@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: Travel
Travel लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Travel लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

कमलेश्वर महादेव (क्वाँळजी) में कुछ घंटे

क्वाँळजी शिव मंदिर
श्वरी बाबा का नौकरी का मुकदमा अभी चल रहा है। आते-आते बाबा ने पूछा उस में क्या हो रहा है? मैं ने बताया कि इस बार आप का बयान होना है, उस के लिए आना पड़ेगा। वे तारीख पूछने लगे तो मैं ने कहा मैं फोन पर बता दूंगाष बाबा ने अपने एक चेले को हमारी कार में बिठा भेजा जिस से हम से वहाँ टेक्स वसूल न किया जा सके। चेला टोल प्लाजा पर उतर गया। हम वापस लौटे, इन्द्रगढ़ को पीछे छोड़ा। कोई चार किलोमीटर चलने पर एक पुल के नीचे से रेललाइन को पार किया और सामने जंगल दिखाई पड़ने लगा। हमें कोई दस किलोमीटर और चलना था। एक वाहन चलने लायक सड़क थी। बीच-बीच में एक दो मोटरसायकिल वाले मिले। दो छोटे-छोटे गाँव भी पड़े। क्वाँळजी पहुँचने के तीन किलोमीटर पहले सवाईमाधोपुर वन्य जीव अभयारण्य आरंभ हो गया। क्वाँळजी इसी के अंदर था। 

मंदिर द्वार
दूर से ही मंदिर का शीर्ष दिखाई देने लगा था। शीर्ष पर जड़े कलात्मक पत्थर उखड़ चुके थे,अंदर ईंटों का निर्माण दिखाई दे रहा था। ठीक मंदिर से पहले एक पुल था जिस के नीचे हो कर त्रिवेणी बहती थी, जो पुरी तरह सूखी थी। पुल के पहले दाहिनी ओर एक सड़क जा रही थी जो सौ मीटर दूर जा कर समाप्त होती थी। वहीं छोटे आकार वाला बड़ा कुंड होना चाहिए था। हमने पुल पार किया। वाहन रोक दिया गया। बायीं ओर एक मैदान में पार्क करने को कहा गया। हम ने कार पार्क की तो एक सज्जन टोकन दे कर दस रुपए ले गए। बाकायदे पार्किंग की व्यवस्था थी। सड़क की दूसरी ओर चाय-पान के लिए छप्पर वाली दुकानें लगी थीं। हम सीधे मंदिर पहुँचे। मंदिर के नीचे फिर दुकानें थीं जहाँ नारियल, प्रसाद बिक रहे थे। पास ही कुछ महिलाएँ आक-धतूरे के पुष्पों की मालाएँ और विल्वपत्र भी बेच रहे थे। शोभा (पत्नी) ने नारियल, प्रसाद, मालाएँ और विल्वपत्र वह सब कुछ खरीदा जिन से शिवजी के प्रसन्न होने की संभावना बनती थी। 

द्वार का बायाँ स्तम्भ
द्वार का दायाँ स्तम्भ
मारे पास कैमरा न था, मोबाइल चार थे। जिन में से तीन में कैमरा था। सब से अच्छा वाला था बेटी पूर्वा के पास। मैं ने उस का मोबाइल थाम लिया। मंदिर की सीढ़ियों के पहले ही पुरातत्व विभाग का बोर्ड लगा था। जो सूचित करता था कि यह मंदिर उन के संरक्षण में है। मंदिर के आगे लाल पत्थरों का बना चबूतरा था, जिस पर चढ़ने के लिए पत्थरों की सीढ़ियाँ थीं। उन की घिसावट बता रही थी कि वे कम से कम सात-आठ शताब्दी पहले बनाई गई होंगी। सीढ़ियाँ धूप तप कर गर्म हो गई थीं। मैंने मंदिर के सामने से कुछ चित्र लिए, द्वार अभी सही सलामत था। मेरे हमारे पैर जलने लगे। हम ने शीघ्रता से मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश किया। अंदर ठंडक थी। गर्भगृह उज्जैन के महाकाल मंदिर से बड़ा था। उस की बनावट देख कर लगा कि वह उस से अधिक भव्य भी था। बीचों बीच लाल पत्थर का बना शिवलिंग स्थापित था। प्रवेश द्वार के सामने पार्वती की सफेद संगमरमर  की प्रतिमा थी। मैं पहले जब यहाँ आया तब यह स्थान रिक्त था। शायद प्राचीन प्रतिमा पहले किसी ने चोरी कर ली होगी। फर्श पर संगमरमर लगाया हुआ था। दीवारों पर भी जहाँ पुराने पत्थर हट गए थे वहाँ सिरेमिक टाइल्स लगा दी गई थीं। शिवलिंग के आसपास इतना स्थान था कि पचास-साठ भक्त एक साथ समा जाएँ। अंदर दो पुजारी और एक-दो दर्शनार्थी ही थे।  शोभा ने साथ लाई सामग्री से पूजा की और सामने हाथ जोड़ बैठ गईं।  मैं ने मंदिर का अवलोकन किया और कुछ चित्र लिए। मुझे स्मरण हो आया कि दाहजी (दादाजी) जब तक गैंता में रहे हर श्रावण मास में यहाँ आते रहे। वे पूरे श्रावण मास यहीं रह कर श्रावणी करते थे। शायद उन की ये स्मृतियाँ ही मुझे यहाँ खींच लाई थीं। हम पंद्रह मिनट गर्भगृह में रुके। बाहर आ कर परिक्रमा की कुछ चित्र वहाँ भी लिए। समय के साथ मंदिर का प्राचीन वैभव नष्ट होता जा रहा था। मंदिर के आसपास बने पुराने कमरों की छतें गायब थीं। लेकिन पास ही नए निर्माण हो चुके थे। 
पूजा कराते पुजारी

म मंदिर से नीचे उतरे तो सामने ही छोटा लेकिन आकार में बड़ा कुंड दिखाई दिया। कुंड में पानी था। मुझे आश्चर्य हुआ कि कुंड में पानी होते हुए भी त्रिवेणी सूखी क्यों है? सोतों पर ही कुंडों का निर्माण हुआ था।उन से निकल कर ही जल त्रिवेणी में बहता था। एक दुकानदार ने बताया कि कुंडों का पानी तो कार्तिक में ही समाप्त हो जाता है। उस के बाद तो कुंडों में नलकूप का पानी डाला जाता है जिस से दर्शनार्थी स्नान कर सकें। यह मनुष्यकृत समस्या थी। आसपास की पहाड़ियों पर स्थित जंगल कट चुके थे। ये पहाड़ियाँ ही तो वर्षा का जल अपने अंदर भरे रखती थीं जो इन कुंडों के सोतों में आता था। पहाड़ियाँ नंगी हुई तो उन की जल धारण क्षमता कम हो गई। अब कुंडों में पानी कहाँ से आता। शोभा कुंड में नीचे पानी तक उतर गई। पानी कुछ गंदला था। फिर भी उस ने श्रद्धावश अपने हाथ-मुहँ उस में पखारे। मैं ने भी उस का अनुसरण किया। बच्चे कुंड तक नहीं आए। बाहर आ कर मैं ने बड़े कुंड के लिए पूछा तो दुकानदार ने त्रिवेणी के पहले वाली सड़क का उल्लेख कर दिया।


नई स्थापित की गई पार्वती प्रतिमा
म पार्किंग तक पहुँचे। अब कुछ भूख भी लगने लगी थी। पार्किंग में ही कार के सभी दरवाजे खोल कर फल निकाल कर तराशे। मूंगफली के तले हुए दाने और मूंगफली की बनी हुई मिठाई निकाल ली गई। सब ने फलाहार किया।  वापस चले तो पुल पार करते ही कार को बड़े कुंड के मार्ग पर मोड़ दिया। कुंड देखते ही मन निराशा से भर गया। यह कुंड आकार में छोटा था और अपने महात्म्य के कारण ही बड़ा कहाता था। कुंड को पूरी तरह ध्वस्त कर चौड़ा कर दिया गया था। चौड़ा करने में जिस तरह का निर्माण किया गया था। उस की प्राचीनता समाप्त हो गई थी। यहाँ भी कुंड में नलकूप द्वारा डाला जा रहा पानी था। यात्री आ कर उसी में स्नान कर रहे थे।  लोग यहाँ पहुँचते ही सब से पहले इसी कुंड में स्नान करते, फिर मंदिर के पास बने बड़े कुंड में, उस के बाद मंदिर में दर्शन करने जाते। मुझे अब विचार आया कि हम ने तो सारी प्रक्रिया को ही उलट डाला था। इस पूरे स्थान को प्राचीन इमारतों का संरक्षण करने वाले सिद्धहस्त लोगों के निर्देशन में पुननिर्माण की आवश्यकता है। इसे प्रमुख दर्शनीय स्थल और पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित किया जा सकता है। पर मौजूदा सरकार में ऐसी सोच होना संभव प्रतीत नहीं होता। हम वापस इंद्रगढ़ की ओर चल दिए। वहाँ अभी एक और मुवक्किल और एक वकील मित्र से मिलना था। 

सब से बायीं ओर बैठी शोभा

मंदिर के बाहर कलात्मक प्रतिमाएँ
 
मंदिर आधार पर शेष बची प्रस्तर कला


आकार में बड़ा, नाम में छोटा कुंड
(दायीं ओर नलकूप से जल लाता पाइप दिखाई दे रहा है)
नोट :  सभी चित्रों को क्लिक कर के बड़े आकार में स्पष्ट देखा जा सकता है। 


