शुक्रवार, 15 जुलाई 2011
सरकारें अपनी ही जनता की सुरक्षा में नाकाम क्यों रहती हैं?
शनिवार, 15 मई 2010
शायर और गीतकार जावेद अख़्तर को मिली धमकी की निंदा और धमकी देने वाले के विरुद्ध त्वरित सख्त कार्रवाई की मांग करें।
नवभारत टाइम्स में प्रकाशित समाचार |
रविवार, 18 अक्तूबर 2009
शिद्दत से जरूरत है. शुभकामनाओं की ...
सोमवार, 12 अक्तूबर 2009
अपना घर खुद साफ करें; मोहल्ले की स्वच्छता मिल बैठ तय करें
शुक्रवार, 16 जनवरी 2009
एक चैट, भारत-पाकिस्तान पर
मैं: नमस्ते
?????? जी! संक्रान्ति की राम राम!
??????: मकर संक्रान्ति की बहुत बहुत बधाई हो आप को भी। सर! क्या हम वर्तमान स्थिति पर कोई बात कर सकते हैं? भारत और पाकिस्तानम के बारे में? यदि आप के पास समय हो?
मैं: आप अपनी बात कहें।
??????:मैं सोचता हूँ कि ये भारत की कायरता है जो उस ने अब तक कोई कदम नहीं उठाया है। ऐसा ही जब संसद पर हमला हुआ था तब भी हुआ था। हमने जितने सबूत थे पाकिस्तान को दिए उस ने सब नकार दिए। यहाँ तक कि आतंकवादियों को सबूतों और गवाहों की कमी को दिखाते हुए रिहा तक कर दिया ( हो सकता है ये मेरी सीमित सोच हो) इस लिए आप इस बात पर रोशनी डालिए।
मैं: आप का कहना कुछ हद तक सही है। लेकिन आज हम कोई दुनिया में अकेले नहीं हैं। पूरा विश्व समुदाय है। हम अपनी जमीन पर कोई भी कार्यवाही कर सकते हैं। लेकिन पाकिस्तान की जमीन पर कोई भी कार्यवाही करने के पहले पूरे विश्व समुदाय में उस के लिए माहौल बनाना आवश्यक है। उस काम को हमारी सरकार बखूबी कर रही है। जल्दबाजी और क्रोध में उठाया गया कदम उल्टा भी पड़ जाता है। हाँ यदि माहौल बनने के उपरांत भी ऐसा न किया जाए तो फिर कायरता है। हमारे देश में तो माहोल है। लेकिन वैश्विक समुदाय में माहौल बनाने में कुछ समय और लग सकता है। अभी तो हमें सरकार का साथ देते हुए उसे आगे कार्यवाही करने के लिए लगातार तत्पर रखना है।
??????:जब अमेरिका किसी की परवाह नहीं करता तो हम क्यों करें?
मैं: सबूत केवल पाकिस्तान को ही नहीं दिये हैं अपितु इसीलिए वैश्विक समुदाय में दिए गए हैं ताकि कोई बाद में पंगा न करे। हम भारत की तुलना अमेरिका से नहीं कर सकते, और परवाह तो उसे भी करनी पड़ती है।
??????:अब पाकिस्तान ने अफगानिस्तान से लगते इलाकों से सेना हटा कर हमारी सीमा के पास लगा दी।
मैं: वह अमरीका की चिंता का विषय है। इस से उस को परेशानी होगी।
??????: वहाँ वजीरीस्तान के कबीलों के सरदारों ने भी पाकिस्तान का साथ देने की हामी भर दी है।
मैं: वह हमारे हित में ठीक है। आप को अमेरिका का अधिक साथ मिलेगा।
??????: कल तक तो अमेरीका का रिप्रेजेण्टेटिव था।
मैं: वे पाकिस्तान का साथ नहीं दे रहे वे वस्तुतः पाकिस्तान को तोड़ना या वहाँ अपनी हुकूमत देखना चाहते हैं।
??????: और आज खिलाफ हो रहा है हाँ जो अमेरीका का मंसूबा है हम वो क्यों नहीं कर सकते?
मैं:पाकिस्तान अपने अंतर्विरोधों से टूटेगा। किसी बाहरी हमले से नहीं।
??????: इंदिरा ने तो जीता जिताया लाहौर तक वापिस दे दिया। कहने का मतलब है कि हम सांस भी लेंगे तो अमेरिका से पूछ कर?
मैं: झगड़े के वक्त पड़ौसी के घर में घुस कर मार करेंगे तो बाद में वापस अपने घर आना तो पड़ेगा न।
??????: आतंकवादियों ने हमारे घर पर आक्रमण किया है, ना कि अमरीका पर?
मैं: आज जमीने युद्ध से नहीं वहाँ के रहने वालों की इच्छा के आधार पर किसी देश में बनी रह सकती हैं।
आप ने सही कहा है। आतंकवाद से निपटना तो हमें ही पड़ेगा। लेकिन दूसरे के घर जा कर मार करने के लिए बहुत तैयारी जरूरी है।
फिर हम मोहल्ले के बदमाश को पीटने के पहले उस के खिलाफ माहोल तो बनना पड़ेगा। वरना खुद ही धुन दिए जाएंगे। और मुकदमा भी आप के खिलाफ ही बनेगा।
??????: ये तो एक्सक्यूज है। अमरीका ने सद्दाम को मारने से पहले, उस के देश को तबाह करने से पहले किसी से पूछा था? लादेन के देश (अफगानिस्तान) में घुस कर उस के देश को तबाह कर दिया?
