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शुक्रवार, 11 जनवरी 2019

मुलाकात गोर्की के आधुनिक पात्र से ...


दिसंबर के आखिरी सप्ताह अवकाश का होता है, मन यह रहता है कि इस सप्ताह कम से कम पाँच दिन बाहर अपनी उत्तमार्ध शोभा के साथ यात्रा पर रहा जाए। इस बार भी ऐसा ही सोचा हुआ था। लेकिन संभव नहीं हुआ। केवल एक दिन के लिए अपने शहर से महज 100 किलोमीटर दूर रामगढ़ क्रेटर की यात्रा हुई। यात्रा के मुख्य आकर्षण रामगढ़ क्रेटर के बारे में बाद में फुरसत में बताता हूँ। फिलहाल यात्रा के अंत में हुई एक विचित्र व्यक्ति से मुलाकात के बारे में बताता हूँ। 

रामगढ़ पहुंचते पर जैसे हम कार से उतरे उस का एक टायर पंक्चर दिखा। वैसे इस की हवा कोई आधा किलोमीटर पहले ही निकली होगी। हमारे पास स्टेपनी थी इस कारण हम कार को वैसे ही खड़ा कर क्रेटर की सब से ऊँची पहाड़ी पर चढ़ने को चल दिए। वापसी में टायर बदला और चल दिए। घूमते हुए जब रात होने के आसार नजर आने लगे तो हम वापस रवाना हो गए। रात एक मित्र के फार्म हाउस पर गुजारी। सुबह वहाँ से रवाना हुए तो सोचा जहाँ भी साधन सब से पहले मिलेगा वहीं हम रुक कर टायर पंक्चर बनवा लेंगे। आखिर एक चौराहे पर हमें टायर पंक्चर का साधन मिल गया। 

हमने पंक्चर बनाने वाले से बात की तो उस ने स्टेपनी निकाल कर पंक्चर सुधारने का काम शुरू कर दिया। चौराहे पर लोगों का मजमा लगा था। लोग स्वागत द्वार बनाने में लगे थे। पता लगा प्रदेश में नयी सरकार में मंत्री बने स्थानीय विधायक मंत्री पद की शपथ लेने के बाद पहली बार आ रहे हैं। उसी मजमें में एक व्यक्ति साफा बांधे नए कपड़े जूतियाँ धारण किए सड़क पर चहल कदमी कर रहा था। किसी को भी कुछ कह कर लोगों को आकर्षित कर रहा था। उस ने हाथ में एक मूली व गाजर जो पत्तों सहित थीं पकड़ी हुई थीं। किसी ने उस से पूछा कि मिनिस्टर साहब कितने बजे तक आएंगे? उस ने कहा शाम तक तो आ ही जाएंगे। फिर तुरंत ही दाहिने हाथ में पकड़ी मूली और गाजर को अपने कान के इस तरह लगाया जैसे वह मोबाइल फोन हो, बात करने लगा। 

कान के लगाने के बाद, कुछ देर बाद बोला अच्छा मिनिस्टर साहब के पीए बोल रहे हो। उन से बोल देना मैं फँला बोल रहा हूँ। ये बताओ मिनिस्टर साहब कहाँ तक पहुँचे? और फलाँ चौराहे पर कितने बजे तक पहुँच जाएंगे? उस ने थोड़ी देर और फोन पर बात करने की एक्टिंग की और बताने लगा कि अभी तो वे कोटा तक ही नहीं पहुंचे हैं, यहाँ तक पहुँचने में उन्हें दो-तीन बज जाएंगे। 

कुछ देर बाद वह मेरे पास आ गया। कहने लगा बाबू साहेब कहाँ से आ रहे हो? गाड़ी पंक्चर हो गयी दिखती है। बच्चा अच्छा पंक्चर बनाएगा कई दिन तक हवा भी नहीं निकलेगी टायर की। इस के बाद वह एक बैंच पर बैठ गया। 

तब तक मेरे टायर का पंक्चर लगभग बन गया था। मैं पंक्चर बनाने वाले के पास गया। वह ट्यूब को टायर में डाल रहा था। मैं ने उससे गाजर मूली के टेलीफोन वाले बंदे के बारे में पूछा तो उस ने बताया कि यह आदमी पास के गाँव में कुछ महीनों से आकर रहने लगा है। वहाँ के किसी किसान का रिश्तेदार है। इस का बाप अपने गाँव में काफी बड़ी जमीन छोड़ गया है। लेकिन भाइयों ने सारी जमीन पर कब्जा कर के इसे घर से निकाल दिया है। अब इसी तरह अर्ध पागल की तरह अजीब अजीब सी हरकतें करते हुए घूमता रहता है। इस चुनाव में मिनिस्टर बने नेताजी का अपने पागलपन से ही खूब प्रचार करता रहा और मिनिस्टर साहब से खूब अच्छी जानपहचान बढ़ा ली है। वे भी मजा लेने के लिए इस से खूब मजाक करते रहते हैं। 

पंक्चर सुधारने वाले ने स्टेपनी तैयार कर के कार में रख दी थी। मैं उसे मजदूरी देकर वहाँ से रवाना हुआ। लेकिन सारे रास्ते उस गाजर-मूसी के मोबाइल फोन वाले के बारे में सोचता रहा। मुझे गोर्की के उन विक्षिप्त पात्रों की याद आई, जो अच्छी खासी धन दौलत और संपत्ति के स्वामी होते हुए भी इस कारण जानबूझ कर विक्षिप्त बने घूमते थे जिस से अपनी संपत्ति को बचा सकें या वापस प्राप्त कर सकें।

मंगलवार, 3 जनवरी 2017

मेरी मेवाड़ यात्रा (1)



हनुमान जी की प्रतिमा का ब्रह्मचर्य

लोग घूमने के लिए दूर दूर तक जाते हैं, शौक से विदेश यात्राएँ भी कर आते हैं। लेकिन होता यह है कि उन से उन का पडौस तक अछूता रह जाता है। वे पड़ौस के बारे में ही नहीं जानते। मेरी बहुत दिनों से इच्छा थी कि कम से कम अपना खुद का प्रदेश राजस्थान तो एक बार घूमा ही जाए। जब यह विचार हुआ तो यह भी देखा कि राजस्थान कोई छोटा मोटा प्रान्त नहीं। इत्तफाक से अब वह देश का सब से बड़ा प्रदेश है। राजस्थान के अनेक अंचल हैं। मैं हाड़ौती अंचल में पैदा हुआ, वहीं शिक्षा दीक्षा हुई और वहीं रोजगार भी जुटा। फिर भी हाड़ौती के अनेक क्षेत्र ऐसे हैं जो मेरे लिए अनदेखे हैं। उन्हें भी देखना चाहता हूँ। पर हाड़ौती के अछूते क्षेत्र तो कभी भी देखे जा सकते हैं। वे नजदीक हैं, और कभी भी अनायास जाया जा सकता है। इस बार तय किया कि सब से नजदीक के अंचल मेवाड़ जाया जाए। यूँ तो रावतभाटा मेवाड़ का एक हिस्सा है। वहाँ पहुँचने का सब से उत्तम मार्ग कोटा से ही हो कर गुजरता है, इस कारण वहाँ जाना होता रहता है। अभी इस बरसात में ही मैं वहाँ जाकर आ चुका हूँ। पिछले वर्ष मेवाड़ के ही एक और स्थान मैनाल वाटर फाल जाना हुआ था। दोनों स्थानों के चित्र मैं ने फेसबुक पर शेयर किए हैं।  लेकिन ये दोनों यात्राएँ एक दिनी थीं। सुबह निकले और रात तक वापस कोटा आ गए।

इस बार दिसम्बर का अवकाश आरंभ होने के एक दिन पहले मैं ने अपनी उत्तमार्ध शोभा से कहा कि हम चित्तौड़ और मेवाड़ के अन्य स्थानों पर घूम कर आते हैं, शोभा सहर्ष तैयार भी हो गयी। हम ने हमारे पहनने के कपड़े, कुछ तैयार खाद्य सामग्री, पानी की कैन और दो कंबल अपनी 13 वर्ष पुरानी मारूती 800 कार में रखे और 27 दिसंबर की सुबह करीब 10 बजे घर से निकले। पास के फिलिंग स्टेशन पर कार की टंकी पूरी भराई। कुछ देर बाद ही हम कोटा से चित्तौड़ जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर थे। 

