बिहार में चुनावी मौसम दस्तक दे चुका है, लेकिन इस बार चर्चा न तो घोषणापत्रों की है, न ही गठबंधनों की। इस बार बहस उस बुनियादी दस्तावेज़ पर है, जो लोकतंत्र की पहली सीढ़ी है—मतदाता-सूची। भारत निर्वाचन आयोग द्वारा 24 जून 2025 को जारी आदेश ने इस प्रक्रिया को एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है, जहां नागरिकता और मताधिकार के बीच एक नई दीवार खड़ी होती दिख रही है।
लोकतंत्र की नींव
पर प्रहार
बिना पर्याप्त तैयारी और प्रशिक्षण के, एक महीने के भीतर नई मतदाता-सूची तैयार करने के निर्देश ने प्रशासनिक अव्यवस्था को जन्म दिया। बीएलओ को फॉर्म
भरवाने, फोटो और हस्ताक्षर लेने की जिम्मेदारी दी गई,
लेकिन समय के दबाव में नियमों की अनदेखी आम हो गई। जनसुनवाइयों और
रिपोर्टों से यह स्पष्ट है कि कई बार केवल आधार कार्ड और फोन नंबर लेकर फर्जी
हस्ताक्षर के साथ फॉर्म अपलोड किए गए। यह प्रक्रिया न केवल अव्यवस्थित थी, बल्कि इसने लोकतंत्र की आत्मा—विश्वसनीयता और समावेशिता—को भी आहत किया
है।
लाखों मतदाता
सूची से बाहर: यह कैसा लोकतंत्र है?
1 अगस्त को जारी मसौदा सूची में 7.24 करोड़
मतदाता शामिल हैं, जबकि पहले की सूची में यह संख्या 7.89
करोड़ थी। यानी लगभग 65 लाख लोग गायब हैं। यह आंकड़ा सिर्फ संख्या नहीं, बल्कि उन नागरिकों की पहचान है जिन्हें उनके मताधिकार से वंचित किया जा
रहा है। क्या यह लोकतंत्र का अपमान नहीं?
नागरिकता साबित
करने की शर्त: एक खतरनाक मोड़
अब मतदाताओं से अपेक्षा की जा रही है कि वे 11
दस्तावेज़ों में से कम से कम एक प्रस्तुत करें, जिससे उनकी
नागरिकता सिद्ध हो सके। सुप्रीम कोर्ट में आयोग द्वारा प्रस्तुत हलफनामे में कहा
गया कि नागरिकता साबित करना अब मतदाता की जिम्मेदारी है। यह एक खतरनाक बदलाव है।
अब तक नागरिकता की जांच केवल संदेह की स्थिति में होती थी, लेकिन
अब यह एक सामान्य शर्त बनती जा रही है। इस तरह कानून की अवधारणा को पूरी तरह उलट
दिया गया है। देश में निवास कर रहे व्यक्ति को यदि कोई (सरकार या कोई भी संस्था)
भी कहता है कि वह नागरिक नहीं है तो इसे साबित करने की जिम्मेदारी उस किसी व्यक्ति,
सरकार या संस्था की है। लेकिन इसे उलटा जा रहा है, यह जिम्मेदारी अब नागरिक पर
डाली जा रही है, यह सरासर गलत है। यह पूरी तरह फासीवादी अवधारणा है और पूरी तरह असंवैधानिक
ही नहीं है, बल्कि उन करोड़ों नागरिकों के लिए अपमानजनक है
जिनके पास ये दस्तावेज़ नहीं हैं।
मनमानी का खतरा
और लोकतंत्र की गिरती साख
निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी (ईआरओ) को यह अधिकार
दिया गया है कि वे तय करें कि कोई व्यक्ति नागरिक है या नहीं। यह अधिकार, यदि बिना पारदर्शी दिशा-निर्देशों के लागू होता है, तो
मनमानी और भेदभाव की आशंका को जन्म देता है। विशेष रूप से गरीब, वंचित और हाशिए पर खड़े समुदायों के लिए यह प्रक्रिया एक नए प्रकार के
उत्पीड़न का माध्यम बन चुका है।
यह सिर्फ बिहार
नहीं, पूरे देश की चिंता है
यह विशेष गहन पुनरीक्षण केवल बिहार तक सीमित
नहीं है। यह पूरे देश में लागू होना है। ऐसे में यह सवाल उठाना जरूरी है—क्या हम
एक समावेशी लोकतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं, या एक ऐसे तंत्र की
ओर, जहां नागरिकता साबित करना ही नागरिक होने की शर्त बन जाए?
मतदाता-सूची का पुनरीक्षण यदि समावेशिता,
पारदर्शिता और संवेदनशीलता के साथ नहीं किया गया, तो यह लोकतंत्र की आत्मा को आहत करेगा। नागरिकता कोई दस्तावेज़ नहीं,
बल्कि एक जीवंत अनुभव है—जिसे हर नागरिक अपने अधिकारों के माध्यम से
जीता है। उसे कागज़ों की कसौटी पर तौलना, लोकतंत्र को कमजोर
करना है।
इस प्रक्रिया पर पुनर्विचार करना आवश्यक है, क्योंकि
सवाल सिर्फ मतदाता-सूची का नहीं, लोकतंत्र की आत्मा को जीवित
बचाने का है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें