सोमवार, 3 जनवरी 2011
चर्चा या ब्लाग-पोस्ट सूची
शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009
वेबोल्यूशन्स की लेब और रायपुर के प्रेस क्लब में पुसदकर जी, संजीत त्रिपाठी और त्रयम्बक शर्मा से भेंट
रायपुर के लिए पाबला जी के घर से निकलते निकलते साढ़े दस बज गए थे। पाबला जी को वैन में एलाइनमेंट की समंस्या नजर आई। वैन को टायर वाले के यहाँ ले गए। पाबला जी के कहने पर उसने एलाइनमेंट का काम पन्द्रह मिनट में पूरा कर दिया। वैन बाहर आई तो अचानक ऐक्सीलेटर ने जवाब दिया। उसे दुरुस्त करा कर हम रायपुर के लिए रवाना हुए। मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि भिलाई से रायपुर तक सड़क के दोनों ओर उद्योगिक इकाइयाँ और खाली भूमि नजर आई लेकिन खेती का नामोनिशान तक न था। लगता था दुर्ग से ले कर रायपुर तक सब जगह केवल उद्योग हैं या बस्तियाँ। भिलाई में जरूर सघन वृक्षावली नजर आती हैं लेकिन वह भिलाई स्टील प्लाण्ट और टाउनशिप के निर्माताओं के प्रारूपण का कमाल है। भिलाई 52 कारखाने और उन का प्रदूषण होते हुए भी उस का असर इस वृक्षावली के कारण ही कम नजर आता है। पता नहीं कब नगर नियोजकों को यह गुर समझ आएगा कि नगर में भी बीच बीच में खेती और बागवानी के लिए भूमि आरक्षित की जाए तो प्रदूषण का मुकाबला करना कितना आसान हो सकता है?
ब्लागरी के बारे में बात चली तो अनिल जी कहने लगे कि यह एक ऐसा माध्यम है जहाँ अपने विचार बिना किसी संकोच, दबाव और प्रभाव के स्वतंत्रता पूर्वक रखे जा सकते हैं। वहाँ हाजिर सभी व्यक्ति सहमत थे। वहीं कार्टून वॉच के संपादक त्रयम्बक शर्मा आ गए और चर्चा में सम्मिलित हो गए। उन्हों ने मुझे और पाबला जी को पत्रिका के जनवरी अंक की एक-एक प्रति भेंट की। कार्टून वॉच को इंटरनेट पर भी देखा है। लेकिन पत्रिका के रूप में देखना बहुत अच्छा लगा। मुझे बरसों पहले प्रकाशित होने वाली एक मात्र पत्रिका शंकर्स वीकली का स्मरण हो आया। जिस का मैं नियमित ग्राहक था। यहाँ तक कि उस में प्रकाशित होने वाले कार्टूनों की नकल कर के अपने कार्टून बनाने के प्रयास भी किए। लेकिन कुछ समय बाद वह पत्रिका बन्द हो गई और हमारे कार्टूनिस्ट कैरियर का वहीं अंत हो गया। मैं ने त्रयम्बक जी ने बताया कि पत्रिका 12 वर्षों से लगातार निकल रही है और देश की एकमात्र कार्टून पत्रिका है। मैं इस तथ्य से ही रोमांचित हो उठा। मैं ने त्रयम्बक जी को उसी समय वार्षिक शुल्क दिया। उन्होंने उस की रसीद देने में असमर्थता जताई। लेकिन रसीद के रूप में पत्रिका का फरवरी अंक मुझे समय पर मिल गया। मेरी सोच यह है कि ब्लागरों को इस पत्रिका का शुल्क दे कर इस का ग्राहक बनना चाहिए। जिस से इस एकमात्र कार्टून पत्रिका को आगे बढ़ने का अवसर मिले। त्रयंबक जी को कहीं और काम होने से वे जल्दी ही चले गए। ...........आगे अगली कड़ी में
गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009
हबीबगंज से भिलाई तक
अगली बार नीन्द दो स्त्रैण ध्वनियों ने भंग की कूपा लगभग खाली था, सुबह की रोशनी खिड़कियों से प्रवेश कर रही थी। सामने वाली मिडल बर्थ को गिराया जा चुका था ट्रेन किसी प्लेटफॉर्म पर खड़ी थी। शायद वे दोनों वहीं से बैठी थीं और उन्हें छोड़ने वाले प्लेटफॉर्म पर खड़े उन्हें हिदायतें दे रहे थे। उन में एक अधेड़ होने का आतुर विवाहिता और दूसरी किशोरावस्था की अंतिम दहलीज पर खड़ी कोई छात्रा थी। मैं ने स्टेशन का नाम पूछा तो गोंदिया बताया गया। मुझे बीड़ियों का स्मरण हो आया, ब्रांड शायद तीस छाप रहा होगा। कोई कह रहा था, ट्रेन कोई एक घंटा लेट हो गई है, या हो जाएगी। तभी मोबाइल ने पाबला जी की धुन गुन गुनाई। पूछ रहे थे ट्रेन कहाँ पहुंची। मैं ने बताया, गोंदिया में खड़ी है। नागपुर में आधे घंटे से कुछ अधिक लेट थी। यहाँ लोग एक घंटे के करीब बता रहे हैं। बाकी का अनुमान आप खुद लगाएँ। उन्हों ने बताया कि वे दुर्ग प्लेटफॉर्म पर हमें खड़े मिलेंगे। अभी ढाई घंटों का मार्ग शेष था। मुझे नींद की खुमारी थी। मैं फिर से कंबलशरणम् गच्छामि हो गया।
इस बार आँखें खुली तो तुरंत मोबाइल में समय देखा गया। अभी आठ बीस हो रहे थे। डब्बे में विद्यार्थियों, विशेष रुप से छात्राओं की भारी संख्या थी। जैसे वह शयनयान न हो कर जनरल डब्बा हो। गाड़ी की देरी के स्वभाव को देखते हुए दुर्ग पहुँचने में अभी पौन घंटा शेष था। कुछ ही देर में किसी गाड़ी नगरीय सीमा में प्रवेश करती दिखाई दी। मैं ने ऐतिहातन पूछ लिया कौन नगर आया? जवाब दुर्ग था। मैं एक दम चैतन्य हो उठ बैठा। कंबल आदि समेट कर बैग के हवाले किए और उतरने को तैयार।
प्लेटफॉर्म पर उतरे तो इधर उधर निगाहें दौड़ाई कि कही कोई पगड़ीधारी सिख किसी का इंतजार करता दिखा तो जरूर पाबला जी होंगे। कुछ सिख दिखे तो, लेकिन उन में से किसी के पाबला होने की गुंजाइश एक फीसदी भी नहीं थी। उतरी हुई सवारियाँ सब चल दीं, फिर ट्रेन भी। आखिर मोबाइल का सहारा लिया। पाबला जी पूछ रहे थे ट्रेन कहाँ पहुंची? मैं ने बताया हमें दुर्ग स्टेशन पर उतार कर आगे चल दी। वे बोले- हम तो अभी घर से निकले ही नहीं। देरी के हिसाब से तो अभी पहुँचने में पौन घंटा होना चाहिए। मैं ने कहा कम्बख्त ने गोंदिया के बाद सारी देरी कवर कर ली। आप चलिए हम प्लेटफॉर्म छोड़ कर स्टेशन के बाहर निकलते हैं। वे बोले मैं बीस मिनट में पहुँचता हूँ।
हम दोनों स्टेशन के बाहर निकल कर वहाँ आ गए जहाँ कारों की पार्किंग थी। कुछ दूर ही स्टेशन का क्षेत्र समाप्त हो रहा था और बाहर की दुकानें दिखाई दे रही थीं। वहाँ जरूर कोई चाय-कॉफी की दुकान होगी। सुबह की कॉफी नहीं मिली थी। पर मुझे यह गवारा न था कि पाबला जी को हमें तलाशने में परेशानी हो। हम वहीं उन का इंतजार करते रहे। मैं हर आने वाली वैन में पगड़ी धारी सिख को देखने लगा। आखिर वह वैन आ ही गई। हमने अपने बैग उठाए और उसकी और बढ़े। हमारी बढ़त देख पाबला जी ने भी हमें पहचान लिया। पाबला जी के साथ उन का पुत्र मोनू (घरेलू नाम) था। दोनों ने हमारे हाथों से बैग लगभग छीने और वैन के हवाले किए। वैभव को चालक सीट पर बैठे मोनू के साथ बिठाया और पाबला जी मेरे साथ पीछे बैठे। हम चल दिए भिलाई स्टील प्लांट की टाउनशिप में स्थित पाबला जी के घऱ की ओर।