बाबा ईश्वरीप्रसाद की कॉफी और क्वाँळजी के लिए प्रस्थान

श्वरी प्रसाद केशवराय पाटन में सहकारी शुगर मिल में काम करता था। लाल झंडा यूनियन का ईमानदार नेता था। कभी उस ने भी क्रांति और समाजवाद के सपने देखे थे और उन के लिए काम भी किया था। उसे आज भी दृढ़ विश्वास है कि समाज जरूर बदलेगा। फिर अचानक इलाके में गन्ना उत्पादन घाटे का सौदा हो गया। चीनी मिल बंद होने के कगार पर पहुँच गई। एक दिन वह काम से लौटा तो थका हुआ था। कुछ पी खा कर बिस्तर पर सोया ही था कि मिल से फोन आ गया। कोई विवाद हो गया था और प्रबंधक बुला रहे थे। उस ने मना किया कि जो भी होगा सुबह देखेंगे। लेकिन ज्यादा जोर दिया तो वह चला गया। एक तो थकान, दूसरे नींद और तीसरे नशा। विवाद में प्रबंधकों के साथ खुल कर गाली-गलौच किया। प्रबंधक तो ताक में थे ही उसे आरोप लगा कर नौकरी से चलता किया। मिल बंद करना आसान हो गया। कुछ दिन मिल कॉलोनी में रहता रहा फिर गाँव लाखेरी चला गया। वहाँ एक हनुमान मंदिर पर कुछ असामाजिक लोग कब्जा करने को थे। उस ने वहाँ धूनी रमा दी और बाबा जी हो गया। मंदिर पर रामायण पाठ शुरु हो गया। लोग आने लगे तो मंदिर का जीर्णोद्धार करवा दिया। कुछ बरस पहले जब मेगा हाईवे बन रहा था तो इंद्रगढ़ से तीन किलोमीटर आगे एक हनुमान मूर्ति स्थापित थी, कोई उस की पूजा भी न करता था और वह सड़क में बाधा थी। ठेकेदार ने उसे उठा कर आगे नाले में फिंकवा दिया। गाँव वालों को पता लगा तो उन का गुस्सा भड़क उठा। पुरानी मूर्ति तो खंडित हो गई थी। वे नई ले आए और सड़क के ठीक किनारे उसे स्थापित कर दिया। मूर्ति तो स्थापित हो गई लेकिन अब उस की सुरक्षा कैसे हो? गाँव वालों को ईश्वरी बाबा की याद आ गई। उन्हें वहाँ ले गए। ईश्वरी बाबा ने 108 अखंड रामायण पाठ की घोषणा कर दी। धीरे-धीरे भक्तगण जुड़ने लगे। कोई पत्थर लाया कोई सीमेंट। मूर्ति के चारों और एक कमरा बन गया और लोहे के जंगले का दरवाजा लग गया। मंदिर तो हो ही गया। अखंड पाठ अभी चल रहा है।
टोल प्लाजा से लौटते हुए
श्वरी बाबा हमारी कार को टोल प्लाजा से मुफ्त निकाल मंदिर तक ले गए। मंदिर के पास ही एक चाय की थड़ी लगी थी। उस के अलावा कुछ नहीं था। ईश्वरी कहने लगे -आप को कॉफी पिलाने लाया हूँ। इस के पहले कॉफी तभी पी थी जब आप के पास कोटा आया था। फिर वह अपनी और मंदिर की कथा सुनाने लगे। उन्हें विश्वास था कि दो-चार बरस में मंदिर भव्य रूप ले लेगा। मैं ने कहा तुमने तो चोला ही बदल डाला -कहाँ यूनियन बाजी और कहाँ ये जटाजूट बाबा। ईश्वरी कहने लगे -कुछ भी हो मैंने लाल झंडा तो नहीं छोड़ा। जिस दिन लोग गरम होंगे  ऐसे ही लोगों को ले कर मैदान में कूद पड़ूंगा। यहाँ भी लोगों को संगठित तो कर ही रहा हूँ। मुझे लगा कि अभी भी क्रांति और समाजवाद का सपना उस की आँखों में जीवित है। कॉफी पी कर हम वहाँ से उठ लिए। हमें क्वाँळजी भी जाना था। ईश्वरी ने क्वाँळजी जाने का मार्ग बताया। 

क्वाँळजी मंदिर के बाहर एक मूर्ति
क्वाँळजी' बोले तो कमलेश्वर महादेव। यह इंद्रगढ़ से कोई पन्द्रह किलोमीटर दूर जंगल के बीच सातवीं से नवीं शताब्दी के बीच निर्मित शिव मंदिर है। बाद में 1345 में राजा जैतसिंह ने इस की मरम्मत और नवीनीकरण करवाया। (यहाँ इस के बारे में कुछ जानकारी उपलब्ध है) मैं पहले भी यहाँ दो बार जा चुका हूँ। एक बार पिताजी और माँ साथ थे। तब मेरी उम्र कोई आठ नौ वर्ष की रही होगी। तब यहाँ का दृश्य मनोरम था। एक बड़े चबूतरे पर स्थापित विशाल, भव्य और कलात्मक शिव मंदिर। पास ही तीन कुंड। जिन में एक छोटा और एक बड़ा कहलाता था। आकार में बड़े कुंड को छोटा और छोटे को बड़ा कहते थे। बड़े कुंड में लोग मृतकों की अस्थियाँ और राख डालते थे और उस का जल राख के कारण हमेशा काला रहता था। लेकिन उस कुंड में स्नान अवश्य करते थे। उस के बाद छोटे कुंड के निर्मल जल में स्नान करते। लोगों को विश्वास था कि बड़े कुंड में स्नान करने से चर्मरोग मिट जाते हैं। पास ही एक छोटी सी बारह मासी नदी बहती थी। तीन पहाड़ी सोतों का पानी उस में आता था और त्रिवेणी  कहलाती थी।  रात ठहरने को मंदिर परिसर के सिवा कुछ न था। एक पक्की धर्मशाला जातीय समुदाय द्वारा निर्मित की जा रही थी। उस बार पिताजी ने वहीं त्रिवेणी के किनारे जगरा लगा कर लड्डू-बाटी बनाए थे। उस समय की बहुत धुंधली यादें अब रह गई हैं। फिर दूसरी बार अचानक आना हुआ।

म्मा के हाथों में एक्जीमा था। दवाओं से मिट जाता था। लेकिन साल दो साल बाद फिर से निकल आता था। उस की इच्छा थी कि वह कमलेश्वर महादेव के कुंड में स्नान कर आए। शायद एक्जीमा से छुटकारा मिले। पिता जी के एक शिष्य ने जाने की योजना बनाई तो माँ ने भी उन के साथ जाना तय कर लिया। माँ तैयार हो गई। सुबह की ट्रेन से जाना था। लेकिन एक घंटे पूर्व ही पिताजी के शिष्य ने खबर भिजवाई कि उन्हें कोई जरूरी काम पड़ गया है तो नहीं जा पाएंगे। माँ का मूड खराब हो गया। मैं ने कहा मैं साथ चलता हूँ। उस बार वहाँ गया तो वहाँ अनेक धर्मशालाएँ बन चुकी थीं। कुंडों और त्रिवेणी में पानी अब भी था, पर उस की निर्मलता कम हो चली थी। माँ ने वहाँ स्नान किया दर्शन किए और हम चले आए। उस यात्रा में आगे डिग्गी के कल्याण जी और जयपुर भी गए। जयपुर में माँ ने गलता कुंड में भी स्नान किया और उसी रात दोनों हाथों का एक्जीमा भड़क उठा. तुरंत घर लौटे और डाक्टर का इलाज आरंभ करवाया। डाक्टर इलाज कर के थक चुका था। उस ने स्वयं-रक्त चिकित्सा (Autologous blood treatment) की प्राचीन पद्धति अपनाई और माँ का एक्जीमा मिट गया। अम्मा कहती है कि यह सब कमलेश्वर महादेव की कृपा है। डाक्टर को यह स्वयं-रक्त चिकित्सा पहले क्यों याद न आई। यह तीसरा मौका था जब मैं वहाँ जा रहा था। इस बार पत्नी और दोनों बच्चे साथ थे। 

रविवार, 24 अप्रैल 2011

इन्द्रगढ़ और बीजासन माता मंदिर

डूंगरली, गैंता, लाखेरी, इंद्रगढ़, कमलेश्वर महादेव और श्योपुर को
एक साथ दिखाता मानचित्र 
सुबह छह बजे पत्नी शोभा ने जगाया तो कॉफी हाजिर थी। तैयार होने में फुर्ती की तब भी घर से निकलते निकलते घड़ी की सुइयाँ आठ से ऊपर निकल चुकी थीं। डेढ़ किलोमीटर दूर चंम्बल पुल पार कर पेट्रोल पम्प से पेट्रोल लिया। तब तक शोभा अपनी छोटी बहिन से बात कर चुकी थी। उस का कस्बा केशवराय पाटन कोटा से 20 कि.मी. की दूरी पर था। उस से पूछा गया कि वह भी साथ चल रही है क्या। पर वह रामनवमी का दिन था और उसे कन्याओं को भोजन कराना था वह हमारे साथ नहीं चल सकती थी। यूँ वह साथ हो जाती तो कार में एक यात्री क्षमता से अधिक हो जाता। पेट्रोल पंप छोड़ा तो सवा आठ बज चुके थे।  इंद्रगढ़ तक की हमारी यह यात्रा कुल 90 किलोमीटर की थी। सड़क काफी अच्छी थी। कोटा-लालसोट हाई-वे अभी कुछ बरस पहले ही बना है। बीच-बीच में कुछ व्यवधान अवश्य थे, लेकिन कार की गति 80-90 बनी हुई थी। हमने केशवराय पाटन को पीछे छोड़ा, फिर आया लबान गाँव और स्टेशन। यहाँ से हमारा गाँव गैंता सिर्फ नौ किलोमीटर था, बाधा थी तो केवल बीच में चंबल नदी जिस पर बरसों से पुल प्रस्तावित है। लेकिन घड़ियाल अभयारण्य होने से सर्वोच्च न्यायालय की अनुमति के लिए रुका हुआ था। पिछले सप्ताह ही सर्वोच्च न्यायालय ने इस पुल को बनाने की अनुमति प्रदान कर दी है। इस पुल के बनने के बाद झालावाड़ और बाराँ सड़क मार्ग से लालसोट, मथुरा और दिल्ली से जु़ड़ जाएंगे। हो सकता है नदी किनारे बसे गैंता को इस से पुनर्जीवन प्राप्त हो जाए।  लबान से कोई सात किलोमीटर पर सीमेंट उत्पादक नगर लाखेरी था। यहाँ आते ही मुझे अपने एक पुराने मुवक्किल ईश्वरीप्रसाद का स्मरण हुआ। मैं ने उसे फोन लगाया तो पता लगा कि वह इंद्रगढ़ से सवाई माधोपुर जाने वाले मार्ग पर इंद्रगढ़ से तीन किलोमीटर दूर किसी मंदिर में अखंड रामायण के आयोजन में व्यस्त है। हम बिना रुके इंद्रगढ़ पहुँचे तो साढ़े नौ बज चुके थे। 

