@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: गांधी
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शनिवार, 25 मई 2019

गांधीजी का छल

21 अक्टूबर, 1928 को ‘नवजीवन’ में गांधीजी ने लिखा - ‘बोल्शेविज्म को जो कुछ थोड़ा-बहुत मैं समझ सका हूं वह यही कि निजी मिल्कियत किसी के पास नहीं हो— प्राचीन भाषा में कहें तो व्यक्तिगत परिग्रह न हो। यह बात यदि सभी लोग अपनी इच्छा से कर लें, तब तो इसके जैसा कल्याणकारी काम दूसरा नहीं हो सकता। परंतु बोल्शेविज्म में जबरदस्ती से काम लिया जाता है। ...मेरा दृढ़ विश्वास है कि जबरदस्ती से साधा गया यह व्यक्तिगत अपरिग्रह दीर्घकाल तक नहीं टिक सकता। ...फिर भी बोल्शेविज्म की साधना में असंख्य मनुष्यों ने आत्मबलिदान किया है। लेनिन जैसे प्रौढ़ व्यक्ति ने अपना सर्वस्व उसपर निछावर कर दिया था; ऐसा महात्याग व्यर्थ नहीं जा सकता और उस त्याग की स्तुति हमेशा की जाएगी।’ 


गांधीजी ने उक्त कथन में बोल्शेविज्म शब्द का प्रयोग किया है। बोल्शेविज्म शब्द से आज कुछ भी पता नहीं लगता है कि यह क्या है। क्या यह कम्युनिज्म है, या फिर वैज्ञानिक समाजवाद है या कुछ और। हम यदि रुसी बोल्शेविक क्रांति के बाद के दिनों में जाएँ तो उन दिनों क्रान्ति के बाद लेनिन के नेतृत्व में बनी राज्य-व्यवस्था को बोल्शेविज्म के रूप में जाना जाता था। हमें कुछ शब्दकोशो में भी उस का यही अर्थ मिलता है। हम जानते हैं कि लेनिन वैज्ञानिक समाजवाद की स्थापना करना चाहते थे उस के बिना एक कम्युनिस्ट व्यवस्था में संक्रमण संभव नहीं है। उन्हों ने जो सरकार स्थापित की थी वह सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवाद था। 

लेकिन गांधीजी पहले कहते हैं – “बोल्शेविज्म को जो कुछ थोड़ा-बहुत मैं समझ सका हूं वह यही कि निजी मिल्कियत किसी के पास नहीं हो— प्राचीन भाषा में कहें तो व्यक्तिगत परिग्रह न हो.” इस तरह वे यहाँ सीधे सीधे कम्युनिज्म की बात करते हैं। 

वे इस अवस्था को सही मानते हुए कहते हैं कि “यह बात यदि सभी लोग अपनी इच्छा से कर लें, तब तो इसके जैसा कल्याणकारी काम दूसरा नहीं हो सकता.” लेकिन फिर आगे कहते हैं “परंतु बोल्शेविज्म में जबरदस्ती से काम लिया जाता है. ...मेरा दृढ़ विश्वास है कि जबरदस्ती से साधा गया यह व्यक्तिगत अपरिग्रह दीर्घकाल तक नहीं टिक सकता। ...फिर भी बोल्शेविज्म की साधना में असंख्य मनुष्यों ने आत्मबलिदान किया है। लेनिन जैसे प्रौढ़ व्यक्ति ने अपना सर्वस्व उसपर निछावर कर दिया था; ऐसा महात्याग व्यर्थ नहीं जा सकता और उस त्याग की स्तुति हमेशा की जाएगी।” 

उन का मतभेद यहाँ उस अवस्था अर्थात कम्युनिज्म तक पहुँचने में नहीं है। लेकिन उस तक पहुँचने के लिए जो सर्वहारा के अधिनायकवाद या “वैज्ञानिक समाजवाद” की स्थापना लेनिन करते हैं उस की आलोचना वे करते हैं क्यों कि वे कहते हैं कि “इस में जबर्दस्ती से काम लिया जाता है”। इस के समानान्तर वे “ट्रस्टीशिप” का सिद्धान्त ईजाद कर लेते हैं। 

इस तरह गांधीजी वस्तुतः “वैज्ञानिक समाजावाद”, सर्वहारा अधिनायकवाद” और साम्यवाद की अवधारणा को ठीक से समझ ही नहीं सके थे। उन्हों ने उसे समझने की चेष्टा भी नहीं की थी। अन्यथा वे देख पाते कि पूंजीवाद में जनता का जितना दमन पूंजीवादी सरकारें करती हैं, उतना सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद में नहीं होता। समाजवाद में सिर्फ पूंजीपतियों के हाथों से उत्पादन के साधन छिन जाते हैं। लेकिन शेष जनता को जो नए अधिकार मिलते हैं उस का दुनिया में इस से पहले कोई सानी नहीं था। “सर्वहारा के अधिनायकवाद”, “वैज्ञानिक समाजवाद” और “साम्यवाद” के सिद्धान्त गांधीजी के बहुत पहले अस्तित्व में आ चुके थे। यदि “समाजवाद” के समानान्तर उन्हें “ट्रस्टीशिप की व्यवस्था” की बात करने के पहले उनके लिए आवश्यक था कि वे पहले मार्क्सवाद के “सर्वहारा के अधिनायकवाद”, “वैज्ञानिक समाजवाद” और “साम्यवाद” की अवधारणाओं को ठीक से समझकर खंडन करते और फिर “ट्रस्टीशिप” के सिद्धान्त को तार्किक तरीके से स्थापित करने की कोशिश करते। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। 

