@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: समाजवाद
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शुक्रवार, 27 मार्च 2020

कोविद-19 महामारी, चीन, अमरीका और दुनिया के देश



चीन पर कोविद-19 वायरस को जन्म देने के लिए चीन पर सन्देह व्यक्त करने के लिए चीन ने ट्रम्प को बुरी तरह लताड़ा है। सीएनए की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक अमरीका में  85505 लोग कोविद-19 से प्रमाणित रूप से संक्रमित हो चुके हैं। यह लेख लिखने तक उन की संख्या में और वृद्धि हो चुकी होगी। जहाँ संक्रमित लोगों के स्वस्थ होने वालों की संख्या 681 और मरने वालों की संख्या 1288 है। अमरीका की स्थिति से ऐसा प्रतीत होता है कि जल्दी ही कोविद-19 से प्रभावितों और मरने वालों की संख्या में वह दुनिया के सभी देशों के रिकार्ड को चन्द दिनों में ही पीछे छोड़ देगा। भले ही अमरीकी सरकार को जनता चुनती हो और दुनिया का सर्वोत्तम जनतन्त्र होने का लगातार ढोल पीटती हो। लेकिन अब कोविद-19 से निपटने के उसके तरीके से यह स्पष्ट हो रह है कि वहाँ की सरकार पर अमरीकी पूंजीपतियों का नियन्त्रण बहुत मजबूत है। वहाँ जनता के नहीं बल्कि पूंजीपतियों के हित सर्वोपरि हैं।

चीन से आने वाली रिपोर्टों से पता लगता है कि उन्हों ने कोविद-19 के संक्रमण को अच्छी तरह से नियन्त्रित कर लिया है। दस दिन पहले भारत से चीन लौटने वाले एक व्यापारी ने सोशल मीडिया पर अपना अनुभव शेयर करते हुए कहा है कि चीन में एयरपोर्ट से अपने फ्लैट तक पहुँचने तक उसे अनेक बार स्क्रीनिंग से गुजरना पड़ा। प्लेन से उतरते ही, बस में बैठने के पहले, बस से उतरते ही,  स्टेशन में घुसने के पहले, ट्रेन में बैठने के पहले, ट्रेन में, ट्रेन से उतरने के तुरन्त बाद स्टेशन पर, टैक्सी में बैठने के पहले, सोसायटी के प्रवेश द्वार पर, फिर अपनी बिल्डिंग में लिफ्ट में प्रवेश करने के पहले उसकी स्क्रीनिंग हुई। शायद किसी भी अन्य देश में इतनी बड़ी तादाद में होना संभव नहीं है। उन्हों ने कोविद-19 वायरस की जन्मस्थली वुहान शहर की ओद्योगिक गतिविधियाँ पुनः आरम्भ कर दीं हैं। उद्योगपति, व्यापारी, विद्यार्थी और अन्य लोग जो संक्रमण के कारण चीन छोड़ गए थे वापस चीन और वुहान वापस लौटने लगे हैं। चीन में रह रहे भारतीय सुभम पाल के अनुभव को आज राजस्थान पत्रिका ने अपने संपादकीय पृष्ठ के अग्रलेख का स्थान दिया है उसे पढ़ें और समझें कि चीन कैसे इस महामारी पर नियंत्रण किया है  और इस महामारी से लड़ने का सही तरीका क्या होना चाहिए।

कल मेरी बेटी ने मुझे बताया कि चीन में कोविद-19 के संक्रमण से मरने वालों की संख्या बहुत अधिक होने की संभावना व्यक्त की जा रही है जिसका आधार यह है कि वहाँ दिसम्बर से अभी तक 70 लाख से अधिक सेलफोन और 8 लाख से अधिक बेसिक फोन कनेक्शन बन्द हुए हैं।  यह सन्देह खुद चीन सरकार द्वारा जारी किए गए अधिकारिक आँकड़ों पर आधारित हैं। चीन ने उस पर व्यक्त किए जा रहे इस सन्देह पर अभी तक कोई बयान नहीं दिया है। लेकिन अनेक विष्लेषकोंल ने  यह बताया है कि बन्द टेलीफोन कनेक्शनों की यह संख्या असाधारण नहीं है। चीन में बन्द हुए टेलीफोन कनेक्शनों की यह संख्या जो एक करोड़ से भी कम है वहाँ के कुल टेलीफोन कनेक्शनों की संख्या 162 करोड़ के मुकाबले मात्र आधा प्रतिशत है और नगण्य है। कोविद-19 से निपटने के क्रम में लाखों आप्रवासी मजदूर अपने काम के नगरों और प्रान्तों से अपने प्रान्तों में अपने गाँवों को लौट गए हैं और हजारों छोटी औद्योगिक इकाइयाँ और व्यापारिक प्रतिष्ठान बन्द हुई हैं। चीन में एक व्यक्ति को पाँच सेलफोन तक उपयोग करने की छूट है। आय के बन्द या कम होने और बचत किए जाने के लिए ये टेलीफोन बन्द किए गए हो सकते हैं।

आज सोशल मीडिया में कुछ पोस्टें ऐसे लोगों की हैं जो अमरीका को दुनिया में जनतंत्र का ईश्वर मानते हैं। उन्होंने लिखा है कि यह वायरस चीन सरकार का षड़यन्त्र है। और यदि चीन के स्थान पर कोई साधारण देश होता तो अमरीका वहाँ डेमोक्रेसी लाने पहुँच चुका होता। तो अमरीका के डेमोक्रेसी का भगवान होने सच यह है कि उस ने अब तक कहीं जनतन्त्र नहीं बनाया। जहाँ भी उसने जनतंत्र के नाम पर हस्तक्षेप किया, वहाँ अपनी दलाल सरकार बना कर लौटा। हाल ही में अफगानिस्तान का उदाहरण देखें। वह उसे फिर से उन्हीं कबीलावादी तालिबान के हाथों सौंप चुका है और तालिबान की छाया के तले वहाँ आईएस ने सिखों को कत्ल कर दिया है।

अमरीका जहाँ भी जाता है उस देश को वह राजशाही में, कबीलाई हालत में फिर तानाशाही में बदल देता है। अमरीका के तथाकथित शासक खुद भी अपने जनतंत्र से कम नहीं डरते। ट्रम्प की जनतंत्र के प्रति बिलबिलाहट बार-बार प्रकट होती है और वैश्विक समाचार बन जाती है। ट्रम्प का बस चले तो वह अमरीका का फ्यूहरर बन जाए। अमरीका और उसके जनतंत्र पर मर मिटने की हद तक फिदा लोगों के सन्देह कम्युनिस्ट शब्द से उन के मन में साम्राज्यवादी-पूंजीवादी मीडिया द्वारा पैदा किए गए भय का परिणाम हैं। दुनिया के कुल मीडिया के 95 प्रतिशत पर साम्राज्यवादियों-पूंजीपतियों का कब्जा है। वे नए नए आँकड़े रचते हैं, अधिकारिक आँकड़ों का विश्लेषण मान्य स्टेटिकल रीति से करने के स्थान पर सन्देहपूर्ण तरीकों से करते हुए तमाम समाजवादी, साम्यवादी, जनप्रतिबद्ध ताकतों के प्रति घृणा उत्पन्न करने के लिए करते हैं और दुनिया भर में झूठ फैलाते हैं। साम्राज्यवादी-पूंजीवादी ताकतें यह काम पिछली सदी के आरंभ में हुए पहले विश्वयुद्ध के समय से खूब कर रहा है।

