@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: मनुष्य
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शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

ओ........! सड़कवासी राम! ...

हरीश भादानी जन कवि थे। 
थार की रेत का रुदन उन के गीतों में सुनाई देता था।
आज राम नवमी के दिन उन का यह गीत स्मरण हो आया ...

ओ! सड़कवासी राम!

  • .हरीश भादानी

ओ! सड़कवासी राम!
न तेरा था कभी
न तेरा है कहीं
रास्तों दर रास्तों पर
पाँव के छापे लगाते ओ अहेरी
खोलकर
मन के किवाड़े सुन
सुन कि सपने की
किसी सम्भावना तक में नहीं
तेरा अयोध्या धाम।
ओ! सड़कवासी राम!


सोच के सिर मोर
ये दसियों दसानन
और लोहे की ये लंकाएँ
कहाँ है कैद तेरी कुम्भजा
खोजता थक
बोलता ही जा भले तू
कौन देखेगा
सुनेगा कौन तुझको
ये चितेरे
आलमारी में रखे दिन
और चिमनी से निकलती शाम।
ओ! सड़कवासी राम!

 
पोर घिस घिस
क्या गिने चौदह बरस तू
गिन सके तो
कल्प साँसों के गिने जा
गिन कि
कितने काटकर फेंके गए हैं
ऐषणाओं के पहरुए
ये जटायु ही जटायु
और कोई भी नहीं
संकल्प का सौमित्र
अपनी धड़कनों के साथ
देख वामन सी बड़ी यह जिन्दगी
कर ली गई है
इस शहर के जंगलों के नाम।
ओ! सड़कवासी राम!

रविवार, 3 फ़रवरी 2013

मनुष्य समाज का भविष्य क्या है?


र्गहीन मानव समाज एक सपना नही अपितु यथार्थ है। मानव समाज को अस्तित्व में आए दो लाख वर्ष हुए हैं। इन में से 90 से 95 प्रतिशत समय उस ने वर्गहीन समाज की अवस्था में ही बिताया है। मनुष्य जीवन का मात्र पिछले दस हजार वर्षों का काल ही ऐसा है जिन में वर्गों का अस्तित्व दृष्टिगोचर होता है। पृथ्वी पर मनुष्य के आविर्भाव से आज तक के काल का केवल पाँच प्रतिशत के अनुभव के आधार पर यह निष्कर्ष प्राप्त करना कि वर्गहीन समाज एक सपना है अपने आप में एक सपना है। साम्यवाद मनुष्य समाज से एक वर्ग को समाप्त कर देने मात्र से स्थापित नहीं हो सकता। उस के लिए मनुष्य समाज के सभी वर्गों का समूल नाश होना आवश्यक है। साम्यवाद तभी संभव है। सभी वर्गों के समूल नाश की बात से केवल वे लोग इन्कार करते हैं जो किसी न किसी प्रकार से शोषण पर आधारित व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं और शोषकों और शोषण की व्यवस्था की रक्षा में खड़े हैं। मुझे उन लोगों पर हँसी आती है जो "साम्यवादी शासन" की बात करते हैं। साम्यवाद में तो शासन होता ही नहीं वह तो मानव समाज की शासनहीनता की अवस्था है। सभी समान हों तो कौन किस पर शासन करेगा? साम्यवाद और शासन में तो उतना ही बैर है, जितना रोशनी और अंधकार में। जब कोई वर्ग ही नहीं होगा तो कौन किस पर शासन करेगा? वर्गीय शासन में जनता शब्द या तो कोई अर्थ नहीं रखता और यदि रखता है तो उस से केवल वे लोग भासित होते हैं जो शोषक वर्ग के शिकार हैं। वास्तव में जनता एक भ्रामक शब्द है। समाज में शोषक होते और शोषित होते हैं। वर्तमान समाज व्यवस्था में जब पूंजीपति वर्ग ने अपने ही जाए उजरती मजदूरों के वर्ग के हाथों अपनी मृत्यु को निश्चित जान कर अपनी रक्षा के लिए सामंतवाद के समूल नाश के अपने कर्तव्य से च्युत हो कर उन से समझौता किया और अनेक ऐसे वर्गीय समूहों को जीवित रहने दिया जो खुद एक और श्रमजीवियों के शोषण में जुटे हैं तो दूसरी ओर सरमाएदारों के शोषण के शिकार भी हैं। यह पूंजीपति-भूस्वामी वर्ग ही हैं जो मनुष्य समाज के सभी सदस्यों को जनता की संज्ञा प्रदान कर के भेड़ों और भेड़ियों की युति को रेवड़ बताने के भ्रम को जीवित रखते हैं। जब तक मनुष्यों की खाल में भेड़िये मौजूद हैं साम्यवाद किसी प्रकार संभव नहीं। ये भेड़िये ही हैं जो साम्यवाद के विरोधी हैं जो अपनी अवश्यंभावी मृत्यु के टल जाने को जनता द्वारा साम्यवाद के विचार को कूड़े के ढेर में फेंक देना घोषित करते हैं।