सही बात तो यह है कि गांधीजी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारत की आजादी के लड़ रहे थे और उनकी इस लड़ाई में देश के अनेक सामंत और पूंजीपति भी उन के साथ थे। इस तरह वे जिस पूंजीवादी व्यवस्था की उच्चतर अवस्था साम्राज्यवाद से लड़ रहे थे, उस लड़ाई में वे पूंजीपतियों को भी साथ लिए थे। जिस से पूंजीवाद की आलोचना उन के लिए संभव नहीं थी। साम्यवादी व्यवस्था की आलोचना संभव नहीं थी। उसकी आलोचना से उन के साथ जमीनी लड़ाई लड़ रहे करोडों किसान, मजदूर और मेहनतकश जनता उन के आंदोलन से दूर हो जाती। इस कारण उन्हों ने साम्यवाद तक पहुँचने के लिए एक पूरी तरह अव्यवहारिक “ट्रस्टीशिप” सिद्धान्त खड़ा कर दिया। यह सीधे-सीधे भारत के करोडों किसानों, मजदूरों और मेहनतकश जनता के साथ गांधीजी का छल था।

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

‘कायर बुद्धिजीवियों’ का देश बन जाने का ख़तरा

हम अन्याय को संस्थाबद्ध करते जा रहे हैं -अरुंधति रॉय



लीजिए, हिंदी में पढ़िये पंकज श्रीवास्तव से  अरुंधति रॉय की ताजा बातचीत। 

 

गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल के दौरान 23 मार्च को मशहूर लेखिका अरुंधति रॉय से हुई मेरी बातचीत अंग्रेज़ी पाक्षिक “गवर्नेंस नाऊ” में छपी है। लेकिन जब लोग यह जान गये हैं कि यह साक्षात्कार हिंदी में लिया गया था तो सभी मूल ही सुनना-पढ़ना चाहते हैं। इससे साबित होता है कि अपनी भाषा के परिसर में अगर ज्ञान-विज्ञान और विचारों की बगिया लहलहाती हो तो कोई अंग्रेज़ी का मुँह नहीं जोहेगा। इस इंटर्व्यू की करीब 40 मिनट की रिकॉर्डिंग मोबाइल फोन पर है, जिसे फ़ेसबुक पर पोस्ट करना मुश्किल हो रहा है। फ़िलहाल पढ़कर ही काम चलाइये ... पंकज श्रीवास्तव


सवाल----गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल में आप दूसरी बार आई हैं। जो शहर गीताप्रेस और गोरखनाथ मंदिर और उसके महंतों की राजनीतिक पकड़ की वजह से जाना जाता है, वहां ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ दस साल का सफ़र पूरा कर रहा है। इसे कैसे देखती हैं?
अरुंधति रॉय---दूसरी नहीं, तीसरी बार। एक बार आज़मगढ़ फ़ेस्टिवल में भी जा चुकी हूं। दरअसल, ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जो सिर्फ गोरखुपर के लिए अहमियत नहीं रखता। यह वाकई प्रतिरोध है जो सिर्फ जनसहयोग से चल रहा है, वरना प्रतिरोध को भी ‘ब्रैंड’ बना दिया गया है। अमेरिका से लेकर भारत तक, जहाँ भी देखो प्रतिरोध को व्यवस्था में समाहित कर के एक ‘ब्रैंड’ बनाने की कोशिश होती है। जब मैंने ‘एंड आफ इमेजिनेशन’ लिखा था, तो पहला रियेक्शन यह हुआ कि बहुत सारे ब्रैंड्स, जिसमें कुछ जीन्स के भी थे, ने विज्ञापन करने के लिए मुझसे संपर्क किया। यह एक पुराना खेल है। अमेरिका में नागरिकों की जासूसी का खुलासा करने वाले एडवर्ड स्नोडेन के बारे में फ़िल्म बनी है जिसके लिए फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन ने पैसा दिया। ‘फ़्रीडम आफ प्रेस फ़ाउंडेशन’ में भी फ़ोर्ड का पैसा लगा है। ये लोग ‘प्रतिरोध’ की धार पर रेगमाल घिसकर उसे कुंद कर देते हैं। भारत में देखिये, जंतर-मंतर पर जुटने वाली भीड़ का चरित्र बदल गया है। तमाम एनजीओ, फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन जैसी संस्थाओं से पैसा लेकर प्रतिरोध को प्रायोजित करते हैं। ऐसे में गोरखपुर जैसे दक्षिणपंथी प्रभाव वाले शहर में प्रतिरोध के सिनेमा का उत्सव मनाना ख़ासा अहमियत रखता है। मैं सोच रही थी कि आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद जैसी संस्थायें अक्सर मेरा विरोध करती हैं, प्रदर्शन करती हैं, लेकिन गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल को लेकर ऐसा नहीं हुआ। इसका दो मतलब है। या तो उन्हें इसकी परवाह नहीं। या फिर उन्हें पता है कि इस आयोजन ने गोरखपुर के लोगों के दिल मे जगह बना ली है। मेरे पास इस सवाल का ठीक-ठीक जवाब नहीं है। लेकिन इस शहर में ऐसा आयोजन होना बड़ी बात है। कोई कह रहा था कि इस फ़ेस्टिवल से क्या फ़र्क़ पड़ा। मैं सोच रही थी कि अगर यह नहीं होता तो माहौल और कितना ख़राब होता।