2. दुर्ग रेलवे स्टेशन है
3. पाबला जी।
मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009
पुणे के स्थान पर बल्लभगढ़ और पाबला जी का गुस्सा
अभिषेक ओझा बता रहे थे कि मैं पूर्वा से बात कर लूंगा कि वह किस बस से कहाँ उतरेगी। हम ने दोनों ही स्थितियाँ पूर्वा की माताजी को बता दीं। वे तनिक आश्वस्त हो गयीं। अगले दिन सुबह आठ बजे मैं ने पूर्वा को फोन लगाया तो वह बस में थी। उस ने बताया कि विनोद अंकल उस के इंस्टीट्यूट पर आकर उसे बस में बिठा गए थे। उस का अभिषेक से भी संपर्क हो चुका था। शाम को जब दुबारा फोन पर बात हुई तो पता लगा कि वह साक्षात्कार दे कर मुम्बई वापस भी पहुँच चुकी थी। जब उस की बस पूना पहुँची तो अभिषेक बस स्टॉप पर उस का इंतजार करते मिले। उसे केईएम अस्पताल छोड़ा। साक्षात्कार आधे घंटे में ही पूरा हो लिया। वह बाहर आई तो अभिषेक अभी गए नहीं थे। दोनों ने किसी रेस्तराँ में नाश्ता किया और पूर्वा को मुम्बई की बस में बिठा कर ही अभिषेक अपने काम पर लौटे। इस खबर को जान कर शोभा प्रसन्न हो गईं। उन की बेटी पहली बार पूना गई थी और उसे अकेला नहीं रहना पड़ा था।
कुछ दिन बाद पता लगा कि पूना केईएम अस्पताल में जिस स्थान के लिए पूर्वा ने साक्षात्कार दिया था वैसा ही एक स्थान बल्लभगढ़ (फरीदाबाद) के सिविल अस्पताल में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) हरियाणा सरकार और एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था इण्डेप्थ नेटवर्क के संयुक्त प्रयासों से चल रहे व्यापक जन स्वास्थ्य सेवाओं के प्रोजेक्ट में भी स्टेटीशियन/ डेमोग्राफर का स्थान रिक्त है। उस ने वहाँ के लिए आवेदन किया और एक टेलीफोनी साक्षात्कार के उपरांत यह तय हो गया कि पूर्वा को पूना के स्थान पर बल्लभगढ़ में ही यह पद मिल जाएगा। वह अपने नियुक्ति पत्र की प्रतीक्षा करने लगी। उस का नियुक्ति पत्र किन्हीं कारणों से विलंबित हो गया जिस का लाभ यह हुआ कि उस ने आश्रा प्रोजेक्ट के उस के जिम्मे के सभी कामों को पूरा कर दिया जिस से उस की अनुपस्थिति से आश्रा प्रोजेक्ट को कोई हानि न हो। बाद में यह तय हुआ कि वह 2 फरवरी को बल्लभगढ़ में अपनी नयी नियुक्ति पर उपस्थिति देगी। इधर वैभव को भी जनवरी के अंत तक अपना प्रोजेक्ट और ट्रेनिंग शुरू करनी थी।
सोमवार, 9 फ़रवरी 2009
आम के पहले बौरों की नैसर्गिक गंध और सौंदर्य का अहसास
मैं ने इन दोनों यात्राओं में इन गुठलियों का अंकुराना, अंकुराए पौधों का ममता और स्नेह के साथ कूड़े के ढेऱ से हटाया जाना और किसी बगिया की क्यारी में रोपना, सहेजना महसूस किया है। उन के फलों की मृदुलता तो अभी चखी जानी शेष है, लेकिन किशोर पौधों पर पहली पहली बार आए आम के बौरों की नैसर्गिक गंध और सौंदर्य का अहसास भी हुआ है।
बेटा वैभव चार माह से उल्लेख कर रहा था कि उसे एमसीए के आखिरी पड़ाव में किसी उद्योग में कोई प्रोजेक्ट करते हुए प्रशिक्षण प्राप्त करना होगा। वह प्रयासशील भी था कि इस के लिए कोई अच्छी जगह उसे मिले। मैं ने जिन्दगी के मेले ब्लॉग के ब्लागर बी एस पाबला जी से इस का उल्लेख किया तो उन्हों ने दो दिन बाद ही कहा कि वैभव को तुरंत भेज दें, उस की ट्रेनिंग यहाँ भिलाई में हो जाएगी। उन्हें तो यह भी पता न था कि वैभव की सेमेस्टर परीक्षा ही जनवरी में समाप्त होगी और उस के बाद ही उसे ट्रेनिंग करनी है। मगर यह तय हो गया कि वैभव को भिलाई में ही ट्रेनिंग करनी है।
इस बीच बेटी पूर्वा जो अपने अंतिम शिक्षण संस्थान अंतर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान (आईआईपीएस) के आश्रा प्रोजेक्ट में वरिष्ठ शोध अधिकारी थी अपने प्रोजेक्ट के पूरा होने तक किसी नए काम की तलाश में थी। उसे पूना के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल (केईएम) द्वारा एक अंतर्राष्ट्रीय संस्थान की सहायता से किए जा रहे व्यापक जन स्वास्थ्य सेवाओं के पायलट प्रोजेक्ट में स्टेटीशियन कम डेमोग्राफर के पद के लिए साक्षात्कार के लिए आमंत्रण मिला और उस का पूना जाना तय हो गया।
साक्षात्कार के लिए मुंबई से पूना जाना वैसा ही था जैसे मैं सुबह कोटा से जयपुर जा कर उच्चन्यायालय में किसी मुकदमे की बहस कर शाम को कोटा वापस लौट आऊँ। लेकिन पूर्वा कभी पूना गई नहीं थी, उस के लिए वह अनजाना नगर था। उसने बताया कि वह पूना जा कर उसी दिन वापस आ जाएगी। लेकिन इस बताने ने ही घर में प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिए। एक माँ सवाल करने लगी, कैसे जाएगी? कौन साथ जाएगा? अकेली गई तो बस से जाएगी या ट्रेन से? वहाँ कैसे पहुंचेगी? एक पिता के पास इन सवालों का कोई उत्तर नहीं था। केवल एक विश्वास था कि उस की बेटी यह सब सहजता से कर लेगी। पर माँ कैसे इन सब का विश्वास कर पाती। उस ने प्रस्ताव दिया कि आप को जाना चाहिए बेटी का साक्षात्कार कराने के लिए। बेटी कहने लगी, रिजर्वेशन नहीं मिलेगा और इस काम के लिए आप के मुंबई आने की जरूरत नहीं है। बेटी की योग्यताओं से विश्वस्त माँ की चिन्ताएँ इस से कैसे समंझ पातीं? उस के सवालों का कोई उत्तर मेरे पास नहीं था। उत्तर तलाशते हुए मुझे दो ही नाम याद आए। मुम्बई में कुछ हम कहें की चिट्ठाकार अनीता कुमार जी और उन के जीवन साथी विनोद जी। पूर्वा अनिता जी से पूर्व परिचित थी और उन से बहुत दूर नहीं रहती थी। पूना में याद आए ओझा-उवाच और कुछ लोग ... कुछ बातें... के ब्लॉगर अभिषेक ओझा।
पूर्वा ने चैम्बूर बस स्टॉप जा कर पूना जाने वाली बसों का पता किया तो वहाँ वह असमंजस में आ गई कि उसे किस बस से जाना चाहिए जिस से वह सुबह दस बजे तक पूना पहुंच सके। उस ने मुझे बताया तो मैं ने अनिता जी से संपर्क किया। उन्हों ने सवाल विनोद जी के पाले में डाल दिया, विनोद जी बोले हम सुबह खुद जाएँगे और पूर्वा बिटिया को सही बस में बिठा आएँगे। पूर्वा की तो बस की खोज समाप्त होने के साथ बस तक का सफर स्कीम में मिल गया। उधर अभिषेक ओझा बता रहे थे कि मैं पूर्वा से बात कर लूंगा कि वह किस बस से कहाँ उतरेगी। हम ने दोनों ही स्थितियाँ पूर्वा की माताजी को बता दीं। वे तनिक आश्वस्त हो गयीं। (जारी)
(चित्रों में अनिता कुमार जी और अभिषेक ओझा)
शनिवार, 3 जनवरी 2009
क्या है, नकारात्मक ऊर्जा ?