इंद्रगढ़ किला
इंद्रगढ़ का राजप्रासाद
इंद्रगढ़ को बूंदी के राजकुमार इंद्रसाल सिंह ने 1605 में बसाया था। यह पहाड़ी की तलहटी में बसा छोटा सा कस्बा है। जिस की आबादी 2001 की जनगणना के अनुसार 5000 से कुछ ही अधिक थी और अभी भी 6000 के ऊपर नहीं निकली है। पहाड़ी पर छोटा किन्तु सुंदर सा किला और राजप्रासाद है जो दूर से ही दिखाई देता है। राजस्थान में अभी भी यह स्थिति है कि 15000 से अधिक आबादी के अनेक कस्बों में नगरपालिका नहीं है। लेकिन यहाँ आजादी के पहले से नगरपालिका स्थापित थी जिसे यहाँ के राजा ने स्थापित किया था। जब यह स्वतंत्र राज्य राजस्थान में विलीन हुआ तो विलीनीकरण की एक शर्त यह भी थी कि यहाँ की नगरपालिका सदैव बनी रहेगी, इसे ग्राम पंचायत में परिवर्तित नहीं किया जाएगा। इसी कारण आज तक आबादी कम होने पर भी यहाँ नगरपालिका है। इसी कारण इस नगर का स्वरूप भी पूर्ववत  बना हुआ है। हमने इंद्रगढ़ कस्बे को एक तरफ छोड़ा और वहाँ से तीन किलोमीटर दूर बीजासन माता मंदिर पहुँचे। 

मेला और पहाड़ी जिस की चोटी पर बीजासन माता मंदिर स्थित है 
मंदिर एक पहाड़ी पर ऊँचाई पर स्थित है जिस के लिए लगभग साढ़े सात सौ सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। चढ़ाई आरंभ होने के कोई आधा किलोमीटर दूरी पर ही हमें कार छोड़नी पड़ी, आगे नवरात्र पर लगने वाला मेला चल रहा था। सड़क के दोनों ओर दुकानें सजी हुई थीं। इन में ग्रामीणों की आवश्यकताओं की वस्तुओं के अलावा खाने-पीने के सामान और माताजी की पूजा अर्चना के सामान की दुकानें थीं। दुकानदार बुला-बुला कर पूजा का सामान खरीदने का आग्रह कर रहे थे। इस मामले में शोभा चतुर थी। सब सामान कोटा से ही तैयार कर ले चली थी। मेला पार कर के हम उस स्थान पर पहुँचे जहाँ से सीढ़ियाँ आरंभ होती थीं। हमें आरंभ में कम ऊँचाई की चौड़ी सीढ़ियाँ मिलीं। लेकिन जैसे जैसे सीढ़ियाँ चढ़ते गए सीढ़ियों की ऊँचाई बढ़ती गई, और चौड़ाई घटती गई। दर्शनार्थियों की संख्या कम न थी। लगातार पीछे से लोग आते जा रहे थे। इस कारण बीच में रुकना संभव नहीं था। फिर भी किसी चौड़ी सीढ़ी पर एक मिनट साँस लेते और ऊपर चढ़ते जाते। सीढ़ियों पर हमें गेहूँ के दाने बिखरे मिले जिन्हें कुछ लोग लगातार समेट कर अपने झोलों में भरते भी जाते थे।दर्शनार्थी फिर से गेंहूँ के दाने सीढ़ियों पर बिखेर देते थे। मुझे यह कुछ अच्छा नहीं लगा। अधिकतर दर्शनार्थी अपने जूते चप्पल मेले में उतार आए थे और नंगे पैर चढ़ रहे थे। गेहूँ के दानों पर कोई फिसल भी सकता था। हम ने अपने जूते-चप्पल नहीं उतारे थे। जब मंदिर तक पहुँचने में केवल दस-बारह सीढ़ियाँ रह गईं और आने-जाने की सीढ़ियाँ अलग हुई तो हम ने अपने जूते चप्पल वहीं एक चट्टान पर खोल दिए। 
मंदिर में बीजासन माता की प्रतिमा
कुछ ही देर में हम मंदिर में थे। मंदिर दो स्तरीय था। निचले स्तर पर एक कमरे जैसा स्थान था जहाँ एक नाई बैठा कुछ भक्तों का मुण्डन कर रहा था।  पास ही एक युवक और एक महिला सिर हिला रहे थे, जैसे किसी की आत्मा उन में प्रवेश कर गई हो।  पर लोग उन की तरफ केवल एक निगाह डाल कर आगे बढ़ जाते थे। वहाँ रुकने का स्थान न था। दर्शनार्थियों का प्रवाह ऐसा था कि एक मिनट में दर्शन करें और आगे चल दें। रुकने पर मार्ग रुक जाने की संभावना थी। मंदिर के स्वयंसेवक और तैनात पुलिसकर्मी  लोगों को लगातार आगे बढ़ते रहने का निर्देश बार-बार दे रहे थे। हम लोग कुल दो मिनट मंदिर में रुके, दर्शन किए और आगे बढ़ गए। माताजी की प्रतिमा सुंदर और आकर्षक थी। लेकिन वहाँ लोग गेहूँ के इतने दाने बिखेर रहे थे कि पावों के नीचे गेहूँ ही गेहूँ महसूस हो रहा था। हालांकि लगातार लोग उन दानों को समेटते भी जाते थे। मैं सोच रहा था कि इन गेहूँ के दानों का क्या महत्व रहा होगा? (कोई पाठक बताएगा?) 

पहाड़ी के नीचे के मंदिर में बीजासन माता मंदिर
जैसे ही हम मंदिर के बाहर निकले मेरे मोबाइल की घंटी बज उठी। ईश्वरी प्रसाद का फोन था। उस ने बताया कि वह मंदिर वाली सडक जहाँ हाई-वे से मिलती है वहाँ हमारा इंतजार कर रहा है। वहाँ लाल झंड़ा लगी जीप खड़ी है वह उसी की है। मैंने उसे कहा हम आधे घंटे में उस तक पहुँचते हैं। मंदिर से नीचे उतरने में हमें अधिक समय न लगा। जैसे ही सीढि़याँ समाप्त हुई हम ने राहत की साँस ली। बच्चों ने झोले में से पानी की बोतल निकाली, हम चारों ने पानी पिया। नीचे पहाड़ी की तलहटी में माताजी का एक और मंदिर बना हुआ था। यात्रियों के साथ कुछ वृद्ध लोग भी होते हैं जो पहाड़ी नहीं चढ़ सकते, वे यहीं दर्शन कर कुछ देर विश्राम करते हैं और अपने सहयात्रियों के पहाड़ी से लौटने पर उन के साथ हो लेते हैं। हमने यहाँ भी दर्शन किए। लोग यहाँ भी गेहूँ के दाने इस तरह उछाल रहे थे कि वे मंदिर के छज्जों पर गिरें। लेकिन छज्जों से गेहूँ के दाने नीचे मंदिर के प्रवेश द्वार पर ही आ गिरते थे। वहाँ भी उन्हें समेटने के काम में कुछ लोग लगे थे। हम ने कार संभाली। हाई-वे पर पहुँचते ही हमें लाल झंडे वाली जीप मिल गई। ईश्वरी प्रसाद वहाँ न दिखे।  जैसे ही जीप के पास जा कर मैंने कार रोकी। एक आदमी जीप से उतरा और कहने लगा मैं बाबा को बुलाता हूँ। एक मिनट में ही ईश्वरी प्रसाद वहाँ हाजिर था, बिलकुल बाबा बना हुआ। सर के बाल जटा में तब्दील हो चुके थे। बदन पर एक बंडी थी और पैरों में लाल धोती लपेट रखी थी। वह मुझे बता रहा था कि वह जिस मंदिर पर 108 रामायण पाठ करवा रहा है उस से सौ मीटर पहले टोल प्लाजा है। यदि वह नहीं आता तो टोल वाले कम से कम पचास रुपए की रसीद बना देते। इसलिए खुद लेने आया है। हम उस की जीप के पीछे-पीछे चल पड़े। ...

कुछ और चित्र 

मेला और पहाड़ी पर बीजासन माता मंदिर

मंदिर के लिए आरंभिक सीढ़ियाँ
सीढ़ियों की उँचाई अब बढ़ चली
सीढ़ियों की चढ़ाई के बाद मंदिर प्रवेश के कुछ पहले
विश्राम करते माँ-बेटे
और उतरते हुए 
मंदिर से नीचे मैदान का दृश्य
मंदिर के ठीक बाहर तैनात सिपाही
इन चित्रों पर क्लिक कर के आप बड़े आकार में देख सकते हैं।