इस यात्रा की खास बात थी कि यह सुविचारित यात्रा नहीं थी। हम सिर्फ चित्तौड़ के लिए निकले थे। वहाँ से कहाँ और कब जाएंगे यह कुछ भी तय नहीं था। सुबह ही मैं ने चित्तौड़ के हमारे वरिष्ठ वकील साथी श्री कन्हैयालाल जी श्रीमाली को बता दिया था कि हम चित्तौड़ के लिए निकल रहैं। उन का निर्देश था कि हमारे पहुँचने के वक्त वे जिला अदालत में उन के चैम्बर में रहेंगे, इस कारण हम वहीं पहुँचें।  यूँ कोटा से चित्तौड़ के लिए शहर से सीधा मार्ग है लेकिन राजमार्ग के रास्ते चम्बल पर बनने वाला हैंगिंग पुल बनने में समय अधिक हो जाने से और पुराने रास्ते का रख रखाव बन्द हो जाने से वह रास्ता बहुत खराब है। इस कारण सभी वाहनों को बूंदी की ओर करीब दस किलोमीटर जा कर राजमार्ग पर वापस इतना ही कोटा की ओर लौट कर चित्तौड़ मार्ग पर आना पड़ता है। हम भी उसी मार्ग से चित्तौड़ की और चल पड़े। 
करीब साढ़े ग्यारह बजे कार जब मैनाल के नजदीक पहुँची तो मैं ने शोभा से पूछा कि रुकना है या सीधे निकलना है? तो उस का उत्तर था कि नहीं, हम बाई बास सड़क पर हनुमान मंदिर तो रुकेंगे। मुझे भी कुछ विश्राम इस तरह मिल रहा था। मैं ने अपनी कार को राजमार्ग से बाईपास पर लाकर हनुमान मंदिर के पास ला कर खड़ा किया। शोभा कार से उतर कर सीधे हनुमान मंदिर की और निकल पड़ी, मैं उतर कर नल पर हाथ धोने रुक गया। जब तक मैं पहुँचा तब तक शोभा दर्शन कर चुकी थी। मैं ने वहाँ हनुमान प्रतिमा के साथ शोभा का चित्र लेना चाहा तो वहाँ बैठे एक बच्चे ने मुझे टोक दिया। हनुमान जी के साथ स्त्रियों का चित्र नहीं उतारते और स्त्रियाँ हनुमान जी की परिक्रमा भी नहीं करतीं। पुजारी भी वहीं खड़ा था। वह स्पष्टीकरण देने लगा कि हनुमान जी ब्रह्मचारी हैं ना इसलिए। पता लगा कैसे बचपन में ही इस तरह के स्त्री विरोधी विचार दिमागों में ठूँस दिए जाते हैं। कुछ लोग इसे संस्कारित होना भी कहते हैं।
 
मैं ने पुजारी को पूछा कि यह नियम कब से बना? तो वह बताने लगा कि बीस बाईस साल तो उसे हो गए हैं। मैं ने उसे बताया कि उस के पहले तो कई बार मैं भीलवाड़ा जाते हुए वहाँ से गुजरा हूँ। तब यहाँ मंदिर के नाम पर एक कमरा था। उस में हनुमान जी की यही मूर्ति थी और सलाखों वाले किवाड़ थे। जिन पर अक्सर एक साँकल पड़ी होती थी। तब आने जाने वाले दरवाजा खोलते, दर्शन करते और किवाड़ पर साँकल चढ़ा कर चले जाते थे। स्त्रियाँ भी मंदिर तक जाती थीं। तब कोई चित्र लेने से रोकने वाला न था। पुजारी ने सहमति व्यक्त की। फिर बताने लगा कि अब यहाँ ट्रस्ट बन गया है और वही नियम तय करता है। फिर मैं ने पूछा कि यह नियम ट्रस्ट ने क्या इसलिए बनाया है कि महिला के चित्र खिंचाने से हनुमान जी का ब्रह्मचर्य डिग जाएगा? और यदि इतने से हनुमान जी का ब्रह्मचर्य डिग जाता हो तो वे पूजनीय कैसे हो सकते हैं? पुजारी के पास इस सवाल का कोई जवाब न था। 


मुझे याद आया कि मेरे पास हमारे पूर्वजों के गाँव खेड़ली बैरीसाल के निकट ग्राम डूंगरली की हनुमान प्रतिमा के साथ शोभा का चित्र है। इस मंदिर में, डूंगरली के मंदिर में और जयपुर में जोहरी बाजार के हनुमान मंदिर की प्रतिमाएँ बिलकुल एक जैसी हैं। इस में हनुमान ने किसी शत्रु को अपने बाएँ पैर के नीचे दबाया हुआ है औऱ सिर पर दायाँ हाथ इस तरह से रखा है जैसे नृत्य कर रहे हों। ये तीनों हनुमान के विजेता के उल्लास भाव की प्रतिमाएँ हैं। यदि वह चित्र मेरे पास फोन में होता तो उस पुजारी और उस लड़के को जरूर दिखाता और कहता कि हनुमान का ब्रह्मचर्य तो इस चित्र से पहले ही डिग चुका है। और हम ने मंदिर से बाहर आ कर पानी पिया। शोभा ने याद दिलाया कि वह थरमस में कॉफी ले कर आई है। मैं ने वह काफी पी, वह उतनी ही गर्म थी जितनी की आम तौर पर घर पर मुझे मिलती है। लघुशंका से निवृत्त हो कर हम कार में बैठे और उसे चित्तौड़ की ओर हाँक दिया।

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

कमलेश्वर महादेव (क्वाँळजी) में कुछ घंटे

क्वाँळजी शिव मंदिर
श्वरी बाबा का नौकरी का मुकदमा अभी चल रहा है। आते-आते बाबा ने पूछा उस में क्या हो रहा है? मैं ने बताया कि इस बार आप का बयान होना है, उस के लिए आना पड़ेगा। वे तारीख पूछने लगे तो मैं ने कहा मैं फोन पर बता दूंगाष बाबा ने अपने एक चेले को हमारी कार में बिठा भेजा जिस से हम से वहाँ टेक्स वसूल न किया जा सके। चेला टोल प्लाजा पर उतर गया। हम वापस लौटे, इन्द्रगढ़ को पीछे छोड़ा। कोई चार किलोमीटर चलने पर एक पुल के नीचे से रेललाइन को पार किया और सामने जंगल दिखाई पड़ने लगा। हमें कोई दस किलोमीटर और चलना था। एक वाहन चलने लायक सड़क थी। बीच-बीच में एक दो मोटरसायकिल वाले मिले। दो छोटे-छोटे गाँव भी पड़े। क्वाँळजी पहुँचने के तीन किलोमीटर पहले सवाईमाधोपुर वन्य जीव अभयारण्य आरंभ हो गया। क्वाँळजी इसी के अंदर था। 

मंदिर द्वार
दूर से ही मंदिर का शीर्ष दिखाई देने लगा था। शीर्ष पर जड़े कलात्मक पत्थर उखड़ चुके थे,अंदर ईंटों का निर्माण दिखाई दे रहा था। ठीक मंदिर से पहले एक पुल था जिस के नीचे हो कर त्रिवेणी बहती थी, जो पुरी तरह सूखी थी। पुल के पहले दाहिनी ओर एक सड़क जा रही थी जो सौ मीटर दूर जा कर समाप्त होती थी। वहीं छोटे आकार वाला बड़ा कुंड होना चाहिए था। हमने पुल पार किया। वाहन रोक दिया गया। बायीं ओर एक मैदान में पार्क करने को कहा गया। हम ने कार पार्क की तो एक सज्जन टोकन दे कर दस रुपए ले गए। बाकायदे पार्किंग की व्यवस्था थी। सड़क की दूसरी ओर चाय-पान के लिए छप्पर वाली दुकानें लगी थीं। हम सीधे मंदिर पहुँचे। मंदिर के नीचे फिर दुकानें थीं जहाँ नारियल, प्रसाद बिक रहे थे। पास ही कुछ महिलाएँ आक-धतूरे के पुष्पों की मालाएँ और विल्वपत्र भी बेच रहे थे। शोभा (पत्नी) ने नारियल, प्रसाद, मालाएँ और विल्वपत्र वह सब कुछ खरीदा जिन से शिवजी के प्रसन्न होने की संभावना बनती थी। 