जब भी हम कोई काम करते हैं तो उस से परिवर्तन होना निश्चित है। वह वांछित या अवांछित हो सकता है, लेकिन होता है। जब किसी वांछित परिवर्तन के लिए हम अपनी ऊर्जा का प्रयोग करते हैं तो ऊर्जा का उपयोग उस दिशा में होना चाहिए जिस दिशा में हम परिवर्तन चाहते हैं। लेकिन हमारी पद्धति के कारण हमारी इच्छा के विपरीत बहुत सारी ऊर्जा विपरीत दिशा में लग कर नष्ट हो जाती है। यह ऊर्जा हमारी इच्छानुसार काम तो आती ही नहीं अपितु वह इच्छित परिणाम प्राप्ति में बाधा और बन जाती है। इसी ऊर्जा को जो हमारी इच्छित परिणामों में बाधा बनती है और उसे ही मैं नकारात्मक ऊर्जा समझता हूँ।
हम अपनी ऊर्जा का सायास या अनचाहे, यह नकारात्मक उपयोग करते चलते हैं और जीवन में बहुत सी ऊर्जा नष्ट कर बैठते हैं। इस से वांछित परिणाम तो मिलते नहीं, उन के मिलने में देरी होती है। माध्यमिक कक्षाओं तक सभी ने विज्ञान पढ़ा है। जब हम बल और गति पढ़ रहे थे। तब एक बात पढ़ाई गई थी कि किसी भी वस्तु को धक्का देने में अधिक ऊर्जा लगती है बनिस्पत उस वस्तु को खींचने में। यह नकारात्मक ऊर्जा का एक अच्छा उदाहरण है।
क्यों रथ में घोड़े आगे होते हैं? क्यों रेल का इंजन आगे की ओर होता है? दोनों भार को खींचते हैं। जरा इस पर विचार करें तो पाएंगे कि यदि इंजन पीछे होता और डब्बों को धकिया रहा होता तो इच्छित परिणाम के लिए हमारा ऊर्जा व्यय दुगना होता, और घोड़े रथ के पीछे जोत दिए जाते तो वे कभी रथ को धकिया ही नहीं पाते। होता यह है कि जब हम किसी वस्तु को धक्का देते हैं तो उस वस्तु पर लगाया गया बल दो भागों में बंट जाता है। एक भाग उस वस्तु को जिस दिशा में हटाया जा रहा है उस दिशा में और दूसरा गुरुत्वाकर्षण की दिशा में। बल का यह दूसरा हिस्सा जो गुरुत्वार्षण की दिशा में लगता है वह वस्तु को पृथ्वी की और दबाता है। वह नष्ट तो होता ही है साथ ही वस्तु को हटाने में बाधा भी पैदा करता है, क्यों कि यह पृथ्वी के केन्द्र की दिशा में लगता है। जो ऊर्जा गुरुत्वाकर्षण की दिशा में यहाँ लगती है उसे हम नकारात्मक ऊर्जा कह सकते हैं। क्यों कि यह नष्ट होते होते भी इच्छित परिणाम के विपरीत काम भी करती है।
इस के विपरीत जब हम उसी वस्तु को इच्छित दिशा में हटाने के लिए खींचते हैं। तो भी बल दो हिस्सों में विभाजित हो जाता है। एक खींचने की दिशा में और दूसरा गुरुत्वाकर्षण के विपरीत। यहाँ पहला हिस्सा तो पहले की तरह इच्छित दिशा में काम करता ही है, दूसरा भाग जो पृथ्वी के केन्द्र की दिशा से विपरीत लगता है वह वस्तु को भूमि से ऊपर उठाता है। इस तरह पहले जो ऊर्जा नष्ट हो कर बाधा पैदा कर रही थी, वह अब काम आती है और वस्तु को इच्छित दिशा की ओर ले जाने में सहजता उत्पन्न करती है।
हमारे कहे गए और लिखे गए शब्दों के साथ भी यही होता है। यदि वे इच्छित दिशा में परिवर्तन को रोकने में इस्तेमाल हो जाते हैं।
मैं ने अपने प्रिय एक साथी चिट्ठाकार के लिए एक टिप्पणी की थी। कि उन में बहुत ऊर्जा है, लेकिन वे नकारात्मक ऊर्जा को साथ लिए चलते हैं और परिणाम शून्य हो जाता है। तब साथी चिट्ठाकार ने जानने के लिए प्रश्न किया कि नकारात्मक ऊर्जा से मेरा क्या तात्पर्य है? मेरा नकारात्मक ऊर्जा से वही तात्पर्य था, जो इस आलेख में स्पष्ट किया है।
शनिवार, 29 नवंबर 2008
आतंकवाद के विरुद्ध प्रहार
कल के दिन अनेक ब्लागों के आलेखों पर मैं ने टिप्पणियाँ की हैं। अनायास ही इन्हों ने कविता का रूप ले लिया। मैं इन्हें समय की स्वाभाविक रचनाएँ और प्रतिक्रिया मानता हूँ। सभी एक साथ आप के अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ। कोई भी पाठक इन का उपयोग कर सकता है। यदि चाहे तो वह इन के साथ मेरे नाम का उल्लेख कर करे। अन्यथा वह बिना मेरे नाम का उल्लेख किए भी इन का उपयोग कहीं भी कर सकता है। मेरा मानना है कि यह आतंकवाद के विरुद्ध इन का जिस भी तरह उपयोग हो, होना चाहिए।
- दिनेशराय द्विवेदी
ईश्वर
उन्हीं लोगों के हाथों
पैदा किया था
जिन्हों ने उसे
मायूस हैं अब
कि नष्ट हो गया है।
उनका सब से बढ़ा
औज़ार
अब तो शर्म करो
- दिनेशराय द्विवेदी
अपनों के कातिलों को
कातिल पकड़ा गया
तो कोई अपना ही निकला
फिर मारा गया वह
अपना कर्तव्य करते हुए,
अब तो शर्म करो!
दरारें और पैबंद
- दिनेशराय द्विवेदी
जो दरारें
और पैबंद
यह नजर का धोखा है
जरा हिन्दू-मुसमां
का चश्मा उतार कर
अपनी इंन्सानी आँख से देख
यहाँ न कोई दरार है
और न कोई पैबंद।
आँख न तरेरे
- दिनेशराय द्विवेदी
किस बात का शोक?
कि हम मजबूत न थे
कि हम सतर्क न थे
कि हम सैंकड़ों वर्ष के
अपने अनुभव के बाद भी
एक दूसरे को नीचा और
खुद को श्रेष्ठ साबित करने के
नशे में चूर थे।
कि शत्रु ने सेंध लगाई और
हमारे घरों में घुस कर उन्हें
तहस नहस कर डाला।
अब भी
हम जागें
हो जाएँ भारतीय
न हिन्दू, न मुसलमां
न ईसाई
मजबूत बनें
सतर्क रहें
कि कोई
हमारी ओर
आँख न तरेरे।
बदलना शुरू करें
- दिनेशराय द्विवेदी
बदलना शुरू करें
अपना पड़ौस बदलें
और फिर देश को
रहें युद्ध में
आतंकवाद के विरुद्ध
जब तक न कर दें उस का
अंतिम श्राद्ध!
युद्धरत
- दिनेशराय द्विवेदी
वे जो कोई भी हैं
ये वक्त नहीं
सोचने का उन पर
ये वक्त है
अपनी ओर झाँकने और
युद्धरत होने का
आओ संभालें
अपनी अपनी ढालें
और तलवारें
शनिवार, 2 अगस्त 2008
क्या व्यवस्था अव्यवस्था में से जन्म लेगी ?
“एक रविवार, वन आश्रम में” श्रंखला की 1, 2, 3, 4, 5, और 6 कड़ियों को अनिल पलुस्कर, अनिता कुमार, अरविन्द मिश्रा, अशोक पाण्डे, डॉ. उदय मणि कौशिक,ज्ञानदत्त पाण्डे, इला पचौरी, Lलावण्या जी, नीरज रोहिल्ला, पल्लवी त्रिवेदी, सिद्धार्थ,स्मार्ट इंडियन, उडन तश्तरी (समीरलाल), अनुराग, अनूप शुक्ल, अभिषेक ओझा, आभा, कुश एक खूबसूरत ख्याल, डा० अमर कुमार, निशिकान्त, बाल किशन, भुवनेश शर्मा, मानसी, रंजना [रंजू भाटिया], राज भाटिय़ा, विष्णु बैरागी और सजीव सारथी जी की कुल 79 टिप्पणियाँ प्राप्त हुईं। आप सभी का बहुत-बहुत आभार और धन्यवाद। आप सभी की टिप्पणियों ने मेरे लेखन के पुनरारंभ को बल दिया है। मेरा आत्मविश्वास लौटा है कि मैं वैसे ही लिख सकता हूँ, जैसे पहले कभी लिखता था।
इस श्रंखला में अनेक तथ्य फिर भी आने से छूट गए हैं। मुझे लगा कि उद्देश्य पूरा हो गया है और मैं ने उन्हें छूट जाने दिया। ब्लाग के मंच के लिए आलेख श्रंखला फिर भी लम्बी हो चुकी थी। छूटे प्रसंग कभी न कभी लेखन में प्रकट अवश्य हो ही जाएंगे। इस श्रंखला से अनेक नए प्रश्न भी आए हैं। जैसे लावण्या जी ने सिन्दूर के बारे में लिखने को कहा है। यह भी पूछा है कि यह कत्त-बाफले क्या हैं? इन प्रश्नों का उत्तर तो मैं कभी न कभी दे ही दूंगा। लेकिन इन प्रश्नों से अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि पहले जो इस तरह के आश्रम आध्यात्म, दर्शन, साहित्य, संगीत और अन्य कलाओं व ज्ञान के स्रोत हुआ करते थे सभी का किसी न किसी प्रकार से पतन हुआ है। दूसरी ओर हम सोचते हैं कि ज्ञान के क्षेत्र में भारत आज भी दुनियाँ का पथ प्रदर्शित करने की क्षमता रखता है। तो फिर आध्यात्म, दर्शन, साहित्य, संगीत और अन्य कलाओं व ज्ञान के नए केन्द्र कहाँ हैं? वे है भी या नहीं?
