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शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

कोविद-19 महामारी और भारत-5

श्रम कानून में परिवर्तन से मजदूर वर्ग की स्थिति कैसे बदतर हुई?

फरवरी 1978 में सुप्रीमकोर्ट के 7 न्यायाधीशों की वृहत पीठ ने बैंगलोर वाटर सप्लाई एण्ड सीवरेज बोर्ड व अन्य बनाम आर. राजप्पा व अन्य के मुकदमे में निर्णय पारित कर यह स्पष्ट कर दिया था कि किस तरह के संस्थानों को उद्योग कहा जाएगा। इस निर्णय से बहुत बड़ी संख्या में संस्थान उद्योग की श्रेणी में आ गए थे और उनके कर्मचारियों को औद्योगिक विवाद अधिनयिम के अंतर्गत अपने विवाद उठाने का अधिकार मिल गया था। इससे देश भर के पूंजीपतियों को बहुत परेशानी हो गयी। तब केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार थी जो अपने ही अन्तर्विरोधों के कारण अस्थिर थी। 1979 में संसद भंग हो गयी और मध्यावधि चुनाव हुए। जिनमें कांग्रेस फिर से शासन में आ गयी और श्रीमती इन्दिरा गांधी फिर से प्रधान मंत्री चुनी गयी।  पूंजीपति केन्द्र सरकार पर लगातार दबाव बनाने लगे कि ‘उद्योग’ शब्द की परिभाषा को बदला जाए तथा जो संस्थान बैंगलोर वाटर सप्लाई केस के निर्णय के बाद उद्योग की श्रेणी में आ गए थे उन्हें फिर से इस से बाहर किया जाए। उसी साल सितम्बर माह में सुप्रीम कोर्ट ने अन्य केस एक्सल वियर व अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया व अन्य के केस में यह निर्धारित कर दिया गया था पूंजीपतियों पर उद्योग बंद करने के के पूर्व सरकार से अनुमति प्राप्त करने की पाबंदी लगाने का 1976 में पारित किया गया संशोधन को असंवैधानिक घोषित कर दिया था और अब उन्हें उद्योगबंदी करने के लिए किसी तरह की पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता नहीं रही थी। इस निर्णय से मजदूर संगठनों में रोष था। उद्योगबंदी पर रोक के कानून को बनाए रखने के लिए कानून में संशोधन चाहते थे। इस तरह फिर से औद्योगिक विवाद अधिनियम में संशोधन किया जाना आवश्यक समझा जाने लगा था।

तब केंद्र सरकार ने औद्योगिक विवाद अधिनियम में संशोधन हेतु बिल प्रस्तुत किया जो 1982 में पारित हो गया। इस संशोधन द्वारा ‘उद्योग’ शब्द की परिभाषा को बदल दिया गया था। बड़े उद्योगों में विवादों को उद्योग में ही हल करने के लिए एक ग्रीवेंस कमेटी का प्रावधान किया था। सरकार जानती थी कि इस संशोधन कानून का विरोध होगा। उस विरोध को दबाने के लिए इस संशोधन में औद्योगिक विवादों के निपटारे के लिए समय सीमा निर्धारित कर दी थी। (जो कभी भी व्यवहारिक सिद्ध नहीं हुई) किसी भी मजदूर की मृत्यु के कारण न्यायालय में लम्बित कोई भी विवाद समाप्त नहीं होने की व्यवस्था की गयी थी। सेवा से हटाए गए मजदूर को पुनः सेवा में लिए जाने का निर्णय श्रम न्यायालय से होने तथा आगे ऊंची अदालत में उस निर्णय को चुनौती दिए जाने पर मजदूर को अन्तिम प्राप्त वेतन पाने का अधिकारी बना दिया गया। उद्योग बंदी और ले-ऑफ को कुछ हद तक रोके जाने की व्यवस्था की गयी। इसके साथ ही अनुचित श्रम आचरण को परिभाषित करने के लिए कुछ कृत्यों की एक सूची कानून में जोड़ी गयी और उसे दंडनीय अपराध बना दिया गया था। लेकिन मजदूरों के पक्ष में दिखाई देने वाले इन प्रावधानों में इतने छेद रखे गए थे कि वे व्यवहारिक सिद्ध नहीं हुए।

मजदूर यूनियनों ने इस संशोधन से ‘उद्योग’ की परिभाषा को बदल देने का जबरर्दस्त विरोध किया। जिसके कारण यह पूरा संशोधन अधिनियम 1984 तक लागू नहीं किया जा सका। 1984 में एक और बिल पारित हुआ जिसके द्वारा छंटनी की परिभाषा में परिवर्तन किया गया। 1982 और 1984 के संशोधन अगस्त 1984 में प्रभावी कर दिए गए। मजदूर यूनियनों के विरोध के कारण ‘उद्योग’ शब्द की परिभाषा बदलने के प्रावधान को कभी लागू नहीं किया जा सका। लेकिन उसे कभी निरस्त भी नहीं किया गया, वह आज भी अप्रभावी प्रावधान के रूप में कानून की किताब में मौजूद है।

