@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: सम्मान
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गुरुवार, 29 अगस्त 2013

दिखाने के लिए ही सही कुछ तो सम्मान शेष रहता

1985 में मैं ने अपने लिए पहला वाहन लूना खरीदी थी, दुबली पतली सी। लेकिन उस पर हम तीन यानी मैं, उत्तमार्ध और बेटी पूर्वा बैठ कर सवारी करते थे। स्कूटर के भाव ऊँचे थे और बजाज स्कूटर  आसानी से नहीं मिलता था। फिर पाँच सात साल उसे चला लेने के बाद एक विजय सुपर सैकण्ड हैंड खरीदा, उसे पाँच सात साल चलाने के बाद एक सेकण्ड हैंड बजाज सुपर से उसे बदल डाला। 2003 से मारूति 800 मेरे पास है। उसी साल बेटे के लिए एक हीरो होंडा स्पेंडर बाइक खरीदी थी जो इस साल निकाल दी उस के स्थान पर होंडा एक्टिवा स्कूटर ले लिया है।

ड़तीस साल पहले लूना खरीदी थी तो अपने घर से अदालत तक साढ़े छह किलोमीटर के सफर में बमुश्किल पाँच दस कारें रास्ते में दिखाई पडती थीं। दस साल पहले जब मारूति खरीदी तब अदालत परिसर में 11 बजे के बाद पहुँचने पर उसे पार्क करने की जगह आराम से मिलती थी। लेकिन अब हालत ये है कि अदालत परिसर के भीतर तो उसे पार्क करने के लिेए 10 बजे के पहले ही जगह नहीं रहती। यदि मैं 11 बजे के बाद अदालत पहुँचूँ तो अदालत के आसपास सड़क पर जो पार्किंग की जगह है वहाँ भी उसे पार्क करने की जगह नहीं मिलती मुझे अदालत से कोई तीन सौ मीटर दूर जा कर अपनी कार पार्क करनी पड़ती है। पिछले दस वर्षों में बहुत तेजी से मोटर यानों की संख्या बढ़ी है।

2003 में मैं ने अपने एक मित्र का मुकदमा लड़ा था। वे उस की फीस मुझे कार खरीदवाने में खर्च करना चाहते थे। मैं सकुचा रहा था कि इस कार के पेट्रोल का खर्च सहन कर पाउंगा या नहीं। हम डीलर के यहाँ पहुंचे मारूती 800 पसंद की और डीलर ने मात्र 500 रुपए जमा कर के कार हमें सौंप दी। बाकी सारा पैसा बैंक ऋण से डीलर के पास आ गया। हमें कार की कीमत का 20 प्रतिशत बैंक को देना था वह उन मित्र ने जमा कराया। उस वक्त आप की जेब में पाँच सौ रुपए हों तो आप नयी कार घर ला सकते थे। सरकार की नीतियों ने कार खरीदना इतना आसान कर दिया था। इस आसानी ने ग्राहक की इस संकोच को कि वह कार के रख रखाव का खर्च उठा पाएगा या नहीं दूर भगा दिया था। 

रकार, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों, निजि बैंकों और निजि फाइनेंसरों की इस कर्ज नीति ने मोटर यान खरीदना इतना आसान बना दिया था कि सड़कें कुछ ही सालों में इन वाहनों से पट गई। नगर में पार्किंग की जगह का अकाल हो गया। घरों में खरीदे गए वाहनों को रखने की जगह नहीं थी। इस कारण कालोनी की 20 से 40 फुट चौड़ी सड़कों पर रात-दिन भर वाहन खड़े नजर आने लगे। यहाँ तक कि कालोनी वासियों में पार्किंग को ले कर झगड़े होने लगे, पुलिस के पास मामले बढ़ने लगे, यहाँ तक कि इन झगड़ों में हत्याएँ होने के मामले भी अनेक नगरों में दर्ज हुए। खैर, पब्लिक का क्या? वह आपस में लड़ती-झगड़ती रहे तो देश के पूंजीपति शासकों को बहुत तसल्ली मिलती है कि उन की  लूट की कारगुजारियों पर तो लोगों की निगाह नहीं जाती।


मारा देश तेल का बहुत बड़ा उत्पादक नहीं है। उसे क्रूड बहुत बड़ी संख्या में आयात करना पड़ता है जो डालर में मिलता है। इस तरह देश को इन वाहनों के लिए क्रूड का आयात बढ़ाना पड़ा, उस के लिए डालर देने पड़े। हर साल डालर की जरूरत बढ़ने लगी। देश हर जायज नाजायज तरीकों से डालर लाता रहा। डालर की कीमत बढ़ती रही। हम ने 2005 से आज तक किस तरह क्रूड ऑयल का आयात बढ़ाया है इस सारणी में देखा जा सकता है।  


1986 में हमारा क्रूड का आयात 300 हजार बैरल प्रतिवर्ष के लगभग था। 1999 में यह 800 हजार बैरल, 2001 1600 हजार बैरल, 2007 में 2400 हजार बैरल, 2009 में 3200 बैरल तक पहुँच गया। इसी मात्रा में हमें डालर खरीद कर तेल के बदले देने पड़े। इन डालरों को खरीदने के लिए हमें अपना क्या क्या बेचना पड़ा है इस का हिसाब और अनुमान आप खुद लगा सकते हैं। अब तो शायद बेचने के लिए हमारे पास मिथ्या सम्मान तक शायद ही बचा हो। देश के आजाद होने से जो थोड़ा सा स्वाभिमान हम ने अर्जित किया था वह तो हम कभी का बेच चुके हैं या गिरवी रख चुके हैं जिसे छुड़ाने की कूवत अभी दूर दूर तक पैदा होनी दिखाई नहीं देती। 

ब तक की सरकारों ने यदि देश में सार्वजनिक परिवहन को तरजीह दी होती तो हमें इतना क्रूड खरीदने की जरूरत नहीं होती न स्वाभिमान गिरवी रखना पड़ता और दिखाने के लिए ही सही कुछ तो सम्मान शेष रहता।

बुधवार, 10 अगस्त 2011

शव उठाना भारी पड़ रहा है

र महिने कम से कम एक दर्जन निमंत्रण पत्र मिल जाते हैं। इन में कुछ ऐसे समारोहों के अवश्य होते हैं जिस में किसी न किसी का सम्मान किया जा रहा होता है। जब ऐसे निमंत्रण पढ़ता हूँ तो दिल बहुत उदास हो जाता है। कहीं कोई कविताबाजी के लिए सम्मानित हो रहा होता है तो कोई साहित्य में बहुमूल्य योगदान कर रहा होता है। किसी को इसीलिए सम्मान मिलता है कि उस ने बहुत से सामाजिक काम किए होते हैं।  किसी के बारे में तो सम्मान समारोह से ही पता लगता है कि वह कविताबाजी भी करता है या उस ने साहित्य में कोई योगदान भी किया है या फिर वह सामाजिक कार्यकर्ता है। किसी किसी के तो नाम की जानकारी ही पहली बार निमंत्रण पत्र से मिलती है।  तब मैं निमंत्रण पत्र देने वाले से कहता हूँ कि भाई जिस का सम्मान होना है उस के बारे में तो बताते जाओ, मैं तो उसे जानता ही नहीं हूँ। जब सम्मानित होने वाले का नाम और उस के किए कामों की जानकारी मिलती है तो मन बहुत उदास हो जाता है।

