द्वितीय अतिरिक्त सत्र न्यायालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) ने साल के अंतिम सप्ताह में जिस मामले पर निर्णय दिया वह बिनायक सेन मामले से जाना गया। यह एक ऐसा मुकदमा था जिस का लक्ष्य किसी अपराध विशेष के लिए किसी अभियुक्त अभियोजित करना और दंड देना था ही नहीं। इस मुकदमे का लक्ष्य सीधे तौर पर बिनायक सेन को दंडित करना था। यही कारण था कि यह मुकदमा बिनायक सेन के नाम से चर्चित हुआ। उस मुकदमे को कोई और नाम नहीं दिया जा सकता था, आखिर कोई कृत्य या घटना होती तो उस के नाम से उस मुकदमे को जाना जाता। साल के अंतिम सप्ताह में दिया गया यह निर्णय देश भर के मीडिया में चर्चा का विषय रहा। पहले समाचार के माध्यम से कि बिनायक सेन व अन्य दो को राजद्रोह में आजीवन कारावास का दंड दिया गया। फिर उस निर्णय की आलोचना आरंभ हो गई। इस आलोचना में बिनायक सेन के साथ संबद्ध लोगों से ले कर तटस्थ और बिनायक सेन की विचारधारा से असहमत और विरोधी तक शामिल थे। जैसे ही निर्णय सुनाया गया मेरे जैसे लोगों में यह जिज्ञासा हुई कि आखिर फैसले में जज ने क्या लिखा है? बिनायक सेन के खिलाफ क्या आरोप थे? उन्हें साबित करने के लिए क्या सबूत प्रस्तुत किए गए? और कैसे बिनायक सेन आरोपित अपराध के दोषी साबित हुए। फैसला प्रकाशित होता तो देखने में आता। डॉ. बिनायक सेन की तरफदारी करने वाले लोगों (पीयूसीएल) ने सब से अच्छी बात यह की कि उन्हों ने उस फैसले की प्रतिलिपि ज्यों की त्यों इंटरनेट पर उपलब्ध करा दी। उस फैसले का अंग्रेजी अनुवाद भी जितनी जल्दी संभव हो सकता था, उन्हीं लोगों ने नेट पर उपलब्ध कराया। जिस से न केवल उन के समर्थक अपितु तटस्थ और उन के विरोधी विचार के लोग भी उस का अध्ययन कर अपनी राय प्रकट कर सकें, एक तथ्यपरक बहस मीडिया में सामने आ सके। इस तरह पीयूसीएल ने अपनी परंपरा के अनुसार सब के बीच उस फैसले पर एक खुली बहस आरंभ करने की पहल की।
हर मामले का तथ्यपरक अन्वेषण करना और साक्ष्यों सहित लोगों के सामने रखते हुए जहाँ भी नागरिकों के सिविल अधिकार आहत होते हों वहाँ उन की पैरवी करने के लिए ही पीयूसीएल का गठन हुआ और इसी के लिए वह काम भी कर रहा है। संगठन के उपाध्यक्ष की हैसियत से यही काम करना शायद वह अपराध बना जिस के लिए उन्हें सजा सुनाई गई है।
यह सहज ही था कि हिन्दी ब्लाग जगत में भी इस घटना और निर्णय की चर्चा होती, जो हुई। कुछ चिट्ठों ने उस पर लिखा। हि्न्दी के कुल चार ब्लागों पर जो कुछ लिखा गया उस की चर्चा डॉ. अनुराग ने चिट्ठा चर्चा पर की। डॉ. अनुराग डॉ.बिनायक सेन के हमपेशा हैं। बिनायक सेन के बारे में जो कुछ उन का स्वयं अनुभव और भावनाएँ थीं, चर्चा करते समय चर्चा की भूमिका और उपसंहार में उन का उल्लेख होना बिलकुल भी अस्वाभाविक न था। लेकिन उसी चर्चा को चिठ्ठाचर्चा की एकतर्फियत कहते हुए विवादित बनाने का प्रयत्न किया गया। जहाँ तक उस चर्चा के लिखे जाने तक बिनायक सेन मामले में फैसले के समर्थन में किसी हिन्दी ब्लाग पर कोई उल्लेखनीय पोस्ट नहीं लिखी गई थी। यदि लिखी जाती और उस का उल्लेख उस चर्चा में न होता तो यह कहा जा सकता था कि चर्चा एक तरफा है। जहाँ तक मेरी जानकारी है चिट्ठा चर्चा भी एक सामुहिक ब्लाग ही है और उस पर जो भी चर्चा करता है वह