इन दोनों संशोधनों के प्रभावी होने के बाद आज तक का अनुभव रहा है कि श्रमिक की मृत्यु हो जाने पर यदि उसका कोई विधिक प्रतिनिधि रेकार्ड पर नहीं लाया जाता है तो वह विवाद समाप्त तो नहीं होता, लेकिन उस विवाद में श्रमिक के विधिक प्रतिनिधियों को न्यायालय से कोई राहत नहीं मिलती जिससे वह लगभग निष्प्रभावी सिद्ध हुआ है।  औद्योगिक विवादों को तीन माह और एक वर्ष में निपटारा किए जाने का जो निर्देशक प्रावधान किया गया था वह पूरी तरह बेकार सिद्ध हुआ क्योंकि इसे प्रभावी बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा में श्रम अदालतें खोली जानी थीं। लेकिन सरकारों ने ऐसा नहीं किया। नतीजे में अभी भी 20 से 30 वर्ष से अधिक पुराने मुकदमे लंबित हैं। अनेक विवादों में मुकदमों के चलते श्रमिक की मृत्यु ही हो जाती है, या सेवा निवृत्ति की आयु ही व्यतीत हो जाती है। श्रमिक को सेवा में पुनर्स्थापित करने का निर्णय होने पर उसे नियोजक द्वारा चुनौती देने पर श्रमिक द्वारा जब तक उच्च न्यायालय को आवेदन नहीं दिया जाता तब तक उसे न तो सेवा में लिया जाता है और न ही उस का अंतिम वेतन आरंभ किया जाता है। उच्च न्यायालयों में चुनौती देने वाली अधिकांश याचिकाएँ दस वर्ष से भी अधिक समय से लंबित पड़ी हैं। अनुचित श्रम आचरण के लिए किसी  नियोजक को दंडित करने का समाचार कभी नहीं मिला। उसके अभियोजन की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि दंडित कराने के लिए आवेदन करने वाला  श्रमिक थक कर ही हार जाता है। इस तरह समय ने यह सिद्ध किया कि श्रमिकों के हक में दिखाई देने वाले कानून सिर्फ दिखावे के साबित हुए।

उद्योग को बंद करने के लिए सरकार की पूर्व अनुमति प्राप्त करने का प्रावधान भी बेकार सिद्ध हुआ। पूंजीपतियों ने नई तरकीब यह निकाली कि वे अपनी कंपनी की बैलेंस शीट को दो-चार साल तक घाटे में दिखा कर उसे बीमार घोषित कराने और उद्योग के पुनर्संचालन के लिए सहायता प्राप्त करने केन्द्र सरकार द्वारा अलग से स्थापित बोर्ड फॉर इंडस्ट्रियल एंड फाइनेंशियल रिकंस्ट्रक्शन  (बीआईएफआर) के पास आवेदन करने लगे। बोर्ड से कंपनी को बीमार घोषित करवा कर उद्योग का संचालन बिना किसी पूर्वानुमति के बन्द करने लगे। एक कंपनी के मामले में तो यह भी हुआ कि सरकार ने उद्योग बंदी की अनुमति प्राप्त करने के आवेदन को निर्धारित अवधि के अन्तिम दिन अनुमति देने से इन्कार करने का आदेश पारित किया। लेकिन आदेश की प्रति समय पर उद्योग के प्रबंधक को श्रम विभाग द्वारा नहीं पहुँचाए जाने के कारण प्रबंधक उद्योग बंद कर चलते बने। श्रमिकों को बकाया वेतन और मुआवजा प्राप्त करने के लिए भी मुकदमे लड़ने पड़े और अनेक तो कभी प्राप्त ही नहीं कर सके। 

छंटनी की परिभाषा में जो मामूली परिवर्तन 1984 के संशोधन से किए गए थे वे मजदूर वर्ग के लिए अत्यन्त घातक सिद्ध हुए। इस संशोधन ने बिना किसी कानूनी अधिकार वाले श्रमिक-कर्मचारियों की एक नई श्रेणी खड़ी कर दी।  जिसके सिर पर हमेशा नौकरी जाने की तलवार लटकती रहती है।                                        .... (क्रमशः)



अगली कड़ी में पढ़ें- 1984 के संशोधन से श्रमिक कर्मचारियों की कौन सी नई श्रेणी खड़ी हुई?

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

कोविद-19 महामारी और भारत-4


नए कानूनों ने मजदूर वर्ग को कमजोर और असहाय बनाया

केन्द्र और देश के अधिकांश राज्यों में श्रीमती इन्दिरागांधी की पार्टी कांग्रेस (इ) की सरकारें थी। तभी ठेकेदार मजदूर (विनियमन एवं उन्मूलन) अधिनियम-1970 संसद में पारित हुआ। इसका उद्देश्य बताया गया था कि ठेकेदार मजदूरों को कुछ सुविधाएँ प्रदान की जाएंगी और जिन उद्योगों को जिन ट्रेड्स में उचित समझा जाएगा ठेकेदार के माध्यम से काम कराया जाना विधि से वर्जित किया जाएगा। किस उद्योग के किस ट्रेड में ठेकेदारी प्रथा का उन्मूलन किया जाएगा यह पूरी तरह केन्द्र या राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में रखा गया। इस कानून के पारित होने से पहले अक्सर मजदूरों के संगठन न्यायालय में औद्योगक विवाद उठाते थे और ठेकेदारी प्रथा को हटाने का आदेश औद्योगिक न्यायाधिकरण या श्रम न्यायालय से प्राप्त कर सकते थे। इस से उद्योगपतियों को बहुत परेशानी थी। उन्हें अपने यहाँ नियमित होने वाले कामों के लिए नियमित मजदूर नियोजित करने पड़ते थे जिन्हें ठेकेदार मजदूरों से लगभग दुगना वेतन व लाभ देना पड़ता था और उन का मुनाफा कम होता था। इस कानून के अंतर्गत अब मजदूर अदालत नहीं जा सकते थे। अब ठेकेदारी प्रथा का उन्मूलन पूरी तरह सरकार की मर्जी पर निर्भर था। यह तो सब जानते हैं कि जो सरकारें उद्योगपतियों के धन-बल पर शासन में आयी हों वे उनके हितों की अनदेखी नहीं कर सकतीं थी।

