हमारे पास माध्यम के रूप में सब से पहले काव्य कृतियाँ सामने आईं जो लिखित न होते हुए भी श्रुति से हमारे बीच थीं। इन कृतियों में सब कुछ था। जीवन था, जीवन का दर्शन था, जगत की व्युत्पत्ति की व्याख्या थी, सौन्दर्य था, अभिव्यक्ति थी और भी बहुत कुछ था। श्रुति के रूप में काव्य का विस्तार सीमित था। लेकिन जैसे ही लिपि और लेखन सामग्री अस्तित्व में आई लोगों तक इस के विस्तार में वृद्धि हुई। लेकिन जब छापाखाने का आविष्कार हो गया और लेखन की एक से अधिक प्रतियाँ बनाना संभव हुआ तो इस के विस्तार में उछाल आ गया। तब अपने अपने दृष्टिकोण से उपलब्ध रचनाओं का मूल्यांकन आरंभ हो गया। फिर समाचार पत्र और पत्रिकाएँ अस्तित्व में आए तो दायरा औऱ बढ़ा, पाठक संख्या बढ़ने लगी। पुस्तकें, समाचार पत्र और पत्रिकाएँ एक ऐसे माध्यम के रूप में सामने आए जिस से अपने विचार, सूचनाएँ और रचनाएँ औरों तक पहुँचाना अत्यंत सुगम हो गया। विचार, रचनाएँ और सूचनाओं को पहुँचाने के लिए अनेक रूप सामने आए। कविता, कहानी, लेख, निबंध आदि सामान्य रूप थे लेकिन इन के अलावा और भी रूप दुनिया में मौजूद थे जिसमें मूर्ति शिल्प और चित्रकारी प्रमुख हैं, नाटक, नृत्य और संगीत भी सदियों से अभिव्यक्ति का साधन बने रहे हैं। फिर चलचित्र एक नया माध्यम सामने आया। आज हमारे सामने टेलीविजन और अंतर्जाल ऐसे साधन हैं जिन के माध्यम से हम सूचनाएँ, विचार और रचनाओं को लोगों तक पहुँचा सकते हैं।
आरंभिक काव्य कृतियों के जमाने से ही उन का मूल्यांकन और विश्लेषण होता रहा है। वे मनुष्य समाज के लिए कितनी उपयोगी हैं या नहीं? अथवा उन में गेयता कितनी है? या फिर उन की कला कैसी है? वे आकर्षक हैं या नहीं? क्या वे ऐसी हैं जिन्हें लोग ग्रहण करना पसंद करेंगे अथवा नहीं। ऐसे बहुत से आधार रहे हैं जिन पर किसी भी कृति का मूल्यांकन होता रहा है। समाचार पत्रों, या टेलीविजन चैनलों या पत्रिकाओं का भी मूल्यांकन और समीक्षा किया जाता रहा है। अब अंतर्जाल ने वह सब अपने अंदर समेट लिया है। यहाँ सब कुछ है। साहित्य, समाचार, विचार, दर्शन, चित्र, छायाचित्र, वीडियो, ओडियो आदि आदि। विकृत और विभत्स से ले कर सुंदरतम और आकर्षक तक यहाँ उपलब्ध है और कराया जा सकता है। इसी ने हमें यह अवसर दिया है कि हम अपने अपने ब्लाग बनाएँ और उन पर जो कुछ भी, जैसे भी अभिव्यक्त कर सकते हैं, करें। इन्ही अवसरों में ब्लाग भी एक अवसर है जिस का उपयोग हम सभी लोग जो ब्लागीरी के माध्यम से कर रहे हैं। ब्लागीरी में भाषाई समूह भी हैं और हिन्दी ब्लागीरी ब्लागों का एक भाषाई समूह है जो तेजी से विकसित हो रहा है। अब तक इतने ब्लाग और उन पर इतनी सामग्री आ चुकी है कि ब्लागों और ब्लागीरों का मूल्यांकन किया जा सकता है। बल्कि यह होना चाहिए। जब हम मूल्यांकन करने लगेंगे तो उस में किसी