गृहमंत्री पी.चिदम्बरम ने कहा है कि नक्सलियों के साथ सम्बंध रखने पर मानवाधिकार कार्यकर्ता बिनायक सेन को यदि गलत तरीके से सजा दी गई है तो इसे कानूनी तरीके से सुधारा जाएगा। यदि उन्हें गलत तरीके से दोषी ठहराया गया है तो इसे कानूनी तरीके से सुधारा जाएगा। डॉक्टर कार्यकर्ता बिनायक सेन को कानून की एक अदालत द्वारा दोषी ठहराया गया है और जो लोकतंत्र में विश्वास करते हैं तो उन्हें लोकतंत्र की प्रक्रिया का भी सम्मान करना चाहिए।
अब चिदम्बरम जी भारत सरकार के गृहमंत्री हैं, वे इस बात को कैसे सोच सकते हैं कि बिनायक सेन को 7 मई को गिरफ्तार किया गया था, अगस्त 2007 में उस मुकदमे में आरोप पत्र दाखिल किया गया और फैसला हुआ 24 दिसंबर 2010 को। यह भी तब जब सर्वोच्च न्यायालय ने अदालत को मुकदमे की शीघ्र सुनवाई करने का आदेश दिया था। वर्ना हो सकता था कि अभी इस फैसले में कुछ साल और लग जाते। चिदम्बरम जी के पास शायद कानून मंत्रालय कभी नहीं रहा। राज्य सरकार का अनुभव तो उन्हें है ही नहीं। उन्हें शायद यह भी पता नहीं कि इस देश को वर्तमान में 60000 अदालतों की जरूरत है, और हैं लगभग 15000 मात्र। हम चौथाई अदालतों से काम चला रहे हैं और लोग कम से कम चार गुना अधिक समय तक मुकदमे झेल रहे हैं। केन्द्र सरकार हर बार चिंता जताती है। हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह चुके हैं कि अधीनस्थ न्यायालयों की स्थापना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है जिसे उठाने में उन्हें रुचि लेनी चाहिए। लेकिन उन की सुनता कौन है। कांग्रेसी सरकारें ही इस बात पर कान नहीं देतीं तो अन्य दलों की सरकारों का उस से क्या लेना-देना है।
बिनायक सेन के मामले में अभी सत्र न्यायालय का निर्णय हुआ है। अब मामला उच्च न्यायालय में जाएगा। वहाँ जो हालात हैं उस में वहाँ से फैसला होने में तीन-चार वर्ष भी लग सकते हैं, उस के उपरांत फिर कहा जा सकता है कि न्यायिक प्रक्रिया यहीं तक नहीं रुकती, आगे सर्वोच्च न्यायालय भी है। जहाँ इस तरह के मामले में सुनवाई में और चार-पाँच वर्ष लग सकते हैं। तब जा कर न्यायिक प्रक्रिया का अंत हो सकेगा। यही दुनिया के सब से उदार लोकतंत्र का सच है। तब तक बिनायक सेन को जेल में रहना होगा। उन की पत्नी और दो बेटियों को उन के बिना रहना होगा, बिनायक सेन को सजा सुनाए जाने के बाद से ही पुलिस लगातार जिन का पीछा करती रही है। इस के साथ ही देश की वंचित जनता को उन के दिल की सुनने वाले एक चिकित्सक से वंचित होना पड़ेगा। जब तक बिनायक सेन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय अंतिम निर्णय नहीं दे देता, तब तक इतने लोगों की सजाएँ साथ-साथ चलेंगी। डॉ. सेन बाइज्जत बरी हो भी जाएँ, तो क्या इन सजाओं का औचित्य क्या रह जाएगा?
चिदम्बरम जी! आप को शायद छत्तीसगढ़ के जंगलों के नीचे छुपी संपदा को निकालने और भरी हुई थैलियों को और मोटी बनाने की अधिक चिंता है। इस देश के न्यायार्थी को न्यूनतम समय में न्याय प्रदान करने की नहीं। शायद आप तो भूल भी गए होंगे कि इसी देश की संसद ने यह संकल्प पारित किया था कि प्रत्येक दस लाख की जनसंख्या पर 50 अदालतें स्थापित होनी चाहिए, यह लक्ष्य 2008 तक पूरा कर लिया जाए। लेकिन इस संकल्प का क्या हुआ? यह भी आप को पता नहीं होगा। हम दुनिया के सर्वाधिक उदार लोकतंत्र जो हैं। हम मुकदमे का निर्णय इतनी जल्दी कर क्यों अपनी उदारता त्यागें?