कुछ लोग कहते हैं कि “वर्गहीन समाज भले स्थापित हो जाय पर शासनहीन होना सम्भव नहीं लगता। आदिम समय से ही मनुष्य मनुष्य पर शासन करता आया है। जानवरों तक में यह प्रवृत्ति पायी जा सकती है। काश मनुष्य की यह इच्छा सच हो पाती पर शायद यह (शासनहीनता की स्थिति) व्यावहारिक रूप से कभी नहीं हो सकेगा।” इस तरह सोचने वाले लोग मनुष्य जीवन के 95 प्रतिशत काल को मनुष्य जीवनकाल के संपूर्ण अनुभव को 100 प्रतिशत पर थोप रहे होते हैं। शासन को तो सभ्यता के युग ने उत्पन्न किया है। उस के पहले के इतिहास में शासन कहाँ था? कोई जरा इतिहास से खोज कर तो बताए। इस धारणा को भी शोषक वर्गो ने अपनी अवश्यम्भावी मृत्यु को कुछ समय के लिए टालने के लिए जन्म देता है और उसे प्रचारित करता है। इस के बिना तो वे पाँच बरस भी जीवित नहीं रह सकते।

क्सर यह सन्देह प्रकट किया जाता है कि ये शोषक भेड़िये साम्यवाद की खाल में भी मौजूद हैं जो साम्यवाद के नाम पर शासन करने का मंसूबा पालते रहते हैं। तो उन के लिए जवाब हाजिर है कि भेड़िए साम्यवाद की खाल जरूर पहन सकते हैं। क्यों कि जब मौत आती है तो सियार शहर की ओर भागते हैं। हर समाजवाद और साम्यवाद विरोधी शासक ने समाजवाद का नारा जोरों से लगाया है। उन में हिटलर भी शामिल है और इंदिरागांधी भी।  लोग यह भी कहते हैं कि इतिहास में हजारों चीजें हैं जो वापस लौट कर नहीं आतीं। उसी तरह वर्गहीन समाज भी लौट कर नहीं आ सकता। वे सही कहते हैं कि हजारों चीजें है जो वापस नहीं लाई जा सकतीं। लेकिन मैं कहता हूँ कि किसी भी चीज को वापस नहीं लाया जा सकता और न ही किसी भी समाज को पीछे नहीं ले जाया जा सकता। हालांकि लोग और अनेक इतिहासकार यह घोषणा भी करते रहते हैं कि इतिहास दोहराया जाता है। लेकिन इतिहास कभी खुद को नहीं दोहराता। विकास की गति वृत्ताकार नहीं होती। वह गोलाकार कमानी (Spring) की तरह होती है। इस अवधारणा को अब तक के इतिहास ने बार बार प्रमाणित किया है। चीजें लौटती है लेकिन पहले से अधिक विकसित रूप में। हमें जानना चाहिए कि मनुष्य समाज में वर्गो की उत्पत्ति क्यों कर हुई? वे क्या कारक थे जिन्होंने वर्गों को उत्पन्न किया? वर्गीय सत्ताएँ बार बार सत्ताच्युत की गई हैं, नए वर्गों ने पुराने वर्गों को हटा कर अपने वर्ग के लिए मुक्ति प्राप्त की है और अपनी सत्ता स्थापित की है। लेकिन इस पूंजीवाद ने उजरती मजदूरों के एक नए वर्ग को पैदा किया है (जिस में उच्च वेतनभोगी तकनीशियन, वैज्ञानिक और प्रबंधक भी सम्मिलित हैं) जो लगातार मुक्ति के लिए संघर्षरत है। उजरती मजदूरों का यह वर्ग अत्यन्त विशाल है। 
