@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: भोजन
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बुधवार, 11 अगस्त 2010

अब खाएँ क्या? और पिएँ क्या?

ल  मेरे घर से कुछ ही दूर एक मकान में नकली घी निर्माण करते और ब्रांडेड सरस घी की पैकिंग में पैक करते हुए कुछ लोग पकड़े गए। यह ब्रांड राजस्थान सरकार द्वारा नियंत्रित सहकारी समिति का उत्पादन है। अब किस का विश्वास किया जाए? अब ब्रांड का भी विश्वास नहीं रहा। क्या है ऐसा जिस पर विश्वास किया जाए?
ल, सब्जियाँ, दूध, कोल्ड ड्रिंक, घी, खाद्य तेल, आटा, दाल, मसाले और मिठाई जो कुछ भी  हम खा रहे हैं, कुछ भी तो दुरुस्त नहीं। या तो वे नकली हैं या फिर मिलावटी। आमों में इस साल वैसा स्वाद नहीं था, सब के सब कैल्शियम कार्बाइड से पकाए हुए। नतीजा यह कि आम एक बार घर में आ गया तो एक सप्ताह तक दुबारा लाने की इच्छा तक नहीं होती। जाता है। कैल्शियम कार्बाइड में आंशिक रूप से आर्सेनिक और फास्फोरस  पाए जाते हैं। इस से एसिटिलीन गैस निकलती है, जो फलों को शीघ्रता से पका देती है। इस तरह पकाय हुआ फल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। केला सारे का सारा इसी से पकाया जा रहा है। अब उसे खाना भी बंद। गैस के प्रभाव में आकर फल को विकसित करने वाले हार्र्मोस तेजी से सक्रिय हो जाते हैं। कैल्शियम कार्बाइड का इस्तेमाल खाद्य पदार्थो में नहीं किया जाना चाहिए और इसे बच्चों की पहुंच से दूर रखा जाना चाहिए। इसकी सहायता से पकाया जाने वाला फल आकर्षक लगता है और उस पर रंग भी खूब निखरता है।
मैं बचपन में दूध पिया करता था। घर में भैंस थी। उस का स्वाद अभी भूला नहीं गया है। लेकिन उस स्वाद को छोड़ उस के आसपास का दूध भी अब कहीं नहीं मिलता। हम हर तीसरे दिन घर से डेढ़ किलोमीटर दूर दशहरा मैदान में गूजरों के यहाँ जा कर अपने सामने भैंस दुहा कर तीन किलो दूध ले आते हैं। उसी से काम चलता है। यह बाजार के दूध से बेहतर है। बाजार के दूध का कुछ भरोसा नहीं कहीं वह सिंथेटिक न हो? यूरिया, डिटरजेंट और खाद्य तेल से बना हुआ। रोज सुबह जब सब्जी मंडी से आने वाले सब्जी बेचने वाले फेरी लगाते हैं तो यह सोच कर परेशानी होने लगती है कि क्या लिया जाए। भाव तो अपनी जगह हैं। उन की गुणवत्ता का कुछ पता नहीं। पिछले एक माह में केवल दो सब्जियाँ थीं जिन में कुछ स्वाद और गुणवत्ता महसूस हुई। एक कद्दू और दूसरा क्हुळींजरा। कद्दू अक्सर तोड़ कर रख लिया जाता है और जैसे जैसे पकता जाता है बिकता जाता है। क्हुळींजरा बरसात में खेतों में कचरे की तरह उगता है जिसे फसल बचाने के लिए किसान उखाड़ फैंकते हैं। बेकार की चीज होने से यह अभी अपनी मूल शक्ल में मिल जाता है। बस इस के पत्ते को उबाल-निचोड़ कर ही सब्जी बनाई जा सकती है। बाकी सारी सब्जियां कीटनाशकों की शिकार हो चुकी हैं। कहते हैं ताजा और आकर्षक दिखाने के लिए सब्जियाँ रसायनों के घोल से रंगी जाती हैं। अब तो यह भी सुना है कि सब्जियों का आकार बढ़ाने के लिए उनमें आक्सीटोसिन हार्मोस के इंजेक्शन भी लगाए जा रहे हैं।
कुल मिला कर हमें जो मिल रहा है वह वो नहीं जो हमें दिख रहा है। हम खरीदते कुछ हैं और मिल कुछ रहा है। ऐसे में पत्नी जी की पुरानी शैली का रहन-सहन बहुत याद आ रहा है। आटे के लिए साल भर के गेहूँ खरीद कर रखो औऱ हर महिने जरूरत के अनुसार साफ कर पिसाते रहो। बीच बीच में कुछ मोटा अनाज मक्का, ज्वार और बाजरा भी प्रयोग करो। दालों के साबुत बीज खरीदो और दल कर दाल बनाओ। मसाले हल्दी, मिर्च और धनिया फसल  के समय साल भर का खरीदो और पिसवा कर स्टोर करो। तेल सीधे मिल से मंगवाओ। और घी उसे तो खाने के लिए अब डाक्टर भी मना कर रहे हैं। फिर भी जो भैंस का दूध हम सामने दुहा कर लाते हैं। उस से जरूरत का निकल आता है। चाय और कॉफी जरूर ब्रांडेड ला रहे हैं और अभी तक उन के मामले में कोई शिकायत नहीं मिली है। यह तो मैं इस लिए कर पा रहा हूँ कि पत्नी इन कामों के लिए पूरा वक्ती कामगार बनी है। लेकिन यह सब सब के लिए संभव नहीं है। फिर सब का गुजारा कैसे हो?
ह सब सरकारों को नियंत्रित करना चाहिए। लेकिन सरकार ने तो सब कुछ मुनाफे की अर्थ व्यवस्था पर छोड़ दिया है। आखिर उस मुनाफे का एक अंश राजनैतिक दलों को भी तो मिलता है जिस से चुनाव लड़ा जाता है और जिस से सरकार बनती है। सरकार के पास इन सब को नियंत्रित करने के लिए मशीनरी है। इंसपेक्टर हैं। लेकिन वे सरकार के कम और इन मुनाफाखोरों के ज्यादा वफादार हैं। आखिर सरकार उन्हें सिर्फ वेतन देती है। ये लोग उसे वेतन के अलावा सब कुछ दे सकते हैं और उन की इच्छानुसार काम न करने पर किसी कालापानी जैसी जगह पर उस का तबादला करवा देते हैं जो सरकार का मिनिस्टर ही करता है।  इस मुनाफे की अर्थव्यवस्था को बिना नियंत्रण छोड़ दिया जाए तो यह ऐसा ही व्यवहार करने लगती है। इस पर कठोर नियंत्रण आवश्यक है। लेकिन हमारी व्यवस्था कठोर तो क्या मुलायम नियंत्रण कर पाने में भी असमर्थ है। 
ब फिर क्या इलाज है? क्या इस मुनाफे की अर्थ व्यवस्था को ही छोड़ दिया जाए? छोड़ा जाए तो अपनाने के लिए हमारे पास कौन सी अर्थव्यस्था है?

