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गुरुवार, 20 मई 2010

श्रीमद्भगवद्गीता के साथ मेरे अनुभव

डॉ. अरविंद मिश्र ने आज समूचे ब्लागजगत से पूछ डाला -आपने कभी गीता पढी है ? अब मैं इस प्रश्न का क्या उत्तर देता? हमारे यहाँ श्रीमद्भगवद्गीता की यह स्थिति है कि उस की कम से कम पाँच-दस प्रतियाँ हर वर्ष घर में अवश्य आ जाती हैं, और उन्हें फिर आगे भेंट कर दिया जाता है। एक सेवानिवृत्त मेजर साहब हैं वे हर किसी को गीता का हिन्दी और अंग्रेजी संस्करण वितरित करते रहते हैं। अभी कुछ दिन पहले विवाहपूर्व यौन संबंधों की बात सर्वोच्च न्यायालय पहुँची और न्यायाधीशों ने अपना निर्णय सुरक्षित रखा तो उस दिन न्यायाधीशों द्वारा अधिवक्ताओं से पूछे गए कुछ प्रश्नों में राधा-कृष्ण के संबंध का उल्लेख हुआ तो देश में बवाल उठ खड़ा हुआ। मेजर साहब ने मुझे फोन कर के पूछा कि क्या मैं न्यायाधीशों को पत्र लिख सकता हूँ। मैं ने कहा आप की इच्छा है तो अवश्य लिख दीजिए। उन्हों ने पीठ के सभी न्यायाधीशों को पत्र लिखा और साथ में श्रीमद्भगवद्गीता की अंग्रेजी प्रतियाँ उन्हें डाक से प्रेषित कर दीं। गीता हमारे देश में बहुश्रुत और बहुवितरित है। उस का पाठ भी लाखों लोग नियमित रूप से करते हैं। 

