खानी रोकने का भला काम करने की कोशिश में किया।  बात यहीं तक न रुकी छात्राओं के जींस , टॉप , स्कर्ट के साथ साथ कानों में बड़े बड़े इयर रिंग्स , गले में हार , फैन्सी अंगूठी और ऊंची एड़ी के सैंडिल पहनने पर भी रोक लगा दी गई। जब कि छात्राओं का कहना था कि कॉलेज प्रशासन का फैसला बेतुका है। वे छेड़खानी रोकना ही चाहते हैं तो पुलिस की मदद क्यों नहीं लेते? कॉलेज छात्रों  के बीच जींस पहनना आम बात है। मिनी स्कर्ट और शॉर्ट टॉप जैसे कपड़ों पर रोक की बात समझ में आती है , पर जींस?
इस के बाद  पहिया आगे चला तो अध्यापिकाएँ भी इस की चपेट में आ गईं। कानपुर के महिला कॉलिजों की अध्यापिकाओं को सख्त निर्देश दिए गए कि वे स्लीवलेस ब्लाउज और भड़कीले सूट पहन कर कॉलिज आयें। मोबाइल लेकर कॉलिज आने की अनुमति है लेकिन उसे स्विच ऑफ रखना होगा।
आप तो जानते ही हैं, लेकिन इन कॉलेजों का प्रशासन यह नहीं जानता था कि इस देश में प्रेस और मीडिया भी है और स्त्री-स्वातंत्र्य का आंदोलन भी; और यह भी कि उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री भी एक स्त्री हैं।  मंसूबे धरे के धरे रह गए।  मायावती ने तुरंत कहा -कोई ड्रेस कोड नहीं चलेगा।  फिर सरकारी फरमान निकला कि  यूपी के किसी भी कॉलेज में ड्रेस कोड लगाने का समाचार मिला तो मामले की जांच की जाएगी और आरोप सही पाए जाने पर संबंधित कॉलेज के खिलाफ राज्य सरकार यूनिवर्सिटी एक्ट के तहत कार्रवाई करेगी। इसके तहत मान्यता छिनने का खतरा पैदा हुआ ही, यूजीसी से मिलने वाली ग्रांट और दूसरी सरकारी सहायता भी खतरे में दिखाई दी।  नतीजा यह हुआ कि ड्रेस कोड लागू होने के पहले ही गुजर गया। 
यह तो हुआ ड्रेस कोड का हाल।  महिलाएँ जीन्स और टॉप के बारे में क्या सोचती हैं। उस का असली किस्सा।  एक प्रोजेक्ट में नई अफसर अक्सर जीन्स और टॉप पहनती है। उस से उम्र में कहीं बहुत बड़ी महिलाएँ वर्कर हैं जो उसे रिपोर्ट करती हैं।  अचानक अफसर एक दिन सलवार सूट में दिखाई दी तो  कुछ अच्छी वर्करों ने उसे सलाह दी कि -मैडम! आप इस सूट में उतनी अच्छी नहीं लगतीं।  आप इसे मत पहना कीजिए।  आप को जीन्स और टॉप ही पहनना चाहिए।  उस में आप स्मार्ट लगती हैं। अगर आप ने कुछ दिन सूट पहन लिया तो सारी वर्कर्स आप को ढीली-ढाली समझने लगेंगी और फिर काम का क्या होगा वह तो आप जानती ही हैं।

शुक्रवार, 13 मार्च 2009

बदलाव की बयार और जंग लगा ग्रामीण समाज

मेरे राजस्थान के जोधपुर नगर से एक खबर  है कि वहाँ पिता के देहान्त पर उन की लड़कियों ने उन की पार्थिव देह का अंतिम संस्कार वैसे ही किया जिस तरह वे पुत्र हों।  कल एक प्रान्तीय चैनल ने इस खबर को बहुत बार दिखाया।  एक बहस भी चलाने का प्रयत्न किया जिस में एक पण्डित जी से बात चल रही थी कि क्या यह शास्त्र संगत है।  पण्डित जी ने पहले कहा कि यह तो सही है और शास्त्रोक्त है।  लेकिन जब उन से आगे सवाल पूछे गए तो उन्हों ने इस में शर्तें लादना शुरू कर दिया कि यदि भाई, पुत्र, पौत्र आदि न हों और कोई अन्य पुरुष विश्वसनीय न हो तो शास्त्रों को इस में कोई आपत्ति नहीं है।  पण्डित जी ने अपने समर्थन में विपत्ति काल में कोई मर्यादा नहीं होती कह डाला।  कुल मिला कर पण्डित जी बेटियों को यह अधिकार देने को राजी तो हैं लेकिन पुत्र और पौत्र की अनुपस्थिति में ही।  शायद उन को अपने व्यवसाय पर खतरा नजर आने लगा हो।

लेकिन इस के बावजूद उन चारों बेटियों पर कोई असर नजर नहीं आया।  उन में से एक का कहना था कि हमारे पिता ने हमें बेटे जैसा ही समझा, बेटों जैसा ही पढ़ाया लिखाया और पैरों पर खड़ा किया।  हमने अपना कर्तव्य निभाया है।  मुझे आशा है लोग इस से सीख ले कर अनुकरण करेंगे।  बेटियों को बेटो से भिन्न नहीं समझेंगे।  और बेटियाँ भी खुद को पिता के परिवार में पराया समझना बंद करने की प्रेरणा लेंगी।  यह तो एक ऐसा परिवार था जहाँ पुत्र नहीं था।  लेकिन पुत्र के होते हुए भी बेटियों को यह अधिकार समान रूप से मिलने में क्या बाधा है? 

हालाँ कि इस तरह की घटना पहली बार नहीं हुई है इस से पहले भी राजस्थान में यह हुआ है।  लोग इस घटना से सीख ले कर अनुकरण करेंगे तो यह परंपरा बन लेगी।  यह सही रूप में महिला सशक्तिकरण है।

यहीं राजस्थान के हाड़ौती के मालवा से लगे हुए क्षेत्र से एक खबर  है कि हजारी लाल नाम के एक व्यक्ति ने 20 बरस पहले किसी स्त्री से नाता किया था। जिस के कारण उसे गाँव से बहिष्कृत कर दिया गया था।  बीस साल से वह निकट ही कोई दस किलोमीटर दूर अकलेरा कस्बे में रह रहा था, लेकिन गाँव नहीं जा पा रहा था।  बीस साल बाद हजारी लाल ने यह सोचा  कि अब तो गाँव बदल गया होगा।  गाँव के लोग उससे मिलते रहते थे, शायद उस के व्यवहार से उस ने यह अनुमान लगाया हो।  वह बीस साल बाद गाँव में पहुँचा तो भी गाँव निकाले के फरमान ने उस की आफत कर दी।  गाँव के लोगों ने उसे पीटा और एक कमरे में बंद कर दिया।  कुछ लोगों की शिकायत पर पुलिस गाँव पहुँची तो उस पर पथराव हुआ और देशी कट्टे से फायर भी। पुलिस ने अपने एक सहायक इंस्पेक्टर को घायल हो ने की कीमत पर हजारी लाल को गाँव के लोगों से छुड़ाया।

हम गाहे बगाहे अपने व्यक्तिगत कानूनों के खिलाफ लिखते हैं।  लेकिन हमारा समाज अभी भी व्यक्तिगत कानून की सत्ता को ही स्वीकार कर ता है और उस के लिए पुलिस से सामना करने को तैयार हो जाता है।  क्या कभी कहीं देश के इन गाँवों के जंग लगे समाज का मोरचा हटा कर उन्हें चमकाने के  लिए प्रयास करते लोग नजर आते है?

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

अवनीन्द्र को सरप्राइज और रेस्टोरेंट केवल परिवार के लिए

मैं, वैभव और पाबला जी तीनों पैदल ही अवनींद्र के घर की ओर चले।   रास्ते में पाबला जी ने बताया कि रायपुर से संजीत त्रिपाठी पूछ रहे थे कि द्विवेदी जी रायपुर कब आ रहे हैं।  संजीव तिवारी ने फोन पर बताया कि दुर्ग बार चाहती है कि मैं वहाँ आऊँ।  लेकिन वह कल व्यस्त रहेगा।  मैं ने रास्ते में ही गणित लगाई कि 30 को शाम पांच बजे मेरी वापसी ट्रेन है इसलिए उस दिन रायपुर जाना ठीक नहीं, हाँ दुर्ग जाया जा सकता है।   मैं ने उन्हें बताया कि कल रायपुर और परसों दुर्ग चलेंगे।  कोई दो-तीन सौ मीटर पर ही हम दूर संचार कॉलोनी पहुँच गए।  गेट पर पूछताछ पर पता लगा कि आखिरी इमारत की उपरी मंजिल के फ्लेट में अवनीन्द्र का निवास है।

निचली मंजिल के दोनों फ्लेट के दरवाजों के आस पास कोई नाम पट्ट नहीं था।  इस से यह पहचानना मुश्किल था कि किस फ्लेट में कौन रहता होगा।  ऊपर की मंजिल पर भी यही आलम हुआ तो गलत घंटी भी बज सकती है। ऊपर पहुंचे तो एक फ्लेट पर अवनींन्द्र के नाम की खूबसूरत सी नाम पट्टिका देख कर संतोष हुआ।  घंटी बजाने पर अवनीन्द्र की पत्नी ज्योति ने दरवाजा खोला।  मुझे और पाबला जी को देख वह आश्चर्य में पड़ गई।  मैं  ने मौन तोड़ा, पूछा-अवनीन्द्र है? हाँ कहती हुई उस ने रास्ता दिया।  अवनीन्द्र ड्राइंग रूम में मिला।  देखते ही जो आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता उस  के चेहरे पर दिखाई दी उसका वर्णन कर पाना संभव नहीं है।  मैं ने बताया ये पाबला जी हैं।  उस ने पाबला जी से हाथ मिलाये।  मेरे संदर्भ से पाबला जी और अवनींद्र फोन पर बतिया चुके थे।
चित्र में अवनीन्द्र, मैं और वैभव
मैं ने बताया, तुम्हें सूचना न देना और अचानक आ कर सरप्राइज देना पाबला जी की योजना का अंग था जिसे मैं ने स्वीकार कर लिया।  पानी आ गया।  ज्योति ने कॉफी के लिए पूछा। तो हमने हाँ कह दी। बातें चल पड़ी घर परिवार की।   इस बीच कुछ मीठा, कुछ नमकीन आ गया।  परिवार की बातों के बीच पाबला जी कुछ अप्रासंगिक होने लगे तो मैं चुप हुआ फिर भिलाई के बारे में पाबला जी और अवनींद्र बातें करते रहे।  शहर के बारे में, बीएसपी के बारे में, बीएसएनएल के बारे में  और भिलाई के एक शिक्षा केन्द्र बनते जाने के बारे में।  पता लगा कि कोटा के सभी प्रमुख कोचिंग संस्थानों की शाखाएँ भिलाई में भी हैं।  भिलाई को कोटा से जोड़ने का एक महत्वपूर्ण बिंदु यह भी था।  इन संस्थानों में कोटा के लोग काम कर रहे थे। ज्योति कॉफी ले आई। उस ने भोजन के लिए पूछा तो मैं ने कहा आज पाबला जी ने इतना खिला दिया है कि खाने का मन नहीं है।  कल शायद दुर्ग या रायपुर जाना हो, तो कल शाम को यहाँ खाना पक्का रहा।  उस ने उलाहना दिया कि मुझे वहीं उस के यहाँ रहना चाहिए था।  उस की बात वाजिब थी।  मैं ने बताया कि मुझे पाबला जी से वेबसाइट का काम कराना है तो वहीं रुकना सार्थक होगा।  उस की शिकायत का यह सही उत्तर नहीं था, शिकायत अब भी उस की आँखों में मौजूद थी।