इस कानून के प्रभावी होने के पहले तक उद्योगपतियों और पूंजीपतियों को यह भय रहता था कि नियमित कामों के लिए ठेकेदार मजदूरों से काम लिया गया तो अदालत उन मजदूरों को उद्योग का मजदूर घोषित कर के उन्हें उद्योग के मजदूरों के समान लाभ दिलाने का आदेश दे देगी। इस कानून के पारित होने का नतीजा यह हुआ कि पूंजीपति बेधड़क ठेकेदार मजदूरों से नियमित काम भी करवाने लगे। कारखानों और उद्योगों में नियमित मजदूरों की भर्ती कम होने लगी और वे काम ठेकेदारों के मजदूरों से कराए जाने लगे। धीरे-धीरे उद्योगों में नियमित मजदूरों की संख्या जो पहले 70-80 प्रतिशत होती थी अब 20-30 प्रतिशत तक रह गयी। ठेकेदार मजदूरों की संख्या बढ़ कर 70-80 प्रतिशत तक चली गयी।

इसके पूंजीपतियों को अनेक लाभ मिले। अब ठेकेदार मजदूरों पर नियमित मजदूरों की बनिस्पत आधा ही खर्च करना पड़ता था। ठेकेदार मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी देकर काम चलाया जाने लगा। इस से पूंजीपतियों का मुनाफा बढ़ गया। इस नए कानून ने जो सुविधाएँ देने का प्रावधान किया था वे सुविधाएँ भी उन्हें नहीं मिलीं। क्योंकि सुविधाएँ दी जा रही हैं या नहीं इस बात का निरीक्षण तो सरकारी निरीक्षकों को करना था।  इन निरीक्षकों को मैनेज करना तो पूंजीपतियों के बाएँ हाथ का खेल था। यदि मजदूर इन सुविधाओं को देने की मांग करते या ट्रेड यूनियन के सदस्य बनते या ट्रेड यूनियन के माध्यम से अपनी आवाज उठाते तो उन्हें नौकरी से हटाना बहुत आसान हो गया। पूंजीपति ठेकेदार का ठेका खत्म कर देते। जिससे सभी मजदूरों की नौकरियाँ चली जातीं। वे किसी दूसरे ठेकेदार के माध्यम से या उसी ठेकेदार के किसी रिश्तेदार के नाम से नया ठेका दे देते। नए मजदूरों को काम पर रख लिया जाता। यह देश में बेरोजगारों की संख्या बहुत अधिक होने के कारण आसान था। इससे ठेकेदार मजदूरों को यह समझ आ गया कि वे अपने हकों की मांग नहीं कर सकते।

इसका दूसरा असर यह हुआ कि जैसे-जैसे उद्योगों में नियमित मजदूर कम होते गए वैसे-वैसे उनकी संगठन बना कर अपने हकों के लिए लड़ने की क्षमता भी कम होती गयी। इस तरह देश के मजदूर आंदोलन को धीरे-धीरे कमजोर बनाया गया। अनेक उद्योगों में समय-समय पर ठेकेदार मजदूरों की लड़ाई नियमित मजदूरों की यूनियनों ने लड़ने का प्रयत्न किया। लेकिन ऐसे आंदोलन कुचल दिए गए। ठेकेदार मजदूर बेकार हो गए। यहाँ तक कि नियमित मजदूरों के नेताओं को भी अपनी नोकरियाँ खोनी पड़ीं। धीरे-धीरे नियमित मजदूरों की मजबूत यूनियने ठेकेदार मजदूरों की लड़ाई लड़ने से कतराने लगीं। पूंजीपतियों और उनके प्रचारक मध्यवर्ग और प्रेस ने ऐसी धारणाएँ पैदा की कि मजदूर नेता आंदोलन के माध्यम से अपने हित साधते हैं और ठेकेदार मजदूरों को उन की नौकरियाँ खोनी पड़ती हैं। इस तरह पूंजीपतियों ने मजदूर वर्ग के ईमानदार नेताओँ को बेईमान प्रचारित कर उन्हें मजदूर वर्ग से दूर करने में सफलता प्राप्त कर ली। दूसरी और पूंजीपति वर्ग ने अपने समर्थक नेताओं की यूनियनें खड़ी कीं। जिन का उद्देश्य मजदूरों को उनके हकों के लिए लड़ने से रोकना और मजदूरों के वोट पूंजीपति वर्ग के राजनैतिक दलों के पक्ष में मोड़ने का काम करना था। पूंजीपति वर्ग अपने इस उद्देश्य में एक हद तक सफल रहा।