मेरे परिवार में परंपरा से किसी की मृत्यु के तीसरे दिन से नवें दिन तक गरुड़ पुराण के पाठ की परंपरा रही है जो मेरी दृष्टि में विभत्स रस का विश्व का श्रेष्ठतम ग्रंथ है। यह अठारह मूल पुराणों के अतिरिक्त पुराणों में सम्मिलित है। जिस परिवार में मृत्यु हुई हो उस समय परिजनों की विह्वल अवस्था में गरुड़ पुराण के सार्वजनिक वाचन की परंपरा कब आरंभ हो गई? कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन मुझे यह कोमल और आहत भावनाओं का शोषण अधिक लगा। नतीजा यह हुआ कि जब परिवार में मेरा बस चलने लगा मैं ने इस पाठ को बंद करवा दिया जो अब सदैव के लिए बंद हो गया है। तब यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि तब परिवार में एकत्र सभी व्यक्ति कम से कम एक बार तो एकत्र हों और कुछ चिंतन करें। माँ ने सुझाव दिया कि इस के स्थान पर गीता का पाठ किया जाए। कुल अठारह अध्याय हैं जिन्हें तीसरे दिन से ग्यारहवें दिन तक नित्य दो अध्याय का वाचन किया जाए। सब को यह सुझाव पसंद आया। अब एक नई समस्या आ खड़ी हुई कि गीता वाचन कौन करे, अर्थ कौन समझाए? माँ ने यह दायित्व मुझे सौंपा और मुझे निभाना पड़ा। हमारे परिवार की देखा-देखी अनेक परिवारों में गरुड़ पुराण के स्थान पर अब गीता पाठ आरंभ हो गया है।
क और घटना जो गीता के संदर्भ में घटी उसे यहाँ रखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। बात उन दिनों की है जब मैं गीता को अपने तरीके से समझने का प्रयत्न कर रहा था। अलग अलग भाष्यों को पढ़ते समय मुझे लगा कि जो भी कोई गीता का भाष्य करता है उस के लिए गीता माध्यम भर है वास्तव में वह अपनी बात, अपना दर्शन गीता की सीढ़ी पर चढ़ कर कह देता है। तब वास्तव में गीता का अर्थ क्या होना चाहिए। यह तभी जाना जा सकता है जब उसे बिना किसी भाष्य के समझने का प्रयत्न किया जाए। गीता की अनेक प्रतियाँ पास में उपलब्ध होते हुए भी एक नयी प्रति खरीदी जिस में केवल श्लोक और उन का अन्वय उपलब्ध था। मैं गीता समझने का प्रयत्न करने लगा। हर समय गीता मेरे साथ रहती, जब भी फुरसत होती मैं गीता खोल लेता और एक ही श्लोक में घंटों खो जाता। 
न्हीं दिनों एक मित्र ने गाढ़ी कमाई से एक जमीन रावतभाटा में खरीदी और कर्ज ले कर उस पर अपना वर्कशॉप बनाने लगे। कुछ पचड़ा हुआ और जमीन बेचने वाले के पुत्र ने दीवानी मुकदमा कर निर्माण पर रोक लगवा दी। मित्र उलझ गए। मुकदमा लड़ने को पैसा भी न था। वे मेरे पास आए। मैं ने उन का मुकदमा लड़ना स्वीकार कर लिया। जिस दिन तारीख होती मुझे रावतभाटा जाना होता। मेहनताना मिलने का प्रश्न नहीं था। बस आने-जाने का खर्च मिलता। उन की पेशी पर जाना था। एक दिन मैं भोजन कर घर से निकला झोले में मुकदमे की पत्रावली और गीता रख ली। बस स्टॉप पर जा कर पान खाया। पान वाले को पैसा देने के लिए पर्स निकाला तो उस में केवल पंद्रह रुपए थे। घऱ वापस जा कर रुपया लाता तो बस निकल जाती। मैं ने तीन रुपए पान के चुकाए। बस का किराया 12 रुपया सुरक्षित रख लिया। बस आने में देर थी, रावतभाटा जाने वाली एक जीप आ गई।  किराया 12 रुपया तय कर लिया। सवारियाँ पूरी होने पर जीप को चलना था। मैं जीप में बैठा गीता निकाल कर पिछले पढ़े हुए के आगे पढ़ने लगा और एक श्लोक को समझने में अटक गया। मेरे पास ही एक महिला शिक्षक आ बैठी। जीप चली तो उस शिक्षिका ने पूछा -भाई साहब! आप गीता पढ़ रहे हैं? मैं ने कहा हाँ। मुझे तीसरे अध्याय का एक श्लोक समझ नहीं आया, क्या आप समझा सकते हैं?
मैं कुछ समझा नहीं, मुझे लगा कि शायद वह मेरी परीक्षा लेना चाहती है। फिर दूसरे ही क्षण सोचा शायद वह सच में ही जानना चाह रही हो। मैं ने मौज में कहा -अभी समझा देते हैं। फिर मैं ने इंगित श्लोक निकाला, उसे पढा़ और समझाने लगा। तब बस कोटा के इंजिनियरिंग कॉलेज के सामने से गुजर रही थी। उस एक श्लोक पर चर्चा करते-करते मैं ने क्या क्या कहा मुझे खुद को स्मरण नहीं। लेकिन जब चर्चा पूर्ण हुई तो बाडौली आ चुका था। अर्थात रावतभाटा केवल तीन किलोमीटर रह गया था। हम पैंतीस किलोमीटर की यात्रा तय कर चुके थे और मुझे इस का बिलकुल ध्यान नहीं था। शिक्षिका स्वयं भी विज्ञ थी। उस ने बीच में एक ही प्रश्न पूछा -आप मार्क्सिस्ट हैं? मैं ने उत्तर दिया -शायद! उस की प्रतिक्रिया थी -तभी आप इतना अच्छे से समझा सके हैं। 

रावतभाटा के निकट बाडौली स्थित प्राचीन शिव मंदिर
 रावतभाटा बाजार में पाँच-छह सवारियाँ उतरी तो हर सवारी मुझे बड़ी श्रद्धा के साथ नमस्कार कर के गई, मुझे लगा कि यदि मैं ने पेंट-शर्ट के स्थान पर धोती-कुर्ता पहना होता तो शायद चरण स्पर्श भी होने लगता। जीप ऊपर टाउनशिप में पहुँची जहाँ सभी सवारियाँ उतर गईं। वहाँ भी उन्हों ने बाजार में उतरने वाली सवारियों की भांति ही श्रद्धा का प्रदर्शन किया। मैं जीप से उतरा और जीप वाले को किराया बारह रुपए दिया। जीप वाले ने पूछा -आप वापस कितनी देर में जाएंगे? मैं ने कहा -भाई, मैं तो यहाँ मुकदमे में पैरवी करने आया हूँ, अदालत में काम निपट गया तो घंटे भर में भी वापस जा सकता हूँ और शाम भी हो सकती है। -तो साहब! मैं भी एक घंटे बाद वापस कोटा जाऊंगा। आप एक घंटे में वापस आ जाएँ तो मेरी ही जीप में चलिएगा, वापसी का किराया नहीं लूंगा।  मैं एक घंटे में तो वापस न लौट सका। पर मुझे आम लोगों में गीता के प्रति जो श्रद्धा है उस का अवश्य अनुभव हो गया। इतना आत्मविश्वास जाग्रत हुआ कि मैं सोचने लगा कि यदि मैं दो जोड़ा कपड़े और एक गीता की प्रति ले कर निकल पड़ूँ, तो इस श्रद्धा की गाड़ी पर सवार हो कर बिना किसी धन के पूरी दुनिया की यात्रा कर के वापस लौट सकता हूँ।