द्वार का बायाँ स्तम्भ
द्वार का दायाँ स्तम्भ
मारे पास कैमरा न था, मोबाइल चार थे। जिन में से तीन में कैमरा था। सब से अच्छा वाला था बेटी पूर्वा के पास। मैं ने उस का मोबाइल थाम लिया। मंदिर की सीढ़ियों के पहले ही पुरातत्व विभाग का बोर्ड लगा था। जो सूचित करता था कि यह मंदिर उन के संरक्षण में है। मंदिर के आगे लाल पत्थरों का बना चबूतरा था, जिस पर चढ़ने के लिए पत्थरों की सीढ़ियाँ थीं। उन की घिसावट बता रही थी कि वे कम से कम सात-आठ शताब्दी पहले बनाई गई होंगी। सीढ़ियाँ धूप तप कर गर्म हो गई थीं। मैंने मंदिर के सामने से कुछ चित्र लिए, द्वार अभी सही सलामत था। मेरे हमारे पैर जलने लगे। हम ने शीघ्रता से मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश किया। अंदर ठंडक थी। गर्भगृह उज्जैन के महाकाल मंदिर से बड़ा था। उस की बनावट देख कर लगा कि वह उस से अधिक भव्य भी था। बीचों बीच लाल पत्थर का बना शिवलिंग स्थापित था। प्रवेश द्वार के सामने पार्वती की सफेद संगमरमर  की प्रतिमा थी। मैं पहले जब यहाँ आया तब यह स्थान रिक्त था। शायद प्राचीन प्रतिमा पहले किसी ने चोरी कर ली होगी। फर्श पर संगमरमर लगाया हुआ था। दीवारों पर भी जहाँ पुराने पत्थर हट गए थे वहाँ सिरेमिक टाइल्स लगा दी गई थीं। शिवलिंग के आसपास इतना स्थान था कि पचास-साठ भक्त एक साथ समा जाएँ। अंदर दो पुजारी और एक-दो दर्शनार्थी ही थे।  शोभा ने साथ लाई सामग्री से पूजा की और सामने हाथ जोड़ बैठ गईं।  मैं ने मंदिर का अवलोकन किया और कुछ चित्र लिए। मुझे स्मरण हो आया कि दाहजी (दादाजी) जब तक गैंता में रहे हर श्रावण मास में यहाँ आते रहे। वे पूरे श्रावण मास यहीं रह कर श्रावणी करते थे। शायद उन की ये स्मृतियाँ ही मुझे यहाँ खींच लाई थीं। हम पंद्रह मिनट गर्भगृह में रुके। बाहर आ कर परिक्रमा की कुछ चित्र वहाँ भी लिए। समय के साथ मंदिर का प्राचीन वैभव नष्ट होता जा रहा था। मंदिर के आसपास बने पुराने कमरों की छतें गायब थीं। लेकिन पास ही नए निर्माण हो चुके थे। 
पूजा कराते पुजारी

म मंदिर से नीचे उतरे तो सामने ही छोटा लेकिन आकार में बड़ा कुंड दिखाई दिया। कुंड में पानी था। मुझे आश्चर्य हुआ कि कुंड में पानी होते हुए भी त्रिवेणी सूखी क्यों है? सोतों पर ही कुंडों का निर्माण हुआ था।उन से निकल कर ही जल त्रिवेणी में बहता था। एक दुकानदार ने बताया कि कुंडों का पानी तो कार्तिक में ही समाप्त हो जाता है। उस के बाद तो कुंडों में नलकूप का पानी डाला जाता है जिस से दर्शनार्थी स्नान कर सकें। यह मनुष्यकृत समस्या थी। आसपास की पहाड़ियों पर स्थित जंगल कट चुके थे। ये पहाड़ियाँ ही तो वर्षा का जल अपने अंदर भरे रखती थीं जो इन कुंडों के सोतों में आता था। पहाड़ियाँ नंगी हुई तो उन की जल धारण क्षमता कम हो गई। अब कुंडों में पानी कहाँ से आता। शोभा कुंड में नीचे पानी तक उतर गई। पानी कुछ गंदला था। फिर भी उस ने श्रद्धावश अपने हाथ-मुहँ उस में पखारे। मैं ने भी उस का अनुसरण किया। बच्चे कुंड तक नहीं आए। बाहर आ कर मैं ने बड़े कुंड के लिए पूछा तो दुकानदार ने त्रिवेणी के पहले वाली सड़क का उल्लेख कर दिया।


नई स्थापित की गई पार्वती प्रतिमा
म पार्किंग तक पहुँचे। अब कुछ भूख भी लगने लगी थी। पार्किंग में ही कार के सभी दरवाजे खोल कर फल निकाल कर तराशे। मूंगफली के तले हुए दाने और मूंगफली की बनी हुई मिठाई निकाल ली गई। सब ने फलाहार किया।  वापस चले तो पुल पार करते ही कार को बड़े कुंड के मार्ग पर मोड़ दिया। कुंड देखते ही मन निराशा से भर गया। यह कुंड आकार में छोटा था और अपने महात्म्य के कारण ही बड़ा कहाता था। कुंड को पूरी तरह ध्वस्त कर चौड़ा कर दिया गया था। चौड़ा करने में जिस तरह का निर्माण किया गया था। उस की प्राचीनता समाप्त हो गई थी। यहाँ भी कुंड में नलकूप द्वारा डाला जा रहा पानी था। यात्री आ कर उसी में स्नान कर रहे थे।  लोग यहाँ पहुँचते ही सब से पहले इसी कुंड में स्नान करते, फिर मंदिर के पास बने बड़े कुंड में, उस के बाद मंदिर में दर्शन करने जाते। मुझे अब विचार आया कि हम ने तो सारी प्रक्रिया को ही उलट डाला था। इस पूरे स्थान को प्राचीन इमारतों का संरक्षण करने वाले सिद्धहस्त लोगों के निर्देशन में पुननिर्माण की आवश्यकता है। इसे प्रमुख दर्शनीय स्थल और पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित किया जा सकता है। पर मौजूदा सरकार में ऐसी सोच होना संभव प्रतीत नहीं होता। हम वापस इंद्रगढ़ की ओर चल दिए। वहाँ अभी एक और मुवक्किल और एक वकील मित्र से मिलना था। 

सब से बायीं ओर बैठी शोभा

मंदिर के बाहर कलात्मक प्रतिमाएँ
 
मंदिर आधार पर शेष बची प्रस्तर कला


आकार में बड़ा, नाम में छोटा कुंड
(दायीं ओर नलकूप से जल लाता पाइप दिखाई दे रहा है)
नोट :  सभी चित्रों को क्लिक कर के बड़े आकार में स्पष्ट देखा जा सकता है। 