लेकिन इतने सारे जो लोग डॉ. बिनायक सेन के साथ-साथ सजा पाएंगे, आप उन की आवाज ही बंद कर देना चाहते हैं। कि वे न तो फैसले पर उंगली उठाएँ और न ही देश की इस अमानवीय न्याय व्यवस्था पर, जो एक बार आरोप सुना कर निरपराध साबित करने की जिम्मेदारी उस अभियुक्त पर ही डाल देती है जो पहले से ही जेल में बंद है। इस मामले में आप की उदारता कहाँ गई? शायद ऐसा करते समय भारत दुनिया का सब से अधिक उदार लोकतंत्र तो क्या? उदार लोकतंत्र भी नहीं रह जाता। आह! मेरे, दुनिया के सब से उदार लोकतंत्र!
10 टिप्पणियां:
छत्तीसगढ़ के लोग ही विनायक सेन के बारे में अधिक जानते होंगे. माओवादी और हमारी पुलिस-प्रशासनिक व्यवस्था एक ही सिक्के के दो पहलू हैं...
विनायक सेन की पत्नी इलीना से वर्धा विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर व विभागाध्यक्ष हैं। उनकी तकलीफ़ को हमारे कुलपति जी ने शिद्दत से महसूस किया। पूरा परिसर व्यथित है और आंदोलित भी।
हमें अपनी सीमाओं को स्वीकार करते हुए न्यायालय के फैसलों का सम्मान करना चाहिए.
न्यायिक व्यवस्था में हुयी देरी को भी अब लोग मामले लटकवाने के रूप में उपयोग में लाने लगे हैं। यदि निष्कर्ष नहीं चाहिये तो न्यायिक प्रक्रिया में डाल देते हैं लोग।
ागर लोक तन्त्र मे रहना है तो न्यायिक प्रक्रिया को तो मानना ही पडेगा। धन्यवाद।
मित्रों!
यह सही है, कि हम लोकतंत्र में हैं तो न्यायिक प्रक्रिया को मानना होगा। लेकिन उस प्रक्रिया में (विशेष रुप से अपराधिक मामलों में अपराधी को गिरफ्तार करने से ले कर मुकदमे का निर्णय होने तक और फिर अपील-दर-अपील अंतिम होने तक जिस पीड़ादायक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है उसे लगातार और पीड़ादायक बनाया जा रहा है। यहाँ तक कि अब तो किसी अपराधी को दंडित करने की मानसिकता ही खंडित होती जा रही है। प्रशासन, पुलिस और न्यायाधीश तक सोचने लगे हैं क्या जाने यह बच ही जाए, इसे ऐसा लपेटो कि फैसले होने तक इस का कचूमर निकल जाए।
इस न्यायिक प्रक्रिया पर, अनुसंधान की कार्यप्रणाली और न्यायिक देरी पर सवाल तो उठाने पड़ेंगे, उठ रहे हैं। न्यायालयों की कमी का मसला पिछले बीस सालों से उठता रहा है लेकिन उस में सुधार के स्थान पर गिरावट ही आती जाती है। तो न्याय पालिका की इस स्थिति के लिए जिम्मेदार संसद,विधानसभाओं और सरकारों पर उंगलियाँ उठेंगी ही।
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डॉ सेन के खिलाफ पुख्ता साक्ष्य नहीं है । बढ़ता नक्सलवाद सरकार की अकर्मण्यता का नतीजा है , जिससे घबराकर वो वो निर्दोष लोगों को भी सजा दे रही है जो अनुचित है।
लोकतंत्र में विश्वास हम भी रखते हैं लेकिन , लेकिन यही लोकतंत्र यदि गलत निर्णय देने लगे तो क्या आँख मूँद कर उसे मान लेना चाहिए ?
दिनेश जी ,
इसी विषय पर एक लेख लिखा है। समय निकालकर एक नज़र अवश्य डालें तथा विधि के जानकार होने के नाते आपकी अमूल्य राय का इंतज़ार रहेगा।
http://zealzen.blogspot.com/2011/01/dr-binayak-sen-prisnor-of-conscience.html
आभार।
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न जाने कितने मासूम और न्यायप्रिय लोग न्याय में देरी के लिए कोसते रहते हैं पर आज न्यायिक देरी के लिए एक तथाकथित अपराधी के लिए कोसा जा रहा है। क्यों न न्यायिक प्रणाली को चुस्त करने के लिए कुछ किया जाय।
चिदम्बरमजी की मासूमियत पर कुर्बान।
सुचिंतित आलेख !
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