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गुरुवार, 4 जनवरी 2024

'औकात'

- दिनेशराय द्विवेदी

“अच्छे से बोलो” कलेक्टर के बात करने के तरीके पर ड्राइवरों में से एक ने यही तो कहा था। ड्राइवर आंदोलन पर थे और कलेक्टर को ड्यूटी दी गयी थी कि उन्हें समझाएँ कि वे कानून हाथ में न लें। वैसे भी कानून को हाथ में लेने का अधिकार सिर्फ प्रशासनिक अफसरों, पुलिस, सशस्त्र बलों, सत्ताधारी पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं और माफियाओं को है। वैसे भी वे नए कानून का विरोध ही कर रहे थे।

पर कलेक्टर ने पलट कर जवाब दिया, “क्या करोगे तुम .... औकात क्या है तुम्हारी”?

व्याकरण की भाषा में सोचें तो यह जवाब नहीं, सवाल लगता है। पर असल में कलेक्टर ने अपनी औकात बता दी थी।

ड्राइवर का जवाब भी माकूल था, “यही चीज तो चाहिए सर¡ हमारी तो कोई औकात ही नहीं है। इसी की तो लड़ाई है।


असल में सामंतों को जबान दराजी पसंद नहीं। वही गुण आज के अफसरों में हैं। वे खुद को अफसर नहीं बल्कि सामंत समझते हैं और वैसे ही व्यवहार करते हैं। कुछ नहीं करते, लेकिन वे अपवाद हैं। नेताओं को भी यह सब पसंद है। सरकार और मंत्रियों को भी। लेकिन जब पूरी सरकार ही हाईकमान ने मुकर्रर की हो और खुद हाईकमान को कुछ महीने बाद जनता के पास हाथ जोड़ने जाना हो तो। यह सामंती तैश वह कैसे बर्दाश्त करे। कलेक्टर को हटा दिया गया। लगता है कि उसे दंडित किया गया है। पर वास्तव में उसे कलेक्टर से उपसचिव बना कर सेक्रेट्रियट में बुला लिया गया। अब उसकी पीठ थपथपाई जाएगी और कहा जाएगा कि तुम काम के आदमी हो, तुम्हारी जगह वहाँ नहीं इधर हमारे नजदीक है। अब सीधे हमारे लिए काम करो।

कलेक्टर ने सही कहा था “औकात क्या है तुम्हारी?” वास्तव में ड्राइवर की कोई औकात नहीं होती। किसी मजदूर, कर्मचारी, किसान, सिपाही, पैदल फौजी, दुकानदार, मेहनतकश की इस पूंजीवादी-सामन्ती निजाम में कोई औकात नहीं। वे सब ऐसे ही गरियाए लतियाए जाते हैं। उनका काम सिर्फ पूंजीपतियों, भूस्वामियों, राजनेताओं और अफसरों वगैरा वगैरा की सेवा करना है।

लकड़ी की औकात नहीं होती, पर लकड़ियों के गट्ठर की होती है। खुले हाथ की कोई औकात नहीं होती, कोई भी उंगली तोड़ सकता है। लेकिन बंद मुट्ठी और मुक्के की बहुत औकात होती है। ये सब मजदूर, कर्मचारी, किसान, दुकानदार, मेहनतकश जब इकट्ठा हो कर गट्ठर और मुट्ठी हो जाते हैं। जब वह मुट्ठी तन कर मुक्का हो जाए तो तो सर्वशक्तिमानों को पैदल दौड़ा देती है।

रविवार, 10 जनवरी 2021

नॉर्मल डिलीवरी


कल शाम करीब साढ़े सात का समय था, फ्लैट की कॉलबेल  बजी। मैंने दरवाजा खोला। केयरटेकर की पत्नी थी। मुझे देखते ही बोली, "आण्टी जी कहाँ हैं?"

"रसोई में। क्यों कोई बात हो तो मुझे बताओ? 

"उधर सामने सड़क पर एक औरत ने बच्चा जन दिया है। बहुत सुन्दर बच्चा है।"

अब मैं क्या कहता। मैंने उत्तमार्ध को बुलाया। अब वह सारी कहानी बताने लगी। 

"जच्चा को दरी और कम्बल दे दिया है, वह सड़क के किनारे ही बच्चे सहित लेटी है। उसके परिजन आ गए हैं। उसे घेर कर बैठ गए हैं। अस्पताल जाने के साधन की जुगाड़ की जा रही है। मैं यह पूछने आयी थी कि उसे चाय दे सकते हैं क्या?"

"हाँ, दे सकते हैं। पर उसके परिजन आ गए हैं तो उनकी अनुमति हो तो ही देना। बनाने से पहले पूछ लेना।" उत्तमार्ध ने कहा। वह सुन कर  सीढ़ियों से नीचे उतर गई। 

मैंने उत्तमार्ध को कहा, "मैं नीचे पता कर के आता हूँ। माजरा क्या है?"