सवाल---आपकी नज़र में आज का भारत कैसा है? मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य क्या बता रहा है ?
अरुंधति रॉय---जब मई 2014 में मोदी की सरकार बनी तो बहुत लोगों को, जिनमें मैं भी थी, यकीन नहीं हुआ कि यह हमारे देश में हुआ है। लेकिन अगर ऐतिहासिक नजरिये से देखें तो यह होना ही था। 1925 से जब आरएसएस बना, या उससे पहले से ही भारतीय समाज में फ़ासीवादी प्रवृत्तियाँ नज़र आने लगी थीं। ‘घर वापसी’ जैसे कार्यक्रम उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में हो रहे थे। यानी इस दौर से गुज़रना ही था। देखना है कि यह सब कितने समय तक जारी रहेगा क्योंकि आजकल बदलाव बहुत तेज़ी से होते हैं। मोदी ने अपने नाम का सूट पहन लिया और अपने आप को एक्सोपज़ कर लिया। अच्छा ही है कि कोई गंभीर विपक्ष नहीं है। ये अपने आपको एक्सपोज़ करके खुद को तोड़ लेंगे। आखिर मूर्खता को कितने दिनों तक बरदाश्त किया जा सकता है। लोगों को शर्म आती है जब प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से कहते हैं कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी होती थी। गणेश के धड़ पर हाथी का सिर ऐसे ही जोड़ा गया था। फ़ासीवाद के साथ लोग ऐसी मूर्खताएं कब तक सहेंगे।
मैं पहले से कहती रही हूं कि जब राजीव गांधी ने अयोध्या में राममंदिर का ताला खुलवाया तो साथ में ‘बाज़ार’ का ताला भी खोला गया। इसी के साथ दो क़िस्म के कट्टरपंथ को खड़ा किया गया। एक इस्लामी आतंकवाद और दूसरा माओवाद। इनसे लड़ने के नाम पर ‘राज्य’ ने अपना सैन्यीकरण किया। कांग्रेस और बीजेपी, दोनों ने इस रास्ते को अपनाया क्योंकि नव उदारवादी आर्थिक नीतियाँ, बिना सैन्यीकरण के लागू नहीं हो सकतीं। इसीलिए जम्मू-कश्मीर में पुलिस, सेना की तरह काम करती है और छत्तीसगढ़ में सेना, पुलिस की भूमिका में है। यह जो ख़ुफिया निगरानी, यूआईडी, आधार-कार्ड वगैरह की बातें हैं, यह सब उसी का हिस्सा हैं। अदृश्य जनसंख्या को नज़र में लाना है। यानी एक-एक आदमी की सारी जानकारी रखनी है। जंगल के आदिवासियों से पूछा जाएगा कि उनकी ज़मीन का रिकार्ड कहां है। नहीं है, तो कहा जाएगा कि ज़मीन तुम्हारी नहीं है। डिजिटलीकरण का मकसद “अदृश्य” को “दृश्य” बनाना है। इस प्रक्रिया में बहुत लोग गायब हो जाएंगे। इसमें आईएमएफ़, वर्ल्ड बैंक से लेकर फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन तक, सब मिले हैं। वे क़ानून के राज पर खूब ज़ोर देते हैं और क़ानून बनाने का हक़ अपने पास रखना चाहते हैं। ये संस्थायें सबसे ज़्यादा ग़ैरपारदर्शी ढंग से काम करती हैं, लेकिन इन्हें अपनी योजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए आंकड़ों की पारदर्शी व्यवस्था चाहिए। इसीलिए वे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों की मदद करते हैं। फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन एक नया पाठ्यक्र गढ़ने में जुटा है। वह चाहता है कि पूरी दुनिया एक ही तरह की भाषा बोले। वह हर तरह के क्रांतिकारी विचारों, वाम विचारों को खत्म करने, नौजवानों की कल्पनाओं को सीमित करने में जुटा है। फिल्मों, साहित्यिक उत्सवों और अकादमिक क्षेत्र में कब्ज़ा करके शोषण मुक्त दुनिया और उसके लिए संघर्ष के विचार को पाठ्यक्रमों से बाहर किया जा रहा है।


सवाल--- आपको हालात को बदलने की कोई मज़बूत जद्दोजहद नज़र आती है क्या.. भविष्य कैसा लग रहा है?
अरुंधति रॉय--- प्रतिरोध आंदोलन या क्रांति, जो भी शब्द इस्तेमाल कीजिये, उसे पिछले कुछ वर्षों में काफी धक्का लगा है। 1968-70 में जब नक्सलवादी आंदोलन शुरू हुआ, या तमाम सीमाओं के बावजूद जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के दौर की माँगों पर जरा ग़ौर कीजिये। तब माँग थी- “न्याय”। जैसे ज़मीन जोतने वाली की हो या संपत्ति का समान वितरण हो। लेकिन आज जो माओवादी सबसे “रेडिकल” कहलाते हैं, वे बस यही तो कह रहे हैं कि जो ज़मीन आदिवासियों के पास है, उसे छीना ना जाये। ‘नर्मदा आंदोलन’ की माँग है कि विस्थापन न हो। यानी जिसके पास जो है, उससे वह छीना न जाये। लेकिन जिनके पास कुछ नहीं है, जैसे दलितों के पास ज़मीन नहीं है, उनके लिए ज़मीन तो कोई नहीं मांग रहा है। यानी ‘न्याय’ का विचार को दरकिनार कर मानवाधिकार के विचार को अहम बना दिया गया है। यह बड़ा बदलाव है। आप मानवाधिकार के नाम पर माओवादियों से लेकर सरकार तक को, एक स्वर में कोस सकते हैं। कह सकते हैं कि दोनों ही मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं। जबकि ‘अन्याय’ पर बात होगी तो इसके पीछे की राजनीति पर भी बात करनी पड़ेगी।
कुल मिलाकर यह इमेजनिशन (कल्पना) पर हमला है। सिखाया जा रहा है कि ‘क्रांति’ यूटोपियन विचार है, मूर्खता है। छोटे सवाल बड़े बन रहे हैं जबकि बड़ा सवाल गायब है। जो सिस्टम के बाहर हैं, उनकी कोई राजनीति नहीं है। तमाम ख़्वाब टूटे पड़े हैं। राज्य, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के हाथ का उपकरण बना हुआ है। दुनिया की अर्थव्यवस्था एक अंतरराष्ट्रीय पाइपलाइन की तरह है जिसके लिए सरहदें बेमानी हो गयी हैं।