हर कोई चाहे वह साधारण वस्त्रों में हो या फिर साधु, नेता और किसी विशिष्ठ पोशाक में। केवल भौतिक सुखों को जुटाने में लगा है। लोगों को अपना आर्थिक और सामाजिक भविष्य असुरक्षित दिखाई पड़ता है। लोगों को जहाँ भी सान्त्वना मिलती है उसी ओर भागना प्रारंभ कर देते हैं। निराशा मिलने तक वहीं अटके रहते हैं। बाद में कोई ऐसी ही दूसरी जगह तलाशते हैं।
अब वे लोग कहाँ से आएंगे जो यह कहेंगे कि पहले स्वयं में विश्वास करना सीखो (स्वामी विवेकानन्द), और जब तक हम खुद में विश्वास नहीं करेंगे। तब तक इस विश्व में भी अविश्वास बना ही रहेगा। हम आगे नहीं बढ़ सकेंगे और न ही नए युग की नयी चुनौतियों का सामना कर सकेंगे। पर जीवन महान है। वह हमेशा कठिन परिस्थितियों में कुछ ऐसा उत्पन्न करता है जिस से जीवन और उस की उच्चता बनी रहती है। हमें विश्वास रखना चाहिए कि जीवन अक्षुण्ण बना रहेगा।
किसी ने जो ये कहा है कि व्यवस्था अव्यवस्था में से ही जन्म लेती है, मुझे तो उसी में विश्वास है।
शनिवार, 19 जुलाई 2008
नीन्द की साँकळ उतारो, किरन देहरी पर खड़ी है।
पिछले आलेख पर अब तक जो टिप्पणियां मिलीं हैं, उन से एक बात पर सहमति दिखाई दी, कि अभी हिन्दी ब्लागिरी का शैशवकाल ही है। अनेक को तो पता भी नहीं कि हिन्दी ने भी एक ब्लागीर बालक को जन्म दे दिया है। लेकिन यह संकेत भी इन टिप्पणियों से मिला कि इस बालक ने अपने शैशवकाल में ही जितनी ख्याति अर्जित की है उस से उस के लच्छन पालने में ही दिखाई पड़ने लगे हैं। हमारे ब्लागीरों ने जो नारे उछाले हैं, जिन शब्दों में साहस बढ़ाने और ढाँढस बंधाने के प्रयत्न किए हैं वे कमजोर नहीं हैं। उन्हें प्रेरणा वाक्यों के रूप में प्रयोग किया जा सकता है, जैसे......
- ब्लॉग्गिंग आएगा और जब ये आएगा तो लोग इसी में पिले रहेंगे जैसे हम ब्लॉगर पिले हुए हैं..... :)
- जल्द ही वह दिन आएगा जब आप ब्लागिंग पर अपने इंटरव्यू में बताएँगे ..धीरे धीरे इसका नशा सब पर होगा ..:)
- अजी उन्हे छोड़िए. हम है ना ब्लॉगिंग के बारे में सवाल पूछने के लिए..
- वो सुबह कभी तो आएगी...जब ब्लोगिगं धूम मचाएगी।
- जल्द ही एक बडी संख्या इसे जानने लगेगी।
- सुबह होगी जल्द ही।
ये सभी अच्छे संकेत हैं। अंतरजाल तेजी से बढ़ने वाला है और ब्लागिरी भी। जरूरत है लोगों की जरूरत को समझने की। अगर ब्लागिरी आम लोदों की जरूरत को पूरा करने लगती है तो धीरे-धीरे यह जीवन का आवश्यक अंग बन जाएगी और अच्छे व सिद्धहस्त ब्लागर लोगों को बताने लायक कमाई भी कर सकेंगे। जिस तेजी से हिन्दी ब्लागीरों की संख्या बढ़ रही है। (औसतन 10 चिट्ठे प्रतिदिन) उस से लगता है। कि पाठकों की संख्या भी बढ़ेगी।
जमाना वह नहीं रहा कि हम में काबिलियत है, जिस को जरूरत होगी हमारे पास आएगा। जमाना इस से बहुत आगे जा चुका है। अब लोगों को जरूरत पैदा की जाती है और अपना माल बेचा जाता है। ब्लागीरों को भी जरूरत पैदा कर पाठक पैदा करने पड़ेंगे। एक ब्लागर चाहे तो कम से कम दस नए पाठक ब्लागिरी के लिए नए ला सकता है और उसे लाना चाहिए। उसे इस के लिए सतत प्रयास करना चाहिए। ब्लागीरों को अपने स्तर को भी सभी प्रकार से उन्नत करते रहना चाहिए, तकनीकी रूप से भी और अपने माल के बारे में भी।
सभी ब्लागीरों को ब्लागिरी से एक लाभ जो हो रहा है वह यह कि वे आपस में जबर्दस्त अन्तरक्रिया कर रहे हैं जिस से उन की क्षमताएँ तेजी से विकसित हो रही हैं। वे लेखन की हों या अपने अपने क्षेत्र की जानकारियों की हों।
आज मेरे स्टूडियों से निकलने के बाद मैं ने कुछ मित्रों को संदेश दिया कि मेरा साक्षात्कार केबल पर प्रसारित होने वाला है। उन में से कुछ ने उसे देखा भी। जिस ने भी देखा उसे खूब सराहा भी। कुछ लोगों ने उसे अनायास देखा। आज अदालत मे अनेक वरिष्ठ वकीलों ने मुझे बधाई भी दी और यह भी कहा कि मेरी क्षमताएँ बहुत विकसित हैं और इस की उन्हें जानकारी नहीं थी। इस साक्षात्कार को सांयकालीन पुनर्प्रसारण में बहुत लोगों ने देखा। पूरे प्रसारण के दौरान और उस के बाद मुझे अनेक मित्रों और परिचितों के फोन आते रहे। आज के एक दिन ने मुझे बहुत बदल दिया। मैंने महसूस किया कि लोगों ने आज मुझे एक भिन्न दृष्टिकोण से देखा जा रहा है। कल जब मैं अदालत पहुँचूंगा तो मुझे और भिन्न दृष्टिकोण से देखा जाएगा।
लेकिन क्या यह आज से दस माह पूर्व हो सकता था? बिलकुल नहीं क्यों कि तब में एक वकील मात्र था। इस ब्लागिरी ने मुझे एक नया आयाम प्रदान किया, एक नया रूप दिया। यदि मैं ने इन दस माहों में 162 आलेख न लिखे होते उन पर आई सैकड़ों टिप्पणियों और दूसरे ब्लागीरों की सैंकड़ों पोस्टों को पढ़ कर सैंकड़ों टिप्पणियाँ नहीं की होतीं तो यह सब नहीं हो सकता था। ब्लागिरी ने मेरी क्षमताओं को विकसित किया। वह लगातार सभी ब्लागीरों की क्षमताओं को विकसित कर रही है।
ब्लागीरों को समाचार पत्रों में स्थान मिलने लगा है। अनेक ब्लागीरों की रचनाएँ समाचार पत्र पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं। जल्दी ही वह समय भी आने वाला है कि जब ब्लागिरी और ब्लागीरों की चर्चा टीवी और अन्य प्रचार माध्यमों के लिए एक स्थाई स्तंभ होंगे। ब्लाग आज भी ज्ञान और जानकारी के स्रोत हैं इन का दायरा भी बढ़ेगा और वे प्रचार के माध्यम भी बनेंगे। अभी कुछ अभिनेता ब्लागिरी में आए हैं। लालू जैसे नेता इस में आए हैं। समय आने वाला है जब सभी प्रोफेशन के लोगों के लिए ब्लागिरी एक जरूरी चीज बनेगी। उन की ब्लागिरी से ही उन की क्षमताओं का मूल्यांकन किया जाने लगेगा।
अंत में मैं लावण्या दीदी की टिप्पणी यहाँ पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ जिस में वे कहती हैं.......
आपसे मेरा सविनय अनुरोध है कि आप ब्लोगिंग पर और सिंदुर पर और अन्य विषयों पर दूसरों की चिन्ता किये बिना लिखिये -"वीकिपीडीया की तरह या डिक्शनरी की तरह ये जानकारियाँ आज नहीं आनेवाले समय तक नेट पर कायम रहेंगी और काम आयेंगी- जब आम का नन्हा बिरवा उगा ही था तब किसे पता था कि यही घना पेड बनेगा जिस के रसीले आम बरसोँ तक खाये जायेँगे -ये मेरा मत है ..कोई विषय ऐसा भी होता है जो भविष्य मेँ आकार लेता है, और वर्तमान उसे हैरत से देखता है ..कम से कम, यह मेरा विश्वास है....