रविवार, 24 जनवरी 2010

बीज ही वृक्ष है।

मेरे एक मित्र हैं, अरविंद भारद्वाज, आज कल राजस्थान हाईकोर्ट की जयपुर बैंच में वकालत करते हैं। वे कोटा से हैं और कोई पन्द्रह वर्ष पहले तक कोटा में ही वकालत करते थे। कुछ वर्ष पूर्व तक वे अपने पिता जी की स्मृति में एक आयोजन प्रतिवर्ष करते थे। एक बार उन्हों ने ऐसे ही अवसर पर एक आयोजन किया और एक संगोष्ठी रखी। इस संगोष्ठी का विषय कुछ अजीब सा था। शायद "भारतीय दर्शनों में ईश्वर" या कुछ इस से मिलता जुलता। कोटा के एक धार्मिक विद्वान पं. बद्रीनारायण शास्त्री को उस पर अपना पर्चा पढ़ना था और उस के उपरांत वक्तव्य देना था। उस के बाद कुछ विद्वानों को उस पर अपने वक्तव्य देने थे।

मैं संगोष्ठी में सही समय पर पहुँच गया। पंडित बद्रीनारायण शास्त्री ने अपना पर्चा पढ़ा और उस के उपरांत वक्तव्य आरंभ कर किया। जब बात भारतीय दर्शनों की थी तो षडदर्शनों को उल्लेख स्वाभाविक था। दुनिया भर के ही नहीं भारतीय विद्वानों का बहुमत सांख्य दर्शन को अनीश्वरवादी और नास्तिक दर्शन  मानते हैं। स्वयं बादरायण और शंकराचार्य ने सांख्य की आलोचना उसे नास्तिक दर्शन कहते हुए की है। पं. बद्रीनारायण शास्त्री जी को षडदर्शनों में सब से पहले सांख्य का उल्लेख करना पड़ा, क्यों कि वह भारत का सब से प्राचीन दर्शन है। शास्त्री जी कर्मकांडी ब्राह्मण और श्रीमद्भगवद्गीता में परम श्रद्धा रखने वाले। गीताकार ने कपिल को मुनि कहते हुए कृष्ण के मुख से यह कहलवाया कि मुनियों में कपिल मैं हूँ। भागवत पुराण ने कपिल को ईश्वर का अवतार कह दिया। कपिल सांख्य के प्रवर्तक भी हैं और गीता का मुख्य आधार भी सांख्य दर्शन है।  संभवतः इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए उन्हों ने धारणा बनाई कि सांख्य दर्शन एक अनीश्वरवादी दर्शन नहीं हो सकता, स्वयं ब्रह्म का अवतार कपिल ऐसे दर्शन का प्रतिपादन बिलकुल नहीं सकते? इस धारणा के बनने के उपरांत वे संकट में पड़ गए।
खैर, शास्त्री जी का व्याख्यान केवल इस बात पर केंद्रित हो कर रह गया कि सांख्य एक ईश्वरवादी दर्शन है। अब यह तो रेत में से तेल निचोड़ने जैसा काम था।  शास्त्री जी तर्क पर तर्क देते चले गए कि ईश्वर का अस्तित्व है। उन्हों ने भरी सभा में इतने तर्क दिए कि सभा में बैठे लोगों में से अधिकांश में जो कि  लगभग सभी ईश्वर विश्वासी थे, यह संदेह पैदा हो गया कि ईश्वर का कोई अस्तित्व है भी या नहीं? सभा की समाप्ति पर श्रोताओं में यह चर्चा का विषय रहा कि आखिर पं. बद्रीनारायण शास्त्री को यह क्या हुआ जो वे ईश्वर को साबित करने पर तुल पड़े और उन के हर तर्क के बाद लग रहा था कि उन का तर्क खोखला है। ऐसा लगता था जैसे ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं और लोग जबरन उसे साबित करने पर तुले हुए हैं।