मैं: वहाँ परिस्थिति भिन्न थी सद्दाम खुद दूसरे देश में सेना ले कर घुसा था और उस देश ने अमरीका की मदद मांगी थी। आज पाकिस्तान जरा घुसने की हिमाकत कर डाले तो काम बहुत आसान हो जाए। उस के लिए देश और सेना तैयार खड़ी है, लेकिन वह ऐसा नहीं करेगा।
??????: आशा करें कि वह ऐसा करे। ओ.के. सर! आप के साथ चैट कर के अच्छा लगा। मैं आप से सहमत हूँ।
मैं: हाँ तैयारी तो वैसी रखनी चाहिए। पर उस का इंतजार तो नहीं किया जा सकता। इसलिए विश्व में लगातार माहौल बनाना पड़ेगा और अभी तो संयुक्त राष्ट्र में आतंकवाद के मामले को ऐसे उठाना होगा कि कश्मीर का मामला उठे ही नहीं, और पाकिस्तान उठाने की कोशिश करे तो उस का मुहँ बंद कर दिया जाए।
धन्यवाद!
??????: बहुत धन्यवाद! ओ. के. सर!
मैं:दिवस शुभ हो!
??????:आप का भी दिवस शुभ हो मकर संक्रांति की बहुत बहुत शुभकामनाएँ।
गुरुवार, 25 दिसंबर 2008
पाकिस्तान क्यों युद्ध का वातावरण बना रहा है?
के पात्रों आदरणीय गुरूजी सज्जन दास जी मोहता और उन के मित्र जगदीश नारायण जी माथुर और इस पोस्ट पर आई टिप्पणियों में व्यक्त विचारों के सम्बन्ध में, लेकिन यहाँ दूसरी ही खबरें आ रही हैं। एक खबर तो कल अनवरत पर ही थी- कोटा स्टेशन और तीन महत्वपूर्ण रेल गाड़ियों को विस्फोटकों से उड़ाने की आतंकी धमकी दूसरी खबर अभी अभी आज तक पर सुन कर आ रहा हूँ इसे नवभारत टाइम्स ने भी अपनी प्रमुख खबर बनाया है कि -
"भारतीय सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) ने भी बताया है कि बॉर्डर के दूसरी ओर (पाकिस्तान की तरफ) हलचल तेज है। पाकिस्तानी रेंजर्स को हटाकर वहां पाकिस्तानी सेना को तैनात कर दिया गया है। बीएसएफ, वेस्टर्न जोन के एडीजी यू.के.बंसल ने कहा है कि हमने बुधवार को बॉर्डर का मुआयना किया और हमने पाया कि बॉर्डर के दूसरी तरफ सैन्य गतिविधियां तेज हैं। उन्होंने कहा कि बीएसएफ किसी भी हालात से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार है।"मुम्बई पर 26 नवम्बर के आतंकवादी हमले के संबंध में एकदम साफ सबूत हैं कि हमलावर पाकिस्तान से आए थे, हमले की सारी तैयारी पाकिस्तान में हुई थी। हमलावरों में से एक को जीवित पकड़ा गया वह चीख चीख कर कह रहा है कि वह पाकिस्तानी है। लेकिन फिर भी पाकिस्तान सरकार लगातार जानबूझ कर इन सबूतों को मानने से इन्कार कर रही है। उस ने यहाँ तक कहा है कि उन के डाटाबेस में कसाब नहीं है।
कसाब का पाकिस्तान के डाटा बेस में नहीं होने का बयान देना अपने आप में बहुत ही गंभीर बात है। इस का अर्थ यह है कि पाकिस्तान अपने प्रत्येक नागरिक का विवरण अपने डाटाबेस में रखता है। हालांकि उस की अफगान सीमा पूरी तरह से असुरक्षित है और एक पुख्ता डाटाबेस बना कर रखना संभव नहीं है। फिर भी हम मान लें कि उन का ड़ाटाबेस पुख्ता है और उस में हर पाकिस्तानी नागरिक का विवरण महफूज रहता है। लेकिन कसाब तो पाकिस्तानी है उस का विवरण उस में होना चाहिए।
पुख्ता डाटाबेस में कसाब का विवरण नहीं होना यह इंगित करता है कि विवरण को साजिश की रचना करने के दौरान ही डाटाबेस से हटा दिया गया है या फिर साजिश को अंजाम दिए जाने के उपरांत। यह पाकिस्तान के प्रशासन में आतंकवादियो की पहुँच को प्रदर्शित करता है। पाकिस्तान के इस तथाकथित डाटाबेस में किसी भी उस पाकिस्तानी का विवरण नहीं मिलेगा जो किसी आतंकवादी षड़यंत्र के लिए या फिर जासूसी के इरादे से पाकिस्तान के बाहर आएगा।
पाकिस्तान के निर्माण से अब तक आधे से भी अधिक वर्ष पाकिस्तान ने सैनिक शासन के अंतर्गत गुजारे हैं। वहाँ कभी भी सत्ता पर सेना काबिज हो सकती है। सत्ता पर सेना का प्रभाव इतना है कि कोई भी राजनैतिक सत्ता तभी वहाँ बनी रह सकती है जब तक सेना चाहे। दूसरी और आतंकवादी बहुत प्रभावी हैं, उन्हें सेना का समर्थन हासिल है। यह इस बात से ही स्पष्ट है कि भारत से संघर्ष की स्थिति में तालिबान उन के विरुद्ध अमरीकी दबाव में लड़ रही सेना के साथ खड़े होने की घोषणा कर चुके हैं। आईएसआई की अपनी अलग ताकत है जो सेना और आतंकवादियों के साथ जुड़ी है।
