संगठित मजदूरों के क्षेत्र को न्यूनतम
बनाए रखने की साजिश
मैंने अपने पैतृक नगर बाराँ में जो एक उपजिला
मुख्यालय था 1978 में वकालत शुरू की थी। साल भर बाद 1979 के सितम्बर माह में ही
मैं राजस्थान के औद्योगिक शहर कोटा में आ गया था। यह नगर जिला मुख्यालय के साथ-साथ
संभाग मुख्यालय भी था। यहाँ श्रम न्यायालय एवं औद्योगिक न्यायाधिकरण स्थित था। जिस
में संभाग के चारों जिलों के ओद्योगिक विवादो की सुनवाई की होती थी। मैं ने वकालत के लिए श्रम-विवादों का क्षेत्र
चुना जो मेरी रुचि के अनुरूप भी था। जल्दी ही मैं पहला श्रम विवाद मजदूर के पक्ष
में जीतने में सफल रहा। मुझे लगा कि मेरा निर्णय सही था। तभी से मैं औद्योगिक
क्षेत्र तथा मजदूरों से जुड़ा रहा हूँ। मैंने देखा कि 1980 तक आम तौर पर लगभग सभी
उद्योगों में 75 प्रतिशत से 100 प्रतिशत मजदूर उद्योग के स्थायी मजदूर हैं। शेष 0
से 25 प्रतिशत मजदूर ठेकेदार के माध्यम से उद्योगों में काम करते हैं। कुछ काम तो
ऐसे हैं जो ठेकेदारों को करने के लिए ठेके पर दे दिए जाते हैं। ये लोडिंग-अनलोडिंग,
पेकिंग वगैरा के काम हैं जिनमें निरन्तर मजदूरों की जरूरत घटती बढ़ती रहती है। किसी
भी कोयले से चलने वाले उद्योग में कोयले की रैक आने पर उस में से कोयला खाली कर
गोदाम में रखने का काम तथा तैयार माल के बैगों या कंटेनरों को तैयार करने और
उन्हें ट्रकों में लोड करने का काम ठेकेदारों को पीस-रेट पर दे दिया जाता हैं।
ठेकेदार अपने मजदूरों से यह काम कराता हैं। इस तरह मूल उद्योगपतियों को यह सुविधा
मिल जाती है कि उन्हें जो वेतन अपने स्थायी मजदूरों को देना होता है, उससे लगभग आधे
मूल्य पर ठेकेदार मजदूरों के माध्यम से यह काम सम्पन्न हो जाते हैं, जिसमें
मजदूरों की मजदूरी के साथ साथ पीएफ और ईएसआई वगैरा के खर्च तथा ठेकेदार का कमीशन भी
निकल जाता है।
हालाँकि ठेकेदार मजदूर (विनियमन एवं उन्मूलन) कानून
वर्ष 1970 में पारित हो चुका था। इस कानून के नाम से ऐसा लगता है कि इसका उद्देश्य
बड़े उद्योगों में से ठेकेदार मजूरी की शोषणकारी व्यवस्था का उन्मूलन करने के लिए
बनाया गया है, लेकिन वस्तुस्थिति इसके विपरीत है। इस कानून के पहले यह स्थिति थी
कि जब मजदूरों को ठेकेदारी में काम करते हुए कुछ वर्ष हो जाते थे तो वे ठेकेदार की
जगह उद्योग का स्थायी कर्मचारी घोषित कर देने और उनके समान वेतन व लाभ देने की
मांग करने लगते थे। इस कानून में यह व्यवस्था की गयी थी कि उचित सरकार (केन्द्र या
राज्य की) किसी भी उद्योग में किसी खास ट्रेड में ठेकेदारी व्यवस्था को खत्म करने
का नोटिफिकेशन जारी कर सकती थी। उस के बाद उस ट्रेड में ठेकेदार मजदूर नहीं रखे जा
सकते थे। शुरू-शुरू में कुछ उद्योगों में ठेकेदारी उन्मूलन के लिए नोटिफिकेशन जारी
भी किए गए। लेकिन जल्दी ही यह समझ में आ गया कि यह कानून वास्तव में मजदूरों को मूल
उद्योग का स्थायी कामगार बनाने के औद्योगिक विवादों को श्रम न्यायालय या औद्योगिक
न्यायाधिकरण में न्याय निर्णयन के लिए ले जाने के अधिकार को समाप्त कर दिया गया है।
