@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: Binayak Sen
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बुधवार, 5 जनवरी 2011

आह! मेरे, दुनिया के सब से उदार लोकतंत्र !

गृहमंत्री पी.चिदम्बरम ने कहा है कि नक्सलियों के साथ सम्बंध रखने पर मानवाधिकार कार्यकर्ता बिनायक सेन को यदि गलत तरीके से सजा दी गई है तो इसे कानूनी तरीके से सुधारा जाएगा। यदि उन्हें गलत तरीके से दोषी ठहराया गया है तो इसे कानूनी तरीके से सुधारा जाएगा।  डॉक्टर कार्यकर्ता बिनायक सेन को कानून की एक अदालत द्वारा दोषी ठहराया गया है और जो लोकतंत्र में विश्वास करते हैं तो उन्हें लोकतंत्र की प्रक्रिया का भी सम्मान करना चाहिए। 
ब चिदम्बरम जी भारत सरकार के गृहमंत्री हैं, वे इस बात को कैसे सोच सकते हैं कि बिनायक सेन को 7 मई को गिरफ्तार किया गया था, अगस्त 2007 में उस मुकदमे में आरोप पत्र दाखिल किया गया और फैसला हुआ 24 दिसंबर 2010 को। यह भी तब जब सर्वोच्च न्यायालय ने अदालत को मुकदमे की शीघ्र सुनवाई करने का आदेश दिया था। वर्ना हो सकता था कि अभी इस फैसले में कुछ साल और लग जाते। चिदम्बरम जी के पास शायद कानून मंत्रालय कभी नहीं रहा। राज्य सरकार का अनुभव तो उन्हें है ही नहीं। उन्हें शायद यह भी पता नहीं कि इस देश को वर्तमान में 60000 अदालतों की जरूरत है, और हैं लगभग 15000 मात्र। हम चौथाई अदालतों से काम चला रहे हैं और  लोग कम से कम चार गुना अधिक समय तक मुकदमे झेल रहे हैं। केन्द्र सरकार हर बार चिंता जताती है। हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह चुके हैं कि अधीनस्थ न्यायालयों की स्थापना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है जिसे उठाने में उन्हें रुचि लेनी चाहिए। लेकिन उन की सुनता कौन है। कांग्रेसी सरकारें ही इस बात पर कान नहीं देतीं तो अन्य दलों की सरकारों का उस से क्या लेना-देना है।  
बिनायक सेन के मामले में अभी सत्र न्यायालय का निर्णय हुआ है। अब मामला उच्च न्यायालय में जाएगा। वहाँ जो हालात हैं उस में वहाँ से फैसला होने में तीन-चार वर्ष भी लग सकते हैं, उस के उपरांत फिर कहा जा सकता है कि न्यायिक प्रक्रिया यहीं तक नहीं रुकती, आगे सर्वोच्च न्यायालय भी है। जहाँ इस तरह के मामले में सुनवाई में और चार-पाँच वर्ष लग सकते हैं। तब जा कर न्यायिक प्रक्रिया का अंत हो सकेगा। यही  दुनिया के सब से उदार लोकतंत्र का सच है।  तब तक बिनायक सेन को जेल में रहना होगा। उन की पत्नी और दो बेटियों को उन के बिना रहना होगा, बिनायक सेन को सजा सुनाए जाने के बाद से ही पुलिस लगातार जिन का पीछा करती रही है।  इस के साथ ही देश की वंचित जनता को उन के दिल की सुनने वाले एक चिकित्सक से वंचित होना पड़ेगा। जब तक बिनायक सेन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय अंतिम निर्णय नहीं दे देता, तब तक इतने लोगों की सजाएँ साथ-साथ चलेंगी। डॉ. सेन बाइज्जत बरी हो भी जाएँ, तो क्या इन सजाओं का औचित्य क्या रह जाएगा? 
चिदम्बरम जी! आप को शायद छत्तीसगढ़ के जंगलों के नीचे छुपी संपदा को निकालने और भरी हुई थैलियों को और मोटी बनाने की अधिक चिंता है। इस देश के न्यायार्थी को न्यूनतम समय में न्याय प्रदान करने की नहीं। शायद आप तो भूल भी गए होंगे कि इसी देश की संसद ने यह संकल्प पारित किया था कि प्रत्येक दस लाख की जनसंख्या पर 50 अदालतें स्थापित होनी चाहिए, यह लक्ष्य 2008 तक पूरा कर लिया जाए। लेकिन इस संकल्प का क्या हुआ? यह भी आप को पता नहीं होगा। हम दुनिया के सर्वाधिक उदार लोकतंत्र जो हैं। हम मुकदमे का निर्णय इतनी जल्दी कर क्यों अपनी उदारता त्यागें?
लेकिन इतने सारे जो लोग डॉ. बिनायक सेन के साथ-साथ सजा पाएंगे, आप उन की आवाज ही बंद कर देना चाहते हैं। कि वे न तो फैसले पर उंगली उठाएँ और न ही देश की इस अमानवीय न्याय व्यवस्था पर, जो एक बार आरोप सुना कर निरपराध साबित करने की जिम्मेदारी उस अभियुक्त पर ही डाल देती है जो पहले से  ही जेल में  बंद है। इस मामले में आप की उदारता कहाँ गई? शायद ऐसा करते समय भारत दुनिया का सब से अधिक उदार लोकतंत्र तो क्या?  उदार लोकतंत्र भी नहीं रह जाता। आह! मेरे, दुनिया के सब से उदार लोकतंत्र!