"वहाँ तुम्हारा क्या काम है? रहने दो।" 

मैं ने बालकनी से देखा। तीन चार मजदूर स्त्रियाँ जच्चा को घेर कर बैठी थीं। वहाँ अधिक रोशनी नहीं थी। वैसे जच्चा के लेटे हुए होने के कारण वह दिखाई नहीं दे रही थी। पास ही दो-तीन मजदूर खड़े थे। पास ही मेरी बिल्डिंग के एक व्यवसायी किसी को फोन कर रहे थे। मैं सीढ़ियों से नीचे उतर गया। 

पता लगा उन्होने 108 नं. एम्बुलेंस को, पुलिस कंट्रोल रूम को और पुलिस थाने को फोन कर दिया है। पर बच्चे की नाल अभी नहीं कटी है। 

मैंने अपने तमाम ज्ञान पर विचार किया। फिर कहा कि यदि कुछ मिनटों में 108 आ जाए तो अस्पताल ही विकल्प है। अपने अधूरे ज्ञान के आधार पर नाल काटने का प्रयास करना उचित नहीं।

मेरा वहां मेरा कोई काम नहीं था। मैं लौट आया। पर जिज्ञासा ने मुझे फिर से बालकनी में पहुँचा दिया। 108 आ चुकी थी। चालक ने पिछला दरवाजा खोल दिया था। मजदूर स्त्रियाँ जच्चा को चढ़ा रही थीं। दो मिनट में जच्चा-बच्चा और साथ की स्त्रियों को लेकर एम्बुलेंस चली गयी। साथ के मजदूर चौराहे की तरफ चल दिए साधन की तलाश में कि अस्पताल पहुँचें। 

जच्चा पास में निर्मित हो रहे पार्किंग प्लेस में काम करने वाले मजदूर थे। उन्होंने वहीं अपनी झुग्गियाँ डाली हुई हैं। पता लगा कि जच्चा शाम तक मजदूरी कर रही थी। काम से उतरते के कुछ देर बाद ही उसे दर्द हुआ।  जच्चा को उसका पति डाक्टर के यहाँ दिखाने जा रहे थे कि चलते हुए दर्द तेज हुआ। जच्चा से सहन नहीं हुआ वह वहीं सड़क पर लेट गई। बच्चा जन दिया, बिना किसी की सहायता के नॉर्मल डिलीवरी।

हमने राहत की साँस ली कि जच्चा बच्चा अस्पताल पहुँच गए होंगे।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

कोविद-19 से लड़ाई मैदान में हमें खुद लड़नी पड़ेगी?


पिछले चार-पाँच दिनों से जिस तरह की रिपोर्टें आ रही हैं उन से लग रहा था कि भारत में 75-80 प्रतिशत कोरोना संक्रमित ऐसे हैं जिनमें कोई लक्षण ही नहीं नजर आ रहे हैं। वे समाज में खुले घूम रहे हैं और निश्चित ही अनेक को संक्रमित भी कर रहे हैं। इस पर कल ही लिखना चाहता था, पर अधिकारिक निष्कर्ष के बिना इस लेख को ले कर मेरी कुटाई भी हो सकती थी। लेकिन कल एमआईसीआर ने भी इस तथ्य की पुष्टि कर दी है।

इस स्थिति में यदि हम देश को कोविद-19 मुक्त करना चाहें तो देश के हर निवासी का हमें टेस्ट करना पड़ेगा वह भी एक बार नहीं कम से कम कुछ कुछ अन्तराल से तीन बार। फिर उन्हें क्वेरंटाइन कर के उनके संक्रमण को समाप्त होने की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी और उन्हें जीवित बनाए रखने के प्रयास भी जारी रखने होेगे। देश को सारी दुनिया से तब तक काट कर रखना होगा जब तक कि दुनिया कोविद-19 से मुक्त न हो जाए। जो मैं कह रहा हूँ, वह भारत के किसी एक नगर के लिए भी संभव नहीं है। राज्य और देश तो बहुत दूर की बातें हैं। फिर?

हमने देश को लॉकडाउन करके 40 करोड़ रोज मजदूर आबादी को संकट में डाल दिया है। उन्हें उनके घरों तक या जहाँ उन्हें काम उपलब्ध हो सके वहाँ तक पहुँचाने में हम असमर्थ हैं। हमने उन्हें परिस्थितियों की दया पर छोड़ दिया है। हम बाहर पढ़ रहे बच्चों को लाने मे राज्यों की मशीनरी झोंक चुके हैं। पर देश का निर्माण करने और उसे चलाने वाले मजूरों के लिए हमारे पास कुछ नहीं है।

लॉकडाउन के एक माह में हम बेहाल हो चुके हैं। हम अधिक दिनों तक इस बीमारी का बोझा नहीं ढो सकते। सरकारें दिवालिया होने की कगार पर हैं। हम रिजर्व बैंक के रिजर्व को खर्च कर रहे हैं। उसका भी अधिक लाभ जनता को नहीं, वित्तीय पूंजी के रक्षक और पूंजीपतियों की सेवा करने वाले बैंकों को मिल रहा है।

लॉकडाउन  इस महामारी का इलाज नहीं है, न ह ो सकता है।  इस लॉकडाउन ने हमें रुक कर सोचने का मौका दिया है।  फिलहाल हमें सामाजिक सामञ्जस्य के साथ भौतिक दूरी (सामाजिक दूरी नहीं)  का अभ्यास करना है,  मास्क लगाने, नियमित रूप से हाथ साफ करने   तथा दूसरे साफ सफाई के तरीके  अपनाने और उन्हें आदत बना लेने  की जरूरत है। यही इस महामारी का इलाज हैं। 

आने वाला वक्त मुझे लगता है ऐसा हो सकता है बीमारी और मौत का डर छोड़ कर हमें अपनी वास्तविक गति में आने को बाध्य होना पड़ेगा। वही इस का इलाज भी होगा। हमें कोविद-19 से  लड़ाई हमें  घरों में छुप कर नहीं बल्कि मैदान में आ कर  खुद लड़नी होगी। लड़ाई में जरूर कुछ हजार या लाख खेत रह सकते हैं। तो वे तो अब भी खेत रह रहे हैं। पर अभी हमने सब कुछ दाँव पर लगा रखा है। तब शायद सब कुछ दाँव पर नहीं होगा। क्या होगा? यह तो भविष्य ही बता सकता है।


गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

कोविद-19 महामारी और भारत-7


मजदूरों के पलायन की वजह क्या थी?