चर्चा करते हुए अपना मत सदैव ही अभिव्यक्त करता भी है। ऐसे में किसी चर्चा को एकतरफी चर्चा कहना मैं तो उचित नहीं समझता। फिर चिट्ठा चर्चा में पाठकों को अपना मत रखने के लिए टिप्पणी करने की स्वतंत्रता बिना किसी मॉडरेशन के उपलब्ध है और वह चर्चा आरंभ कर के बंद नहीं कर दी जाती है। चर्चा का आरंभ सदैव ही किसी विषय पर एक विचार विशेष से होता है, फिर वहाँ उस के समर्थन में या विरोध में विचार आते हैं और विमर्श आरंभ होता है। यदि ऐसा नहीं है तो वह कैसी चर्चा है। क्या केवल कुछ चिट्ठों के लिंक लगा देने को चर्चा कहा जा सकता है? उसे तो "ब्लाग-पोस्ट सूची" कहना पर्याप्त होगा। ऐसा भी नहीं है कि उस चर्चा पर विरोधी मत न आए हों। लेकिन कोई विमर्श से ही बचना चाहे और बिना कुछ कहे सरक ले तो उस का कोई उपचार नहीं है। ब्लाग जगत में कोई किसी हितैषी को सद्भावना पूर्वक दी गई नितांत व्यक्तिगत सलाह को धमकी घोषित कर तमाशा खड़ा कर आनंद लेने लगे तो इलाज तो उस का भी नहीं है। बात आरंभ करने के पहले ही कोई अपने मनोगत निर्णय के साथ किसी विवाद में एक पक्ष की और मजबूती से खड़ा हो जाए और फिर कहे कि हम जजमेंटल नहीं है, इस से बड़ी 'साफगोई' क्या कोई हो सकती है?
बिनायक सेन पर सुनाए गए निर्णय पर निर्णय के बचाव में यह तर्क तो सामने आया है कि न्यायिक निर्णयों पर मीडिया में बात नहीं होनी चाहिए, लेकिन उस निर्णय के समर्थन में कोई तथ्यपरक बात अभी तक किसी के भी द्वारा नहीं कही गई है। लेकिन यह तर्क स्वयं जनतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध है। जनतंत्र में किसी भी निर्णय की आलोचना तथ्यों के आधार पर की जा सकती है, यदि इस आलोचना का जनता को अधिकार नहीं होगा तो न्यायपालिका निरंकुशता की ओर बढ़ेगी। इस के अतिरिक्त यह तर्क भी दिया जा रहा है कि क्या मानवाधिकार केवल डॉ. बिनायक सेन के ही हैं? उन के नहीं जो नक्सलियों के हाथों मारे जा रहे हैं। डॉ. बिनायक सेन के मामले में कोई भी मानवाधिकार की बात नहीं कर रहा है। उन पर सीधे-सीधे कुछ अपराध करने का आरोप है। बात मानवाधिकार की नहीं, सिर्फ इतनी है कि क्या उन्हें दंडित किए जाने का निर्णय उचित है? यह सब कानून के आधार पर ही परखा जाएगा, न कि भावनाओं से। वह फैसला सब के पढ़ने के लिए उपलब्ध है, जो भी उस की कानूनी विवेचना कर सकता है, करे। तथ्यों और तर्कों के आधार पर अपनी बात कहे, किस ने रोका है? जहाँ तक नक्सलियों द्वारा मारे जा रहे लोगों की बात है तो यह मानवाधिकार का प्रश्न नहीं, सीधे-सीधे जन-सुरक्षा और अपराध नियंत्रण का प्रश्न है। संबंधित सरकारें वहाँ जन सुरक्षा और अपराध नियंत्रण में असफल रही हैं और अपनी असफलताओं को छुपाने के लिए विशेष जनसुरक्षा अधिनियम बनाती हैं और उस अमानवीय कानून का विरोध करने वाले डॉ. बिनायक सेन जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं को राजद्रोही कह कर दंडित करने में जुट जाती हैं।
17 टिप्पणियां:
अभी तो हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट बाकी है. यदि कोई गलती रही होगी तो सुधर जायेगी. कोई गलती नहीं होगी तो फैसला कायम रहेगा. हम जजमेंटल नहीं हो सकते. लेकिन नक्सलियों ने हजारों को मारा है, उन्हें बढ़ावा देने वाला कोई भी हो, बुक होना ही चाहिये.