इन परिस्थितियों में पाकिस्तान की सरकार पूरी तरह निरीह नजर आ रही है। फौज, आईएसआई और आतंकवादी की मंशा के विपरीत कोई भी निर्णय कर पाना पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार के विरुद्ध आत्महत्या करना जैसा है। यदि अंतर्राष्ट्रीय दबाव के आगे पाकिस्तान को आतंकवादियों के विरुद्ध कार्यवाही करनी ही पड़ती है तो पाकिस्तान एक गृहयुद्ध के दरवाजे पर खड़ा हो जाएगा। एक ही बात पाकिस्तान को गृहयुद्ध से बचा सकती है वह यह कि भारत उस पर हमला कर दे। पाकिस्तान द्वारा भारत से युद्ध का वातावरण बनाने के पीछे यही उद्देश्य काम कर रहा है।
इन परिस्थितियों में यह तो नितांत आवश्यक है कि भारत को अपनी सुरक्षा के लिए सेनाओं को तैयार रखना पड़ेगा। भारतीय कूटनीति की सफलता इसी बात पर निर्भर करती है कि किसी भी प्रकार के युद्ध में कूद पड़ने के पहले पाकिस्तान अपने गृहयुद्ध में उलझ जाए।
मंगलवार, 23 दिसंबर 2008
कोटा स्टेशन और तीन महत्वपूर्ण रेल गाड़ियों को विस्फोटकों से उड़ाने की आतंकी धमकी
राजकीय रेलवे पुलिस (जीआरपी) के पुलिस उप अधीक्षक तृप्ति विजयवर्गीय ने आज बताया कि रेलवे पुलिस के कोटा थाना प्रभारी को गत 18 दिसम्बर को ही एक पत्र मिल गया था जो मुंबई से 12 दिसंबर को डाक में छोड़ा गया है। इस पत्र में कोटा से गुजरने वाली तीन रेल गाडियों सहित कोटा स्टेशन को बम से उडाने की आतंकी धमकी दी गई है। पत्र मिलने के बाद इस के बारे में गोपनीयता बनाए रखी गई और सबसे पहले प्राथमिक रूप से रेल गाडियों और रेलवे स्टेशन की सुरक्षा को मजबूत करने के अलावा विभिन्न इंटेलीजेंस एजेंसियों की मदद ली गई।
विजयवर्गीय ने बताया कि जिन गुप्तचर एजेंसियों की जांच में मदद ली जा रही है, उनमें मिलेट्री इंटेलीजेंस भी शामिल है। इसके अलावा पुलिस की इंटेलीजेंस ब्रांच और रेलवे की विजीलेंस टीम भी स्थिति पर लगातार निगाह बनाए हुए है। उल्लेखनीय है कि जीआरपी के थाना प्रभारी को भेजे गए कथित धमकी भरे पत्र में 25 दिसम्बर को कोटा रेलवे स्टेशन सहित कोटा मंडल से गुजरने वाली तीन रेल गाडियों को बम से उडाने की धमकी दी गई है।
शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008
दिल ढूंढता है, टूटने के बहाने
पाकिस्तान अपने ही देश के आंतकवादियों पर काबू पाने में सक्षम नहीं हो पा रहा है और जिस तरीके से वहाँ आतंकवादियों ने मजबूती पकड़ ली है उस से यह आशंका बहुत तेजी से लोगों के दिलों में घर करती जा रही है कि एक दिन पाकिस्तान जरूर बिखर जाएगा। इस आशंका के चलते पाकिस्तान के लोगों ने बहाने तलाशना आरंभ कर दिया है। वैसे तो तोड़-जोड़ कर बनाया गया पाकिस्तान पहले भी टूट चुका है। लेकिन उस बार उसे तोड़ने का श्रेय खुद पाकिस्तानियों को प्राप्त हो गया था। उन्हों ने देख लिया कि वे पूर्वी बंगाल की आबादी पर अपना कब्जा वोट के जरिए नहीं बनाए रख सकते हैं तो उन्हों ने उसे टूट जाने दिया। अब फिर वही नौबत आ रही है।
अब वे यह तो कह नहीं सकते कि भारत उन्हें तोड़ रहा है। क्यों कि इस में तो उन की हेटी है। इस से तो यह साबित हो जाता कि पाकिस्तान बनाने के लिए भारत को तोड़ा जाना ही गलत था।यह पहलवान चाहे हर कुश्ती में हारता हो लेकिन कभी भी अपने पड़ौसी पहलवान को खुद से ताकतवर कहना पसंद नहीं करता। इस लिए भारत तो इस तोहमत से बच गया कि वह पाकिस्तान को तोड़ने की साजिश कर रहा है। अब किस के सर यह तोहमत रखी जाए? तो भला अमरीका से कोई पावरफुल है क्या दुनिया में? उस के सर तोहमत रखो तो कोई मुश्किल नहीं, कम से कम यह तो कहा जा सके कि हम पिटे तो उस से, जिस से सारी दुनिया पिट रही है।