हम आज की बात करें तो कथित जनतंत्र के भगवान अमरीका के कोविद-19 से निपटने के तरीकों  के सामने आने के बाद मैं यह मानने लगा हूँ कि यह दुनिया का सौभाग्य और कौविद-19 का दुर्भाग्य था कि वह चीन में पैदा हो गया। यदि उसने इटली, स्पेन, अमरीका या किसी अन्य पूंजीवादी देश में जन्म लिया होता तो सारी दुनिया अब तक इससे उत्पन्न महामारी से घायल पड़ी होती। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के नियंत्रण में पूंजीवाद को समाजवाद की और धकेलते चीन ने इस वायरस के विरुद्ध लड़ाई को पूरी तरह से वैज्ञानिक पद्धति प्रदान की और उस पर सफलता पूर्वक नियंत्रण पाया। दूसरा समाजवादी देश क्यूबा है जिस क्रूज को कोई देश अपने बंदरगाह पर लंगर डालने की इजाजत नहीं दे रहा था उसे क्यूबा ने पनाह दी और संक्रमित लोगों का इलाज किया। अब जिस के डाक्टर्स अनेक देशों में जा कर अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में बनी केरल राज्य की सरकार है जिस ने भारत में सब से बेहतर तरीके से इस वायरस पर नियंत्रण पाया है।

जिन लोगों को जनतंत्र के भगवान अमरीका पर बहुत विश्वास है, और जो पहला अवसर मिलते ही तो वहाँ पलायन करने कौ तैयार बैठे रहते हैं। उसी अमरीका में कोविद-19 की महामारी से मरने वालों की संख्या बहुत तेजी से रिकार्ड तोड़ रही है। केवल साम्यवादी और समाजवादी ही हैं जो इस महामारी से सबसे बेहतर रीति से लड़ते हुए न केवल अपने अपने देशों की जनता की रक्षा कर रहे हैं। अपितु वे दूसरे देशों की मदद कर रहे हैं।  

शनिवार, 25 मई 2019

गांधीजी का छल

21 अक्टूबर, 1928 को ‘नवजीवन’ में गांधीजी ने लिखा - ‘बोल्शेविज्म को जो कुछ थोड़ा-बहुत मैं समझ सका हूं वह यही कि निजी मिल्कियत किसी के पास नहीं हो— प्राचीन भाषा में कहें तो व्यक्तिगत परिग्रह न हो। यह बात यदि सभी लोग अपनी इच्छा से कर लें, तब तो इसके जैसा कल्याणकारी काम दूसरा नहीं हो सकता। परंतु बोल्शेविज्म में जबरदस्ती से काम लिया जाता है। ...मेरा दृढ़ विश्वास है कि जबरदस्ती से साधा गया यह व्यक्तिगत अपरिग्रह दीर्घकाल तक नहीं टिक सकता। ...फिर भी बोल्शेविज्म की साधना में असंख्य मनुष्यों ने आत्मबलिदान किया है। लेनिन जैसे प्रौढ़ व्यक्ति ने अपना सर्वस्व उसपर निछावर कर दिया था; ऐसा महात्याग व्यर्थ नहीं जा सकता और उस त्याग की स्तुति हमेशा की जाएगी।’ 


गांधीजी ने उक्त कथन में बोल्शेविज्म शब्द का प्रयोग किया है। बोल्शेविज्म शब्द से आज कुछ भी पता नहीं लगता है कि यह क्या है। क्या यह कम्युनिज्म है, या फिर वैज्ञानिक समाजवाद है या कुछ और। हम यदि रुसी बोल्शेविक क्रांति के बाद के दिनों में जाएँ तो उन दिनों क्रान्ति के बाद लेनिन के नेतृत्व में बनी राज्य-व्यवस्था को बोल्शेविज्म के रूप में जाना जाता था। हमें कुछ शब्दकोशो में भी उस का यही अर्थ मिलता है। हम जानते हैं कि लेनिन वैज्ञानिक समाजवाद की स्थापना करना चाहते थे उस के बिना एक कम्युनिस्ट व्यवस्था में संक्रमण संभव नहीं है। उन्हों ने जो सरकार स्थापित की थी वह सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवाद था। 

लेकिन गांधीजी पहले कहते हैं – “बोल्शेविज्म को जो कुछ थोड़ा-बहुत मैं समझ सका हूं वह यही कि निजी मिल्कियत किसी के पास नहीं हो— प्राचीन भाषा में कहें तो व्यक्तिगत परिग्रह न हो.” इस तरह वे यहाँ सीधे सीधे कम्युनिज्म की बात करते हैं। 

वे इस अवस्था को सही मानते हुए कहते हैं कि “यह बात यदि सभी लोग अपनी इच्छा से कर लें, तब तो इसके जैसा कल्याणकारी काम दूसरा नहीं हो सकता.” लेकिन फिर आगे कहते हैं “परंतु बोल्शेविज्म में जबरदस्ती से काम लिया जाता है. ...मेरा दृढ़ विश्वास है कि जबरदस्ती से साधा गया यह व्यक्तिगत अपरिग्रह दीर्घकाल तक नहीं टिक सकता। ...फिर भी बोल्शेविज्म की साधना में असंख्य मनुष्यों ने आत्मबलिदान किया है। लेनिन जैसे प्रौढ़ व्यक्ति ने अपना सर्वस्व उसपर निछावर कर दिया था; ऐसा महात्याग व्यर्थ नहीं जा सकता और उस त्याग की स्तुति हमेशा की जाएगी।” 

उन का मतभेद यहाँ उस अवस्था अर्थात कम्युनिज्म तक पहुँचने में नहीं है। लेकिन उस तक पहुँचने के लिए जो सर्वहारा के अधिनायकवाद या “वैज्ञानिक समाजवाद” की स्थापना लेनिन करते हैं उस की आलोचना वे करते हैं क्यों कि वे कहते हैं कि “इस में जबर्दस्ती से काम लिया जाता है”। इस के समानान्तर वे “ट्रस्टीशिप” का सिद्धान्त ईजाद कर लेते हैं। 

