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शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

मौजूदा जमाने के उसूल

ज के स्थानीय दैनिकों में समाचार है कि राज्य सरकार ने सफाई ठेकों पर महापौर की आपत्ति खारिज कर दी है और मुख्य नगरपालिक अधिकारी को  राजस्थान नगर पालिका अधिनियम की धारा 49 (2) पढ़ा कर निर्देश दिया है कि 75 लाख रुपए तक के ठेके देने पर वे स्वयं निर्णय कर सकते हैं। इस तरह इस समाचार ने जहाँ महौपौर के रुतबे को कम करने का काम किया है वहीं राज्य सरकार और महापौर के बीच एक अन्तर्विरोध उत्पन्न करने का काम भी किया है। यह दीगर बात है कि कानून जो कुछ कहता है, उसे इन समाचार पत्रों में समाचार लिखने वालों ने समझने का प्रयत्न ही नहीं किया। ऐसा लगा जैसे किसी ने एक प्रेस विज्ञप्ति बनाई और समाचार पत्रों ने उसे जैसे का तैसा प्रकाशित कर दिया। ऐसा अक्सर होता है, अक्सर नहीं हमेशा होता है। आखिर मुख्य नगरपालिक अधिकारी कम शक्तिशाली पदाधिकारी नहीं होता। नगर निगम की ओर से सब अखबारों को वही तो विज्ञापन प्रेषित करता है। इस से यह स्पष्ट है कि समाचार पत्र जनता के प्रति दायित्वपूर्ण होने का ढिंढोरा तो खूब पीटते हैं लेकिन वास्तव में वे भी अपने मालिकों का ही हित साधते हैं, वही उन की प्रमुख चिंता है। जो भी मालिकों के हित की अनदेखी कर पत्रकार होने का दायित्व निभाने की हिमाकत करता है वह जल्दी ही उस अखबार के दफ्तर के बाहर दिखाई देता है। 

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सला ये था कि वर्ष भर के लिए सफाई कर्मचारी उपलब्ध कराने के लिए ठेके होने थे। 121 ठेकेदार फर्मों ने निविदाएँ प्रस्तुत कीं, सभी की दर 135 रुपया प्रतिदिन प्रति श्रमिक है। समस्या यह खड़ी हुई कि जब सब निविदाओं की दरें एक जैसी हों तो ठेकेदारों का चुनाव कैसे किया जाए। तब नगर निगम की अफसरशाही ने तय हुआ कि लाटरी निकाल ली जाए। जिस की लाटरी निकल जाए उसे ही ठेका दे दिया जाए। लेकिन महापौर ने उस में आपत्ति यह दर्ज कर लाटरी निकालने को रोक दिया गया कि पहले सब निविदादाताओं द्वारा उन की निविदाओं में प्रदर्शित संसाधनों का भौतिक सत्यापन किया जाए। लेकिन भौतिक सत्यापन कराने को कोई ठेकेदार तैयार नहीं हुआ। शायद सभी ठेकेदारों ने संसाधन न होने पर भी दर्ज कर दिए थे। अब कहा जा रहा है कि शायद शनिवार को लाटरी निकाल कर ठेकेदारों को कृतार्थ कर दिया जाएगा। 
ब हम इस कृतार्थता पर  कुछ विचार करें उस से पहले  यह देखें कि आखिर 135 रुपए के आँकड़े में क्या है कि सभी ठेकेदारों ने इस से कम या अधिक राशि की निविदा प्रस्तुत नहीं की। राजस्थान राज्य सरकार ने अकुशल दैनिक मजदूर के लिए न्यूनतम वेतन 135 रुपए प्रतिदिन निर्धारित कर रखा है, इस से कम वेतन मजदूर को नहीं दिया जा सकता। इस तरह रुपए 135 से कम की निविदा प्रस्तुत ही नहीं की जा सकती थी। इस से अधिक की निविदा प्रस्तुत करने में निविदा के अमान्य होने का खतरा मौजूद था। अब आप समझ सकते हैं कि नगर निगम से प्रति श्रमिक प्रतिदिन जो 135 रुपया ठेकेदार को मिलेगा वह पूरा का पूरा श्रमिक को भुगतान कर दिया जाएगा। इस के बाद जो सेवा कर ठेकेदार को देना पड़ेगा, इन मजदूरों को लगाने पर होने वाला प्रशासनिक व्यय और अन्य खर्चे जो कि लगभग 40 रुपए प्रति श्रमिक और होंगे उन्हें ठेकेदार स्वयं भुगतेगा। इस के बाद नगर निगम के अफसरों और राजनेताओं को प्रसन्न रखने के खर्चे अलग हैं। सच में कोटा नगर में ऐसे ठेकेदार मौजूद हैं जो लगभग 50-60 रुपया प्रति श्रमिक अपनी जेब से खर्च कर के नगर की सफाई के लिए बलिदान देने को तैयार हैं। 