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

शर्मा जी के घर रुचिकर स्वादिष्ट भोजन

जोधपुर की यह यात्रा पहली नहीं थी। मेरी बुआ यहाँ रहती थी, फूफाजी विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफेसर थे। उन की बेटियों के ब्याह में कोई पेंतीस बरस पहले यहाँ आना हुआ था। यहाँ पहुँचने के पहले मार्ग में ही एक दुर्घटना में पिताजी को चोट लगी और उनका तत्काल ऑपरेशन हुआ दो सप्ताह बाद पुनः ऑपरेशन हुआ। हमें इतने दिन यहीँ रुकना पड़ा। तब कोई काम नहीं था। गर्मी का मौसम था तो दुपहर बाद सायकिल ले कर निकल पड़ता। इस तरह जोधपुर से पहला परिचय ही गहरा था। फिर कुछ बरस पहले यहाँ वकालत के सिलसिले में आना जाना आरंभ हुआ और अब बार कौंसिल की अनुशासनिक समिति के सदस्य के नाते यहाँ निरंतर आना जाना हो रहा है। ऐसे में यह तो नहीं हो सकता था कि जोधपुर के ब्लागीरों से मिलना न होता। पिछली बार हरि शर्मा जी से भेंट हुई, इस बार उन्होंने एक संक्षिप्त ब्लागीर मिलन की योजना को ही कार्यरूप दे डाला।
मैं ने बार कौंसिल के दफ्तर पहुँचा तो रविवार के अवकाश के कारण वहाँ केवल दो कार्यालय सहायक ही उपस्थित थे। वे भी केवल उस दिन होने वाली सुनवाई के लिए। शिकायत कर्ता अपने साक्षियों के साथ उपस्थित थी। मैं ने कार्यवाही आरंभ होने के पहले ही बता दिया कि हरिशर्मा जी आएँगे। यदि वे कार्यवाही समाप्त होने के पहले आ जाएँ तो उन्हें बैठने को कह दिया जाए। कार्यवाही पूर्ण होने के पहले ही सूचना मिल गई कि वे आ चुके हैं। मैं उस दिन की कार्यवाही पूरी कर उन के पास पहुँचा और हम तुरंत ही उन के घर के लिए चल दिए। ब्लागीर मिलन अशोक उद्यान में रखा गया था। डेढ़ बजे तक वहाँ पहुँचना था। वहाँ सब से पहले शर्मा जी की स्नेहमयी माताजी से भेंट हुई। कुछ माह पहले उन की एक आँख के मोतियाबिंद का ऑपरेशन हो चुका था। और उसी दिन शाम को दूसरी का होने वाला था। जिस के लिए उन्हें चार बजे अस्पताल ले जाया जाना था। यह दायित्व भी हरि शर्मा जी का था। 
में ब्लागीर मिलन में जाने की जल्दी थी। भाभी जी (श्रीमती शर्मा) ने तुरंत भोजन लगा दिया। मैं चकित था। थाली में कम से कम छह कटोरियाँ विराजमान थीं। उन्हें पास में चावल थे। मेरी तो भूख ही देखते ही काफूर हो गई। ऐसा पता होता तो मैं सुबह के पराठे में खर्च किया धन अवश्य बचा लेता। खैर मैं ने तय किया कि चपाती और चावल का न्यूनतम उपयोग कर कटोरियाँ खाली कर दी जाएँ। मैं तेजी से इस काम को करने में सफल रहा। मैं ने बताया कि मैं इस काम में उतना सिद्ध-हस्त नहीं जितना मेरे पिताजी थे। उन के भोजन के बाद थाली और कटोरियाँ ऐसी दिखती थीं कि यदि यह पता न हो कि उन में भोजन किया गया है तो उन्हें धुले हुए बर्तनों के साथ जमा दे। भोजन बहुत रुचिकर, स्वादिष्ट, सादा, राजस्थानी मिजाज का और बिलकुल घरेलू था। ऐसा कि किसी भी जोधपुर यात्रा के समय भाभी जी को अचानक कष्ट देने लायक। हम शीघ्रता से वहाँ से ब्लागर मिलन के लिए निकले। भाभी ने शर्मा जी से कहा कि यदि उन्हें वापस लौटने में देर हो तो वे माताजी को समय पर ले कर निकल लेंगी। लेकिन शर्मा जी ने आश्वस्त किया कि वे समय से पहुँच जाएंगे। 
म वहाँ से निकलते इस से पहले ही ब्लागीरों के फोन आने लगे। शर्मा जी ने आश्वस्त किया कि वे कुछ ही देर में पहुँच रहे हैं। पहले आने वाले रुके रहें। मार्ग में एक अधेड़ उम्र के संजीदा दिखने वाले सज्जन वाहन में सवार हुए। शर्मा जी ने परिचय दिया कि वे राकेशनाथ जी मूथा हैं, कवि हैं, एक संग्रह प्रकाशित हो चुका है और अपने ब्लाग पर केवल कविताएँ लिखते हैं। कुछ ही देर में हम उद्यान के बाहर थे। बाहर बोर्ड लगा था "सम्राट अशोक उद्यान"। शर्मा जी ने बताया कि पिछली भाजपा सरकार ने यह बोर्ड लगवा दिया। इस लिए कि कहीं यह "अशोक  गहलोत उद्यान "  न हो जाए। हम अंदर पहुचे तो वहाँ संजय व्यास और शोभना चौधरी मौजूद थीं।   