@भारतीय नागरिक - Indian Citizen
आप की बात से सहमति है। लेकिन जब इस आरोप में बिना किसी सबूत के उस कानून का विरोध करने वाले को ही बुक कर लिया जाए, जो बिना वजह बताए किसी को भी गिरफ्तार करने की शक्ति पुलिस को देता हो, तो आप क्या कहेंगे?
एकतर्फ़ियत = वारी जाऊँ प्रयाग की अनोखी हिन्दी पर इस पर अपुन ने भी कुछ लिखा है ।
चर्चा में दोनों पक्ष रखे जाते हैं, यह अच्छा लगा कि आपने नक्सली हिंसा का भी पक्ष रखा। आम धारणा मीडिया ही बनाता हैं, वही बिगाड़ता है। इस सत्य को समझने और परिभाषित करने का कार्य न्यायविद और समाजविद ही कर सकते हैं, बशर्ते निष्पक्ष हों।
बहुत संतुलित तरीके से आपने अपनी बात कही है !
निश्चित ही
सरकारें वहाँ जन सुरक्षा और अपराध नियंत्रण में असफल रही हैं और अपनी असफलताओं को छुपाने के लिए विशेष जनसुरक्षा अधिनियम बनाती हैं और उस अमानवीय कानून का विरोध करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को राजद्रोही कह कर दंडित करने में जुट जाती हैं।
बेहतर...
कई सवालों पर तुरत जजमेंटल हो जाने वाले हम लोग कई सवालों पर जजमेंटल नहीं हो सकने के बौद्धिक स्खलन का अधिकार रखते हैं...
भई इसमें क्या बुरा है...
ज़िंदगी मज़े में गुजर रही है...काहे इस पर किसी की नज़र लगवाएं...
मेरा मानना है टेक्नोलोजी ने एक आम नागरिक को कंप्यूटर ओर नेट के जरिये परस्पर संवाद का जो टूल दिया है ...उससे बिहार के एक कोने में बैठा नौजवान ..अमेरिका के सदूर प्रान्त में बैठे किसी व्यक्ति से देश -विदेश में घटित किसी भी बात पर संवाद कर सकता है .....भले ही उन संवादों में असहमति हो..... एक स्वस्थ ओर लोकतान्त्रिक समाज में असहमतियो के भी अपने मायने होते है .....कभी कभी वे व्यवस्था को ओर बेहतर बनाने में मदद करती है .......
उस चिटठा चर्चा का उद्देश्य भी एक स्वस्थ बहस का आगे रखना था जैसा पूर्व में कई विषयों पर हुई है .....इस विषय पर पूर्व में भी एक लम्बी वार्ता इसी मंच पर हुई थी जिसमे लगभग विषय के सभी पक्षों को रखने की कोशिश की गयी थी .तभी लगा उन्हें न दोहरा कर उसका लिंक दिया जाए ..
ओर आखिर में ये अनुरोध भी किया गया था के अपने विचार पूर्व में की गयी उस चर्चा को पढ़कर ही दे .....तात्कालिक निर्णय पर न पहुंचे ....