सवाल---- तो क्या प्रतिरोध की ताकतों ने समर्पण कर दिया है, ‘इमेजनिशेन’ की इस लड़ाई में?
अरुंधति रॉय---मेरे ख़्याल में, वे बहुत कमज़ोर स्थिति में हैं। जो सालों से लड़ाई लड़ रहे हैं, वे सोच ही नहीं पा रहे हैं। ‘राज्य’ लड़ाई को इतना थकाऊ बना देता है कि अवधारणा के स्तर पर सोचना मुश्किल हो जाता है। यहाँ तक कि अदालतें भी थका देती हैं। हर तरह से कोशिश करके लोग हार जाते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर देश में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो मानती हो कि उसका काम लोगों की मदद करना है। उन्हें लगता है कि उनका काम “नियंत्रण” करना है। न्याय कल्पना से बाहर की चीज होती जा रही है। 28 साल बाद हाशिमपुरा हत्याकांड का फैसला आया। सारे मुल्ज़िम छोड़ दिये गये। वैसे इतने दिन बाद किसी को सजा होती भी तो अन्याय ही कहलाता।


सवाल------ आपने गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल का उद्घाटन करते हुए गाँधी जी को पहला “कॉरपोरेट प्रायोजित एनजीओ” करार दिया है। इस पर ख़ूब हंगामा भी हुआ। आपकी बात का आधार क्या है?
अरुंधति रॉय---आजादी के इतने सालों बाद हममे इतना साहस होना चाहिए कि तथ्यों के आधार पर राय बना सकें। मैंने गांधी को पहला कॉरपोरेट प्रायोजित एनजीओ कहा है तो उसके प्रमाण हैं। उन्हें शुरू से ही पूँजीपतियों ने कैसे मदद की, यह सब इतिहास का हिस्सा है। उन्होंने गाँधी की ख़ास मसीहाई छवि गढ़ने में ताकत लगाई। लेकिन खुद गाँधी का लेखन पढ़ने से सबकुछ साफ हो जाता है। दक्षिण अफ्रीका में गाँधी के कामकाज के बारे में हमें बहुत गलत पढ़ाया जाता है। हमें बताया गया कि वे ट्रेन के डिब्बे से बाहर निकाले गये जिसके ख़िलाफ उन्होंने संघर्ष शुरू किया। यह ग़लत है। गाँधी ने वहाँ कभी बराबरी के विचार का समर्थन नहीं किया। बल्कि भारतीयों को अफ्रीकी काले लोगों से श्रेष्ठ बताते हुए विशिष्ट अधिकारों की मांग की। दक्षिण अफ्रीका में गाँधी का पहला संघर्ष डरबन डाकखाने में भारतीयों के प्रवेश के लिए अलग दरवाज़ा खोलने के लिए था। उन्होंने कहा कि अफ्रीकी काले लोग और भारतीय एक ही दरवाजे से कैसे जा सकते हैं। भारतीय उनसे श्रेष्ठ हैं। उन्होंने बोअर युद्ध में अंग्रेजों का खुलकर साथ दिया और इसे भारतीयों का कर्तव्य बताया। यह सब खुद गाँधी ने लिखा है। दक्षिण अफ्रीका में उनकी ‘सेवाओं’ से ख़ुश होकर ही अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें क़ैसर-ए-हिंद के ख़िताब से नवाज़ा था। 

सवाल---- आप आजकल गाँधी और अंबेडकर की बहस को नये सिरे से उठा रही हैं। आपके निबंध ‘डॉक्टर एंड द सेंट’ पर भी काफी विवाद हुआ था।
अरुंधति रॉय---यह जटिल विषय है। मैंने इस पर बहुत विस्तार से लिखा है और चाहती हूँ कि लोग पढ़कर समझें। इसकी बुनियाद डॉ.अंबेडकर और गाँधी की वैचारिक टकराहट है। अंबेडकर शुरू से सवाल उठा रहे थे कि हम कैसी आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं। लेकिन गाँधी जाति व्यवस्था की कभी आलोचना नहीं करते, जो गैरबराबरी वाले समाज का इंजन है। वे सिर्फ यह कहकर रुक जाते हैं कि सबके साथ अच्छा व्यवहार होना चाहिए। उन्होंने जाति व्यवस्था को हिंदू समाज का महानतम उपहार बताया। यह सब उन्होंने ख़ुद लिखा है। मैं कोई अपनी व्याख्या नहीं कर रही हूँ। जबकि अंबेडकर लगातार जाति उत्पीड़न और संभावित आज़ादी के स्वरूप का सवाल उठा रहे थे। पूना पैक्ट से पहले गाँधी ने जो भूख हड़ताल की, उसका नतीजा आज भी देश को प्रभावित करता है। हम यह सवाल क्यों नहीं उठा सकते कि क्या सही है और क्या गलत। भारत सरकार की सहायता से रिचर्ड एटनबरो न जो ‘गाँधी’ फ़िल्म बनाई उसमें अंबेडकर का छोटा सा रोल भी नहीं है, जो उनके सबसे प्रभावी आलोचक हैं। अगर हम इतने साल बाद भी बौद्धिक जांच-परख से कतराते हैं तो फिर हम बौने लोग ही हैं। अंबेडकर और गाँधी की बहस बेहद गंभीर विषय है।
वारण्ट अधिकारी एम के गांधी

