@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: चुनावी स्थिति पर एक विचार; क्या दोगे बाबू?

मंगलवार, 24 मार्च 2009

चुनावी स्थिति पर एक विचार; क्या दोगे बाबू?

क्या दोगे बाबू 
                        * दिनेशराय द्विवेदी

कोई जीते, कोई हारे?
बदले जाजम
या बिछी रह जाए
या झाड़ पोंछ कर
फिर बिछ जाए
किस को है मतलब
इन सब से
मतलब बस इतना सा है
चूल्हा अपना जलता रह जाए

वोट बहुत दिया रामू ने
पीले झंडे वालों को
सपना देखा
बदलेगा कुछ तो
जीवन में, पर
कुछ ना बदला

वही किराए का
रिक्षा खींचा
हफ्ता वही दिया
ठोले को
फुटपाथी रसोई की
वही रूखी बाटी खाई
दाल वही बेस्वाद साथ
नींद न आई रातों
इक दिन भी
बिन थैली के साथ
कुछ ना बदला

ये था रामू का हाल
शामू से पूछा तो
थी वही कहानी
रंग बदला था
बस झण्डे का
बाकी सब कुछ
वैसा का वैसा था
कुछ ना बदला

बदल गए हैं
बस रामू शामू
नहीं देखते अब वे
झण्डों के रंगों को
करते हैं सवाल सीधा
क्या दोगे बाबू?
इंतजाम करोगे?
कितनी रातों की नींदों का?

14 टिप्‍पणियां:

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

करते हैं सवाल सीधा
क्या दोगे बाबू?
इंतजाम करोगे?
कितनी रातों की नींदों का?
यथार्थ का चित्रण .

Arvind Mishra ने कहा…

बहुत जोरदार बयाँ आज के हालात का !

Arvind Mishra ने कहा…

बहुत जोरदार बयाँ आज के हालात का !

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

रिक्शा निरंतर चलता रहेगा
पेट अपन तो जलता रहेगा
वोट की इस राजनीति में
गरीब झूठी आशा में छलता रहेगा!!

Abhishek Ojha ने कहा…

कल की भगत सिंह वाली पोस्ट और अब ये... लगातार दो झकझोरने वाली पोस्ट !

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत लाजवाब पोस्त. शुभकामनाएं.

रामराम.

विजय तिवारी " किसलय " ने कहा…

द्विवेदी जी,
भारतीय चुनाव और इन चुनाव के लाभ-हानि पर करारा व्यंग्य है आपकी रचना .
- विजय

हिन्दी साहित्य संगम जबलपुर: क्या शीर्षस्थ नेता योग्य प्रत्याशी चुनने का माद्दा रखते हैं ?

राज भाटिय़ा ने कहा…

करते हैं सवाल सीधा
क्या दोगे बाबू?
इंतजाम करोगे?
कितनी रातों की नींदों का?
एक सच्चा लेकिन करारा सवाल.
बहुत ही सही लिखा आप ने धन्यवाद

अजित वडनेरकर ने कहा…

पंडितजी बहुत जोरदार कविता...अनुरोध यही है कि इस अखाड़े में भी जल्दी जल्दी दांव आज़माइश किया करिये...

Smart Indian ने कहा…

"क्या दोगे बाबू?"
सत्य वचन.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

भाई दिनेशराय द्विवेदी जी।
आपकी कविता एक प्रश्न अपने पीछे छोड़ गयी है। क्या ये भ्रष्ट राजनीतिज्ञ आम आदमी की व्यथा को समझ पायेंगे?
चुनाव का परिवेश बन ही गया है।
फैसला जनता को करना है।
सोच समझकर वोट करने की जरूरत है।
आपकी कविता प्रासंगिक है।
शुभकामनाओं सहित

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

सही लिखा आपने - झण्डे के रंग कुछ हल नहीं करने वाले।
पर चुनाव की प्रॉसेस को इतनी अहमियत क्यों? सरकारें जितनी बदलती हैं, उतनी ही पहले सी रहती हैं!

विष्णु बैरागी ने कहा…

आक्रोश, पीडा, करुणा एक साथ जगती हैं मन में ये पंक्तियां। इन्‍हें अनुभव ही किया जा सकता है।

Ek ziddi dhun ने कहा…

आंदोलनों में सीधे संप्रेषण की क्षमता वाली प्रभावी कविता है।