मैं ने यह संस्मरण अनायास ही नहीं आप के सामने सामने रख दिया है। इन दिनों एक लहर सी आई हुई है। जिस में तर्कों के टीले परोस कर यह समझाने की कोशिश की जाती है कि अभी तक विज्ञान भी यह साबित नहीं कर पाया है कि ईश्वर नहीं है, इस लिए मानलेना चाहिए कि ईश्वर है। कल मुझे एक मेल मिला जिस में एक लिंक था। मैं उस लिंक पर गया तो वहाँ बहुत सी सामग्री थी जो ईश्वर के होने के तर्क उपलब्ध करवा रही थी। इधर हिन्दी ब्लाग जगत में भी कुछ ब्लाग यही प्रयत्न कर रहे हैं और रोज एकाधिक पोस्टें देखने को मिल जाती है जिस में ईश्वर या अल्लाह को साबित करने का प्रयत्न किया जाता है। इस सारी सामग्री का अर्थ एक ही निकलता है कि दुनिया में कोई भी चीज किसी के बनाए नहीं बन सकती। फिर यह जगत बिना किसी के बनाए कैसे बन सकता है, उसे बनाने वाली अवश्य ही कोई शक्ति है। वही शक्ति ईश्वर है। इसलिए सब को मान लेना चाहिए कि ईश्वर है।

मैं अक्सर एक प्रश्न से जूझता हूँ कि जब बिना बनाए कोई चीज हो ही नहीं सकती तो फिर ईश्वर को भी किसी ने बनाया होगा? तब यह उत्तर मिलता है कि ईश्वर या खुदा तो स्वयंभू है, खुद-ब-खुद है। वह अजन्मा है, इस लिए मर भी नहीं सकता। वह अनंत है। लेकिन इस तर्क ने मेरे सामने यह समस्या खड़ी कर दी कि यदि हम को अंतिम सिरे पर पहुँच कर यह मानना ही है कि कोई ईश्वर या खुदा या कोई चीज है जिस का खुद-ब-खुद अस्तित्व है तो फिर हमें उस की कल्पना करने की आवश्यकता क्यों है? हम इंद्रियों से और अब उपकरणों के माध्यम से परीक्षित और अनुभव किए जाने वाले इस अनंत जगत को जो कि उर्जा, पदार्थ, आकाश और समय व्यवस्था है उसे ही स्वयंभू और खुद-ब-खुद क्यों न मान लें? अद्वैत वेदांत भी यही कहता है कि असत् का तो कोई अस्तित्व विद्यमान नहीं और सत के अस्तित्व का कहीं अभाव नहीं। (नासतो विद्यते भावः नाभावो विद्यते सत् -श्रीमद्भगवद्गीता) विशिष्ठाद्वैत भी यही कहता है कि बीज ही वृक्ष है। अर्थात् जो भी जगत का कारण था वही जगत है। संभवतः इस उक्ति में यह बात भी छुपी है कि बीज ही वृक्ष में परिवर्तित हो चुका है। इसी तरह जगत का कारण, कर्ता ही इस जगत में परिवर्तित हो चुका है। इस जगत का कण-कण उस से व्याप्त है। जगत ही अपनी समष्टि में कारण तथा कर्ता है, और  खंडित होने पर उस का अंश।

बुधवार, 17 जून 2009

कहाँ से आते हैं? विचार!

सांख्य विश्व की सब से प्राचीन दार्शनिक प्रणाली है। हमें इस बात का गर्व होना चाहिए कि वह हमारे देश में पैदा हुई और हम उस के वारिस हैं।  किन्तु जब मैं मूल सांख्य की खोज में निकला तो मुझे यह क्षोभ भी हुआ कि मूल सांख्य को लगभग नष्ट कर दिया गया है।  आज सांख्य का मूल साहित्य विश्व में उपलब्ध नहीं है।  प्राचीन काल में सर्वाधिक लोकप्रिय इस दर्शन की समझ भारतीय जनता में इतनी गहरी है कि आज बहुत से ग्रामीण बुजुर्गों के पास उस का ज्ञान परंपरा से उपलब्ध मिल जाता है।