सवाल--- भगत सिंह और उनके साथियों के भी गाँधी से तमाम मतभेद थे, लेकिन उन्होंने भी कहा था कि भाग्यवाद जैसी तमाम चीज़ों के समर्थन के बावजूद गांधी ने जिस तरह देश को जगाया है, उसका श्रेय उन्हें न देना कृतघ्नता होगी।
अरुंधति रॉय---अब बात शुक्रगुज़ार होने या ना होने से बहुत आगे बढ़ गयी। यह ठीक है कि गाँधी ने आधुनिक औद्योगिक समाज में अंतर्निहित नाश के बीजों की पहचान कर ली थी जो शायद अंबेडकर नहीं कर पाये थे। गाँधी की आलोचना का यह अर्थ भी नहीं है कि गाँधीवादियों से कोई विरोध है। या उन्होंने अलग-अलग क्षेत्रों में कुछ नहीं किया। नर्मदा आंदोलन का तर्क बहुत गंभीर और प्रभावी रहा है, लेकिन सोचना होगा कि वह सफल क्यों नहीं हुआ। आंदोलनों के हिंसक और अहिंसक स्वरूप की बात भी बेमानी है। यह सिर्फ़ पत्रकारों और अकादमिक क्षेत्र की बहस का मसला है। जहां हज़ारों सुरक्षाकर्मियों के साये में बलात्कार होते हों, वहां हिंसा और अहिंसा कोई मायने नहीं रखती। वैसे, अहिंसा के “पोलिटकल थियेटर” के लिए दर्शकवर्ग बहुत ज़रूरी होता है। लेकिन जहां कैमरे नहीं पहुंच सकते, जैसे छत्तीसगढ़, वहां इसका कोई अर्थ नहीं रह जाता।
हमें अंबेडकर या गाँधी को भगवान नहीं इंसान मानकर ठंडे दिमाग से समय और संदर्भ को समझते हुए उनके विचारों को कसौटी पर कसना होगा। लेकिन हमारे देश में यह हाल हो गया कि आप कुछ बोल ही नहीं सकते। न इसके बारे में न उसके बारे में। सेंसर बोर्ड सरकार में नहीं सड़क पर है। नारीवादियों को भी समस्या है है, दलित समूहों को भी है। लेफ्ट को भी है और दक्षिणपंथियों को भी। खतरा है कि हम कहीं “बौद्धिक कायरों” का देश ना बन जायें।


सवाल--- आपने पूँजीवाद और जातिप्रथा से एक साथ लड़ने की बात कही है, लेकिन इधर दलित बुद्धिजीवी अपने समाज में पूँजीपति पैदा करने की बात कर रहे हैं। साथ ही, जाति को खत्म न करके अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की कोशिश पर भी ज़ोर है। जाति को ‘वोट की ताकत’ में बदला जा रहा है। अंबेडकरवादियों के इस रुख को कैसे देखती हैं?
अरुंधति रॉय----यह स्वाभाविक है। जब हर तरफ ऐसा ही माहौल है तो इन्हें कैसे रोक सकते हैं। जैसे कुछ बुद्धजीवी लोग कश्मीर में जाकर कहते हैं कि राष्ट्रवाद बड़ी खराब चीज़ है। भाई, पहले अपने घर में तो समझाओ। दलित मौजूदा व्यवस्था में अपने लिए थोड़ी सी जगह खोज रहे हैं। सिस्टम भी उनका इस्तेमाल कर रहा है। मैंने पहले भी कहा है ‘दलित स्टडीज’ हो रही है। अध्ययन किया जा रहा है कि म्युनिस्पलटी में कितने बाल्मीकि हैं, लेकिन ऊपर कोई नहीं देखता । कोई इस बात का अध्ययन क्यों नहीं करता कि कारपोरेट कंपनियों पर बनियों और मारवाड़ियों का किस कदर कब्ज़ा है। जातिवाद के मिश्रण नें पूँजीवाद के स्वरूप को और जहरीला कर दिया है।

सवाल-- कहीं कोई उम्मीद नज़र आती है आपको?
अरुंधति रॉय----मुझे लगता है कि अभी दुनिया की जो स्थिति है, वह किसी एक व्यक्ति के फैसले का नतीजा नहीं हैं। हजारों फैसलों की शृंखला है। फैसले कुछ और भी हो सकते थे। इसलिए तमाम छोटी-छोटी लड़ाइयों का महत्व है। छत्तीसगढ़, झारखंड और बस्तर मे जो लड़ाइयाँ चल रही हैं, वे महत्वपूर्ण हैं। बड़े बाँधों के खिलाफ लड़ाई ज़रूरी है। साथ ही जीत भी ज़रूरी है ताकि ‘इमेजिनेशन’ को बदला जा सके। अभी भी एक बड़ी आबादी ऐसी है जिसके ख़्वाब ख़्त्म नहीं हुए हैं। वह अभी भी परिवर्तन की कल्पना पर यकीन करती है।