- लावण्या
18 July, 2008 10:39 PM
और अब मुझे स्मरण हो रही हैं राजस्थानी के कवि हरीश 'भादानी' के एक गीत की मुख्य पंक्तियाँ जो सभी ब्लागीरों को कह रही हैं.....
भोर का तारा उगा है,
जाग जाने की घड़ी है।
नीन्द की साँकळ उतारो,
किरन देहरी पर खड़ी है।
शुक्रवार, 18 जुलाई 2008
ब्लागिंग अब भी जनता से दूर की चीज है।
'पीयूष प्रत्यक्ष,' यही नाम है, उस का। एक सप्ताह पहले मेरे निवास पर आया। वह एक स्थानीय केबल चैनल 'एसटीएन' में पत्रकार है। मुझ से बोला कल सुबह साढ़े छह बजे आप को स्टूडियो आना है। पता लगा वह चैनल के लिए परिचर्चा कार्यक्रम में मेरा साक्षात्कार रिकार्ड करना चाहता है। मैं ने हाँ तो कर दी लेकिन किसी और दिन के लिए। अपनी दैनंदिनी देख कर तय किया कि किस दिन जा सकता हूँ। तो शुक्रवार तय हुआ।
बुधवार तक मैं यह भूल गया कि मैंने कौन सा दिन बताया था। बुधवार देर रात ध्यान आया तो पूछने के लिए टेलीफोन करना चाहा तो पीयूष का फोन नम्बर ही नहीं था। गुरूवार भी असमंजस में बीता रात हम फिर निर्देशिकाएँ टटोल रहे थे कि उस का खुद फोन आ गया। मैं ने राहत की साँस ली। वह शुक्रवार ही था। मैं ने उस से पूछा कि किस पर बात करोगे भाई यह तो बता दो। कहने लगा ब्लागिंग पर बात करेंगे। मैंने उसे कुछ ब्लागिंग के बारे में बताया।
शुक्रवार सुबह सदा की भांति 5.30 सुबह उठे। जल्दी-जल्दी तैयार हुए और चल दिए, इंद्रप्रस्थ। ये इंद्रप्रस्थ कोटा का एक वृहत औद्योगिक क्षेत्र है। इसी के एक कोने पर बनी हुई है राजस्थान टेलीमेटिक्स लि. की इमारत। बड़ी सी तीन मंजिला। बिलकुल खाली खाली सी दिखी सुबह-सुबह उसी के दूसरे तल पर प्रधान संपादक का कार्यालय। संपादक जी सुबह सुबह मिल गए, वे जयपुर से लौटे ही थे और कुछ देर बाद प्रसारित होने वाली खबरों पर नजर डाल रहे थे। उन से कुछ बातचीत हुई और उन्हों ने मुझे कॉफी पिलायी। वहीं पीयूष जी आ गए और हमें स्टूडियो ले गए। हम ने पहली बार किसी टीवी चैनल का स्डूडियो देखा था। कुछ खास नहीं। एक बड़ा सा कमरा, जिस के एक और कुछ मॉनीटर और कम्प्यूटर थे, कैमरा था और एक ऑपरेटर। दूसरी और एक दीवार उसी की साइज के नीले रंग के परदे से ढंकी हुई। दो कुर्सियाँ, एक बड़ी सी टेबल। हमें कुर्सी पर बिठा दिया गया। दूसरी पर पीयूष जी।
कैमरा ऑपरेटर ने इशारा किया और साक्षात्कार प्रारंभ हुआ।
सब से पहले राजनैतिक सवाल। वही परमाणु करार, महंगाई, आरक्षण के मुद्दे और वही सियासती पार्टियाँ काँग्रेस, बीजेपी और लेफ्ट। फिर एक अंतराल बोले तो, छोटा सा ब्रेक। फिर सवाल शुरू हुए तो आ गई न्याय व्यवस्था। कोटा में अदालत परिसर की कठिनाइय़ाँ। कोई और विषय नहीं। फिर साक्षात्कार समाप्त। ब्लागिंग बीच में टपकी ही नहीं।
हमने पीयूष जी से पूछा -भाई ये क्या हुआ ब्लागिंग का तो उल्लेख ही नहीं हुआ।
पीयूष जी बोले - वह फिर कभी, मैं ने आप को कह तो दिया। पर मैं ब्लागिंग के बारे में खुद कुछ नहीं जानता तो क्या सवाल करता? अब एक दिन आऊंगा। आप से समझूंगा कि ब्लागिंग क्या बला है। फिर ब्लागिंग वाला इंटरव्यू करूंगा।
लगा ब्लागिंग अब भी जनता से दूर की चीज है। लोगों ने अभी केवल उस का नाम ही जाना है वह भी अमिताभ बच्चन, आमिर और सलमान खान वगैरह की तरह।
मैं इन्तजार में हूँ कब पीयूष जी आते हैं मेरे पास ब्लागिंग के बारे में जानने के लिए।
शनिवार, 5 जुलाई 2008
अफरोज 'ताज' की बगिया के आम
शुक्रवार, 6 जून 2008
चिट्ठाकारों के लिए सबसे जरुरी क्या है?
आप अपना ब्लॉग बना कर एक ब्लॉगर हो गए हैं। आप को तकनीकी सूचनाएँ भी मिल ही जाती हैं। हिन्दी चिट्ठाजगत में बहुत से वरिष्ठ चिट्ठाकार हैं जो तकनीकी रुप से सक्षम हैं और चिट्ठाकारों को सब जरुरी जानकारियाँ आप को जुटाते हैं। जरूरी होने पर उस के लिए अपने बहुमूल्य समय में से समय निकाल कर भी आप की सहायता करते हैं। इस तरह आप को तकनीकी जानकारी की कोई कमी नहीं रहती है। नई से नई जानकारी को सभी के साथ बांटते हैं। लेकिन तकनीकी रुप से सक्षमं होना मात्र एक श्रेष्ठ चिट्ठाकार होने के लिए बहुत कम योग्यता है। फिर वह क्या है जो चिट्ठाकार के लिए सब से जरुरी है?
एक शौक के वशीभूत हो कर, किसी मिशन के तहत, पैसा कमाने के लिए, अपने को अभिव्यक्त करने के लिए या अन्य किसी प्रेरणा से कोई व्यक्ति चिट्ठाकार होता है। लेकिन यह केवल एक प्रारंभ मात्र है। आप ने एक नया जीवन आरंभ किया लेकिन उस में अभी बहुत चलना है। और किसी भी जीवन की पूर्णता के लिए मार्ग में बहुत कुछ सीखना पड़ता है। ऐसा ही कुछ चिट्ठाकारी में भी है। वह क्या है जो एक चिट्ठाकर को शीर्ष पर पहुँचा देता है।
मैं पहले भी अनवरत पर लिख चुका हूँ और फिर एक बार दोहराना चाहता हूँ कि वह प्रोफेशनलिज्म है जो व्यक्ति को जीवन में सफल बनाता है। आप मेरे इस मत से इन्कार कर सकते हैं। लेकिन फिर भी मेरा आग्रह है कि एक बार परख लें कि क्या आप वाकई एक श्रेष्ट चिट्ठाकार होने की ओर आगे बढ़ रहे हैं या नहीं। आप खुद देखें कि एक शौकिया और प्रोफेशनल का क्या फर्क क्या है? और आप शौकिया रहना चाहते हैं या फिर प्रोफेशनल होना चाहते हैं?
प्रोफेशनल और शौकिया के फर्क
- एक प्रोफेशनल काम के हर पहलू को सीखने का प्रयास करता है, जब कि एक शौकिया सीखने की प्रक्रिया को जब भी संभव हो त्याग देता है।
- एक प्रोफेशनल सावधानी से यह तलाशता है कि उसे किस चीज की आवश्यकता है और उसे क्या चाहिए? जब कि एक शौकिया मात्र अनुमान करता है कि किस कीआवश्यकता है और उसे क्या चाहिए?