हम अवनीन्द्र के यहाँ कोई डेढ़ घंटा रुके।  इस बीच अवनींद्र के बारे में मैं ने पाबला जी को बताया कि वह पढ़ने में शुरू से आखिर तक सबसे ऊपर रहा।  एक वक्त तो उस की हालत यह थी कि महिनों वह बिस्तर पर नहीं सोता था।  टेबल कुर्सी पर पढ़ते पढते तकिया टेबल पर रखा और उसी पर सिर टिका कर सो लेता। सुबह उठता तो हमें लगता कि जैसे वह जल्दी उठ कर नहा धो कर तैयार हो लिया है।  उस का राज बुआ ने बताया कि यह नींद से जागते ही मुहँ धोता है और बाल गीले कर, पोंछ तुरंत कंघी कर लेता है।  जिस से वह हमेशा तरोताजा रहता है।  मैं ने भी आज तक ऐसा विलक्षण विद्यार्थी नहीं देखा।  वहाँ से चलने के पहले पाबला जी ने अपने कैमरे से हमारे चित्र लिए।

हम वापस पाबला जी के यहाँ पहुँचे तो पाबला जी की बिटिया सोनिया (रंजीत कौर) से भेंट हुई। सुबह उस से ठीक से भेंट न हो सकी थी वह कब तैयार हो कर अपने कॉलेज चली गई थी हमें पता ही नहीं लगा।  वह बहुत छोटी लग रही थी।  मैं समझा वह ग्रेजुएशन कर रही होगी।  पता लगा वह मोनू से कुछ मिनट बड़ी है और अक्सर यह बात अपने भाई को जब-तब याद दिलाती रहती है।  वह एमबीए कर रही है।   पाबला जी ने संजीत और संजीव को मेरा कार्यक्रम बता दिया।  संजीव ने बताया कि वह सुबह कुछ वकीलों के साथ आएँगे।  कुछ ही देर में पाबला जी ने घोषणा की कि भोजन के लिए बाहर चलना है।  हम चारों मैं, पाबला जी, मोनू और वैभव वैन में लद लिए।  जिस रेस्टोरेंट में हम गए वह बहुत ही विशिष्ठ था। मंद रोशनी और धीमे मधुर संगीत में भोजन हो रहा था और सभी टेबलों पर परिवार ही हमें दिखाई दिए।  मैं ने पूछा तो बताया गया कि इस रेस्टोरेंट में बिना महिलाओं के प्रवेश वर्जित है।  मैं समझ गया कि यह सार्वजनिक स्थल पर शांति बनाए रखने का सुगम तरीका है।  हमारे एक लीडर का वक्तव्य याद आ गया कि किसी भी संस्था की कार्यकारिणी की बैठक में फालतू बातों को रोकना हो तो एक दो महिलाएँ सदस्याएं होना चाहिए।

हमारे साथ कोई महिला न थी फिर भी हम वहाँ थे।  पाबला जी ने बताया कि प्रवेश करने के पहले द्वार पर मैनेजर ने टोका था और उसे यह कहा गया है कि बिटिया पीछे आ रही है।  लेकिन बाद में फोन पर रेस्टोरेंट के संचालक से बात करने पर ही भोजन का आदेश लिया गया।  भोजन स्वादिष्ट था।  हम घर लौटे तो ग्यारह बजे होंगे।  इतना थक गए थे कि वेबसाइट का काम कर पाना संभव नहीं था।  उसे अगली रात के लिए छोड़ दिया गया।  वैभव मोनू के कमरे में चला गया।  मैं भी कुछ देर नेट पर बिताने के बाद बिस्तर के हवाले हुआ।

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

पुणे के स्थान पर बल्लभगढ़ और पाबला जी का गुस्सा

विनोद जी और अनिता जी

अभिषेक ओझा बता रहे थे कि मैं पूर्वा से बात कर लूंगा कि वह किस बस से कहाँ उतरेगी।  हम ने दोनों ही स्थितियाँ पूर्वा की माताजी को बता दीं।  वे तनिक आश्वस्त हो गयीं।  अगले दिन सुबह आठ बजे मैं ने पूर्वा को फोन लगाया तो वह बस में थी।  उस ने बताया कि विनोद अंकल उस के इंस्टीट्यूट पर आकर उसे बस में बिठा गए थे।  उस का अभिषेक से भी संपर्क हो चुका था।  शाम को जब दुबारा फोन पर बात हुई तो  पता लगा कि वह साक्षात्कार दे कर मुम्बई वापस भी पहुँच चुकी थी।  जब उस की बस पूना पहुँची तो अभिषेक बस स्टॉप पर उस का इंतजार करते मिले।  उसे केईएम अस्पताल छोड़ा।  साक्षात्कार आधे घंटे में ही पूरा हो लिया।  वह बाहर आई तो अभिषेक अभी गए नहीं थे।   दोनों ने किसी रेस्तराँ में नाश्ता किया और पूर्वा को मुम्बई की बस में बिठा कर ही अभिषेक अपने काम पर लौटे।  इस खबर को जान कर शोभा प्रसन्न हो गईं।  उन की बेटी पहली बार पूना गई थी और उसे अकेला नहीं रहना पड़ा था।

कुछ दिन बाद पता लगा कि पूना केईएम अस्पताल में जिस स्थान के लिए पूर्वा ने साक्षात्कार दिया था वैसा ही एक स्थान बल्लभगढ़ (फरीदाबाद) के सिविल अस्पताल में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) हरियाणा सरकार और एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था इण्डेप्थ नेटवर्क के संयुक्त प्रयासों से चल रहे व्यापक जन स्वास्थ्य सेवाओं के प्रोजेक्ट में भी स्टेटीशियन/ डेमोग्राफर का स्थान रिक्त है।  उस ने वहाँ के लिए आवेदन किया और एक टेलीफोनी साक्षात्कार के उपरांत यह तय हो गया कि पूर्वा को पूना के स्थान पर बल्लभगढ़ में ही यह पद मिल जाएगा।  वह अपने नियुक्ति पत्र की प्रतीक्षा करने लगी।  उस का नियुक्ति पत्र किन्हीं कारणों से विलंबित हो गया जिस का लाभ यह हुआ कि उस ने आश्रा प्रोजेक्ट के उस के जिम्मे के सभी कामों को पूरा कर दिया जिस से उस की अनुपस्थिति से आश्रा प्रोजेक्ट को कोई हानि न हो। बाद में यह तय हुआ कि वह 2 फरवरी को बल्लभगढ़ में अपनी नयी नियुक्ति पर उपस्थिति देगी।  इधर वैभव को भी जनवरी के अंत तक अपना प्रोजेक्ट और ट्रेनिंग शुरू करनी थी।
बलविंदर सिंह पाबला
 
वैभव की स्थिति यह थी कि वह खुद भिलाई जा कर अपना प्रोजेक्ट और ट्रेनिंग प्रारंभ कर सकता था।   लेकिन पाबला जी का आग्रह यह था कि उस के साथ मैं  भी भिलाई पहुँचूँ और कम से कम तीन-चार दिनों के लिए वहाँ रुकूँ।  उस में मेरा स्वार्थ भी था कि मैं वहाँ पाबला जी के पुत्र से तीसरा खंबा की अपनी वेबसाइट डिजाइन करवा लेता।  लेकिन पूर्वा के साथ मुझे और शोभा को वल्लभगढ़ जाना आवश्यक था।  उस के लिए वहाँ मकान तलाशना जो उस के निवास के लिए उपयुक्त हो।  मैं ने इस परिस्थिति का उल्लेख पाबला जी से किया और कहा कि मैं एक दिन से अधिक नहीं रुक सकूंगा।  तो वे गुस्सा हो गए, कहने लगे आप के आने की भी क्या आवश्यकता है।  वैभव को भेज दीजिए काम हो जाएगा।  उन के गुस्से ने यह तय किया कि मैं भिलाई तीन दिन और दो रात रुकूंगा।   कोटा से भोपाल और भोपाल से दुर्ग तक का व वापसी का दुर्ग से भोपाल तक के आरक्षण करवा लिए गए।  अब हमें 26 जनवरी की रात को कोटा से चल कर 28 जनवरी सुबह दुर्ग पहुंचना था।  दुर्ग से मुझे 30 की शाम चल कर 31 को सुबह भोपाल और फिर बस या किसी अन्य साधन से कोटा पहुंचना था।  आखिर 2 फरवरी को मुझे, शोभा और पूर्वा को बल्लभगढ़ के लिए भी रवाना होना था।  जारी

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

आम के पहले बौरों की नैसर्गिक गंध और सौंदर्य का अहसास

गणतंत्र दिवस की रात को कोटा से बाहर जाना हुआ और 31 जनवरी की रात को वापसी हुई। पहली फरवरी को रविवार था और सोमवार को सुबह 6 बजे फिर ट्रेन पकड़नी थी।  कल रात ही वापस लौटा हूँ।  मैं चाहता था कि इस बीच कुछ आलेख सूचीबद्ध कर जाऊँ।  लेकिन यह संभव नहीं हो सका।  पहली यात्रा के दौरान मुझे अंतर्जाल उपलब्ध भी हुआ।  लेकिन वहाँ से कोई आलेख लिख पाना संभव  नहीं हो सका। हाँ कुछ चिट्ठों पर टिप्पणियाँ अवश्य कीं।  
दोनों यात्राएँ बिलकुल निजि थीं।  लेकिन चिट्ठाकारी, जैसा कि इस का नाम है, निजत्व का सार्वजनीकरण ही तो है।  निजत्व का यही सार्वजनीकरण चिट्ठाकारों और पाठकों के बीच वे रिश्ते कायम करता है जो यदि बन जाएँ तो शायद बहुत ही मजबूत होते हैं। ऐसे रिश्ते जो शायद वर्गहीन साम्यवादी, समतावादी समाज में विश्वास करने वाले लोगों के सपनों में होते हैं।  जिन के बीच किसी तरह का बाहरी कारक नहीं होता और जो केवल मानवीय आधार पर टिके होते हैं।   जिन्हें प्रेम, प्यार, मुहब्बत के रिश्ते कहा जा सकता है।  ये रिश्ते किसी आम को चूस कर कूड़े के ढेर पर फेंकी हुई गुठली के बरसात में अनायास ही बिना किसी की इच्छा, आकांक्षा और प्रयत्न के ही अंकुरा कर पौधे में तब्दील हो जाने की तरह अंकुराते हैं।  बस जरूरत है तो इतनी कि इस अंकुराए पौधे को पूरी ममता और स्नेह से कूड़े के ढेर से उठा कर किसी बगिया की क्यारी  में रोप कर खाद पानी देते हुए वहाँ तक सहेजा जाए जहाँ वह रसीले, सुस्वादु और मीठे फल देने लगे।

मैं ने इन दोनों यात्राओं में इन गुठलियों का अंकुराना, अंकुराए पौधों का ममता और स्नेह के साथ कूड़े के ढेऱ से हटाया जाना और किसी बगिया की क्यारी में रोपना, सहेजना महसूस किया है।  उन के फलों की मृदुलता तो अभी चखी जानी शेष है, लेकिन किशोर पौधों पर पहली पहली बार आए आम के बौरों की नैसर्गिक गंध और सौंदर्य का अहसास भी हुआ है।  

