कल मेरे घर से कुछ ही दूर एक मकान में नकली घी निर्माण करते और ब्रांडेड सरस घी की पैकिंग में पैक करते हुए कुछ लोग पकड़े गए। यह ब्रांड राजस्थान सरकार द्वारा नियंत्रित सहकारी समिति का उत्पादन है। अब किस का विश्वास किया जाए? अब ब्रांड का भी विश्वास नहीं रहा। क्या है ऐसा जिस पर विश्वास किया जाए?
फल, सब्जियाँ, दूध, कोल्ड ड्रिंक, घी, खाद्य तेल, आटा, दाल, मसाले और मिठाई जो कुछ भी हम खा रहे हैं, कुछ भी तो दुरुस्त नहीं। या तो वे नकली हैं या फिर मिलावटी। आमों में इस साल वैसा स्वाद नहीं था, सब के सब कैल्शियम कार्बाइड से पकाए हुए। नतीजा यह कि आम एक बार घर में आ गया तो एक सप्ताह तक दुबारा लाने की इच्छा तक नहीं होती। जाता है। कैल्शियम कार्बाइड में आंशिक रूप से आर्सेनिक और फास्फोरस पाए जाते हैं। इस से एसिटिलीन गैस निकलती है, जो फलों को शीघ्रता से पका देती है। इस तरह पकाय हुआ फल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। केला सारे का सारा इसी से पकाया जा रहा है। अब उसे खाना भी बंद। गैस के प्रभाव में आकर फल को विकसित करने वाले हार्र्मोस तेजी से सक्रिय हो जाते हैं। कैल्शियम कार्बाइड का इस्तेमाल खाद्य पदार्थो में नहीं किया जाना चाहिए और इसे बच्चों की पहुंच से दूर रखा जाना चाहिए। इसकी सहायता से पकाया जाने वाला फल आकर्षक लगता है और उस पर रंग भी खूब निखरता है।
फल, सब्जियाँ, दूध, कोल्ड ड्रिंक, घी, खाद्य तेल, आटा, दाल, मसाले और मिठाई जो कुछ भी हम खा रहे हैं, कुछ भी तो दुरुस्त नहीं। या तो वे नकली हैं या फिर मिलावटी। आमों में इस साल वैसा स्वाद नहीं था, सब के सब कैल्शियम कार्बाइड से पकाए हुए। नतीजा यह कि आम एक बार घर में आ गया तो एक सप्ताह तक दुबारा लाने की इच्छा तक नहीं होती। जाता है। कैल्शियम कार्बाइड में आंशिक रूप से आर्सेनिक और फास्फोरस पाए जाते हैं। इस से एसिटिलीन गैस निकलती है, जो फलों को शीघ्रता से पका देती है। इस तरह पकाय हुआ फल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। केला सारे का सारा इसी से पकाया जा रहा है। अब उसे खाना भी बंद। गैस के प्रभाव में आकर फल को विकसित करने वाले हार्र्मोस तेजी से सक्रिय हो जाते हैं। कैल्शियम कार्बाइड का इस्तेमाल खाद्य पदार्थो में नहीं किया जाना चाहिए और इसे बच्चों की पहुंच से दूर रखा जाना चाहिए। इसकी सहायता से पकाया जाने वाला फल आकर्षक लगता है और उस पर रंग भी खूब निखरता है।
मैं बचपन में दूध पिया करता था। घर में भैंस थी। उस का स्वाद अभी भूला नहीं गया है। लेकिन उस स्वाद को छोड़ उस के आसपास का दूध भी अब कहीं नहीं मिलता। हम हर तीसरे दिन घर से डेढ़ किलोमीटर दूर दशहरा मैदान में गूजरों के यहाँ जा कर अपने सामने भैंस दुहा कर तीन किलो दूध ले आते हैं। उसी से काम चलता है। यह बाजार के दूध से बेहतर है। बाजार के दूध का कुछ भरोसा नहीं कहीं वह सिंथेटिक न हो? यूरिया, डिटरजेंट और खाद्य तेल से बना हुआ। रोज सुबह जब सब्जी मंडी से