- एक प्रोफेशनल की दृष्टि, वाणी और वस्त्र-सज्जा प्रोफेशनल जैसी होती है, जब कि एक शौकिया बोलने और देखने में बेढंगा, लापरवाह, और भावुक होता है, यहाँ तक कि वह कीचड़ से लथपथ भी हो सकता है।
- एक प्रोफेशनल अपने कार्यस्थल को साफ और व्यवस्थित रखता है, जब कि एक शौकिया का कार्यस्थल गर्दी, गंदा और बिखरा-बिखरा रहता है।
- एक प्रोफेशनल ध्यान-केंद्रित और स्पष्ट मस्तिष्क रहता है, जब कि एक शौकिया सदैव भ्रमित और विचलित।
- एक प्रोफेशनल गलतियों की उपेक्षा नहीं करता, जब कि एक शौकिया गलतियों की उपेक्षा करता है और उन्हें छुपाता है।
- एक प्रोफेशनल मुश्किल और दुष्कर कामों की जिम्मेदारी हाथों-हाथ ग्रहण करता है, जब कि एक शौकिया इन से भागने कोशिश करता है।
- एक प्रोफेशनल हाथ में ली गई परियोजनाओं को जितनी जल्दी हो सके, पूरा करता है, जब कि एक शौकिया अधूरी परियोजनाओं से घिरा रहता है और उन की छत पर बैठा इधर-उधर ताकता रहता है।
- एक प्रोफेशनल आशावादी और स्थिर मस्तिष्क होता है, जब कि एक शौकिया परेशान हो जाता है और सबसे खराब प्रदर्शन करता है।
- एक प्रोफेशनल बहुत सावधानी से धन का उपयोग करता है और उस का स्पष्ट हिसाब रखता है, जब कि एक शौकिया धन के उपयोग और उस का हिसाब रखने में बेढंगा और लापरवाहीपूर्ण होता है।
- बहुत सावधानी से प्रोफेशनल एक अन्य लोगों की परेशानी और समस्याओं को हल करता है, जब कि शौकिया समस्याओं से कन्नी काटता है।
- एक प्रोफेशनल उत्साह , प्रसन्नता , रुचि , संतुष्टि और भावनात्मक ऊंचाइयों से लबरेज़ रहता है, जब कि शौकिया व्याक्ति सदैव दुर्भावनाओं, क्रोध, शत्रुता, रोष और भय का शिकार रहता है।
- एक प्रोफेशनल लक्ष्य प्राप्त करने तक लगातार प्रयत्नशील रहता है, जब कि शौकिया पहला अवसर मिलते ही लक्ष्य को त्याग देता है।
- एक प्रोफेशनल आशा से अधिक उत्पादन करता है, जब कि शौकिया मामूली उत्पादन को भी पर्याप्त समझता है और उस पर इतराता रहता है।
- एक प्रोफेशनल उच्च गुणवत्ता के उत्पाद व सेवाएँ प्रदान करता है, जब कि एक शौकिया निम्न और मध्यम गुणवत्ता के उत्पाद व सेवाएँ।
- एक प्रोफेशनल की आय या वेतन बहुत अच्छे होते हैं, जब कि एक शौकिया की कमाई बहुत कम होती है और वह हमेशा यह सोचता रहता है कि उस के साथ अन्याय हो रहा है।
- एक प्रोफेशनल का भविष्य सुनिश्चित होता है, लेकिन एक शौकिया का भविष्य पूरी तरह से अनिश्चित।
- एक प्रोफेशनल होने के लिए पहला कदम है कि आप यह तय करें कि आप को एक प्रोफेशनल बनना है।
तो अब आप क्या बनना तय कर रहे हैं?
एक प्रोफेशनल चिट्ठाकार होना?
या फिर एक शौकिया बने रहना?
बुधवार, 21 मई 2008
क्या आप एक प्रोफेशनल हैं?
इस प्रश्न पर कि क्या आप एक प्रोफेशनल हैं? साइंटोलॉजी (सत्य का अध्ययन) के प्रवर्तक एल. रॉन हबार्ड क्या कहते हैं? जरा उस की बानगी देखिए-
आप कैसे देखते हैं? बात करते हैं , लिखते हैं, कैसे चलते हैं? और कैसे काम करते हैं? ये बातें यह निर्धारित करती हैं कि आप एक प्रोफेशनल हैं, या एक शौकिया। कोई भी समाज प्रोफेशनलिज्म के महत्व पर जोर नही देता, इसलिए लोगों का मानना है कि शौकिया काम करने के तरीके सामान्य श्रेणी के हैं।
विद्यालय और विश्वविद्यालय उन छात्रों को भी स्नातक का तमगा दे देते हैं, जो अपनी भाषा को भी ठीक से पढ़ना नहीं जानते। ड्राइविंग लायसेंस के लिए टेस्ट देते समय आप जरूरी सवालों में से साठ प्रतिशत के सही और बाकी के गलत जवाब देकर भी लायसेंस प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन यह शौकिया रवैया है।
प्रोफेशनल रवैया इस से अलग है। कोई भी चाहे तो अपने रवैये में बदलाव कर के खुद को प्रोफेशनल बना सकता है। यही बात चिट्ठाकार, लेखक और कोई भी अन्य काम करने वाले के लिए सही है। ऐसा किया जा सकता है, बशर्ते कि आप अपनी कुछ बातों पर ध्यान दें।
- आप कभी भी, कुछ भी यह सोच कर नहीं करें कि आप एक शौकिया काम कर रहे हैं।
- आप कुछ भी करें, तो उसे यह सोच कर करें कि आप एक प्रोफेशनल हैं, और प्रोफेशनल स्तर के अनुरूप करने का प्रयास करें।
- अगर आप कोई भी काम यह सोच कर करते हैं कि आप केवल खेल रहे हैं, या आनंद ले रहे हैं तो इस काम को करने से आप को कोई संतोष नहीं मिलेगा। क्यों कि इस काम को करने पर आप खुद पर गर्व नहीं कर सकते।
- आप अपने दिमाग को इस तरह से ढालें कि जो भी आप को करना है, वह एक प्रोफेशनल की तरह करना है और काम की गुणवत्ता को प्रोफेशनल स्तर तक ले जाना है।
- आप अपने बारें में लोगों को यह कहने का मौका नहीं दें कि आप एक शौकिया जीवन जी रहे हैं।
- प्रोफेशनल्स परिस्थिति का अध्ययन करते हैं और उस का सामना करते हैं, वे उन से कभी भी शौकिया के तौर पर नहीं निपटते।
- इसलिए इसे जीवन के प्रथम सबक के रूप में सीख लेना चाहिए कि जिनका दृष्टिकोण प्रोफेशनल होगा वे किसी भी क्षेत्र में सफल हो सकेंगे, यहाँ तक कि जिन्दगी को जीने में भी, और वे ही अपने को अच्छा प्रोफेशनल बना पाएंगे।
शनिवार, 10 मई 2008
प्रोफेशनलिज्म क्या है?
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प्रोफेशनल को व्यापक ज्ञान पर आधारित दक्षता से सम्पन्न और अपने प्रोफेशन के विषय के कार्यों का विशेषज्ञ होना चाहिए।
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प्रत्येक प्रोफेशनल द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाओं का आधार उस के उपभोक्ताओं से उस का विशेष संबंध है, जिस में जन-कल्याण का संतुलित व अखंडित दृष्टिकोण सन्निहित हो, और जिस में निष्पक्षता व ईमानदारी के साथ-साथ उस की प्रोफेशनल संस्था और आम जनता द्वारा अपेक्षित अधिकार और कर्तव्य सम्मिलित हों।
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प्रोफेशनल के कामों का परिणाम हो कि जन कल्याण की नीतियों और न्याय जैसे सामाजिक मामलों पर राय रखने की उस की अधिकारिता को उस के विशिष्ठ सेवार्थियों के साथ-साथ आम जनता भी मान्यता देने लगे।
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अपने प्रोफेशनल दायित्वों को निभाते हुए प्रोफेशनल सरकार और वाणिज्य के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त रहे।
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प्रोफेशनल प्रशिक्षित नहीं अपितु शिक्षित हो, जिस का अर्थ है एक व्यापक और विस्तृत परिप्रेक्ष्य में स्वयं को और अपनी दक्षता को देखने की क्षमता, और मानवीय मूल्यों की सीमा में अपने ज्ञान और कौशल को विकसित करते हुए अपनी इस क्षमता को लगातार निखारना।
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एक प्रोफेशनल का अपने काम पर सक्षम अधिकार हो। आम जनता की दृष्टि में विश्वसनीय प्रोफेशनल्स का अपना संगठन हो जो अपने सदस्यों के ज्ञानाधार को विकसित करते रहने और सदस्यों के शिक्षण के लिए सक्रिय रहे और प्रोफेशनल उस के स्वतंत्र और अनुशासित सदस्य के रूप में प्रतिष्ठित हो। इन मानदण्ड़ों पर खरा प्रोफेशनल नैतिकता के उच्च मूल्यों से संम्पन्न होगा और निश्चय ही समाज उसे सम्मान के साथ सुनेगा।
बुधवार, 30 अप्रैल 2008
जरुरत है चिट्ठाकारों की कमाई का जरिया चिट्ठाकारी में ही तलाशने की
विगत आलेख के अंत में मै ने एक प्रश्न आप के सामने रखा था- क्या चिट्ठाकारों को प्रोफेशनल नहीं होना चाहिए?