पूंजीवाद ने स्वयं अपने विकास के इस चरण में साबित कर दिया है कि पूंजीपति वर्ग मनुष्य समाज के लिए बिलकुल बेकार की चीज है, समाज में उस के लिए कोई काम नहीं है वह मनुष्य समाज के लिए एक व्यर्थ का बोझा मात्र है।  स्वयं पूंजीपति वर्ग ने सभी प्रकार के कामों को वेतनभोगी उजरती मजदूरों को करने को सौंप दिया है और उन्हें वे सफलतापूर्वक कर रहे हैं। पूंजीवादी विचारक उजरती मजदूरों के इस वर्ग को अनेक फर्जी उपवर्गों में विभाजित करते है। लेकिन ये सभी विभाजन आभासी हैं उन का समाप्त होना अवश्यंभावी है। यही वह क्रांतिकारी वर्ग है जिसे वर्तमान सत्ता को समाप्त करना है। लेकिन यही वह वर्ग भी है जो शासन कर के स्वयं मुक्त नहीं हो सकता। उस की मुक्ति और विजय इसी में है कि वह मनुष्य समाज से सदैव के लिए वर्गों का उन्मूलन कर दे। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो प्रतिक्रांति ही उस का भविष्य बन जाती है।  यह प्रतिक्रांति फिर से पूंजीपति वर्ग को जीवनदान देती है और उस की सत्ता की अस्थाई पुनर्स्थापना करती है। जब जब भी उजरती मजदूरों के इस सर्वहारा वर्ग ने पूंजीवाद को परास्त करने के उपरान्त मनुष्य समाज से तमाम वर्गों के उन्मूलन के संघर्ष को स्थगित किया है वहाँ प्रतिक्रांतियाँ हुई हैं। लेकिन यह नया विशाल वर्ग अपने अनुभवों से लगातार सीखता है और सीख रहा है। उस ने अपनी मुक्ति के संघर्ष को त्यागा नहीं है, वह इसे त्याग भी नहीं सकता। उसने अपने संघर्ष को और अधिक मजबूत किया है। आरंभ में यह संघर्ष केवल सुविधाएँ हासिल करने का होता था। लेकिन जब वह देखता है कि सुविधाएँ तो उस से बार बार छीन ली जाती हैं तो वह अपनी सत्ता स्थापित करने में इस का हल पाता है और जब वह यह अनुभव हासिल कर लेता है कि उस की सत्ता को भी बार बार पदच्युत कर दिया जाता है तो वह वर्गों के समूल नाश की और आगे बढ़ता है। वह वर्ग मुक्ति की कामना और उस के लिए संघर्ष का कभी त्याग नहीं कर सकता। उस की मुक्ति वर्गों के उन्मूलन में है जिसे वह एक दिन हासिल कर के रहेगा। साम्यवाद ही मानव समाज का भविष्य है।

बुधवार, 3 अगस्त 2011

परिस्थितियाँ निर्णायक होती हैं

हजीवन मनुष्य का स्वाभाविक गुण भी है और आवश्यकता भी। बालक को जन्मते ही अपनी माँ का साथ मिलता है। उसी के माध्यम  से उसे विकसित होने का अवसर प्राप्त होता है और उसी के माध्यम से वह जगत से परिचित होता है। फिर आते हैं पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची, बुआ, मामा, नाना .... आदि। फिर जैसे जैसे बड़ा होता है उसे अपने हम उम्र मिलते चले जाते हैं। वह माँ से सीखना आरंभ कर के सारी दुनिया में जो कोई भी उस के संपर्क में आता है उस से सीखता जाता है। ये सीखें कभी समाप्त नहीं होती, जीवन पर्यन्त चलती रहती हैं। जो सोच लेता है कि अब उसे सीखने को कुछ शेष नहीं वह मुगालते में रहता है। उस के सीखने की प्रक्रिया मंद पड़ जाती है और धीरे-धीरे बंद भी हो जाती है। बस यही वह क्षण है जब वह मृत्यु की और कदम बढ़ाने लगता है। कभी लगता है सीखते जाना, लगातार सीखते जाना ही जीवन है। 