बेटा वैभव चार माह से उल्लेख कर रहा था कि उसे एमसीए के आखिरी पड़ाव में किसी उद्योग में कोई प्रोजेक्ट करते हुए प्रशिक्षण प्राप्त करना होगा।  वह प्रयासशील भी था कि इस के लिए कोई अच्छी जगह उसे मिले।  मैं ने जिन्दगी के मेले ब्लॉग के ब्लागर बी एस पाबला जी से इस का उल्लेख किया तो उन्हों ने दो दिन बाद ही  कहा कि वैभव को तुरंत भेज दें, उस की ट्रेनिंग यहाँ भिलाई में हो जाएगी। उन्हें तो यह भी पता न था कि वैभव की सेमेस्टर परीक्षा ही जनवरी में समाप्त होगी और उस के बाद ही उसे ट्रेनिंग करनी है।  मगर यह तय हो गया कि वैभव को भिलाई में ही ट्रेनिंग करनी है।

इस बीच बेटी पूर्वा जो अपने अंतिम शिक्षण संस्थान अंतर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान (आईआईपीएस) के आश्रा प्रोजेक्ट में वरिष्ठ शोध अधिकारी थी अपने प्रोजेक्ट के पूरा होने तक किसी नए काम की तलाश में थी। उसे पूना के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल (केईएम) द्वारा एक अंतर्राष्ट्रीय संस्थान की सहायता से किए जा रहे व्यापक जन स्वास्थ्य सेवाओं के पायलट प्रोजेक्ट में स्टेटीशियन कम डेमोग्राफर के पद के लिए साक्षात्कार के लिए आमंत्रण मिला और उस का पूना जाना तय हो गया।

साक्षात्कार के लिए मुंबई से पूना जाना वैसा ही था जैसे मैं सुबह कोटा से जयपुर जा कर उच्चन्यायालय में किसी मुकदमे की बहस कर शाम को कोटा वापस लौट आऊँ। लेकिन पूर्वा कभी पूना गई नहीं थी, उस के लिए वह अनजाना नगर था।  उसने बताया कि वह पूना जा कर उसी दिन वापस आ जाएगी।  लेकिन इस बताने ने ही घर में प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिए।  एक माँ सवाल करने लगी,  कैसे जाएगी? कौन साथ जाएगा? अकेली गई तो बस से जाएगी या ट्रेन से? वहाँ कैसे पहुंचेगी? एक पिता के पास इन सवालों का कोई उत्तर नहीं था। केवल एक विश्वास था कि उस की बेटी यह सब सहजता से कर लेगी।  पर माँ कैसे इन सब का विश्वास कर पाती।  उस ने प्रस्ताव दिया कि आप को जाना चाहिए बेटी का साक्षात्कार कराने के लिए।  बेटी कहने लगी, रिजर्वेशन नहीं मिलेगा और इस काम के लिए आप के मुंबई आने की जरूरत नहीं है।  बेटी की योग्यताओं से विश्वस्त माँ की चिन्ताएँ इस से कैसे समंझ पातीं?  उस के सवालों का कोई उत्तर मेरे पास नहीं था।  उत्तर तलाशते हुए मुझे दो ही नाम याद आए।  मुम्बई में कुछ हम कहें की चिट्ठाकार अनीता कुमार जी और उन के जीवन साथी विनोद जी।  पूर्वा अनिता जी से पूर्व परिचित थी और उन से बहुत दूर नहीं रहती थी।  पूना में याद आए ओझा-उवाच और कुछ लोग ... कुछ बातें... के ब्लॉगर अभिषेक ओझा

पूर्वा ने चैम्बूर बस स्टॉप जा कर पूना जाने वाली बसों का पता किया तो वहाँ वह असमंजस में आ गई कि उसे किस बस से जाना चाहिए जिस से वह सुबह दस बजे तक पूना पहुंच सके।  उस ने मुझे बताया तो मैं ने अनिता जी से संपर्क किया।  उन्हों ने सवाल विनोद जी के पाले में डाल दिया, विनोद जी बोले हम सुबह खुद जाएँगे और पूर्वा बिटिया को सही बस में बिठा आएँगे।  पूर्वा की तो बस की खोज समाप्त होने के साथ बस तक का सफर स्कीम में मिल गया।  उधर अभिषेक ओझा बता रहे थे कि मैं पूर्वा से बात कर लूंगा कि वह किस बस से कहाँ उतरेगी।  हम ने दोनों ही स्थितियाँ पूर्वा की माताजी को बता दीं।  वे तनिक आश्वस्त हो गयीं। (जारी)

(चित्रों में अनिता कुमार जी और अभिषेक ओझा)

सोमवार, 17 नवंबर 2008

"सगाई कम गोद भराई उर्फ रिंग सेरेमनी"

सुबह खटपट से नींद खुली। देखा तो हॉल के बाहर बरतन खड़क रहे थे, मैं उठ बैठा। रजाई से बाहर निकलते ही सर्दी का अहसास हुआ। सोचा हमें आवंटित कमरा खुला हो तो कुछ गरम पहनने को ले लिया जाए। बाहर निकले तो लंगर वाला गैस सुलगा कर दूध गरम कर रहा था। यानी मेरी कॉफी का इन्तजाम हो चुका था, दूध उबलते ही एक कप में चीनी और कॉफी ही तो मिलानी थी। मैं वहीं काउंटर पर खड़ा हो गया। सामने दूसरे तल पर जा रही सीढ़ियों पर छोटी वाली साली और बींदणी बैठी थी,  शायद चाय के इन्तजार में।  मोबाइल में समय देखा तो सवा चार हो रहे थे।  बींदणी कार्तिक में मुहँ-अंधेरे ही स्नान कर रही थी। मैं ने कहा -सात-आठ किलोमीटर दूर चन्द्रभागा में स्नान करा लाते हैं, आज विष्णु जी ससुराल से लौट रहे हैं, बड़ा पुण्य होगा, हम भी बहते जल में हाथ धो लेंगे। तो बोली -कल अखबार में पढ़ा था कि वहाँ पानी साफ नहीं है। यहाँ बाथरूम में ट्यूबवेल का साफ ताजा पानी आ रहा है, यहीं स्नान करेंगे। उन्हों ने चाय पी और कमरे वालों के लिए साथ ले ली।

कॉफी पी कर हम अपने कमरे में आए। बींदणी स्नान करने घुस गईथी। सालियाँ वहीं किसी कमरे में चली गईं जहाँ सुबह की संध्याएँ गाई जा रही थी। विनायक स्थापना होने के बाद से यह परंपरा है कि सुबह होने के पहले ही घर और पड़ोस की स्त्रियाँ मिल कर देवताओं के गीत और कुछ विवाह गीत गाती हैं। यूँ कहिए गीत से ही विवाह  वाले घर में दिन शुरू होता है। जब तक कमरे वाले सब स्नान न कर लें तब तक हमारा नंबर आने वाला न था। कमरे में बिस्तर खाली थे। रात केवल तीन घंटे ही सो सका था, मैं वापस रजाई के हवाले हो लिया। 

मैं स्नान कर के नीचे उतरा तब तक नौ बज चुके थे। नाश्ते की तैयारी थी। उस के बाद सगाई होनी थी। वैसे सगाई तो शादी होने के बहुत पहले ही हो जाया करती थी, जो रिश्ते के पक्के होने का प्रमाण होती थी। लेकिन सगाई अब दिखावे की होती है, और बहुत सारे लोग उसे न देखें तो उस का कोई अर्थ नहीं। इस लिए आम तौर पर लग्न झिलाने के दिन या  फिर शादी के दिन उस की रस्म पूरी की जाती है। देखने वाले यह देखते हैं कि सगाई में क्या क्या दिया गया? सगाई के पहले या बाद दुल्हन की गोद भरने की रस्म होती थी, उस का अस्तित्व अब खतरे में है। उस के साथ-साथ अंगूठी पहनाने की रस्म होने लगी है उसे नया नाम "रिंग सेरेमनी"  दे दिया गया है। यह काम भी सगाई के उपरांत निपटा लिया जाता है। कुल मिला कर समारोह  "सगाई कम गोद भराई उर्फ रिंग सेरेमनी" हो चुका है।

उधर शेड वाले हॉल  में जहाँ रात को भोजन हुआ था। वहाँ सगाई की तैयारी थी। आधे हॉल में गद्दे और उस पर सफेद चांदनी बिछी थी। एक तरफ बीचों बीच दूल्हे की चौकी थी, पंडित जी बैठे तैयारी कर रहे थे। बाकी आधे हॉल में दूल्हे की चौकी की तरफ मुहँ किये पचास कुर्सियाँ करीने से लगी थीं। हॉल के बाहर के मैदान में मेजें सजी थीं जिन पर नाश्ता लगाया जा रहा था। कुछ ही देर में नाश्ता शुरू हो गया। कोटा की जैसी कचौड़ियां, दही- चटनी, खम्मन ढोकला, कलाकंद और सेव-नमकीन। सब कुछ स्वादिष्ट था। जी चाहता था सब कुछ डट कर खाएँ, पर पेट और दिन में बनने वाले कच्चे भोजन का खयाल कर केवल चखा और कॉफी पी ली। अब तक बहुत मेहमान आ चुके थे। मेरे ससुर जी के अलावा ससुराल पूरी ही आ चुकी थी, साले, उन की पत्नियाँ (सालाहेलियाँ), उन के बच्चे, ब्याहता लड़कियाँ और उन के पति, बच्चे। नजदीक और दूर के लगभग सभी रिश्तेदार, सब आपस में बतियाने लगे। नए नए समाचार मिल रहे थे। किस किस का तबादला हुआ? किसे नौकरी मिली? कौन पास हुआ,  कौन फेल? किस का रिश्ता किस से होने जा रहा है?  आने वाले दो महिनों में किस किस की शादियाँ होने वाली हैं। कौन कौन पिता, दादा, मामा, नाना, चाचा, ताऊ, बुआ, मौसी आदि बन गए हैं।

नाश्ता चल रहा था कि उधर सगाई में चल कर बैठने का हुकुम हो गया। दुल्हन के पिता गैर हाजिर थे। उन्हों ने रात को ही मुझे बता दिया था कि वे अकलेरा जाएँगे जहाँ उन का पदस्थापन है क्यों कि उस दिन निर्वाचन की महत्वपूर्ण बैठक है और उस से मुक्ति नहीं मिल सकी है। मुझे कह गए थे सगाई के वक्त उन की कमी मैं पूरी करूँ। मै वहाँ पहुँचा तो, लेकिन वहाँ दुल्हन के मामा मौजूद थे। मैं वह जिम्मेदारी उन्हें पूरी करने को कह कर आजाद तो हो गया लेकिन इस जिम्मेदारी से बरी नहीं कि सब कुछ ठीक से संपन्न हो जाए। मैं अपने फूफाजी के पास आ बैठा और बतियाने लगा। वे अपने बड़े बेटे के साथ कोटा से आए थे जो यहीं पड़ोस के मेडीकल कॉलेज अस्पताल में सीनियर स्पेशलिस्ट रेडियोलॉजी है। उसे सप्ताह में दो दिन इमर्जेंसी सेवा के लिए झालावाड़ रहना पड़ता है, एक दिन अवकाश का मिल जाता है, सप्ताह में दो-तीन दिन अदालतों में गवाहियों के लिए जाना पड़ता है। बचा एक दिन उस दिन वह कोटा से आ कर डूयूटी कर वापस चला जाता है। बाकी दिन अस्पताल जूनियर स्पेशलिस्ट से काम चलाता है। हर सरकारी नौकरी में ये अतिरिक्त काम न केवल मूल काम में बाधक हो जाते हैं अपितु काम पर से केन्द्रीयता को हटा देते हैं। पूफाजी से ही पता लगा उन का एक बेटा अब भोपाल से रायपुर स्थानांतरित हो गया है और भिलाई रहता है। वहाँ तो हमारे संपर्क के एक ब्लागर भी हैं। तो हमने दोनों से फोन पर बात की और दोनों को मिलवा दिया। दोनों बहुत प्रसन्न हुए।