विता के लिए किए जा रहे एक व्यक्ति के सम्मान समारोह में पहुँचा तो देखा कि जिस व्यक्ति का सम्मान किया जा रहा है उसे तो मैं बहुत पहले से जानता हूँ। वह कलेक्ट्री में बाबू है और किसी का काम बिना कुछ लिए दिए नहीं करता। एक दो बार उस से पाला भी पड़ा तो अपनी लेने-देने की आदत के कारण उस की उस के अफसर से शिकायत करनी पड़ी। अफसर ने उसे मेरे सामने बुला कर झाड़ भी पिलाई कि तुम आदमी को देखते तक नहीं। आइंदा किसी से ऐसी शिकायत मिली तो तुम्हारी नौकरी सुरक्षित नहीं रहेगी। उस झाड़ के बाद  बाबू के व्यवहार में मेरे प्रति तो बदलाव आ गया, लेकिन बाकी सब के साथ पहले जैसा ही व्यवहार करता रहा। शायद वह मुझे पहचानने लगा था। उस का कभी कुछ नहीं बिगड़ा। अफसर आते और चले जाते, लेकिन बाबू वहीं प्रमोशन पा कर उसी तरह काम करता रहा। आज अ...ज्ञ साहित्य समिति उस का सम्मान कर रही है। यह जान कर मुझे आश्चर्य हुआ कि वह बाबू कविता भी करता है वह भी ऐसी करता है कि उस का सम्मान किया जाए। 

खैर, बाबू ने मुझे देखा तो सकुचाया, फिर नमस्ते किया। औपचारिकतावश मैं ने भी नमस्ते किया। पर मेरे न चाहते हुए भी और रोकते रोकते भी बरबस ही मेरे होठों पर मुस्कुराहट नाच उठी। उस के चेहरा अचानक पीला हो गया। शायद उसे लगा हो कि मैं उस पर व्यंग्य कर रहा हूँ। मैं ने उस के नजदीक जा कर पूछा -तुम कविता भी करते हो, यह आज पता लगा। उसने और पीला होते हुए जवाब दिया -कविता कहाँ? साहब, कुछ यूँ ही तुकबाजी कर लेता हूँ। मैं हॉल में पीछे की कुर्सी पर जा कर बैठा। समारोह आरंभ हुआ। सरस्वती की तस्वीर को माला पहनाई गई, दीप जलाया गया। फिर सरस्वती वंदना हुई। स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियाँ थीं, साथ में तबला और हारमोनियम वाला भी था। शायद किसी स्कूल से बुलाया गया हो। मैं ने एक से पूछा तो पता लगा कि यह हारमोनियम वाले का आयोजन था। वह पाँच सौ में इस का इंतजाम किसी भी समारोह के लिए कर देता है। समारोह आगे बढ़ा। बाबू जी की तारीफ में कसीदे पढ़े जाने लगे। उन के दो प्रकाशित संग्रहों की चर्चा हुई। फिर बाबूजी बोलने लगे, उन की स्वरों में बहुत विनम्रता थी, वैसी जैसी लज्जा की अनुभूति होने पर किसी नववधु को होती है। उन्हों ने चार कथित काव्य रचनाएँ भी पढ़ीं। मुझे उन्हें कविता समझने में बहुत लज्जा का अनुभव हुआ।  समारोह समाप्त हुआ तो सभी को कहा गया कि बिना जलपान के न जाएँ। पास के हॉल में जलपान की व्यवस्था थी। जलपान क्या? पूरा भोजन ही था। छोले-भटूरे, गुलाब जामुन, समौसे और कचौड़ियाँ। मैं पिछले पाँच सालों में जितने सम्मान समारोहों में गया था, उन सब में जलपान के लिहाज से यह समारोह सब से जबर्दस्त था।

मेरे जैसे ही एक और मित्र थे वहाँ। मैं उन से चर्चा करने लगा। यार! सम्मान समारोह खूब जबर्दस्त हुआ। कहने लगे पूरे पच्चीस हजार खर्च किए हैं अगले ने जबर्दस्त क्यों न होता। मैं ने पूछा -अगला कौन? तो उस ने बताया कि अगला तो बाबू ही है। फिर भी मुझे पच्चीस हजार अधिक लग रहे थे। मैं ने मित्र से जिक्र किया तो कहने लगा ... खर्च तो बीस भी न हुए होंगे। आखिर पाँच तो सम्मान करने वाली संस्था भी बचाएगी, वर्ना कैसे चल पाएगी। ... तो पैसे पा कर यह संस्था किसी का भी सम्मान कर देती है क्या? .... और नहीं तो क्या?  ... आप अपना करवाना चाहो तो दस हजार में इस से बढ़िया कर देगी। मुझे उस की बात जँची नहीं। मैं ने पूछ ही लिया -वह कैसे? ... यार! संस्था साल में पाँच बाबुओं का सम्मान करेगी, तो दो आप जैसों का कम खर्चे में भी करना पड़ेगा, आखिर संस्था को अपनी साख और इज्जत भी तो बचानी पड़ती है। मेरे पास मित्र की इस बात का कोई उत्तर नहीं था। मैं ने अगला प्रश्न किया -यार! इस की किताब किसने छापी? उत्तर था - कौन छापेगा? चित्रा प्रकाशन ने छापी है। मेरे लिए स्तंभित होने का फिर अवसर था। मैं हुआ भी और हो कर पूछा भी -ये चित्रा प्रकाशन कहाँ का है? कौन मालिक है इस का? ... यार! तुम बिलकुल बुद्धू हो। चित्रा बाबू की बीबी का नाम है और इस प्रकाशन ने अब तक दो ही किताबें छापी हैं और दोनों बाबू की हैं। 

स समारोह के पहले मैं सोचता था कि कभी तो किसी को सुध आएगी, अपना भी सम्मान होगा। इस समारोह के बाद से मैं सम्मान समारोहों में बहुत सोच समझ कर जाने लगा हूँ। अपनी खुद की तो सम्मान की इच्छा ही मर गई है। इच्छा का शव उठाना भारी पड़ रहा है। सोचता हूँ कि कल सुबह जल्दी जा कर बच्चों के शमशान में दफना आऊँ।