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

मैं एक विस्फोट भी हूँ ......

ज उस का जन्मदिन है, और वह जेल में है। क्या था उस का कुसूर? बस यही न कि उस ने उस सरकारी कारखाने में काम करने वाले ठेकेदार मजदूरों के लिए एक अस्पताल विकसित किया था, जो अपने स्थाई कर्मचारियों के लिए बेहतर से बेहतर सुविधाएँ प्रदान करता है, लेकिन वही अस्पताल एक मरती हुई मजदूरिन को अपने यहाँ चिकित्सा सुविधा नहीं दे सकता। कि उस ने गाँव गाँव में चिकित्सा सुविधाएँ पहुँचाने के काम में अपने जीवन के बेहतरीन साल गुजारे। जिस ने सलवा जुडूम के कार्यकर्ताओं द्वारा बंदूकों की नोंक अपने गाँवों से हाँक कर सरकारी केम्पों में ले जाए गए आदिवासियों के स्वास्थ्य की दुर्दशा के विरुद्ध आवाज उठाई। यही आवाज न केवल सलवा जुडूम योजना पर अपितु सरकार की नीयत पर भी प्रश्न चिन्ह बन गई। बस उसे देशद्रोही करार दिया गया और जेल में बंद कर दिया जीवन भर के लिए। 
लेकिन क्या, उसे बंद करने से जंगलों, गाँवों, कस्बों, नगरों और महानगरों से न्याय के लिए उठ रही आवाजें रुक जाएँगी। निश्चय ही वे आवाजें ऐसे नहीं रुक सकतीं। रुकना होगा तो उन्हें जो इन आवाजों को रोकने में लगे हैं। वे नहीं रुकेंगे, तो खत्म हो जाएँगे, जनता की यह आवाज तो उठेगी, कोलाहल बन कर न सुनने वालों को बहरा कर देगी, कि वे सुनने के काबिल नहीं रहेंगे। 
डॉ. बिनायक सेन के 61 वें जन्मदिन पर मुझे अपने दिवंगत साथी शिवराम की यह कविता स्मरण हो आती है - - -

मैं एक विस्फोट भी हूँ

-शिवराम

कुचल दो मुझे
मैं उठा हुआ सिर हूँ
मैं तनी हुई भृकुटि हूँ
मैं उठा हुआ हाथ हूँ
मैं आग हूँ
बीज हूँ
आंधी हूँ
तूफान हूँ

और उन्हों ने 
सचमुच कुचल दिया मुझे

एक जोरदार धमाका हुआ
चिथड़े-चिथड़े हो गए वे

उन्हें नहीं मालूम था
मैं एक विस्फोट भी हूँ।

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मेरे दोस्त !
जन्मदिन मुबारक हो, तुम्हें,

उन्हें पता है, 
तुम्हें अंदर कर के 
उन्हों ने कितनी बड़ी गलती की है

पर अब  करें तो क्या?
तीर तो कमान से निकल चुका
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रविवार, 26 दिसंबर 2010

न्याय व्यवस्था राजसत्ता का अभिन्न अंग है, उस का चरित्र राज्य से भिन्न नहीं हो सकता