भारत के प्रधानमंत्री ने 24 मार्च 2020 की शाम 8 बजे टीवी-रेडियो से जीवित प्रसारण में सूचना दी कि कोविद-19 महामारी से बचाव के लिए आधी रात अर्थात 25 मार्च शुरु होते ही देश भर में 21 दिनों का लॉकडाउन आरंभ हो जाएगा। इस के पहले उन्होंने 19 मार्च की रात 8 बजे 22 मार्च की सुबह 7 से रात 9 बजे तक जनता कर्फ्यू रखे जाने का आव्हान किया था। जिसके दौरान शाम 5 बजे थाली, ताली, घण्टे बजा कर कोविद-19 से बचाव में लगे स्वास्थ्य और पुलिसकर्मियों का आभार व्यक्त करने का भी आव्हान किया था। 22 मार्च की कवायद एक तरह की मोक-ड्रिल थी जो इसलिए कराई गयी थी कि भौतिक-दूरी (कथित सोशल डिस्टेंस) बनाए रखने को आदत बनाने का आरंभ किया जाए।
22 मार्च की यह कवायद शाम पाँच बजे तक ठीक चली। लेकिन शाम पाँच बजते ही वह भारतीय प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के संसद में विश्वास मत जीत लेने के जश्न में बदल गयी। उन के विश्वसनीय समर्थकों यहाँ तक कि उनकी पार्टी के जाने-माने नेताओँ और अनेक सरकारी अफसरों ने भौतिक-दूरी की इस कवायद की बैंड बजा दी। ये लोग जलूस के रूप में सड़क पर निकल आए। थालियाँ- तालियाँ और घंटे-झालरें बजाते हुए मोदी जी की जयजयकार करने लगे। मोदी जी ने आभार प्रकट करने के इस घन्टा-नाद का समय शाम 5 बजे का ही क्यों रखा यह आज तक समझ नहीं आया।
हम इसे समझने की कोशिश करें तो हमें बन्द के आवाहनों के ताजा इतिहास में जाना पड़ेगा। मेरे 65 वर्ष के जीवन में मैंने उत्तर भारत में जितने नगर, प्रान्त या भारत बंद देखे हैं, उनमें से अधिकांश भारतीय जनता पार्टी, पूर्व जनसंघ या उसके बिरादर संगठनों के आव्हानों पर आयोजित हुए हैं। ये बन्द दिन भर के लिए होते हैं, और ज्यादातर तोड़-फोड़, मार-पीट और संपत्ति को हानि पहुँचने के भय से पूरे या पौने सफल भी हो जाते हैं। लेकिन शाम चार बजने के बाद धीरे-धीरे चहल-पहल बढ़ती है और शाम 5 बजते बजते बाजार आबाद हो जाते हैं। उसी समय आव्हान करने वाले कार्यकर्ता बंद की सफलता की आदिम प्रसन्नता अभिव्यक्त करने के लिए छोटे-मोटे जलूस निकालने लगते हैं। यह व्यवहार इन दक्षिणपंथी संगठनों की एक स्थायी आदत बन चुका है। इस आदत के चलते मुझे पहले ही लग रहा था कि ऐसा कुछ होने वाला है, और यह हुआ भी। भारतीय मीडिया ने जिसका अधिकांश पूरी तरह प्रधानमंत्री के समक्ष नतमस्तक है, जनता कर्फ्यू की सफलता को प्रधानमंत्री की जीत के रूप में अभिव्यक्त किया और विजय के विद्रूप प्रदर्शनों को छोटी-मोटी गलती बताया। बाद में प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी के इन नेताओँ और समर्थकों के व्यवहार पर अपने ट्वीट में या अन्यथा किसी भी प्रकार कोई आपत्ति या नाराजगी व्यक्त नहीं की। इससे यही समझा जा सकता है कि वे इससे प्रसन्न थे और ऐसा होते देखना चाहते थे। मेरे जैसे लोगों ने और मीडिया के उंगलियों पर गिने जाने वाली इकाइयों ने इस पर आश्चर्य प्रकट किया भी तो वह नगाड़ों के शोर में तूती की आवाज सिद्ध हुई और इसे खिसियाना भी कहा गया।
जब 24 मार्च की शाम देश को लॉक-डाउन करने के आव्हान का प्रसारण हुआ तो लॉक-डाउन शुरू होने के पहले लोगों के पास केवल 4 घंटों का समय था। लॉक-डाउन में अत्यावश्यक सेवाओँ के सिवा सभी कुछ बन्द हो जाना था। सरकारी कार्यालय, बाजार, दुकानें, कारखाने, निर्माण कार्य वगैरा-वगैरा। इस घोषणा के बाद से ही मध्यवर्ग बाजारों में निकल पड़ा कि जैसे-तैसे महीने भर घर पर रहने का राशन-पानी इकट्ठा कर ले। बाजारों में बड़ी भीड़ इकट्ठा हो गई और देखते ही देखते दुकानें सामानों से खाली नजर आने लगीं। यह तो मध्यवर्ग था जो इतना कुछ खरीद भी सकता था। लेकिन मजदूर वर्ग की रोज-मजूरी करने वाली आबादी के सामने भीषण संकट खड़ा हो गया था। अगले दिन से उन्हें कई दिनों तक रोजगार नहीं मिलने वाला था। यह महीने के बीच का समय था। रोज-मजूरों के जेबें लगभग खाली थीं। यदि वे खरीददारी के लिए निकलते भी तो अधिक से अधिक सप्ताह भर का राशन ही खऱीद सकते थे।