इस संबंध में मुझे राजस्थान के वरिष्ठ गीतकार हरीश भादानी जी का सुनाया एक संस्मरण याद आ रहा है। उन्होंने प्रोढ़ शिक्षा के क्षेत्र में राजकीय प्रयासों के साथ भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। उसी के दौरान वे प्रौढ़ शिक्षा के महत्व के बारे में बताने के लिए राजस्थान के किसी ग्राम में पहुँचे। वहाँ प्रोढ़ों और बुजुर्गों की एक बैठक बुलाई गई। ग्राम में कोई भी स्थान उपयुक्त न होने से यह बैठक किसी व्यक्ति द्वारा बनाए गए एक कमरे की इमारत की छत पर हुई जिसे धर्मशाला कहा जाता था। इस इमारत का रख-रखाव ग्रामसभा के जिम्मे था और यह सार्वजनिक कामों में ही आती थी। बैठक में भादानी जी के बोलने के उपरांत जब ग्राम के बुजुर्गों को बोलने को कहा गया तो उन में से एक 60 वर्षीय वृद्ध खड़ा हुआ और शिक्षा के महत्व पर धाराप्रवाह बोलने लगा। करीब एक घंटे के भाषण  में उस ने सांख्य दर्शन की जो सहज व्याख्या की उस से भादानी जी सहित सभी श्रोता चकित रह गए।  भादानी जी को उन दिनों व्याख्यान देने वालों को मानदेय़ देने का अधिकार था। उन्हों ने उन बुजुर्ग को प्रस्ताव दिया कि उन्हों ने सब की सांख्य की जो क्लास ली है उस के लिए वे मानदेय देना चाहते हैं।  कुछ ना नुकुर के बाद  बुजुर्ग ने वह मानदेय लेना स्वीकार कर लिया।  उन को धन दिया गया जिसे बुजुर्गवार ने तुरंत उस धर्मशाला के रखरखाव की मद में दान कर दिया।  हरीश जी ने अपने लिपिक को उस धन की रसीद बना कर हस्ताक्षर कराने को कहा। रसीद बन गई और जब बुजुर्गवार से हस्ताक्षर करने को कहा तो उन्हों ने प्रकट किया कि वे तो लिखना पढ़ना नहीं जानते। अगूठा करेंगे।


सांख्य प्राचीन भारत में इतना लोकप्रिय था कि श्रीमद्भगवद्गीता में गीताकार ने एकोब्रह्म का प्रतिनिधित्व कर रहे श्रीकृष्ण से यह कहलवाया कि मुनियों में कपिल मैं हूँ।  यही कपिल मुनि सांख्य के प्रवर्तक माने जाते हैं। मूल सांख्य तो खो चुका है, उसे हमारे ही लोगों ने नष्ट कर दिया। वह कहीं मिलता भी है तो उन के आलोचकों के ग्रन्थों के माध्यम से, अथवा दूसरे ग्रंथों में संदर्भ के रूप में।  मुनि बादरायण (कृत) ने ब्रह्मसूत्र (के शंकर भाष्य) में कपिल की आलोचना करते हुए कपिल के जगत-व्युत्पत्ति संबंधी सूत्र को इस प्रकार अंकित किया (गया) है .....
अचेतनम् प्रधानम् स्वतंत्रम् जगतः कारणम्! -कपिल
अर्थात् - कपिल कहते हैं कि अचेतन आदि-पदार्थ (प्रधान) ही स्वतंत्र रूप में जगत का कारण है।

इस तरह हम देखते हैं कि सर्वाधिक प्राचीन, लोकप्रिय, भारतीय दार्शनिक प्रणाली जगत की व्युत्पत्ति का कारण स्वतंत्र रूप से अचेतन आदि पदार्थ को मानती है। अर्थात सब कुछ उस आदि अचेतन पदार्थ की देन है। विचार भी।  विचार को धारण करने के लिए एक भौतिक मस्तिष्क की आवश्यकता है।  इस भौतिक मस्तिष्क के अभाव में विचार का अस्तित्व असंभव है।  मस्तिष्क होने पर भी समस्त विचार चीजों, लोगों, घटनाओं, व्यापक समस्याओं, व्यापक खुशी और गम से अर्थात इस भौतिक जगत और उस में घट रही घटनाओं से उत्पन्न होते हैं।  उन  के सतत अवलोकन-अध्ययन के बिना किसी प्रकार मस्तिष्क में कोई विचार उत्पन्न हो सकना संभव नहीं। कोई लेखन, कविता, कहानी, लेख, आलोचना कुछ भी संभव नहीं; ब्लागिरी? जी हाँ वह भी संभव नहीं। 


हरीश भादानी जी का एक गीत...
सौजन्य ...harishbhadani.blogspot.com/

कल ने बुलाया है...

मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!
खामोशियों की छतें
आबनूसी किवाड़े घरों पर
आदमी आदमी में दीवार है
तुम्हें छैनियां लेकर बुलाया है
सीटियों से सांस भर कर भागते
बाजार, मीलों,
दफ्तरों को रात के मुर्दे,
देखती ठंडी पुतलियां
आदमी अजनबी आदमी के लिए
तुम्हें मन खोलकर मिलने बुलाया है!
बल्ब की रोशनी रोड में बंद है
सिर्फ परछाई उतरती है बड़े फुटपाथ पर
जिन्दगी की जिल्द के
ऐसे सफे तो पढ़ लिये
तुम्हें अगला सफा पढ़ने बुलाया है!
मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!
  • हरीश भादानी