इस तरह गांधीजी वस्तुतः “वैज्ञानिक समाजावाद”, सर्वहारा अधिनायकवाद” और साम्यवाद की अवधारणा को ठीक से समझ ही नहीं सके थे। उन्हों ने उसे समझने की चेष्टा भी नहीं की थी। अन्यथा वे देख पाते कि पूंजीवाद में जनता का जितना दमन पूंजीवादी सरकारें करती हैं, उतना सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद में नहीं होता। समाजवाद में सिर्फ पूंजीपतियों के हाथों से उत्पादन के साधन छिन जाते हैं। लेकिन शेष जनता को जो नए अधिकार मिलते हैं उस का दुनिया में इस से पहले कोई सानी नहीं था। “सर्वहारा के अधिनायकवाद”, “वैज्ञानिक समाजवाद” और “साम्यवाद” के सिद्धान्त गांधीजी के बहुत पहले अस्तित्व में आ चुके थे। यदि “समाजवाद” के समानान्तर उन्हें “ट्रस्टीशिप की व्यवस्था” की बात करने के पहले उनके लिए आवश्यक था कि वे पहले मार्क्सवाद के “सर्वहारा के अधिनायकवाद”, “वैज्ञानिक समाजवाद” और “साम्यवाद” की अवधारणाओं को ठीक से समझकर खंडन करते और फिर “ट्रस्टीशिप” के सिद्धान्त को तार्किक तरीके से स्थापित करने की कोशिश करते। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। 

सही बात तो यह है कि गांधीजी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारत की आजादी के लड़ रहे थे और उनकी इस लड़ाई में देश के अनेक सामंत और पूंजीपति भी उन के साथ थे। इस तरह वे जिस पूंजीवादी व्यवस्था की उच्चतर अवस्था साम्राज्यवाद से लड़ रहे थे, उस लड़ाई में वे पूंजीपतियों को भी साथ लिए थे। जिस से पूंजीवाद की आलोचना उन के लिए संभव नहीं थी। साम्यवादी व्यवस्था की आलोचना संभव नहीं थी। उसकी आलोचना से उन के साथ जमीनी लड़ाई लड़ रहे करोडों किसान, मजदूर और मेहनतकश जनता उन के आंदोलन से दूर हो जाती। इस कारण उन्हों ने साम्यवाद तक पहुँचने के लिए एक पूरी तरह अव्यवहारिक “ट्रस्टीशिप” सिद्धान्त खड़ा कर दिया। यह सीधे-सीधे भारत के करोडों किसानों, मजदूरों और मेहनतकश जनता के साथ गांधीजी का छल था।

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

राजनीति में सामंतवाद महत्वपूर्ण स्थान बनाए हुए है।

पाँच राज्योें के विधानसभा चुनावों में एक परिदृश्य ठीक उन दिनों उपस्थित हो रहा है जब उम्मीदवारों के नामांकन की अन्तिम तिथि नजदीक आई है। यह परिदृश्य उपस्थित करने में पहले सत्ता में रह चुकी कांग्रेस और वर्तमान में सत्ता का स्वाद चख रही भाजपा प्रमुख हैं। कांग्रेस के वे नेता जो समझते थे कि उन्हें तो पार्टी चुनाव में उम्मीदवार बनाने से इन्कार कर ही नहीं सकती। उन्हें उम्मीदवार नहीं बनाने पर वे रातों रात भाजपा मे गए और उन्हें तुरन्त वहाँ उम्मीदवार बना लिया गया। इसी तरह रातों रात भाजपा के एक पुराने सदस्य ने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की और कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार बनाया। 


कांग्रेस के पुराने नेता बून्दी के बृजसुंदर शर्मा की पुत्रवधु जिस की कांग्रेस में अच्छी स्थिति थी इस बार उम्मीदवार न बनाए जाने पर उसे भाजपा ने अपने पाले में बुला कर तुरन्त इटावा विधानसभा से उम्मीदवार बनाया। उसी तरह कांग्रेस से संसद सदस्य रहे कोटा के भूतपूर्व राज परिवार के सदस्य इज्जेराज सिंह ने रातों रात कांग्रेस को त्याग कर भाजपा की सदस्यता प्राप्त कर ली और उन की पत्नी को भाजपा ने लाडपुरा विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवार बना लिया है। दूसरी और पूर्व केन्द्रीय मंत्री जसवन्त सिंह के पुत्र मानवेन्द्र सिंह ने भाजपा को छोड़ कर कांग्रेस की सदस्यता ली और वे अब वर्तमान मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे के विरुद्ध कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में झालरापाटन से चुनाव लड़ रहे हैं। 


हाँ दोनों ही पार्टियाँ विशेष रूप से भारतीय जनता पार्टी नीतियों और घोषणापत्रों के आधार पर चुनाव लड़ती प्रतीत नहीं होती हैं। वे किसी भी तरह से अधिक से अधिक विधानसभा क्षेत्रों में जीत कर विधानसभा में अपना बहुमत बनाने के फेर में हैं। ममता शर्मा और इज्जेराज सिंह को उन्हों ने क्षत्रप माना है, जिनका किसी क्षेत्र विशेष में अपना प्रभाव है और उस प्रभाव के उपयोग से वे चुनाव जीत कर भाजपा की झोली में डाल देंगे। भाजपा जानती है कि यह चुनाव वह नहीं जीत रही है बल्कि जीतना है तो क्षत्रपों पर भरोसा करना होगा। कांग्रेस की स्थिति कुछ भिन्न है। उन्हों ने मानवेंद्र सिंह को मुख्यमंत्री वसुन्धरा के मुकाबले चुनाव में खड़ा किया है जहाँ से उन का जीतना अत्यन्त दुष्कर प्रतीत होता है। फिर भी वे वसुन्धरा को अच्छी टक्कर दे सकते हैं। 

ह स्थिति केवल हाड़ौती अंचल की नहीं है पूरे राजस्थान में और अन्य राज्यों में भी कमोबेश इस तरह की घटनाएँ घटी हैं। चुनाव के ठीक पहले ये घटनाएँ यह प्रमाणित करती हैं कि राजनीति आज भी उसी सामंतवादी स्वभाव से चल रही है, जहाँ राजा का राज इस आधार पर नहीं चलता था कि वह जनता के बीच लोकप्रिय है, बल्कि इस आधार पर चलता था कि उस ने कितने सूबेदारों का विश्वास जीत रखा है। इस तरह हम देखते हैं कि राजनीति के क्षेत्र में देश की सत्ता पर अपना कब्जा बरकरार रखने के लिए पूंजीपति वर्ग को सामंती राजनीति पर बड़ा भरोसा रखना पड़ रहा है। बल्कि वह जानता है कि इस के बिना वह सत्ता को बहुत देर तक अपने पास बरकरार नहीं रख सकता। 


मार्क्सवाद-लेनिनवाद को अपना आधार मानने वाले कुछ राजनैतिक दल पता नहीं किस आधार पर यह मानते हैं कि भारत में सामंतवाद सगभग समाप्त हो चुका है, सामंती संबंध प्रभावशाली नहीं रहे हैं। और इसी आधार पर वे मानते हैं कि जनवादी क्रान्ति के कार्यभार पूरे हो चुके हैं और भारत में समाजवादी क्रान्ति का दौर आ चुका है।

रविवार, 3 फ़रवरी 2013

मनुष्य समाज का भविष्य क्या है?