र सच इस के विपरीत है। होगा यह कि जितने श्रमिक कागज पर उपलब्ध कराए जाएंगे उन से 50-60 प्रतिशत ही वास्तव में उपलब्ध कराए जाएंगे। जो श्रमिक उपलब्ध कराए जाएंगे उन्हें मात्र 65-70 रुपए प्रतिदिन मजदूरी भुगतान की जाएगी। इस तरह जो राशि बचेगी वह सेवा कर से ले कर अन्य सभी प्रसन्नता करों में लगाई जाएगी। उसी में से ठेकेदार अपना मुनाफा निकालेगा। उपलब्ध कराए गए श्रमिकों को आधी मजदूरी मिलेगी तो वे भी केवल आधे समय, अर्थात केवल चार घंटे प्रतिदिन काम करेंगे। कागजों में नगर साफ होता रहेगा। एक दम चमचमाएगा। लेकिन यदि आप नगर में निकलेंगे तो स्थान स्थान पर गंदगी के ढेर दिखाई देंगे। जिस में गाएँ, कुत्ते और सुअर मुहँ मारते मिलेंगे। नगर बीमारियों के लिए पर्यटन स्थल बना रहेगा। इस से डाक्टरों और अस्पतालों की चाँदी होती रहेगी। जनता पहले की तरह इन सब को भुगतती रहेगी। विपक्षी सरकारी दल को कोसने का मौका पाएंगे। सरकारी दल कहेगा उन की सफाई व्यवस्था विपक्षी दल के जमाने से अच्छी थी। जनता दोनों को सुनेगी। पाँच बरस तक सुनती रहेगी। फिर चुनाव आएँगे तब वह यह सब भूल जाएगी और ये देखेगी कि नगर निगम के पार्षद के लिए कौन सा उम्मीदवार उन की जात का है, कौन उन का नजदीकी है। देखे भी क्यों न यदि चोरों में से एक को ही चुनना हो तो हर कोई अपना नजदीकी ही चुनेगा। कानून की चिंदियाँ उड़ती रहेंगी। पर क्या यह हमेशा चलता रह सकेगा? कभी जनता चोरों को पकड़ कर सजा नहीं देगी? एक पार्षद ने इन सवालों के जवाब में कहा -जब देगी तब देखेंगे, तब तक तो मौजूदा जमाने के उसूल पर ही चलना होगा।

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

अब तुम्हीं बताओ, जनता! इस में मेरा क्या दोष है?