रविवार, 13 दिसंबर 2009

एक पूरा छुट्टी का दिन : बहुत दिनों के बाद


ड़ताल 105 दिन पूरे कर चुकी है। इधर अभिभाषक परिषद के चुनाव जोरों पर है। उम्मीदवार सभी मतदाताओं से मिलने के प्रयत्न कर रहे हैं। अध्यक्ष और सचिव पद के उम्मीदवारों का घर-घर जाना पुरानी परंपरा बन चुका है। इस बार उपाध्यक्ष, पुस्तकालय सचिव और कार्यकारिणी सदस्य के उम्मीदवार भी घरों पर आए। अब पंद्रह दिसंबर तक, जब तक मतदान होगा, हड़ताल को शायद ही कोई स्मरण करे। हाँ, उस का इतना उल्लेख जरूर होगा कि कम से कम आने वाली कार्यकारिणी ऐसी अवश्य आए जो हड़ताल से जुड़े हाईकोर्ट की बैंच कोटा में खोले जाने के मामले को इस तरह से आगे बढ़ाए कि जल्द से जल्द हड़ताल से छुटकारा मिल सके। सब के अवचेतन में यह बात कहीं न कहीं अवश्य है और मतदान का बिंदु भी यही होगा। परिणाम बताएँगे कि लोग किसे योग्य पाते हैं। इस बार कोई भी, और बात चुनाव को प्रभावित नहीं कर सकेगी। न ग्रुप, न राजनैतिक संबद्धता, न रिश्तेदारी और न गुरूचेले का संबंध। यही होता है, जब पूरी बिरादरी एक संक्रमण में हो तो फैसले गुणावगुण पर होने लगते हैं।
ह अंदेशा तो है ही कि अब हड़ताल का अंत कुछ ही दिनों में होगा। हमें नए सिरे से अदालतों में काम के लिए तैयार होना  होगा, उस के लिए आवश्यक है कि हमारे दफ्तर तैयार रहें। उन में जो काम पिछड़ गया है वह लाइन पर ले आया जाए। सब पत्रावलियाँ यथास्थान हों। डायरी पूरी तरह से तैयार हो, उस में जो भी कमियाँ हैं पूरी कर ली जाएँ। जिन पत्रावलियों में मुतफर्रिक काम करने हैं, उन्हें कर लिया जाए। कल रात को जब तीसरा खंबा की पोस्ट शिड्यूल कर के उठा तो निश्चय यही था कि  ये सब काम  शनिवार को निपटा लिए जाएँ, जिस से रविवार पूरी तरह से आजाद रहे। लेकिन शुक्रवार का सोचा सब गड़बड़ हो जाता है, यदि उस के बाद  का दिन महीने का दूसरा शनिवार हो। सुबह की चाय पीते-पीते हुए अखबार देखने और उस के बाद नैट पर ब्लाग पढ़ने,कुछ टिप्पणियाँ करने में घड़ी ने नौ बजा दिए। स्नानादि से निपटा तब तक साढ़े दस बज रहे थे। दफ्तर में आ कर डायरी को कुछ ठीक किया ही था कि भोजन तैयार होने की आवाज आ गई। इस आवाज के बाद कुछ भी बर्दाश्त के बाहर होता है।
बैंगन के भर्ते और बथुई की कढ़ी के साथ गरम गरम चपातियाँ थीं। बस गुड़ की डली की कसर शेष थी। पता लगा वह रात ही समाप्त हुआ है। हमने चैन की सांस ली। पिछली बार जो गुड़ लाए थे। वह देसी तो था, पर दाने में कस र थी। वो मजा नहीं आ रहा था। उस से पीछा छूटा। सोचा चाहे दस दुकानें क्यों न छाननी पड़ें। आज दानेदार देसी गुड़ ढूंढ कर लाया ही जाएगा। भोजन कर के फिर से दफ्तर में आ कर बैठा तो पेट ने बदन के सारे लहू को भोजन पचाने में लगा दिया था। दिमाग को लहू