र्गहीन मानव समाज एक सपना नही अपितु यथार्थ है। मानव समाज को अस्तित्व में आए दो लाख वर्ष हुए हैं। इन में से 90 से 95 प्रतिशत समय उस ने वर्गहीन समाज की अवस्था में ही बिताया है। मनुष्य जीवन का मात्र पिछले दस हजार वर्षों का काल ही ऐसा है जिन में वर्गों का अस्तित्व दृष्टिगोचर होता है। पृथ्वी पर मनुष्य के आविर्भाव से आज तक के काल का केवल पाँच प्रतिशत के अनुभव के आधार पर यह निष्कर्ष प्राप्त करना कि वर्गहीन समाज एक सपना है अपने आप में एक सपना है। साम्यवाद मनुष्य समाज से एक वर्ग को समाप्त कर देने मात्र से स्थापित नहीं हो सकता। उस के लिए मनुष्य समाज के सभी वर्गों का समूल नाश होना आवश्यक है। साम्यवाद तभी संभव है। सभी वर्गों के समूल नाश की बात से केवल वे लोग इन्कार करते हैं जो किसी न किसी प्रकार से शोषण पर आधारित व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं और शोषकों और शोषण की व्यवस्था की रक्षा में खड़े हैं। मुझे उन लोगों पर हँसी आती है जो "साम्यवादी शासन" की बात करते हैं। साम्यवाद में तो शासन होता ही नहीं वह तो मानव समाज की शासनहीनता की अवस्था है। सभी समान हों तो कौन किस पर शासन करेगा? साम्यवाद और शासन में तो उतना ही बैर है, जितना रोशनी और अंधकार में। जब कोई वर्ग ही नहीं होगा तो कौन किस पर शासन करेगा? वर्गीय शासन में जनता शब्द या तो कोई अर्थ नहीं रखता और यदि रखता है तो उस से केवल वे लोग भासित होते हैं जो शोषक वर्ग के शिकार हैं। वास्तव में जनता एक भ्रामक शब्द है। समाज में शोषक होते और शोषित होते हैं। वर्तमान समाज व्यवस्था में जब पूंजीपति वर्ग ने अपने ही जाए उजरती मजदूरों के वर्ग के हाथों अपनी मृत्यु को निश्चित जान कर अपनी रक्षा के लिए सामंतवाद के समूल नाश के अपने कर्तव्य से च्युत हो कर उन से समझौता किया और अनेक ऐसे वर्गीय समूहों को जीवित रहने दिया जो खुद एक और श्रमजीवियों के शोषण में जुटे हैं तो दूसरी ओर सरमाएदारों के शोषण के शिकार भी हैं। यह पूंजीपति-भूस्वामी वर्ग ही हैं जो मनुष्य समाज के सभी सदस्यों को जनता की संज्ञा प्रदान कर के भेड़ों और भेड़ियों की युति को रेवड़ बताने के भ्रम को जीवित रखते हैं। जब तक मनुष्यों की खाल में भेड़िये मौजूद हैं साम्यवाद किसी प्रकार संभव नहीं। ये भेड़िये ही हैं जो साम्यवाद के विरोधी हैं जो अपनी अवश्यंभावी मृत्यु के टल जाने को जनता द्वारा साम्यवाद के विचार को कूड़े के ढेर में फेंक देना घोषित करते हैं।

कुछ लोग कहते हैं कि “वर्गहीन समाज भले स्थापित हो जाय पर शासनहीन होना सम्भव नहीं लगता। आदिम समय से ही मनुष्य मनुष्य पर शासन करता आया है। जानवरों तक में यह प्रवृत्ति पायी जा सकती है। काश मनुष्य की यह इच्छा सच हो पाती पर शायद यह (शासनहीनता की स्थिति) व्यावहारिक रूप से कभी नहीं हो सकेगा।” इस तरह सोचने वाले लोग मनुष्य जीवन के 95 प्रतिशत काल को मनुष्य जीवनकाल के संपूर्ण अनुभव को 100 प्रतिशत पर थोप रहे होते हैं। शासन को तो सभ्यता के युग ने उत्पन्न किया है। उस के पहले के इतिहास में शासन कहाँ था? कोई जरा इतिहास से खोज कर तो बताए। इस धारणा को भी शोषक वर्गो ने अपनी अवश्यम्भावी मृत्यु को कुछ समय के लिए टालने के लिए जन्म देता है और उसे प्रचारित करता है। इस के बिना तो वे पाँच बरस भी जीवित नहीं रह सकते।

