गणतंत्र दिवस की रात को कोटा से बाहर जाना हुआ और 31 जनवरी की रात को वापसी हुई। पहली फरवरी को रविवार था और सोमवार को सुबह 6 बजे फिर ट्रेन पकड़नी थी। कल रात ही वापस लौटा हूँ। मैं चाहता था कि इस बीच कुछ आलेख सूचीबद्ध कर जाऊँ। लेकिन यह संभव नहीं हो सका। पहली यात्रा के दौरान मुझे अंतर्जाल उपलब्ध भी हुआ। लेकिन वहाँ से कोई आलेख लिख पाना संभव नहीं हो सका। हाँ कुछ चिट्ठों पर टिप्पणियाँ अवश्य कीं।
दोनों यात्राएँ बिलकुल निजि थीं। लेकिन चिट्ठाकारी, जैसा कि इस का नाम है, निजत्व का सार्वजनीकरण ही तो है। निजत्व का यही सार्वजनीकरण चिट्ठाकारों और पाठकों के बीच वे रिश्ते कायम करता है जो यदि बन जाएँ तो शायद बहुत ही मजबूत होते हैं। ऐसे रिश्ते जो शायद वर्गहीन साम्यवादी, समतावादी समाज में विश्वास करने वाले लोगों के सपनों में होते हैं। जिन के बीच किसी तरह का बाहरी कारक नहीं होता और जो केवल मानवीय आधार पर टिके होते हैं। जिन्हें प्रेम, प्यार, मुहब्बत के रिश्ते कहा जा सकता है। ये रिश्ते किसी आम को चूस कर कूड़े के ढेर पर फेंकी हुई गुठली के बरसात में अनायास ही बिना किसी की इच्छा, आकांक्षा और प्रयत्न के ही अंकुरा कर पौधे में तब्दील हो जाने की तरह अंकुराते हैं। बस जरूरत है तो इतनी कि इस अंकुराए पौधे को पूरी ममता और स्नेह से कूड़े के ढेर से उठा कर किसी बगिया की क्यारी में रोप कर खाद पानी देते हुए वहाँ तक सहेजा जाए जहाँ वह रसीले, सुस्वादु और मीठे फल देने लगे।मैं ने इन दोनों यात्राओं में इन गुठलियों का अंकुराना, अंकुराए पौधों का ममता और स्नेह के साथ कूड़े के ढेऱ से हटाया जाना और किसी बगिया की क्यारी में रोपना, सहेजना महसूस किया है। उन के फलों की मृदुलता तो अभी चखी जानी शेष है, लेकिन किशोर पौधों पर पहली पहली बार आए आम के बौरों की नैसर्गिक गंध और सौंदर्य का अहसास भी हुआ है।
बेटा वैभव चार माह से उल्लेख कर रहा था कि उसे एमसीए के आखिरी पड़ाव में किसी उद्योग में कोई प्रोजेक्ट करते हुए प्रशिक्षण प्राप्त करना होगा। वह प्रयासशील भी था कि इस के लिए कोई अच्छी जगह उसे मिले। मैं ने जिन्दगी के मेले ब्लॉग के ब्लागर बी एस पाबला जी से इस का उल्लेख किया तो उन्हों ने दो दिन बाद ही कहा कि वैभव को तुरंत भेज दें, उस की ट्रेनिंग यहाँ भिलाई में हो जाएगी। उन्हें तो यह भी पता न था कि वैभव की सेमेस्टर परीक्षा ही जनवरी में समाप्त होगी और उस के बाद ही उसे ट्रेनिंग करनी है। मगर यह तय हो गया कि वैभव को भिलाई में ही ट्रेनिंग करनी है।
इस बीच बेटी पूर्वा जो अपने अंतिम शिक्षण संस्थान अंतर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान (आईआईपीएस) के आश्रा प्रोजेक्ट में वरिष्ठ शोध अधिकारी थी अपने प्रोजेक्ट के पूरा होने तक किसी नए काम की तलाश में थी। उसे पूना के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल (केईएम) द्वारा एक अंतर्राष्ट्रीय संस्थान की सहायता से किए जा रहे व्यापक जन स्वास्थ्य सेवाओं के पायलट प्रोजेक्ट में स्टेटीशियन कम डेमोग्राफर के पद के लिए साक्षात्कार के लिए आमंत्रण मिला और उस का पूना जाना तय हो गया।
