क्या दोगे बाबू
* दिनेशराय द्विवेदी
कोई जीते, कोई हारे?
या बिछी रह जाए
या झाड़ पोंछ कर
फिर बिछ जाए
किस को है मतलब
इन सब से
मतलब बस इतना सा है
चूल्हा अपना जलता रह जाए
वोट बहुत दिया रामू ने
पीले झंडे वालों को
सपना देखा
बदलेगा कुछ तो
जीवन में, पर
कुछ ना बदला
वही किराए का
रिक्षा खींचा
हफ्ता वही दिया
ठोले को
वही रूखी बाटी खाई
दाल वही बेस्वाद साथ
नींद न आई रातों
इक दिन भी
बिन थैली के साथ
कुछ ना बदला
ये था रामू का हाल
शामू से पूछा तो
थी वही कहानी
रंग बदला था
बस झण्डे का
बाकी सब कुछ
वैसा का वैसा था
कुछ ना बदला
बदल गए हैं
बस रामू शामू
नहीं देखते अब वे
झण्डों के रंगों को
करते हैं सवाल सीधा
क्या दोगे बाबू?
इंतजाम करोगे?
कितनी रातों की नींदों का?
14 टिप्पणियां:
करते हैं सवाल सीधा
क्या दोगे बाबू?
इंतजाम करोगे?
कितनी रातों की नींदों का?
यथार्थ का चित्रण .
बहुत जोरदार बयाँ आज के हालात का !
बहुत जोरदार बयाँ आज के हालात का !
रिक्शा निरंतर चलता रहेगा
पेट अपन तो जलता रहेगा
वोट की इस राजनीति में
गरीब झूठी आशा में छलता रहेगा!!
कल की भगत सिंह वाली पोस्ट और अब ये... लगातार दो झकझोरने वाली पोस्ट !
बहुत लाजवाब पोस्त. शुभकामनाएं.
रामराम.
द्विवेदी जी,
भारतीय चुनाव और इन चुनाव के लाभ-हानि पर करारा व्यंग्य है आपकी रचना .
- विजय
हिन्दी साहित्य संगम जबलपुर: क्या शीर्षस्थ नेता योग्य प्रत्याशी चुनने का माद्दा रखते हैं ?
करते हैं सवाल सीधा
क्या दोगे बाबू?
इंतजाम करोगे?
कितनी रातों की नींदों का?
एक सच्चा लेकिन करारा सवाल.
बहुत ही सही लिखा आप ने धन्यवाद
पंडितजी बहुत जोरदार कविता...अनुरोध यही है कि इस अखाड़े में भी जल्दी जल्दी दांव आज़माइश किया करिये...
"क्या दोगे बाबू?"
सत्य वचन.
भाई दिनेशराय द्विवेदी जी।
आपकी कविता एक प्रश्न अपने पीछे छोड़ गयी है। क्या ये भ्रष्ट राजनीतिज्ञ आम आदमी की व्यथा को समझ पायेंगे?
चुनाव का परिवेश बन ही गया है।
फैसला जनता को करना है।
सोच समझकर वोट करने की जरूरत है।
आपकी कविता प्रासंगिक है।
शुभकामनाओं सहित
सही लिखा आपने - झण्डे के रंग कुछ हल नहीं करने वाले।
पर चुनाव की प्रॉसेस को इतनी अहमियत क्यों? सरकारें जितनी बदलती हैं, उतनी ही पहले सी रहती हैं!
आक्रोश, पीडा, करुणा एक साथ जगती हैं मन में ये पंक्तियां। इन्हें अनुभव ही किया जा सकता है।
आंदोलनों में सीधे संप्रेषण की क्षमता वाली प्रभावी कविता है।
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