लेकिन देश की राजनैतिक परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि कांग्रेस (इ) को 1977 में सत्ता से बाहर हौना पड़ा और जनता पार्टी सत्ता में आ गयी जिसमें दक्षिणपंथी हिन्दूवादी दल जनसंघ भी विलीन हो गया था। वामपंथी इसी कारण इस सरकार से बाहर रहे। लेकिन जब तक जनता पार्टी शासन में रही तब तक पूंजीपति अपना प्रभाव नहीं बना सके और मजदूर वर्ग के दमन का बड़ा अवसर प्राप्त नहीं हुआ। इस दौर में मजदूर वर्ग के आंदोलनों का एक बड़ा उभार देखा गया। लेकिन जल्दी ही जनता पार्टी अपने अंतर्विरोध से टूट गयी और पुनः इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में केन्द्र में सरकार बनी। कांग्रेस की इस नयी सरकार ने पुनः श्रम कानूनों में 1982 तथा 1984 में महीन परिवर्तन किए। कहा यह गया कि इस का लाभ मजदूर वर्ग को मिलेगा। लेकिन हुआ इस के उलट। मजदूर वर्ग की हालत श्रम कानूनों में इन परिवर्तनो से और बदतर हुई।                         ...  (क्रमशः)

अगली कड़ी में पढ़ें- 1984 में श्रम कानून में परिवर्तन से मजदूर वर्ग की स्थिति कैसे बदतर हुई?

बुधवार, 1 अप्रैल 2020

कोविद-19 महामारी और भारत-3

संगठित मजदूरों के क्षेत्र को न्यूनतम बनाए रखने की साजिश

इस विमर्श की कल की कड़ी में मैं ने कहा था कि कोविद-19 महामारी को फैलने से रोकने के उपायों की घोषणा मात्र से, लोगों को विशेष रूप से देश से औद्योगिक केन्द्रों से मजदूरों और उनके परिवारों द्वारा उनके गाँवों की ओर पलायन से, महामारी के तैजी से फैलने के जो अवसर पैदा हो गए, उसके पीछे को कारणों की पड़ताल करना और जानना अत्यन्त आवश्यक है। यदि इन तथ्यों को न जाना गया तो हमें समझ लेना चाहिए कि हम परमाणु बम से भी खतरनाक बम पर बैठे हैं जो कभी भी फट पड़ सकता है।  
मैंने अपने पैतृक नगर बाराँ में जो एक उपजिला मुख्यालय था 1978 में वकालत शुरू की थी। साल भर बाद 1979 के सितम्बर माह में ही मैं राजस्थान के औद्योगिक शहर कोटा में आ गया था। यह नगर जिला मुख्यालय के साथ-साथ संभाग मुख्यालय भी था। यहाँ श्रम न्यायालय एवं औद्योगिक न्यायाधिकरण स्थित था। जिस में संभाग के चारों जिलों के ओद्योगिक विवादो की सुनवाई की होती थी।  मैं ने वकालत के लिए श्रम-विवादों का क्षेत्र चुना जो मेरी रुचि के अनुरूप भी था। जल्दी ही मैं पहला श्रम विवाद मजदूर के पक्ष में जीतने में सफल रहा। मुझे लगा कि मेरा निर्णय सही था। तभी से मैं औद्योगिक क्षेत्र तथा मजदूरों से जुड़ा रहा हूँ। मैंने देखा कि 1980 तक आम तौर पर लगभग सभी उद्योगों में 75 प्रतिशत से 100 प्रतिशत मजदूर उद्योग के स्थायी मजदूर हैं। शेष 0 से 25 प्रतिशत मजदूर ठेकेदार के माध्यम से उद्योगों में काम करते हैं। कुछ काम तो ऐसे हैं जो ठेकेदारों को करने के लिए ठेके पर दे दिए जाते हैं। ये लोडिंग-अनलोडिंग, पेकिंग वगैरा के काम हैं जिनमें निरन्तर मजदूरों की जरूरत घटती बढ़ती रहती है। किसी भी कोयले से चलने वाले उद्योग में कोयले की रैक आने पर उस में से कोयला खाली कर गोदाम में रखने का काम तथा तैयार माल के बैगों या कंटेनरों को तैयार करने और उन्हें ट्रकों में लोड करने का काम ठेकेदारों को पीस-रेट पर दे दिया जाता हैं। ठेकेदार अपने मजदूरों से यह काम कराता हैं। इस तरह मूल उद्योगपतियों को यह सुविधा मिल जाती है कि उन्हें जो वेतन अपने स्थायी मजदूरों को देना होता है, उससे लगभग आधे मूल्य पर ठेकेदार मजदूरों के माध्यम से यह काम सम्पन्न हो जाते हैं, जिसमें मजदूरों की मजदूरी के साथ साथ पीएफ और ईएसआई वगैरा के खर्च तथा ठेकेदार का कमीशन भी निकल जाता है।
आंदोलनरत संगठित मजदूर 
हालाँकि ठेकेदार मजदूर (विनियमन एवं उन्मूलन) कानून वर्ष 1970 में पारित हो चुका था। इस कानून के नाम से ऐसा लगता है कि इसका उद्देश्य बड़े उद्योगों में से ठेकेदार मजूरी की शोषणकारी व्यवस्था का उन्मूलन करने के लिए बनाया गया है, लेकिन वस्तुस्थिति इसके विपरीत है। इस कानून के पहले यह स्थिति थी कि जब मजदूरों को ठेकेदारी में काम करते हुए कुछ वर्ष हो जाते थे तो वे ठेकेदार की जगह उद्योग का स्थायी कर्मचारी घोषित कर देने और उनके समान वेतन व लाभ देने की मांग करने लगते थे। इस कानून में यह व्यवस्था की गयी थी कि उचित सरकार (केन्द्र या राज्य की) किसी भी उद्योग में किसी खास ट्रेड में ठेकेदारी व्यवस्था को खत्म करने का नोटिफिकेशन जारी कर सकती थी। उस के बाद उस ट्रेड में ठेकेदार मजदूर नहीं रखे जा सकते थे। शुरू-शुरू में कुछ उद्योगों में ठेकेदारी उन्मूलन के लिए नोटिफिकेशन जारी भी किए गए। लेकिन जल्दी ही यह समझ में आ गया कि यह कानून वास्तव में मजदूरों को मूल उद्योग का स्थायी कामगार बनाने के औद्योगिक विवादों को श्रम न्यायालय या औद्योगिक न्यायाधिकरण में न्याय निर्णयन के लिए ले जाने के अधिकार को समाप्त कर दिया गया है। अब यह अधिकार सीधे-सीधे केन्द्र और राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आ गया था।
जैसा की सभी जानते हैं कि पूंजीवादी जनतंत्रों में सरकारों को चुने जाने में प्रचार और धन की बहुत बड़ी भूमिका होती है। बड़ी मात्रा में यह धन केवल पूंजीपति और बड़ी-बड़ी औद्योगिक कंपनियाँ ही राजनैतिक पार्टियों को उपलब्ध करवा सकती हैं। लेकिन पूंजीपति वर्ग राजनैतिक दलों को यह धन ऐसे ही उपलब्ध नहीं करा देता, बल्कि उसके पीछे उनकी शर्तें होती हैं। चुनाव लड़ने के लिए पूंजीपतियों द्वारा उपलब्ध कराए गए धन के कारण सत्ता में रहने वाली राजनैतिक पार्टियाँ मजबूर हो जाती हैं कि वे सभी कानूनों की अनुपालना उनके हितों में करें। ठेकेदार मजदूरी प्रथा सीधे-सीधे पूंजीपतियों के मुनाफों और उन की पूंजी को बढ़ाती है। यह सिद्ध तथ्य है कि मुनाफों और पूंजी का निर्माण केवल और केवल अतिरिक्त श्रम से अर्थात वस्तुओँ में मजदूरों द्वारा पैदा किए मूल्य से कम मुल्य चुका कर ही किया जा सकता है। यह सारा का सारा मुनाफा और पूंजी केवल और केवल अतिरिक्त-मूल्य की ही उपज होता है। मजूरों को उनके श्रम के वास्तविक मूल्य से जितना मूल्य कम चुकाया जाता है वही मुनाफों और पूंजी में परिवर्तित होता है।
जब मजदूर संगठित होने लगता है तो वह उचित मजदूरी की मांग करने लगता है। संगठित होने से बिखरे हुए और अशक्त मजदूरों का समूह बन जाता है और उसमें शक्ति का संचार हो जाता है। मजदूरों की इस संगठित शक्ति को राज्य की मशीनरी पुलिस, प्रशासन तथा गुंडों की मदद से दबाना कठिन हो जाता है और पूंजीपतियों और सरकारी-अर्धसरकारी उद्योगों द्वारा मजदूरों की मांगों को दबाना संभव नहीं रह जाता। ऐसे में उन की मजदूरी और सुविधाएँ बढ़ानी पड़ती हैं। इस सब से पूंजीपतियों का मुनाफा कम हो जाता है, पूंजी का बढ़ना भी उसी अनुपात में कम हो जाता है, पूंजी की वृद्धि की गति कम हो जाती है। इस गति को बनाए और बचाए रखने के लिए जो उपाय हो सकते थे उनमें सर्वोत्तम उपाय यही सकता है कि किसी भी प्रकार से संगठित मजदूरों की संख्या सीमित बनी रहे और अधिकांश श्रम-शक्ति को संगठित क्षेत्र से असंगठित क्षेत्र में विस्थापित कर दिया जाए। भारत में पूंजीपतियों के पक्ष में यह काम दो तरीको से हुआ और यह दोनों तरीके कानून बदलकर ईजाद किए गए।           ...  (क्रमशः)
अगली कड़ी में पढ़ें कानून को बदल कर  ईजाद किए गए तरीके क्या हैं?