सोमवार, 24 जनवरी 2011

शादी में रोला और हाड़ौती साहित्यकार गिरधारी लाल मालव जी से मुलाकात

रसों रात ही यह तय हो गया था कि रविवार को यहाँ से पचास किलोमीटर दूर स्थित कस्बे अन्ता में एक शादी में जाना है। इस तरह की शादी में जाना हमेशा इस दृष्टि से लाभदायक रहता है, कि उस में बहुत लोगों से मिलना जुलना होता है, जिन में अधिकतर रिश्तेदार होते हैं। रिश्तेदारों से मिलना विवाह आदि समारोहों में ही हो पाता है। एक समारोह बहुत सी पिछली यादें ताजा कर देता है। मैं पत्नी-शोभा को तो जाना ही था। शोभा की एक बहिन और उस के जेठ का पुत्र भी आ गए। इस तरह हमारी मारूती-800 के लिए सवारियाँ पूरी हो गईं। हम सुबह 11 बजे रवाना हो गए। कोई छह किलोमीटर चलने के बाद एक्सप्रेस हाई-वे पर पहुँच गए। यह हाई-वे अभी पूरा नहीं बना है लेकिन जितना बना है वह सुख देता है। हाई-वे पर एक-आध किलोमीटर ही चले होंगे कि समीर लाल जी का स्मरण हो आया। उन की उपन्यासिका 'देख लूँ तो चलूँ' परसों शाम ही मिली थी। उसे आधी ही पढ़ पाया था। लेकिन फिर भी मैं उन के अनुभव से अपने होने वाले अनुभव से तुलना करने लगा। लेकिन बहुत अंतर था। कुछ ही दूर चले थे कि एक लंबा ट्रक लेन पर तिरछा हो रहा था, उस का अगला एक्सल टूटा पड़ा था। गाड़ी निकलने का स्थान न था। कार को वापस मोड़ा और पिछले कट से वापसी की लेन पकड़ी, सामने वाले को नजर आ जाएँ इस लिए दिन में सवा ग्यारह पर भी कार की हेडलाइट चालू कर ली। कोई एक किलोमीटर आगे कट मिला वहाँ से अपनी लेन पर आए। हम ने कार की गति बढ़ाई तो, सौ तक ले गए लेकिन उसे सुरक्षित न जान कर अस्सी-नब्बे के बीच चलना ठीक समझा। अब समीर जी की कार जैसा क्रूज तो मारूती-800 में था नहीं, इस लिए एक्सीलेटर भी संभालना पड़ा और स्टीयरिंग भी। बीस किलोमीटर चलने पर टोल मिला तो उस ने आने-जाने के पचास रुपये ले लिए। इस राशि में कोटा से अंता एक आदमी बस से जा कर लौट सकता था।
जिस धर्मशाला में विवाह का प्रोग्राम हो रहा था, उस के बाहर की सड़क पर सब्जी मंडी लगी थी। बीच की सड़क पर पहले से इतने वाहन खड़े थे कि वहाँ पार्क करना आसान नहीं था। हम ने बाकी सब को वहीं उतारा और पास सौ मीटर के दायरे में एक अन्य संबंधी के घर के बाहर कार को पार्क किया। उन के यहाँ अंदर गए तो स्वागत में पानी का एक गिलास मिला। मुझे लगा कि अंदर गृहणी रसोई में चाय के लिए खटपट कर रही है। मैं ने जोर से आवाज लगाई -चाय मत बनाना, मैं चाय नहीं पीता, बीस साल हो गए छोड़े हुए। मेजबान ने तुरंत कॉफी का ऑफर दिया जो कुछ ही देर में बन कर आ गई। अब अंदर कुछ भी चल रहा हो, अपनी तो पौन घंटे के कार चालन के बाद कॉफी का जुगाड़ हो ही गया। कॉफी जुगाड़ने की अपनी यह तरकीब अब तक सौ-फीसदी कामयाब रही है। कभी असफलता नहीं मिली। 
मैं वापस पहुँचा तो दूल्हे का यज्ञोपवीत संस्कार अंतिम चरण में था। दूल्हा अपने गुरू के लिए भिक्षाटन पर निकला था। भिक्षा पात्र में कोई सौ रुपए एकत्र हुए, दानदाताओं ने इस काम में बहुत कंजूसी की। कुछ देर बाद ही फिर से दूल्हा भिक्षाटन के लिए निकल पड़ा। इस बार भिक्षा माँ की भेंट के लिए थी। इस बार लोगो की कंजूसी कम हो गई। लोग पचास-बीस और दस के नोट अपने बटुओं में से निकाल कर डालने लगे। इस दौर में पिछले दौर के मुकाबले कम से कम दस गुना राशि भिक्षा पात्र में प्राप्त हुई। गणित साफ थी पहले वाली कमाई तो यज्ञोपवीत संस्कार कराने वाले पंडित को मिलनी थी, इस बार दूल्हे की माँ को। पहली वाली में रिटर्न की गुंजाइश शून्य थी,  दूसरी में भरपूर। वैसे यह परिणाम नया नहीं है। कोई सैंतालीस बरस पहले जब मेरी जनेऊ हुई थी तब भी माजरा ऐसा ही था, फर्क था तो इतना कि तब अनुपात 1:10 का न हो कर 1:4 का रहा होगा। यज्ञोपवीत संस्कार के संपन्न होते ही। लोग छोटे बड़े थैले ले आगे बढ़ने लगे, दूल्हे, उस के माता-पिता और परिजनों को भेंट देने के लिए कपड़े लाए थे। दूल्हे के पिता ने दूल्हे के अतिरिक्त शेष लोगों को कपड़े पहनाने के लिए मना करते हुए क्षमा मांगी। वहाँ रौला मच गया। लोग तो पैसा खर्च कर के कपड़े आदि लाए थे। उन्हें इस में अपनी हेटी जान पड़ी। 
वास्तव में अब कुछ लोगों का मंतव्य यह बनने लगा है कि यह कपड़े पहनाने  की कुरीति बंद होनी चाहिए। इस में फिजूलखर्ची बहुत होती है। बात तो सही और उचित है, लेकिन जब भी कोई इस के लिए आगे बढ़ता है ऐसे ही बाधा आ जाती है। कपड़े पहनाने वाले जोर से बोलने लगे। उन में एक को बहुत तकलीफ हो रही थी। वह  व्यक्ति दूल्हे की माँ को राखी बांधता था, और कम से कम पचास हजार खर्च कर कपड़े ले कर आया था। मैं उसे पास के कमरे में ले गया। समझाया तो उस की रुलाई फूट पड़ी, कहने लगा। बरसों से बहन मुझे राखी बांधती है, बड़ी हसरत से आज उस के सारे परिवार के लिए कपड़े ले कर आया हूँ तो यह देखना पड़ा है। मैं सगा भाई होता तो शायद ऐसा न होता। गलती तो दूल्हे के पिता की भी थी। उस ने जो कदम उठाया वह सुधार का अवश्य था। पर इन लोगों को पहले से इस बात से अवगत कराना था। कम से कम उन के मन की हसरतें वहीं शांत हो जातीं, और खर्च भी न होता। पर गलती तो हो चुकी थी। यदि वह अपना निश्चय तोड़ता तो यह दूसरी गलती होती, सुधार का एक कदम पीछे लौट जाता। खैर, समझाने पर थोड़ी देर में रोला खत्म हो गया। लोगों को भोजन के लिए आमंत्रण मिला तो सब भोजन स्थल की चल पड़े। 
दोपहर का भोजन आशा से बहुत अधिक अच्छा था। लेकिन उस में हाड़ौती के स्थाई पुराने मेनू  के नुकती (बूंदी)  और नमकीन सेव गायब थे। नुकती का स्थान मूंगदाल के हलवे और सेव का स्थान तले हुए पोहे की बनी खट्टी-मीठी नमकीन ने ले ली थी।  भोजन के बाद कुछ कार्यक्रम था। सब लोग उस की तैयारी करने लगे। मुझे उस में रुचि कम थी। भोजन स्थल से कोई दो किलोमीटर दूर गाँव बरखेड़ा में हाड़ौती के साहित्यकार कवि गिरधारी लाल मालव का निवास है। मैं चुपचाप कार में बैठा और उस तरफ चल पड़ा। 

मालव जी के घर के पिछवाड़े की बगीची

मालव जी के घर के पीछे आंगन में विश्राम करती भैंसें



मालव जी
मालव जी घर पर न थे, उन की बेटी मिली जो निकट के ही एक घर से उन्हें बुलाने चली। मैं भी उस के साथ ही चला। वह घर के भीतर गई मैं बाहर रुक गया। मिनट भर बाद ही मालव जी बाहर आ गए। मुझे देखते ही उन की बाँछे खिल गई, उन्हों ने मुझे बाजुओं में जकड़ कर भींच लिया। हम उन के घर के पिछवाड़े खुले में आ बैठे। जिस के एक और उन का घर था दूसरी ओर छोटी सी बगीची, जिस में उन्हों ने शिव मंदिर बनाया हुआ है। मालव जी अध्यापक थे। कोई चौदह वर्ष से सेवा निवृत्त हो गए हैं। उम्र अब 72 की है। उन का घर अभी भी मिट्टी की कच्ची दीवारों और खपरैल की छत का है। हम वृक्ष के पत्तों से छन कर आयी धूप में बैठ गए। बातें करने लगे। हाड़ौती की कविता, गीतों की बात हुई, गद्य की बात हुई। मुझे पता न था। कि उन का एक कहानी संग्रह और एक उपन्यास प्रकाशित हो चुका है। उन्हों ने दोनों मुझे भेंट किए। उन्हें ब्लागीरी की कोई जानकारी न थी। जब मैं ने उन्हें बताया कि मैं साल में एक पोस्ट मकर संक्रांति पर हाड़ौती में लिखता हूँ तो उन्हें बेहद खुशी हुई। मैं चाय नहीं पीता तो हम ने एक एक कप दूध पिया। उन के अपने घर की भैंसों का शुद्ध दूध। उसे पी कर मुझे मेरे बचपन की स्मृति हो आई। वे अपनी योजनाओं के बारे में बताने लगे, वे हाड़ौती के साहित्य के इतिहास पर कुछ लिखना चाहते हैं।  मैं ने उन्हें कहा कि वे इसे जल्दी लिखें, यह एक धरोहर बनने वाला है। साढ़े चार बजते-बजते फोन की घंटी बज गई। मेरे लिए बुलावा था। मैं ने उन से विदा चाही। वे मुझे सड़क तक छोड़ने आए। हम दोनों ने ही जल्दी फिर मिलने की आस जताई। मैं वापस विवाह स्थल पहुँचा तो शोभा अपनी बहिन सहित वापसी के लिए तैयार थी। शोभा की बहिन को शाम को कोटा में एक और विवाह में जाना था। हम तुरंत ही लौट पड़े। मालव जी की दो पुस्तकें मेरे लिए अमूल्य भेंट हैं। न जाने क्यों पिछले तीन दिनों से पुस्तकें मिल रही हैं। दो दिन पहले ही महेन्द्र नेह के घर गया था। वहाँ से सात पुस्तकें मुझे मिलीं, परसों शाम समीर जी की उपन्यासिका और अब कल ये दो पुस्तकें। लगता है अगला सप्ताह इन्हें पढ़ने में बीतेगा।  

मालव जी कुछ सोचते हुए
मालव जी अपने उपन्यास के साथ



















गुरुवार, 20 मई 2010

श्रीमद्भगवद्गीता के साथ मेरे अनुभव

डॉ. अरविंद मिश्र ने आज समूचे ब्लागजगत से पूछ डाला -आपने कभी गीता पढी है ? अब मैं इस प्रश्न का क्या उत्तर देता? हमारे यहाँ श्रीमद्भगवद्गीता की यह स्थिति है कि उस की कम से कम पाँच-दस प्रतियाँ हर वर्ष घर में अवश्य आ जाती हैं, और उन्हें फिर आगे भेंट कर दिया जाता है। एक सेवानिवृत्त मेजर साहब हैं वे हर किसी को गीता का हिन्दी और अंग्रेजी संस्करण वितरित करते रहते हैं। अभी कुछ दिन पहले विवाहपूर्व यौन संबंधों की बात सर्वोच्च न्यायालय पहुँची और न्यायाधीशों ने अपना निर्णय सुरक्षित रखा तो उस दिन न्यायाधीशों द्वारा अधिवक्ताओं से पूछे गए कुछ प्रश्नों में राधा-कृष्ण के संबंध का उल्लेख हुआ तो देश में बवाल उठ खड़ा हुआ। मेजर साहब ने मुझे फोन कर के पूछा कि क्या मैं न्यायाधीशों को पत्र लिख सकता हूँ। मैं ने कहा आप की इच्छा है तो अवश्य लिख दीजिए। उन्हों ने पीठ के सभी न्यायाधीशों को पत्र लिखा और साथ में श्रीमद्भगवद्गीता की अंग्रेजी प्रतियाँ उन्हें डाक से प्रेषित कर दीं। गीता हमारे देश में बहुश्रुत और बहुवितरित है। उस का पाठ भी लाखों लोग नियमित रूप से करते हैं। 