बाबा ईश्वरीप्रसाद की कॉफी और क्वाँळजी के लिए प्रस्थान

श्वरी प्रसाद केशवराय पाटन में सहकारी शुगर मिल में काम करता था। लाल झंडा यूनियन का ईमानदार नेता था। कभी उस ने भी क्रांति और समाजवाद के सपने देखे थे और उन के लिए काम भी किया था। उसे आज भी दृढ़ विश्वास है कि समाज जरूर बदलेगा। फिर अचानक इलाके में गन्ना उत्पादन घाटे का सौदा हो गया। चीनी मिल बंद होने के कगार पर पहुँच गई। एक दिन वह काम से लौटा तो थका हुआ था। कुछ पी खा कर बिस्तर पर सोया ही था कि मिल से फोन आ गया। कोई विवाद हो गया था और प्रबंधक बुला रहे थे। उस ने मना किया कि जो भी होगा सुबह देखेंगे। लेकिन ज्यादा जोर दिया तो वह चला गया। एक तो थकान, दूसरे नींद और तीसरे नशा। विवाद में प्रबंधकों के साथ खुल कर गाली-गलौच किया। प्रबंधक तो ताक में थे ही उसे आरोप लगा कर नौकरी से चलता किया। मिल बंद करना आसान हो गया। कुछ दिन मिल कॉलोनी में रहता रहा फिर गाँव लाखेरी चला गया। वहाँ एक हनुमान मंदिर पर कुछ असामाजिक लोग कब्जा करने को थे। उस ने वहाँ धूनी रमा दी और बाबा जी हो गया। मंदिर पर रामायण पाठ शुरु हो गया। लोग आने लगे तो मंदिर का जीर्णोद्धार करवा दिया। कुछ बरस पहले जब मेगा हाईवे बन रहा था तो इंद्रगढ़ से तीन किलोमीटर आगे एक हनुमान मूर्ति स्थापित थी, कोई उस की पूजा भी न करता था और वह सड़क में बाधा थी। ठेकेदार ने उसे उठा कर आगे नाले में फिंकवा दिया। गाँव वालों को पता लगा तो उन का गुस्सा भड़क उठा। पुरानी मूर्ति तो खंडित हो गई थी। वे नई ले आए और सड़क के ठीक किनारे उसे स्थापित कर दिया। मूर्ति तो स्थापित हो गई लेकिन अब उस की सुरक्षा कैसे हो? गाँव वालों को ईश्वरी बाबा की याद आ गई। उन्हें वहाँ ले गए। ईश्वरी बाबा ने 108 अखंड रामायण पाठ की घोषणा कर दी। धीरे-धीरे भक्तगण जुड़ने लगे। कोई पत्थर लाया कोई सीमेंट। मूर्ति के चारों और एक कमरा बन गया और लोहे के जंगले का दरवाजा लग गया। मंदिर तो हो ही गया। अखंड पाठ अभी चल रहा है।
टोल प्लाजा से लौटते हुए
श्वरी बाबा हमारी कार को टोल प्लाजा से मुफ्त निकाल मंदिर तक ले गए। मंदिर के पास ही एक चाय की थड़ी लगी थी। उस के अलावा कुछ नहीं था। ईश्वरी कहने लगे -आप को कॉफी पिलाने लाया हूँ। इस के पहले कॉफी तभी पी थी जब आप के पास कोटा आया था। फिर वह अपनी और मंदिर की कथा सुनाने लगे। उन्हें विश्वास था कि दो-चार बरस में मंदिर भव्य रूप ले लेगा। मैं ने कहा तुमने तो चोला ही बदल डाला -कहाँ यूनियन बाजी और कहाँ ये जटाजूट बाबा। ईश्वरी कहने लगे -कुछ भी हो मैंने लाल झंडा तो नहीं छोड़ा। जिस दिन लोग गरम होंगे  ऐसे ही लोगों को ले कर मैदान में कूद पड़ूंगा। यहाँ भी लोगों को संगठित तो कर ही रहा हूँ। मुझे लगा कि अभी भी क्रांति और समाजवाद का सपना उस की आँखों में जीवित है। कॉफी पी कर हम वहाँ से उठ लिए। हमें क्वाँळजी भी जाना था। ईश्वरी ने क्वाँळजी जाने का मार्ग बताया। 

क्वाँळजी मंदिर के बाहर एक मूर्ति
क्वाँळजी' बोले तो कमलेश्वर महादेव। यह इंद्रगढ़ से कोई पन्द्रह किलोमीटर दूर जंगल के बीच सातवीं से नवीं शताब्दी के बीच निर्मित शिव मंदिर है। बाद में 1345 में राजा जैतसिंह ने इस की मरम्मत और नवीनीकरण करवाया। (यहाँ इस के बारे में कुछ जानकारी उपलब्ध है) मैं पहले भी यहाँ दो बार जा चुका हूँ। एक बार पिताजी और माँ साथ थे। तब मेरी उम्र कोई आठ नौ वर्ष की रही होगी। तब यहाँ का दृश्य मनोरम था। एक बड़े चबूतरे पर स्थापित विशाल, भव्य और कलात्मक शिव मंदिर। पास ही तीन कुंड। जिन में एक छोटा और एक बड़ा कहलाता था। आकार में बड़े कुंड को छोटा और छोटे को बड़ा कहते थे। बड़े कुंड में लोग मृतकों की अस्थियाँ और राख डालते थे और उस का जल राख के कारण हमेशा काला रहता था। लेकिन उस कुंड में स्नान अवश्य करते थे। उस के बाद छोटे कुंड के निर्मल जल में स्नान करते। लोगों को विश्वास था कि बड़े कुंड में स्नान करने से चर्मरोग मिट जाते हैं। पास ही एक छोटी सी बारह मासी नदी बहती थी। तीन पहाड़ी सोतों का पानी उस में आता था और त्रिवेणी  कहलाती थी।  रात ठहरने को मंदिर परिसर के सिवा कुछ न था। एक पक्की धर्मशाला जातीय समुदाय द्वारा निर्मित की जा रही थी। उस बार पिताजी ने वहीं त्रिवेणी के किनारे जगरा लगा कर लड्डू-बाटी बनाए थे। उस समय की बहुत धुंधली यादें अब रह गई हैं। फिर दूसरी बार अचानक आना हुआ।

म्मा के हाथों में एक्जीमा था। दवाओं से मिट जाता था। लेकिन साल दो साल बाद फिर से निकल आता था। उस की इच्छा थी कि वह कमलेश्वर महादेव के कुंड में स्नान कर आए। शायद एक्जीमा से छुटकारा मिले। पिता जी के एक शिष्य ने जाने की योजना बनाई तो माँ ने भी उन के साथ जाना तय कर लिया। माँ तैयार हो गई। सुबह की ट्रेन से जाना था। लेकिन एक घंटे पूर्व ही पिताजी के शिष्य ने खबर भिजवाई कि उन्हें कोई जरूरी काम पड़ गया है तो नहीं जा पाएंगे। माँ का मूड खराब हो गया। मैं ने कहा मैं साथ चलता हूँ। उस बार वहाँ गया तो वहाँ अनेक धर्मशालाएँ बन चुकी थीं। कुंडों और त्रिवेणी में पानी अब भी था, पर उस की निर्मलता कम हो चली थी। माँ ने वहाँ स्नान किया दर्शन किए और हम चले आए। उस यात्रा में आगे डिग्गी के कल्याण जी और जयपुर भी गए। जयपुर में माँ ने गलता कुंड में भी स्नान किया और उसी रात दोनों हाथों का एक्जीमा भड़क उठा. तुरंत घर लौटे और डाक्टर का इलाज आरंभ करवाया। डाक्टर इलाज कर के थक चुका था। उस ने स्वयं-रक्त चिकित्सा (Autologous blood treatment) की प्राचीन पद्धति अपनाई और माँ का एक्जीमा मिट गया। अम्मा कहती है कि यह सब कमलेश्वर महादेव की कृपा है। डाक्टर को यह स्वयं-रक्त चिकित्सा पहले क्यों याद न आई। यह तीसरा मौका था जब मैं वहाँ जा रहा था। इस बार पत्नी और दोनों बच्चे साथ थे। 