लाहौर हाईकोर्ट की बार एसोसिएशन ने सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित कर दिया है कि अमरीका पाकिस्तान में आतंकवाद फैला रहा है और मुम्बई हमला भी उसी के इशारों पर काम कर रहे आतंकवादियों का कारनामा है। यह कारनामा इस लिए किया गया है जिस से पाकिस्तान पर इस हमले को करवाने के आरोप की जद में अपने आप आ जाए।
वकीलों से खचाखच भरी इस बैठक में पारित इस प्रस्ताव में कहा गया कि अमरीका यह सब इस लिए कर रहा है जिस से उस की बनाई योजना के मुताबिक यूगोस्लाविया के पैटर्न पर पाकिस्तान को तोड़ा जा सके। (खबर यहाँ पढ़ें) बैरिस्टर ज़फ़रउल्लाह खान द्वारा पेश किए गए इस प्रस्ताव में कहा गया है कि अमरीका के इस मुंबई कारनामे पर ब्रिटेन सब से अधिक ढोल बजा रहा है जिस से किसी की निगाह अमरीका के इस कुकृत्य पर न पड़ सके। इस प्रस्ताव में पाकिस्तान पर अमरीकी हमलों की निन्दा करते हुए कहा गया है कि ये हमले पाकिस्तान के उत्तरी भाग को आगाखान स्टेट में बदलने का प्रयास है। जिस के लिए आगाखान फाउंडेशन हर साल तीस करोड़ डालर खर्च कर रहा है।
शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008
देश को सही नेतृत्व की जरूरत है
मेरे विचार में हमें करना सिर्फ इतना है कि हम अपने अपने कर्तव्यों को ईमानदारी से करते हुए सजग रहें कि जाने या अनजाने शत्रु को किसी प्रकार की सुविधा तो प्रदान नहीं कर रहे हैं।
इस के साथ हमें हमारे रोजमर्रा के कामों को आतंकवाद के साये से भी प्रभावित नहीं होने देना है। लोग अपने अपने कामों पर जाते रहें। समय से दफ्तर खुलें काम जारी ही नहीं रहें उन में तेजी आए। खेत में समय से हल चले बुआई हो, उसे खाद-पानी समय से मिले और फसल समय से पक कर खलिहान और बाजार पहुँचे। बाजार नियमित रूप से खुलें किसी को किसी वस्तु की कमी महसूस न हो। स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय अपना काम समय से करें। कारखानों में उत्पादन उसी तरह होता रहे। हमारी खदानें सामान्य रूप से काम करती रहें।
सभी सरकारी कार्यालय और अदालतें अपना काम पूरी मुस्तैदी से करें। पुलिस अमन बनाए रखने और अपराधों के नियंत्रण का काम भली भांति करे। ये सब काम हम सही तरीके से करें तो किसी आतंकवादी की हिम्मत नहीं जो देश में किसी तरह की हलचल उत्पन्न कर सके।
वास्तविकता तो यह है कि हम आतंकवाद से युद्ध को हमारे देश की प्रणाली को चुस्त-दुरुस्त बनाने के लिए उपयोग कर सकते हैं। बस कमी है तो देश को ऐसे नेतृत्व की जो देश को इस दिशा की ओर ले जा सके।
बुधवार, 3 दिसंबर 2008
हम ये जंग जरूर जीतेंगे
आज इसी तथ्य और भावना के तहत आज तक, टीवी टुडे, इन्डिया टुडे ग्रुप के सभी कर्मचारियों ने एक शपथ लेते हुए आतंकवाद पर विजय तक युद्ध रत रहने की शपथ ली है। आप भी लें यह शपथ!शपथ इस तरह है .....
शनिवार, 29 नवंबर 2008
आतंकवाद के विरुद्ध प्रहार
कल के दिन अनेक ब्लागों के आलेखों पर मैं ने टिप्पणियाँ की हैं। अनायास ही इन्हों ने कविता का रूप ले लिया। मैं इन्हें समय की स्वाभाविक रचनाएँ और प्रतिक्रिया मानता हूँ। सभी एक साथ आप के अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ। कोई भी पाठक इन का उपयोग कर सकता है। यदि चाहे तो वह इन के साथ मेरे नाम का उल्लेख कर करे। अन्यथा वह बिना मेरे नाम का उल्लेख किए भी इन का उपयोग कहीं भी कर सकता है। मेरा मानना है कि यह आतंकवाद के विरुद्ध इन का जिस भी तरह उपयोग हो, होना चाहिए।
- दिनेशराय द्विवेदी
ईश्वर
उन्हीं लोगों के हाथों
पैदा किया था
जिन्हों ने उसे
मायूस हैं अब
कि नष्ट हो गया है।
उनका सब से बढ़ा
औज़ार
अब तो शर्म करो
- दिनेशराय द्विवेदी
अपनों के कातिलों को
कातिल पकड़ा गया
तो कोई अपना ही निकला
फिर मारा गया वह
अपना कर्तव्य करते हुए,
अब तो शर्म करो!