एक आकलन के अनुसार देश में लगभग 45 करोड़ लोग रोज-मजदूरी पर निर्भर हैं। यह भारत की कुल आबादी का एक तिहाई हिस्सा है। जीवन के उनके अपने अनुभव हैं। मैंने खुद देखा है, अनेक बार ठेकेदार एक दो सप्ताह या महीने भर काम कराने के बाद उनकी मजदूरी देने से मना कर देते हैं। देश के किसी राज्य में ऐसी व्यवस्था नहीं कि उनकी बकाया मजदूरी तत्काल या महीने-दो महीने तो क्या साल भर में भी दिला सके। कानूनी व्यवस्था ऐसी है कि बकाया मजदूरी वसूलने में एडियाँ घिस जाती हैं, वकीलों को फीस देनी पड़ती है और बरस लग जाते हैं। फिर भी मजदूरी नहीं मिलती। अब रोज-मजदूर बकाया मजूदूरी के लिए बरसों चलने वाली लड़ाई लड़े या जहाँ उसे मजदूरी मिलती हो वहाँ जा कर मजदूरी करे। अधिकतर मामलों में वह सरकारी दफ्तरों में शिकायत करने और उनके चक्कर काट-काट कर थक जाने के बाद मजदूरी को डूबी मान कर अपना रास्ता देखता है।
लॉक-डाउन की घोषणा के साथ ही आबादी के इस हिस्से पर भीषण गाज गिर पड़ी थी। अपने अनुभव से वह जान चुका था कि 21 दिन तो आरंभ है। पड़ौसी देश चीन और दूसरे देशों से आ रही खबरें भी उनके कानों तक पहुँच ही रही थीं। इन से वह समझ गया था कि यह लॉक-डाउन महीनों चल सकता है। इसके समाप्त हो जाने पर भी गतिविधियाँ कई चरणों में आरंभ होंगी। इस कारण कम से कम अगले छह माह संकट में गुजरने वाले हैं। नगरों और महानगरों में जीना दूभर हो जाएगा। वहाँ काम मिलने में समय लगेगा। 
रोज-मजूरों के इस वर्ग एक हिस्सा ऐसा है जिनके परिवारों के पास कुछ न कुछ खेती की जमीनें हैं और परिवार के अधिकांश सदस्य मजदूरी के लिए नगरों-महानगरों को निकल जाते हैं। जब कि कुछ गाँव में बने रहते हैं जो उस नाम मात्र की पारिवारिक स्वामित्व की जमीन पर तथा ग्रामीण मजदूरी पर निर्भर करते हैं। गाँव में उनके पास रहने के लिए स्थान की कमी नहीं। कम से कम उसके लिए किराया नहीं देना पड़ता। रोज-मजूरों का दूसरा हिस्सा पूरी तरह भू-विहीन है। उसे भी पता था कि इस समय जब शहर में काम बन्द हो गया है, तब गाँवो में फसलें खड़ी हैं और इस बार यातायात के साधन बन्द हो जाने से फसलों की कटाई से ले कर उसे तैयार करने के लिए बाहर का मजदूर नहीं आएगा। लगभग हर गाँव में इस समय कम से कम 15 से 35 दिनों की मजदूरी उसे अवश्य ही मिल जाएगी, जो कुछ नकद होगी और कुछ अनाज के रूप में। इस से उनकी प्राण रक्षा हो सकेगी।
निर्माण मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के लिए 1996 में बनाए गए कानून के अंतर्गत जरूर कुछ उपाय पिछली मनमोहन सरकार के दौरान आरंभ किए गए थे। इस योजना में पंजीकृत मजदूरों के लिए तो कुछ सुविधाएँ मिलने की संभावना थी लेकिन अन्य मजदूरों के लिए किसी तरह की कोई सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध नहीं है। ऐसी सुविधा जिस से वे कुछ दिनों या महीनों के संकट में कुछ मदद की आशा कर सकें। ऐसे में उनके पास एक ही मार्ग था कि वे अपने घरों की ओर निकल पड़ें। इन रोज-मजूरों को अपने जीवन का तात्कालिक आश्रय अपने-अपने गाँवों में दिखाई पड़ा। उसे जैसे समझ पड़ा वह उसी रात, या अगले 1-2 दिनों में जैसे बन पड़ा गाँव के लिए निकल पड़ा। रोज-मजूरों के पास सामाजिक सुरक्षा का यही अभाव देश व्यापी नगर से गाँव की ओर पलायन का मुख्य कारण बना। जिस से आजादी के समय हुए देश के बँटवारे के समय हुए पलायन के बाद का सब से बड़ा पलायन देश को देखने को मिला। बहुत हृदय विदारक दृश्य देखने को मिले। इस पलायन से कोविद-19 को देश भर में फैल जाने का खतरा बढ़ गया।
इस तरह हम देखते हैं कि परिस्थितियों का सम्यक मूल्यांकन किए बिना जल्दबाजी में और बिना समय तथा अवसर प्रदान किए किया गया लॉक-डाउन ही इस वृहत-पलायन का आधार बना। यह बहुत जरूरी था लेकिन इस की तैयारी पहले से की जानी चाहिए थी।                    .... (क्रमशः)
अगली कड़ी में पढ़ें- लॉक-डाउन के बाद भी संक्रमण कैसे फैला?