रविवार, 24 अप्रैल 2011

इन्द्रगढ़ और बीजासन माता मंदिर

डूंगरली, गैंता, लाखेरी, इंद्रगढ़, कमलेश्वर महादेव और श्योपुर को
एक साथ दिखाता मानचित्र 
सुबह छह बजे पत्नी शोभा ने जगाया तो कॉफी हाजिर थी। तैयार होने में फुर्ती की तब भी घर से निकलते निकलते घड़ी की सुइयाँ आठ से ऊपर निकल चुकी थीं। डेढ़ किलोमीटर दूर चंम्बल पुल पार कर पेट्रोल पम्प से पेट्रोल लिया। तब तक शोभा अपनी छोटी बहिन से बात कर चुकी थी। उस का कस्बा केशवराय पाटन कोटा से 20 कि.मी. की दूरी पर था। उस से पूछा गया कि वह भी साथ चल रही है क्या। पर वह रामनवमी का दिन था और उसे कन्याओं को भोजन कराना था वह हमारे साथ नहीं चल सकती थी। यूँ वह साथ हो जाती तो कार में एक यात्री क्षमता से अधिक हो जाता। पेट्रोल पंप छोड़ा तो सवा आठ बज चुके थे।  इंद्रगढ़ तक की हमारी यह यात्रा कुल 90 किलोमीटर की थी। सड़क काफी अच्छी थी। कोटा-लालसोट हाई-वे अभी कुछ बरस पहले ही बना है। बीच-बीच में कुछ व्यवधान अवश्य थे, लेकिन कार की गति 80-90 बनी हुई थी। हमने केशवराय पाटन को पीछे छोड़ा, फिर आया लबान गाँव और स्टेशन। यहाँ से हमारा गाँव गैंता सिर्फ नौ किलोमीटर था, बाधा थी तो केवल बीच में चंबल नदी जिस पर बरसों से पुल प्रस्तावित है। लेकिन घड़ियाल अभयारण्य होने से सर्वोच्च न्यायालय की अनुमति के लिए रुका हुआ था। पिछले सप्ताह ही सर्वोच्च न्यायालय ने इस पुल को बनाने की अनुमति प्रदान कर दी है। इस पुल के बनने के बाद झालावाड़ और बाराँ सड़क मार्ग से लालसोट, मथुरा और दिल्ली से जु़ड़ जाएंगे। हो सकता है नदी किनारे बसे गैंता को इस से पुनर्जीवन प्राप्त हो जाए।  लबान से कोई सात किलोमीटर पर सीमेंट उत्पादक नगर लाखेरी था। यहाँ आते ही मुझे अपने एक पुराने मुवक्किल ईश्वरीप्रसाद का स्मरण हुआ। मैं ने उसे फोन लगाया तो पता लगा कि वह इंद्रगढ़ से सवाई माधोपुर जाने वाले मार्ग पर इंद्रगढ़ से तीन किलोमीटर दूर किसी मंदिर में अखंड रामायण के आयोजन में व्यस्त है। हम बिना रुके इंद्रगढ़ पहुँचे तो साढ़े नौ बज चुके थे। 

इंद्रगढ़ किला
इंद्रगढ़ का राजप्रासाद
इंद्रगढ़ को बूंदी के राजकुमार इंद्रसाल सिंह ने 1605 में बसाया था। यह पहाड़ी की तलहटी में बसा छोटा सा कस्बा है। जिस की आबादी 2001 की जनगणना के अनुसार 5000 से कुछ ही अधिक थी और अभी भी 6000 के ऊपर नहीं निकली है। पहाड़ी पर छोटा किन्तु सुंदर सा किला और राजप्रासाद है जो दूर से ही दिखाई देता है। राजस्थान में अभी भी यह स्थिति है कि 15000 से अधिक आबादी के अनेक कस्बों में नगरपालिका नहीं है। लेकिन यहाँ आजादी के पहले से नगरपालिका स्थापित थी जिसे यहाँ के राजा ने स्थापित किया था। जब यह स्वतंत्र राज्य राजस्थान में विलीन हुआ तो विलीनीकरण की एक शर्त यह भी थी कि यहाँ की नगरपालिका सदैव बनी रहेगी, इसे ग्राम पंचायत में परिवर्तित नहीं किया जाएगा। इसी कारण आज तक आबादी कम होने पर भी यहाँ नगरपालिका है। इसी कारण इस नगर का स्वरूप भी पूर्ववत  बना हुआ है। हमने इंद्रगढ़ कस्बे को एक तरफ छोड़ा और वहाँ से तीन किलोमीटर दूर बीजासन माता मंदिर पहुँचे। 

मेला और पहाड़ी जिस की चोटी पर बीजासन माता मंदिर स्थित है 
मंदिर एक पहाड़ी पर ऊँचाई पर स्थित है जिस के लिए लगभग साढ़े सात सौ सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। चढ़ाई आरंभ होने के कोई आधा किलोमीटर दूरी पर ही हमें कार छोड़नी पड़ी, आगे नवरात्र पर लगने वाला मेला चल रहा था। सड़क के दोनों ओर दुकानें सजी हुई थीं। इन में ग्रामीणों की आवश्यकताओं की वस्तुओं के अलावा खाने-पीने के सामान और माताजी की पूजा अर्चना के सामान की दुकानें थीं। दुकानदार बुला-बुला कर पूजा का सामान खरीदने का आग्रह कर रहे थे। इस मामले में शोभा चतुर थी। सब सामान कोटा से ही तैयार कर ले चली थी। मेला पार कर के हम उस स्थान पर पहुँचे जहाँ से सीढ़ियाँ आरंभ होती थीं। हमें आरंभ में कम ऊँचाई की चौड़ी सीढ़ियाँ मिलीं। लेकिन जैसे जैसे सीढ़ियाँ चढ़ते गए सीढ़ियों की ऊँचाई बढ़ती गई, और चौड़ाई घटती गई। दर्शनार्थियों की संख्या कम न थी। लगातार पीछे से लोग आते जा रहे थे। इस कारण बीच में रुकना संभव नहीं था। फिर भी किसी चौड़ी सीढ़ी पर एक मिनट साँस लेते और ऊपर चढ़ते जाते। सीढ़ियों पर हमें गेहूँ के दाने बिखरे मिले जिन्हें कुछ लोग लगातार समेट कर अपने झोलों में भरते भी जाते थे।दर्शनार्थी फिर से गेंहूँ के दाने सीढ़ियों पर बिखेर देते थे। मुझे यह कुछ अच्छा नहीं लगा। अधिकतर दर्शनार्थी अपने जूते चप्पल मेले में उतार आए थे और नंगे पैर चढ़ रहे थे। गेहूँ के दानों पर कोई फिसल भी सकता था। हम ने अपने जूते-चप्पल नहीं उतारे थे। जब मंदिर तक पहुँचने में केवल दस-बारह सीढ़ियाँ रह गईं और आने-जाने की सीढ़ियाँ अलग हुई तो हम ने अपने जूते चप्पल वहीं एक चट्टान पर खोल दिए। 
मंदिर में बीजासन माता की प्रतिमा
कुछ ही देर में हम मंदिर में थे। मंदिर दो स्तरीय था। निचले स्तर पर एक कमरे जैसा स्थान था जहाँ एक नाई बैठा कुछ भक्तों का मुण्डन कर रहा था।  पास ही एक युवक और एक महिला सिर हिला रहे थे, जैसे किसी की आत्मा उन में प्रवेश कर गई हो।  पर लोग उन की तरफ केवल एक निगाह डाल कर आगे बढ़ जाते थे। वहाँ रुकने का स्थान न था। दर्शनार्थियों का प्रवाह ऐसा था कि एक मिनट में दर्शन करें और आगे चल दें। रुकने पर मार्ग रुक जाने की संभावना थी। मंदिर के स्वयंसेवक और तैनात पुलिसकर्मी  लोगों को लगातार आगे बढ़ते रहने का निर्देश बार-बार दे रहे थे। हम लोग कुल दो मिनट मंदिर में रुके, दर्शन किए और आगे बढ़ गए। माताजी की प्रतिमा सुंदर और आकर्षक थी। लेकिन वहाँ लोग गेहूँ के इतने दाने बिखेर रहे थे कि पावों के नीचे गेहूँ ही गेहूँ महसूस हो रहा था। हालांकि लगातार लोग उन दानों को समेटते भी जाते थे। मैं सोच रहा था कि इन गेहूँ के दानों का क्या महत्व रहा होगा? (कोई पाठक बताएगा?) 