की सप्लाई कम मिली तो वह ऊंधने लगा। आज धूप कुनकनी थी और हवा में ठंडक। चटाई-तकिया,अखबार और किताब ले कर छत पर गया। धूप में लेटे-लेटे सुडोकू हल करने लगा। आज की पहेली बहुत खूबसूरत थी। उसने अन्तिम दो अंकों तक छकाया। उसे पूरी करते-करते कुछ भी पढ़ने की हालत नहीं रही। आँखे बंद कीं तो नीन्द ने आ दबोचा। बीच में आ कर शोभा छत पर सुखाई गई मंगोड़ी संभाल गई। बदन गर्म होते ही धूप चुभने लगी। मैं ने डोर पर सूख रहा चादर अपने ऊपर डाल लिया। धूप की चुभन से बचाव हो गया। लेकिन कुछ ही देर में चादर के अंदर की हवा गरम हो गई। इस बार नींद टूटी तो बदन से भरपूर पसीना निकल रहा था। मैं ने चटाई समेटी और नीचे कमरे में आ लेटा। फिर नींद लग गई। आखिर दो बजे मोबाइल की घंटी ने उठाया।
प्रेमकुमार सिंह का फोन था। वे अध्यक्ष का चुनाव लड़ रहे हैं। जब भी कभी मुझे किसी फौजदारी मुकदमे में जरूरत होती है तो वे मेरे वकील होते हैं। सुलझे हुए व्यक्ति हैं। उन से तय था कि मेरे मुहल्ले के वकीलों से वे मेरे साथ मिलेंगे। तीन बजे का समय तय हुआ। मैं ने शोभा को बताया कि तीन बजे वे आ रहे हैं, कॉफी  उन के सात पियूँगा। उस ने तुरंत ही बना दी, क्या पता चुनावी जल्दी में हों और मुझे भी न पीने दें। खैर हुआ भी यही। उन के आते ही हम चल दिए। इलाके के कोई पच्चीस-तीस वकीलों के यहाँ घूम-मिल वापस अपने घर पहुँचते पहुँचते  साढ़े पाँच हो गए। उसी समय मेरी साली की बेटी श्रद्धा रविवार का अवकाश हमारे साथ बिताने आ गई। वह यहीं आईआईटी की कोचिंग कर रही है। उस का आना अच्छा लगा। मैं ने दीवान पर अधलेटे हो कर टीवी खोला, तो ट्वंटी-ट्वंटी आरंभ हो चुका था। मैं और श्रद्धा मैच देखने लगे। शोभा ने आ कर पूछा -खाने में क्या बनेगा? इस प्रश्न का उत्तर हमेशा प्रश्न होता है। ..... तुम्हारे पास क्या है? .... जवाब आया -मैथी।. ... तो पराठे बना लो, श्रद्धा ने भी मेरे मत का समर्थन किया। मैच के इंटरवल में अमिताभ कमेंट्री करने आते तब तक पराठे तैयार हो कर टेबल पर हाजिर थे।
राठों से निपटने के बाद मैच पूरा देखा। आखिर भारत ने मैच जीत  लिया। कंमेंटेटर बल्लेबाजों  की तारीफों के पुल बांधने लगे। हार जाता तो उन का पुलंदा बांधते। तभी कुछ और उम्मीदवार मिलने आए। इस बीच बेटे वैभव और बेटी पूर्वा से फोन पर बात हुई।  इस के बाद मैं दफ्तर में नहीं बैठ सका। फिर से जा कर सारेगामा का 1000वीं प्रस्तुति देखी।  अभी उठ कर वापस आया तो सोचा आज मैं ने क्या किया? जो कल सोचा था वह  काम तो आज बिलकुल नहीं कर पाया। बहुत दिनों बात एक पूरा दिन छुट्टी मनाई।  अब सोच रहा हूँ। शनिवार का काम कल जरूर निपटा दूंगा। शनिवार का सोचा रविवार को तो करना ही पड़ता है, वरना उस के पीछे एक नया सोमवार खड़ा होता है।