शुक्रवार, 22 जून 2012

कचरा दरोगा सप्लाई ठेका

लोग कहते हैं। देश कचरे से परेशान है। जिधर जाओ कचरा दिखाई देता है। कोई स्थान इस से अछूता नहीं है। मियाँ जी बेड रूम में लेटे लेटे टीवी देख रहे हैं, अचानक जेब से पाउच निकाला, गुटखा खाया और पाउच वहीं फर्श पर सरका दिया। बीवी नाराज हो तो हो, उस से क्या फर्क पड़ता है? आखिर कचरा उठाना उस की ड्यूटी है। उधर बीवी कौन कम है? वह घर बुहारती है और कचरा सड़क पर। न डाले तो नगर निगम का सफाई वाला क्या करे? अक्सर नगर निगम के पास सफाई वाले कम पड़ते हैं। निगम नगर की बस्तियों के हिसाब से सफाई वाले रखने की योजना बनाता है। फिर भर्ती शुरू होती है, भर्ती पर मुकदमा होता है, स्टे आ जाता है। अब स्टे हटे तो भर्ती हो। स्टे हटता है, भर्ती होती है। जब तक नई भर्ती सफाई करने पहुँचती है, नगर में बस्तियाँ बढ़ जाती हैं। नगर निगम का क्या कसूर?