बालक बड़ा होता है विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करता है, अपने जीवन यापन के लिए सीखता है। इसी बीच वह जवान होता है। उस का शारीरिक विकास विपरीत लिंगी साथी की आवश्यकता महसूस कराने लगता है। वे भाग्यशाली हैं जिन्हें एक अच्छा जीवनसाथी मिल जाता है।  जीवन की अगली पायदान आरंभ हो जाती है।  जीवन संघर्ष यहीं से आरंभ होता है। अब दोनों को मिल कर जीवन चलाना है, एक सहजीवन। वे मिल कर श्रम करते हैं, साधन अर्जित करते हैं, गाड़ी के दो पहियों की तरह। यदि एक भी बराबर साथ न दे तो गाड़ी डगमगाने लगती है। पथ पर चलने में कठिनाई आने लगती है। कभी गाड़ी पथ से उतर जाती है, कभी रुक जाती है, कभी गलत राह पर चल पड़ती है। मंजिल पर पहुँचने के स्थान पर किसी अनजान पथ पर अनजान दिशा में चलने लगती है। 

सलिए जरूरी है, दोनों पहियों के बीच तालमेल और बराबरी से एक दूसरे का साथ निभाते चलना। यह तभी संभव है जब दोनों पहिए साथ चले ही नहीं अपितु एक दूसरे का ध्यान भी रखें। जब कभी कोई मोड़ आए और एक पर भार कम और एक पर अधिक हो तो कोई किसी का साथ न छोड़े। समझे कि यह मोड़ है, मोड़ पर तो यह होगा ही कि एक पर भार कम औऱ एक पर अधिक होगा। हो सकता है, अगले ही मोड़ पर दूसरे को अधिक भार उठाना पड़े। दोनों पहिए कब हर मोड़ पर यह समझ पाते हैं? जरा सी असुविधा में एक पहिया दूसरे को दोष देने लगता है।  दूसरा जान रहा है कि यह उस का नहीं मार्ग का, परिस्थितियों का दोष है। उसे अच्छा नहीं लगता। उसे चोट पहुँचती है। यह अक्सर होने लगे तो चोट गहरी होने लगती है। चोट खाने वाला बिलबिला उठता है। यही वह समय है, जब दोनों पहियों को सोचना चाहिए, एक दूसरे के बारे में सोचने से अधिक उन परिस्थितियों के बारे में जो दोनों में भेद उत्पन्न कर रही हैं।  उन्हें सोचना चाहिए कि प्रयास और परिश्रम करने पर भी कभी कभी इच्छित परिणाम नहीं मिलते। विचार, प्रयास और परिश्रम तो मनुष्य के हाथ में है, वे इन पर काम कर सकते हैं। लेकिन ये निर्णायक नहीं होते। निर्णायक होती हैं परिस्थितियाँ। उन्हें एक दूसरे को दोष देने के स्थान पर परिस्थितियों को समझना चाहिए। परिस्थितियों के अनुसार अपने विचारों, प्रयासों और परिश्रम का उपयोग करना चाहिए। अनुकूल परिस्थितियों की प्रतीक्षा करते हुए, एक दूसरे को पहुँचाई गई चोटों को सहलाते हुए, आगे इस बात का ध्यान रखते हुए कि वे दूसरे को चोट नहीं पहुँचाएंगे पथ पर चलते रहना चाहिए।

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

एक बार फिर दुनिया को बदल डालेंगे

कोई भी नयी उन्नत तकनीक समाज को आगे बढ़ने में योगदान करती है। एक भाप के इंजन के आविष्कार ने दुनिया में से सामन्तवाद की समाप्ति का डंका बजा दिया था। इंग्लेण्ड की औद्योगिक क्रान्ति उसी का परिणाम थी। उसी ने सामन्तवाद के गर्भ में पल रहे पूंजीवाद को जन्म देने में दाई की भूमिका अदा की थी। पूंजीवाद उसी से बल पाकर आज दुनिया का सम्राट बन बैठा है। उस के चाकर लगातार यह घोषणा करते हैं कि अब इतिहास का अन्त हो चुका है। पूंजीवाद अब दुनिया की सचाई है जो कभी समाप्त नहीं हो सकती। इस का अर्थ है कि पूंजीवाद ने जो कष्ट मानवता को प्रदान किए हैं वे भी कभी समाप्त नहीं होंगे। कभी गरीबी नहीं मिटेगी, धरती पर से कभी भूख की समाप्ति नहीं होगी। दुनिया से कभी युद्ध समाप्त नहीं होंगे, वे सदा-सदा के लिए शोणित की नदियाँ बहाते रहेंगे। किसान उसी तरह से अपने खेतों में धूप,ताप, शीत, बरखा और ओले सहन करता रहेगा। मजदूर उसी तरह कारखानों में काम करते रहेंगे। इंसान उच्च से उच्च तकनीक के जानकार होते हुए भी पूंजीपतियों की चाकरी करता रहेगा। बुद्धिजीवी उसी की सेवा में लगे रह कर ईनाम पाते और सम्मानित होते रहेंगे। जो ऐसा नहीं करेगा वह न सम्मान का पात्र होगा और न ही जीवन साधनों का। कभी-कभी लगता है कि दमन का यह चक्र ऐसे ही चलता रहेगा। शायद मनुष्य समाज बना ही इसलिए है कि अधिकतर मनुष्य अपने ही जैसे चंद मनुष्यों के लिए दिन रात चक्की पीसते रहें।