मेरे परिवार में परंपरा से किसी की मृत्यु के तीसरे दिन से नवें दिन तक गरुड़ पुराण के पाठ की परंपरा रही है जो मेरी दृष्टि में विभत्स रस का विश्व का श्रेष्ठतम ग्रंथ है। यह अठारह मूल पुराणों के अतिरिक्त पुराणों में सम्मिलित है। जिस परिवार में मृत्यु हुई हो उस समय परिजनों की विह्वल अवस्था में गरुड़ पुराण के सार्वजनिक वाचन की परंपरा कब आरंभ हो गई? कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन मुझे यह कोमल और आहत भावनाओं का शोषण अधिक लगा। नतीजा यह हुआ कि जब परिवार में मेरा बस चलने लगा मैं ने इस पाठ को बंद करवा दिया जो अब सदैव के लिए बंद हो गया है। तब यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि तब परिवार में एकत्र सभी व्यक्ति कम से कम एक बार तो एकत्र हों और कुछ चिंतन करें। माँ ने सुझाव दिया कि इस के स्थान पर गीता का पाठ किया जाए। कुल अठारह अध्याय हैं जिन्हें तीसरे दिन से ग्यारहवें दिन तक नित्य दो अध्याय का वाचन किया जाए। सब को यह सुझाव पसंद आया। अब एक नई समस्या आ खड़ी हुई कि गीता वाचन कौन करे, अर्थ कौन समझाए? माँ ने यह दायित्व मुझे सौंपा और मुझे निभाना पड़ा। हमारे परिवार की देखा-देखी अनेक परिवारों में गरुड़ पुराण के स्थान पर अब गीता पाठ आरंभ हो गया है।
क और घटना जो गीता के संदर्भ में घटी उसे यहाँ रखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। बात उन दिनों की है जब मैं गीता को अपने तरीके से समझने का प्रयत्न कर रहा था। अलग अलग भाष्यों को पढ़ते समय मुझे लगा कि जो भी कोई गीता का भाष्य करता है उस के लिए गीता माध्यम भर है वास्तव में वह अपनी बात, अपना दर्शन गीता की सीढ़ी पर चढ़ कर कह देता है। तब वास्तव में गीता का अर्थ क्या होना चाहिए। यह तभी जाना जा सकता है जब उसे बिना किसी भाष्य के समझने का प्रयत्न किया जाए। गीता की अनेक प्रतियाँ पास में उपलब्ध होते हुए भी एक नयी प्रति खरीदी जिस में केवल श्लोक और उन का अन्वय उपलब्ध था। मैं गीता समझने का प्रयत्न करने लगा। हर समय गीता मेरे साथ रहती, जब भी फुरसत होती मैं गीता खोल लेता और एक ही श्लोक में घंटों खो जाता। 
न्हीं दिनों एक मित्र ने गाढ़ी कमाई से एक जमीन रावतभाटा में खरीदी और कर्ज ले कर उस पर अपना वर्कशॉप बनाने लगे। कुछ पचड़ा हुआ और जमीन बेचने वाले के पुत्र ने दीवानी मुकदमा कर निर्माण पर रोक लगवा दी। मित्र उलझ गए। मुकदमा लड़ने को पैसा भी न था। वे मेरे पास आए। मैं ने उन का मुकदमा लड़ना स्वीकार कर लिया। जिस दिन तारीख होती मुझे रावतभाटा जाना होता। मेहनताना मिलने का प्रश्न नहीं था। बस आने-जाने का खर्च मिलता। उन की पेशी पर जाना था। एक दिन मैं भोजन कर घर से निकला झोले में मुकदमे की पत्रावली और गीता रख ली। बस स्टॉप पर जा कर पान खाया। पान वाले को पैसा देने के लिए पर्स निकाला तो उस में केवल पंद्रह रुपए थे। घऱ वापस जा कर रुपया लाता तो बस निकल जाती। मैं ने तीन रुपए पान के चुकाए। बस का किराया 12 रुपया सुरक्षित रख लिया। बस आने में देर थी, रावतभाटा जाने वाली एक जीप आ गई।  किराया 12 रुपया तय कर लिया। सवारियाँ पूरी होने पर जीप को चलना था। मैं जीप में बैठा गीता निकाल कर पिछले पढ़े हुए के आगे पढ़ने लगा और एक श्लोक को समझने में अटक गया। मेरे पास ही एक महिला शिक्षक आ बैठी। जीप चली तो उस शिक्षिका ने पूछा -भाई साहब! आप गीता पढ़ रहे हैं? मैं ने कहा हाँ। मुझे तीसरे अध्याय का एक श्लोक समझ नहीं आया, क्या आप समझा सकते हैं?
मैं कुछ समझा नहीं, मुझे लगा कि शायद वह मेरी परीक्षा लेना चाहती है। फिर दूसरे ही क्षण सोचा शायद वह सच में ही जानना चाह रही हो। मैं ने मौज में कहा -अभी समझा देते हैं। फिर मैं ने इंगित श्लोक निकाला, उसे पढा़ और समझाने लगा। तब बस कोटा के इंजिनियरिंग कॉलेज के सामने से गुजर रही थी। उस एक श्लोक पर चर्चा करते-करते मैं ने क्या क्या कहा मुझे खुद को स्मरण नहीं। लेकिन जब चर्चा पूर्ण हुई तो बाडौली आ चुका था। अर्थात रावतभाटा केवल तीन किलोमीटर रह गया था। हम पैंतीस किलोमीटर की यात्रा तय कर चुके थे और मुझे इस का बिलकुल ध्यान नहीं था। शिक्षिका स्वयं भी विज्ञ थी। उस ने बीच में एक ही प्रश्न पूछा -आप मार्क्सिस्ट हैं? मैं ने उत्तर दिया -शायद! उस की प्रतिक्रिया थी -तभी आप इतना अच्छे से समझा सके हैं। 

रावतभाटा के निकट बाडौली स्थित प्राचीन शिव मंदिर
 रावतभाटा बाजार में पाँच-छह सवारियाँ उतरी तो हर सवारी मुझे बड़ी श्रद्धा के साथ नमस्कार कर के गई, मुझे लगा कि यदि मैं ने पेंट-शर्ट के स्थान पर धोती-कुर्ता पहना होता तो शायद चरण स्पर्श भी होने लगता। जीप ऊपर टाउनशिप में पहुँची जहाँ सभी सवारियाँ उतर गईं। वहाँ भी उन्हों ने बाजार में उतरने वाली सवारियों की भांति ही श्रद्धा का प्रदर्शन किया। मैं जीप से उतरा और जीप वाले को किराया बारह रुपए दिया। जीप वाले ने पूछा -आप वापस कितनी देर में जाएंगे? मैं ने कहा -भाई, मैं तो यहाँ मुकदमे में पैरवी करने आया हूँ, अदालत में काम निपट गया तो घंटे भर में भी वापस जा सकता हूँ और शाम भी हो सकती है। -तो साहब! मैं भी एक घंटे बाद वापस कोटा जाऊंगा। आप एक घंटे में वापस आ जाएँ तो मेरी ही जीप में चलिएगा, वापसी का किराया नहीं लूंगा।  मैं एक घंटे में तो वापस न लौट सका। पर मुझे आम लोगों में गीता के प्रति जो श्रद्धा है उस का अवश्य अनुभव हो गया। इतना आत्मविश्वास जाग्रत हुआ कि मैं सोचने लगा कि यदि मैं दो जोड़ा कपड़े और एक गीता की प्रति ले कर निकल पड़ूँ, तो इस श्रद्धा की गाड़ी पर सवार हो कर बिना किसी धन के पूरी दुनिया की यात्रा कर के वापस लौट सकता हूँ।