र्ती होने वालों में से अनेक निगम के अफसरों के घर काम पर हैं। वे वहाँ न हों तो काम अफसर जी करें या उन की बीवी जी, फिर अफसरी कौन करे। अफसरानी जी करें तो अफसरजी को अफसरजी कौन कहे। कुछ नेताओं के घरों पर काम पर हैं। अब नगर की सफाई हो तो कैसे? पर नगर निगम नागरिकों की चिन्ता करता है। ठेके पर कर्मचारी लगाता है। इस से ठेकेदार को रोजगार मिलता है और अफसरों को नजराना। आठ की जगह चार से कर्मचारी लगते हैं, चार से पार्षदों का खर्चा निकलता है। जो चार लगते हैं वे आधे दिन काम करते हैं और आधी तनखा पाते हैं। आधी तनखा से ठेकेदार का खर्च चलता है और सरकार को सेवाकर मिलता है। ठेका तो न्यूनतम वेतन की दर पर होता है। देखा¡ कचरा न हो तो इतने लोग क्या करें?  क्या कमाएँ और क्या खाएँ?

चरा न हो तो कचरे में काम की चीजें बीनने वाले क्या करें?  वे सुबह बोरे ले कर निकलते हैं, कचरे से काम की चीजें बीनते हैं। इस से चीजें बेकार नहीं जाती। देश की अर्थव्यवस्था को सहारा मिलता है, मजबूती बनी रहती है, वह ग्रीस की तरह नहीं होती। सरकार को इस तरफ ध्यान देना चाहिए। कचरा बीनने वालों को प्रोत्साहन देने के लिए कुछ करना चाहिए। पद्म विभूषण और पद्म श्री के  अवार्डों में एक कैटेगरी कचरा सैक्टर की भी होनी चाहिए। आखिर कचरा बीनना खेलों से कम महत्वपूर्ण तो नहीं? उस के लिए भारत रत्न भी  होना चाहिए।  उस में कुछ मुश्किल हो तो कम से कम राज्यसभा की सदस्यता तो अवश्य दी जा सकती है। आखिर वह खेलों की अपेक्षा कम सामाजिक नहीं।

धर राजनीति में कचरे के बिना काम नहीं चलता, वहाँ भी कचरा करने वाले कम नहीं। नए राष्ट्रपति के लिए मीडिया वालों ने बहुत नाम उछाले, इतने कि कचरा हो गया। यूपीए वाले कचरा साफ कर के एक नाम पर सहमति बनाने चले तो दीदी को पसंद नहीं आया। वे दिल्ली गईं और एयरपोर्ट से सीधे मुलायम के घर पहुँच कर बोली -आओ भाई कचरा करें। मुलायम को तजवीज पसंद आई।  दोनों ज्वाइंट प्रेस कान्फ्रेंस कर के बोले -हम मिल कर कचरा करेंगे। यूपीए में खलबली मच गई। मुलायम को संदेश गया -हम को जीतना नहीं आता तो क्या, कचरा करना तो आता है, यूपी में कर देंगे।  मुलायम क्या करते? उन्हों ने दीदी के प्लान का कचरा कर दिया।  

धर मुम्बई नगर निगम ने वर्ली सी-फेस को खूबसूरत बनाया। लोग टहलने जाने लगे। सीनियर हिन्दी ब्लागर घुघूती जी भी जाने लगीं। वे खुश थीं, वहाँ कचरा नहीं।  दूसरे लोगों को पता लगा तो भीड़ होने लगी।  फेरी वाले आ गए, उन के साथ कागज, पॉलीथीन, प्लास्टिक/पेपर कप, गिलास, चम्मचें व भु्ट्टे भी आए। वर्ली सी फेस की सड़क विशुद्ध भारतीय सड़क हो गई।   वे फिजूल दुखी हैं। भारतीय सड़क के भारतीय होने पर कैसा दुःख?  वे बता रही हैं कि अमरीका में नोट हाथ से छिटक कर सड़क पर गिर जाए तो जुर्माना होता है। यहाँ भी कचरा करने पर जुर्माना होना चाहिए। वे भूल गईं, भारत में जुर्माने को जुर्माना करने वाला तक नहीं गाँठता, कचरा करने वाला क्या गाँठेगा? पुलिस में दरोगा वैसे ही कम हैं। अब कचरा दरोगा कहाँ से लाए जाएँ? मैं ने सुझाव दिया है कि चीन के बेयरफुट डाक्टर की तरह यहाँ बेयरवेतन कचरा दरोगा भर्ती करने चाहिए जिन्हें वेतन की जगह जुर्माने का परसेन्टेज मिले। सौदा कतई घाटे का नहीं रहेगा। सरकार चाहे तो टोल-टेक्स के ठेके की तरह वेस्ट-फाइन ठेका भी कर सकती है। उस में एक और फायदा है। अफसर-नेताओं की पूर्ति भी  होती रहेगी और पार्टी को चुनाव के लिए चंदा भी कम न पड़ेगा। नेताजी फख़्र से कह सकेंगे कि वर्ली सी फेस हांगकांग से कम नहीं। 