शनिवार, 15 जनवरी 2011

रघुराज सिंह के सम्मान में कवि बशीर अहमद मयूख ने बजाई बाँसुरी

रघुराज सिंह हाड़ा
र मकर-संक्रान्ति पर शकूर 'अनवर' के घर जा कर बहुत अच्छा लगता है। वहाँ हर साल विकल्प जन सास्कृतिक मंच सृजन सद्भावना समारोह का आयोजन करता है। आज नवाँ सद्भावना समारोह था। दिन के दो बजे से आरंभ होने वाले समारोह में मैं कुछ देरी से पहुँचा। वजह साफ थी। मैं एक किशोर को वहाँ ले जाना चाहता था। पत्नी की बहन का पुत्र योगेश, वह गाँव से दूर कोटा में अपनी बहिन के साथ अध्ययन की खातिर रहता है। पिछले सप्ताह उस से मिला तो उसे अपने घर आ कर पतंग उड़ाने का न्यौता दे दिया। घर आ कर डोर लपेटने वाली गरारियों की तलाश की तो वे नहीं मिलीं। शायद मैं घर बदलते समय उन्हें पडौस के किसी बच्चे को भेंट कर आया था। योगेश भी पढ़ाई के कारण नहीं आ सका। मैं ने उसे संक्रान्ति पर शकूर भाई के घर पतंग उड़ाने के लिए चलने को कहा, वह उस के लिए भी राजी था। दोनों बहन भाई एक बजे तक आने वाले थे, लेकिन दो बजे तक नहीं आए। फिर ढाई बजे उन का फोन मिला कि उन के पिता आ गए हैं। वे नहीं आ सकेंगे। मैं समारोह के लिए रवाना हो गया।
रघुराज सिंह हाड़ा को सृजन-सद्भावना सम्मान देते हुए अंबिका दत्त और कवि मयूख
मैं पहुँचा तब तक श्वेत कपोत अपनी उड़ान भर चुके थे और अतिथियों ने सद्भावना संदेश लिखी पतंगें हस्ताक्षर कर उड़ाईं और फिर छोड़ दीं, ताकि लूटने वालों को भी सद्भावना का संदेश मिले। आज समारोह में हाडौती के वरिष्ठतम कवि, गीतकार, लेखक आदरणीय रधुराज सिंह जी हाड़ा का सम्मान होना था। वह आरंभ होने वाला था। उन की उम्र 78 वर्ष की है। मेरे पिता जी होते तो उन से सिर्फ 4 वर्ष बड़े होते। मैं जिस वर्ष में पैदा हुआ था उस साल वे अध्यापक हो चुके थे। जिस विद्यालय में उन का पहला पदस्थापन हुआ वहाँ मेरे पिताजी पहले से अध्यापक थे। कस्बे में यह मान्यता थी कि छात्र यदि ट्यूशन न पढ़ेगा तो अवश्य ही फेल होगा या निम्न दर्जा प्राप्त करेगा। दोनों को इस मान्यता ने बहुत कचोटा। दोनों ने तय किया कि वे इस मान्यता को बदल डालेंगे। दोनों ने विद्यालय में होने वाली प्रार्थना सभा में घोषणा करना आरंभ कर दिया कि किसी को ट्यूशन करने की कोई आवश्यकता नहीं है, कोई भी बालक उन के यहाँ कभी भी पढ़ने आ सकता है। रघुराज जी उसे हिन्दी और अंग्रेजी पढ़ाते और पिता जी गणित, भूगोल, सामाजिक विज्ञान  और विज्ञान। यह भी घोषणा वे करते कि किसी भी विद्यार्थी को कोई भी परेशानी हो वह हमें रास्ते में रोक कर भी पूछ सकता है। पहले उस की समस्या हल होगी, बाद में और काम। आखिर ट्यूशन का वह मिथक टूट गया।
शकूर अनवर पुस्तकें भेंट करते हुए





घुराज जी का रचना कर्म विद्यार्थी जीवन में ही आरंभ हो चुका था। वे हाडौती और हिन्दी के मीठे गीतकार हैं। उन की रचनाओं को जहाँ हाड़ौती के जनमानस ने गाया है वहीं अगली पीढ़ी के रचनाकारों को मार्ग भी दिखाया। अभी तक उन की बीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं और उन की रचनाएँ विद्यालयी पुस्तकों में पढ़ाई जाती हैं। कुछ विद्यार्थी उन के रचनाकर्म पर शोध कर डिग्रियाँ हासिल कर चुके हैं। आज उन का सम्मान कर के वस्तुतः विकल्प परिवार ने स्वयं को सम्मानित महसूस किया। इस अवसर पर मुख्य अतिथि हिन्दी के प्रसिद्ध कवि बशीर अहमद मयूख थे। आज कवि मयूख का एक और नया रूप देखने को मिला जब उन्हों ने रघुराज जी के सम्मान में स्वयं बाँसुरी वादन कर सभी उपस्थित जनों को चकित कर दिया। समारोह में नगर के हिन्दी, उर्दू, हाडौती कवि उपस्थित थे। बाद में देर शाम तक काव्य गोष्ठी चलती रही।
ह अद्भुत समारोह कोटा नगर की अमूल्य थाती बन चुका है, जिस में उपस्थित होना नगर के साहित्यकार अपना गौरव समझते हैं। आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि ऊपर की छत से जहाँ अंधेरा घिर आने तक सद्भावना संदेश लिए पतंगें अनवरत उड़ाई जाती रहें, उसी छत के नीचे एक समारोह चलता रहे जिस में सृजनकारों के साथ शकूर के परिवार जन और मुहल्ले के लोग दर्शक-श्रोता बने आनंद लेते रहें। बीच-बीच में घर की महिलाएँ सब के लिए तिल के लड्डू और अन्य व्यंजनों के साथ चाय की व्यवस्था करें। यह समारोह एक अलग ही तरह का आनंदोत्सव हो जाता है।
काव्य गोष्ठी
मारोह ने मुझे आज अपने पिता के एक आरंभिक साथी के साथ कुछ घंटे बिताने का अवसर दिया। समारोह के उपरांत रघुराज जी को अपने गृहनगर झालावाड़ जाना था। मैं ने उन्हें बस तक छोड़ने का अवसर तुरंत लपका। जिस से मैं अपने पिता के साथी के साथ कुछ समय और बिता सकूँ। आज के समारोह में मुझे कई रत्न मिले जिन्हें मैं समय-समय पर आप के साथ साझा करूँगा। इन में दिवंगत कवि-रंगकर्मी शिवराम पर लिखी एक कविता, रघुराज सिंह जी का एक काव्य संग्रह, शकूर अनवर की कुछ ग़ज़लें  और समारोह में रघुराज सिंह जी के सम्मान में बशीर अहमद 'मयूख' द्वारा किया गया बाँसुरी वादन शामिल हैं।

सोमवार, 26 जुलाई 2010

जहर सुकरात पी गए होंगे, हमसे यूं आचमन नहीं होता...