भाई अनूप सुकुल जी ने कहा वे उत्तर का इंतजार करेंगे। जवाब मिले, और केवल इसी सवाल के नहीं कुछ और सवालों के भी। मसलन हमारे ड़ॉक्टर अमर कुमार जी ने कहा कि चाहे प्रचलित अंग्रेजी या किसी भी अन्य भाषा के शब्द का हिन्दी विकल्प बना लें लेकिन शब्द तो वही चलेगा जो जनता चलाएगी। यानी जो जुबान पर चढ़ गया वही चलेगा। अब इन्हें हम हिन्दी शब्दकोष में जगह दें या न दें यह कोषकार पर निर्भर करेगा। पर जनता शब्दकोष पढ़ कर हिन्दी न बोलेगी। जो उस की समझ में आएगा वह बोलेगी। अब हिन्दी को जनता के साथ चलना है तो उसे भी इन शब्दों को अपनाना पड़ेगा। इस से उस का कुछ भी नुकसान नहीं होने का वह और बलवान और समृद्ध हो जाएगी।
ब्लॉगर के प्रोफेशनल होने पर तो घोस्ट बस्टर जी के अलावा किसी को भी कोई आपत्ति नहीं थी। लेकिन यह चिन्ता थी कि ब्लॉगर कहीं इसे केवल कमाई का साधन न बना ले। मेरे सवाल का सब से खूबसूरत जवाब देहरादून की खूबसूरत प्रेटी वूमन रक्षन्दा जी ने दिया कि ब्लॉगर प्रोफेशनल जरूर हो, लेकिन ब्लॉगिंग उस का प्रोफेशन न हो जाए। उन्हों ने प्रोफेशन शब्द के दो अलग अलग अर्थों का एक ही वाक्य में सुन्दर प्रयोग किया, और इस सवाल के मुख्य द्वंद को स्पष्ट भी किया।
कुल मिला कर सब की चिन्ता एक ही थी कि ब्लॉगिंग का उपयोग समाजिक ही रहे। धन लालसा उसे असामाजिक न बना दे। वह शिवम् बनी रहे, कल्याणकारी ही रहे। भले मानुषों की यह चिन्ता होनी भी चाहिए।
मैं एक प्रोफेशनल वकील हूँ। इस का अर्थ यह है कि मैं अपने हर काम में जीत हासिल करने की इच्छा ही नहीं रखता बल्कि उस के लिए प्रयत्न भी करता हूँ। काम हाथ में लेते समय भी परखता हूँ कि इस में सफलता मिल सकती है या नहीं। इस का यह भी अर्थ नहीं कि मैं सफलता हासिल होने वाले ही काम हाथ में लेता हूँ। ऐसे काम भी हाथ में लेता हूँ जिन में रत्ती भर भी गुंजाइश सफलता की नहीं होती, लेकिन वह लड़ाई महत्वपूर्ण होती है। वहाँ लड़ते-लड़ते हार जाना भी जीत ही होती है। लेकिन संभावित परिणामों से प्रारंभ में ही अपने सेवार्थी को अवगत करा देना, उस का तोड़ है। वह फिर भी लड़ना चाहे तो उस की लड़ाई जरूर लड़ी जाती है।
हर काम में धन की कमाई जरूरी भी नहीं होती। कभी ऐसा भी होता है कि मिलने वाले शुल्क से काम में खर्च होने वाला धन अधिक हो जाता है, तब नुकसान भी होता है। लेकिन अगर काम हाथ में ले लिया तो यह नहीं देखा जाता कि इस में नुकसान है या फायदा। एक अच्छे प्रोफेशनल की पहचान ही यही है कि वह अपने काम को मिशन की तरह ले। यही नहीं उस की कमाई पर निर्भर भी करे। क्या आप ये चाहेंगे कि मैं पूरे समय वकालत करूँ और मेरा घर किसी और साधन से चले। अगर ऐसा होने लगा तो मैं वकालत और अपने सेवार्थी के प्रति कभी भी ईमानदार नहीं रह सकूंगा। मैं फिर लोगों पर उपकार करने का नाटक करने वाला ढ़ोंगी बन कर रह जाऊँगा, और अपने सेवार्थी के हित की चिन्ता करने के बजाय उस का भला बने रहने की चिन्ता अधिक करूंगा। कमाई के जाजरू वाले रास्ते देखने लगूँगा।
एक चिट्ठाकार अपना चार-छह घंटों का कीमती समय रोज खर्च भी करे और घर चलाने के लिए दूसरी और झाँके, तो फिर चिट्ठाकारी चलनी नहीं है। वह आज की तरह रेंगती ही रहेगी।
और अंत में यह भी कि कोई भी सामाजिक मिशन बिना प्रोफेशनल कार्यकर्ताओं और नेतृत्व के शिखर पर नहीं पहुँचता। इसलिए हिन्दी चिट्ठाकारी को प्रोफेशनल चिट्ठाकारों की सख्त जरुरत है, और ऐसे प्रोफेशनल चिट्ठाकारों की कमाई के जरिए चिट्ठाकारी में ही तलाशने की जरुरत है।
क्या अब भी आप चाहेंगे कि पूरी तरह समाज को समर्पित चिट्ठाकार आर्थिक दबावों में किसानों की तरह आत्महत्या करने लगें?
क्या अब भी आप कहेंगे कि चिट्ठाकार को प्रोफेशनल नहीं होना चाहिए।
सोमवार, 28 अप्रैल 2008
क्या चिट्ठाकारों को प्रोफेशनल नहीं होना चाहिए?
मैं ने चिटठाकार समूह पर एक सवाल छोड़ा था। प्रोफेशनलिज्म के लिए हिन्दी शब्द क्या हो सकता है? जवाब भी खूब मिले। व्यवसायिकता इस के लिए सही शब्द हो सकता है, लेकिन यह भी समानार्थक नहीं। प्रोफेशनलिज्म शब्द का हिन्दी में कोई समानार्थक नहीं। मेरी जिद भी है कि जब आप को कोई समानार्थक शब्द अपनी भाषा में न मिले तो उसे अपनी भाषा का संस्कार दे कर अपना लिया जाए इस से हिन्दी न तो हिंगलिश होगी और न ही उस की कोई हानि होगी। लाभ यह होगा कि आप के भाव को प्रकट करने वाला एक और शब्द आप के शब्द कोष में सम्मिलित हो जाएगा। इस से भाषा समृद्ध ही होगी।
मूल बात थी कि प्रोफेशनलिज्म का अर्थ क्या? यह एक गुण या गुणों का समुच्चय है। जो आप के काम को करने के तरीके को निर्धारित करता है और आप के काम के परिणाम और उस से उत्पन्न उत्पाद की गुणवत्ता को भी।
मैं एक वकील हूँ, एक प्रोफेशनल। मेरे पास एक सेवार्थी अपनी कोई समस्या ले कर आता है। मुझे उस की समस्या हल करनी है। कोई आते ही यह भी कहता है कि 'वकील साहब, एक नोटिस देना है' मैं उस से यह भी कह सकता हूँ कि 'दिए देते हैं' अगर मैं ने यह जवाब दिया, तो समझो मैं प्रोफेशनल नहीं हूँ, और एक वकील, एक लॉयर नहीं हूँ। फिर मैं एक दुकानदार हूँ, जो माल बेचता है। क्यों कि ग्राहक ने कहा नोटिस दे दो, और मैं ने दे दिया।
भाई, वकील तो मैं हूँ। यह तुम ने कैसे तय कर लिया कि, नोटिस देना है? और समस्या के हल के लिए यह एक सही प्रारंभ है। सेवार्थी का काम है, मुझे समस्या बताने का। मेरा काम है, उस से वे सभी तथ्य और उन्हें प्रमाणित करने के लिए साक्ष्य की उपलब्धता जाँचने का, और फिर इस सामग्री के आधार पर समस्या का हल तलाश करने का। मैं तय करूगा कि, समस्या का हल कैसे करना है?
अगर मेरे सारे कामों में यह गुण विद्यमान रहता है तो मैं एक सही प्रोफेशनल हूँ, अन्यथा नहीं। अपने काम के प्रति पूरी सजगता होना, उस के लिए जरुरी कुशलता हासिल करना और उसे उत्तरोत्तर विकसित करते रहना जरुरी है। सेवार्थी को सर्वोत्तम सेवाएं प्रदान करने के लायक बने रहना ही प्रोफेशनलिज्म है। प्रोफेशनलिज्म का यह अध्याय यहीं समाप्त नहीं होता। अनेक और बाते हैं जो इस में समाहित होती हैं। पर आज के लिए इतना पर्याप्त है।
अंत में एक सवाल- क्या चिट्ठाकारों को प्रोफेशनल नहीं होना चाहिए?