ज हम जानते हैं कि इंसान ही खुद ही खुद को बदला है, उस ने दुनिया को बदला है और उसी ने समाज को भी बदला है। यह दुनिया वैसी नहीं है जैसी इंसान के अस्तित्व में आने के पहले थी। वही इकलौता प्राणी इस ग्रह में है जो अपना भोजन वैसा ही नहीं ग्रहण करता जैसा उसे वह प्रकृति में मिलता है। वह प्रकृति में मिलने वाली तमाम वस्तुओं को बदलता है और अपने लिए उपयोगी बनाता है। उस ने सूत और ऊन से कपड़े बुन लिया। उस ने फलों और मांस को पकाना सीखा, उस ने अनाज उगा कर अपने भविष्य के लिए संग्रह करना सीखा। यह उस ने बहुत पहले कर लिया था। आज तो वह पका पकाया भोजन भी शीतकों और बंद डिब्बों में लंबे समय तक रखने लगा है। बस निकाला और पेट भर लिया। इंसान की तरक्की रुकी नहीं है वह बदस्तूर जारी है। 

स ने एक समय पहिए और आग का आविष्कार किया। इन आविष्कारों से उस की दुनिया बदली। लेकिन समाज वैसे का वैसा जंगली ही रहा। लेकिन जिस दिन उस ने पशुओं को साधना सीखा उस दिन उस ने अपने समाज को बदलने की नींव डाल दी। उसे शत्रु कबीले के लोगों को अब मारने की आवश्यकता नहीं थी, वह उन की जान बख्श सकता था। उन्हें गुलाम बना कर अपने उपयोग में ले सकता था। कुछ मनुष्यों को कुछ जीवन और मिला। लेकिन उसी ने मनुष्य समाज में भेदभाव की नींव डाल दी। अब मनुष्य मनुष्य न हो कर मालिक और गुलाम होने लगे। पशुओं के साथ, गुलामों के श्रम और स्त्रियों की सूझबूझ ने खेती को जन्म दिया। गुलाम बंधे रह कर खेती का काम नहीं कर सकते थे। मालिकों को उन के बंधन खोलने पड़े और वे किसान हो गए। दास समाज के गर्भ में पल रहा भविष्य का सामंती समाज अस्तित्व में आया। हम देखते हैं कि मनुष्य ने अपने काम को सहज और सरल बनाने के लिए नए आविष्कार किए, नई तकनीकें ईजाद कीं और समाज आगे बढ़ता रहा खुद को बदलता रहा। ये तकनीकें वही, केवल वही ईजाद कर सकता था जो काम करता था। जो काम नहीं करता था उस के लिए तो सब कुछ पहले ही सहज और सरल था। उसे तो कुछ बदलने की जरूरत ही नहीं थी। बल्कि वह तो चाहता था कि जो कुछ जैसा है वैसा ही चलता रहे। इस लिए जिन्हों ने दास हो कर, किसान हो कर, श्रमिक हो कर काम किया उन्हीं ने तकनीक को ईजाद किया, दुनिया को बदला, इंसान को बदला और इंसानी समाज को बदला। इस दुनिया को बदलने का श्रेय केवल श्रमजीवियों को दिया जा सकता है, उन से अलग एक भी इंसान को नहीं। 