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

कोविद-19 महामारी और भारत-6


छँटनी की परिभाषा बदलने से जन्मी श्रमिक-कर्मचारियों की नई श्रेणी

देश के श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों में जो प्रकरण लंबित हैं, मेरे अनुमान के अनुसार उनमें से 80 प्रतिशत से अधिक केवल छंटनी के मामले हैं। 1984 में छंटनी की परिभाषा में परिवर्तन के पहले तक उसकी सामान्य व्याख्या यह थी कि नियोजक द्वारा किसी भी श्रमिक की प्रत्येक सेवा समाप्ति चाहे वह किसी भी कारण से की गयी हो छँटनी है। केवल कुछ प्रकार की सेवा समाप्तियाँ थी जो उस परिभाषा के बाहर थीं। छँटनी की परिभाषा से बाहर की गई सेवा समाप्तियों में, श्रमिक द्वारा स्वेच्छा से ली गयी सेवानिवृत्ति, सेवा संविदा के अनुसार निर्धारित उम्र हो जाने के कारण हुई सेवानिवृत्ति तथा लगातार बीमारी के कारण की गयी सेवा समाप्तियाँ थीं। 1984 में इनमें नियोजन के कॉन्ट्रेक्ट में वर्णित रीति से की गयी सेवा समाप्ति तथा इस कॉन्ट्रेक्ट का नवीनीकरण  न होने पर कॉन्ट्रेक्ट की अवधि की समाप्ति पर हुई सेवा समाप्ति को भी इस में सम्मिलित कर दिया गया।
इस संशोधन ने श्रमिकों की एक नई श्रेणी को जन्म दिया। यह तो सभी जानते हैं कि देश में बेरोजगारी की दर अत्यधिक है। जब बेरोजगारी की दर अधिक होती तो नौकरी चाहने वालों की नियोजक के साथ होने वाले नियोजन के कान्ट्र्रेक्ट में अपनी शर्तें शामिल करने की शक्ति समाप्त हो जाती है। किसी भी काम चाहने वाले बेरोजगार व्यक्ति को नियोजक की शर्तों पर ही काम करना स्वीकार करना पड़ता है।  इस तरह इस संशोधन ने श्रमिकों के बेपानाह शोषण की छूट पूंजीपतियों को दे दी। और केवल पूंजीपति ही क्यों केन्द्र और राज्य सरकारें, सरकारी संस्थान और सार्वजनिक संस्थान भी उस छूट का लाभ उठाने में पीछे नहीं रहे।
इस संशोधन के बाद से नियोजक अब तमाम कामों के लिए श्रमिक कर्मचारी नियोजित करने के सम ही उसके नियुक्ति पत्र में यह शर्त रखने लगे कि यह नियुक्ति 3 या 6 माह के लिए अथवा 1, 2, या 3 वर्ष के लिए है और यह अवधि समाप्त होने पर स्वयमेव समाप्त हो जाएगी। इस तरह के श्रमिक कर्मचारियों को संविदा कर्मचारी या संविदा श्रमिक कहा गया। धीरे-धीरे यह शब्द प्रचलित हो गया और उनकी अलग श्रेणी बन गयी। अब यह श्रेणी आम है। इन संविदा कर्मियों को एक निश्चित वेतन दिया जाता है, आठ घण्टों के स्थान पर कई-कई घण्टे काम लिया जाता है, साप्ताहिक अवकाश के दिनों में भी काम लिया जाता है। उनसे निर्धारित कार्य जिसके लिए वे नियोजित किए गए होते हैं उन कामों के अतिरिक्त अनेक प्रकार काम लिए जाते हैं। उनके अधिकारी उन से घरों के काम भी खूब कराते हैं।
इस तरह इस संशोधन ने ठेकेदार श्रमिकों के बाद सबसे अधिक शोषित श्रमिकों / कर्मचारियों की नई श्रेणी खड़ी कर दी। आज तमाम सरकारी अर्ध-सरकारी संस्थानों और सार्वजनिक उद्योगों में इस तरह के कर्मचारियों की भरमार है। ये कर्मचारी भर्ती नियमो के भी परे हैं। समय-समय पर सरकार के मंत्री यह घोषणा करते रहते हैं कि संविदा कर्मचारियों को स्थायी नौकरी देने पर विचार किया जाएगा। ये घोषणाएँ वह चारा है जो तांगे वाले ने एक बाँस पर बान्ध कर घोड़े के आगे उसकी पहुँच से दूर लटका रखा है। घोड़ा दौड़ता है यह सोच कर कि जल्दी ही उसे चारा खाने को मिलेगा। लेकिन जितना वह दौड़ता है चारा आगे खिसकता जाता है और कभी भी उसे नहीं मिलता।  घोड़े को जितनी तेज भूख लगती है वह उतनी ही तेज भागता है। तांगे का मालिक घोड़े को कभी भरपेट चारा नहीं देता। क्यों कि भरपेट खाना मिल जाने पर तो चारे से अरूचि हो जाएगी और वह सुस्त चलने लगेगा। इस रूपक में ये संविदा कर्मचारी और श्रमिक घोड़े हैं।
हालाँकि इस लॉकडाउन में हुए मजदूरों के पलायन में ये संविदा श्रमिक सम्मिलित नहीं हैं। लेकिन औद्योगिक विवाद अधिनियम में इस संशोधन ने भारत में श्रम-बाजार के परिदृश्य को एकदम बदल दिया है। इस संशोधन के पहले जहाँ पूंजीपति और सरकारें खुद कानूनों से बंधी महसूस करती हैं। अब पूरी तरह आजादी की साँस लेने लगी हैं। उन के हिस्से में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ गयी है। वहीं श्रमजीवी जनता के हिस्से में ऑक्सीजन कम हो गयी है और उस का दम घुट रहा है।                                            .... (क्रमशः)
अगली कड़ी में पढ़ें- इतने भारी पलायन की वजह क्या है?

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

कोविद-19 महामारी और भारत-5

श्रम कानून में परिवर्तन से मजदूर वर्ग की स्थिति कैसे बदतर हुई?