तेरी  मुक्ति   के  लिए,   कर  तू  ही   संघर्ष
ना सहाय कोई देवता, न कोई ईश विमर्श
  • शिवराम

सोमवार, 2 मार्च 2009

अवनींद्र के घर भोजन लेकिन नहीं हो सकी तीसरा खंबा डॉट कॉम की डिजाइनिंग

रायपुर की यह लघु यात्रा बहुत सुखद थी।   पाबला जी के घर वापस भिलाई लौटते रात हो चुकी थी।  सात बजे होंगे।   पहुँचते ही अवनीन्द्र का फोन आ गया।  वह कह रहा था कि भोजन पर पाबला जी का परिवार भी साथ होगा।  लेकिन बच्चे कुछ और कार्यक्रम बना चुके थे और पाबला जी कह रहे थे कि कल आप चले जाएँगे और अवनीन्द्र से संभवतः भिलाई में यह आखिरी मुलाकात हो इसलिए वे हमारे साथ नहीं जाएँगे।  आप लोग घऱ परिवार की बातें कीजिए।  मुझे वे हमारे साथ चलने को बिलकुल सहमत नहीं थे।  मैं ने भी पाबला जी की सोच को सही पाया।  पाबला जी ने आश्वासन दिया कि हम तो यहीं भिलाई में हैं।  कभी भी एक दूसरे के घर भोजन पर आ जा सकते हैं।  मैं ने अवनीन्द्र को कह दिया कि हम दोनों पिता-पुत्र ही आ रहे हैं।  कुछ देर विश्राम कर तरोताजा हो मैं और वैभव अवनीन्द्र के घर पहुँचे।