र क्या अब भी कुछ बदल रहा है? क्या तकनीक विकसित हो रही है? जी, दुनिया लगातार बदल रही है। तकनीक लगातार विकसित हो रही है। पूंजीवाद के विकास ने लोगों को इधर-उधर सारी दुनिया में फैला दिया। पहले एक परिवार संयुक्त रूप से साथ रहता था। आज उसी परिवार का एक सदस्य दुनिया के इस कोने में है तो दूसरा उस कोने में। एक सोने जा रहा है तो दूसरा सो कर उठ रहा है। लेकिन दुनिया भर में बिखरे लोगों ने जुड़ने के तकनीकें विकसित कर ली हैं और लगातार करते जा रहे हैं। आज की सूचना प्रोद्योगिकी ने इंसानी समाज को आपस में जो़ड़े रखने की  मुहिम चला रखी है। हों, इस प्रोद्योगिकि के मालिक भले ही पूंजीपति हों, लेकिन कमान तो वही श्रमजीवियों के हाथों में है। वे लगातार तकनीक को उन्नत बनाते जा रहे हैं। नित्य नए औजार सामने ला रहे हैं। हर बार एक नए औजार का आना बहुत सकून देता है। तकनीक का विकसित होना शांति और विश्वास प्रदान करता है। कि इतिहास का चक्का रुका नहीं है। दास युग और सामंती युग विदा ले गए तो यह मनुष्यों के शोणित से अपनी प्यास बुझाने वाला पूंजीवाद भी नहीं रहेगा। हम, और केवल हम लोग जो श्रमजीवी हैं, जो तकनीक को लगातार विकसित कर रहे हैं, एक बार फिर दुनिया को बदल डालेंगे। 

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

तदर्थवाद देश को एक बड़े कूड़ेदान में तब्दील कर रहा है

र में बच्चों में झगड़ा हुआ, छोटा बड़े की पीठ पर चढ़ गया और कंधे पर काट लिया। बड़े का कंधा घायल हुआ, उसे अस्पताल ले जाना पड़ा। जब घर के मुखिया से पूछा कि ये कैसे हुआ? तो वह कहने लगा -हमारे बच्चे तो ऐसे नहीं हैं। लगता है किसी ने षड़यंत्र किया है। 
रेल पर रेल चढ़ गई तकरीबन 70 लोगों की जानें गईं। कितने ही घायल हो कर अपंग हो गए, एक रेल इंजन और कितने ही डब्बे नष्ट हो गए। कितने ही अपने परिजनों की मृत्यु से बेसहारा हो गए।  लेकिन ममता दी भी यही कह रही हैं, षड़यंत्र औऱ तोड़-फोड़ की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। चार दशक पहले ऐसे ही सुनने को मिलता था कि यह सीआईए का षड़यंत्र है या केजीबी ने ऐसा किया है। हालाँकि इस हादसे के वक्त रेल मंत्री का यह बयान पूरी तरह बचकाना है।