फरवरी 1978 में सुप्रीमकोर्ट के 7 न्यायाधीशों की वृहत पीठ ने बैंगलोर वाटर सप्लाई एण्ड सीवरेज बोर्ड व अन्य बनाम आर. राजप्पा व अन्य के मुकदमे में निर्णय पारित कर यह स्पष्ट कर दिया था कि किस तरह के संस्थानों को उद्योग कहा जाएगा। इस निर्णय से बहुत बड़ी संख्या में संस्थान उद्योग की श्रेणी में आ गए थे और उनके कर्मचारियों को औद्योगिक विवाद अधिनयिम के अंतर्गत अपने विवाद उठाने का अधिकार मिल गया था। इससे देश भर के पूंजीपतियों को बहुत परेशानी हो गयी। तब केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार थी जो अपने ही अन्तर्विरोधों के कारण अस्थिर थी। 1979 में संसद भंग हो गयी और मध्यावधि चुनाव हुए। जिनमें कांग्रेस फिर से शासन में आ गयी और श्रीमती इन्दिरा गांधी फिर से प्रधान मंत्री चुनी गयी।  पूंजीपति केन्द्र सरकार पर लगातार दबाव बनाने लगे कि ‘उद्योग’ शब्द की परिभाषा को बदला जाए तथा जो संस्थान बैंगलोर वाटर सप्लाई केस के निर्णय के बाद उद्योग की श्रेणी में आ गए थे उन्हें फिर से इस से बाहर किया जाए। उसी साल सितम्बर माह में सुप्रीम कोर्ट ने अन्य केस एक्सल वियर व अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया व अन्य के केस में यह निर्धारित कर दिया गया था पूंजीपतियों पर उद्योग बंद करने के के पूर्व सरकार से अनुमति प्राप्त करने की पाबंदी लगाने का 1976 में पारित किया गया संशोधन को असंवैधानिक घोषित कर दिया था और अब उन्हें उद्योगबंदी करने के लिए किसी तरह की पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता नहीं रही थी। इस निर्णय से मजदूर संगठनों में रोष था। उद्योगबंदी पर रोक के कानून को बनाए रखने के लिए कानून में संशोधन चाहते थे। इस तरह फिर से औद्योगिक विवाद अधिनियम में संशोधन किया जाना आवश्यक समझा जाने लगा था।

तब केंद्र सरकार ने औद्योगिक विवाद अधिनियम में संशोधन हेतु बिल प्रस्तुत किया जो 1982 में पारित हो गया। इस संशोधन द्वारा ‘उद्योग’ शब्द की परिभाषा को बदल दिया गया था। बड़े उद्योगों में विवादों को उद्योग में ही हल करने के लिए एक ग्रीवेंस कमेटी का प्रावधान किया था। सरकार जानती थी कि इस संशोधन कानून का विरोध होगा। उस विरोध को दबाने के लिए इस संशोधन में औद्योगिक विवादों के निपटारे के लिए समय सीमा निर्धारित कर दी थी। (जो कभी भी व्यवहारिक सिद्ध नहीं हुई) किसी भी मजदूर की मृत्यु के कारण न्यायालय में लम्बित कोई भी विवाद समाप्त नहीं होने की व्यवस्था की गयी थी। सेवा से हटाए गए मजदूर को पुनः सेवा में लिए जाने का निर्णय श्रम न्यायालय से होने तथा आगे ऊंची अदालत में उस निर्णय को चुनौती दिए जाने पर मजदूर को अन्तिम प्राप्त वेतन पाने का अधिकारी बना दिया गया। उद्योग बंदी और ले-ऑफ को कुछ हद तक रोके जाने की व्यवस्था की गयी। इसके साथ ही अनुचित श्रम आचरण को परिभाषित करने के लिए कुछ कृत्यों की एक सूची कानून में जोड़ी गयी और उसे दंडनीय अपराध बना दिया गया था। लेकिन मजदूरों के पक्ष में दिखाई देने वाले इन प्रावधानों में इतने छेद रखे गए थे कि वे व्यवहारिक सिद्ध नहीं हुए।

मजदूर यूनियनों ने इस संशोधन से ‘उद्योग’ की परिभाषा को बदल देने का जबरर्दस्त विरोध किया। जिसके कारण यह पूरा संशोधन अधिनियम 1984 तक लागू नहीं किया जा सका। 1984 में एक और बिल पारित हुआ जिसके द्वारा छंटनी की परिभाषा में परिवर्तन किया गया। 1982 और 1984 के संशोधन अगस्त 1984 में प्रभावी कर दिए गए। मजदूर यूनियनों के विरोध के कारण ‘उद्योग’ शब्द की परिभाषा बदलने के प्रावधान को कभी लागू नहीं किया जा सका। लेकिन उसे कभी निरस्त भी नहीं किया गया, वह आज भी अप्रभावी प्रावधान के रूप में कानून की किताब में मौजूद है।