24 जुलाई को राजस्थान साहित्य अकादमी व प्रयास संस्थान के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित ‘लेखक से मिलिए’ कार्यक्रम में चूरू राजस्थान के श्रोताओं का साक्षात्कार हुआ कोटा के जन कवि महेंद्र नेह से। उन्हों ने इस कार्यक्रम में एक से बढकर एक कविता, गीत और गजलों के जरिए वर्तमान व्यवस्था और समय की विद्रूपताओं पर करारा प्रहार करते हुए श्रोताओं का मन मोह लिया। अपनी पहली कविता ‘कल भिनसारे में उठकर चिड़ियाओं की चहचहाट सुनूंगा’ से उन्हों ने वर्तमान में भौतिकवाद की दौड़ में अंधे मनुष्य की अधूरी स्वप्निल आंकाक्षाओं को स्वर दिए तो ‘क्या सचमुच तुम्हारे पास सुनाने के लिए कोई अच्छी खबर नहीं’ से इलेक्ट्रॉनिक चैनलों और मीडिया की सनसनीधर्मिता पर करारा प्रहार किया। नेह ने ‘चिनगी-चिनगी बीनती फिर भी नहीं हताश, वह कूड़े के ढेर में जीवन रही तलाश’ जैसे अपने दोहों पर भी श्रोताओं की खूब दाद पाई। उन की ‘जान मुश्किल में आ गई होगी’, ‘अंधी श्रद्धा में प्रण नहीं होता’, ‘सच के ठाठ निराले होंगे’ और ‘हम दिले नादान को समझा रहे हैं दोस्तों’ जैसी गजलों को श्रोताओं ने मुक्तकंठ से सराहा। ‘एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ, बाज से तंग आ गई होगी’ और ‘जहर सुकरात पी गए होंगे, हमसे यूं आचमन नहीं होता’ जैसे शेरों पर श्रोता मंत्र मुग्ध हुए और उन के मुहँ से निकलने वाली 'वाह-वाह’ की ध्वनियाँ थमते ही न बनी। नेह जी ने नई भाव-भूमि और जनवादी पृष्ठभूमि पर रचे गए अपने गीतों ‘हम सर्जक हैं समय सत्य के’, ‘सड़क हुई चौड़ी मारे गए बबुआ’, ‘थाम लो साथी मशालें’, ‘महाविपत्ति के रंगमंच में’ से वर्तमान समाज और राजनीति की विसंगतियों पर चोट करते हुए ‘क्षार-क्षार होंगे सिंहासन, बिखरेंगे सत्ता के जाले’ के जरिए क्रांति का आह्वान कर सभागार में मौजूद हर एक को सोचने पर मजबूर कर दिया।
स मौके पर महेंद्र नेह ने कहा कि सृजन कभी अंधानुकरण नहीं हो सकता। हमें चीजों को एकांगी रूप में नहीं, बल्कि व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए और उनमें अंतर्निहित सच्चाइयों की तह में जाना चाहिए। किसी भी व्यवस्था में सब कुछ अच्छा या सब कुछ बुरा नहीं होता। लेकिन एक साहित्यधर्मी को गलत के खिलाफ हमेशा डटे रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि जिन बातों और चीजों के असर से हम मर मिटने को तैयार हो जाते हैं, वे ही हमारे जीवन की सबसे अनमोल चीजें होती हैं। सत्ता और व्यवस्था के दमन चक्र ने हमेशा स्वाभिमानी साहित्यधर्मियों को ठुकराया है लेकिन सृजनधर्मियों को इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए। हमें यह मानते हुए कि परंपरा में सब कुछ अनुकरणीय और श्रेष्ठ नहीं है, तर्कसंगत ज्ञान का अवधारण करना ही होगा। वर्गों में बंटे समाज में हमें फैसला करना ही होगा कि हम वास्तव में किसकी तरफ हैं। समाज में प्रत्येक चीज का निर्माण श्रमजीवी करता है लेकिन दो वक्त की रोटी तक को मोहताज रहता है। महेन्द्र नेह ने इस बात पर जोर दिया कि रचनाकारों के लिए कलात्मकता जरूरी है, लेकिन अपनी स्पष्ट विचारधारा और उसके प्रति आग्रह उससे भी अधिक जरूरी है।
मारोह के मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार भंवर सिंह सामौर ने कहा कि महेंद्र 'नेह' की कविता और जिंदगी एक दूसरे में रमे हुए हैं। उन्होंने कहा कि नेह ने आम आदमी की व्यथा को बखूबी व्यक्त किया हैं और उनके शब्दों में गजब की सामर्थ्य है। विशिष्ट अतिथि शिक्षाविद सोहनसिंह दुलार ने कहा कि नेह ने अपनी रचनाओं में वर्तमान की विद्रूपताओं पर कड़ा प्रहार किया है और उनके रचना संसार में आने वाले समय को लेकर उम्मीदें गहराती हैं। अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवि प्रदीप शर्मा ने कहा कि नेह समय के सत्य के कवि हैं जिन्होंने अपनी लेखनी से व्यवस्था पर सटीक व्यंग्य और करारी चोट की है। समीक्षक सुरेंद्र सोनी, वरिष्ठ पत्रकार माधव शर्मा, दूलदान चारण, बाबूलाल शर्मा, अरविंद चूरूवी आदि ने नेह के रचना-संसार पर प्रतिक्रिया करते हुए उन्हें आम आदमी का प्रतिनिधित्व करने वाला सृजनधर्मी बताया।
मारोह में साफा बांधकर तथा शॉल व श्रीफल भेंट कर महेंद्र नेह का सम्मान किया गया। आरंभ में प्रयास संस्थान के संरक्षक वयोवृद्ध बैजनाथ पंवार ने स्वागत भाषण दिया। सहायक जनसंपर्क अधिकारी एवं साहित्यकार कुमार अजय ने सम्मानित साहित्यकार का परिचय दिया। प्रयास संस्थान के अध्यक्ष दुलाराम सहारण, रामगोपाल बहड़, शेरसिंह बीदावत, ओम सारस्वत, उम्मेद गोठवाल अतिथियो ंका माल्यार्पण कर स्वागत किया। संचालन साहित्यकार कमल शर्मा ने किया। साहित्यकार दुलाराम सहारण ने आभार जताया। इस मौके पर नगरश्री के श्यामसुंदर शर्मा, हिंदी साहित्य संसद के शिवकुमार मधुप, कादंबिनी क्लब के राजेंद्र शर्मा, शोभाराम बणीरोत, सुरेंद्र पारीक रोहित, रामावतार साथी, शंकर झकनाड़िया सहित बड़ी संख्या में शहर के प्रबुद्ध साहित्यप्रेमी मौजूद थे। 
......... रिपोर्ट और चित्र श्री दूला राम सहारण, चूरू (राजस्थान) के सौजन्य से 

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

मैं उन्हें खुशदीप जी कहता रहूँ तो क्या वे कम निकटता, कम स्नेह महसूस करेंगे?