लो मान भी लिया जाए कि यह षड़यंत्र है, तो क्या रेल प्रबंधकों की यह जिम्मेदारी नहीं कि वे ऐसे किसी भी तरह के षड़यंत्र से बचने की व्यवस्था रखें। लेकिन इस हादसे को षड़यंत्र का नाम देना पूरी तरह से अपनी जिम्मेदारी से तौबा करना है। बाद में इसे मानवीय भूल कहा जा सकता है, या फिर तकनीकी त्रुटि। तकनीकी त्रुटि भी अंततः मानवीय भूल ही होती है। क्यों कि वह भी मानवीय भूल या लापरवाही का नतीजा होती है। 
वास्तव में पिछले तीस वर्षों से देश जिस रास्ते पर चल रहा है उस के अंतर्गत हर स्थान पर मनुष्य को विस्थापित कर तकनीक को स्थान दिया गया है। जब कि यह देश जहाँ जनसंख्या दुनिया में सर्वाधिक घनी है और दुनिया की सर्वाधिक जनसंख्या वाला भूखंड होने जा रहा है। जहाँ दुनिया के सर्वाधिक बेरोजगार लोग निवास करते हैं जिन की संख्या लाखों  में  नहीं करोड़ों में है वहाँ तकनीक का विस्तार इस रीति से होना चाहिए था कि लोग बेरोजगार न हों, अपितु नए रोजगारों का सृजन हो। लेकिन हो इस का उलटा रहा है। 
कनीक पर अरबों रुपयों का खर्च हो रहा है और नतीजे के रूप में रोजगार पर लगे लोग बेरोजगार कर दिए जाते हैं। इस अनुसंधान पर करोड़ों रुपयों का खर्च हो रहा है कि कैसे कम से कम लोगों के नियोजन से उद्यम चलाए जा सकते हैं? जो उद्यम बिना मानवीय हाथों के नहीं चल सकते वहाँ और बुरी स्थिति है। सरकारें कंगाल हैं। उस का उदाहरण है, सरकारी विभागों में लाखों पद रिक्त पड़े हैं। रिक्त पदों के कारण जरूरी काम लंबित पड़े रहते हैं। नगरपालिकाओं में सफाई कर्मचारी नहीं हैं, सारा देश गंदगी से अटा पड़ा है, भौतिक और मानसिक दोनों तरह की। सरकार के पास विभागों में कर्मचारी कम हैं। बिजली कंपनियों में कर्मचारियों की कमी है। और रेल में वहाँ तो स्थिति और भी भयानक है। पिछले तीस बरसों में रेलों का लगातार विस्तार हुआ है। लगभग दुगनी से भी अधिक माल और सवारियाँ ढोई जा रही हैं लेकिन वहाँ नियोजित कर्मचारियों की संख्या आधी से भी कम रह गई है। 
सा लगता है कि दो या तीन खेमों वाली राजनैतिक प्रणाली में राजनेता जानता है कि पाँच साल बाद उसे फिर से सड़क पर आने है। वह सिर्फ तदर्थ रुप से काम करता है। यह तदर्थवाद देश को एक बड़े कूड़ेदान में तब्दील कर रहा है। वह देश को सिर्फ पाँच वर्ष के लिए चलाता है। आरंभिक वर्षों में जैसे चले चलाओ। अगले चुनाव के वक्त बताने लायक काम दिखाओ, जब चुनाव नजदीक आ जाएँ तो जनता के धन को वोट कबाड़ू योजनाओं में बरबाद करो। जब सरकार बदल कर नए दल या गठबंधन की आती है तो सब से पहले यही घोषणा करती है कि जाने वाली सरकार खजाना खाली छोड़ गई है।
मता दी के लिए रेल मत्रालय तदर्थ ही है, उन का पूरा ध्यान बंगाल पर है कैसे वहाँ तृणमूल दल का राज स्थापित हो। देश का तृणमूल भले ही सूखा और नष्ट होता रहे, किसी को उस की फिक्र नहीं। पर ऐसे में जब तृणमूल (Grass-root) का जीवन नष्ट होने की कगार पर चला जाए तो अपने जीवन की रक्षा के लिए उसे ही प्रयत्न करने होंगे। तमाम राजनैतिक दलों ने अब तक निराश किया है। अब जनता की एक बड़ी ताकत की आवश्यकता है जो इस देश को बदल सके, इस देश की जनता के जीवन और भविष्य के लिए। हम छोटे छोटे लोगों को ही उस ताकत को बनाना होगा। इस का उपाय यही है कि छोटे से छोटे स्तर पर जहाँ भी जितनी भी संख्या में हम संगठित हो सकते हों हों, अपने जीवन की रक्षा और उस की अक्षुणता के लिए। ये छोटे-छोटे संगठन ही किसी दिन बड़े और विशाल देशव्यापी संगठन का रूप धारण कर लेंगे।