क्सर यह सन्देह प्रकट किया जाता है कि ये शोषक भेड़िये साम्यवाद की खाल में भी मौजूद हैं जो साम्यवाद के नाम पर शासन करने का मंसूबा पालते रहते हैं। तो उन के लिए जवाब हाजिर है कि भेड़िए साम्यवाद की खाल जरूर पहन सकते हैं। क्यों कि जब मौत आती है तो सियार शहर की ओर भागते हैं। हर समाजवाद और साम्यवाद विरोधी शासक ने समाजवाद का नारा जोरों से लगाया है। उन में हिटलर भी शामिल है और इंदिरागांधी भी।  लोग यह भी कहते हैं कि इतिहास में हजारों चीजें हैं जो वापस लौट कर नहीं आतीं। उसी तरह वर्गहीन समाज भी लौट कर नहीं आ सकता। वे सही कहते हैं कि हजारों चीजें है जो वापस नहीं लाई जा सकतीं। लेकिन मैं कहता हूँ कि किसी भी चीज को वापस नहीं लाया जा सकता और न ही किसी भी समाज को पीछे नहीं ले जाया जा सकता। हालांकि लोग और अनेक इतिहासकार यह घोषणा भी करते रहते हैं कि इतिहास दोहराया जाता है। लेकिन इतिहास कभी खुद को नहीं दोहराता। विकास की गति वृत्ताकार नहीं होती। वह गोलाकार कमानी (Spring) की तरह होती है। इस अवधारणा को अब तक के इतिहास ने बार बार प्रमाणित किया है। चीजें लौटती है लेकिन पहले से अधिक विकसित रूप में। हमें जानना चाहिए कि मनुष्य समाज में वर्गो की उत्पत्ति क्यों कर हुई? वे क्या कारक थे जिन्होंने वर्गों को उत्पन्न किया? वर्गीय सत्ताएँ बार बार सत्ताच्युत की गई हैं, नए वर्गों ने पुराने वर्गों को हटा कर अपने वर्ग के लिए मुक्ति प्राप्त की है और अपनी सत्ता स्थापित की है। लेकिन इस पूंजीवाद ने उजरती मजदूरों के एक नए वर्ग को पैदा किया है (जिस में उच्च वेतनभोगी तकनीशियन, वैज्ञानिक और प्रबंधक भी सम्मिलित हैं) जो लगातार मुक्ति के लिए संघर्षरत है। उजरती मजदूरों का यह वर्ग अत्यन्त विशाल है। 
पूंजीवाद ने स्वयं अपने विकास के इस चरण में साबित कर दिया है कि पूंजीपति वर्ग मनुष्य समाज के लिए बिलकुल बेकार की चीज है, समाज में उस के लिए कोई काम नहीं है वह मनुष्य समाज के लिए एक व्यर्थ का बोझा मात्र है।  स्वयं पूंजीपति वर्ग ने सभी प्रकार के कामों को वेतनभोगी उजरती मजदूरों को करने को सौंप दिया है और उन्हें वे सफलतापूर्वक कर रहे हैं। पूंजीवादी विचारक उजरती मजदूरों के इस वर्ग को अनेक फर्जी उपवर्गों में विभाजित करते है। लेकिन ये सभी विभाजन आभासी हैं उन का समाप्त होना अवश्यंभावी है। यही वह क्रांतिकारी वर्ग है जिसे वर्तमान सत्ता को समाप्त करना है। लेकिन यही वह वर्ग भी है जो शासन कर के स्वयं मुक्त नहीं हो सकता। उस की मुक्ति और विजय इसी में है कि वह मनुष्य समाज से सदैव के लिए वर्गों का उन्मूलन कर दे। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो प्रतिक्रांति ही उस का भविष्य बन जाती है।  यह प्रतिक्रांति फिर से पूंजीपति वर्ग को जीवनदान देती है और उस की सत्ता की अस्थाई पुनर्स्थापना करती है। जब जब भी उजरती मजदूरों के इस सर्वहारा वर्ग ने पूंजीवाद को परास्त करने के उपरान्त मनुष्य समाज से तमाम वर्गों के उन्मूलन के संघर्ष को स्थगित किया है वहाँ प्रतिक्रांतियाँ हुई हैं। लेकिन यह नया विशाल वर्ग अपने अनुभवों से लगातार सीखता है और सीख रहा है। उस ने अपनी मुक्ति के संघर्ष को त्यागा नहीं है, वह इसे त्याग भी नहीं सकता। उसने अपने संघर्ष को और अधिक मजबूत किया है। आरंभ में यह संघर्ष केवल सुविधाएँ हासिल करने का होता था। लेकिन जब वह देखता है कि सुविधाएँ तो उस से बार बार छीन ली जाती हैं तो वह अपनी सत्ता स्थापित करने में इस का हल पाता है और जब वह यह अनुभव हासिल कर लेता है कि उस की सत्ता को भी बार बार पदच्युत कर दिया जाता है तो वह वर्गों के समूल नाश की और आगे बढ़ता है। वह वर्ग मुक्ति की कामना और उस के लिए संघर्ष का कभी त्याग नहीं कर सकता। उस की मुक्ति वर्गों के उन्मूलन में है जिसे वह एक दिन हासिल कर के रहेगा। साम्यवाद ही मानव समाज का भविष्य है।

सोमवार, 29 जून 2009

बेरोजगारी से लड़ने का उद्यम ....... पर "समय" की टिप्पणी

कल के आलेख बेरोजगारी से लड़ने का उद्यम कौन करेगा?  में मैं ने बताने की कोशिश की थी कि एक ओर लोग सेवाओं के लिए परेशान हैं और दूसरी ओर बेरोजगारों के झुंड हैं तो बच्चे और महिलाएँ भिखारियों में तब्दील हो रहे हैं।  कुल मिला कर बात इतनी थी कि इन सब के बीच की खाई कैसे पूरी होगी? उद्यमी ( ) तो रातों रात कमाने के लालच वाले धंधों की ओर भाग रहे हैं। सरकार की इस ओर नजर है नहीं। होगी भी तो वह पहले आयोग बनाएगी, फिर उस की रिपोर्ट आएगी।  उस के बाद वित्त प्रबंधन और परियोजनाएँ बनेंगी।  फिर अफसर उस में अपने लाभ के छेद तलाशेंगे या बनाएंगे।  गैरसरकारी संस्थाएँ, कल्याणकारी समाज व समाजवाद का निर्माण करने का दंभ भरने वाले राजनैतिक दलों का इस ओर ध्यान नहीं है।

आलेख पर बाल सुब्रह्मण्यम जी ने अपने अनुभव व्यक्त करते हुए एक हल सुझाया - "जब हम दोनों पति-पत्नी नौकरी करते थे, हमें घर का चौका बर्तन करने, खाना पकाने, बच्चों की देखभाल करने आदि के लिए सहायकों की खूब आवश्यकता रहती थी, पर इन सबके लिए कोई स्थायी व्यवस्था हम नहीं करा पाए। सहायक एक दो साल काम करते फिर किसी न किसी कारण से छोड़ देते, या हम ही उन्हें निकाल देते। मेरे अन्य पड़ोसियों और सहकर्मियों की भी यही समस्या थी। बड़े शहरों के लाखों, करोड़ों मध्यम-वर्गीय परिवारों की भी यही समस्या है। यदि कोई उद्यमी घर का काम करनेवाले लोगों की कंपनी बनाए, जैसे विदेशी कंपनियों के काम के लिए यहां कोल सेंटर बने हुए हैं और बीपीओ केंद्र बने हुए हैं, तो लाखों सामान्य शिक्षा प्राप्त भारतीयों को अच्छी नौकरी मिल सकती है, और मध्यम वर्गीय परिवारों को भी राहत मिल सकती है। इतना ही नहीं, घरेलू कामों के लिए गरीब परिवारों के बच्चों का जो शोषण होता है, वह भी रुक जाएगा। घरेलू नौकरों का शोषण भी रुक जाएगा, क्योंकि इनके पीछे एक बड़ी कंपनी होगी।"

लेकिन बड़ी कंपनी क्यों अपनी पूंजी इस छोटे और अधिक जटिल प्रबंधन वाले धन्धे में लगाए?  इतनी पूँजी से वह कोई अधिक मुनाफा कमाने वाला धन्धा क्यों न तलाश करे?  बड़ी कंपनियाँ यही कर रही हैं।  मेरे नगर में ही नहीं सारे बड़े नगरों में सार्वजनिक परिवहन दुर्दशा का शिकार है। वहाँ सार्वजनिक परिवहन में बड़ी कंपनियाँ आ सकती हैं और परिवहन को नियोजित कर प्रदूषण से भी किसी हद तक मुक्ति दिला सकती हैं। लेकिन वे इस क्षेत्र में क्यों अपनी पूँजी लगाएँगी?  इस से भी आगे नगरों व नगरों व नगरों के बीच, नगरों व गाँवों के बीच और राज्यों के बीच परिवहन में बड़ी निजि कंपनियाँ नहीं आ रही हैं। क्यों वे उस में पूँजी लगाएँ? उन्हें चाहिए कम से कम मेनपॉवर नियोजन, न्यूनतम प्रबंधन खर्च और अधिक मुनाफे के धन्धे।