साक्षात्कार के लिए मुंबई से पूना जाना वैसा ही था जैसे मैं सुबह कोटा से जयपुर जा कर उच्चन्यायालय में किसी मुकदमे की बहस कर शाम को कोटा वापस लौट आऊँ। लेकिन पूर्वा कभी पूना गई नहीं थी, उस के लिए वह अनजाना नगर था। उसने बताया कि वह पूना जा कर उसी दिन वापस आ जाएगी। लेकिन इस बताने ने ही घर में प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिए। एक माँ सवाल करने लगी, कैसे जाएगी? कौन साथ जाएगा? अकेली गई तो बस से जाएगी या ट्रेन से? वहाँ कैसे पहुंचेगी? एक पिता के पास इन सवालों का कोई उत्तर नहीं था। केवल एक विश्वास था कि उस की बेटी यह सब सहजता से कर लेगी। पर माँ कैसे इन सब का विश्वास कर पाती। उस ने प्रस्ताव दिया कि आप को जाना चाहिए बेटी का साक्षात्कार कराने के लिए। बेटी कहने लगी, रिजर्वेशन नहीं मिलेगा और इस काम के लिए आप के मुंबई आने की जरूरत नहीं है। बेटी की योग्यताओं से विश्वस्त माँ की चिन्ताएँ इस से कैसे समंझ पातीं? उस के सवालों का कोई उत्तर मेरे पास नहीं था। उत्तर तलाशते हुए मुझे दो ही नाम याद आए। मुम्बई में कुछ हम कहें की चिट्ठाकार अनीता कुमार जी और उन के जीवन साथी विनोद जी। पूर्वा अनिता जी से पूर्व परिचित थी और उन से बहुत दूर नहीं रहती थी। पूना में याद आए ओझा-उवाच और कुछ लोग ... कुछ बातें... के ब्लॉगर अभिषेक ओझा।
पूर्वा ने चैम्बूर बस स्टॉप जा कर पूना जाने वाली बसों का पता किया तो वहाँ वह असमंजस में आ गई कि उसे किस बस से जाना चाहिए जिस से वह सुबह दस बजे तक पूना पहुंच सके। उस ने मुझे बताया तो मैं ने अनिता जी से संपर्क किया। उन्हों ने सवाल विनोद जी के पाले में डाल दिया, विनोद जी बोले हम सुबह खुद जाएँगे और पूर्वा बिटिया को सही बस में बिठा आएँगे। पूर्वा की तो बस की खोज समाप्त होने के साथ बस तक का सफर स्कीम में मिल गया। उधर अभिषेक ओझा बता रहे थे कि मैं पूर्वा से बात कर लूंगा कि वह किस बस से कहाँ उतरेगी। हम ने दोनों ही स्थितियाँ पूर्वा की माताजी को बता दीं। वे तनिक आश्वस्त हो गयीं। (जारी)
(चित्रों में अनिता कुमार जी और अभिषेक ओझा)
19 टिप्पणियां:
वाह!! देखिये कितनी बड़ी उपलब्धि है यह ब्लॉगिंग की..पूरा विश्व एक परिवार हुआ जा रहा है. कहीं कुछ अनजाना सा नहीं..कहीं कुछ अजनबियत नहीं.
आनन्द आ गया संस्मरण पढ़कर-आगे इन्तजार है.
कुल मिला के आपकी यात्रा सफल रही. बधाईयाँ.
रिश्तों की मिठास बढने लगी है।समीर जी सही कह रहे हैं सारा विश्व एक परिवार हुआ जा रहा है।अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा।
बहुत मीठी लगी आपकी ये पोस्ट कब कोई कैसे हमसफर बन जाता है पता नही चलता।
एक माँ की चिंता तो आसानी से समझी जा सकती है. आगे की कड़ी का इंतज़ार है.