 चाची जी
ब मैं पाँच बरस का था तो चाचा जी की शादी हुई। चाची जी घऱ में आ गईं। खिला हुआ गोरा रंग और सुंदर जैसे मंदिर में सजी हुई गौरी हों। उसी साल बी.ए. की परीक्षा दी थी उन्हों ने। तब लड़कियों का मेट्रिक पास करना भी बहुत बड़ा तीर मारना होता था। मैं अक्सर उन के आस पास ही बना रहता। मुझे सब सरदार ही कहा करते थे। स्कूल में नाम दिनेश लिखा गया था। लेकिन चाची जी मुझे हमेशा दिनेश जी कहती थीं। उन का मुझे नाम ले कर पुकारना और फिर पीछे जी लगाना बहुत अच्छा लगा। वे पहली थीं जिन ने मुझे इतनी इज्जत बख्शी थी। इस के बाद तो बहुत लोग जीवन में आए जिन्हों ने उम्र में बड़े होते हुए भी मुझे जी लगा कर पुकारा।
मैं वकालत करने कोटा आया तो यहाँ के अभिभाषकों में सब से वरिष्ठ थे पं. रामशरण जी शर्मा। उन की उम्र मेरे दादा जी के बराबर थी। वे केवल वकील ही नहीं थे। उन का इतर अध्ययन भी था और वे विद्वान थे। सभी उन के पैर छूते थे। उन के पास रहते हुए मुझे बहुत भय लगता था इस बात का कि कहीं ऐसा न हो कि मैं कोई ऐसी बात कह दूँ या कोई ऐसी हरकत कर दूँ जिस से उन्हें बुरा लग जाए। हालांकि इच्छा यह होती थी कि जब भी वे बोल रहे हों उन के आस पास बना रहूँ। उन की आवाज बहुत धीमी और मीठी थी। इतनी धीमी कि लोगों को कान और ध्यान दोनों लगा कर सुनना पड़ता था। अदालत में भी जब वे बहस करते तो भी उन का स्वर धीमा ही रहता था। जज उन की बात को बहुत ध्यान से सुनते थे। जब वे बोलते थे तो अदालत में सन्नाटा होता था। कहीं ऐसा न हो कि उन के बोलने में कोई व्यवधान पड़े। 
क दिन अचानक फोन की घंटी बजी। फोन पर बहुत महीन और मधुर स्वर उभरा - द्विवेदी जी, मैं पंडित रामशऱण अर्ज कर रहा हूँ। 
मैं इस आवाज को सुनते ही हड़बड़ा उठा। मैं ने उन्हें प्रणाम किया। बाद में वे जो कुछ पूछना चाहते थे पूछते रहे मैं जवाब देता रहा। उन के इस विनम्र व्यवहार से मैं उन के प्रति अभिभूत हो उठा था। इस के बाद उन से निकटता बनी। एक दिन उन से खूब बातें हुई। उस दिन मैं ही बोलता रहा, वे अधिकांश सुनते रहे। उन्हों ने कोई टिप्पणी नहीं की। दो-चार दिन बाद उन्हों ने आगे से कहा -मुझे उस दिन तुम्हारी बातों से आश्चर्यजनक प्रसन्नता हुई कि वकीलों में अब भी ऐसे लोग आ रहे हैं जो वकालत की किताबों के अलावा भी बहुत कुछ पढ़ते हैं। फिर उन के पौत्र वकालत में आए। वे अक्सर उन के बारे में मुझ से पूछते कि -हमारा नरेश कैसा वकील है? मुझे जो भी बन पड़ता जवाब देता। 
मेरी आवाज बहुत ऊंची है। जब अदालत में बहस करता हूँ तो अदालत के बाहर तक सुना जा सकता है। लेकिन मुझे मेरी यही आवाज मुझे अच्छी लगती थी। लेकिन पंडित जी से मिलने के बाद बुरी लगने लगी। मुझे लगा कि मुझे धीमे बोलने की आदत डालना चाहिए जिस से लोग मुझे ध्यान से सुनें और उस पर गौर करें। मेरा व्यवहार छोटे से छोटे व्यक्ति के साथ भी मधुर, विनम्र और सम्मानपूर्ण होना चाहिए। मैं तभी से यह प्रयास करता रहा हूँ कि मैं ऐसा कर सकूँ। मैं अभी तक इस काम में सफल नहीं हो सका हूँ, लेकिन प्रयत्नशील अवश्य हूँ। 
ल खुशदीप जी ने मुझे कहा कि मैं उन्हें खुशदीप कहूँ तो उन्हें खुशी होगी। उन का कहना ठीक है। शायद वे इसी तरह मुझ से अधिक आत्मीयता महसूस करते हों। लेकिन मैं जो कुछ सीखने का प्रयत्न कर रहा हूँ उस में तो यह बाधा उत्पन्न करता ही है। यदि मैं उन्हें खुशदीप जी कहता रहूँ तो क्या वे कम निकटता, कम स्नेह महसूस करेंगे? मुझे लगता है कि उन्हें इस से बहुत अंतर नहीं पड़ेगा। मेरी कोशिश यही रहेगी कि मैं सभी से ऐसा ही व्यवहार कर सकूँ। मैं तो कहता हूँ कि मेरे सभी पाठक यदि अपने से उम्र में छोटे-बड़े सभी लोगों से ऐसा व्यवहार कर के देखें।  वे अपने बच्चों और पत्नी या पति को जिस भी नाम से पुकारते हैं उस के अंत में जी लगा कर संबोधित कर के देखें, और लगातार कुछ दिन तक करें। फिर बताएँ कि वे कैसा महसूस करते हैं। 

रविवार, 29 नवंबर 2009

वित्तीय पूँजी ने आर्थिक ही नहीं सांस्कृतिक संकट भी उत्पन्न कर दिया है -डा. जीवन सिंह


विश्वम्भर नाथ चतुर्वेदी ‘शास्त्री’ स्मृति समारोह में महेन्द्र नेह के कविता-संग्रह ‘थिरक उठेगी धरती’ का लोकार्पण
डा. जीवन सिंह, शिवराम व रमेश प्रजापति का सम्मान


हिन्दी व संस्कृत के यशस्वी विद्वान विश्वम्भर नाथ चतुर्वेदी ‘शास्त्री’ की स्मृति में विगत 8 वर्षों से लगातार  आयोजित किया जा रहा स्मृति-समारोह विशिष्ट साहित्यिक विमर्श और सम्मान के कारण मथुरा नगर की साहित्यिक गतिविधियों में विशिष्ट स्थान प्राप्त कर चुका है।  इस बार 23 नवम्बर को आयोजित समारोह  "यह दौर और कविता" विषय पर आयोजित परिचर्चा, जनकवि महेन्द्र 'नेह' के कविता संग्रह ‘थिरक उठेगी धरती’ का लोकार्पण, साहित्यिक अन्ताक्षरी की प्रस्तुति तथा रविकुमार की कविता पोस्टर प्रदर्शनी  के कारण मथुरा  नगर का एक चर्चित समारोह बन गया।  का0 धर्मेन्द्र स्मृति सभागार में आयोजित साहित्यिक समारोह में आमंत्रित साहित्यकारों के साथ-साथ बड़ी संख्या में ब्रज-क्षेत्र के प्रमुख रचनाकारों, बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भाग लिया।

मारोह के मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध समीक्षक डा0 जीवन सिंह थे। उन्हों ने चर्चा करते हुए कहा कि वर्तमान दौर मे वित्तीय पूँजी ने भारतीय समाज के समक्ष न केवल अभूतपूर्व वित्तीय संकट खड़ा कर दिया है अपितु सामाजिक-सांस्कृतिक संकट भी खड़ा कर दिया है।  जिस के कारण समाज की उत्पादक शक्तियों किसानों-मजदूरों व आम आदमी का जीवन यापन कठिन हो गया है। मीडिया नये नये भ्रमों की सृष्टि करके मानवता के इस संकट को बढ़ा रहा है।  उन्हों ने इस अवसर पर जन कवि महेन्द्र नेह के कविता संग्रह  "थिरक उठेगी धरती" का लोकार्पण करते हुए कहा कि महेन्द्र की ये कविताऐं व्यवस्था की जकड़बंदी के विरूद्ध प्रतिरोध जगाती हैं  और जन गण के आशामय भविष्य की ओर संकेत करती हैं। इन कविताओं में लोक जीवन की संवेदनाऐं व प्रकृति की थिरकन रची-बसी है।
सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और ‘अभिव्यक्ति’ के संपादक शिवराम ने कहा कि शास्त्री जी के जीवन में जो भाव व मूल्यबोध था, वही उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक सक्रियता की बुनियाद था। सभ्यता और संस्कृति का निर्माण शोषण व उत्पीड़न पर जीवित अनुत्पादक शक्तियाँ नहीं कर सकतीं। अभावों और संघर्षों में जीने वाले ही नयी व बेहतर संस्कृति का निर्माण करते हैं।  उन्होंने कहा कि महेन्द्र 'नेह' की कविताऐं हमारे जीवन की वास्तविकताओं को सामने रखती हैं तथा सामाजिक परिवर्तन की ओर प्रेरित करती हैं।
दिल्ली से आए वरिष्ठ साहित्यकार ‘अलाव’ के संपादक राम कुमार ‘कृषक’ ने परिचर्चा में भाग लेते हुए कहा कि हिंदी की समकालीन कविता में आधुनिकता के नाम पर जीवन की वास्तविकताओं से पलायन व जन पक्षधरता नष्ट होने की आशंकाऐं बढ़ रहीं हैं। उन्होंने कहा कि महेन्द्र नेह की कविताओं का वैचारिक परिप्रेक्ष्य सिर्फ मनोलोक से जन्म नहीं लेता बल्कि अपने समय के यथार्थ और आम आदमी की कठिनाइयों से उपजता है। नेह की कविता जनता से सीधे जुड़ाव और जन परम्परा के विस्तार की कविता है।
दिल्ली के युवा कवि रमेश प्रजापति ने ‘थिरक उठेगी धरती’ में शामिल कविताओं को वर्तमान दौर में प्रकृति समाज और संस्कृति की धड़कनों को व्यक्त करने वाली क्रान्तिधर्मी कविताऐं बताया। कार्यक्रम का संचालन करते हुए शिवदत्त चतुर्वेदी ने कहा कि शास्त्री जी की स्मृति में आयोजित यह समारोह नगर की मूल्यवान परम्परा और प्रगतिशील जनवादी संस्कृति का सांझा अभियान बन गया है।