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

काम पड़ेगा तो जाना ही पड़ेगा, गर्मी हो या सर्दी

18 अप्रेल, 2010
पंखा सुधारता मिस्त्री
ड़नतश्तरी ने चित्रों को सही पहचाना वे फरीदाबाद सैक्टर 7-डी के ही थे। बेटी पूर्वा वहीं रहती है। उसी के कारण सपत्नीक वहाँ जाना हुआ। हो सकता था मुझे दो दिन और रुकना पड़ता।  हम कोटा के वकीलों ने 30 अगस्त से छह दिसंबर तक चार माह से कुछ अधिक समय हड़ताल रखी। सारे मुकदमों में विलंब हुआ और यह भी कि उन की अगली तिथियों का प्रबंधन हम न कर पाए। इस के कारण सब ऊल-जलूल तरीके से तारीखों में फिट हो गए। उन्हों ने अब बाहर निकलना दूभर कर दिया है। यदि दो दिन और रुकता तो अपने मुवक्किलों को  अप्रसन्न करता।  लेकिन अभी हमारा समाज बहुत सहयोगी है। मैं ने समस्या का उल्लेख पूर्वा के मकान मालिक से किया तो उन्हों ने कहा -ये भी कोई समस्या है। आप चिंता न करें जरूरत पड़ी तो यह काम मैं स्वयं करूंगा। हम निश्चिंत हुए और आज ही वापस लौट लिए।
कोटा अदालत चौराहे की दोपहर
रोज सुबह आठ बजे अदालत निकल जाना और दोपहर बाद दो बजे तक वहाँ रहना इस भीषण गर्मी में नहीं अखरता।एक तो काम में न सर्दी का अहसास होता है और न गर्मी का। दूसरे कोटा में जहाँ अदालत है वहाँ  आसपास वनस्पति अधिक होने से तापमान दो-चार डिग्री कम रहता है और नमी बनी रहती है। इस कारण गर्मी बरदाश्त हो लेती है। वापस लौट कर घर पर कूलर का सहारा मिल ही जाता है। गर्मियाँ कटती रहती हैं। लेकिन कल सुबह छह बजे ट्रेन कोटा से रवाना हुई और सूरज निकलने के साथ ही गर्मी बढती रही। मथुरा पहुँचते पहुँचते जनशताब्दी का दूसरे दर्जे का डब्बा बिलकुल तंदूर बन चुका था। जैसे तैसे 12 बजे बल्लभगढ़ उतरे तो वहाँ सूरज माथे पर तप रहा था। पूर्वा के आवास पर पहुँचे तो घऱ पूरा गर्म था। कुछ देर कूलर ने साथ दिया और फिर बिजली चली गई। आधी रात तक बिजली कम से कम छह बार जा चुकी थी। बिजली 15 से 30 मिनट रहती और फिर चली जाती। वह शहर में ही ब्याही नई दुल्हन की तरह हो रही थी जो ससुराल में कम और मायके अधिक रहती है।
पंछियों के लिए परिंडा 
रात हो जाने पर हिन्दी ब्लाग जगत के शीर्ष चिट्ठाकार रह चुके अरूण अरोरा (पंगेबाज) जी के घर जाना हुआ।  हमारा सौभाग्य था कि वे घर ही मिल गए। उन्हों ने कुछ मेहमान आमंत्रित किए हुए थे इसलिए वे शीघ्र घर लौट आए थे। वर्ना इन दिनों उन का अक्सर ही आधी रात तक लौटना हो पाता है और सुबह जल्दी घर छोड़ देते हैं। पिछले वर्ष जब सभी उद्योग मंदी झेल रहे थे तब उन्हों ने बहुत पूंजी अपने उद्योग में लगाई थी। मैं सदैव चिंतित रहा कि इस माहौल में उन्हों ने बहुत रिस्क ली है। लेकिन यह जान कर संतोष हुआ कि पूंजी लगाने का सकारात्मक प्रतिफल मिल रहा है। हम उन के घरपहुँचे तब बिजली नहीं थी और रोशनी व पंखा इन्वर्टर पर थे। हमें बात करते हुए दस ही मिनट हुए थे कि वह भी बोल गया। घर से अंधेरा दूर रखने के लिए मोमबत्ती का सहारा लेना पड़ा। कुछ देर में उन के आमंत्रित मेहमान भी आ गए और हम ने विदा ली। रात भर बिजली आती-जाती रही।
सूर्यास्त होने ही वाला है
मारी समस्या हल हो चुकी थी। दोपहर पौने दो बजे कोटा के लिए जनशताब्दी थी। हम उस से वापल लौट लिए। फरीदाबाद हरियाणा सरकार का कमाऊ पूत है। समूचे हरियाणा का आधे से अधिक आयकर इसी शहर से आता है। निश्चित ही राज्य सरकार को भी यहाँ से इसी अनुपात में राजस्व मिलता है। इस शहर की हालत बिजली के मामले में ऐसी है तो यह अत्यंत चिंताजनक बात है। रात को चर्चा करते हुए पंगेबाज जी ने तो कह ही दिया था -और दो काँग्रेस को वोट, अब यही होगा। मैं ने पूछा क्या हरियाणा में इतनी कम बिजली पैदा होती है। तो वे कहने लगे -बिजली तो जरूरत जितनी पैदा होती है लेकिन कांग्रेस की सरकार है तो दिल्ली को बिजली देनी होती है। हम यहाँ भुगतते हैं। अब असलियत क्या है? यह तो कोई खोजी पत्रकार आंकडे़ जुटा कर ही बता सकता है।
लो सूरज विदा हुआ
वापसी यात्रा में जनशताब्दी का डब्बा फिर से तंदूर की तरह तप रहा था। जैसे-तैसे छह घंटों का सफर तय किया और कोटा पहुँचे। मैं शोभा से कह रहा था कि इस भीषण गर्मी में घर छोड़ कर बाहर निकलना मूर्खता से कम नहीं है। वह नाराज हो गई। इस में काहे की मूर्खता है, काम पड़ेगा तो जाना ही पड़ेगा, गर्मी हो या सर्दी। यहाँ आ कर अखबार देखा तो पता लगा कि कल के दिन कोटा का अधिकतम तापमान 45.7 डिग्री सैल्शियस था।

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

और भी गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा



कोटा, 16 अप्रेल 2010

मित्रों!
आज व्यस्तता रही। अदालत से आने के बाद बाहर जाने की तैयारी करनी पड़ी। अब कम से कम दो दिन और अधिक से अधिक चार दिनों तक कोटा से बाहर रहना हो सकता है, वहीं जहाँ के ये दोनों चित्र हैं। चाहें तो आप पहचान सकते हैं. ये दोनों चित्र अनवरत की पिछली पोस्टों पर उपलब्ध हैं।

लगभग ढाई वर्ष से हिन्दी ब्लागीरी में हूँ, और यहाँ नियमित बने रहने का प्रयास रहता है। पर फैज़ सही कह गए हैं -और भी गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा।

तो उन का भी खयाल तो रखना होता है।

यदि समय मिला और आप से जुड़ने का साधन तो इस बीच भी आप से राम-राम अवश्य होगी।


--- दिनेशराय द्विवेदी

शनिवार, 20 मार्च 2010

पलाश और सेमल के बीच एक और यात्रा .....

ल सुबह साढ़े चार की बस पकड़नी थी, तो रात साढ़े दस बिस्तर पर चला गया और तुरंत नींद भी आ गई। बीच में आँख खुली तो सिर्फ डेढ़ बजे थे। मैं घड़ी देख फिर सो लिया। तीन बजे अलार्म की मधुर आवाज ने जगाया। अलार्म ने शोभा को भी जगा दिया था। मैं ने इंटरनेट चालू किया मेल देखे। इस बीच कॉफी तैयार थी। मैं निपटने चला गया। ठीक साढ़े चार बजे बस स्टॉप पर था। पौने पाँच बस चली। रास्ते में झालावाड़ से मेरे मुवक्किल माथुर साहब चढ़े। बातें करते-करते हम आगर पहुँचे, तो सवा दस हो चुके थे। तुरंत शाजापुर की बस मिल गई। हम उस में बैठ लिए। कोटा से झालावाड़ के बीच दरा का जंगल पड़ता है। लेकिन  बस वहाँ से निकली तब सुबह हुई ही थी। झालावाड़ निकलने के बीच बीच में वन-क्षेत्र आते रहे। इन दिनों वन में पलाश खूब फूल रहा है। पलाश के तमाम पत्ते सूख कर झड़ चुके हैं और वह फूलों से लदा पूरी तरह केसरिया नजर आ रहा है। सड़क से दूर मैदान के पार आठ-दस पेड़ दिखाई दे जाते हैं, धूप इन दिनों तेज पड़ रही है धरती गर्म हो रही है, धरती को छू कर हवा गर्म होती है और ऊपर को उठती है तो लगता है इन पलाशों आग लगी है और लौ आकाश की और उठ रही है। कहीं कहीं सेमल भी दिखाई दिए, बिना पत्तों के अपने सुर्ख फूलों के साथ जैसे दुलहन विवाह के लिए सजी खड़ी हो। कुछ दिनों में ही ये खूबसूरत फूल अपना काम कर फलों में बदल जाएंगे और फिर उन फलों से बीजों के साथ रेशमी रुई झड़ने लगेगी। मुझे कहीं कहीं अमलतास भी दिखाई दिए, वे बिलकुल हरे थे। कुछ दिनों में उन की भी यही हालत होनी है। पत्ते झड़ते ही अमलतास पूरी तरह पीला हो जाने वाला था।  मैं सोच रहा था प्रकृति किस तरह प्रतिदिन नया श्रंगार करती है।
 
र्मेंन्द्र टूर एण्ड ट्रेवल्स की यह बस छोटी थी, लेकिन बहुत सजी धजी। उस में एक टीवी लगा था जिस पर वीसीडी से फिल्मी गाने दिखाए  जा रहे थे। सब गाने साठ से अस्सी के दशक के थे और वे ही  मालवा के इस ग्रामीण क्षेत्र के पसंदीदा बने हुए थे। एक बार फिर धूपेड़ा में जा कर रुकी। इस बार दोपहर का समय था। परकोटे के अंदर बसा लोहे के कारीगरों का गांव। इस बार मैं ने ग्राम द्वार के चित्र लिए। गांव अब परकोटे के अंदर नहीं रह गया है। बाहर भी बहुत घर बन गए हैं। विशेष रूप से पंचायत घर और लड़कों और लड़कियों के अलग  अलग उच्च माध्यमिक विद्यालय और भी बहुत सी सरकारी इमारतें वहाँ बनी हैं। इस से लगता है कि गांव प्रगति पर है। एक कॉफी वहाँ पी कुछ ही देर में बस फिर चल दी। साढ़े बारह बजे हम शाजापुर की जिला अदालत में थे। जज ने मुकदमे में पिछली पेशी पर राजीनामे का सुझाव दिया था। हमने विपक्षी वकील से बात की थी, लेकिन विपक्षी यह जानते हुए भी कि उस का दावा पूरी तरह फर्जी है। जमीन जो कभी उस की थी ही नहीं उस के दाम बाजार मूल्य से मांग रहा था। माथुर साहब को यह सब स्वीकार नहीं था। आखिर जज साहब को कहा कि समझौता संभव नहीं है। जज साहब ने बहस सुन ली और निर्णय के लिए एक अप्रेल की तारीख दे दी। हम तुरंत ही बस स्टेंड आ गए। 