इन दोनों संशोधनों के प्रभावी होने के बाद आज तक का अनुभव रहा है कि श्रमिक की मृत्यु हो जाने पर यदि उसका कोई विधिक प्रतिनिधि रेकार्ड पर नहीं लाया जाता है तो वह विवाद समाप्त तो नहीं होता, लेकिन उस विवाद में श्रमिक के विधिक प्रतिनिधियों को न्यायालय से कोई राहत नहीं मिलती जिससे वह लगभग निष्प्रभावी सिद्ध हुआ है।  औद्योगिक विवादों को तीन माह और एक वर्ष में निपटारा किए जाने का जो निर्देशक प्रावधान किया गया था वह पूरी तरह बेकार सिद्ध हुआ क्योंकि इसे प्रभावी बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा में श्रम अदालतें खोली जानी थीं। लेकिन सरकारों ने ऐसा नहीं किया। नतीजे में अभी भी 20 से 30 वर्ष से अधिक पुराने मुकदमे लंबित हैं। अनेक विवादों में मुकदमों के चलते श्रमिक की मृत्यु ही हो जाती है, या सेवा निवृत्ति की आयु ही व्यतीत हो जाती है। श्रमिक को सेवा में पुनर्स्थापित करने का निर्णय होने पर उसे नियोजक द्वारा चुनौती देने पर श्रमिक द्वारा जब तक उच्च न्यायालय को आवेदन नहीं दिया जाता तब तक उसे न तो सेवा में लिया जाता है और न ही उस का अंतिम वेतन आरंभ किया जाता है। उच्च न्यायालयों में चुनौती देने वाली अधिकांश याचिकाएँ दस वर्ष से भी अधिक समय से लंबित पड़ी हैं। अनुचित श्रम आचरण के लिए किसी  नियोजक को दंडित करने का समाचार कभी नहीं मिला। उसके अभियोजन की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि दंडित कराने के लिए आवेदन करने वाला  श्रमिक थक कर ही हार जाता है। इस तरह समय ने यह सिद्ध किया कि श्रमिकों के हक में दिखाई देने वाले कानून सिर्फ दिखावे के साबित हुए।

उद्योग को बंद करने के लिए सरकार की पूर्व अनुमति प्राप्त करने का प्रावधान भी बेकार सिद्ध हुआ। पूंजीपतियों ने नई तरकीब यह निकाली कि वे अपनी कंपनी की बैलेंस शीट को दो-चार साल तक घाटे में दिखा कर उसे बीमार घोषित कराने और उद्योग के पुनर्संचालन के लिए सहायता प्राप्त करने केन्द्र सरकार द्वारा अलग से स्थापित बोर्ड फॉर इंडस्ट्रियल एंड फाइनेंशियल रिकंस्ट्रक्शन  (बीआईएफआर) के पास आवेदन करने लगे। बोर्ड से कंपनी को बीमार घोषित करवा कर उद्योग का संचालन बिना किसी पूर्वानुमति के बन्द करने लगे। एक कंपनी के मामले में तो यह भी हुआ कि सरकार ने उद्योग बंदी की अनुमति प्राप्त करने के आवेदन को निर्धारित अवधि के अन्तिम दिन अनुमति देने से इन्कार करने का आदेश पारित किया। लेकिन आदेश की प्रति समय पर उद्योग के प्रबंधक को श्रम विभाग द्वारा नहीं पहुँचाए जाने के कारण प्रबंधक उद्योग बंद कर चलते बने। श्रमिकों को बकाया वेतन और मुआवजा प्राप्त करने के लिए भी मुकदमे लड़ने पड़े और अनेक तो कभी प्राप्त ही नहीं कर सके। 

छंटनी की परिभाषा में जो मामूली परिवर्तन 1984 के संशोधन से किए गए थे वे मजदूर वर्ग के लिए अत्यन्त घातक सिद्ध हुए। इस संशोधन ने बिना किसी कानूनी अधिकार वाले श्रमिक-कर्मचारियों की एक नई श्रेणी खड़ी कर दी।  जिसके सिर पर हमेशा नौकरी जाने की तलवार लटकती रहती है।                                        .... (क्रमशः)



अगली कड़ी में पढ़ें- 1984 के संशोधन से श्रमिक कर्मचारियों की कौन सी नई श्रेणी खड़ी हुई?

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

कोविद-19 महामारी और भारत-4


नए कानूनों ने मजदूर वर्ग को कमजोर और असहाय बनाया

केन्द्र और देश के अधिकांश राज्यों में श्रीमती इन्दिरागांधी की पार्टी कांग्रेस (इ) की सरकारें थी। तभी ठेकेदार मजदूर (विनियमन एवं उन्मूलन) अधिनियम-1970 संसद में पारित हुआ। इसका उद्देश्य बताया गया था कि ठेकेदार मजदूरों को कुछ सुविधाएँ प्रदान की जाएंगी और जिन उद्योगों को जिन ट्रेड्स में उचित समझा जाएगा ठेकेदार के माध्यम से काम कराया जाना विधि से वर्जित किया जाएगा। किस उद्योग के किस ट्रेड में ठेकेदारी प्रथा का उन्मूलन किया जाएगा यह पूरी तरह केन्द्र या राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में रखा गया। इस कानून के पारित होने से पहले अक्सर मजदूरों के संगठन न्यायालय में औद्योगक विवाद उठाते थे और ठेकेदारी प्रथा को हटाने का आदेश औद्योगिक न्यायाधिकरण या श्रम न्यायालय से प्राप्त कर सकते थे। इस से उद्योगपतियों को बहुत परेशानी थी। उन्हें अपने यहाँ नियमित होने वाले कामों के लिए नियमित मजदूर नियोजित करने पड़ते थे जिन्हें ठेकेदार मजदूरों से लगभग दुगना वेतन व लाभ देना पड़ता था और उन का मुनाफा कम होता था। इस कानून के अंतर्गत अब मजदूर अदालत नहीं जा सकते थे। अब ठेकेदारी प्रथा का उन्मूलन पूरी तरह सरकार की मर्जी पर निर्भर था। यह तो सब जानते हैं कि जो सरकारें उद्योगपतियों के धन-बल पर शासन में आयी हों वे उनके हितों की अनदेखी नहीं कर सकतीं थी।