अब तुम्हीं बताओ, जनता! 
स में मेरा क्या दोष है? पार्टी ने चुनाव लड़ा, चुनाव में कहा "वे मुझे प्रधानमंत्री बनाएंगे"। तुमने इतना वोट नहीं दिया कि अकेले मेरी पार्टी मुझे प्रधानमंत्री बना सके। पर, तुम से किया वायदा तो पूरा करना था ना? तो उस के लिए पार्टी ने जुगाड़ किया, मुझे प्रधानमंत्री बनाया। अब जुगाड़ यूँ ही तो नहीं हो जाता, उस के लिए न जाने क्या-क्या करना पड़ता है? तुम तो सब जानती हो। नहीं भी जानो तो खुद को लोकतंत्र का स्वयंभू चौथा खंबा मानने वाले लोग तुम्हें जना देते हैं। वे यही नहीं जनाते कि क्या-क्या किया गया? वे तो, जो नहीं किया गया, लेकिन जो किया जा सकता था, उसे भी बता देते हैं। (बड़ा बेपर्दगी का जमाना आ गया है।) अब जुगाड़ तो जुगाड़ है, वह खालिस तो है नहीं कि उस की कोई गारंटी हो। उधर कई जुगाड़ सड़कों पर चल रहे हैं, बिना नंबर के, बिना बीमा के, बिना लायसेंस के ड्राइवर उन को चला रहे हैं। कोई उन से टकराकर मर जाए, तो कोई क्या कर ले? जैसे-तैसे पुलिस मुकदमा दर्ज भी कर ले तो क्या? सबूत तो कुछ होता नहीं। किसी को सजा नहीं होती। मुआवजे का मुकदमा कर दो तो ये साबित करना मुश्किल हो जाता है कि जुगाड़ का मालिक कौन था। वैसे जुगाड़ तो जुगाड़ होता है, उस का क्या मालिक, और क्या नहीं मालिक। 

प्यारी जनता!
तुम तो सब जानती हो, तुम से क्या छुपा है? बड़े बड़े लोगों को भले ही न पता हो, पर गरीब जनता को सब पता होता है। बड़े लोग सब लोग जुटा लेते हैं, जुगाड़ में तो तुम्हें ही चलना पड़ता है। वैसे ऐसा भी नहीं कि बड़े लोगों का जुगाड़ से कोई नाता ही नहीं हो। वे भी जुगाड़ करते हैं। पर वे ये सब कुछ इस तरह करते हैं कि पता तक नहीं चलता। वे चाहते हैं जैसा कानून बनवा लेते हैं, कोई कानून आड़े आ रहा हो तो उसे खत्म करवा देते हैं। फिर बड़े लोगों को कानून की परवाह क्यों हो। उन के पास बड़े वकील हैं, सर्वोच्च अदालत में जाने का माद्दा है। वैसे ही देश में अदालतें बहुत कम हैं। क्या करें? मैं तो चाहता हूँ  कि और अदालतें खुलें, लेकिन उन के लिए धन कहाँ से लाएँ? जब भी कानून मंत्री जी नई अदालतें खोलने की बात करते हैं तभी वित्तमंत्री जी कह देते हैं -जुगाड़ में तेल कम है। जब भी अदालत का नाम सामने आता है तो सर में दर्द होने लगता है और सारे दर्द-निवारक काम में लेने के बावजूद नहीं मिटता। लगता है उन का काम जनता के मुकदमों का फैसला करना नहीं, सिर्फ सरकारों को परेशान करना है। आखिर मुझे कहना पड़ा कि अदालत को जुगाड़ के कामों में दखल नहीं करना चाहिए। लेकिन फिर एक जज कह गया कि कोई जुगाड़ी नहीं चाहता कि अदालत मजबूत हो। वह मजबूत होगी तो जुगाड़ बिना एक्सीडेंट के भी धर लिया जाएगा। कानून तोड़ने का चालान किया जाएगा। वैसे जुगाड़ी इन चालानों से नहीं घबराते। उन का इलाज करना तो आता है। पर शिकायत करने वाले भी आज कल जुगाड़ी हो चले हैं, थानों में रपट कराने के बजाए सीधे अदालत के पास जा कर इस्तगासा ठोंक देते हैं। 