गर के लिए सीधी बस नहीं थी। हम सारंगपुर गए और वहाँ से आगर पहुंचे तो रात के सवा आठ बज चुके थे। कोटा के लिए बस नौ बजे आनी थी। दिन भर की थकान से भूख जोरों से लग आई थी।  हमारी  आँखें भोजनालय  की तलाश में थी कि माथुर साहब को ठंडाई की दुकान दिख गई। फिर क्या था? विजया मिश्रित ठंडाई पी गई। फिर भोजनालय पर गए। भोजनालय वाले ने बहुत सारी सब्जियों के नाम गिना दिए। मैं ने पूछा -बिना लहसुन मिलेंगी? तो उस का जवाब  था -बिना लहसुन केवल दाल होगी। हमने दाल-रोटी धनिए की चटनी से खाई पेट पर हाथ फेरते हुए वहाँ से निकले। बस की प्रतीक्षा में पान भी खा लिया गया। बस आई तो एक सीट पर हमने बैग रख दिए, वह हमारी हो गई। तभी माथुर साहब उतरे और गायब हो गए। तब तक विजया असर दिखाने लगी थी। मुझे शंका हुई कि कहीं माथुर साहब रास्ता न भूल जाएँ। मैं ने उन्हें तलाशा लेकिन वे नहीं मिले। मैं उन्हें तलाश करते हुए लघुशंका से निवृत्त हो आया।
 वापस लौटा तो माथुर साहब वापस आ चुके थे। मुझे तसल्ली हुई कि वे विजया के असर के बावजूद लौट आए हैं। बस चली तो हमें नींद आ गई। रात साढ़े बारह पर माथुर साहब झालावाड़ में उतर लिए। अब बस में सीटों से चौथाई भी सवारी नहीं रह गई थी। मैं तीन लोगों के बैठने वाली सीट पर लंबा हो गया। मेरी आँख तब खुली  जब बस कोटा नगर में प्रवेश कर चुकी थी। मैं ठीक तीन बजे घऱ था। अब तक विजया का असर खत्म हो चुका था। नींद भी नहीं आ रही थी। हालांकि साढे पाँच सौ किलोमीटर की इस यात्रा ने बुरी तरह थका दिया था। मैं ने फिर मेल चैक की, कुछ आवश्यक जवाब भी दिए। कुछ ब्लाग भी पढ़े। एक ब्लाग पढ़ते हुए कंप्यूटर हैंग हो गया। मैं उसे उसी हालत में पॉवर ऑफ कर के सोने चला गया। और सुबह साढ़े नौ तक सोता रहा। विजया के असर से नींद भरपूर आई थी। सुबह उठा तो कल की थकान का नामो निशान न था। नींद ने सारे शरीर की मरम्मत कर उसे तरोताजा कर दिया था।

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

नहीं सुन पाए राकेश मूथा की कविता

द्यान में मेरे पास ही बैठे संजय व्यास ने मुझे प्रभावित किया। एक दम सौम्य मूर्ति दिखाई पड़ रहे थे वे। वे पूरी बैठक में कम बोले लेकिन जितना बोले बहुत संजीदा। मैं ने उन्हें अब तक बिलकुल नहीं पढ़ा था। इस कारण उन के लिए बहुत असहज भी था। बाद में जब कोटा आ कर उन का ब्लाग 'संजय व्यास' खोल कर पढ़ा तो उन के गद्य से प्रभावित हुए बिना न रहा। उन की शैली अनुपम है और एक बार में ही पाठक को अपना बना लेती है। उन को बिलकुल वैसा ही पाया जैसे वे अपने ब्लाग पर रचनाओं से जाने जाते हैं। ब्लागीरी उन के लिए अभिव्यक्ति का बिलकुल स्वतंत्र माध्यम है जहाँ वे अपना श्रेष्ठतम व्यक्त कर सकते हैं, जो वे करते भी हैं। 
मेरी दूसरी ओर राकेश मूथा थे। वे राह से ही हमारे साथ थे। कुछ बातचीत भी उन से हुई थी। पेशे से इंजिनियर मूथा जी देखने से ही कलाप्रेमी दिखाई देते हैं। वे वर्षों से नाटकों से जुड़े हैं और अभी भी सक्रिय हैं। उन्हों ने अपने ब्लाग सीप का सपना पर अपनी कविताएँ ही प्रस्तुत की हैं। इसी नाम से उन का काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है। वे अपनी डायरी साथ ले कर आए थे और कुछ कविताएँ सुनाना चाहते थे। हम भी इस बैठक को कवितामय देखना चाहते थे। उन्हों ने अपनी डायरी पलटना आरंभ किया। उन की इच्छा थी कि वे चुनिंदा रचना सुनाएँ। मैं ने आग्रह किया कि वे कहीं से भी आरंभ कर दें। मुझे अनुमान था कि हरि शर्मा जी के उन की माता जी को अस्पताल ले जाने के लिए समय नजदीक आ रहा था। तभी भाभी का फोन आ गया। हरिशर्मा जी ने उत्तर दिया कि मैं अभी पहुँच ही रहा हूँ। अब रुकना संभव नहीं था। समय को देखते हुए मूथा जी ने अपनी डायरी बंद कर दी। हम उन के रचना पाठ से वंचित हो गए।
ब बाहर आ गए। मूथा जी को हरिशर्मा जी के साथ ही जाना था। हम सब ने उन दोनों को विदा किया। जाते-जाते मूथा जी को मैं ने अवश्य कहा कि मैं उन की रचनाओं से वंचित हो गया हूँ, लेकिन अगली जोधपुर यात्रा में अवश्य ही उन की रचनाएँ सुनूंगा, चाहे इस के लिए उन के घर ही क्यों न जाना पड़े। अब हम चार रह गए थे। मैं ने साथ बैठ कर कॉफी पीने का प्रस्ताव रखा, जो तुरंत ही स्वीकार कर लिया गया। हम चारों पास के ही एक रेस्टोरेंट में जा कर बैठे। कॉफी आती तब तक बतियाते रहे। शोभना का कहना था कि उन के ब्लाग पर टिप्पणियाँ बहुत मिलती हैं। इस तरह की भी कि वे एक लड़की हैं इस कारण से उन्हें अधिक टिप्पणियाँ मिलती हैं। यह बात सच भी है और इसे वे जानती भी हैं। कई बार तो अतिशय प्रशंसा भी मिलती है। जब कि वे जानती हैं कि पोस्ट उस के योग्य नहीं थी। इन्हीं बातों को लेकर उन का ब्लागीरी से मन उखड़ गया था। उन्हों ने उसे अलविदा भी कह दिया। उन्हें पता नहीं था कि इस घटना को हिन्दी ब्लागीरी में टंकी पर चढना कहते हैं। लेकिन अनेक ब्लागीरों ने उन का साहस बढ़ाया और वे टंकी से उतर पाने में सफल हो गई। आते-आते भी वे कह रही थीं - अंकल मैं टंकी से उतर आई हूँ, और अब दुबारा नहीं चढ़ने वाली। 
रेस्टोरेंट की कॉफी आई तो प्याला अच्छा खासा बड़ा था, कॉफी स्वादिष्ट भी और दर भी बिलकुल माकूल थी, सिर्फ दस रुपए। रेस्टोरेंट के बाहर आ कर हमने अपनी अपनी राह पकड़ी, इस आशा के साथ कि फिर दुबारा मिलेंगे और तब जोधपुर के और ब्लागीर भी साथ होंगे। काफिला बढ़ेगा ही घटेगा नहीं। संजय व्यास ने मुझे होटल के नजदीक छोड़ा। मुझे कुछ मित्रों से और मिलना था। उन से मिल कर मैं होटल पहुँचा। थकान जोर मार रही थी। होटल पहुँच कर मोबाइल पर अलार्म लगा कर आराम किया। अलार्म बजा तो उठने की इच्छा न थी, पर वापसी के लिए बस भी पकड़नी थी। शाम का भोजन होटल में ही कर बस पर पहुँचा तो बस के आने में समय था। मैं ने यह समय ब्लागरों से फोन पर बात करने में बिताया। हरिशर्मा जी की माताजी की आँख का ऑपरेशन हो चुका था। वे वापस घर पहुँच गई थीं। शोभना ब्लागर मिलन से अच्छा महसूस कर रही थीं। मूथा जी उलाहना दे रहे थे कि मैं ने होटल में भोजन क्यों किया, उन के घर क्यों नहीं गया? संजय व्यास से बात करता इतने बस लग गई। उन्हें फोन कर ही न सका। कोटा पहुँचने के बाद इतना व्यस्त रहा कि आज तक उन से बात न हो सकी।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