ज्ञानदत्त जी पाण्डेय ने कहा कि एम्पलॉएबिलिटी सब की नहीं है।  एक आईआईटीयन बनाने के लिए सरकार कितना खर्च कर रही है?  क्या उस से कम खर्चों में साधारण श्रमिकों की एम्पलॉएबिलिटी बढ़ाने को कोई परियोजनाएँ नहीं चलाई जा सकती? पर क्यों चलाएँ?  तब तो उन्हें काम देने की भी परियोजना साथ बनानी पड़ेगी।  फिर इस से बड़े उद्योगों को सस्ते श्रमिक कैसे मिलेंगे?  वे तो तभी तक मिल सकते हैं जब बेरोजगारों की फौज नौकरी पाने के लिए आपस में ही मार-काट मचा रही हो।  इस प्रश्न पर कल के आलेख पर बहुत देर से आई समय की टिप्पणी महत्वपूर्ण है। सच तो यह कि आज का यह आलेख उसी टिप्पणी को शेष पाठकों के सामने रखने के लिए लिखा गया।  समय की टिप्पणी इस तरह है-

"जब तक समाज के सभी अंगों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु श्रमशक्ति का समुचित नियोजन समाज का साझा उद्देश्य नहीं बनता तब तक यही नियति है।

अधिकतर श्रमशक्ति यूं ही फुटकर रूप से अपनी उपादेयता ढूंढ़ती रहेगी और बदले में न्यूनतम भी नहीं पाने को अभिशप्त रहेगी।  दूसरी ओर मुनाफ़ों के उत्पादनों में उद्यमी उनकी एम्प्लॉयेबिलिटी को तौलकर बारगेनिंग के तहत विशेष उपयोगी श्रमशक्ति का व्यक्तिगत हितार्थ सदुपयोग करते रहेंगे।

बहुसंख्या के लिए जरूरी उत्पादन, और मूलभूत सेवाक्षेत्र राम-भरोसे और विशिष्टों हेतु विलासिता के उद्यम, मुनाफ़ा हेतु पूर्ण नियोजित।

अधिकतर पूंजी इन्हीं में, फिर बढता उत्पादन, फिर उपभोक्ताओं की दुनिया भर में तलाश, फिर बाज़ार के लिए उपनिवेशीकरण, फिर युद्ध, फिर भी अतिउत्पादन, फिर मंदी, फिर पूंजी और श्रमशक्ति की छीजत, बेकारी...........उफ़ !

और टेलर (दर्जी) बारह घंटे के बाद भी और श्रम करके ही अपनी आवश्यकताएं पूरी कर पाएगा। लाखों सामान्य शिक्षा प्राप्त श्रमशक्ति के नियोजन की, मध्यम-वर्गीय परिवारों के घरेलू कार्यों के लिए कितनी संभावनाएं हैं। सभी नियमित कार्यों के लिए भी अब तो निम्नतम मजदूरी पर दैनिक वेतन भोगी सप्लाई हो ही रही है, जिनमें आई टी आई, डिप्लोमा भी हैं इंजीनियर भी। नौकरी के लिए ज्यादा लोग एम्प्लॉयेबिलिटी रखेंगे, लालायित रहेंगे तभी ना सस्ता मिल पाएंगे। अभी साला विकसित देशों से काफ़ी कम देने के बाबजूद लाखों के पैकेज देने पडते हैं, ढेर लगा दो एम्प्लॉयेबिलिटी का, फिर देखों हजारों के लिए भी कैसे नाक रगडते हैं। ...............उफ़ !

मार्केट चलेगा, लॉटरियां होंगी, एक संयोग में करोडपति बनाने के नुस्खें होंगे। बिना कुछ किए-दिए, सब-कुछ पाने के सपने होंगे। पैसा कमाना मूल ध्येय होगा और इसलिए कि श्रम नहीं करना पडे, आराम से ज़िंदगी निकले योगा करते हुए। उंची शिक्षा का ध्येय ताकि खूब पैसा मिले और शारीरिक श्रम के छोटे कार्यों में नहीं खपना पडे। और दूसरों में हम मेहनत कर पैसा कमाने की प्रवृत्ति ढूंढेंगे, अब बेचारी कहां मिलेगी। .................उफ़ !

उफ़!...उफ़!.....उफ़!
और क्या कहा जा सकता है?




("मैं समय हूँ" समय का अपना ब्लाग है )


शनिवार, 27 जून 2009

बेरोजगारी से लड़ने का उद्यम कौन करेगा?

पिछले आलेख में मैं ने चार-चार बच्चों वाली औरतों और लाल बत्ती पर कपड़ा मारने का नाटक कर के भीख मांगने वाले बच्चों का उल्लेख किया था।  अनेक बार इन से व्यवहार करने पर लगा कि यदि इन्हें प्रेरित किया जाए और इन्हें अवसर मिले तो ये लोग काम पर लग सकते है। यह भी नहीं है कि समाज में इन के लिए काम उपलब्ध न हो।  लेकिन यह तभी हो सकता है जब कोई इस काम उपलब्ध कराने की परियोजना पर काम करे।

वकालत में आने के पहले जब मुझ पर पत्रकारिता के उच्च स्तर में प्रवेश का भूत सवार हुआ तो मुम्बई जाना हुआ था। वहाँ मैं जिन मित्र के घर रुका वे प्रतिदिन कोई 9 बजे अंधेरी के घर से अपने एयरकंडीशन मार्केट ताड़देव स्थित अपने कार्यालय निकलते थे और कोई दो किलोमीटर की दूरी पर एक पार्किंग स्थान पर रुकते थे। वहाँ एक पान की थड़ी से अपने लिए दिन भर के लिए पान लिया करते थे। जब तक उन का पान बनता तब तक एक लड़का आ कर उन की कार को पहले गीले और फिर सूखे कपड़े से पोंछ देता था। उस के लिए 1978 में एक या दो रुपया प्रतिदिन उस लड़के को मिल जाता था।  इसी तरह अभी फरवरी में जब मुझे फरीदाबाद में पाँच-छह दिन रुकना पड़ा था तो वहाँ सुबह सुबह कोई आता था और घरों के बाहर खड़े वाहनों को इसी तरीके से नित्य साफ कर जाता था।  प्रत्येक वाहन स्वामी से उसे दो सौ रुपये प्राप्त होते थे।  यदि यह व्यक्ति नित्य बीस वाहन भी साफ करता हो तो उसे चार हजार रुपए प्रतिमाह मिल जाते हैं जो राजस्थान में लागू न्यूनतम वेतन से तकरीबन दुगना है।