हे न्यारी जनता! 
ब ये विरोधी पार्टी वाले नहीं समझें, तो न समझें। तू तो सब कुछ समझती है। तू खुद जुगाड़ में लगी रहती है। जो जुगाड़ चलाता है, जो उस का इस्तेमाल करता है, उसे तो मेरी मजबूरी समझना चाहिए ना। अब तू ही बता जुगाड़ के सामने कोई भाई आ जाए तो उसे चंदा देना पड़ता है और कोई खाकी आ जाए तो उसे भी मनाना पड़ता है। अब तो समझ में आई मेरी मजबूरी। विरोधियों को तो समझ नहीं आएगी, उन्हों ने नहीं समझने की कसम खा रखी है। पर ये समझ नहीं आता है कि इस चौथे खंबे को क्या हो गया है। आज कल बुरी तरह पीछे पड़ा है। वह तो भला हो इस जुगाड़ के पुर्जों का जो कोई बिगड़ा नहीं। एक दो बोल जाते तो जुगाड़ को यहीं खड़ा कर के तेरे पास आना पड़ता। अब ये थोड़े ही हो सकता है कि मेरी पार्टी पाँच  साल पूरे होने के पहले ही तुम्हारे पास आ जाऊँ। आखिर मैं ने पूरे पाँच साल का कान्ट्रेक्ट किया था। उसे पूरा निभाऊंगा। अब तुम्हीं बताओ कोई  जुगाड़ वाला तुम्हारी बेटी की शादी में टेंट हाउस का माल ढोने का कांट्रेक्ट करे और बीच में ही जुगाड़ छोड़ भागे तो तुम पर क्या बीतेगी? मैं कम से कम ऐसा तो नहीं कर रहा हूँ, कांट्रेक्ट पूरा कर के ही हटूंगा। दो बार दिल का आपरेशन करवा चुका हूँ, जरूरत पड़ी तो तीसरी बार भी करवा लूंगा, पर पीछे नहीं हटूंगा। 

हे जनता!
ब ये बात भी कोई पूछने की है, कि कहीं ऐसा न हो कि तुम भी अफ्रीकियों के रास्ते पर चल पड़ो। मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ। तुम उस रास्ते पर नहीं चलोगी। आखिर अफ्रीका के में लोगों को बोलने की ऐसी आजादी थोड़े ही थी जैसी यहाँ है। अब बोलने भी न दोगे तो पेट तो फूलेगा ही। अब यहाँ अपने देश में इत्ती बड़ी आजादी दे रखी है वह काफी नहीं है क्या? तुम कहीं भी कुछ भी बोल सकती हो और खुश हो सकती हो। वहाँ बीस-बीस साल तक राष्ट्रपति नहीं बदलता, हमें देखो, हम पाँच साल में बदल देते हैं। यूँ चाहो तो तुम सरकार भी बदल सकती हो। पर विपक्ष में कोई ऐसा है भी तो नहीं जो सरकार बना सके, और बना ले तो चला सके। एक हम ही हैं जो जुगाड़ कर के भी सरकार चला सकते हैं। एक बार नहीं दो-दो बार चला सकते हैं। चला कर बताएंगे कि हम पूरे पाँच साल एक जुगाड़ चला सकते हैं। पर आखिर जुगाड़ है तो जुगाड़ का धर्म निभाना पड़ता है। इसीलिए तुम्हें तकलीफ झेलनी पड़ रही है। इस बार जो गाड़ी चलाना ही पड़े तो कम से कम चलाने के लिए जुगाड़ का मौका मत देना। जुगाड़ में कई झंझट हैं। कई देवता ढोकने पड़ते हैं। जुगाड़ न होता तो एक कुल देवी से ही काम चलाया जा सकता था। 

ओ...मेरी सुहानी जनता! 
ब तू ही बता इस में मेरा क्या दोष है? मैं बिलकुल निर्दोष हूँ, बस जुगाड़-धर्म निभा रहा हूँ। फिर भी तू मुझे दोषी मानती है तो, इस बार का पाँच-साला कांट्रेक्ट निभा लेने दे। सजा ही देनी हो तो पाँच साल पूरे होने का इंतजार कर। मैं जानता हूँ तुम सब कुछ सहन कर सकती हो। प्याज का भाव सहन कर लेती हो, शक्कर की तेजी सहन कर लेती हो, तेल का उबाल सहन कर लेती हो फिर मुझ जैसे ईमानदार कमजोर आदमी को कुछ बरस और सहन नहीं कर सकती?