चलते-चलते
सवाल- दिल्ली के निर्भया कांड पर बनी बीबीसी की डाक्यूमेंट्री ‘इंडियाज डॉटर’ पर प्रतिबंध लगा। आपकी राय?
अरुंधति रॉय--
जितनी भी खराब फिल्म हो, चाहे घृणा फैलाती हो, मैं बैन के पक्ष में नहीं हूं। बैन की मांग करना सरकार के हाथ में हथियार थमाना है। इसका इस्तेमाल आम लोगों की अभिव्यक्ति के खिलाफ ही होगा।


सवाल---मोदी सरकार ने अच्छे दिनों का नारा दिया था। क्या कहेंगी?

अरुंधति रॉय---अमीरों के अच्छे दिन आये हैं। छीनने वालों के अच्छे दिन आये हैं। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश सबूत है।


सवाल----आपके आलोचक कहते हैं कि गांधी अब तक आरएसएस के निशाने पर थे। अब आप भी उसी सुर में बोल रही हैं।
पंकज श्रीवास्तव
अरुंधति रॉय--आरएसएस गांधी की आलोचना सांप्रदायिक नज़रिये से करता है। आरएसएस स्वघोषित फ़ासीवादी संगठन है जो हिटलर और मुसोलिनी का समर्थन करता है। मेरी आलोचना का आधार गाँधी के ऐसे विचार हैं जिनसे दलितों और मजदूर वर्ग को नुकसान हुआ।

सवाल----दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार के बारे में क्या राय है?
अरुंधति रॉय---जब दिल्ली विधानसभा चुनाव का नतीजा आया तो मैं भी खुश हुई कि मोदी के फ़ासीवादी अभियान की हवा निकल गयी। लेकिन सरकार के काम पर कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी। सिर्फ भ्रष्टाचार की बात नहीं है। देखना है कि दूसरे तमाम ज़रूरी मुद्दों पर पार्टी क्या स्टैंड लेती है।

सवाल---आजकल क्या लिख रही हैं..?
अरुंधति रॉय--एक उपन्यास पर काम कर रही हूँ। ज़ाहिर है यह दूसरा ‘गॉड आफ स्माल थिंग्स’ नहीं होगा। लिख रही हूँ, कुछ अलग।