दरारें और पैबंद
- दिनेशराय द्विवेदी
जो दरारें
और पैबंद
यह नजर का धोखा है
जरा हिन्दू-मुसमां
का चश्मा उतार कर
अपनी इंन्सानी आँख से देख
यहाँ न कोई दरार है
और न कोई पैबंद।
आँख न तरेरे
- दिनेशराय द्विवेदी
किस बात का शोक?
कि हम मजबूत न थे
कि हम सतर्क न थे
कि हम सैंकड़ों वर्ष के
अपने अनुभव के बाद भी
एक दूसरे को नीचा और
खुद को श्रेष्ठ साबित करने के
नशे में चूर थे।
कि शत्रु ने सेंध लगाई और
हमारे घरों में घुस कर उन्हें
तहस नहस कर डाला।
अब भी
हम जागें
हो जाएँ भारतीय
न हिन्दू, न मुसलमां
न ईसाई
मजबूत बनें
सतर्क रहें
कि कोई
हमारी ओर
आँख न तरेरे।
बदलना शुरू करें
- दिनेशराय द्विवेदी
बदलना शुरू करें
अपना पड़ौस बदलें
और फिर देश को
रहें युद्ध में
आतंकवाद के विरुद्ध
जब तक न कर दें उस का
अंतिम श्राद्ध!
युद्धरत
- दिनेशराय द्विवेदी
वे जो कोई भी हैं
ये वक्त नहीं
सोचने का उन पर
ये वक्त है
अपनी ओर झाँकने और
युद्धरत होने का
आओ संभालें
अपनी अपनी ढालें
और तलवारें
गुरुवार, 27 नवंबर 2008
यह शोक का वक्त नहीं, हम युद्ध की ड्यूटी पर हैं
बुधवार, 21 मई 2008
शुक्रवार, 16 मई 2008
छिपा आतंकवाद, खुला आतंकवाद
जयपुर धमाकों ने अनेक जानें ले लीं। अनेक घायल हुए, उन में अनेक ऐसे होंगे जो अब कभी भी सामान्य जीवन व्यतीत नहीं कर पायेंगे। अनेक ऐसे भी होंगे जो कदमों की दूरी से इन हादसों के दर्शक रहे होंगे, और उन के दिलों-दिमागों पर इन घटनाओं ने जो असर छोड़ा होगा वह शायद जीवन भर न जाए। हफ्तों, महीनों और बरसों तक उन के मस्तिष्क में वे धमाके गूँजते रहेंगे। शवों के परखच्चे दिखाई देते रहेंगे। अनेक होंगे जो हादसों की जगह जाने से न जाने कितने दिनों तक कतराते रहेंगे, और आने जाने के लिए लम्बे रास्ते चुनते रहेंगे। न जाने कितनी माँएँ होंगी जो अपने बच्चों को महिनों तक भीड़ भरे मंदिरों तक जाने से रोकती रहेंगी और मुहल्ले की हदों से आगे न जाने की हिदायत देती रहेंगी। बमों से निकले छर्रों का विश्लेषण पुलिस और फोरेंसिक विशेषज्ञ कर लेंगे। लेकिन इन हादसों से निकल कर दहशत के जो छर्रे अनेक लोगों के दिलों-दिमागों में जा जमे हैं, न तो उन का कोई विश्लेषण करेगा और न ही उन छर्रों से घायल मानुषों की कोई चिकित्सा हो पाएगी। इन घायलों को न कोई मुआवजा मिलेगा और न कोई सहानुभूति ही। वे दर्द के उन दरियाओं में बह निकलेंगे, जो न जाने कितने बरसों से मानुषों की बस्तिय़ों के बीच से गुजरते हैं। वे जगह बदल लेते हैं, गहरे और उथले हो जाते हैं, पर लगातार बह रहे हैं।
दर्द का एक दरिया उस घर में भी बह रहा होगा जिसे चलाने वाला ही हादसे के साथ चला गया है। मंदिर के सामने फूल-माला, प्रसाद और पूजा बेचने वाले की जगह खाली रहेगी, यही कोई तेरह दिन। इन तेरह दिनों में से किसी दिन उस दुकान (?) को खुलाने की रस्म पूरी होगी। पर क्य़ा दुकान खुल पाएगी? कौन बैठेगा उस पर? कोई महिला जो चूल्हे की जिम्मेदारियों को छोड़, घर चलाने की जिम्मेदारी उठाएगी। या कोई नाबालिग किशोर जिसे अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ेगी। जिस पर अपनी माँ के सिवा अपने भाई, बहनों और बूढ़े दादा-दादी की रोटी का भी भार आ पड़ा है। या कोई नहीं आएगा उस परिवार से वहाँ, या कोई और उस जगह को खरीद लेगा, अपना परिवार चलाने के लिए। धमाके की गूँज रोटी की जरूरत के नीचे दब जाएगी।