जाहिर है ..पूरे परिपेक्ष्य को एक विस्तार दृष्टि से देखने का अनुरोध था ..जिसमे नक्सलवाद का महिमा मंडन नहीं है .....हिंसा का महिमा मंडन नहीं है ...समस्या के उस पहलु को भी देखने का अनुरोध भी है जिसे हम किनारे पर बैठकर नहीं देख पा रहे है .......दुर्भाग्य से लोग इस गिरफ़्तारी पर उठे सवालों को नक्सलवाद की प्रशंसा से सीधे जोड़ कर देख रहे है ....लोकतान्त्रिक ढांचे में जहाँ तमाम किस्म के सच मौजूद है ..प्रायोजित यथार्थ ओर प्रायोजित सच के मुलम्मे में जिस तरह माओवादी "शोषण" का इस्तेमाल सरकार के खिलाफ कर इस लोकतंत्र के खिलाफ करते है ....सत्ता तंत्र" देशभक्ति" का इस्तेमाल कर .बुनियादी सवालों को पीछे छोड़ने में करता है ......"पोलिस ओर सेना के जवान' ओर "आदिवासी" टूल की तरह फिर इस्तेमाल होते है .......होते रहेगे
हमे इस बारे कुछ नही पता, श
बेहतरीन आलेख। दरअसल गरीबों और वंचितों को अधिकार देने का विरोध करने की एक मानसिकता होती है। वह कभी कभी परतों में ढकी होती है और कभी उग्र होकर मुखर भी हो जाती है। वही ब्लॉगचर्चा वाले मामले में भी हुआ।
बहरहाल- मुझे तो यही नहीं समझ में आया कि विनायक सेन अचानक माओवादी कैसे हो गए? पहले वह अजित जोगी सरकार में स्वास्थ्य सलाहकार रहे। वर्तमान में वे पीयूसीएल के उपाध्यक्ष, जिसकी स्थापना समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने की थी।
सेन की स्थिति तो सरकार और बुद्धिजीवियों (जो दूसरे का दिमाग खाकर जीते हैं) ने धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का वाली कर दी है। माओवादी उन्हें अपना भाई बंधु मान नहीं रहे हैं, छत्तीसगढ़ सरकार की तिकड़म ने उन्हें माओवादी बना दिया है। उनके समर्थन में आजाद कश्मीर का समर्थन करने वाली अरुंधती राय और गुजरात में फर्जीवाड़ा करने वाली तीस्ता जैसे लोग आते हैं, जिससे जनता भ्रमित है (और सेन को इसी जमात का मान रही है, जो सुर्खियां बटोरने के लिए मसले उठाते हैं)। सेन के २५ साल की त्याग तपस्या पर पानी फिर गया।
दरअसल सेन ही सरकार के लिए खतरनाक हैं, जो वंचितों को उनके अधिकार के प्रति जागरूक कर रहे थे। फर्जी मानवाधिकारवादियों से सरकार को कोई खतरा नहीं है। अगर जनता जागरूक हो जाए तो वह लोकतांत्रिक या अलोकतांत्रिक (जैसा वह उचित समझे) तरीके से अपने अधिकार ले ही लेगी। भ्रष्ट सत्ताधारियों की लुटिया डूब जाएगी। सरकार ने यह बेहतर तरीके से सूंघा है।
पटरी से उतर रहे विमर्श को दिशा देने का अत्यन्त महत्वपूर्ण काम आपने किया है। अन्तर्मन ेस आपको धन्यवाद और अभिनन्दन।
भावुकता और पूर्वाग्रहों के चलते दो अलग-अलग मुद्दों का घालमेल कितनी खटास और भ्रम पैदा कर देता है-यह आपकी इस पोस्ट से मालूम होता है।
फिर से अभिनन्दन और धन्यवाद।
vaah bhaayi divivdi ji aapne to sari smsya ka chitrn kaarn or nivaarn sbhi is post men kr daalaa he bhut khub likha he . akhtar khan akela kota rajsthan
मेरी समझ में डा.अनुराग ने अपने विचार रखे। उनके विचारों से ज्ञानजी असहमत थे। उन्होंने अपने धर दिये। कहने का अंदाज उनका अलग है। उन्होंने अपने विचारों के साथ चिट्ठाचर्चा और अनुराग को भी नाप दिया। :)
आपकी पोस्ट भी ज्ञानजी की पोस्ट का विस्तार है। जैसे ज्ञानजी को चिट्ठाचर्चा की एकतर्फ़ियत नहीं भाई वैसे ही आपको उनका ऐसा कहना नहीं भाया। :)
@अनूप शुक्ल
अनूप जी, आप ने जितनी सहज रीति से संक्षेप में बात कह दी, शायद उतनी सहज नहीं है। आप ने गलत कुछ भी नहीं कहा। यदि चिट्ठा-चर्चा के लेखक पर भी अघोषित सेंसर बिठा दिया जाए तो उस का क्या अर्थ रह जाएगा? ब्लागीरी की कोई सीमाएँ हैं क्या? आप ज्ञान जी को चिट्ठा चर्चा के लिए आमंत्रित क्यों नहीं करते?
@ दिनेशजी, अपनी बात कहने पर अगला भी कुछ कहेगा अपनी समझ के अनुसार। उसको अघोषित सेंसर क्यों माना जाये।
@अनूप शुक्ल
पोस्ट पर मेरी आपत्ति नहीं है, लोग कहते रहे हैं और कहते रहेंगे। हम भी कहते रहेंगे लेकिन किसी एक पोस्ट को एकतर्फा घोषित कर जो बात कहना चाहा है और चिट्ठाचर्चा चर्चा से जो अपेक्षा की गई है वह क्या अघोषित सेंसर की वकालत नहीं करती?
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