सोमवार, 3 जनवरी 2011

चर्चा या ब्लाग-पोस्ट सूची

द्वितीय अतिरिक्त सत्र न्यायालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) ने साल के अंतिम सप्ताह में जिस मामले पर निर्णय दिया वह बिनायक सेन मामले से जाना गया। यह एक ऐसा मुकदमा था जिस का लक्ष्य किसी अपराध विशेष के लिए किसी अभियुक्त अभियोजित करना और दंड देना था ही नहीं। इस मुकदमे का लक्ष्य सीधे तौर पर बिनायक सेन को दंडित करना था। यही कारण था कि यह मुकदमा बिनायक सेन के नाम से चर्चित हुआ।  उस मुकदमे को कोई और नाम नहीं दिया जा सकता था, आखिर कोई कृत्य या घटना होती तो उस के नाम से उस मुकदमे को जाना जाता। साल के अंतिम सप्ताह में दिया गया यह निर्णय देश भर के मीडिया में चर्चा का विषय  रहा। पहले समाचार के माध्यम से कि बिनायक सेन व अन्य दो को राजद्रोह में आजीवन कारावास का दंड दिया गया। फिर उस निर्णय की आलोचना आरंभ हो गई। इस आलोचना में बिनायक सेन के साथ संबद्ध लोगों से ले कर तटस्थ और बिनायक सेन की विचारधारा से असहमत और विरोधी तक शामिल थे। जैसे ही निर्णय सुनाया गया मेरे जैसे लोगों में यह जिज्ञासा हुई कि आखिर फैसले में जज ने क्या लिखा है? बिनायक सेन के खिलाफ क्या आरोप थे? उन्हें साबित करने के लिए क्या सबूत प्रस्तुत किए गए? और कैसे बिनायक सेन आरोपित अपराध के दोषी साबित हुए। फैसला प्रकाशित होता तो देखने में आता। डॉ. बिनायक सेन की तरफदारी करने वाले लोगों (पीयूसीएल) ने सब से अच्छी बात यह की कि उन्हों ने उस फैसले की प्रतिलिपि ज्यों की त्यों इंटरनेट पर उपलब्ध करा दी। उस फैसले का अंग्रेजी अनुवाद भी जितनी जल्दी संभव हो सकता था, उन्हीं लोगों ने नेट पर उपलब्ध कराया। जिस से न केवल उन के समर्थक अपितु तटस्थ और उन के विरोधी विचार के लोग भी उस का अध्ययन कर अपनी राय प्रकट कर सकें, एक तथ्यपरक बहस मीडिया में सामने आ सके। इस तरह पीयूसीएल ने अपनी परंपरा के अनुसार सब के बीच उस फैसले पर एक खुली बहस आरंभ करने की पहल की। 
हर मामले का तथ्यपरक अन्वेषण करना और साक्ष्यों सहित लोगों के सामने रखते हुए जहाँ भी नागरिकों के सिविल अधिकार आहत होते हों वहाँ उन की पैरवी करने के लिए ही पीयूसीएल का गठन हुआ और इसी के लिए वह काम भी कर रहा है। संगठन के उपाध्यक्ष की हैसियत से यही काम करना शायद वह अपराध बना जिस के लिए उन्हें सजा सुनाई गई है। 
ह सहज ही था कि हिन्दी ब्लाग जगत में भी इस घटना और निर्णय की चर्चा होती, जो हुई। कुछ चिट्ठों ने उस पर लिखा। हि्न्दी के कुल चार ब्लागों पर जो कुछ लिखा गया  उस की चर्चा डॉ. अनुराग ने चिट्ठा चर्चा पर की। डॉ. अनुराग डॉ.बिनायक सेन के हमपेशा हैं। बिनायक सेन के बारे में जो कुछ उन का स्वयं अनुभव और भावनाएँ थीं, चर्चा करते समय चर्चा की भूमिका और उपसंहार में उन का उल्लेख होना बिलकुल भी अस्वाभाविक न था। लेकिन उसी चर्चा को चिठ्ठाचर्चा की एकतर्फियत कहते हुए विवादित बनाने का प्रयत्न किया गया। जहाँ तक उस चर्चा के लिखे जाने तक बिनायक सेन मामले में फैसले के समर्थन में किसी हिन्दी ब्लाग पर कोई उल्लेखनीय पोस्ट नहीं लिखी गई थी। यदि लिखी जाती और उस का उल्लेख उस चर्चा में न होता तो यह कहा जा सकता था कि चर्चा एक तरफा है। जहाँ तक मेरी जानकारी है चिट्ठा चर्चा भी एक सामुहिक ब्लाग ही है और उस पर जो भी चर्चा करता है वह चर्चा करते हुए अपना मत सदैव ही अभिव्यक्त करता भी है। ऐसे में किसी चर्चा को एकतरफी चर्चा कहना मैं तो उचित नहीं समझता। फिर चिट्ठा चर्चा में पाठकों को अपना मत रखने के लिए टिप्पणी करने की स्वतंत्रता बिना किसी मॉडरेशन के उपलब्ध है और वह चर्चा आरंभ कर के बंद नहीं कर दी जाती है। चर्चा का आरंभ सदैव ही किसी विषय पर एक विचार विशेष से होता है, फिर वहाँ उस के समर्थन में या विरोध में विचार आते हैं और विमर्श आरंभ होता है। यदि ऐसा नहीं है तो वह कैसी चर्चा है। क्या केवल कुछ चिट्ठों के लिंक लगा देने को चर्चा कहा जा सकता है? उसे तो "ब्लाग-पोस्ट सूची" कहना पर्याप्त होगा। ऐसा भी नहीं है कि उस चर्चा पर विरोधी मत न आए हों। लेकिन कोई विमर्श से ही बचना चाहे और बिना कुछ कहे सरक ले तो उस का कोई उपचार नहीं है। ब्लाग जगत में कोई किसी हितैषी को सद्भावना पूर्वक दी गई नितांत व्यक्तिगत सलाह को धमकी घोषित कर तमाशा खड़ा कर आनंद  लेने लगे तो इलाज तो उस का भी नहीं है। बात आरंभ करने के पहले ही कोई अपने मनोगत निर्णय के साथ किसी विवाद में एक पक्ष की और मजबूती से खड़ा हो जाए और फिर कहे कि हम जजमेंटल नहीं है, इस से बड़ी 'साफगोई' क्या कोई हो सकती है?
बिनायक सेन पर सुनाए गए निर्णय पर निर्णय के बचाव में यह तर्क तो सामने आया  है कि न्यायिक निर्णयों पर मीडिया में बात नहीं होनी चाहिए, लेकिन उस निर्णय के समर्थन में कोई तथ्यपरक बात अभी तक किसी के भी द्वारा नहीं कही गई है। लेकिन यह तर्क स्वयं जनतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध है। जनतंत्र में किसी भी निर्णय की आलोचना तथ्यों के आधार पर की जा सकती है, यदि इस आलोचना का जनता को अधिकार नहीं होगा तो न्यायपालिका निरंकुशता की ओर बढ़ेगी। इस के अतिरिक्त यह तर्क भी दिया जा रहा है कि क्या मानवाधिकार केवल डॉ. बिनायक सेन के ही हैं? उन के नहीं जो नक्सलियों के हाथों मारे जा रहे हैं। डॉ. बिनायक सेन के मामले में कोई भी मानवाधिकार की बात नहीं कर रहा है। उन पर सीधे-सीधे कुछ अपराध करने का आरोप है। बात मानवाधिकार की नहीं, सिर्फ इतनी है कि क्या उन्हें दंडित किए जाने का निर्णय उचित है? यह सब कानून के आधार पर ही परखा जाएगा, न कि भावनाओं से। वह फैसला सब के पढ़ने के लिए उपलब्ध है, जो भी उस की कानूनी विवेचना कर सकता है, करे। तथ्यों और तर्कों के आधार पर अपनी बात कहे, किस ने रोका है?  जहाँ तक नक्सलियों द्वारा मारे जा रहे लोगों की बात है तो यह मानवाधिकार का प्रश्न नहीं, सीधे-सीधे जन-सुरक्षा और अपराध नियंत्रण का प्रश्न है। संबंधित सरकारें वहाँ जन सुरक्षा और अपराध नियंत्रण में असफल रही हैं और अपनी असफलताओं को छुपाने के लिए विशेष जनसुरक्षा अधिनियम बनाती हैं और उस अमानवीय कानून का विरोध करने वाले डॉ. बिनायक सेन जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं को राजद्रोही कह कर दंडित करने में जुट जाती हैं।

शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

राजद्रोह (Sedition) को देशद्रोह कहना क्या अपराध नहीं है?