उधर सगाई का काम चलता रहा। दूल्हे और उस के परिजनों को सुंदर कपड़ों और उपहार दिए गए। सगाई संपन्न होते ही दूल्हे की दायीं ओर एक चौकी और लगाई गई वहाँ  दुल्हन को बैठाया गया। वहाँ दोनों ने एक दूसरे को अंगूठियाँ पहनाई गईं और दुल्हन की गोद भरी गई। यह समारोह भी संपन्न हुआ। मैं ने फूफाजी को कहा -शादी के पहले तक दूल्हा लेफ्टिस्ट होता है और शादी के बाद दुल्हन (पत्नी)। वे कहने लगे बात सही है। (जारी)

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

शादी के पहले टूटी सगाई

भगवान् विष्णु सदा की भांति अपनी ससुराल क्षीर सागर में अवकाश बिता कर लौटे। इस दिन को इतना शुभ मान लिया गया है कि चार माह से इन्तजार कर रहे जोड़े बिना ज्योतिषी की राय के ही इस दिन परिणय संस्कार के लिए चुन लेते हैं। इस कारण शादियाँ बहुत थीं। नगरों में कोई वैवाहिक स्थल ऐसा नहीं था जहाँ बैंड नहीं बज रहा हो। मुझे भी शादी में जाना पड़ा। शादी थी मेरी बींदणी शोभा के चचेरे भाई की पुत्री की। पुरानी प्रथा जो लगभग पूरे विश्व में सर्वमान्य रही है कि शादी कबीले के भीतर हो लेकिन गोत्र में नहीं, उस का पालन हम आज भी 90 से 95 प्रतिशत तक कर रहे हैं। कन्या के विवाह योग्य होते ही गोत्र के बाहर और कबीले में छानबीन शुरू हो जाती है और ज्यादातर मामले वहीं सुलझ लेते हैं।

इस कन्या का मामला भी इसी तरह से सुलझा लिया गया था। कन्या के माता-पिता दोनों अध्यापक हैं और कन्या भी स्नाकतोत्तर उपाधि हासिल करने के उपरांत बी.एड. कर चुकी थी। कबीले (बिरादरी) में ही लड़का भी मिल गया। दोनों के माता पिता ने बात चलाई लड़की देखी-दिखाई गई और तदुपरांत सगाई भी हो गई तकरीबन एक-डेढ़ लाख रुपया खर्च हो गया। शादी की तारीख पक्की हो गई। निमंत्रण कार्ड छपे। टेलीफून मोबाइल की मेहरबानी कि होने वाले दुल्हा-दुलहिन रोज बात करने लगे।

एक दिन शाम को अचानक पिता के मोबाइल फून की घंटी बजी। पता लगा होने वाले दूल्हा होने वाली दुलहिन से बात करना चाहता है।पिता ने फून बेटी को दे दिया, बेटी फून ले कर छत पर चली गई। करीब पन्द्रह मिनट बाद वापस लौटी तो उस की आँखें लाल थीं और गले का दुपट्टा आँसुओं से भीगा हुआ। माँ ने पूछना शुरू किया तो, वह कुछ न बोले। माँ उसे एक तरफ ले गई। तरह तरह की बातें की। आखिर बेटी ने रोते रोते बताया कि मम्मी ये शादी तोड़ दो वरना हो सकता है अगले साल मैं जिन्दा न रहूँ। बात क्या है? पूछने पर कहने लगी -उन का पेट बहुत बड़ा है। वह कभी नहीं भरेगा। माँ-बाप ने तुरंत निर्णय किया और सम्बन्ध तोड़ दिया। शादी के निमंत्रण जो छप चुके थे नष्ट कर दिए गए। लड़के वालों को संदेशा भेजा कि जो सामान सगाई में उन्हें दिया था भलमनसाहत से वापस लौटा दें। सामान कुछ वापस आया कुछ नहीं आया। पर फिर से लड़के की तलाश शुरू हो गई।

आखिर कबीले के बाहर मगर ब्राह्मण समुदाय में ही एक संभ्रान्त परिवार में लड़का मिला। परिवार पूर्व परिचित था। सारी खरी-खोटी देख ने के उपरांत शादी तय हो गई। साले साहब सपत्नीक आ कर निमन्त्रण दे गए थे, तो हमें जाना ही था। बींन्दणी की दो बहनें भी शनिवार को दोपहर तक आ गईं। अदालत में दो दिनों का अवकाश था ही। करीब तीन बजे दोपहर अपनी कार से चल दिए झालावाड़ के लिए। हमें वहाँ के होटल द्वारिका पहुंचना था। जहाँ शादी होनी थी।

कोटा से 20 किलोमीटर दूर नदी पड़ती है, आलनिया। इस पर बांध बना है पूरे साल बांध से रिसता हुआ पानी धीरे धीरे बहता रहता है। इस नदी के पुल से नदी किनारे दो किलोमीटर दूरी पर प्रस्तर युग की गुफाएं हैं जिन में प्रस्तरयुग की चित्रकारी देखने को मिलती है। पुल पार करते ही सड़क किनारे ही नाहरसिंही माता का मंदिर बना है। प्राचीन मातृ देवियों के नाम कुछ भी क्यों न हों आज वे सभी दुर्गा का रूप मानी जाती हैं उसी तरह उन की पूजा होती है। मंदिर के सामने ही जीतू के पिता का ढाबा है। जीतू जो मेरा क्लर्क है, उसे हम घर पर सुरक्षा के लिए छोड़ आए थे। उस के ढाबे पर गाड़ी रोक कर उन्हें बताया कि वह अब सोमवार शाम ही लौटेगा। मेरे साथ जा रही तीनों देवियाँ सीधे माता जी के दर्शन  करने चली गईं। पीछे पीछे मैं भी गया। वापस लौटे तो चाय तैयार थी। कुल मिला कर आधे घंटे का विश्राम पहले 20 वें किलो मीटर पर ही हो गया। शेष बचे 60 किलोमीटर वे हम ने अगले एक घंटे में तय कर लिए और पाँच बजे हम होटल द्वारिका में थे। (जारी)

शनिवार, 6 सितंबर 2008

समृद्धि घर ले आई गई।

रोट अनुष्ठान, जिस का विवरण मैं ने पिछले दो आलेखों में किया,  उस में अनेक बातें हो सकती हैं, जो आज के समय के अनुकूल नहीं हों। लेकिन यह अनुष्ठान  मानव इतिहास की, पूर्वजों की एक स्मृति है और मैं चाहता हूँ कि मेरे जीवनकाल तक तो वह अवश्य ही सुरक्षित रहे। कल पूजा के उपरांत यह प्रार्थना की गई थी कि हमें और हमारे परिवार को समृद्धि प्राप्त हो और जैसा भोजन हमने आज अपने कुल देवता को समर्पित किया वैसा ही हमेशा हमें उपलब्ध होता रहे। भौतिक समृ्द्धि की कामना सदैव से ही मनु्ष्य किसी न किसी रूप में करता रहा है।

आज शोभा ने कहा कि कल भोजन निर्माण से बचा हुआ जल बचा है उसे नदी में डाल कर आना है। हम उन के साथ गए और जल नदी में डाल कर आए। पत्नी ने वहाँ से कुछ मिट्टी उठाई और घर आ कर कुछ पूरे घर में बिखेरी और कुछ तुलसी गमले में डाल दी। जिस का अर्थ है कि अनुष्टान को पूरा कर लिया गया है और मिट्टी के रूप में समृद्धि घर ले आयी गई। पूरे अनुष्ठान का अर्थ था समृद्धि घर लाई गई। इस समृद्धि का आशय मानव समाज के विकास की पशुपालन की विकसित अवस्था में कृषि के आविष्कार से जो अन्न उपजने लगा वह एक संग्रह करने लायक भोजन संपत्ति से था। जो आपदा के समय मनुष्य के काम आती थी। अब खेती ने वर्ष भर संग्रह करने लायक की व्यवस्था कर दी थी और भोजन की रोज-रोज की चिंता से उन्हें मुक्त करना शुरू कर दिया था। जिस गण के पास जितनी मात्रा में संग्रहीत खाद्य पदार्थों की यह संपत्ति होती थी, वही सब से शक्तिशाली गण हो जाता था।

कल के विवरण से आप जान ही गए होंगे कि इस पूरी परंपरा में मेरी और मेरे बेटे की अर्थात् पुरुषों की भूमिका नहीं के बराबर थी। चाहे वह गेहूँ साफ करना हो, उसे पीसना हो, सामान एकत्र करना हो, आटे को तौल कर संकल्प करना हो, रोटों का निर्माण हो, या कोई और अन्य बात सब कुछ स्त्रियों के हाथ था। पूरे अनुष्ठान में हम पुरुषों की आवश्यकता मात्र एक पुरोहित जितनी थी। आटे के तीन हिस्से, जिन में पुरुषों के हिस्से पर किसी का अधिकार नहीं वह भी कुल देवता के नाम पर। हाँ, बेटियों के भाग पर केवल उन का अधिकार कुछ समझ में आता है क्यों कि यदि वे परिवार में होती तो उन का भी इस अनुष्ठान में अन्य स्त्रियों जितना ही योगदान होता। पर परिवार की स्त्रियों/बहुओं का जो हिस्सा है, उस पर उन के साथ पूरा परिवार पलता है, पूरे परिवार का अधिकार है।

इसी तरह के अनुष्ठान देश भर में अलग-अलग रूपों में लगभग सभी परिवारों में प्रचलित हैं, यदि उन्हें तिलांजलि न दे दी गई हो। इसी तरह के एक लोक-अनुष्ठान का और उल्लेख यहाँ करना चाहूँगा। जिस का वर्णन गुप्ते के हवाले से देवीप्रसाद चटोपाध्याय ने किया है।

लेकिन वह अगले आलेख में ... ... ...


ममता जी और अग्रज डॉ. अमर कुमार जी से ...


ममता जी ने रोट की फोटो लगाने के लिए दबे स्वरों में कहा। उन की शिकायत वाजिब है। लेकिन अभी तो वह रोट समाप्त हो चुका। फिर भी यह बात नहीं कि उसे दिखाने की मनाही है। बल्कि इस लिए कि चित्रांकन में मैं ही फिसड्डी हूँ। कैमरा संभालना बस का नहीं। मोबाइल भी साधारण प्रयोग करता हूँ जिस से सिर्फ फोन सुने और किए जा सकेंगे। पर अब लगता है कि ब्लागिंग में बने रहना है तो कैमरा संभालना भी सीखना ही पड़ेगा।

यदि कोई अग्रज यह कहे कि मैं मुहँ देखी बात नहीं करता और कुछ कहूँगा तो आप नाराज हो जाएंगे। एक बार पहले भी हो चुके हैं,  तो इस का मतलब है कि अग्रज को भारी नाराजगी है। अब समस्या यह है कि अग्रज हमारी किसी गुस्ताखी से नाराज हो जाएं और हमें बताए ही नहीं कि किस बात से तो हमें पता कैसे लगे। अग्रज से थोड़ी बहुत विनोद का रिश्ता भी हो और कभी विनोद में कोई गुस्ताखी हो जाए तो हमें तो पता भी न लगे कि हुआ क्या है? डाक्टर अमर कुमार जी हमारे अग्रज हैं, वैसे अग्रज जिन की डाँट भी भली लगती है। पर इतना नाराज कि हम से खफा भी हैं और डाँट भी नहीं रहे हैं तो मामला कुछ गड़ बड़  है भाई। हम ने उन से अनुरोध तो कर दिया है। भाई अकेले में नहीं सरे राह डाँट लें। हम डाँट खाने को तैयार खड़े हैं और वे हैं कि डाँट भी नहीं रहे हैं। खैर हैं तो अग्रज ही, जब उन्हें फुरसत हो, तब डाँट लें साथ में हमारी गुस्ताखी भी जरूर बताएँ, हम एडवांस में कान पकड़ कर दस बैठकें लगा चुके हैं अब तक। जब तक न बताएंगे ये सुबह शाम दस-दस चलती रहेंगी। जब भी कोई अग्रज हमें डाँटता है, शुभ शकुन होता है, हमारी उम्र बढ़ जाती है। अब देखिए हमारी उम्र कब  बढ़ती है?

शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

सब से प्राचीन परंपरा, रोट पूजा, ऐसे हुई

रोट या रोठ? मेरे विचार में रोट शब्द ही उचित है। क्यों कि यह रोटी का पुर्लिंग है, और हिन्दी में आकार में छोटी और पतली चीजों को जब वे बड़ी या मोटी होती हैं तो उन का पुर्लिंग बना कर प्रयोग कर लिया जाता है। पर मेरे यहाँ हाड़ौती में उस का उच्चारण रोठ हो गया है जैसा कि अन्य अनेक शब्दों में उच्चारण में हो जाता है। पिछले आलेख पर आई प्रतिक्रियाओं से एक बात और स्पष्ट हुई कि यह परंपरा मालवा में केवल नाम मात्र के परिवारों में है, लेकिन उत्तर प्रदेश में बड़ी मात्रा में जीवित है। हमारे परिवारों में यह परंपरा सब से प्राचीन प्रतीत होती है, संभवतः इस का संबंध हमारे पशुपालक जीवन से खेती के जीवन में प्रवेश करने से है, इस का धार्मिक महत्व उतना अधिक नहीं जितना उत्पादन की उस महान नयी प्रणाली खेती के आविष्कार से है, जिस से मनुष्य जीवन अधिक सुरक्षित हुआ। अपने निष्कर्ष अंकित करने के पहले रोट या रोठ की इस कहानी को पूरा कर लिया जाए।
रोट के लिए मोटा आटा दो दिन पहले ही पड़ौसी की घरेलू-चक्की पर शोभा (मेरी पत्नी) पीस कर तैयार कर चुकी थी। एक दिन पहले उस ने सारे घर की सफाई की, विशेष तौर पर रसोईघर की। सारे बरतन धो कर साफ किए। अलमारियों में बिछाने के कागज बदले गए। जब दिन में यह काम पूरा हो गया तो शाम के वक्त बाजार से आवश्यक घी, चीनी और पूजा सामग्री आदि को ले कर आई। केवल दो चीजें लाने को रह गईं। एक दूध जो सुबह ताजा आना था और दूसरे पूजा के लिए कोरे नागरबेल के पान।
कल सुबह ही उस ने फिर पूरे घर को साफ किया। चाय आदि पीने के बाद रसोई की धुलाई की। मुझे ताजा दूध व पान लाने भेजा गया। मैं पान छोड़ आया, उन्हें मैं दोपहर अदालत से वापस आने के वक्त लाने वाला था। इस पूजा में सम्मिलित होने के लिए बेटे को कहा गया था, वह इंदौर से दो दिन पहले ही आ चुका था। बेटी मुम्बई में होने से आ ही नहीं सकती थी।
अब शुरू हुआ शोभा का काम। स्नान और पूजादि से निवृत्त हो कर उस ने रसोई संभाली। दूध-चावलों की केसर युक्त खीर सब से पहले बनी। फिर हुआ रोटों के लिए आटा चुनना। तौल कर आटे की तीन ढेरियाँ बनाईँ। दो सवा-सवा किलो की और एक ढाई किलो की। अब उन का संकल्प शुरु हुआ। एक हाथ में साबुत धनिया, चने की दाल कुछ जल और दक्षिणा का रुपया ले कर पहला सवा किलो आटे का संकल्प कुल देवता अर्थात् नागों के लिए छोड़ा गया। दूसरा सवा किलो परिवार की बेटियों के लिए, और तीसरा अढ़ाई किलो का संकल्प हम पति-पत्नी के लिए। हमारे एकल परिवार के स्थान पर संयुक्त परिवार होता तो जितने जोड़े होते उतने ही अढ़ाई किलो के भाग और जोड़े जाते। तीनों भागों को अलग अलग बरतनों में रखा गया। तीनों में देसी घी का मौइन मिलाया गया, उन्हें अलग अलग गूंथा गया, वह भी जितना गाढ़ा गूंथा जा सकता था, उतना।
सब से पहले कुल देवता नागों के भाग के सवा किलो आटे का एक ही रोट बेला गया। जिस का व्यास कोई एक फुट रहा और मोटाई करीब एक इंच से कुछ अधिक। इसे सेंकने के लिए रखा गया। सेंकने के लिए मिट्टी का उन्हाळा लाया गया था। यह एक छोटे घड़े के निचले हिस्से जैसा होता है। घड़ा ही समझिए, बस उस के गर्दन नहीं होती। उस पर कोई रंग नहीं होता। उसे उलटा कर चूल्हे पर चढ़ा दिया जाता है। अब लकड़ी के चूल्हे तो हैं नहीं, इस कारण उसे गैस चूल्हे पर ही चढ़ा दिया जाता है।  गैस के जलने से उन्हाळा गरम होने लगता है और इस उन्हाले की पीठ पर रोट को रख दिया जाता है। उन्हाळे की पीठ गोल होने से उलटे तवे जैसी हो जाती है। उस पर सिकता रोट भी बीच में से गहरा और किनारों पर से उठा हुआ एक तवे जैसी आकृति में ढल जाता है। इसे उन्हाळे पर उलट कर नहीं सेका जा सकता क्यों कि ऐसा करने से रोट टूट सकता है। एक तरफ सिकने के बाद रोट उतार लिया जाता है और उंगलियों से उस में गहरे गड्ढे बना दिए जाते हैं। फिर उसे कंड़ों की आँच में सेका जाना चाहिए, लेकिन अब उन के स्थान पर गैस ओवन आ गया है। रोट को ओवन में सेंका गया। इस सवा किलो आटे के रोट को सिकने में करीब डेढ़ घंटा से कुछ अधिक समय लगा।
बाकी जो दो हिस्से थे उन में से ढाई किलो आटा जिस का संकल्प हम पति-पत्नी के लिए छोड़ा गया था में से आधा आटा निकाल कर अलग रख दिया गया और करीब आधे का एक रोट बनाया गया। तीसरा हिस्सा बेटियों का था। बेटी उपलब्ध नहीं थी, इस कारण कोई दो सौ ग्राम आटे का एक रोट बनाया गया और शेष आटे को अलग से रख दिया गया। इस तरह कुल तीन रोट बने। इस बीच मैं अदालत चला गया और वहाँ का काम निबटा कर दो बजे वापस लौटा। रास्ते में पान लेने रुका, वहाँ बेटे का फोन आ गया कि जल्दी घर पहुँचूँ।
रसोई घर की पश्चिमी दीवार पर (अन्य कोई दीवार खाली न होने से अन्यथा यह पूरब की होती) खड़िया से लीप कर करीब सवा गुणा सवा फुट का एक आकार बनाया गया था। लकड़ी जला कर कच्चे दूध में बुझा कर बनाए गए कोयले को कच्चे दूध में ही घिस कर बनाई गई स्याही से इस आकार पर एक मंदिर जैसा चित्र बनाया गया और उसमें बीच में पांच नाग आकृतियाँ बनाई गई थीं। मन्दिर के उपर एक गुम्बद और पास में ध्वज फहराता हुआ अंकित किया गया था। ऊपर के दोनों कोनों पर सूरज और चांद बनाए गए थे। सब से नीचे मंदिर का द्वार बनाया गया था। यही हमारे कुल देवता थे। हो सकता है यह कुल देवता हमारे पशुपालन से पहले रहे वनोपज एकत्र कर जीवन यापन करने के दिनों में हमारे कबीले के टोटेम रहे हों और जिन की स्मृति आज तक इस परंपरा के रूप में हमारे साथ है। यहाँ मैं शिकारी-जीवन शब्द का प्रयोग शाकाहारी हो जाने के कारण स्वाभाविक संकोच के कारण नहीं कर रहा हूँ। इस मंदिर के आगे एक उच्चासन पर गणपति विराजमान थे। उन के आगे तीन थालियों में घी से चुपड़े हुए रोट रखे थे। रोट में घी भर दिया गया था, जिस में रुई की बनाई गई एक-एक बत्ती रखी थी। एक बड़ी भगोनी में खीर थी। एक दीपक, एक कलश जिस पर रखा एक नारियल।
दीपक जलाने से पूजा शुरू हुई। इस परंपरा को जीवित रखने का एकमात्र श्रेय जिस महिला अर्थात शोभा को है, वह बिना कहे ही बाहर चली गई। हम पिता-पुत्र ने पूजा आरंभ की। इस पूजा में और कोई नया देवता प्रवेश नहीं कर पाया, लेकिन गणपति यहाँ भी प्रथम पूज्य के रूप में उपस्थित थे। शायद वे भी कृषि जीवन के आरंभ के दिनों के हमारे कुल-गणों के मुखिया या देवता के रूप में मौजूद थे और आज तक हमारे ही साथ नहीं चले आए, अपितु भारत भर तमाम गणों के अलग अलग मुखियाओँ के एक सम्मिलित प्रतीक के रूप में स्थापित हो कर प्रथम पूज्य हो चुके हैं।
गणपति की पूजा के पश्चात पहले रोटों की और फिर नाग देवता की पूजा की गई। पहले नाग देवता के रोट में घी भर कर पूजा की वही सामान्य पद्धति, आव्हान, पद-प्रक्षालन, आचमन, स्नान, पंचामृत-अभिषेक, शुद्धस्नान, वस्त्र, सुगंध, चन्दन, रक्त चंदन या रोली का टीका, भोग, दक्षिणा, आरती और प्रणाम। विशेष कुछ था तो नाग देवता का प्रिय पेय कच्चा दूध। रोट की पूजा करने के पहले बड़े रोट पर रखी बत्ती जला दी गई थी। पूजा संपन्न होते ही हम पिता-पुत्र ने एक दूसरे को रोली-अक्षत का टीका कर समृद्धि की शुभ कामना की और लच्छे से दाहिने हाथ में रक्षा-सूत्र बांधा। नागदेवता वाले रोट पर जलती बत्ती को एक कटोरी से ढक दिया गया, ताकि उस की ज्योति हम दोनों के अलावा कोई और न देख ले। इस के बाद हम रसोई से बाहर निकले, पत्नी का पुनर्प्रवेश हुआ। उसने अपने और बेटियों के रोट की बत्ती जलाई और प्रणाम कर बाहर आई।
इस के बाद हम पिता-पुत्र को शोभा ने खीर-रोट परोसे और हम ने छक कर खाए, स्वाद के लिए साथ में कच्चे आम का अचार ले लिया गया। नाग देवता का जो रोट है वह हम दोनों पिता-पुत्र को ही खाना है, चाहे वह तीन दिनों में बीते। उसे और कोई नहीं खा सकता। यह रोट स्वादिष्ट और इतना करारा था कि हाथ से जोर से दबाने पर बिखरा जा रहा था, जिसे खीर में या अचार के मसाले के साथ मिला कर खाया जा सकता था। जोड़े का जो रोट है उसे परिवार का कोई भी सदस्य खा सकता है। लेकिन बेटियों का रोट केवल परिवार की बेटियाँ ही खा सकती हैं। शाम को जा कर बेटियों का रोट शोभा की बहिन की बेटी को देकर आए खीर के साथ, और बेटियों के रोट के संकल्प का शेष आटा भी उसी के यहाँ रख कर आए ताकि वह उसे काम में ले ले। शेष आटा जो बचा वह अनंत चतुर्दशी के पहले बाटी आदि बना कर काम में ले लिया जाएगा, और उस का समापन न होने पर गाय को दिया जाएगा। क्यों कि फिर आ जाएंगे श्राद्ध, तब बाटी नहीं बनाई जा सकतीं हैं। हम यह परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों के अलावा किसी को खिला तो दूर दिखा भी नहीं सकते ऐसी ही परंपरा है।
यह हुई रोट-कथा। इस परंपरा के बारे में मेरी अपनी समझ और इस के महत्व के बारे में आगे .......