पहाड़ी के नीचे के मंदिर में बीजासन माता मंदिर
जैसे ही हम मंदिर के बाहर निकले मेरे मोबाइल की घंटी बज उठी। ईश्वरी प्रसाद का फोन था। उस ने बताया कि वह मंदिर वाली सडक जहाँ हाई-वे से मिलती है वहाँ हमारा इंतजार कर रहा है। वहाँ लाल झंड़ा लगी जीप खड़ी है वह उसी की है। मैंने उसे कहा हम आधे घंटे में उस तक पहुँचते हैं। मंदिर से नीचे उतरने में हमें अधिक समय न लगा। जैसे ही सीढि़याँ समाप्त हुई हम ने राहत की साँस ली। बच्चों ने झोले में से पानी की बोतल निकाली, हम चारों ने पानी पिया। नीचे पहाड़ी की तलहटी में माताजी का एक और मंदिर बना हुआ था। यात्रियों के साथ कुछ वृद्ध लोग भी होते हैं जो पहाड़ी नहीं चढ़ सकते, वे यहीं दर्शन कर कुछ देर विश्राम करते हैं और अपने सहयात्रियों के पहाड़ी से लौटने पर उन के साथ हो लेते हैं। हमने यहाँ भी दर्शन किए। लोग यहाँ भी गेहूँ के दाने इस तरह उछाल रहे थे कि वे मंदिर के छज्जों पर गिरें। लेकिन छज्जों से गेहूँ के दाने नीचे मंदिर के प्रवेश द्वार पर ही आ गिरते थे। वहाँ भी उन्हें समेटने के काम में कुछ लोग लगे थे। हम ने कार संभाली। हाई-वे पर पहुँचते ही हमें लाल झंडे वाली जीप मिल गई। ईश्वरी प्रसाद वहाँ न दिखे।  जैसे ही जीप के पास जा कर मैंने कार रोकी। एक आदमी जीप से उतरा और कहने लगा मैं बाबा को बुलाता हूँ। एक मिनट में ही ईश्वरी प्रसाद वहाँ हाजिर था, बिलकुल बाबा बना हुआ। सर के बाल जटा में तब्दील हो चुके थे। बदन पर एक बंडी थी और पैरों में लाल धोती लपेट रखी थी। वह मुझे बता रहा था कि वह जिस मंदिर पर 108 रामायण पाठ करवा रहा है उस से सौ मीटर पहले टोल प्लाजा है। यदि वह नहीं आता तो टोल वाले कम से कम पचास रुपए की रसीद बना देते। इसलिए खुद लेने आया है। हम उस की जीप के पीछे-पीछे चल पड़े। ...

कुछ और चित्र 

मेला और पहाड़ी पर बीजासन माता मंदिर

मंदिर के लिए आरंभिक सीढ़ियाँ
सीढ़ियों की उँचाई अब बढ़ चली
सीढ़ियों की चढ़ाई के बाद मंदिर प्रवेश के कुछ पहले
विश्राम करते माँ-बेटे
और उतरते हुए 
मंदिर से नीचे मैदान का दृश्य
मंदिर के ठीक बाहर तैनात सिपाही
इन चित्रों पर क्लिक कर के आप बड़े आकार में देख सकते हैं।

सोमवार, 24 जनवरी 2011

शादी में रोला और हाड़ौती साहित्यकार गिरधारी लाल मालव जी से मुलाकात

रसों रात ही यह तय हो गया था कि रविवार को यहाँ से पचास किलोमीटर दूर स्थित कस्बे अन्ता में एक शादी में जाना है। इस तरह की शादी में जाना हमेशा इस दृष्टि से लाभदायक रहता है, कि उस में बहुत लोगों से मिलना जुलना होता है, जिन में अधिकतर रिश्तेदार होते हैं। रिश्तेदारों से मिलना विवाह आदि समारोहों में ही हो पाता है। एक समारोह बहुत सी पिछली यादें ताजा कर देता है। मैं पत्नी-शोभा को तो जाना ही था। शोभा की एक बहिन और उस के जेठ का पुत्र भी आ गए। इस तरह हमारी मारूती-800 के लिए सवारियाँ पूरी हो गईं। हम सुबह 11 बजे रवाना हो गए। कोई छह किलोमीटर चलने के बाद एक्सप्रेस हाई-वे पर पहुँच गए। यह हाई-वे अभी पूरा नहीं बना है लेकिन जितना बना है वह सुख देता है। हाई-वे पर एक-आध किलोमीटर ही चले होंगे कि समीर लाल जी का स्मरण हो आया। उन की उपन्यासिका 'देख लूँ तो चलूँ' परसों शाम ही मिली थी। उसे आधी ही पढ़ पाया था। लेकिन फिर भी मैं उन के अनुभव से अपने होने वाले अनुभव से तुलना करने लगा। लेकिन बहुत अंतर था। कुछ ही दूर चले थे कि एक लंबा ट्रक लेन पर तिरछा हो रहा था, उस का अगला एक्सल टूटा पड़ा था। गाड़ी निकलने का स्थान न था। कार को वापस मोड़ा और पिछले कट से वापसी की लेन पकड़ी, सामने वाले को नजर आ जाएँ इस लिए दिन में सवा ग्यारह पर भी कार की हेडलाइट चालू कर ली। कोई एक किलोमीटर आगे कट मिला वहाँ से अपनी लेन पर आए। हम ने कार की गति बढ़ाई तो, सौ तक ले गए लेकिन उसे सुरक्षित न जान कर अस्सी-नब्बे के बीच चलना ठीक समझा। अब समीर जी की कार जैसा क्रूज तो मारूती-800 में था नहीं, इस लिए एक्सीलेटर भी संभालना पड़ा और स्टीयरिंग भी। बीस किलोमीटर चलने पर टोल मिला तो उस ने आने-जाने के पचास रुपये ले लिए। इस राशि में कोटा से अंता एक आदमी बस से जा कर लौट सकता था।
जिस धर्मशाला में विवाह का प्रोग्राम हो रहा था, उस के बाहर की सड़क पर सब्जी मंडी लगी थी। बीच की सड़क पर पहले से इतने वाहन खड़े थे कि वहाँ पार्क करना आसान नहीं था। हम ने बाकी सब को वहीं उतारा और पास सौ मीटर के दायरे में एक अन्य संबंधी के घर के बाहर कार को पार्क किया। उन के यहाँ अंदर गए तो स्वागत में पानी का एक गिलास मिला। मुझे लगा कि अंदर गृहणी रसोई में चाय के लिए खटपट कर रही है। मैं ने जोर से आवाज लगाई -चाय मत बनाना, मैं चाय नहीं पीता, बीस साल हो गए छोड़े हुए। मेजबान ने तुरंत कॉफी का ऑफर दिया जो कुछ ही देर में बन कर आ गई। अब अंदर कुछ भी चल रहा हो, अपनी तो पौन घंटे के कार चालन के बाद कॉफी का जुगाड़ हो ही गया। कॉफी जुगाड़ने की अपनी यह तरकीब अब तक सौ-फीसदी कामयाब रही है। कभी असफलता नहीं मिली। 
मैं वापस पहुँचा तो दूल्हे का यज्ञोपवीत संस्कार अंतिम चरण में था। दूल्हा अपने गुरू के लिए भिक्षाटन पर निकला था। भिक्षा पात्र में कोई सौ रुपए एकत्र हुए, दानदाताओं ने इस काम में बहुत कंजूसी की। कुछ देर बाद ही फिर से दूल्हा भिक्षाटन के लिए निकल पड़ा। इस बार भिक्षा माँ की भेंट के लिए थी। इस बार लोगो की कंजूसी कम हो गई। लोग पचास-बीस और दस के नोट अपने बटुओं में से निकाल कर डालने लगे। इस दौर में पिछले दौर के मुकाबले कम से कम दस गुना राशि भिक्षा पात्र में प्राप्त हुई। गणित साफ थी पहले वाली कमाई तो यज्ञोपवीत संस्कार कराने वाले पंडित को मिलनी थी, इस बार दूल्हे की माँ को। पहली वाली में रिटर्न की गुंजाइश शून्य थी,  दूसरी में भरपूर। वैसे यह परिणाम नया नहीं है। कोई सैंतालीस बरस पहले जब मेरी जनेऊ हुई थी तब भी माजरा ऐसा ही था, फर्क था तो इतना कि तब अनुपात 1:10 का न हो कर 1:4 का रहा होगा। यज्ञोपवीत संस्कार के संपन्न होते ही। लोग छोटे बड़े थैले ले आगे बढ़ने लगे, दूल्हे, उस के माता-पिता और परिजनों को भेंट देने के लिए कपड़े लाए थे। दूल्हे के पिता ने दूल्हे के अतिरिक्त शेष लोगों को कपड़े पहनाने के लिए मना करते हुए क्षमा मांगी। वहाँ रौला मच गया। लोग तो पैसा खर्च कर के कपड़े आदि लाए थे। उन्हें इस में अपनी हेटी जान पड़ी। 
वास्तव में अब कुछ लोगों का मंतव्य यह बनने लगा है कि यह कपड़े पहनाने  की कुरीति बंद होनी चाहिए। इस में फिजूलखर्ची बहुत होती है। बात तो सही और उचित है, लेकिन जब भी कोई इस के लिए आगे बढ़ता है ऐसे ही बाधा आ जाती है। कपड़े पहनाने वाले जोर से बोलने लगे। उन में एक को बहुत तकलीफ हो रही थी। वह  व्यक्ति दूल्हे की माँ को राखी बांधता था, और कम से कम पचास हजार खर्च कर कपड़े ले कर आया था। मैं उसे पास के कमरे में ले गया। समझाया तो उस की रुलाई फूट पड़ी, कहने लगा। बरसों से बहन मुझे राखी बांधती है, बड़ी हसरत से आज उस के सारे परिवार के लिए कपड़े ले कर आया हूँ तो यह देखना पड़ा है। मैं सगा भाई होता तो शायद ऐसा न होता। गलती तो दूल्हे के पिता की भी थी। उस ने जो कदम उठाया वह सुधार का अवश्य था। पर इन लोगों को पहले से इस बात से अवगत कराना था। कम से कम उन के मन की हसरतें वहीं शांत हो जातीं, और खर्च भी न होता। पर गलती तो हो चुकी थी। यदि वह अपना निश्चय तोड़ता तो यह दूसरी गलती होती, सुधार का एक कदम पीछे लौट जाता। खैर, समझाने पर थोड़ी देर में रोला खत्म हो गया। लोगों को भोजन के लिए आमंत्रण मिला तो सब भोजन स्थल की चल पड़े। 
दोपहर का भोजन आशा से बहुत अधिक अच्छा था। लेकिन उस में हाड़ौती के स्थाई पुराने मेनू  के नुकती (बूंदी)  और नमकीन सेव गायब थे। नुकती का स्थान मूंगदाल के हलवे और सेव का स्थान तले हुए पोहे की बनी खट्टी-मीठी नमकीन ने ले ली थी।  भोजन के बाद कुछ कार्यक्रम था। सब लोग उस की तैयारी करने लगे। मुझे उस में रुचि कम थी। भोजन स्थल से कोई दो किलोमीटर दूर गाँव बरखेड़ा में हाड़ौती के साहित्यकार कवि गिरधारी लाल मालव का निवास है। मैं चुपचाप कार में बैठा और उस तरफ चल पड़ा। 