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

मौजूदा जमाने के उसूल

ज के स्थानीय दैनिकों में समाचार है कि राज्य सरकार ने सफाई ठेकों पर महापौर की आपत्ति खारिज कर दी है और मुख्य नगरपालिक अधिकारी को  राजस्थान नगर पालिका अधिनियम की धारा 49 (2) पढ़ा कर निर्देश दिया है कि 75 लाख रुपए तक के ठेके देने पर वे स्वयं निर्णय कर सकते हैं। इस तरह इस समाचार ने जहाँ महौपौर के रुतबे को कम करने का काम किया है वहीं राज्य सरकार और महापौर के बीच एक अन्तर्विरोध उत्पन्न करने का काम भी किया है। यह दीगर बात है कि कानून जो कुछ कहता है, उसे इन समाचार पत्रों में समाचार लिखने वालों ने समझने का प्रयत्न ही नहीं किया। ऐसा लगा जैसे किसी ने एक प्रेस विज्ञप्ति बनाई और समाचार पत्रों ने उसे जैसे का तैसा प्रकाशित कर दिया। ऐसा अक्सर होता है, अक्सर नहीं हमेशा होता है। आखिर मुख्य नगरपालिक अधिकारी कम शक्तिशाली पदाधिकारी नहीं होता। नगर निगम की ओर से सब अखबारों को वही तो विज्ञापन प्रेषित करता है। इस से यह स्पष्ट है कि समाचार पत्र जनता के प्रति दायित्वपूर्ण होने का ढिंढोरा तो खूब पीटते हैं लेकिन वास्तव में वे भी अपने मालिकों का ही हित साधते हैं, वही उन की प्रमुख चिंता है। जो भी मालिकों के हित की अनदेखी कर पत्रकार होने का दायित्व निभाने की हिमाकत करता है वह जल्दी ही उस अखबार के दफ्तर के बाहर दिखाई देता है। 

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सला ये था कि वर्ष भर के लिए सफाई कर्मचारी उपलब्ध कराने के लिए ठेके होने थे। 121 ठेकेदार फर्मों ने निविदाएँ प्रस्तुत कीं, सभी की दर 135 रुपया प्रतिदिन प्रति श्रमिक है। समस्या यह खड़ी हुई कि जब सब निविदाओं की दरें एक जैसी हों तो ठेकेदारों का चुनाव कैसे किया जाए। तब नगर निगम की अफसरशाही ने तय हुआ कि लाटरी निकाल ली जाए। जिस की लाटरी निकल जाए उसे ही ठेका दे दिया जाए। लेकिन महापौर ने उस में आपत्ति यह दर्ज कर लाटरी निकालने को रोक दिया गया कि पहले सब निविदादाताओं द्वारा उन की निविदाओं में प्रदर्शित संसाधनों का भौतिक सत्यापन किया जाए। लेकिन भौतिक सत्यापन कराने को कोई ठेकेदार तैयार नहीं हुआ। शायद सभी ठेकेदारों ने संसाधन न होने पर भी दर्ज कर दिए थे। अब कहा जा रहा है कि शायद शनिवार को लाटरी निकाल कर ठेकेदारों को कृतार्थ कर दिया जाएगा। 
ब हम इस कृतार्थता पर  कुछ विचार करें उस से पहले  यह देखें कि आखिर 135 रुपए के आँकड़े में क्या है कि सभी ठेकेदारों ने इस से कम या अधिक राशि की निविदा प्रस्तुत नहीं की। राजस्थान राज्य सरकार ने अकुशल दैनिक मजदूर के लिए न्यूनतम वेतन 135 रुपए प्रतिदिन निर्धारित कर रखा है, इस से कम वेतन मजदूर को नहीं दिया जा सकता। इस तरह रुपए 135 से कम की निविदा प्रस्तुत ही नहीं की जा सकती थी। इस से अधिक की निविदा प्रस्तुत करने में निविदा के अमान्य होने का खतरा मौजूद था। अब आप समझ सकते हैं कि नगर निगम से प्रति श्रमिक प्रतिदिन जो 135 रुपया ठेकेदार को मिलेगा वह पूरा का पूरा श्रमिक को भुगतान कर दिया जाएगा। इस के बाद जो सेवा कर ठेकेदार को देना पड़ेगा, इन मजदूरों को लगाने पर होने वाला प्रशासनिक व्यय और अन्य खर्चे जो कि लगभग 40 रुपए प्रति श्रमिक और होंगे उन्हें ठेकेदार स्वयं भुगतेगा। इस के बाद नगर निगम के अफसरों और राजनेताओं को प्रसन्न रखने के खर्चे अलग हैं। सच में कोटा नगर में ऐसे ठेकेदार मौजूद हैं जो लगभग 50-60 रुपया प्रति श्रमिक अपनी जेब से खर्च कर के नगर की सफाई के लिए बलिदान देने को तैयार हैं। 


र सच इस के विपरीत है। होगा यह कि जितने श्रमिक कागज पर उपलब्ध कराए जाएंगे उन से 50-60 प्रतिशत ही वास्तव में उपलब्ध कराए जाएंगे। जो श्रमिक उपलब्ध कराए जाएंगे उन्हें मात्र 65-70 रुपए प्रतिदिन मजदूरी भुगतान की जाएगी। इस तरह जो राशि बचेगी वह सेवा कर से ले कर अन्य सभी प्रसन्नता करों में लगाई जाएगी। उसी में से ठेकेदार अपना मुनाफा निकालेगा। उपलब्ध कराए गए श्रमिकों को आधी मजदूरी मिलेगी तो वे भी केवल आधे समय, अर्थात केवल चार घंटे प्रतिदिन काम करेंगे। कागजों में नगर साफ होता रहेगा। एक दम चमचमाएगा। लेकिन यदि आप नगर में निकलेंगे तो स्थान स्थान पर गंदगी के ढेर दिखाई देंगे। जिस में गाएँ, कुत्ते और सुअर मुहँ मारते मिलेंगे। नगर बीमारियों के लिए पर्यटन स्थल बना रहेगा। इस से डाक्टरों और अस्पतालों की चाँदी होती रहेगी। जनता पहले की तरह इन सब को भुगतती रहेगी। विपक्षी सरकारी दल को कोसने का मौका पाएंगे। सरकारी दल कहेगा उन की सफाई व्यवस्था विपक्षी दल के जमाने से अच्छी थी। जनता दोनों को सुनेगी। पाँच बरस तक सुनती रहेगी। फिर चुनाव आएँगे तब वह यह सब भूल जाएगी और ये देखेगी कि नगर निगम के पार्षद के लिए कौन सा उम्मीदवार उन की जात का है, कौन उन का नजदीकी है। देखे भी क्यों न यदि चोरों में से एक को ही चुनना हो तो हर कोई अपना नजदीकी ही चुनेगा। कानून की चिंदियाँ उड़ती रहेंगी। पर क्या यह हमेशा चलता रह सकेगा? कभी जनता चोरों को पकड़ कर सजा नहीं देगी? एक पार्षद ने इन सवालों के जवाब में कहा -जब देगी तब देखेंगे, तब तक तो मौजूदा जमाने के उसूल पर ही चलना होगा।