गुरुवार, 28 अगस्त 2008

विधवा अपने नौकर के साथ विवाह करना चाहती है, आप की क्या राय है?

आज सुबह अदालत के लिए रवाना होने के पहले नाश्ते के वक्त टीवी पर एक समाचार देखा। एक विधवा माँ के तीन नाबालिग बच्चों ने पुलिस थाने में शिकायत कराई कि उन के पिता की मृत्यु के बाद उन की माँ घर के नौकर से विवाह करना चाहती है। वे अब अपनी मां के साथ नहीं रहना चाहते। उन्हें उन की माँ से उन के पिता का धन और घर दिला दिया जाए। माँ जहाँ जाना चाहे जाए।  अजीब शिकायत थी।

माँ और उस के प्रेमी नौकर को पुलिस थाने ले आया गया था। माँ कह रही थी कि यह सच है कि वह विवाह करना चाहती है। लेकिन इस में क्या परेशानी है। बच्चों को एक पड़ौसी के घर में बैठा दिखाया गया था। शायद बच्चों को उसी ने थाने तक पहुँचाया था। हो सकता है इस में मीडिया ने भी कोई भूमिका अदा की हो। समाचार दिखाने वाला बता रहा था... देखिए इस माँ को जिस ने  प्रेमी से विवाह करने के लिए बच्चों को घर से निकाल दिया। माँ थी कि मना कर रही थी कि वह कैसे अपने ही बच्चों को घर से निकाल सकती है। वह तो बच्चों को खुद अपने साथ रखना चाहती है।

मुझे यह समझ नहीं आया कि उस महिला का वह कौन सा अपराध था जिस के कारण उसे थाने में बुलाया गया था। जहाँ तक अन्वेषण का प्रश्न है तो वह तो मौके पर उस के घर जा कर भी किया जा सकता था। कुल मिला कर यह समाचार उस महिला के प्रति घृणा उत्पन्न कर रहा था।

मैं ने अदालत के रास्ते में दो तीन पुरुषों से बात की तो उन्हों ने  इस महिला को लानतें भेजीं। इन परिस्थितियों में लोगों ने यह भी कहा कि उस का प्रथम कर्तव्य अपनी संतानों को जीने लायक बनाने का है। यह भी कि जरूर उस महिला की गलती रही होगी।

जब मैं ने उन से यह कहा कि एक महिला जो हमेशा अपने पति पर निर्भर रही। उस ने सहारे से जीना सीखा। अब पति का सहारा उस के पास नहीं रहा। वह अपने शेष जीवनकाल के लिए उस का सहारा बन सकने वाला एक जीवनसाथी चाहती है, जिस के बिना उस ने  जीना सीखा ही नहीं। वह अपने बच्चों को भी पालना चाहती है। शायद उस ने सोचा हो कि वैधव्य की अवस्था में जहाँ अधिकांश पुरुष उसे गलत निगाहों से लार टपकाते हुए नजर आते हैं, वहाँ वह किसी एक के साथ विवाह क्यों न कर ले? लेकिन अपने बच्चों के प्रति जिम्मेदारी निभाते हुए कोई महिला विवाह करना चाहती है तो लोगों को क्यों आपत्ति होना चाहिए?

मैं ने जिन्हें किस्सा सुनाया उन्हें यह भी कहा कि मान लो कि पति के स्थान पर यह महिला मर गई होती और पति ने नौकरानी को अपने घर में ड़ाल लिया होता तब भी पुलिस का बर्ताव यही रहता? क्या तब भी पड़ौसी उस के बच्चों को पुलिस थाने पहुँचाते? क्या उस पुरुष के विरुद्ध किसी की उंगली भी उठती? तब क्या उस पुरुष को एक महिला के सहारे की उतनी ही आवश्यकता होती, जितनी उस की पत्नी को एक पुरुष की है?

इस पर लोगों ने कहा कि वाकई उस महिला के साथ ज्यादती हुई है।

लेकिन क्या आप लोग भी ऐसा ही सोचते हैं? या इस से कुछ अलग?

रविवार, 24 अगस्त 2008

महिलाएँ कतई देवियाँ नहीं, वे तो अभी बराबर का हक मांग रही हैं

अनवरत के पिछले आलेख "दया धरम का मूल है, दया कीजिए" जैसा कोई भी आलेख किसी भी ब्लाग पर कभी नहीं आना चाहिए था, और न ही आना चाहिए। लेकिन जिस तरह ब्लागिंग को व्यक्तिगत आक्षेपों का माध्यम बनाया जा रहा है, वह भी अपनी पहचान छिपा कर उसे निन्दनीय  के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता। वह केवल भर्त्सना के ही योग्य है।
किसी भी ब्लाग का उद्देश्य स्वयं को अभिव्यक्त करना, सहज हो कर विमर्श करना हो सकता है। विमर्श में विचारों में मत भिन्नता होगी ही, अन्यथा विमर्श का कोई लाभ नहीं हो सकता। लेकिन एक दूसरे पर कीचड़ उछालना, व्यंगात्मक टिप्पणियाँ करने से विमर्श नहीं होता, बल्कि वह समाप्त हो जाता है। विमर्श के चलते रहने की पहली शर्त ही यही है कि उस में एक दूसरे के प्रति सम्मान कायम रहे। मेरा यह सोचना है कि विचार अभिव्यक्ति की रक्षा  आवश्यक है, चाहे वह गलत ही क्यों न हो। हाँ गलत विचार का प्रतिवाद होना चाहिए। लेकिन विचारों और उन के प्रतिवाद सभ्यता की सीमा न लांघें अन्यथा बर्बर और सभ्य में क्या अंतर रह जाएगा?
 
सच का सवाल महत्वपूर्ण था कि महिलाओं को अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए संरक्षण जरूरी है? अन्यथा उन्हें इसी तरह अपशब्दों से नवाजा जाता रहेगा। मेरा सोचना है कि महिलाएँ संऱक्षण के बावजूद भी अपशब्द का शिकार होंगी। बराबरी के जिस संघर्ष में वे हैं उस के दौरान भी और उस के बाद भी। इस का प्रमाण है कि अपशब्द कहने के लिए यहाँ यह बहाना बनाया गया कि नारी और चोखेरबाली समूह की महिलाओं की टिप्पणियाँ यहाँ क्यों नहीं हैं? जब कि वे वहाँ थीं। महिलाएँ संरक्षण के जरिए इन अपशब्दों से नहीं बच सकतीं। यह पुरुष प्रधान समाज है। यहाँ जब भी पुरुषों की प्रधानता पर चोट पड़ेगी वे तिलमिलाएंगे और तिलमिलाहट में सदैव गाली का ही उच्चारण होता है, राम का नहीं। इस समाज में महिलाओं को बराबरी हासिल करनी है तो वह खुद के बल पर ही करनी होगी। कुछ पुरुष उन के मददगार हो सकते हैं, लेकिन वे इस बराबरी के संघर्ष को अपनी मंजिल तक नहीं ले जा सकते हैं।

जहाँ तक सामाजिक सच का सवाल है। यह समाज पुरुष प्रधान समाज है, और महिलाएँ पददलित हैं, इस तथ्य से इन्कार नही किया जा सकता। प्रत्येक गली, मुहल्ले, गाँव, नगर, प्रांत और देश में इस के उदाहरण तलाशने की आवश्यकता नहीं है। खूब बिखरे पड़े हैं। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को अधीनता की शिक्षा बचपन से दी जा रही है, वह अभी तक इस से मुक्त नहीं है। उसे तैयार ही अधीनता के लिए किया जाता है। बड़ी-बूढि़याँ और पिता व भाई इस हकीकत को जानते हैं कि स्त्री ने अधीनता को स्वीकार नहीं किया तो उस का जीना हराम कर दिया जाएगा, यह समाज एक-दो पीढ़ियों में बदलने वाला नहीं है। इस कारण वे बेटियों को अधीनता की शिक्षा देना उचित समझते हैं। अपने यहाँ आने वाली बहुओं का भी वे इसी तरह स्वागत करते हैं कि उसे बराबरी का हक नहीं मिले।

लेकिन मनुष्य समाज में बराबरी का हक वह विकासमान तत्व है, कि रोके नहीं रुकता। कुछ महिलाएँ उसे हासिल करने को जुट पड़ती हैं और किसी न किसी तरह उसे हासिल करती हैं। जब वे हासिल कर चुकी होती हैं, तो अन्य को भी प्रेरित करती हैं। कानून और प्रत्यक्ष ऱूप से पुरुषों को भी उन का साथ देना होता है।

इस का अर्थ यह भी नहीं कि महिलाएँ देवियाँ हैं। वे कतई देवियाँ नहीं। देवियाँ हो भी कैसे सकती हैं? वे तो अभी पुरुष से बराबर का हक मांग रही हैं। यह भी सच नहीं कि पुरुष कहीं भी महिलाओं द्वारा सताया न जाता हो। अनेक उदाहरण समाज में मिल जाएंगे जहाँ पुरुष महिलाओं द्वारा सताया जाता है। अनेक बार यह भी होता है कि पुरुष का जीना महिला दूभर कर देती है। लेकिन यह सामाजिक सच नहीं है। यह केवल सामाजिक सच का अपवाद है। सताए हुए पुरुष को महिलाओं द्वारा पुरुषों के समाज में बराबरी का हक मांगना नागवार गुजरता है। क्यों कि उन्हें अपना ही सच दुनियाँ का सामाजिक सच नजर आता है।  वे अपनी बात को वजन देने के लिए ऐसे उदाहरण तलाश करने लगते हैं जिन से महिलाओं को आततायी घोषित किया जा सके। उन्हें ये उदाहरण खूब मिलते भी हैं। वे उन्हें संग्रह करते हैं, और लोगों के सामने रखने के प्रयास भी करते हैं। वे यहाँ तक भी जाने की कोशिश करते हैं कि महिलाओं को प्रकृति ने पुरुषों के भोग और उन की सेवा के लिए ही बनाया है। हाल ही में यहाँ तक कहने का प्रयास किया गया कि अधिक पत्नियों वाला पति दीर्घजीवी होता है। 

हिन्दी ब्लाग-जगत इस तरह के प्रयासों से अछूता नहीं हैं। जब महिलाएँ सामूहिक कदम उठाती हैं तो इस तरह के लोगों को परेशानी होती है। उस का उत्तर वे तर्क से देने में असमर्थ रहते हैं तो अपशब्दों का प्रयोग करने लगते हैं। ऐसी हालत में महिलाओं के विरोध का यह जुनून एक रोग बन जाता है। किसी आगत रोग जो शरीर के बाहर के कारणों से उत्पन्न होता हो उस का निषेध यही है कि उसे घर में और सार्वजनिक स्थानों से हटा दिया जाए। ब्लाग पर उस का सही तरीका यही है कि टिप्पणियाँ ब्लाग संचालक की स्वीकृति के बाद ही ब्लाग पर आएँ, और उन को जवाब नहीं दिया जाए।

ऐसे पुरुष जो पुरुष प्रधान समाज में भी महिलाओं द्वारा सताए जाते हैं वे केवल दया और सहानुभुति प्राप्त करने की पात्रता ही रख सकते हैं। उन्हें चाहिए कि वे पूरे समाज के परिप्रेक्ष्य में स्वयं की परिस्थिति का आकलन करें और स्वयं की लडाई को सामाजिक बनाने का प्रयास न करें। क्यों कि वे सामाजिक रूप से वे ऐसा करेंगे तो ऐसी सेना में शामिल होंगे, हार जिस की नियति बन चुकी है। समाज आगे जा रहा है। वह महिलाओं की बराबरी के हक तक जरूर पहुँचेगा।

आज की परिस्थिति में महिलाओं द्वारा व्यक्तिगत रूप से सताए गए पुरुषों के पास केवल एक ही मार्ग शेष है। यदि समझ सकें तो समझें। मैं भाई विष्णु बैरागी की गांधी कथा से एक उद्धरण के साथ इस आलेख को समाप्त कर रहा हूँ .......