बाएँ जो चित्र है वह बाबूलाल की पान की दुकान का है जो मेरे अदालत के रास्ते में पड़ती है।  बाबूलाल इसे सुबह पौने नौ बजे आरंभ करते हैं। दिन में एक बजे इसे अपने छोटे भाई को संभला कर चले जाते हैं। शाम को सात बजे आ कर फिर से दुकान संभाल लेते हैं।  दुकान इतनी आमदनी दे देती है कि दो परिवारों का सामान्य खर्च निकाल लेती है। लेकिन बाबूलाल के दो बेटियाँ हैं, जिन की उन्हें शादी करनी है एक बेटा है जो अजमेर में इंजिनियरिंग पढ़ रहा है।  उस ने अपनी सारी बचत इन्हें पढ़ाने में लगा दी है।  नतीजा भी है कि बेटियाँ नौकरी कर रही हैं।  लेकिन शादी बाबूलाल की जिम्मेदारी है और उस के लिए उस के पास धन नहीं है। उसे कर्जा ही लेना पड़ेगा।  मैं ने बाबूलाल से अनेक बार कहा कि उस की दुकान पर कार वाले ग्राहक कम से कम दिन में बीस-तीस तो आते ही होंगे। यदि उन्हें वह अपना वाहन साफ कराने के लिए तैयार कर ले और एक लड़का इस काम के लिए रख ले तो पाँच छह हजार की कमाई हो सकती है।  लड़का आराम से 25-26 सौ रुपए में रखा जा सकता है जो बाबूलाल के उद्यम का छोटा-मोटा काम भी कर सकता है।  लेकिन बाबूलाल को यह काम करने के लिए मैं छह माह में तैयार नहीं कर सका हूँ।


मुझे ज्ञानदत्त जी का उद्यम और श्रम आलेख स्मरण होता है जिस में उन्हों ने कहा था कि उद्यमी की आवश्यकता है।  उन का कथन सही था।  श्रम तो इस देश में बिखरा पड़ा है उसे नियोजित करने की आवश्यकता है।  इस से रोजगार भी बढ़ेगा और मजदूरी मिलने से बाजार का भी विस्तार होगा।  लेकिन इस काम को कौन करे।  जो भी व्यक्ति उद्यम करना चाहता है वह अधिक लाभ उठाना चाहता है और इस तरह के मामूली कामों की ओर उस का ध्यान नहीं है।  सरकारों पर  देश  में रोजगार बढ़ाने का दायित्व है वह पूरी तरह से नौकरशाही पर निर्भर है जो कोई भी परियोजना आरंभ होते ही पहले उस में अपने लिए काला धन बनाने की जुगत तलाश करने लगते हैं।  यह काम सामाजिक संस्थाएँ कर सकती हैं।  लेकिन शायद इन कामों से नाम  श्रेय नहीं मिलता। संस्था के पदाधिकारियों को यह और सुनने को मिलता है कि इस धंधे में उस ने अपना कितना रुपया बनाया। इसी कारण वे भी इस ओर प्रेरित नहीं होते।  न जाने क्यों समाजवाद लाने को उद्यत संस्थाएँ और राजनैतिक दल भी इसे नहीं अपनाते।  जब कि इस तरह वे अपनी संस्थाओं और राजनैतिक दलों के लिए अच्छे पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की फौज खड़ी कर सकते हैं।

सोमवार, 19 जनवरी 2009

चुनाव बार के, बदलती धारणाएँ और परिणाम

हमारी बार (अभिभाषक परिषद) के चुनाव हर साल होते हैं।  दस वर्ष पहले तक स्थिति यह थी कि कोई वरिष्ठ वकील जिस की एक वकील के रूप में अच्छी प्रतिष्ठा भी रही हो  बार का अध्यक्ष चुना जाता था और  दस वर्ष के आस पास की वकालत का कोई नौजवान सचिव।  बाकी कार्यकारिणी में वरिष्ठ और कनिष्ठ सभी लोगों का मेल रहता था।  इस से बार की एक छवि बनती थी।  इस का असर ये था कि बार का अध्यक्ष या सचिव होना न केवल गर्व और सम्मान की बात थी बल्कि उन्हें पूरे नगर में नहीं प्रांत भर में सम्मान मिलता था।  यह भी मान्यता थी कि ऐसे लोग योग्य वकील होते हैं।

इस मान्यता का असर धीरे धीरे यह होने लगा कि संस्थागत विधिक सेवार्थी  ऐसे लोगों को काम देने लगे।  धीरे धीरे मान्यता हो गई कि जो वकील बार का अध्यक्ष या मंत्री चुना जाएगा उसे संस्थागत विधिक सेवार्थियों का काम मिलने लगेगा।  यह काम वकीलों की प्रतिष्ठा में तो वृद्धि करता ही है।  उन की आमदनी में भी गुणित वृद्धि लाता है।  इस से अब वे वकील  जो कि अपने काम, आय और प्रतिष्ठा में वृद्धि लाने की कामना रखते थे इन पदों की ओर ललचाई निगाहों से देखने लगे।

बीस वर्ष पूर्व इन पदों के लिए दो से अधिक प्रत्याशी होते ही नहीं थे। अब इन प्रत्याशियों की संख्या बढ़ने लगी।  साथ साथ यह होड़  भी कि किसी भी तरह से चुनाव में विजय हासिल की जाए।  इस के लिए चुनाव के पहले सब मतदाताओं से उन के घरों पर जा कर मिलना।  वकीलों के भोज आमंत्रित करना, उन के चुनाव में मतदाता बने रहने के लिए आवश्यक वार्षिक शुल्क की अदायगी स्वयं के खर्चे पर कर देना आरंभ हो गया।  धीरे धीरे होने यह लगा कि जो जितने अधिक वकीलों को भोज दे वह उतना ही लाभ लेने लगा।   कुछ उम्मीदवार हर वर्ष ही चुनाव में उम्मीदवार होने लगे।  हार गए तो अगली बार फिर उम्मीदवार हो गए।  इस बार अध्यक्ष पद के लिए चार उम्मीदवार थे।  उन में से दो ऐसे थे जो तीसरी बार अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ रहे थे।  इस के अलावा दो उम्मीदवार नए थे।

इन दो नए उम्मीदवारों में एक पुराने समाजवादी विचारों के मुस्लिम वकील थे।  वे पूरे सिद्धान्तवादी और आज के जमाने का कोई भी चुनाव लड़ पाने में पूरी तरह अक्षम।  एक और तो सामान्य धारणा यह कि जहाँ बार में मुस्लिम वकीलों की संख्या पन्द्रह प्रतिशत हो वहाँ महत्वपूर्ण पद पर कोई मुस्लिम वकील जीत नहीं सकता, दूसरी ओर आज लोहिया के रंग के कठोर समाजवादी को कौन पसंद करे? हाँ मुलायम समाजवादी हो तो कोई संभावना भी बनती है।  फिर भी वे खड़े हो गए।  आम धारणा यह थी कि उन्हें कम से कम मुस्लिम वोट तो मिलेंगे ही।  लेकिन यह धारणा पूरी तरह से असत्य सिद्ध हो गई।  मुस्लिम वकीलों ने उन से कहा कि वे मतदान के पहले कम से कम मुस्लिम वकीलों को तो भोज दे ही दें।  उन्हों ने इस के लिए सख्ती से इनकार कर दिया कि वे मतदान के पहले किसी मतदाता को चाय तक नहीं पिलाएँगे।  नतीजा यह कि मुस्लिम मतदाताओं ने ही उन्हें ठुकरा दिया और वे कुछ मतों से चुनाव हार गए।  यदि आधे मुस्लिम मतदाता भी उन्हें वोट दे देते तो शायद वे जीत जाते।   बाद में कहने लगे, अच्छा ही हुआ कि वे हार गए, वरना उन्हें शायद साल भर कुछ काम ऐसे करने पड़ते जो उन की आत्मा गवारा नहीं करती। 