सोमवार, 31 मई 2010

मनुष्य के श्रम से विलगाव के जैविक और सामाजिक परिणाम


ज सुबह अदालत में जब हम चाय के लिए  जा रहे थे तो वरिष्ट वकील महेश गुप्ता जी ने पीछे से आवाज लगाई। मैं मुड़ा तो देखता हूँ कि पंचानन गुरू मौजूद हैं। वे मुझे याद कर रहे थे। वे कोटा की पहली पीढ़ी के वामपंथियों में से एक हैं। अपने जमाने में उन्हों ने इस विचार को पल्लवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका  अदा की। बाद में  अपने गांव के पास के कस्बे अटरू में जा कर वकालत करने लगे, साथ में पुश्तैनी किसानी थी ही। अब जीवन के नवें दशक में हैं। गुरू ने पूछा -कहाँ जा रहे थे? मैं ने कहा चाय पीने।  उन्हो ने पलट कर पूछा-कौन पिला रहा है? मैं ने कहा जो भी सीनियर होगा वही पिलाएगा। उन्हों ने फिर पूछा -हम भी चलते हैं, अब कौन पिलाएगा? उत्तर मैं ने नहीं महेश जी ने दिया - अब तो सब से सीनियर आप ही हैं, लेकिन जब छोटे कमाने लगें तो उन का हक बनता है। तो यूँ मेरा हक है। हम सब केंटीन की ओर चले।
चाय का आदेश देते हुए महेश जी ने कहा एक चाय फीकी आएगी। गुरू बोले -फीकी किस के लिए? मैं तो अब भी घोर मीठी पीता हूँ। महेश जी ने जवाब दिया यह मधुमेह का राजरोग मुझे लगा है। गुरू कहने लगे -मधुमेह तो तो सब रोगों की जननी है। अब कोई रोग आप को छोड़ेगा नहीं। महेश जी ने उत्तर दिया -आप सही कहते हैं। इस का कोई इलाज भी नहीं, एक इलाज है पैदल चलना। मैं ने कहा श्रम ने ही तो मनुष्य को जानवर से मनुष्य बनाया है, वह छूटेगा तो रोग तो पकड़ेगा ही। गुरू जी कहने लगे तुम भी डार्विन में विश्वास करते हो क्या? मैंने कहा करता तो नहीं, पर सबूतों का क्या करें? कमबख्त ने सबूत ही इतने दिए कि मानने के सिवा कोई चारा नहीं है। गुरू जी ने गीता का जिक्र कर दिया। कहने लगे -वहाँ भी कहा तो यही है, कि मनुष्य काजन्म तो 84 लाख योनियों के बाद होता है, सीधा-सीधा विकासवाद की ओर संकेत है। पर उन्हों ने सबूत नहीं दिए सो पंडितों ने अपनी रोटियाँ उस पर सेक लीं।फिर वे किस्सा सुनाने लगे -
Planet of the Apes'मेरे गांव में एक बूढ़ा पटवारी बिस्तर पर था जान नहीं निकलती थी। बेटे कहने लगे बहुत दुख पा रहे हैं जान नहीं निकल रही है। मैं गीता ले कर वहाँ पहुँचा कि तुम्हें गीता सुना दूँ। दो दिन में उसे गीता के दो अध्याय सुनाए। तीसरे दिन तीसरा अध्याय सुनाने गया तो पूछने लगा। गाँव में डिस्टीलरी की बिल्डिंग  का खंडहर खड़ा है, सैंकड़ो एकड़ उस की जमीन है, डिस्टीलरी की इस जमीन का क्या होगा? मैं ने उसे गीता का तीसरा अध्याय नहीं सुनाया। बेटों को कहा कि जब तक डिस्टीलरी की चिंता इन्हें सताती रहेगी ये कष्ट पाते रहेंगे। उस के बाद मैं उसे गीता सुनाने नहीं गया।? 
ब तक चाय समाप्त हो चुकी थी। सब उठ लिए। गुरू जी मेरे लिए काम सौंप गए। जब श्रम ने मनुष्य को जानवर से मनुष्य बनाया तो उस का श्रम से विलगाव क्या असर करेगा? जरा इस पर गौर करना। मैं ने कहा -निश्चित ही वह मनुष्य का विमानवीकरण करता है। यही तो इस युग का सब से बड़ा अंतर्विरोध है। मनुष्य का अंतर्विरोधों का हल करने का लंबा इतिहास है, वह इस अंतर्विरोध को भी अवश्य ही हल कर लेगा। मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'कफन' तो आपने पढ़ी ही होगी। 
स के बाद गुरूजी चल दिए। मैं भी अपने काम में लग गया। मैं घर लौटने के बाद इस प्रश्न  से जूझता रहा कि  क्या मनुष्य इस अंतर्विरोध को हल कर पाएगा? 
प लोग इस बारे में क्या सोचते हैं? आप राय रखेंगे तो इस विषय पर सोच आगे बढ़ेगी। ब्लाग जगत में कुछ साथी गंभीर काम करते हैं, उन से गुजारिश भी है कि उन के ज्ञान में हो तो बताएँ कि, क्या ऐसी कोई शोध भी उपलब्ध हैं,  जो मनुष्य के श्रम से विलगाव के जैविक और सामाजिक परिणामों के बारे में कुछ निष्कर्ष प्रस्तुत करती हैं?