कुछ देर हम घर परिवार की बातें स्मरण करते रहे, अवनीन्द्र की पत्नी ज्योति ने शीघ्र ही भोजन के लिए बुला लिया।  हम खाने की मेज पर बैठे जो भोज्य पदार्थों से सजी थी।  लगता था कि ज्योति कोई कोर कसर नहीं रखना चाहती थी।  मेरा ज्योति के हाथ का पका भोजन पाने का यह पहला अवसर था।  हम जब भी मिले किसी पारिवारिक भीड़ भरे आयोजन में।   तब उस के हाथ का बना भोजन पाने का अवसर ही  न होता था। भोजन आरंभ हुआ तो जल्दी ही पता लग गया कि ज्योति ने भोजन को स्वादिष्ट बनाने में कोई कसर नहीं रखी थी।  हालत यह हुई कि मेरा सुबह से लिया व्रत  कि आज बिलकुल भी जरूरत से अधिक भोजन नहीं लूंगा, जल्द ही फरार हो गया।  मैं ने छक कर भोजन किया।  मैं ने भोजन की थोड़ी बहुत तारीफ भी की लेकिन जल्द ही अहसास हो गया कि मेरी कितनी भी तारीफ ज्योति की उस शिकायत को कभी दूर नहीं कर पाएगी कि मैं उस के यहाँ ठहरने के स्थान पर पाबला जी के यहाँ क्यों रुका?

मैं ने बताया कि वैभव अभी अप्रेल अंत तक भिलाई में है,  वह शीघ्र ही शायद होस्टल रहने चला जाएगा लेकिन  यहाँ आता रहेगा।  पर यह बात अभी तक अधूरी है।  न वैभव होस्टल में गया और न ही वह अवनीन्द्र के यहाँ अभी तक जा सका।  भोजन के बाद हम देर तक बातें करते रहे और लौट कर पाबला जी के यहाँ आने लगे तो अवनीन्द्र भी साथ हो लिया।  मुझे पान की याद आ रही थी जो मुझे कोटा छोड़ने के बाद अभी तक नहीं मिला था।  हम ने रास्ते में पान की दुकान तलाश करने की कोशिश की तो मुश्किल से एक दुकान मिली। हम बाजार से दूर जो थे।  पान भी जैसा तैसा मिला लेकिन मिला बहुत  सस्ता।  हम पाबला जी के यहाँ पहुँचे तो उन्हों ने अवनीन्द्र को कॉफी के लिए रोक लिया।  हम पाबला जी के कम्प्यूटर कक्ष में जहाँ मैं पिछली रात सोया भी था, आ बैठे।  पाबला जी ने webolutions.in के बैनर पर उन के पुत्र गुरप्रीत सिंह (मोनू) द्वारा बनाई गई वेबसाइट्स बताना आरंभ किया तो पता ही नहीं चला कि कितना समय निकल गया।  एक बार अवनीन्द्र को घर से फोन भी आ गया।  उसे विदा किया तो तारीख बदल चुकी थी।


मेरा इस भिलाई यात्रा का एक सब से बड़ा स्वार्थ था कि मैं पाबला जी पुत्र गुरप्रीत से तीसरा खंबा डॉट कॉम की वेबसाइट डिजाइन करवा सकूँ।  केवल आज की रात थी जब यह काम मैं गुरप्रीत से करवा सकता था।  लेकिन समय इतना हो चुका था और दिन भर में दिमाग इतनी कसरत कर चुका था कि तीसरा खंबा की डिजाइनिंग के बारे में ओवरटाइम कर सकने की उस की हिम्मत शेष नहीं थी।  मैं सोचता रह गया कि आखिर कब और कैसे यह डिजायनिंग हो सकेगी?

चित्र- 1. पाबला जी का घर  2. मैं और अवनीन्द्र  3 पाबला जी के घर का दालान