वि महेन्द्र 'नेह' ने अपने नये काव्य-संग्रह ‘थिरक उठेगी धरती’ से प्रतिनिधि रचनाओं का पाठ करते हुए कहा कि मेरी कविताऐं यदि इस धरती और लोक की व्यथा और इसकी गौरवशाली स्वातंत्र्य चेतना की अभिव्यक्ति बन पाती हैं तो मैं समझूँगा कि मैं इस माटी व समाज के प्रति अपने ऋण और दायित्व को चुका रहा हूँ। इस अवसर पर  डा. जीवन सिंह, शिवराम व रमेश प्रजापति का सम्मान किया गया।

मारोह की अध्यक्षता कर रहे साहित्यकार डा0 अनिल गहलौत ने कहा कि वर्तमान अर्थ पिशाची दौर ने मध्यवर्ग को साहित्य और संस्कृति से दूर करके अर्थ के सम्मोहन में बांध दिया है। महेन्द्र 'नेह' की कविताऐं इस दौर में धन की लिप्सा और उसके प्रभुत्व को चुनौती देने वाली प्रेरणादायक कविताऐं हैं।
मारोह में कानपुर से पधारे परेश चतुर्वेदी एवं आस्था चतुर्वेदी ने महेन्द्र नेह की कविताओं की कलात्मक प्रस्तुति की। उपेन्द्र नाथ चतुर्वेदी, विपिन स्वामी एवं पं. रूप किशोर शर्मा ने साहित्यिक अन्ताक्षरी के युग को जीवित करते हुए श्रेष्ठ कविताओं की सस्वर प्रस्तुति से श्रोताओं को रोमांचित कर दिया। राजस्थान के प्रसिद्ध चित्रकार रवि कुमार द्वारा बनाये गये कविता पोस्टरों ने कार्यक्रम स्थल को जन पक्षधर कविता व चित्रकला का आधुनिक तीर्थ बना दिया। सभी उपस्थित रचनाकारों व दर्शकों ने उनकी कविता पोस्टर प्रदर्शनी की भरपूर सराहना की। आयोजकों की ओर से मधुसूदन चतुर्वेदी व डा.डी.सी. वर्मा ने सभी उपस्थित श्रोताओं का आभार प्रदर्शन किया। समारोह के अंत में ‘वर्तमान साहित्य’ के संपादक जनवादी साहित्यकार डा.के.पी. सिंह व जन कवि हरीश भादानी के निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया गया एवं उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई।


 प्रस्तुति- उपेन्द्र नाथ चतुर्वेदी
                                       

शनिवार, 7 मार्च 2009

अधिवक्ता संघ दुर्ग ने किया विधि ब्लागिरी का सम्मान

अधिवक्ता संघ के सचिव श्री ओम प्रकाश शर्मा बैठक का संचालन करते हुए
अधिवक्ता संघ दुर्ग शायद देश का पहला जिला स्तरीय अधिवक्ता संघ है जो जुलाई 2008 से अपना मासिक अखबार संचालित करता है और उस का नेट संस्करण भी ब्लाग के माध्यम से प्रस्तुत करता है।  यह नेट संस्करण ही मेरा इस संघ के साथ संपर्क का माध्यम बना।  दुर्ग अधिवक्ता संघ के कार्यालय का कमरा न्यायालय परिसर में ही प्रथम तल पर स्थित कोई 12 गुणा 20 फुट के कमरे में स्थित था।  उसे एक बैठक की तरह सजाया हुआ था।  एक तरफ चार पांच कुर्सियाँ लगी थीं उन के सामने मेज थी और उस के सामने मेज की ओर मुँह किए शेष कुर्सियां लगी थीं कुल बीस-पच्चीस व्यक्तियों के बैठने की व्यवस्था। मुझे भी चार कुर्सियों में से एक पर बैठने को कहा गया वहाँ पहले से अधिवक्ता संघ की अध्यक्षा सुश्री नीता जैन, सचिव ओम प्रकाश शर्मा मौजूद थे।  हमारे वहाँ पहुँचने के कुछ देर बाद ही औपचारिक बैठक आरंभ हुई। सचिव शर्मा जी ने कार्यक्रम का संचालन किया अतिथि (मैं) और अध्यक्षा को माल्यार्पण और बुके भेंट के बाद मुझ से इंटरनेट की वकीलों के लिए उपयोगिता पर प्रकाश डालने को कहा गया। 
 अभिभाषक वाणी के संपादक शकील अहमद सिद्दीकी बोलते हुए
मैं ने उन्हें बताया कि हमारी पीढ़ी तो शायद इंटरनेट का उपयोग बहुत ही कम कर पाए लेकिन आने वाली पीढी़ का काम इस के बिना नहीं चलेगा।  सर्वौच्च न्यायालय के 1950 से ले कर आज तक के सभी महत्वपूर्ण निर्णय सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर मुफ्त उपलब्ध हैं और 2000 के बाद तो लगभग सभी उच्चन्यायालयों के निर्णय भी उपलब्ध होने लगे हैं।  आज जब सैंकड़ों की संख्या में विधि जर्नल प्रकाशित होने लगे हैं।  महत्वपूर्ण निर्णयों तक पहुँचना कठिन हो चला है।  आगे आने वाले वर्षों में और भी कठिन होता जाएगा।  उन तक पहुँच केवल इंटरनेट के माध्यम से ही संभव हो सकेगी।  तब बिना इंटरनेट की सुविधा के वकील को योग्य वकील ही नहीं समझा जाएगा।  जैसे मुवक्किल आज वकील के दफ्तर की किताबों की संख्या को देख कर वकील की योग्यता का अनुमान करता है। तब प्रत्येक वकील के दफ्तर में एक कंप्यूटर और इंटरनेट कनेक्शन आवश्यक होगा।
स्वागत और परिचय
मुफ्त साधनों के साथ बहुत से डा़टाबेस भी उपलब्ध हैं। जिनका हम उपयोग कर सकते हैं जहाँ सभी निर्णयों के साथ साथ वकालत की अन्य सामग्री भी तुरंत उपलब्ध हो सकती है।  अधिकांश कानून और नए संशोधनों की जानकारी अभी भी इंटरनेट के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है।  लोग इस का उपयोग प्रारंभ करें तो जल्द ही उस के बहुत से नतीजे भी सामने आने लगेंगे।  मैं ने उन्हें तीसरा खंबा, जूनियर कौंसिल, अभिभाषक वाणी और अदालत ब्लॉगों के बारे में भी बताया।  यह सौभाग्य ही था कि तीनों के मॉडरेटर या प्रतिनिधि वहाँ उस बैठक में उपस्थित थे।  मैं ने अदालतों की कमी और साधनों की कमी के बारे में उन्हें बताया और यह भी कहा कि हम वकील यदि छोटी छोटी समस्याओं पर काम बंदी के स्थान पर अदालतों की संख्या वृद्धि और साधनवृद्धि के मामले में आंदोलित हों तो सरकारों को चेतन होना पड़ेगा।  वकीलों के आंदोलित हुए बिना इस समस्या की ओर सरकारें ध्यान नहीं देंगी।   इस छोटी सी बैठक को अधिवक्ता संघ की अध्यक्षा सुश्री नीता जैन ने भी संबोधित किया।  सभा का संचालन न केवल रोचक था अपितु काव्यत्मक भी था।  अनपेक्षित रूप से मुझे संघ की ओर से श्रीफल और एक शॉल भी एक सम्मान पत्र के साथ भेंट किया गया।
स्वागत और परिचय
इस संक्षिप्त सभा के उपरांत कार्यकारिणी ने हमारे साथ पास ही एक रेस्तराँ में दोपहर का भोजन किया।  वहाँ से  अभिभाषक वाणी के संपादक शकील अहमद सिद्दीकी, संजीव तिवारी और कुछ अन्य अधिवक्ता मुझे स्टेशन तक छोड़ने भी आए पाबला जी और वैभव तो साथ थे ही।  अधिवक्ता संघ दुर्ग ने जो सम्मान मुझे दिया वह केवल मेरा सम्मान नहीं था।  वह मेरी सवा वर्ष की कानून और न्याय व्यवस्था से संबंधित ब्लागिरी और हि्दी ब्लागिरी का भी सम्मान था।  यह इस बात का भी द्योतक था कि ब्लागिरी केवल व्यक्तिगत विचारों को प्रकट करने का साधन नहीं है। अपितु यदि इस का उपयोग किया जाए तो यह समाज के विभिन्न भागों को जोड़ने और उपयोगी सूचनाओं को जनसाधारण तक पहुँचाने का एक प्रभावकारी माध्यम भी हो सकती है।

हिन्दी ब्लागिरी का सम्मान
 
छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस के आने तक प्लेटफार्म पर भी बातों का सिलसिला जारी रहा।  एक एक कॉफी वहाँ पी ली गई।  जो मेरी छत्तीसगढ़ की इस संक्षिप्त यात्रा की अंतिम कॉफी थी।  मैं पाबला जी से कह रहा था कि समय की कमी से बहुत कुछ छूट गया है।  मेरी पंकज अवधिया से मुलाकात नहीं हो सकी वे बाहर थे और उसी दिन सुबह लौट कर आए थे, जिस दिन मैं वापस लौट रहा था।  एक और महत्वपूर्ण व्यक्ति जिस से मुलाकात नहीं हो सकी वे अदालत ब्लाग के मॉडरेटर और पाबला जी के साथी लोकेश थे।  अदालत वह ब्लाग है जिस ने तीसरा खंबा को बहुत सहयोग किया।  अदालत यदि महत्वपूर्ण अदालती खबरें हिन्दी ब्लाग जगत तक निरंतर नहीं पहुंचाता तो शायद यह काम सीमित दायरे में रह कर तीसरा खंबा को करना पड़ता और जो काम तीसरा खंबा के माध्यम से अब तक हो सका है वह उतना नहीं हो सका जितना होना चाहिए था।
दुर्ग के एक वरिष्ठ वकील मिलते हुए
ट्रेन आई और मुझे ले कर चल दी।  सब लोग जो मुझे छोड़ने आए थे हाथ हिला कर मुझे विदा कर रहे थे।  मुझे लग रहा था कि मैं अपने पुत्र के अतिरिक्त बहुत कुछ यहाँ छोड़े जा रहा हूँ।  मैं ने बहुत कुछ यहाँ पाया और जो छोडे़ जा रहा हूँ उसे पकड़ने के लिए जल्द ही मुझे वापस यहाँ आना पडे़।
संजीव तिवारी (जूनियर कौंसिल) मैं और बी. एस. पाबला जी

सोमवार, 2 मार्च 2009

अवनींद्र के घर भोजन लेकिन नहीं हो सकी तीसरा खंबा डॉट कॉम की डिजाइनिंग

रायपुर की यह लघु यात्रा बहुत सुखद थी।   पाबला जी के घर वापस भिलाई लौटते रात हो चुकी थी।  सात बजे होंगे।   पहुँचते ही अवनीन्द्र का फोन आ गया।  वह कह रहा था कि भोजन पर पाबला जी का परिवार भी साथ होगा।  लेकिन बच्चे कुछ और कार्यक्रम बना चुके थे और पाबला जी कह रहे थे कि कल आप चले जाएँगे और अवनीन्द्र से संभवतः भिलाई में यह आखिरी मुलाकात हो इसलिए वे हमारे साथ नहीं जाएँगे।  आप लोग घऱ परिवार की बातें कीजिए।  मुझे वे हमारे साथ चलने को बिलकुल सहमत नहीं थे।  मैं ने भी पाबला जी की सोच को सही पाया।  पाबला जी ने आश्वासन दिया कि हम तो यहीं भिलाई में हैं।  कभी भी एक दूसरे के घर भोजन पर आ जा सकते हैं।  मैं ने अवनीन्द्र को कह दिया कि हम दोनों पिता-पुत्र ही आ रहे हैं।  कुछ देर विश्राम कर तरोताजा हो मैं और वैभव अवनीन्द्र के घर पहुँचे।

कुछ देर हम घर परिवार की बातें स्मरण करते रहे, अवनीन्द्र की पत्नी ज्योति ने शीघ्र ही भोजन के लिए बुला लिया।  हम खाने की मेज पर बैठे जो भोज्य पदार्थों से सजी थी।  लगता था कि ज्योति कोई कोर कसर नहीं रखना चाहती थी।  मेरा ज्योति के हाथ का पका भोजन पाने का यह पहला अवसर था।  हम जब भी मिले किसी पारिवारिक भीड़ भरे आयोजन में।   तब उस के हाथ का बना भोजन पाने का अवसर ही  न होता था। भोजन आरंभ हुआ तो जल्दी ही पता लग गया कि ज्योति ने भोजन को स्वादिष्ट बनाने में कोई कसर नहीं रखी थी।  हालत यह हुई कि मेरा सुबह से लिया व्रत  कि आज बिलकुल भी जरूरत से अधिक भोजन नहीं लूंगा, जल्द ही फरार हो गया।  मैं ने छक कर भोजन किया।  मैं ने भोजन की थोड़ी बहुत तारीफ भी की लेकिन जल्द ही अहसास हो गया कि मेरी कितनी भी तारीफ ज्योति की उस शिकायत को कभी दूर नहीं कर पाएगी कि मैं उस के यहाँ ठहरने के स्थान पर पाबला जी के यहाँ क्यों रुका?