ऐसे में कोई मदद बाँट कर अपनी फोटो अखबार में छपवा रहा होगा। इधर दूसरे ही दिन से रक्तदान के कैम्प सजने लगे हैं। लोग माला पहन, तिलक लगवा कर टेण्ट हाउस के बिस्तरों पर लेट फोटो खिंचवा रहै हैं। दो चार दिन यह सब चलेगा। कुछ दिनों के लिए रक्त बैंकों के सामने लगे 'रक्त चाहिए' के होर्डिंगों पर से ब्लड ग्रुप गायब हो जाएंगे। लेकिन कुछ दिनों बाद सभी वापस दिखने लगेंगे।
हादसे की रात ही शहर बंद का ऐलान आ गया। दूसरे दिन सुबह के अखबारों में छपा भी। शहर शोक में बंद रहा या आतंक की छाया में? उत्तर सब जानते हैं, मगर कोई नहीं जानता। सुबह ही लोग पीले-केसरिया पटके कांधो पर सजाए टोलियों में निकले। जो दुकान खुली मिली उसी पर कहर बरपा गए। शहर पूरा बंद रहा। बंद स्वैच्छिक था? अखबारों में बंद की तस्वीरें हैं और खबरें भी। जयपुर के एक अखबार में हवामहल समेत सामने की वीरान सड़क का रंगीन छाया चित्र छपा है, बिना किसी चिड़िया और पिल्ले के। कैप्शन है "बंद के दौरान जयपुर"। इधर खबर यह भी छपी है कि इस इलाके में कर्फ्यू था, जो कुछ घण्टों की छूट के अलावा अब भी जारी है।
कोटा के बंद की खबरें यहाँ के सब अखबारों में हैं। आप खुद इस खबर का जायजा लें....................
पढ़ ली, खबर? ये है, आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई का चेहरा। छिपे आतंकवाद के सामने खुले आतंकवाद का प्रदर्शन। आप पकड़िये आतंकवाद को। यही लोग पैरवी कर रहे हैं, फिर से पोटा जैसा कानून लाने की। किस के खिलाफ उपयोग करेंगे इस कानून का। जो इन के बंद में दुकान खोलने की जुर्रत करेगा? या खुले आतंकवाद का सामना करने के लिए सामने आएगा?
गुरुवार, 15 मई 2008
उन्हें भी अपनी रोटी का जुगाड़ करना है
कल शाम जब से जयपुर बम विस्फोट का समाचार मिला है मन एक अजीब से अवसाद में है। आखिर इस समाज और राज्य को क्या हो गया है? जिस में आतंकवाद की कायराना हरकतों को अंजाम देने वाले लोगों को पनाह मिल जाती है। लोग उन के औजार बनने को तैयार हो जाते हैं। वे अपना काम कर के साफ निकल जाते हैं।
लगता है कि न समाज है और न ही राज्य। ये नाम अपना अर्थ खो चुके हैं। पहले से चेतावनी है, लेकिन उस से बचाव के साधन भोंथरे सिद्ध हो जाते हैं। समाज को कोई चिन्ता नहीं है, उस ने अपने अस्तित्व को कहाँ विलीन कर दिया है? कुछ पता नहीं। जैसे ही घटना की सूचना मिलती है। चैनल उस पर टूट पड़ते हैं जैसे कोई शिकार हाथ लग गया हो और एक प्रतिद्वंदिता उछल कर सामनें आती है। कहीं कोई दूसरा उस से अधिक मांस न नोच ले। चित्र दिखाए जाते हैं, इस चेतावनी के साथ कि ये आप को विचलित कर सकते हैं। लोग इन्हें ब्लॉग तक ले आते हैं। विभत्सता प्रदर्शन, कमाई और नाम पाने का साधन बन जाती है। कुछ चैनल अपने को शरलक होम्स और जेम्स बॉण्ड साबित करने पर उतर आते हैं।
मंत्रियों की बयानबाजी आरम्भ हो जाती है। मुख्यमंत्री को तुरन्त प्रतिक्रिया करने में परेशानी है। जैसे यह देश और प्रान्त में पहली बार हो रहा है। वे पहले जायजा (सोचेंगी और राय करेंगी कि किस में उन का हित है, जनता और देश जाए भाड़ में) लेंगी फिर बोलेंगी। प्रान्त के सब से बड़े अस्पताल का अधीक्षक गर्व से कहता है उन पर सब व्यवस्था है, कितने ही घायल आ जाएं। पर व्यवस्था आधे घंटे में ही नाकाफी हो जाती है। रक्त कम पड़ने लगता है। रक्तदान की अपीलें शुरू हो जाती हैं। अपील सुन कर इतने लोग आते हैं कि रक्त लेने के साधन अत्यल्प पड़ जाते हैं। घायलों को जो पहली अपील के बाद सीधे बड़े अस्पताल पहुँचते हैं उन्हें दूसरे अस्पतालों को भेजा जा रहा है। पहले ही पास के अस्पताल पहुंचने की अपील करने का ख्याल नहीं आया।