मालव जी के घर के पिछवाड़े की बगीची

मालव जी के घर के पीछे आंगन में विश्राम करती भैंसें



मालव जी
मालव जी घर पर न थे, उन की बेटी मिली जो निकट के ही एक घर से उन्हें बुलाने चली। मैं भी उस के साथ ही चला। वह घर के भीतर गई मैं बाहर रुक गया। मिनट भर बाद ही मालव जी बाहर आ गए। मुझे देखते ही उन की बाँछे खिल गई, उन्हों ने मुझे बाजुओं में जकड़ कर भींच लिया। हम उन के घर के पिछवाड़े खुले में आ बैठे। जिस के एक और उन का घर था दूसरी ओर छोटी सी बगीची, जिस में उन्हों ने शिव मंदिर बनाया हुआ है। मालव जी अध्यापक थे। कोई चौदह वर्ष से सेवा निवृत्त हो गए हैं। उम्र अब 72 की है। उन का घर अभी भी मिट्टी की कच्ची दीवारों और खपरैल की छत का है। हम वृक्ष के पत्तों से छन कर आयी धूप में बैठ गए। बातें करने लगे। हाड़ौती की कविता, गीतों की बात हुई, गद्य की बात हुई। मुझे पता न था। कि उन का एक कहानी संग्रह और एक उपन्यास प्रकाशित हो चुका है। उन्हों ने दोनों मुझे भेंट किए। उन्हें ब्लागीरी की कोई जानकारी न थी। जब मैं ने उन्हें बताया कि मैं साल में एक पोस्ट मकर संक्रांति पर हाड़ौती में लिखता हूँ तो उन्हें बेहद खुशी हुई। मैं चाय नहीं पीता तो हम ने एक एक कप दूध पिया। उन के अपने घर की भैंसों का शुद्ध दूध। उसे पी कर मुझे मेरे बचपन की स्मृति हो आई। वे अपनी योजनाओं के बारे में बताने लगे, वे हाड़ौती के साहित्य के इतिहास पर कुछ लिखना चाहते हैं।  मैं ने उन्हें कहा कि वे इसे जल्दी लिखें, यह एक धरोहर बनने वाला है। साढ़े चार बजते-बजते फोन की घंटी बज गई। मेरे लिए बुलावा था। मैं ने उन से विदा चाही। वे मुझे सड़क तक छोड़ने आए। हम दोनों ने ही जल्दी फिर मिलने की आस जताई। मैं वापस विवाह स्थल पहुँचा तो शोभा अपनी बहिन सहित वापसी के लिए तैयार थी। शोभा की बहिन को शाम को कोटा में एक और विवाह में जाना था। हम तुरंत ही लौट पड़े। मालव जी की दो पुस्तकें मेरे लिए अमूल्य भेंट हैं। न जाने क्यों पिछले तीन दिनों से पुस्तकें मिल रही हैं। दो दिन पहले ही महेन्द्र नेह के घर गया था। वहाँ से सात पुस्तकें मुझे मिलीं, परसों शाम समीर जी की उपन्यासिका और अब कल ये दो पुस्तकें। लगता है अगला सप्ताह इन्हें पढ़ने में बीतेगा।  

मालव जी कुछ सोचते हुए
मालव जी अपने उपन्यास के साथ



















गुरुवार, 20 मई 2010

श्रीमद्भगवद्गीता के साथ मेरे अनुभव

डॉ. अरविंद मिश्र ने आज समूचे ब्लागजगत से पूछ डाला -आपने कभी गीता पढी है ? अब मैं इस प्रश्न का क्या उत्तर देता? हमारे यहाँ श्रीमद्भगवद्गीता की यह स्थिति है कि उस की कम से कम पाँच-दस प्रतियाँ हर वर्ष घर में अवश्य आ जाती हैं, और उन्हें फिर आगे भेंट कर दिया जाता है। एक सेवानिवृत्त मेजर साहब हैं वे हर किसी को गीता का हिन्दी और अंग्रेजी संस्करण वितरित करते रहते हैं। अभी कुछ दिन पहले विवाहपूर्व यौन संबंधों की बात सर्वोच्च न्यायालय पहुँची और न्यायाधीशों ने अपना निर्णय सुरक्षित रखा तो उस दिन न्यायाधीशों द्वारा अधिवक्ताओं से पूछे गए कुछ प्रश्नों में राधा-कृष्ण के संबंध का उल्लेख हुआ तो देश में बवाल उठ खड़ा हुआ। मेजर साहब ने मुझे फोन कर के पूछा कि क्या मैं न्यायाधीशों को पत्र लिख सकता हूँ। मैं ने कहा आप की इच्छा है तो अवश्य लिख दीजिए। उन्हों ने पीठ के सभी न्यायाधीशों को पत्र लिखा और साथ में श्रीमद्भगवद्गीता की अंग्रेजी प्रतियाँ उन्हें डाक से प्रेषित कर दीं। गीता हमारे देश में बहुश्रुत और बहुवितरित है। उस का पाठ भी लाखों लोग नियमित रूप से करते हैं। 