संस्थागत विधिक सेवार्थी जो बार के अध्यक्ष और सचिव में एक अच्छा वकील देखने लगे थे और काम उन्हे देने लगे थे।   कुछ बरसों से सोचने लगे हैं कि उन का यह दृष्टिकोण गलत है।  अब वे बार के पदाधिकारियों को काम देने से कतराने लगे हैं और  दूसरे वकीलों में अपने लिए अच्छा वकील तलाशने लगे हैं।

रविवार, 28 दिसंबर 2008

पूँजीवाद, समाजवाद/सर्वहारा का अधिनायकवाद के बहाने

दिसम्बर 22, 2008 को अनवरत पर एक छोटा सा आलेख था पूँजीवाद और समाजवाद/सर्वहारा का अधिनायकवाद जिस में मैं ने अपने दो वरिष्ठ अभिभाषकों के साथ हुए एक मुक्त वार्तालाप  का विवरण था। दोनों ही मेरे लिए आदरणीय थे और विनोद प्रिय भी। जगदीश नारायण जी के पिता नगर के प्रधान रह चुके थे और पैंतालीस बरस पहले की जिला कांग्रेस में महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। जगदीश जी भी पिता के पद चिन्हों पर थे। पर उतनी ख्याति अर्जित नहीं कर पाए थे। दोनों पिता-पुत्र बहुत अच्छे प्रोफेशनल वकील थे। मोहता जी ने जो व्यंग्य कहा था वह जगदीश जी पर नहीं था। आम काँग्रेसी ऐसे लगते भी नहीं, जैसा varun jaiswal ने अपनी टिप्पणी में कहा था, "लेकिन कांग्रेसी तो पूंजीपति से नही लगते |" लेकिन उन की पार्टी उन्हीं का प्रतिनिधित्व करती है। इसी कारण से मोहता जी का इशारा उन की ओर था। 
सज्जनदास जी मोहता एक क्लासिकल समाजवादी थे। उन्हों ने तत्कालीन समाजवादी पार्टी के वे सभी काम किये थे जो एक कार्यकर्ता कर सकता था। अखबार निकाला, लेख लिखे, संगठन किया लेकिन जब से वकालत में आए तब से लेख लिखने या जलसों में शिरकत करने का ही काम रहा उनका। वकालत में वे अनुकरणीय उदाहरण रहे। बिना सोचे समझे किसी मुकदमे में हाथ नहीं डालते थे। अपने काम में चुस्त रहते। हमेशा काम करने को तैयार रहते। मैं ने उन्हें करीब बीस बरस देखा। कभी किसी अदालत में अपने या अपने मुवक्किल के किसी कारण से पेशी बदलवाते नहीं देखा। उन के मुकदमे जल्दी परवान चढ़ते थे। वे अपने मुवक्किल को पहले ही कह देते थे। मैं अदालत से पेशियाँ नहीं बढ़वाउँगा, जो होना हो सो हो। अंत तक उन का सम्मान बना रहा। उन से कनिष्ठ सभी वकील उन को गुरूजी ही कहा करते थे। मुझे भी उन से बहुत कुछ सीखने को मिला। मैं ने चाहा कम से कम प्रोफेशन में उन का जैसा बन सकूँ। लेकिन बहुत मुश्किल है उन के आदर्श को पाना।

उस दिन के आलेख को लोगों की उन के नजरिए के अनुरूप टिप्पणीयाँ मिलीं। लेकिन मैं तो उस घटना से यही समझा था कि समाज में लालच को नियंत्रित करने के लिए एक राजनैतिक शक्ति की आवश्यकता है। जिस से समाज में आवश्यकता और उत्पादन का संतुलन न गड़बाड़ाए। संभवतः मार्क्सवाद में इसे ही प्रोलेटेरियन की डिक्टेटरशिप कहा है।

जहाँ तक मार्क्सवाद और समाजवाद पर कुछ कहने की बात है। उतनी कूवत शायद अभी मुझ में नहीं। वहाँ हाथ धरने के पहले शायद बहुत अध्ययन की जरूरत है। अभी पूंजी को हाथ लगाया है। उस के संदर्भ ग्रंथों की सूची देख कर ही भय लगा। कैसे अकेले मार्क्स ने इतने ग्रन्थों को घोटा होगा? क्या उस की ताकत रही होगी? और उस ताकत के पैदा होने का जरिया क्या रहा होगा?

उस पोस्ट पर वरुण के अतिरिक्त अनूप शुक्ल, Ratan Singh Shekhawat, प्रवीण त्रिवेदी,Arvind Mishra, Anil Pusadkar,  ताऊ रामपुरिया,   प्रशांत प्रियदर्शी PD,   डा. अमर कुमार, विष्णु बैरागी, Gyan Dutt Pandey, Alag sa, डॉ .अनुराग, राज भाटिय़ा और कार्तिकेय की प्यारी टिप्पणियाँ मिलीं। सभी का बहुत आभार। 

सोमवार, 22 दिसंबर 2008

पूँजीवाद और समाजवाद/सर्वहारा का अधिनायकवाद

जब हम चाय पीने केन्टीन पहुँचे तो सर्दी की धूप में बाहर की कुर्सियों पर दो वरिष्ठ वकील चाय के इंतजार में मूंगफलियाँ छील कर खा रहे थे। हम भी पास की कुर्सियों पर बैठे और चाय का इन्तजार करने लगे। थोड़ी देर में हमने पाया कि मूंगफलियों की थैली सज्जनदास जी मोहता के हाथों में है और वे दो मूंगफली निकालते हैं एक जगदीश नारायण जी को देते हैं और एक खुद खाते हैं। फिर इसी क्रिया को दोहराते हैं।

मुझे यह विचित्र व्यवहार लगा। मैं ने पूछा ये क्या है भाई साहब?

जवाब मोहता जी ने दिया। यह सर्वहारा का अधिनायकवाद है याने के समाजवाद।

मैं ने पूछा- वो कैसे?

मोहता जी ने जवाब दिया - मूंगफली की थैली मेरे हाथ में है इस लिए मैं इस में से दो निकालता हूँ, एक इसे देता हूँ और एक खुद खाता हूँ। मैं समाजवादी हूँ।


यह काँग्रेसी है, पूँजीपति! थैली इस के हाथ होती तो सारी मूंगफलियाँ ये खुद ही खा जाता।


मुझे उस दिन पूँजीवाद और समाजवाद का फर्क समझ आ गया।