मुख्यमंत्री जानती हैं कि उन पर दायित्व आने वाला है। आखिर आंतरिक सुरक्षा राज्यों की जिम्मेदारी है. केन्द्र की नहीं तो वे फिर से पोटा या उस जैसा कानून लागू नहीं करने के लिए केन्द्र को कोसना प्रांऱभ कर देती हैं। यह उन के दल का ऐजेण्डा है और केन्द्रीय नेता उस पर बयान दे चुके हैं।
अगले दिन राज्य भर में राजकीय शोक की घोषणा कर दी जाती है। स्कूल, कॉलेज, सरकारी दफ्तर और अदालतें बन्द रहती हैं। एक दल को बन्द की याद आती है। वह बन्द की घोषणा कर देते हैं। (सब से आसान है, तोड़फोड़ के आतंक से लोग दुकानें, व्यवसाय बन्द करते ही हैं) बस कुछ रंगीन पटके ही तो गले में डाल कर घूमना है। बन्द रामबाण इलाज है हर मर्ज का। बाजार बन्द कर दो। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। एक आतंक की शिकार जनता के सामने दूसरा आतंक परोस दो। पहले वाले की तीव्रता कुछ तो कम होगी। वकीलों ने शोक सभा करनी है, शोक के राजकीय अवकाश से बन्द अदालतों के कारण संभव नहीं हुआ। अब अगले दिन शोक-सभा होगी, फिर अदालतों का काम बन्द। इस के अलावा कोई चारा भी नहीं, काम के बोझ से कमर तुड़ाती अदालतें दो दिन का काम करेंगी तो पेशियाँ बदलने के सिवा क्या कर सकती हैं? वैसे भी हर रोज 80% काम तो वे ऐसे ही निपटाती हैं।
वे साजिश रचते हैं, कामयाब होते हैं। आप अभी सूत्र तलाश कर रहे होते हैं। तक वे अपनी कामयाबी के मेक की वीडियो चैनलों को मेल कर देते हैं। चैनल चीखने लगते हैं, उन्हीं का स्वर। उन के हाथ बटेर लग गई है। अखबारों में शोक संदेशों की 'क्यू'लगी है। अमरीका के झाड़ बाबा से ले कर राष्ट्रीय पार्टी के जातीय प्रकोष्ठ की मुहल्ला कमेटी के मंत्री तक के बयान आए जा रहे हैं। संपादक देख रहा है उसे कौन, कैसे नवाजता है? किस से कितना बिजनेस मिलता है और मिल सकता है? किस का शोक छापना है किस का नहीं?
सायकिल और बैग बेचने वाले नहीं जानते उन से माल किस ने खरीदा, या उन्हों ने किस को बेच दिया। उन को केवल सेल्स से मतलब है। वे बता देते हैं उन्हों ने बच्चों और महिलाओं को बेचे हैं। कफन बेचने वाले को पता नहीं कफन किस के लिए खरीदा जा रहा है? जीवित के लिए या मृत के लिए, या कि कल बेचा हुआ कफन कल उसी के लिए तो काम नहीं लिया जाएगा?
अचानक इस्पाती समाज भंगुर दिखाई देने लगता है। न जाने कब इस की भंगुरता टूटेगी? टूटेगी भी या नहीं। या ऐसे ही यह विलुप्त हो जाएगा। एक से एक-एक में, कई एकों में। वह बूढ़ा याद आता है जो मरने के पहले अपने बेटों से अकेली लकड़ियाँ तुड़वा रहा था और गट्ठर किसी से न टूटा अब गट्ठर भी टूट रहा है। बस पहले उसे बाँधने वाली रस्सी की गाँठ खोल लो, फिर एक एक लकड़ी.......
और ......... यह हम भारत के लोगों द्वारा रचा गया गणराज्य? अब गण की उपेक्षा करता हुआ। विदेशी साम्राज्य को विदा कर अस्तित्व में आया और अब कह रहा है हम विश्व अर्थव्यवस्था से अछूते नहीं रह सकते, और विश्व आतंकवाद से भी।
आज आज और रहेगा याद यह आतंकवाद। कल भुलाएंगे और परसों से कोई और ब्रेकिंग न्यूज होगी चैनलों पर। फिर से बयानों की क्यू होगी। बधाई या शोक संदेश? कुछ भी। आज भोंचक्के लोग परसों फिर रोटी की जुगाड़ में होंगे, और चैनल भी, उन्हें भी अपनी रोटी का जुगाड़ करना है।
शनिवार, 29 दिसंबर 2007
दुनियाँ को बचा लो.....