गुरुवार, 24 अप्रैल 2008
क्यो न कमाएँ? चिट्ठाकार अपने हिन्दी चिट्ठे से
मैं जब हिन्दी चिट्ठे पढ़ता हूँ तो मुझे लगता है कि कुछ लोग इस बात से परेशान हैं, कि कुछ हिन्दी चिट्ठे अपने चिट्ठाकारों के लिए रुपया या डॉलर जो भी हो, धन कमा रहे हैं। भाई आप नहीं चाहते कि लक्ष्मी आप के घर या बैंक खाते में आए, तो आप मत आने दीजिए उसे। मगर जहाँ आ रही है, उन्हें तो भला-बुरा मत कहिए। आप कह भी देंगे तो जिस के घर आ रही है वहाँ आना बन्द न कर देगी और आप के बैंक खाते का रुख भी नहीं करने वाली। आप फिजूल में ही पड़ौस के केमिस्ट की दुकान पर बरनॉल की बिक्री बढ़ा रहे हैं।
ठहरिए! जरा सोचिए! कितना कमा रहा है, एक हिन्दी चिट्ठाकार अपने हिन्दी चिट्ठे से? सोचने में परेशानी हो रही है तो आप किसी तरह पता लगा लीजिए एडसेंस से।
अब मैं तो देख रहा हूँ नियमित रूप से लिखने वाले और सर्वाधिक पढ़े जाने वाले पाँच हिन्दी चिट्ठौं में से एक पाण्डे ज्ञानदत्त जी को। उन को इस का भारी शोक है कि लोग विज्ञापनों को क्लिक ही नहीं करते। दूसरे हम हैं जो रोज अपना एडसेंस खाता क्लिक कर-कर परेशान हैं, उस में जमा डॉलर उतना का उतना ही पड़ा रहता है। जैसे हमारे चिट्ठे किसी गली के ट्रेफिक-जाम में फँस गए हों। अब आज का हमारा एडसेंस का ऑल टाइम खाता देखिए और खुद ही बताइए कि हमने पिछले पाँच माह में क्या कमाया अपने दो हिन्दी चिट्ठों से?
देख लिया?
कुल 3.13 डॉलर!
आह! कितनी बड़ी रकम है। मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि मैं यह सोच कर प्रसन्न होऊँ या माथे पर हाथ धर कर बैठूँ कि इस से कहीं अधिक धन तो वह बरनॉल बेचने वाला केमिस्ट कमा चुका होगा।
खैर हमें नहीं सोचना यह सब, और भी ग़म हैं सोचने को दुनियाँ में।
मगर मैं सोच तो सकता ही हूँ, और क्यों न सोचूँ कि दुनियाँ गोल है। कोई सोच पर पहरा कैसे लगा सकता है।
मार पीट कर गैलीलियो से चर्च हिमायतियों ने कहलवाया कि उसने गलत कहा कि धरती गोल है, वह तो वाकई चपटी है। जेल से छूटने पर उस से पूछा। मैं ने सोचा धरती गोल है, उन्होंने कहलवा लिया चपटी। पर मेरे सोच पर कोई पहरा नहीँ। कहूँगा नहीं तो क्या? सोच तो सकता ही हूँ कि धरती गोल ही है। पर हुआ क्या? गैलिलियो ने सोचा, कुछ और ने सोचा, और धरती चपटी से गोल हो गई। अब तो चर्च भी कह रहा है कि धरती गोल ही है। मुझे पुरानी धरती का कोई चित्र नहीं मिल रहा जब धरती गोल थी। सब जगह तलाश किया तो पता लगा तब कैमरा नहीं बना था।
तो मैं सोच रहा हूँ कि क्यों न कमाएं हिन्दी चिट्ठे अपने चिट्ठाकारों के लिए?
क्या कहा? आप भी सोचना चाहते हैं, ऐसा ही कुछ। तो चलिए हमारे साथ।
आखिर कबीरदास जी कह गए हैं-जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ।
आप साथ चले तो रहेगी चर्चा जारी, वरना हम अकेले ही सोचेंगे। अपने चिट्ठे पर लिखेंगे भी। आप आज ही थोक में बरनॉल खरीद लाइए होलसेल केमिस्ट से जल्दी ही मांग और दाम बढ़ने वाले हैं।
क्या पता सोचते-सोचते चपटी धरती गोल हो ही जाए।
रविवार, 10 फ़रवरी 2008
“कुत्ते से सावधान” या “कुत्तों से सावधान”
किसी नए व्यक्ति से मिलने जाते हैं तो पहले उस का पता हासिल करना होता है। फिर किसी साधन से वहाँ तक पहुँचना पड़ता है। स्थान नया हो तो दस जगहों पर पूछते हुए जब गन्तव्य पर पहुंचते हैं तो बड़ी तसल्ली होती है, कि पहुँच गए। पर वहां घर के मुख्य द्वार पर लगी तख्ती फिर होश उड़ा देती है। जिस पर लिखा होता है “कुत्ते से सावधान" या “कुत्तों से सावधान”। अब आप बुलाने वाली घंटी को ढूंढते हैं, मिल जाने पर उसे दबाते हैं, कि कुत्ता या कुत्ते स्वागत गान कर देते हैं। फिर कुछ या कई मिनटों के बाद कोई आकर गेट खोलता है, आप का इंटरव्यू करता है कि आप घर में घुसाने लायक व्यक्ति हैं, कि नहीं ?
जब तक कोई बहुत बड़ी गरज न हो या फिर कोई अपने वाला ही न हो, तो ऐसे वक्त में खुद पर बड़ी कोफ्त होती है, कि पहले ही क्यों न पता कर लिया कि जहाँ जा रहे हो वह जगह कुत्ते वाली तो नहीं है ? और पता लग जाता तो शायद वहाँ तक पहुँचते ही नहीं।
आज हर व्यक्ति के पास बहुत कम समय है। दाल-रोटी का जुगाड़ ही सारा समय नष्ट कर देता है। ऐसे समय में हमें दूसरे लोगों के समय की कीमत पहचानना चाहिए। खास कर हिन्दी चिट्ठाकारों को जरूर पहचानना चाहिए।
मैं हिन्दी चिट्ठाकारी में नया जरूर हूँ। मगर अपने इस काम के प्रति संजीदा भी रहना चाहता हूँ। जैसे कहा जाता है कि जो रोज नहीं पढ़ता उसे पढ़ाने का अधिकार नहीं। इसी तरह मेरा सोचना है कि जो रोज कम से कम बीस चिट्ठे नहीं पढ़ता उसे चिट्ठा लिखने का भी कोई अधिकार नहीं।
अब आप चिट्ठे पढ़ेंगे तो टिप्पणी जरुर करेंगे। करना भी चाहिए। चिट्ठा लिखने का कोई तो आप का उद्देश्य रहा होगा। अनेक बार चिट्ठा लिखने का उद्देश्य केवल किसी चिट्ठे पर लिखे आलेख पर टिप्पणी करने से भी पूरा हो जाता है। इस तरह आप किसी विषय पर दोहराने वाला आलेख लिखने से बच जाते हैं और आप को एक नए बिन्दु पर चिट्ठा लिखने का अवसर मिल जाता है। जो चिट्ठाकार और पाठक दोनों के लिए ही उत्तम और समय को बचाने वाला है। इस कारण से सभी संजीदा चिट्ठाकारों को समय बचाने के मामले में सजग रहना चाहिए।
यह सारी बात यहाँ से उठी है कि अनेक नए-पुराने चिट्ठों पर जरुरी समझते हुए टिप्पणी करने पहुँचे, टिप्पणी टाइप भी कर दी, आगे बढ़े तो वर्ड वेरीफिकेशन ने रास्ता रोक दिया। वैसा ही लगा जैसे किसी से मिलने पहुँचे हों और दरवाजे पर तख्ती दिख गई हो “कुत्ते से सावधान” या “कुत्तों से सावधान”
अब मेरी समझ में यह नहीं आया कि हिन्दी चिट्ठाकारों को इस वर्ड वेरीफिकेशन की जरूरत क्या है ? कोई मशीन तो आप के चिट्ठे पर टिप्पणी करने आने वाली नहीं है, आयेंगे सिर्फ इंसान ही। और अगर मशीन भी आ कर कोई टिप्पणी कर रही हो तो उस से आप को नुकसान क्या है ? अधिक टिप्पणियाँ आप की रेटिंग को ही बढ़ाएगी।
टिप्पणीकर्ता कितना असहज महसूस करता है जब उस के सामने टिप्पणी टाइप करने के बाद यह वर्ड वेरीफिकेशन टपकता है। वह हिन्दी में टाइप कर रहा है। इस वर्ड वेरीफिकेशन के कारण उसे वापस अंग्रेजी में टोगल करना पड़ता है। कभी कभी शीघ्रता में कोई अक्षर समझ में न आए य़ा हिन्दी लिखते लिखते यकाय़क अंग्रेजी पर जाने के कारण अभ्यास से गलत अक्षर टाइप कर दे तो उसे दुबारा यह परीक्षा देनी पड़ती है। एक दुष्प्रभाव यह भी छूटता है कि चिट्ठाकार के बारे में यह समझ बनती है कि वह कभी दूसरों को पढ़ता और टिप्पणी नहीं करता है।
सभी हिन्दी चिट्ठाकारों से मेरा विनम्र निवेदन है कि आप अपने अपने चिट्ठों से वर्ड वेरीफिकेशन की तख्ती हटा ही दें। मैं आप को बता दूँ कि कुछ महत्वपूर्ण चिट्ठों पर टिप्पणियाँ नहीं आती थीं। मेरे व्यक्तिगत निवेदन के बाद से उन्हों ने वर्ड वेरीफिकेशन को हटाया और उन चिट्ठों को टिप्पणियां मिलने लगीं।