आधी बातें आपसे और वैभव से पहले ही पता चल चूका है, मगर विस्तार से पढने में भी आनंद आ रहा है.. :)
वैसे एक बात बताता हूँ.. मेरी जितनी भी मित्र हैं यहाँ अगर उन्हें कभी कहीं जाना होता है तो वे सभी काम खुद करना चाहती हैं.. मजबूरी में ही हमसे मदद मांगती हैं.. उन्हें आत्मनिर्भर देख कर ख़ुशी भी होती है.. मैं भी पूर्वा बहन के आत्मनिर्भर होने पर बहुत खुश होऊंगा.. आंटी जी को कहियेगा कि चिंता ना करने के लिए अगर पूर्वा कहीं अकेले जाती है तो..
पूर्वा और वैभव को ढेर सारी शुभकामनाएं.. :)
अरे वाह! केवल जूतमपैजारीयत्व ही नहीं है।
ब्लॉगरजाति है बड़े काम की चीज! :)
आपका यह यात्रा वृत्तान्त्र मेरे विश्वास की पुष्टि भी है और विश्वास भी। 'पत्र मैत्री' वाला भाव, ब्लाग के जरिए अब 'परिवार' का आकार लेने लगा है। आपकी इस पोस्ट में मैं खुद को पा रहा हूं। भावुक होने का यद्यपि कोई कारण नहीं है किन्तु 'सिंथेटिक' होते जा रहे इस समय में सम्बन्ध निर्माण की यह नई डगर अपने आप ही आंखों में सावन बसा रही है।
लम्बी अनुपस्थिति के बाद आप लौटे और जैसा कि भरोसा था, हम सबके लिए प्रेम की अकूत सम्पदा लेकर ही लौटे।
आपकी अगली पोस्टें, मात्र पोस्टें नहीं होंगी। वे तो प्रेम की बौछारें होंगी। ऐसी बौछारें, जिनका रुकना कष्टप्रद होगा।
कृपया मेरी टिप्पणी के पहले वाक्स को -
'आपका यह यात्रा वृत्तान्त्र मेरे विश्वास की पुष्टि भी है और विश्वास भी।' को इस प्रकार पढें-
'आपका यह यात्रा वृत्तान्त मेरे विश्वास की पुष्टि भी है और विस्तार भी।'
सही कहा तभी तो यह एक परिवार की तरह लगता है ...रोचक आगे इन्तजार है.
दिलचस्प संस्मरण है.....यही है शायद ब्लॉग की शक्ति .जारी रखिये
मुझे तो लगा यहाँ वसंत की चर्चा होगी और आपकी यात्रा में कुछ बगीचे और कोयल की कुक मिली होगी. पर यहाँ तो कुछ और ही निकला....
ये सभी अच्छे लोग है वरना मैं तो कभी किसी से कोई मदद नहीं लेता (देता हूँ ,देता आया हूँ !) एकाध बार मदद चाहीए तो मिली ही नहीं ! अब ब्लॉगर बिरादरी नई है न इसलिए अभी रिश्तों की खूबसूरती और गर्माहट बनी हुई है -देखिये कब तक ! और एपी जैसे हैं सभी को वैसा सोचते हैं ! मगर दुनिया तो बहुत जटिल है !
मन भीग गया पढ़कर थोड़ा सा....इस ब्लौग जगत का सचमुच कोई जोड़ नहीं...
संस्मरण के अगले हिस्से का बेसब्री से इंतजार है...
विगत कुछेक दिनों से आपकी अनुपस्थिति खल भी रही थी इस ब्लौ-जगत में
आप का लेख पढ कर वाह वाह तो मुंह से निकलती ही है, लगता है हम सब एक परिवार के ही है, आप के इस लेख यह तो लगता है अब जब भी भारत आये तो हम अपने को किसी भी शहर मै अपने को अकेला ना समझे, बहुत से भाई बहिन है अब हमारे.
आप क धन्यवाद
ब्लॉग परिवार के बारे में इस तरह कि मीठी पोस्ट पढ़कर हार्दिक खुशी हुयी. आपने जिस तरह आम के बौरों के साथ तुलना की है, बड़ा अच्छा लगा.
ये भी बढिया रहा !
यह लेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा। लोगों को अपना बनाना भी एक कला है। शायद आप इसमें निपुण हैं।
घुघूती बासूती
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