उधर बेनजीर के कत्ल की खबर टीवी पर आई और इधर ब्रॉडबेंड का बेंड बज गया शाम पाँच बजे नेट लौटा। खबर से मन खराब हो गया। कुछ लिखना चाहता था। लेकिन तब तक ब्लॉग जगत में इस पर बहुत कुछ आ चुका था और हत्या से विचलित मानवीय संवेदनाओं का ज्वार तब तक विमर्श तक पहुँच चुका था। जब भी कोई घटना दुनियां के एक बड़े जन समूह के मानस को झकझोर दे तो वह विमर्श के लिए सही समय होता है। सभी के सूत्र घटना से जुड़े होते हैं। यदि विमर्श की दिशा सही हो तो इस समय के विमर्श से सोच को एक नई और सही दिशा प्राप्त हो सकती है। हिन्दी ब्लॉगिंग आज ऐसे विमर्श की सामर्थ्य प्राप्त कर चुका है। वैश्विक आतंकवाद इस समय विश्व के एजेण्डे पर है। हिन्दी ब्लॉगिंग चाहे तो इस विमर्श को प्रारम्भ कर कम से कम भारतीय उप महाद्वीप में इस वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध सोच का एक नया सिलसिला शुरू कर सकती है।
आज वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध अमेरिका ने अविराम युद्ध की घोषणा की हुई है। पर क्या यह युद्घ आतंकवाद के विरुद्ध है? और क्या यह विश्व से आतंकवाद का समूल नाश करने में सक्षम है? क्या वैश्विक स्तर पर आतंकवाद को जन्म देने में खुद अमरीका की भूमिका प्रमुख नहीं? क्या अमरीका अब उन सभी कृत्यों से विमुख हो गया है जिन के कारण आतंकवाद जन्म ही नहीं लेता, अपितु फलता फूलता भी है? क्या आतंकवाद की समाप्ति के लिए अमरीकी पथ सही है? यदि नहीं तो सही रास्ता क्या है। इन तमाम प्रश्नों पर विचार किया जाना चाहिए।
आतंकवाद के विरुद्ध खड़े लोगों की कमी नहीं। आतंकवाद को धराशाई करना भी असंभव नहीं। लेकिन इस के खिलाफ सफलतापूर्वक तभी लड़ा जा सकता है जब पहले इस की जन्मभूमि की तलाश कर के इस का उत्पादन बन्द कर दिया जाए। यह एक लम्बा काम है। इस से भी पहले महत्वपूर्ण है, आतंकवाद के खिलाफ खड़े योद्धाओं की आपसी लड़ाई को समाप्त करना। यहां हो यह रहा है कि योद्धा इस बात को ले कर आपस में भिड़े हुए हैं कि, मेरा सोच ज्यादा सही है। फिर ऐसा वाक् युद्ध छेड़ देते हैं कि आतंकवाद को ही बल मिलता नजर आता है, आतंकवाद के खिलाफ खड़े होने वाले लोगों को वापस आतंकवाद के साथ खड़ा कर देते हैं। कभी तो लगने लगता है कि आतंकवाद के खिलाफ जोर जोर से बोलने वाले लोग उन्हीं के भाईबन्द हैं और उन्हीं की मदद कर रहे हैं।
आज शाम ब्रॉडबैंड शुरू होते ही सब से पहले हर्षवर्धन के 'बतंगड़' की पोस्ट पर टिप्पणी से ही काम शुरू किया। टिप्पणी अपलोड होती तब तक बैंड फिर बज गया। पता नहीं क्या गड़बड़ होती है 'ज्ञान' जी की तरह कोई हमारे बीच बीएसएनएल से भी होता तो अंदर की बात पता लगती रहती। अगर कोई हो भी तो सामने नहीं आया है। कोई हो उसे इस पोस्ट के बाद सामने आ ही जाना चाहिए। वरना फिजूल में ब्लॉंगर्स की आदत गालियां देने की पड़ जाएगी। वैसे एक टिप मिली है कि ये सब टेलीकॉम कम्पनियों के कम्पीटीशन का नतीजा भी हो सकता है। मै बतंगड़ पर की गई अपनी टिप्पणी यहां भी दे रहा हूँ। ताकि विमर्श का कोई रास्ता बने।
बतंगड़ पर की गई टिप्पणी-
हर्ष जी, कल खबर आते ही ब्रॉडबेंड का बैंड बज गया, अभी पाँच बजे नेट लौटा है। खबर से मन खराब हो गया। कुछ लिखना चाहता था। लेकिन अब तक ब्लॉग्स पर बहुत कुछ आ चुका है। आप की पोस्ट पर टिप्पणी से ही बात शुरू कर रहा हूँ। आप की पोस्ट के शीर्षक की अपील, पोस्ट पर कहीं नजर नहीं आई। आप ने जिन मुसलमानों से अपील की है, वे उन से अलग हैं जिन के लिए मिहिर भोज ने टिप्पणी की है। यह फर्क यदि मिहिर भोज समझ लें, तो हमें एक हीरा मिल जाए। वे यह भी समझ लें कि आप ने जिन मुसलमानों से अपील की है उन की संख्या मिहिर के इंगित मुसलमानों की संख्या से सौ गुना से भी अधिक है। मेरा तो मानना है कि एक सच्चा मुसलमान एक सच्चा हिन्दू, ईसाई, बौद्ध, जैन, और सर्वधर्मावलम्बी हो सकता है। जिस दिन हम यह फर्क चीन्ह लेंगे और सच्चे धर्मावलम्बी व इंसानियत के हामी एक मंच पर आ जाएंगे उस दिन से दुनियां में शान्ति की ताकतें विजयी होना शुरू हो जाएंगी। आतंकी कहीं नहीं टिक पाएंगे।
- दिनेशराय द्विवेदी