भी कुछ महीने पहले ही की तो बात है हम उस देवी के कुछ छिपे अंगों को देख पाए थे। पंद्रह हजार से अधिक भारतियों को एक रात में मौत की नींद सुलाने और इस से कई गुना अधिक को जीवन भर  के लिए अपंग और बीमार बना देने के लिए जिम्मेदार हत्यारा एण्डरसन अभी भी अमरीका में चैन की नींद सो रहा है। सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ  ने इस अपराध को एक मामूली मामले में परिवर्तित कर दिया। बाद में इसी बैंच के न्यायाधीश हत्यारी संस्था द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अधीन स्थापित अस्पताल के सर्वेसर्वा बन गए। सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय के विरुद्ध कोई पुनर्विचार याचिका पेश नहीं की। यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (यूसीआइएल) के तत्कालीन अध्यक्ष केशव महेंद्रा समेत सात अधिकारी दोषी सिद्ध हुए और पर दो-दो वर्ष के कारावास और एक-एक लाख रुपए के अर्थदंड की सजा से विभूषित किए गए। इस फ़ैसले के बाद सात जून को ही सभी आरोपियों ने अपने पॉकेट मनी के बराबर का अर्थदंड भरते ही 25-25 हजार रुपए के मुचलके और इतनी ही राशि की जमानत पर रिहा हो गए। इस फैसले से देश में नाराजगी का जो बवंडर उठा तब जा कर सरकारों (केन्द्र और राज्य दोनों) ने सर्वोच्च न्यायालय में उसके अपने निर्णय को बदलने के लिए क्यूरेटिव पिटिशन पेश करने की स्मृति हो आई। जिसे सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया गया। मामला फिर सर्वोच्च न्यायालय के पाले में है।
ह सर्ग  हमें बताता है कि उद्योगपति, वे देसी हों या विदेशी, राजसत्ता से उन का कैसा नाता है? केवल संविधान में एक स्वतंत्र न्यायपालिका के लिए व्यवस्था कर देने मात्र से वह स्वतंत्र नहीं हो जाती। न्यायपालिका राज्य का अभिन्न अंग है, और वह राज्य के चरित्र से अलग किसी भी तरह नहीं हो सकता। आजादी के तुरंत बाद स्वतंत्रता की चेतना शिखर पर थी, भारतीय राज्य घोषित रूप से एक लोक कल्याणकारी राज्य बनने जा रहा था, और न्यायपालिका के उच्च पदों पर वे लोग पदासीन थे जो आंदोलनों के बीच से आए थे। तो उस वक्त कानून की विवेचना और निर्णय जनपक्षीय होते थे। लेकिन आजादी के पहले का कमजोर बालक, भारत का पूंजीपति वर्ग जवान होता गया, सत्ता पर अपना असर  बढ़ाता गया। वैसे-वैसे न्यायपालिका के निर्णयों का वजन जनपक्षीय पलड़े से कम होता गया और पूंजीपतियों के हितों के पलड़े की ओर बढ़ता गया। हर कोई जानता है कि 1980 में जब देश का मजदूर आंदोलन तेज था और सत्ता व सरकार पर पूंजीपतियों की पकड़ कमजोर तो, न्यायपालिका के निर्णय कमजोर वर्ग की ओर झुके होते थे। तब सिद्धांत यह था कि कानून की व्याख्या कमजोर वर्ग के हित में की जानी चाहिए। कानून वहीं रहा लेकिन देखते ही देखते इसी स्वतंत्र न्यायपालिका ने उन की व्याख्या बदल कर रख दी। कमजोर वर्ग गायब होता गया और उद्योग के हित प्रधान हो गए। उन्हीं कानूनों के अंतर्गत, यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय की वृहत पीठों में निर्धारित किए गए सिद्धांतों को बदले बिना, अब जो फैसले होते हैं, 1980 तक हुए फैसलों की अपेक्षा बिलकुल उलट होते हैं। 
मौजूदा शासक वर्ग (पूंजीपति) अनेक माध्यमों से न्यायपालिका को प्रभावित करता है। भोपाल त्रासदी के मामले में हुआ निर्णय उस का एक उदाहरण है। हमारी सरकार जो पूरी तरह इस वर्ग से नाभिनालबद्ध है। न्यायपालिका के आकार को छोटा रखती है। अधीनस्थ न्यायालयों की स्थापना नहीं करती। आज देश में जरूरत के केवल 20 प्रतिशत न्यायालय हैं, जिस का परिणाम यह है कि न्यायार्थी को न्याय प्राप्त करने में पाँच गुना से भी अधिक समय लगता है। कुछ लोग अपने प्रयासों और जुगाड़ों से शीघ्र न्याय प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं तो बाकी लोगों के हिस्से का न्याय दूर सरक जाता है। अनेक को तो न्याय अपने जीवन काल में मिलता ही नहीं है। दूसरी ओर उद्योगपति और वित्तीय संस्थान जिन मामलों में उन के हित प्रभावित होने होते हैं, उन के लिए विशेष न्यायालय स्थापित करवाते हैं। सरकार भी उन के लिए विशेष न्यायालय स्थापित कर उन्हें राहत प्रदान करती है। लेकिन जनता? उस की चिंता किसे है? जहाँ शासक वर्ग के विरुद्ध मामले होते हैं उन अदालतों में वर्षों तक फैसले नहीं होते। वहाँ सरकार को भी कोई चिंता नहीं है। 