आने वाले सब्जी बेचने वाले फेरी लगाते हैं तो यह सोच कर परेशानी होने लगती है कि क्या लिया जाए। भाव तो अपनी जगह हैं। उन की गुणवत्ता का कुछ पता नहीं। पिछले एक माह में केवल दो सब्जियाँ थीं जिन में कुछ स्वाद और गुणवत्ता महसूस हुई। एक कद्दू और दूसरा क्हुळींजरा। कद्दू अक्सर तोड़ कर रख लिया जाता है और जैसे जैसे पकता जाता है बिकता जाता है। क्हुळींजरा बरसात में खेतों में कचरे की तरह उगता है जिसे फसल बचाने के लिए किसान उखाड़ फैंकते हैं। बेकार की चीज होने से यह अभी अपनी मूल शक्ल में मिल जाता है। बस इस के पत्ते को उबाल-निचोड़ कर ही सब्जी बनाई जा सकती है। बाकी सारी सब्जियां कीटनाशकों की शिकार हो चुकी हैं। कहते हैं ताजा और आकर्षक दिखाने के लिए सब्जियाँ रसायनों के घोल से रंगी जाती हैं। अब तो यह भी सुना है कि सब्जियों का आकार बढ़ाने के लिए उनमें आक्सीटोसिन हार्मोस के इंजेक्शन भी लगाए जा रहे हैं।
कुल मिला कर हमें जो मिल रहा है वह वो नहीं जो हमें दिख रहा है। हम खरीदते कुछ हैं और मिल कुछ रहा है। ऐसे में पत्नी जी की पुरानी शैली का रहन-सहन बहुत याद आ रहा है। आटे के लिए साल भर के गेहूँ खरीद कर रखो औऱ हर महिने जरूरत के अनुसार साफ कर पिसाते रहो। बीच बीच में कुछ मोटा अनाज मक्का, ज्वार और बाजरा भी प्रयोग करो। दालों के साबुत बीज खरीदो और दल कर दाल बनाओ। मसाले हल्दी, मिर्च और धनिया फसल के समय साल भर का खरीदो और पिसवा कर स्टोर करो। तेल सीधे मिल से मंगवाओ। और घी उसे तो खाने के लिए अब डाक्टर भी मना कर रहे हैं। फिर भी जो भैंस का दूध हम सामने दुहा कर लाते हैं। उस से जरूरत का निकल आता है। चाय और कॉफी जरूर ब्रांडेड ला रहे हैं और अभी तक उन के मामले में कोई शिकायत नहीं मिली है। यह तो मैं इस लिए कर पा रहा हूँ कि पत्नी इन कामों के लिए पूरा वक्ती कामगार बनी है। लेकिन यह सब सब के लिए संभव नहीं है। फिर सब का गुजारा कैसे हो?
यह सब सरकारों को नियंत्रित करना चाहिए। लेकिन सरकार ने तो सब कुछ मुनाफे की अर्थ व्यवस्था पर छोड़ दिया है। आखिर उस मुनाफे का एक अंश राजनैतिक दलों को भी तो मिलता है जिस से चुनाव लड़ा जाता है और जिस से सरकार बनती है। सरकार के पास इन सब को नियंत्रित करने के लिए मशीनरी है। इंसपेक्टर हैं। लेकिन वे सरकार के कम और इन मुनाफाखोरों के ज्यादा वफादार हैं। आखिर सरकार उन्हें सिर्फ वेतन देती है। ये लोग उसे वेतन के अलावा सब कुछ दे सकते हैं और उन की इच्छानुसार काम न करने पर किसी कालापानी जैसी जगह पर उस का तबादला करवा देते हैं जो सरकार का मिनिस्टर ही करता है। इस मुनाफे की अर्थव्यवस्था को बिना नियंत्रण छोड़ दिया जाए तो यह ऐसा ही व्यवहार करने लगती है। इस पर कठोर नियंत्रण आवश्यक है। लेकिन हमारी व्यवस्था कठोर तो क्या मुलायम नियंत्रण कर पाने में भी असमर्थ है।
तब फिर क्या इलाज है? क्या इस मुनाफे की अर्थ व्यवस्था को ही छोड़ दिया जाए? छोड़ा जाए तो अपनाने के लिए हमारे पास कौन सी अर्थव्यस्था है?