रायपुर की यह लघु यात्रा बहुत सुखद थी। पाबला जी के घर वापस भिलाई लौटते रात हो चुकी थी। सात बजे होंगे। पहुँचते ही अवनीन्द्र का फोन आ गया। वह कह रहा था कि भोजन पर पाबला जी का परिवार भी साथ होगा। लेकिन बच्चे कुछ और कार्यक्रम बना चुके थे और पाबला जी कह रहे थे कि कल आप चले जाएँगे और अवनीन्द्र से संभवतः भिलाई में यह आखिरी मुलाकात हो इसलिए वे हमारे साथ नहीं जाएँगे। आप लोग घऱ परिवार की बातें कीजिए। मुझे वे हमारे साथ चलने को बिलकुल सहमत नहीं थे। मैं ने भी पाबला जी की सोच को सही पाया। पाबला जी ने आश्वासन दिया कि हम तो यहीं भिलाई में हैं। कभी भी एक दूसरे के घर भोजन पर आ जा सकते हैं। मैं ने अवनीन्द्र को कह दिया कि हम दोनों पिता-पुत्र ही आ रहे हैं। कुछ देर विश्राम कर तरोताजा हो मैं और वैभव अवनीन्द्र के घर पहुँचे।
कुछ देर हम घर परिवार की बातें स्मरण करते रहे, अवनीन्द्र की पत्नी ज्योति ने शीघ्र ही भोजन के लिए बुला लिया। हम खाने की मेज पर बैठे जो भोज्य पदार्थों से सजी थी। लगता था कि ज्योति कोई कोर कसर नहीं रखना चाहती थी। मेरा ज्योति के हाथ का पका भोजन पाने का यह पहला अवसर था। हम जब भी मिले किसी पारिवारिक भीड़ भरे आयोजन में। तब उस के हाथ का बना भोजन पाने का अवसर ही न होता था। भोजन आरंभ हुआ तो जल्दी ही पता लग गया कि ज्योति ने भोजन को स्वादिष्ट बनाने में कोई कसर नहीं रखी थी। हालत यह हुई कि मेरा सुबह से लिया व्रत कि आज बिलकुल भी जरूरत से अधिक भोजन नहीं लूंगा, जल्द ही फरार हो गया। मैं ने छक कर भोजन किया। मैं ने भोजन की थोड़ी बहुत तारीफ भी की लेकिन जल्द ही अहसास हो गया कि मेरी कितनी भी तारीफ ज्योति की उस शिकायत को कभी दूर नहीं कर पाएगी कि मैं उस के यहाँ ठहरने के स्थान पर पाबला जी के यहाँ क्यों रुका?
मैं ने बताया कि वैभव अभी अप्रेल अंत तक भिलाई में है, वह शीघ्र ही शायद होस्टल रहने चला जाएगा लेकिन यहाँ आता रहेगा। पर यह बात अभी तक अधूरी है। न वैभव होस्टल में गया और न ही वह अवनीन्द्र के यहाँ अभी तक जा सका। भोजन के बाद हम देर तक बातें करते रहे और लौट कर पाबला जी के यहाँ आने लगे तो अवनीन्द्र भी साथ हो लिया। मुझे पान की याद आ रही थी जो मुझे कोटा छोड़ने के बाद अभी तक नहीं मिला था। हम ने रास्ते में पान की दुकान तलाश करने की कोशिश की तो मुश्किल से एक दुकान मिली। हम बाजार से दूर जो थे। पान भी जैसा तैसा मिला लेकिन मिला बहुत सस्ता। हम पाबला जी के यहाँ पहुँचे तो उन्हों ने अवनीन्द्र को कॉफी के लिए रोक लिया। हम पाबला जी के कम्प्यूटर कक्ष में जहाँ मैं पिछली रात सोया भी था, आ बैठे। पाबला जी ने webolutions.in के बैनर पर उन के पुत्र गुरप्रीत सिंह (मोनू) द्वारा बनाई गई वेबसाइट्स बताना आरंभ किया तो पता ही नहीं चला कि कितना समय निकल गया। एक बार अवनीन्द्र को घर से फोन भी आ गया। उसे विदा किया तो तारीख बदल चुकी थी।
मेरा इस भिलाई यात्रा का एक सब से बड़ा स्वार्थ था कि मैं पाबला जी पुत्र गुरप्रीत से तीसरा खंबा डॉट कॉम की वेबसाइट डिजाइन करवा सकूँ। केवल आज की रात थी जब यह काम मैं गुरप्रीत से करवा सकता था। लेकिन समय इतना हो चुका था और दिन भर में दिमाग इतनी कसरत कर चुका था कि तीसरा खंबा की डिजाइनिंग के बारे में ओवरटाइम कर सकने की उस की हिम्मत शेष नहीं थी। मैं सोचता रह गया कि आखिर कब और कैसे यह डिजायनिंग हो सकेगी?
चित्र- 1. पाबला जी का घर 2. मैं और अवनीन्द्र 3 पाबला जी के घर का दालान
7 टिप्पणियां:
ईश्वर सदैव भला ही करता है। 'तीसरा खम्बा' की वेब साइट डिजाइन कराने के लिए आप एक बार फिर भिलाई जाएंगे। इस बार अवनीन्द्रजी के यहां ठहरेंग। उनकी जीवन संगिनी ज्योतिजी की शिकायत दूर हो जाएगी।
किन्तु हमें क्या मिलेगा? हमें मिलेगा, ऐसी ही और कुछ रोचक पोस्टों का प्रतिसाद।
भोजन की तारीफ़ का खतरा यही होता है की मेजबान थाली में और डाल देता है -और सुस्वादु भोजन भी भारी पड़ने लगता है -यही सोचता हूँ की ऐसा नही हुआ होगा !
बहुत अच्छा यात्रा विवरण रहा मानोँ हम भी साथ घूम लिये ..
डीज़ाइनीँग बाद मेँ हो जायेगी
- लावण्या
अच्छा है पर डिजाइन बाद में कर लीजिये ....जबलपुर में यदि आप होते तो मै आधे घंटे में आपका ब्लॉग डिजाइन कर देता . पढ़कर अच्छा लगा बिंदास विचार जानकर
अच्छा है पर डिजाइन बाद में कर लीजिये ....जबलपुर में यदि आप होते तो मै आधे घंटे में आपका ब्लॉग डिजाइन कर देता . पढ़कर अच्छा लगा बिंदास विचार जानकर
बहुत ही सुंदर लगा आप का यह लेख, सुंदर चित्र,
धन्यवाद
यात्रा-विवरण आप बहुत अच्छा लिखते हैं दिनेश जी. पढने पर ऐसा लगता है जैसे हम आप के साथ साथ विचरण कर रहे हैं.
सस्नेह -- शास्त्री
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