1931 की गोल मेज परिषद की बैठक। गांधी और अम्बेडकर न केवल आमन्त्रित थे अपितु वक्ताओं के नाम पर कुल दो ही नाम थे -अम्बेडकर और गांधी। गांधी का एक ही एजेण्डा था -स्वराज। उन्हें किसी दूसरे विषय पर कोई बात ही नहीं करनी थी। अम्बेडकर को अपने दलित समाज की स्वाभाविक चिन्ता थी। वे विधायी सदनों में दलितों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए पृथक दलित निर्वाचन मण्डलों की मांग कर रहे थे जबकि गांधी इस मांग से पूरी तरह असहमत थे। परिषद की एक बैठक इसी मुद्दे पर बात करने के लिए रखी गई। अंग्रेजों को पता था कि इस मुद्दे पर दोनों असहमत हैं। उन्होंने जानबूझकर इन दोनों के ही भाषण रखवाए ताकि दुनिया को बताया जा सके कि भारतीय प्रतिनिधि एक राय नहीं हैं-उन्हें अपने-अपने हितों की पड़ी है।
बोलने के लिए पहले अम्बेडकर का नम्बर आया। उन्होंने अपने धाराप्रवाह, प्रभावी भाषण में अपनी मांग और उसके समर्थन में अपने तर्क रखे । उन्होंने कहा कि गांधीजी को संविधान की कोई जानकारी नहीं है। इसी क्रम में उन्होंने यह कह कर कि ‘गांधी आज कुछ बोलते हैं और कल कुछ और’ गांधी को परोक्षतः झूठा कह दिया, जो गांधी के लिए सम्भवतः सबसे बड़ी गाली थी। सबको लगा कि गांधी यह गाली सहन नहीं करेंगे और पलटवार जरूर करेंगे। सो, सबको अब गांधी के भाषण की प्रतीक्षा आतुरता से होने लगी ।
गांधी उठे। उन्होंने मात्र तीन अंग्रेजी शब्दों का भाषण दिया -‘थैंक् यू सर।’ गांधी बैठ गए और सब हक्के-बक्के होकर देखते ही रह गए। बैठक समाप्त हो गई। इस समाचार को एक अखबार ने ‘गांधी टर्न्ड अदर चिक’ (गांधी ने दूसरा गाल सामने कर दिया) शीर्षक से प्रकाशित किया।
बैठक स्थल से बाहर आने पर लोगों ने बापू से इस संक्षिप्त भाषण का राज जानना चाहा तो बापू ने कहा कि “सवर्णो ने दलितों पर सदियों से जो अत्याचार किए हैं, उससे उपजे विक्षोभ और घृणा के चलते वे (अम्बेडकर) यदि मेरे मुंह पर थूक देते, तो भी मुझे अचरज नहीं होता”।

शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

आजाद भारत की बेटियाँ-2 ... ... ...ईश्वर कह रहा है ..... “मेरी रक्षा कीजिए"

कुछ दिन पहले मेरी बेटी पूर्वाराय द्विवेदी ने एक आलेख मुझे पढ़ने को भेजा था। वह एक जनसंख्या विज्ञानी (Demographer) है और अनतर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान, मुम्बई के आश्रा प्रोजेक्ट से वरिष्ठ शोध अधिकारी के रूप में सम्बद्ध है। मुझे लगा कि आजादी की 61वीं वर्षगाँठ पर आप सब के साथ इस आलेख को बांटना चाहिए। मैं ने इस का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद किया है। आलेख लंबा हो जाने से ब्लाग पाठकों के लिए इस के दो भाग कर दिए हैं, पहला भाग आप कल पढ़ चुके हैं। आज पढ़िए दूसरा और समापन भाग....
-दिनेशराय द्विवेदी

आजाद भारत की बेटियाँ-2

ईश्वर कह रहा है ..... “मेरी रक्षा कीजिए"
  • पूर्वाराय द्विवेदी

यह आम कहावत है कि बालकों की अपेक्षा, नवजात बालिकाओं में अधिक प्रतिरोध क्षमता अधिक होती है। समान रूप से विपरीत परिस्थितियों में नवजात बालिकाओं की संक्रमण से लड़ने और जीवित रहने की संभावनाएँ नवजात बालकोंसे अधिक होती है। यह विचार अनेक अध्ययनों से सही भी साबित हुआ है। लेकिन उस के बावजूद (एस.आर.एस. सेम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम द्वारा 2005 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार) जन्म लेने वाले 1000 स्त्री-शिशुओं में से 61 की मृत्यु हो जाती है। जब कि जन्म लेने वाले 1000 नर-शिशुओं में मरने वालों की संख्या 56 है। विगत एक सौ वर्षों से भारत की जनसंख्या के यौन अनुपात में लगातार स्त्रियों की कमी होती रही है। 1901 की राष्ट्रीय जनगणना में स्त्री-पुरुष अनुपात 1000 पुरुषों के मुकाबले 972 स्त्रियों का था। बाद की प्रत्येक जनगणना बताती है कि स्त्री-पुरुष अनुपात में स्त्रियों की संख्या उत्तरोत्तर कम होती गई है। 1991 की जनगणना में 1000 पुरुषों पर 927 स्त्रियाँ थीं। जो 2001 की जनगणना में बढ़ कर 933 हो गई हैं। इस तरह यहाँ स्त्रियों की संख्या में कुछ वृद्धि अवश्य होती दिखाई दे रही है। लेकिन 1991 में 6 वर्ष तक के बच्चों में लिंग अनुपात प्रति हजार बालकों पर 945 बालिकाओं का था, जो कि 2001 में घट कर मात्र 927 रह गया। इस तरह एक दशक में 18 बालिका प्रति हजार कम हो गया।
भारत सरकार द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ की बाल अधिकार समिति को प्रेषित रिपोर्ट में बताया है कि प्रत्येक वर्ष 1 करोड़ 20 लाख बालिकाएँ जन्म लेती हैं जिन में से 30 लाख उन का 15वाँ जन्मदिन नहीं देख पातीं, और उस के पहले ही काल का ग्रास बन जाती हैं। इन में से एक तिहाई जन्म से प्रथम वर्ष में ही मर जाती हैं, और यह आकलन किया गया है कि प्रत्येक छठी महिला की मृत्यु कारण लिंग-भेद है।
वर्ष 2001 की जनगणना से प्राप्त तथ्य कुछ और भी घोषणाएँ करते हैं। 26 राज्यों और संघीय क्षेत्रों के 640 नगरों और कस्बों से प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि नगरीय क्षेत्रों के पोश इलाकों में 6 वर्ष से कम के बालकों में प्रति हजार बालकों पर केवल 904 बालिकाएँ हैं। जब कि भीड़ भरी तंगहाल झुग्गी-झोंपड़ियों के इलाकों में प्रति हजार बालकों पर 919 बालिकाएँ हैं। राजधानी दिल्ली के पोश इलाकों और झुग्गियों में यह अनुपात क्रमशः 919 और 857 ही रह जाता है। स्पष्ट है कि यह कारनामा वहाँ हो रहा है, जहाँ लोग होने वाली संतान के लिंग का चुनाव करने में अर्थ-सक्षम हैं और तकनीक का उपयोग कर रहे हैं। यहाँ इस बात की कोई गारंटी नहीं कि एक लड़की जो भ्रूण हत्या, और शिशु हत्या से बच गई है, और आदतन उपेक्षा-चक्र की शिकार नहीं होगी, जो उस की मृत्यु का कारण बन सकता है, क्योंकि उसे भोजन कम मिलेगा, दुनियाँ को जानने के अवसरों के स्थान पर उसे किसी काम में ठेल दिया जाएगा और उस के स्वास्थ्य और चिकित्सा भगवान भरोसे रहेगी।
1952 में भारत भी उन देशों में से एक था जिन्हों ने सर्वप्रथम परिवार नियोजन। हमारी त्रासदी है यह रही कि हम इस भ्रान्त धारणा को लेकर चले कि एक पुरूष उत्तराधिकारी पर्याप्त है। लेकिन कितने लोगों ने इस वास्तविकता को समझा कि एक पुरूष उत्तराधिकारी को जन्म देने के लिए एक स्त्री भी जरूरी है। जैविक रूप में वह संतान की संवाहक है। पूरे देश में बालिकाओं के साथ असमानता का व्यवहार जारी है। पुत्रियाँ एक दायित्व समझी जाती हैं। हरियाणा में एक लिंग निर्धारण क्लिनिक के बाहर लिखा है..... बाद में 50,000/- रुपए (दहेज) के स्थान पर अभी 50/-रुपए खर्च करें स्त्रियाँ कानून का रास्ता चुनने के लिए भी स्वयं सक्षम नहीं हैं। उन्हें किसी दहेज, क्रूरता और यौन शोषण की शिकार होने पर अपने पति, ससुराल वालों और माता-पिता के विरुद्ध खड़े होने के लिए अतिसाहसी होना पड़ेगा। बाल-विवाह बालिकाओं के विकास और उन के अधिकारों को बाधित कर देता है।
एक गर्भवती को आवश्यक चिकित्सा के लिए अपनी सास या पति पर निर्भर रहना पड़ता है। स्त्री के विरुद्ध अत्याचार बढ़ रहे हैं। प्रत्येक 26 मिनटों में एक स्त्री उत्पीड़ित होती है, प्रत्येक 34 मिनटों में एक बलात्कार की शिकार, प्रत्येक 42 मिनटों में एक के साथ यौन उत्पीड़न होता है, प्रत्येक 43 मिनट में एक का अपहरण और प्रत्येक 93 मिनट में एक दहेज की आग में भस्म हो जाती है। 16 से कम उम्र की बालिकाओं के साथ बलात्कार के कुल मामलों में से एक चौथाई की कभी रिपोर्ट ही दर्ज नहीं होती।
अब भारत सरकार त्यक्त बालिकाओं के लिए एक क्रेडल स्कीम की योजना बना रही है। इस योजना में प्रत्येक जिले में एक ऐसा केन्द्र बनाने की योजना है जिस में माता-पिता ऐसी बालिकाओं को छोड़ सकते हैं जिन की वे स्वयं परवरिश नहीं कर सकते या करना नहीं चाहते। लेकिन शिशु हत्या को रोकने के लिए काम करने वाली गैर सरकारी संस्थाएँ महसूस करती हैं कि लोग संतान पैदा करेंगे और फिर सरकार की सुरक्षा में छोड़ देंगे, जिस से समाज में एक गलत संदेश छूटेगा। तमिलनाडु में जहाँ यह योजना लागू कर दी गई है सफल नहीं हो सकी है।
इस तथ्य को ध्यान में रखे बिना कि आप की होने वाली संतान लड़का है या लड़की, माँ बनना ईश्वर का सब से महान उपहार है। अब वह समय आ चुका है जब बालिकाओं के प्रति अवांछित भेदभाव की समाप्ति के लिए पहल की जाए। बालिकाओं को आजादी के अधिकार, शिक्षा के अधिकार और जन्म लेने के अधिकार प्राप्त होने ही चाहिए। वे जैविक रूप से बालकों से अधिक मजबूत होती हैं, उन्हें पर्याप्त पोषण, स्वास्थ्य सुविधाएँ और शिक्षा प्राप्त होनी ही चाहिए। उन्हें अपनी क्षमताओं का विकास करने और उन्हें सिद्ध करने का अवसर मिलना ही चाहिए। माँ के रूप में स्त्रियों पर अपनी संतानों को बेहतर जीवन मूल्यों, सांस्कृतिक विश्वासों और सदाचरण की शिक्षा का दायित्व है। उन्हें मानसिक और भावनात्मक रूप से मजबूत तथा बौद्धिक रूप से शिक्षित होना ही होगा। स्त्रियाँ सबसे बेहतर साधिकाएँ हैं, वे समाज में कर्मठता, समानता, सहयोग और मानवता लाती हैं और जो अंततोगत्वा समाज को जीने लायक संवेदनशील और शांतिपूर्ण समूह में बदलती हैं।
प्रत्येक बालक को अपने जीवन के प्रारंभ के वर्षों में पोषण और बुद्धिमान निर्देशन की आवश्यकता है। इस काल में एक स्त्री ही अपनी संतानों को जीवन की अच्छाइयाँ सीखने में मदद करती है। उन्हीं स्त्रियों में शिक्षा का अभाव होना व्यक्तिगत ही नहीं, संपूर्ण राष्ट्र की क्षति है।
एक बालिका प्रत्येक राष्ट्र का भविष्य है और भारत इस का अपवाद नहीं हो सकता। एक बालिका के जीवन में थोडा सा संरक्षण, एक संवेदनासम्पन्न हाथ और एक प्यार भरा दिल बहुत बड़ा परिवरतन ला देता है। अपनी आँखें बंद कीजिए, अपने सोच को स्वतंत्र कर दीजिए, और ईश्वर की पुकार सुनिए ¡ वह हम सब से कुछ कह रहा है ..... मेरी रक्षा कीजिए
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सूचना ...