बुधवार, 21 जुलाई 2010

बहुत हो लिया पूर्व सैनिकों का कल्याण , अब ठेकेदारों के कल्याण का युग है

जरा नवभारत टाइम्स की ये खबर देखें....
स खबर में कहा गया है कि, "वर्तमान भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएएआई) द्वारा अधिकृत टोल प्लाजा पर काम कर रहे 25,000 पूर्व सैनिक  हैं, टोल प्लाजा पर साजो-सामान के साथ ही रणनीतिक सहयोग देने वाले ऐसे ही 10,000 पूर्व सैनिकों को अब इस काम पर से हटा कर बेरोजगार कर दिया जाएगा। अब इस काम को ठेके पर दे दिया जाएगा। एनएचएआई ने बीते 22 जून को इस फैसले के संबंध में एक आदेश पारित किया था। इस आदेश को लागू किए जाने के पहले चरण में देश भर के 50 टोल प्लाजा के लिए सरकारी टेंडर भी जारी कर दिए गए हैं। वर्ष 2004 से इन टोल प्लाजा पर पूर्व सैनिक काम कर रहे हैं। इन्हें नियोजित करने के बाद से टोल संग्रह की दर 15 फीसदी से बढ़कर 80 फीसदी तक हो गई है। देशभर की विभिन्न टोल प्लाजा से सरकार को 1700 करोड़ रुपये का रेवेन्यू मिलता है। इसके चलते पूर्व सैनिकों को एक सम्मानजनक रोजगार मिल रहा है। उन्हें वेतन के अतिरिक्त राजस्व का 10 फीसदी कमिशन भी मिलता है।
ब इस काम को ठेके पर दिया जाएगा।बहुराष्ट्रीय या उसी स्तर की कोई कंपनी यह काम करेगी। तब टोल टैक्स के काम को करने के लिए तमाम  असामाजिक तत्व भरती किए जाएँगे जिन्हें न्यूनतम वेतन भी दिया जाएगा या नहीं इस की कोई गारंटी नहीं है। लेकिन उन्हें पूरी छूट होगी कि वे निर्धारित लक्ष्य को पूरा करने के लिए उन लोगों से भी टोल लें जिन पर यह नहीं लगता है। जनता को परेशान करें। उन्हें अपनी आय बढ़ाने के भी अवसर होंगे। फिर जो लाभ आज पूर्व सैनिकों को मिल रहा है वह मुनाफे के रूप में कंपनी के पास जाए या फिर कमीशन के माध्यम से नेताओं, अफसरों की जेब में जाए। हो सकता है राजनैतिक पार्टियों को चुनाव लड़ने का चंदा भी इसी मुनाफे से मिले वर्तमान शासक दल को इस लिए कि उन्होंने ठेके की यह व्यवस्था लागू की और दूसरों को इस लिए कि वे सत्ता में आ जाएँ तो इस व्यवस्था को चालू रखें। बेरोजगार पूर्व सैनिकों के परिवार भूखे मरें तो मरें, उस से क्या? आखिर हमारा भारतीय राज्य एक कल्याणकारी है, बहुत हो लिया पूर्व सैनिकों का कल्याण, अब ठेकेदारों के कल्याण का युग है।

हालाँकि एनएचएआई के इस फैसले का पूर्व सैनिक विरोध कर रहे हैं। पिछले दिनों रिटायर्ड कर्नल एच. एस. चौधरी के नेतृत्व में पूर्व सैनिकों के एक प्रतिनिधिमंडल ने रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी से मुलाकात की थी और इस पर रोक लगाने की मांग की थी। एंटनी ने उन्हें आश्वासन दिया था कि वह सड़क व परिवहन मंत्री कमलनाथ से इस संबंध में चर्चा करेंगे। इन सैनिकों ने कमलनाथ से भी भेंट की और उनसे आग्रह किया कि पूर्व सैनिकों के परिवार के दो लाख सदस्यों को मुसीबत में डालने वाले अपने फैसले की वह फिर से समीक्षा करें।  पर ए.के. एंटनी और कमलनाथ क्या कर पाएंगे? यदि कुछ कर सके तो फिर नेताओँ अफसरों की जेबें कैसे भरेंगी?  अगला चुनाव लड़ने के लिए पार्टियों को चंदा कहाँ से मिलेगा? विपक्ष भी इस मामले में चुप है। आखिर उसे भी तो अगला चुनाव लड़ने के लिए चंदा चाहिए।