कुछ माह पहले भोपाल त्रासदी के निर्णय ने देश भर को चौंकाया था और वह आंदोलित हुआ था। वैसा ही निर्णय बिनायक सेन मामले में रायपुर के अपर सत्र न्यायालय ने दे कर फिर से चौंकाया है। अदालत  इंडियन सोशल इंस्टीटच्यूट (आईएसआई) को पाकिस्तानी खुफिया ऐंजेंसी समझ कर बिनायक सेन को देशद्रोही करार देती है। एक ऐसे चिकित्सक को जो ग़रीब जनता को अपनी सेवाएँ मुहैया कराता है, उन में सांगठनिक चेतना के संचार में जुट जाता है, जो राज्य के दमनकारी कानून के विरुद्ध आवाज उठाता है उस के विरुद्ध फर्जी सबूतों के माध्यम से देशद्रोह का मामला बना कर उसे बंदी बना लिया जाता है और फिर अदालत उन्हीं सबूतों के आधार पर सजा दे देती है। इस निर्णय की बहुत आलोचना हो चुकी है। निर्णय उपलब्ध होने पर उसे भी व्याख्यायित किया जा सकता है। लेकिन बिनायक सेन जैसे व्यक्ति को आजीवन कारावास की सजा सुनाने की वजहें जानी जा सकती हैं। रायपुर के एक वरिष्ठ वकील की प्रतिक्रिया इसे स्पष्ट करती है, वे कहते हैं- "कृपया इस बारे में कोई प्रतिक्रिया मत मांगिए। यह एक बहुत ही संवेदनशील मामला है, जिससे कई राजनीतिज्ञों व पुलिस अधिकारियों की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। मैं संकट में नहीं पड़ना चाहता। लेकिन जब तमाम राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कार्यकर्ता मीडिया को प्रतिक्रिया देने को उत्सुक हैं, तो फिर आप मेरी प्रतिक्रिया क्यों मांग रहे हैं?"
जो लोग रायपुर फैसले की आलोचना कर रहे हैं, न जाने उन्हें इस बात की कैसे अपेक्षा थी कि बिनायक सेन निर्दोष छूट जाएंगे? मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं था कि उन्हें सजा होगी ही और वह भी आजीवन कारावास। मुझे सत्ता के महत्वपूर्ण अंग न्यायपालिका पर पूरा विश्वास था कि वह अवश्य राज्य के दूसरे हिस्से की इज्जत अवश्य ही बचा लेगी। यह हो भी कैसे सकता है कि एक बहन संकट में हो और दूसरी उस के खिलाफ फैसला दे दे? मेरे पास इस से अधिक कहने को कुछ नहीं है। लेकिन यह स्पष्ट है कि देश की न्याय व्यवस्था राजसत्ता का अभिन्न अंग है उस का चरित्र राज्य के चरित्र से भिन्न नहीं हो सकता। जिन दिनों मैं ने वकालत आरंभ की थी तो आंदोलनकारी मजदूरों को सजा मिलने पर उन के साथ आए लोग अदालत के बाहर नारे लगाते थे,  पूंजीवादी न्याय व्यवस्था - मुर्दाबाद! वह नारा अब अदालतों में कभी लगता दिखाई नहीं देता, लेकिन अब वक्त आ गया है कि इस नारे को देश भर में बुलंद किया जाए।