ताज़गी और बदलाव के लिए ब्लागीरी

शोक उद्यान में हरी दूब के मैदान बहुत आकर्षक थे। हमने दूब पर बैठना तय किया। ऐसा स्थान तलाशा गया जहाँ कम से कम एक-दो दिन से पानी न दिया गया हो और दूब के नीचे की मिट्टी सूखी हो। हम बैठे ही थे कि हरि शर्मा जी के मोबाइल की घंटी बज उठी। दूसरी तरफ कुश थे। वे उद्यान तक पहुँच चुके थे और पूछ रहे थे कि हम कहाँ हैं।  सूचना मिलते ही हमारी निगाहें प्रवेश द्वार की ओर उठीं तो कुश दिखाई दे गए। हम लोगों ने हाथ हिलाया तो उन्हों ने भी स्थान देख लिया। कुछ ही क्षणों में वे हमारे पास थे। सभी ने उठ कर उन का स्वागत किया। उम्र भले ही मेरी अधिक रही हो लेकिन कुश ब्लागीरी में मुझ से वरिष्ठ हैं, और उन्हें यह सम्मान मिलना ही चाहिए था। 
ब ने अपना परिचय दिया जो मुझ से ही आरंभ हुआ, और उस के बाद ब्लागीरी की अनौपचारिक बातें चल पड़ी। सब ने अपने अनुभवों को बांटा। कुश और मेरे सिवा जोधपुर के कुल चार ब्लागीर वहाँ थे। सभी ने तकनीकी समस्याओं का उल्लेख किया। यह एक वास्तविकता है कि हिन्दी ब्लागीरी में कदम रखना बहुत आसान है लेकिन जैसे-जैसे ब्लागीरी आगे बढ़ती है तकनीकी समस्याएँ आने लगती हैं। लेकिन यदि ब्लागीर में उन से पार पाने की इच्छा हो तो वह हल भी होती जाती हैं।  हिन्दी ब्लागीरी में इस तरह का माहौल है कि लोग समस्याओं को हल करने के लिए तत्पर रहते हैं। अवश्य ही कुश को ऐसी समस्याओं से कम पाला पड़ा होगा आखिर वे वेब डिजाइनिंग का काम करते हैं। तो पहले से उन की जानकारियाँ बहुत रही होंगी और नहीं भी रही होंगी तो उन पर पार पाने का तो उन का पेशा ही रहा है।
फिटिप्पणियों पर बात होने लगी। सब ने कहा कि वे टिप्पणी करने में बहुत अधिक समय जाया नहीं करते। उस का कारण भी है कि वे सभी अपने जीवन में व्यस्त व्यक्ति हैं। शोभना भौतिकी के किसी विषय पर शोधार्थी हैं और उन के दिन का अधिकांश समय शोध के लिए प्रयोग करने में प्रयोगशाला में व्यतीत होता है। सभी ने उन के शोध के बारे में जानना चाहा। उन्हों ने बताया भी लेकिन हम कुछ समझे, कुछ नहीं समझे। मैं ने कहा कि जिस क्षेत्र में वे शोध कर रही हैं उस के बारे में भी अपने ब्लाग पर लिखा करें, हम समझ तो सकेंगे कि आखिर समाज में किसी ब्लागीर के काम का क्या योगदान है और किस किस तरह के  लोग ब्लागीरी में आ रहे हैं?  मैं ने शोभना से उन की आयु पूछी थी, उन्हों ने 24 वर्ष बताई तो मैं ने कहा -मेरी बेटी उन से दो बरस बड़ी है। मुझे इस का लाभ यह हुआ कि मैं तुरंत अंकल हो गया। हालांकि इस लाभ का मिलना उस वक्त ही आरंभ हो गया था जब खोपड़ी की फसल आधी रह चुकी थी और जो शेष थी वह सफेद हो रही थी। 
शोभना कहने लगीं -अंकल! मैं दिन भर प्रयोगशाला में सर खपा कर घर लौटती हूँ और ताज़गी और बदलाव के लिए ब्लाग जगत में जाती हूँ, अगर मैं वहाँ भी वही लिखने लगी तो मेरी खोपड़ी का क्या होगा। उन की बात बिलकुल सही थी। मैं ने फिर भी कहा-कभी कभी अपने काम के बारे में बात करना अच्छा होता है। कम से कम ब्लाग पाठक जानेंगे तो कि उन का ब्लागीर क्या कर रहा है? और यह भी हो सकता है कि किसी पाठक की टिप्पणी ब्लागीर को उस के काम के लिए प्रेरित और उत्साहित करे। शोभना वास्तव में बहुत प्रतिभावान हैं। इस छोटी उम्र में जो उपलब्धियाँ उन्होंने हासिल की हैं उन के लिए मेरे जैसा पचपन में प्रवेश कर चुका व्यक्ति सिर्फ ईर्ष्या कर सकता है। हाँ साथ ही गर्व भी कि बेटियाँ अब उपलब्धियाँ हासिल कर रही हैं।
स बीच हरिशर्मा जी बताने लगे कि वे दस बरस से इंटरनेट पर चैटिया रहे हैं। यदि वे इस के स्थान पर ब्लाग लिख रहे होते तो उन का योगदान न जाने कितना होता। उन की बात भी सही थी। जब मैं ने चैट करना जाना तो मैं भी उस में फँस गया था। बहुत सा समय उस में जाया होता था। हालांकि मैं आगे से कभी चैटियाना आरंभ नहीं करता था। इस बीच मैं ने बताया कि नारी ब्लाग की मोडरेटर रचना जी दिन में चार-पांच बार चैट पर आ जाती थीं। मैं अपने स्वभाव के अनुसार उन्हें मना नहीं कर सकता था। एक दिन उन्हों ने किसी ब्लाग  पर की गई उन की टिप्पणियों के बारे में मेरी राय मांगी।  मेरे मन में रचना जी का सम्मान इस कारण से बहुत बढ़ गया था कि वे नारी अधिकारों और उन की समाज में बराबरी के लिए लगातार लिखती हैं और अन्य नारियों को लिखने को प्रेरित करती हैं। उन की भूमिका एक तरह से ब्लाग जगत में नारियों के पथप्रदर्शक जैसी थी।   मैं उन के बताए ब्लाग पर गया। उन की टिप्पणियों को पढ़ कर मुझे बहुत बुरा महसूस हुआ। मैं ने उन को प्रतिक्रिया दी कि वह एक भद्दी बकवास है। बस, वे बहस कर ने लगी कि वह भद्दा कैसे है? और भद्दा का क्या अर्थ होता है। अंततः उन्हों ने कह दिया कि वे आज के बाद मुझ से चैट नहीं करेंगी। मुझे इस में क्या आपत्ति हो सकती थी? मेरी इस बात पर कुश ने कहा कि रचना का स्टेंड बहुत मजबूत और संघर्ष समझौता विहीन होता है। इस से उन का एक विशिष्ठ चरित्र बना है। मैंने कुश की इस बात  पर सहमति  जाहिर की। (जारी) 

विशेष-चैट की चर्चा चलने पर रचना जी के बारे में अनायास हुई इस बात को हरि शर्मा जी ने जोधपुर ब्लागर मिलन की रिपोर्ट में रचना जी के नाम का उपयोग किए बिना लिखा। इस पर स्वयं रचना जी ने इस पर आकर टिप्पणी भी की। लेकिन जब कुछ अनाम टिप्पणियाँ आने लगी तो हरिशर्मा जी ने उन्हें मोडरेट कर दिया। रचना जी ने नारी ब्लाग पर मेरे और उन के बीच हुए चैट के एक भाग को उजागर कर दिया। मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं। मैं आज भी रचना जी द्वारा मांगी गई राय पर की गई मेरी प्रतिक्रिया पर स्थिर हूँ। मैं ने जो महसूस किया वह प्रकट किया। उस के लिए मेरे पास अपने कारण हैं। उन्हें किसी और पोस्ट में व्यक्त करूंगा। फिलहाल जोधपुर मिलन की रिपोर्ट जारी रहेगी।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

शर्मा जी के घर रुचिकर स्वादिष्ट भोजन

जोधपुर की यह यात्रा पहली नहीं थी। मेरी बुआ यहाँ रहती थी, फूफाजी विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफेसर थे। उन की बेटियों के ब्याह में कोई पेंतीस बरस पहले यहाँ आना हुआ था। यहाँ पहुँचने के पहले मार्ग में ही एक दुर्घटना में पिताजी को चोट लगी और उनका तत्काल ऑपरेशन हुआ दो सप्ताह बाद पुनः ऑपरेशन हुआ। हमें इतने दिन यहीँ रुकना पड़ा। तब कोई काम नहीं था। गर्मी का मौसम था तो दुपहर बाद सायकिल ले कर निकल पड़ता। इस तरह जोधपुर से पहला परिचय ही गहरा था। फिर कुछ बरस पहले यहाँ वकालत के सिलसिले में आना जाना आरंभ हुआ और अब बार कौंसिल की अनुशासनिक समिति के सदस्य के नाते यहाँ निरंतर आना जाना हो रहा है। ऐसे में यह तो नहीं हो सकता था कि जोधपुर के ब्लागीरों से मिलना न होता। पिछली बार हरि शर्मा जी से भेंट हुई, इस बार उन्होंने एक संक्षिप्त ब्लागीर मिलन की योजना को ही कार्यरूप दे डाला।
मैं ने बार कौंसिल के दफ्तर पहुँचा तो रविवार के अवकाश के कारण वहाँ केवल दो कार्यालय सहायक ही उपस्थित थे। वे भी केवल उस दिन होने वाली सुनवाई के लिए। शिकायत कर्ता अपने साक्षियों के साथ उपस्थित थी। मैं ने कार्यवाही आरंभ होने के पहले ही बता दिया कि हरिशर्मा जी आएँगे। यदि वे कार्यवाही समाप्त होने के पहले आ जाएँ तो उन्हें बैठने को कह दिया जाए। कार्यवाही पूर्ण होने के पहले ही सूचना मिल गई कि वे आ चुके हैं। मैं उस दिन की कार्यवाही पूरी कर उन के पास पहुँचा और हम तुरंत ही उन के घर के लिए चल दिए। ब्लागीर मिलन अशोक उद्यान में रखा गया था। डेढ़ बजे तक वहाँ पहुँचना था। वहाँ सब से पहले शर्मा जी की स्नेहमयी माताजी से भेंट हुई। कुछ माह पहले उन की एक आँख के मोतियाबिंद का ऑपरेशन हो चुका था। और उसी दिन शाम को दूसरी का होने वाला था। जिस के लिए उन्हें चार बजे अस्पताल ले जाया जाना था। यह दायित्व भी हरि शर्मा जी का था। 
में ब्लागीर मिलन में जाने की जल्दी थी। भाभी जी (श्रीमती शर्मा) ने तुरंत भोजन लगा दिया। मैं चकित था। थाली में कम से कम छह कटोरियाँ विराजमान थीं। उन्हें पास में चावल थे। मेरी तो भूख ही देखते ही काफूर हो गई। ऐसा पता होता तो मैं सुबह के पराठे में खर्च किया धन अवश्य बचा लेता। खैर मैं ने तय किया कि चपाती और चावल का न्यूनतम उपयोग कर कटोरियाँ खाली कर दी जाएँ। मैं तेजी से इस काम को करने में सफल रहा। मैं ने बताया कि मैं इस काम में उतना सिद्ध-हस्त नहीं जितना मेरे पिताजी थे। उन के भोजन के बाद थाली और कटोरियाँ ऐसी दिखती थीं कि यदि यह पता न हो कि उन में भोजन किया गया है तो उन्हें धुले हुए बर्तनों के साथ जमा दे। भोजन बहुत रुचिकर, स्वादिष्ट, सादा, राजस्थानी मिजाज का और बिलकुल घरेलू था। ऐसा कि किसी भी जोधपुर यात्रा के समय भाभी जी को अचानक कष्ट देने लायक। हम शीघ्रता से वहाँ से ब्लागर मिलन के लिए निकले। भाभी ने शर्मा जी से कहा कि यदि उन्हें वापस लौटने में देर हो तो वे माताजी को समय पर ले कर निकल लेंगी। लेकिन शर्मा जी ने आश्वस्त किया कि वे समय से पहुँच जाएंगे। 
म वहाँ से निकलते इस से पहले ही ब्लागीरों के फोन आने लगे। शर्मा जी ने आश्वस्त किया कि वे कुछ ही देर में पहुँच रहे हैं। पहले आने वाले रुके रहें। मार्ग में एक अधेड़ उम्र के संजीदा दिखने वाले सज्जन वाहन में सवार हुए। शर्मा जी ने परिचय दिया कि वे राकेशनाथ जी मूथा हैं, कवि हैं, एक संग्रह प्रकाशित हो चुका है और अपने ब्लाग पर केवल कविताएँ लिखते हैं। कुछ ही देर में हम उद्यान के बाहर थे। बाहर बोर्ड लगा था "सम्राट अशोक उद्यान"। शर्मा जी ने बताया कि पिछली भाजपा सरकार ने यह बोर्ड लगवा दिया। इस लिए कि कहीं यह "अशोक  गहलोत उद्यान "  न हो जाए। हम अंदर पहुचे तो वहाँ संजय व्यास और शोभना चौधरी मौजूद थीं।