भी ब्लाग पर प्रकाशित अथवा ब्लागीर द्वारा प्रस्तुत की गई सामग्री के संबंध में अपने विचार प्रकट करेंगे। उस में उस की खूबियों का भी उल्लेख होगा और कमियों का भी। हो सकता है किसी मूल्यांकनकर्ता ने ब्लाग या ब्लागर की जिन खूबियों का वर्णन किया है वह दूसरों की निगाह में खूबियाँ न हों या उल्लेखनीय न हों। यह भी हो सकता है कि जिन कमियों का वह वर्णन कर रहा है वे कमियाँ ही नहीं हों। यह भी हो सकता है कि ऐसा मूल्यांकन किसी को पसंद आए और किसी को न आए। फिर इस मूल्यांकन का भी मूल्यांकन किया जा सकता है।
बात कुछ भी हो अब वह वक्त आ पहुँचा है जब हिन्दी ब्लाग और ब्लागीरों का मूल्यांकन होना चाहिए। साहित्य में इसी मूल्यांकन को आलोचना या समालोचना कहा जाता है। साहित्य में आलोचना या समालोचना का अपना महत्व है इसी कारण से अच्छे अच्छे साहित्यकार आलोचना और समालोचना के लिए तरसते दिखाई पड़ते हैं। वहाँ उस आलोचना और समालोचना की भी आलोचना और समालोचना होती रहती है। साहित्य के क्षेत्र के लिए वह आम बात है।
अब यदि मूल्यांकन या समालोचना हो तो उस का आधार और रूप क्या होना चाहिए? हम पहले रूप की बात करें तो निश्चित रूप से जब हम किसी ब्लाग या ब्लागीर की समालोचना करने लगेंगे और अपने निष्कर्ष रखेंगे तो हमें यह तो करना ही होगा कि समालोचना में जो बात हम कहें उस के समर्थन में पर्याप्त तथ्य और साक्ष्य भी उसी रचना में अवश्य ही हों। मसलन यदि हम यह कहते हैं कि दिनेशराय द्विवेदी के ब्लाग इस कमी से या इस खूबी से युक्त हैं तो हमें उन कमियों और खूबिय़ों के उदाहरण भी सामने रखने चाहिए। यदि हम बिना किसी उदाहरण, तथ्य और साक्ष्य के अपनी बात कहते हैं तो प्रशंसा करने की स्थिति में यह चाटुकारिता और कमियों का उल्लेख करने पर यह निंदा का रूप ले लेगी।
ज्ञानदत्त जी पाण्डेय की मानसिक हलचल पर समीरलाल जी और अनूप शुक्ल जी के बारे में जो तीन-तीन पंक्तियाँ कही गईं और जिन्होंने तीन दिनों से हिन्दी ब्लाग जगत में बवाल मचा रखा है उन की सबसे बड़ी कमी यही है कि उन्हों ने इन दोनों ब्लागीरों के बारे में जो कुछ भी कहा वह बिना किसी साक्ष्य, तथ्य और उदाहरण के कह दिया। इस दृष्टिकोण से उसे समालोचना, समीक्षा या मूल्यांकन की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। उस के वर्गीकरण के लिए दो ही श्रेणियाँ बचती हैं, चाटुकारिता या निंदा। लेकिन मैं नहीं समझता कि ज्ञानदत्त जी की मंशा किसी की निंदा करना या चाटुकारिता करना हो सकती है। मेरा विनम्र मत है कि इसे हम आलोचना, मूल्यांकन या समीक्षा का आरंभ करने का एक प्रयत्न माना जाना चाहिए, लोगों का सोचना है कि इस में उन से एक अपराधिक गलती हो गई है। लेकिन पहले अपराध के लिए तो कानून में भी सजा न दे कर परीवीक्षा (probation) पर छोड़े जाने का कायदा है।