आलेख के पूर्वार्ध पर "सच" की टिप्पणी व अन्य टिप्पणियों पर बात अगले आलेख में........... 

 

गुरुवार, 14 अगस्त 2008

आजाद भारत की बेटियाँ

कुछ दिन पहले मेरी बेटी पूर्वाराय द्विवेदी ने एक आलेख मुझे पढ़ने को भेजा था। वह एक जनसंख्या विज्ञानी (Demographer) है और अनतर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान, मुम्बई के आश्रा प्रोजेक्ट से वरिष्ठ शोध अधिकारी के रूप में सम्बद्ध है। मुझे लगा कि आजादी की 61वीं वर्षगाँठ पर आप सब के साथ इस आलेख को बांटना चाहिए। मैं ने इस का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद किया है। आलेख लंबा हो जाने से ब्लाग पाठकों के लिए इस के दो भाग कर दिए हैं, दूसरा और अंतिम भाग कल 15अगस्त की सुबह आप यहाँ पढ़ सकते हैं.....

 

आजाद भारत की बेटियाँ

  • पूर्वाराय द्विवेदी
61 वर्ष पूर्व आजादी हासिल होने पर ‘यूनियन जैक’ के स्थान पर लाल किले पर पहला तिरंगा फहराने वाले भारतीय प्रधानमंत्री और विचारक जवाहर लाल नेहरू ने सच कहा था कि आप किसी भी देश की स्थितियों का पता उस की महिलाओं की हालत को देख कर लगा सकते हैं।
हम भारतवासी पृथ्वी को ‘धरती-माता’ और अपने राष्ट्र को ‘भारत-माता’ कहते नहीं अघाते, और खुद को देवियों के परम भक्त प्रदर्शित करते हैं। लेकिन, क्या यह सही नहीं कि हमारी भक्ति केवल कुछ मौखिक शब्दों तक ही सीमित है? एक और हम माँ-दुर्गा, माँ-सरस्वती और माँ लक्ष्मी को देवी कह कर पूजा करते हैं और दूसरी ओर हम अपनी ही बेटियों को शिक्षा, वस्त्र, पोषण, और स्वास्थ्य से वंचित रखते हैं। यहाँ तक हम उन्हें जन्म लेने की इजाजत तक नहीं देते। हम ईश्वर के मूल्यवान उपहार, एक बालिका को जन्म से पहले ही मार देते हैं।

शताब्दियों से लड़कियाँ उपेक्षित हैं, और सदैव माता-पिता पर आर्थिक और नैतिक दायित्व मानी जाती हैं। भारत के गांवों में लड़कियों से चार और पांच वर्ष की नाजुक/कमसिन उमर में घरों पर काम लेना शुरू हो जाता है, वे विकसित होने की सुविधा से वंचित कर दी जाती हैं। घरों पर किए गए उन के श्रम को किसी भी तरह नहीं नवाजा जाता। जब कि बेटों द्वारा वैसे ही काम यदा-कदा कर लिए जाने पर उन की प्रशंसा में कसीदे पढ़ना प्रारंभ हो जाता है। लड़कियों पर घरेलू कामों का भार लड़कों की अपेक्षा लड़कियोँ पर बहुत अधिक रहता है। वे अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल, बरतनों की सफाई, पानी भरने, ईंधन एकत्र करने और पालतू पशुओं की देखभाल करने जैसे काम करते हुए परिवार की आय में अप्रत्यक्ष रुप से अपना महत्वपूर्ण योगदान करती हैं। उन से खेती के कुछ काम जैसे फसलों की निन्दाई-गुड़ाई और कटाई आदि भी कराए जाते हैं। अक्सर वे उन के माता-पिता या परिवार के अन्य सदस्यों को खेतों पर भोजन देने जाने का काम भी करती हैं। जिस उम्र में उन्हें दुनियां भर की विभिन्न चीजों का ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, उसी उम्र में उन्हें घरों के कामों में जोत दिया जाता है।

भारत और कुछ पड़ौसी देशों में लड़कियों के प्रति यह पूर्वाग्रह इस विश्वास पर आधारित है कि “पुत्र परिवार के लिए कमाई करेंगे और वंश को चलाएंगे”। इस तरह पुत्रों को भविष्य की बीमा पॉलिसी समझा जाता है, जब कि पुत्रियों को नहीं। पुत्रियों को परिवार का अस्थाई और बाहर जाने वाला सदस्य समझा जाता है। वे हमेशा ही दूसरे की अमानत होती हैं। अत्यन्त कमसिन बचपन में ही सेवा, अधीनता, त्याग, विनम्रता और आज्ञाकारिता के मूल्यों को वहन करने के लिए उन का प्रशिक्षण आरंभ हो जाता है। बच्चे पैदा करना, उन की देखभाल करना और घरों की जिम्मेदारियाँ उठाना ही नारियों की भूमिका समझी जाती है। वे परिवार के लिए मात्र एक बोझा समझी जाती हैं।

तमिलनाडु की एक महिला ने जिस के पहले से ही एक बेटी थी, जब दूसरी बेटी को जन्म दिया तो उसे तीसरे दिन ही मार डाला। उस ने अपनी दूसरी बेटी को मात्र तीन दिनों के जीवन में भी अपना दूध पिलाने से इन्कार कर दिया। जब शिशु बेटी भूख से चिल्लाने लगी तो उस ने उसे ऑलिएन्डर की झाड़ी के पत्तों से निचोड़े हुए दूध और अरंडी के तेल को साथ मिला कर बनाया गया जहरीला पेय जबरन शिशु के गले से नीचे उतार दिया। शिशु की नाक से रक्त निकला और वह जल्दी ही मर गई। दूसरी औरतों ने उस महिला के साथ सहानुभूति प्रदर्शित की, क्यों कि उस परिस्थिति में होने पर वे खुद भी शायद यही करती, जो उस महिला ने किया। किसी के पूछने पर कि उसने कैसे अपनी ही बेटी को मार दिया? उसने दृढ़ता से जवाब दिया - एक बेटी हमेशा एक बोझा होती है, फिर कैसे मैं दूसरी बेटी को अपने जीवन में स्थान देती? वह जीवन भर नर्क भोगती, इस से पहले ही मैं ने उसे इस (नर्क) से मुक्ति दे दी। (यह घटना विवरण मादा शिशुओं की मृत्यु पर भारत-और चीन में किए गए एक अध्ययन से लिया गया है)

यह मात्र एक मामला नहीं, इसी तरह की बहुत सी बेटियाँ उन की माताओं या परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा इस दुनियाँ में आने से पहले ही, अथवा तुरंत बाद मार दी जाती हैं। अक्सर कहा जाता है कि भगवान ने ‘माँ’ को इस लिए बनाया कि वह खुद हर स्थान पर उपस्थित नहीं रह सकता। ऐसी हालत में यह अविश्वसनीय ही होगा कि भगवान की यह प्रतिनिधि (‘माँ’) भगवान की इन सुन्दरतम कृतियों का जीवन इस दुनियाँ में आने और प्रकृति की सुन्दरता को देखने के पहले ही छीन लेती है। यही स्थितियाँ आज भी देश के विभिन्न भागों में मौजूद हैं। मादा भ्रूण और शिशु हत्याओं के लिए महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान, तमिलनाडु और पंजाब जैसे राज्यों का बड़ा नाम है।
गरीबी, लिंग-भेद तथा पुत्र प्रधानता के मूल्य एक बालिका के पोषण की स्थिति को भी बुरी तरह प्रभावित करते हैं। देश में साढ़े सात करोड़ से अधिक बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इनमें भी तीन चौथाई अर्थात पाँच करोड़ से अधिक केवल बालिकाएँ हैं, जो गंभीर रुप से कुपोषण की शिकार हैं। जो लड़कियाँ कुपोषण की इस कठोर अवधि को झेल कर जीवित रह जाती हैं, उन में से अधिकांश किशोरावस्था में ही असामाजिक तत्वों के जाल में फंस जाती हैं। जब कि उन की यह उम्र में उन की सामान्य वृद्धि और शारीरिक विकास के लिए भरपूर पोषण प्राप्त करने की होती है। दुर्भाग्यवश बेटियों की पोषण की आवश्यकताओं की घोर उपेक्षा की जाती है और उन्हें अक्सर घरों की चारदिवारियों में बंद कर दिया जाता है। किशोरावस्था में कुपोषण से लड़कियों के प्रजनन स्वास्थ्य में अनेक गंभीर समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। ये प्रजनन स्वास्थ्य समस्याएँ कम उम्र में विवाह, बिना उचित अंतराल के गर्भधारण, पारंपरिक प्रथाओं और परिवार नियोजन सम्बन्धी सूचनाओं तथा ज्ञान के अभाव आदि के कारणों से अधिक उग्र रूप धारण कर लेती हैं।(जारी)