जिस अपराध के लिए डॉ.बिनायक सेन को रायपुर (छत्तीसगढ़) के अतिरिक्त सत्र न्यायालय ने दंडित  किया है, उसी अपराध के लिए राष्ट्रपिता महात्मागांधी और लोकमान्य तिलक दंडित किए जा चुके हैं और उन्हें उस के लिए ब्रिटिश भारत की जेलों में दिन बिताने पड़े। आज उस अपराध को हिन्दी मीडिया  का एक हिस्सा 'देशद्रोह' शब्द का प्रयोग कर रहा है जो पूरी तरह अनुचित है। अंग्रेजी मीडिया इस के लिए Sedition शब्द का प्रयोग कर रहा है। भारतीय दंड संहिता (IPC) में भी इस यही शब्द प्रयोग किया गया है। डॉ. हरदेव बाहरी के शब्दकोष में Sedition का अर्थ 'राजद्रोह' किया गया है, न कि देशद्रोह। यदि Sedition का अर्थ देशद्रोह हो तो हमें लोकमान्य तिलक और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के लिए कहना होगा कि वे देशद्रोही थे जिस के लिए उन्हों ने सजाएँ भुगतीं।
यह केवल एक शब्द के अनुवाद और प्रयोग का मामला नहीं है। दंड संहिता की जिस धारा के अंतर्गत डॉ. बिनायक सेन को दंडित किया गया है उसे इसी संहिता में परिभाषित किया गया है और इस का अंग्रेजी पाठ तथा हिन्दी पाठ निम्न प्रकार हैं -
अंग्रेजी पाठ-
Section 124A. Sedition
Whoever, by words, either spoken or written, or by signs, or by visible representation, or otherwise, brings or attempts to bring into hatred or contempt, or excites or attempts to excite disaffection towards. 2[* * *] the Government established by law in 3[India], 4[* * *] shall be punished with 5[imprisonment for life], to which fine may be added, or with imprisonment which may extend to three years, to which fine may be added, or with fine.
Explanation1 -The expression "disaffection" includes disloyalty and all feelings of enmity.
Explanation2 -Comments expressing disapprobation of the measures of the attempting to excite hatred, contempt or disaffection, do not constitute an offence under this section.
Explanation3 -Comments expressing disapprobation of the administrative or other action of the Government without exciting or attempting to excite hatred, contempt or disaffection, do not constitute an offence under this section.

 हिन्दी पाठ -
धारा 124 क. राजद्रोह 
जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृश्यप्रस्तुति द्वारा या अन्यथा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा, या पैदा करने का प्रयत्न करेगा, या असंतोष उत्तेजित करेगा या उत्तेजित करने का प्रयत्न करेगा वह आजीवन कारावास से, जिस में जुर्माना भी जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से जिस में जुर्माना जोड़ा जा सकेगा, या जुर्माने से दंडित किया जा सकेगा। 
स्पष्टीकरण-1 'असंतोष' पद के अन्तर्गत अभक्ति और शत्रुता की सभी भावनाएँ आती हैं। 
स्पष्टीकरण-2  घृणा, अवमान या असंतोष उत्तेजित किए बिना या प्रदीप्त करने का प्रयत्न किए बिना सरकार के कामों के प्रति विधिपूर्ण साधनों द्वारा उन को परिवर्तित कराने की दृष्टि से आक्षेप प्रकट करने वाली टीका-टिप्पणियाँ इस धारा के अधीन अपराध नहीं हैं। 
स्पष्ठीकरण-3  घृणा, अवमान या असंतोष उत्तेजित किए बिना या प्रदीप्त करने का प्रयत्न किए बिना सरकार की प्रशासनिक या अन्य प्रक्रिया के प्रति आक्षेप प्रकट करने वाली टीका-टिप्पणियाँ इस धारा के अधीन अपराध नहीं हैं।
क्त दोनों पाठों का अध्ययन करने के बाद किसी भी भाँति इस अपराध को देशद्रोह का अपराध नहीं कहा जा सकता है। इसे राजद्रोह ही कहा जा सकता है। मीडिया  ने जिस तरह इस अपराध के लिए देशद्रोह शब्द का प्रयोग किया है उस का आरंभ जानबूझ कर किया गया है, बाद में अनुकरण के माध्यम से इस शब्द को प्रचार मिला है और लोग इस का अंधानुकरण कर रहे हैं। मेरी स्वयं की मान्यता है कि जो ताकतें चाहती थीं कि बिनायक सेन को येन-केन-प्रकरेण सजा मिले जिस से कम से कम छत्तीसगढ़ का कोई सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी शासन के विरुद्ध बोलने-लिखने और आवाज उठाने की हिम्मत न करे वे ही शक्तियाँ इस शब्द के प्रचार के पीछे रही हैं और इरादतन Sedition को बार-बार देशद्रोह लिखा जा रहा है। यह कृत्य भी किसी अपराध से कम नहीं है।
मेरा सभी मीडियाकर्मियों, ब्लाग लेखकों और बुद्धिजीवियों से आग्रह है कि वे इस षड़यंत्र को समझें और Sedition को देशद्रोह लिखना बंद करें, इसे राजद्रोह ही लिखा जाए।