मेरे परिवार में परंपरा से किसी की मृत्यु के तीसरे दिन से नवें दिन तक गरुड़ पुराण के पाठ की परंपरा रही है जो मेरी दृष्टि में विभत्स रस का विश्व का श्रेष्ठतम ग्रंथ है। यह अठारह मूल पुराणों के अतिरिक्त पुराणों में सम्मिलित है। जिस परिवार में मृत्यु हुई हो उस समय परिजनों की विह्वल अवस्था में गरुड़ पुराण के सार्वजनिक वाचन की परंपरा कब आरंभ हो गई? कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन मुझे यह कोमल और आहत भावनाओं का शोषण अधिक लगा। नतीजा यह हुआ कि जब परिवार में मेरा बस चलने लगा मैं ने इस पाठ को बंद करवा दिया जो अब सदैव के लिए बंद हो गया है। तब यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि तब परिवार में एकत्र सभी व्यक्ति कम से कम एक बार तो एकत्र हों और कुछ चिंतन करें। माँ ने सुझाव दिया कि इस के स्थान पर गीता का पाठ किया जाए। कुल अठारह अध्याय हैं जिन्हें तीसरे दिन से ग्यारहवें दिन तक नित्य दो अध्याय का वाचन किया जाए। सब को यह सुझाव पसंद आया। अब एक नई समस्या आ खड़ी हुई कि गीता वाचन कौन करे, अर्थ कौन समझाए? माँ ने यह दायित्व मुझे सौंपा और मुझे निभाना पड़ा। हमारे परिवार की देखा-देखी अनेक परिवारों में गरुड़ पुराण के स्थान पर अब गीता पाठ आरंभ हो गया है।
क और घटना जो गीता के संदर्भ में घटी उसे यहाँ रखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। बात उन दिनों की है जब मैं गीता को अपने तरीके से समझने का प्रयत्न कर रहा था। अलग अलग भाष्यों को पढ़ते समय मुझे लगा कि जो भी कोई गीता का भाष्य करता है उस के लिए गीता माध्यम भर है वास्तव में वह अपनी बात, अपना दर्शन गीता की सीढ़ी पर चढ़ कर कह देता है। तब वास्तव में गीता का अर्थ क्या होना चाहिए। यह तभी जाना जा सकता है जब उसे बिना किसी भाष्य के समझने का प्रयत्न किया जाए। गीता की अनेक प्रतियाँ पास में उपलब्ध होते हुए भी एक नयी प्रति खरीदी जिस में केवल श्लोक और उन का अन्वय उपलब्ध था। मैं गीता समझने का प्रयत्न करने लगा। हर समय गीता मेरे साथ रहती, जब भी फुरसत होती मैं गीता खोल लेता और एक ही श्लोक में घंटों खो जाता। 
न्हीं दिनों एक मित्र ने गाढ़ी कमाई से एक जमीन रावतभाटा में खरीदी और कर्ज ले कर उस पर अपना वर्कशॉप बनाने लगे। कुछ पचड़ा हुआ और जमीन बेचने वाले के पुत्र ने दीवानी मुकदमा कर निर्माण पर रोक लगवा दी। मित्र उलझ गए। मुकदमा लड़ने को पैसा भी न था। वे मेरे पास आए। मैं ने उन का मुकदमा लड़ना स्वीकार कर लिया। जिस दिन तारीख होती मुझे रावतभाटा जाना होता। मेहनताना मिलने का प्रश्न नहीं था। बस आने-जाने का खर्च मिलता। उन की पेशी पर जाना था। एक दिन मैं भोजन कर घर से निकला झोले में मुकदमे की पत्रावली और गीता रख ली। बस स्टॉप पर जा कर पान खाया। पान वाले को पैसा देने के लिए पर्स निकाला तो उस में केवल पंद्रह रुपए थे। घऱ वापस जा कर रुपया लाता तो बस निकल जाती। मैं ने तीन रुपए पान के चुकाए। बस का किराया 12 रुपया सुरक्षित रख लिया। बस आने में देर थी, रावतभाटा जाने वाली एक जीप आ गई।  किराया 12 रुपया तय कर लिया। सवारियाँ पूरी होने पर जीप को चलना था। मैं जीप में बैठा गीता निकाल कर पिछले पढ़े हुए के आगे पढ़ने लगा और एक श्लोक को समझने में अटक गया। मेरे पास ही एक महिला शिक्षक आ बैठी। जीप चली तो उस शिक्षिका ने पूछा -भाई साहब! आप गीता पढ़ रहे हैं? मैं ने कहा हाँ। मुझे तीसरे अध्याय का एक श्लोक समझ नहीं आया, क्या आप समझा सकते हैं?
मैं कुछ समझा नहीं, मुझे लगा कि शायद वह मेरी परीक्षा लेना चाहती है। फिर दूसरे ही क्षण सोचा शायद वह सच में ही जानना चाह रही हो। मैं ने मौज में कहा -अभी समझा देते हैं। फिर मैं ने इंगित श्लोक निकाला, उसे पढा़ और समझाने लगा। तब बस कोटा के इंजिनियरिंग कॉलेज के सामने से गुजर रही थी। उस एक श्लोक पर चर्चा करते-करते मैं ने क्या क्या कहा मुझे खुद को स्मरण नहीं। लेकिन जब चर्चा पूर्ण हुई तो बाडौली आ चुका था। अर्थात रावतभाटा केवल तीन किलोमीटर रह गया था। हम पैंतीस किलोमीटर की यात्रा तय कर चुके थे और मुझे इस का बिलकुल ध्यान नहीं था। शिक्षिका स्वयं भी विज्ञ थी। उस ने बीच में एक ही प्रश्न पूछा -आप मार्क्सिस्ट हैं? मैं ने उत्तर दिया -शायद! उस की प्रतिक्रिया थी -तभी आप इतना अच्छे से समझा सके हैं। 

रावतभाटा के निकट बाडौली स्थित प्राचीन शिव मंदिर
 रावतभाटा बाजार में पाँच-छह सवारियाँ उतरी तो हर सवारी मुझे बड़ी श्रद्धा के साथ नमस्कार कर के गई, मुझे लगा कि यदि मैं ने पेंट-शर्ट के स्थान पर धोती-कुर्ता पहना होता तो शायद चरण स्पर्श भी होने लगता। जीप ऊपर टाउनशिप में पहुँची जहाँ सभी सवारियाँ उतर गईं। वहाँ भी उन्हों ने बाजार में उतरने वाली सवारियों की भांति ही श्रद्धा का प्रदर्शन किया। मैं जीप से उतरा और जीप वाले को किराया बारह रुपए दिया। जीप वाले ने पूछा -आप वापस कितनी देर में जाएंगे? मैं ने कहा -भाई, मैं तो यहाँ मुकदमे में पैरवी करने आया हूँ, अदालत में काम निपट गया तो घंटे भर में भी वापस जा सकता हूँ और शाम भी हो सकती है। -तो साहब! मैं भी एक घंटे बाद वापस कोटा जाऊंगा। आप एक घंटे में वापस आ जाएँ तो मेरी ही जीप में चलिएगा, वापसी का किराया नहीं लूंगा।  मैं एक घंटे में तो वापस न लौट सका। पर मुझे आम लोगों में गीता के प्रति जो श्रद्धा है उस का अवश्य अनुभव हो गया। इतना आत्मविश्वास जाग्रत हुआ कि मैं सोचने लगा कि यदि मैं दो जोड़ा कपड़े और एक गीता की प्रति ले कर निकल पड़ूँ, तो इस श्रद्धा की गाड़ी पर सवार हो कर बिना किसी धन के पूरी दुनिया की यात्रा कर के वापस लौट सकता हूँ।