मैं ने बताया कि वैभव अभी अप्रेल अंत तक भिलाई में है,  वह शीघ्र ही शायद होस्टल रहने चला जाएगा लेकिन  यहाँ आता रहेगा।  पर यह बात अभी तक अधूरी है।  न वैभव होस्टल में गया और न ही वह अवनीन्द्र के यहाँ अभी तक जा सका।  भोजन के बाद हम देर तक बातें करते रहे और लौट कर पाबला जी के यहाँ आने लगे तो अवनीन्द्र भी साथ हो लिया।  मुझे पान की याद आ रही थी जो मुझे कोटा छोड़ने के बाद अभी तक नहीं मिला था।  हम ने रास्ते में पान की दुकान तलाश करने की कोशिश की तो मुश्किल से एक दुकान मिली। हम बाजार से दूर जो थे।  पान भी जैसा तैसा मिला लेकिन मिला बहुत  सस्ता।  हम पाबला जी के यहाँ पहुँचे तो उन्हों ने अवनीन्द्र को कॉफी के लिए रोक लिया।  हम पाबला जी के कम्प्यूटर कक्ष में जहाँ मैं पिछली रात सोया भी था, आ बैठे।  पाबला जी ने webolutions.in के बैनर पर उन के पुत्र गुरप्रीत सिंह (मोनू) द्वारा बनाई गई वेबसाइट्स बताना आरंभ किया तो पता ही नहीं चला कि कितना समय निकल गया।  एक बार अवनीन्द्र को घर से फोन भी आ गया।  उसे विदा किया तो तारीख बदल चुकी थी।


मेरा इस भिलाई यात्रा का एक सब से बड़ा स्वार्थ था कि मैं पाबला जी पुत्र गुरप्रीत से तीसरा खंबा डॉट कॉम की वेबसाइट डिजाइन करवा सकूँ।  केवल आज की रात थी जब यह काम मैं गुरप्रीत से करवा सकता था।  लेकिन समय इतना हो चुका था और दिन भर में दिमाग इतनी कसरत कर चुका था कि तीसरा खंबा की डिजाइनिंग के बारे में ओवरटाइम कर सकने की उस की हिम्मत शेष नहीं थी।  मैं सोचता रह गया कि आखिर कब और कैसे यह डिजायनिंग हो सकेगी?

चित्र- 1. पाबला जी का घर  2. मैं और अवनीन्द्र  3 पाबला जी के घर का दालान

शुक्रवार, 20 जून 2008

इतनी अकल है, तो एक बार में नहीं लिख सकते?

वाह क्या? सीन है! 

महात्मा मोदी चर्चा में हैं, विश्वविद्यालय में क्या गए, उस के कुलपति गद्गद् और कृतार्थ हो गए।

गुरू वशिष्ठ के घर राम पधारते हैं। शिष्य राम के चरण पखारते हैं। राम हैं कि जाते ही गुरू चरण वन्दना में जुट जाते हैं।  

विश्वामित्र दशरथ के यहाँ जाते हैं, दशरथ द्वार तक जाते हैं, और ऋषि के चरण पखारते हैं, उच्चासन पर बिठाते हैं खुद नीचे बैठे हैं।

सीन पढ़ कर निर्देशक दहाड़ता है.....

फाड़ कर फेंक दो! सीरियल पिटवाना है क्या? दुबारा लिखो!

स्क्रिप्ट राइटर दुबारा लिखता है...........

गुरू वशिष्ठ के घर राम पधारते हैं। शिष्य राम को माला पहनाते हैं, गुरू जी,  महाराजा राम के चरण पखारते हैं। राम हैं कि सीना तान कर सब से बड़े सिंहासन पर खुद आरूढ़ हो जाते हैं। गुरू झुकी मुद्रा में खड़े हैं।  

विश्वामित्र दशरथ के यहाँ जाते हैं, दशरथ समाचार सुन कर कहते हैं. स्वागत कक्ष में बिठाओ,  कहना अभी प्रांत संचालक से मशविरा चल रहा है। विश्वामित्र डेढ़ घंटे इन्तजार करते हैं। बुलावा आता है। दीवाने खास में विश्वामित्र पहुँच कर सिर झुका कर नमन करते हैं। राम कह रहे हैं। मास्टर जी, हम अब चक्रवर्ती हो गए हैं। जरा समय ले कर आया कीजिए।

सीन पढ़ कर निर्देशक फिर दहाड़ता है.....

इतनी अकल है, तो एक बार में नहीं लिख सकते?

रविवार, 13 जनवरी 2008

खतरा ! किस किस को ? किस किस से?

जी हाँ। यह खतरा है। सावधान हो जाइये। जब भी कोई प्रस्ताव करे कि आप को सम्मानित किया जाए, तो तुरन्त सावधान हो जाइए। सम्मान की मांग करने वाला समझता है कि आप उस के लिए खतरा हैं। आप ने संन्यास ले लिया, फिर भी आप खतरा हैं। कब माया आप को खींच ले और आप संन्यास से वापस लौट आएं? संन्यास को पक्का करने के लिए, ज़रूरी है, आप का सम्मान होना। इस से संन्यास पक्का होता है। उसी तरह जैसे रंगे हुए कपड़े को नमक के घोल में खौला कर सुखा लेने के बाद उस का रंग पक्का हो जाता है।

आडवाणी ने कहा मैं नहीं मानता, वाजपेयी (अन्न से बना पेय पदार्थ सेवन करने का आदी) तब पुनः प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार नहीं हो जाएगा, जब लोग कहेंगे कि हम वाजपेयी के प्रधानामंत्रित्व को ही समर्थन दे सकते हैं। इसे नमक के घोल में
खौला कर सुखाओ।

नमक का घोल कहाँ है? भारत सरकार के गृह मंत्रालय के पास? वह कान में रुई दिए बैठा है।

इधर काँग्रेस में हल्ला हो गया। काँग्रेसी सोचने लगे सोनिया जी से किसे खतरा है? किसी को लगा, अभी सीपीएम से। वहाँ कौन? बुद्धदेव? वह पिट गया नन्दीग्राम में, उस ने अभी सन्यास भी नहीं लिया। उस का क्या खौलाएं नमक घोल में। तो फिर कौन? ज्योति बाबू? यह सही है। वे संन्यास के बाद भी खूब बोलते हैं। पुरानी गलती कभी भी सुधार सकते हैं। इन के संन्यास को डुबोना आवश्यक। मीडिया में स्टेटमेण्ट आ गया- ज्योति बाबू हमारी तरफ से लाइन में। लालू ने हाथ खड़ा कर समर्थन कर दिया। खौला ही दो। हम तो पहिले ही
खौला देना चाहते थे। अब कंधा लगाने वालों में नम्बर वन हो लूँ, बाकी देखा जाएगा।

माया ने अपना अवसर देखा। लोगों का ध्यान उन की ओर जा ही नहीं रहा है, आडवाणी,लालू नम्बर लगा चुके, मैं पीछे कैसे? रात को शमशान जगाया, गुरू का भूत हाजिर। जय गुरवैः नमः।

उत्तर। उत्तर। उत्तर। ये उत्तर वाले बड़े बदमाश हैं। दक्षिण की ओर झांकते ही नहीं,पक्का रंग तो दक्षिण में है। नमक घोल की कोई जरूरत ही नहीं। करुणानिधि को भूल गए। हल्ला शुरू। किसी और का नम्बर आया तो पाँच-दस अग्निदाह करवा देंगे।

अभी लिस्ट अधूरी है, और नाम आने बाकी हैं, नमक घोल में
खौलाने के लिए।
इस बीच सीपीएम ने लेनिन का पाठ पढ़ा ' एक कदम पीछे, दो कदम आगे' और पीछे हट गयी।
औरों के पास कोई लेनिन नहीं। पीछे कैसे हटें?