इस कानून के प्रभावी होने के पहले तक उद्योगपतियों और पूंजीपतियों को यह भय रहता था कि नियमित कामों के लिए ठेकेदार मजदूरों से काम लिया गया तो अदालत उन मजदूरों को उद्योग का मजदूर घोषित कर के उन्हें उद्योग के मजदूरों के समान लाभ दिलाने का आदेश दे देगी। इस कानून के पारित होने का नतीजा यह हुआ कि पूंजीपति बेधड़क ठेकेदार मजदूरों से नियमित काम भी करवाने लगे। कारखानों और उद्योगों में नियमित मजदूरों की भर्ती कम होने लगी और वे काम ठेकेदारों के मजदूरों से कराए जाने लगे। धीरे-धीरे उद्योगों में नियमित मजदूरों की संख्या जो पहले 70-80 प्रतिशत होती थी अब 20-30 प्रतिशत तक रह गयी। ठेकेदार मजदूरों की संख्या बढ़ कर 70-80 प्रतिशत तक चली गयी।

इसके पूंजीपतियों को अनेक लाभ मिले। अब ठेकेदार मजदूरों पर नियमित मजदूरों की बनिस्पत आधा ही खर्च करना पड़ता था। ठेकेदार मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी देकर काम चलाया जाने लगा। इस से पूंजीपतियों का मुनाफा बढ़ गया। इस नए कानून ने जो सुविधाएँ देने का प्रावधान किया था वे सुविधाएँ भी उन्हें नहीं मिलीं। क्योंकि सुविधाएँ दी जा रही हैं या नहीं इस बात का निरीक्षण तो सरकारी निरीक्षकों को करना था।  इन निरीक्षकों को मैनेज करना तो पूंजीपतियों के बाएँ हाथ का खेल था। यदि मजदूर इन सुविधाओं को देने की मांग करते या ट्रेड यूनियन के सदस्य बनते या ट्रेड यूनियन के माध्यम से अपनी आवाज उठाते तो उन्हें नौकरी से हटाना बहुत आसान हो गया। पूंजीपति ठेकेदार का ठेका खत्म कर देते। जिससे सभी मजदूरों की नौकरियाँ चली जातीं। वे किसी दूसरे ठेकेदार के माध्यम से या उसी ठेकेदार के किसी रिश्तेदार के नाम से नया ठेका दे देते। नए मजदूरों को काम पर रख लिया जाता। यह देश में बेरोजगारों की संख्या बहुत अधिक होने के कारण आसान था। इससे ठेकेदार मजदूरों को यह समझ आ गया कि वे अपने हकों की मांग नहीं कर सकते।

इसका दूसरा असर यह हुआ कि जैसे-जैसे उद्योगों में नियमित मजदूर कम होते गए वैसे-वैसे उनकी संगठन बना कर अपने हकों के लिए लड़ने की क्षमता भी कम होती गयी। इस तरह देश के मजदूर आंदोलन को धीरे-धीरे कमजोर बनाया गया। अनेक उद्योगों में समय-समय पर ठेकेदार मजदूरों की लड़ाई नियमित मजदूरों की यूनियनों ने लड़ने का प्रयत्न किया। लेकिन ऐसे आंदोलन कुचल दिए गए। ठेकेदार मजदूर बेकार हो गए। यहाँ तक कि नियमित मजदूरों के नेताओं को भी अपनी नोकरियाँ खोनी पड़ीं। धीरे-धीरे नियमित मजदूरों की मजबूत यूनियने ठेकेदार मजदूरों की लड़ाई लड़ने से कतराने लगीं। पूंजीपतियों और उनके प्रचारक मध्यवर्ग और प्रेस ने ऐसी धारणाएँ पैदा की कि मजदूर नेता आंदोलन के माध्यम से अपने हित साधते हैं और ठेकेदार मजदूरों को उन की नौकरियाँ खोनी पड़ती हैं। इस तरह पूंजीपतियों ने मजदूर वर्ग के ईमानदार नेताओँ को बेईमान प्रचारित कर उन्हें मजदूर वर्ग से दूर करने में सफलता प्राप्त कर ली। दूसरी और पूंजीपति वर्ग ने अपने समर्थक नेताओं की यूनियनें खड़ी कीं। जिन का उद्देश्य मजदूरों को उनके हकों के लिए लड़ने से रोकना और मजदूरों के वोट पूंजीपति वर्ग के राजनैतिक दलों के पक्ष में मोड़ने का काम करना था। पूंजीपति वर्ग अपने इस उद्देश्य में एक हद तक सफल रहा।

लेकिन देश की राजनैतिक परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि कांग्रेस (इ) को 1977 में सत्ता से बाहर हौना पड़ा और जनता पार्टी सत्ता में आ गयी जिसमें दक्षिणपंथी हिन्दूवादी दल जनसंघ भी विलीन हो गया था। वामपंथी इसी कारण इस सरकार से बाहर रहे। लेकिन जब तक जनता पार्टी शासन में रही तब तक पूंजीपति अपना प्रभाव नहीं बना सके और मजदूर वर्ग के दमन का बड़ा अवसर प्राप्त नहीं हुआ। इस दौर में मजदूर वर्ग के आंदोलनों का एक बड़ा उभार देखा गया। लेकिन जल्दी ही जनता पार्टी अपने अंतर्विरोध से टूट गयी और पुनः इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में केन्द्र में सरकार बनी। कांग्रेस की इस नयी सरकार ने पुनः श्रम कानूनों में 1982 तथा 1984 में महीन परिवर्तन किए। कहा यह गया कि इस का लाभ मजदूर वर्ग को मिलेगा। लेकिन हुआ इस के उलट। मजदूर वर्ग की हालत श्रम कानूनों में इन परिवर्तनो से और बदतर हुई।                         ...  (क्रमशः)

अगली कड़ी में पढ़ें- 1984 में श्रम कानून में परिवर्तन से मजदूर वर्ग की स्थिति कैसे बदतर हुई?