अब यह अधिकार सीधे-सीधे केन्द्र और राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आ गया था।
इस विमर्श की कल की कड़ी में मैं ने कहा था कि कोविद-19
महामारी को फैलने से रोकने के उपायों की घोषणा मात्र से, लोगों को विशेष रूप से
देश से औद्योगिक केन्द्रों से मजदूरों और उनके परिवारों द्वारा उनके गाँवों की ओर
पलायन से, महामारी के तैजी से फैलने के जो अवसर पैदा हो गए, उसके पीछे को कारणों की
पड़ताल करना और जानना अत्यन्त आवश्यक है। यदि इन तथ्यों को न जाना गया तो हमें समझ
लेना चाहिए कि हम परमाणु बम से भी खतरनाक बम पर बैठे हैं जो कभी भी फट पड़ सकता
है।
आंदोलनरत संगठित मजदूर |
जैसा की सभी जानते हैं कि पूंजीवादी जनतंत्रों
में सरकारों को चुने जाने में प्रचार और धन की बहुत बड़ी भूमिका होती है। बड़ी
मात्रा में यह धन केवल पूंजीपति और बड़ी-बड़ी औद्योगिक कंपनियाँ ही राजनैतिक
पार्टियों को उपलब्ध करवा सकती हैं। लेकिन पूंजीपति वर्ग राजनैतिक दलों को यह धन
ऐसे ही उपलब्ध नहीं करा देता, बल्कि उसके पीछे उनकी शर्तें होती हैं। चुनाव लड़ने
के लिए पूंजीपतियों द्वारा उपलब्ध कराए गए धन के कारण सत्ता में रहने वाली
राजनैतिक पार्टियाँ मजबूर हो जाती हैं कि वे सभी कानूनों की अनुपालना उनके हितों
में करें। ठेकेदार मजदूरी प्रथा सीधे-सीधे पूंजीपतियों के मुनाफों और उन की पूंजी को
बढ़ाती है। यह सिद्ध तथ्य है कि मुनाफों और पूंजी का निर्माण केवल और केवल
अतिरिक्त श्रम से अर्थात वस्तुओँ में मजदूरों द्वारा पैदा किए मूल्य से कम मुल्य चुका
कर ही किया जा सकता है। यह सारा का सारा मुनाफा और पूंजी केवल और केवल
अतिरिक्त-मूल्य की ही उपज होता है। मजूरों को उनके श्रम के वास्तविक मूल्य से जितना
मूल्य कम चुकाया जाता है वही मुनाफों और पूंजी में परिवर्तित होता है।
जब मजदूर संगठित होने लगता है तो वह उचित मजदूरी
की मांग करने लगता है। संगठित होने से बिखरे हुए और अशक्त मजदूरों का समूह बन जाता
है और उसमें शक्ति का संचार हो जाता है। मजदूरों की इस संगठित शक्ति को राज्य की
मशीनरी पुलिस, प्रशासन तथा गुंडों की मदद से दबाना कठिन हो जाता है और पूंजीपतियों
और सरकारी-अर्धसरकारी उद्योगों द्वारा मजदूरों की मांगों को दबाना संभव नहीं रह जाता।
ऐसे में उन की मजदूरी और सुविधाएँ बढ़ानी पड़ती हैं। इस सब से पूंजीपतियों का मुनाफा
कम हो जाता है, पूंजी का बढ़ना भी उसी अनुपात में कम हो जाता है, पूंजी की वृद्धि
की गति कम हो जाती है। इस गति को बनाए और बचाए रखने के लिए जो उपाय हो सकते थे
उनमें सर्वोत्तम उपाय यही सकता है कि किसी भी प्रकार से संगठित मजदूरों की संख्या
सीमित बनी रहे और अधिकांश श्रम-शक्ति को संगठित क्षेत्र से असंगठित क्षेत्र में
विस्थापित कर दिया जाए। भारत में पूंजीपतियों के पक्ष में यह काम दो तरीको से हुआ
और यह दोनों तरीके कानून बदलकर ईजाद किए गए। ... (क्रमशः)
अगली कड़ी में पढ़ें कानून को बदल कर ईजाद किए गए तरीके क्या हैं?