परसों रात ही यह तय हो गया था कि रविवार को यहाँ से पचास किलोमीटर दूर स्थित कस्बे अन्ता में एक शादी में जाना है। इस तरह की शादी में जाना हमेशा इस दृष्टि से लाभदायक रहता है, कि उस में बहुत लोगों से मिलना जुलना होता है, जिन में अधिकतर रिश्तेदार होते हैं। रिश्तेदारों से मिलना विवाह आदि समारोहों में ही हो पाता है। एक समारोह बहुत सी पिछली यादें ताजा कर देता है। मैं पत्नी-शोभा को तो जाना ही था। शोभा की एक बहिन और उस के जेठ का पुत्र भी आ गए। इस तरह हमारी मारूती-800 के लिए सवारियाँ पूरी हो गईं। हम सुबह 11 बजे रवाना हो गए। कोई छह किलोमीटर चलने के बाद एक्सप्रेस हाई-वे पर पहुँच गए। यह हाई-वे अभी पूरा नहीं बना है लेकिन जितना बना है वह सुख देता है। हाई-वे पर एक-आध किलोमीटर ही चले होंगे कि समीर लाल जी का स्मरण हो आया। उन की उपन्यासिका 'देख लूँ तो चलूँ' परसों शाम ही मिली थी। उसे आधी ही पढ़ पाया था। लेकिन फिर भी मैं उन के अनुभव से अपने होने वाले अनुभव से तुलना करने लगा। लेकिन बहुत अंतर था। कुछ ही दूर चले थे कि एक लंबा ट्रक लेन पर तिरछा हो रहा था, उस का अगला एक्सल टूटा पड़ा था। गाड़ी निकलने का स्थान न था। कार को वापस मोड़ा और पिछले कट से वापसी की लेन पकड़ी, सामने वाले को नजर आ जाएँ इस लिए दिन में सवा ग्यारह पर भी कार की हेडलाइट चालू कर ली। कोई एक किलोमीटर आगे कट मिला वहाँ से अपनी लेन पर आए। हम ने कार की गति बढ़ाई तो, सौ तक ले गए लेकिन उसे सुरक्षित न जान कर अस्सी-नब्बे के बीच चलना ठीक समझा। अब समीर जी की कार जैसा क्रूज तो मारूती-800 में था नहीं, इस लिए एक्सीलेटर भी संभालना पड़ा और स्टीयरिंग भी। बीस किलोमीटर चलने पर टोल मिला तो उस ने आने-जाने के पचास रुपये ले लिए। इस राशि में कोटा से अंता एक आदमी बस से जा कर लौट सकता था।
जिस धर्मशाला में विवाह का प्रोग्राम हो रहा था, उस के बाहर की सड़क पर सब्जी मंडी लगी थी। बीच की सड़क पर पहले से इतने वाहन खड़े थे कि वहाँ पार्क करना आसान नहीं था। हम ने बाकी सब को वहीं उतारा और पास सौ मीटर के दायरे में एक अन्य संबंधी के घर के बाहर कार को पार्क किया। उन के यहाँ अंदर गए तो स्वागत में पानी का एक गिलास मिला। मुझे लगा कि अंदर गृहणी रसोई में चाय के लिए खटपट कर रही है। मैं ने जोर से आवाज लगाई -चाय मत बनाना, मैं चाय नहीं पीता, बीस साल हो गए छोड़े हुए। मेजबान ने तुरंत कॉफी का ऑफर दिया जो कुछ ही देर में बन कर आ गई। अब अंदर कुछ भी चल रहा हो, अपनी तो पौन घंटे के कार चालन के बाद कॉफी का जुगाड़ हो ही गया। कॉफी जुगाड़ने की अपनी यह तरकीब अब तक सौ-फीसदी कामयाब रही है। कभी असफलता नहीं मिली।
मैं वापस पहुँचा तो दूल्हे का यज्ञोपवीत संस्कार अंतिम चरण में था। दूल्हा अपने गुरू के लिए भिक्षाटन पर निकला था। भिक्षा पात्र में कोई सौ रुपए एकत्र हुए, दानदाताओं ने इस काम में बहुत कंजूसी की। कुछ देर बाद ही फिर से दूल्हा भिक्षाटन के लिए निकल पड़ा। इस बार भिक्षा माँ की भेंट के लिए थी। इस बार लोगो की कंजूसी कम हो गई। लोग पचास-बीस और दस के नोट अपने बटुओं में से निकाल कर डालने लगे। इस दौर में पिछले दौर के मुकाबले कम से कम दस गुना राशि भिक्षा पात्र में प्राप्त हुई। गणित साफ थी पहले वाली कमाई तो यज्ञोपवीत संस्कार कराने वाले पंडित को मिलनी थी, इस बार दूल्हे की माँ को। पहली वाली में रिटर्न की गुंजाइश शून्य थी, दूसरी में भरपूर। वैसे यह परिणाम नया नहीं है। कोई सैंतालीस बरस पहले जब मेरी जनेऊ हुई थी तब भी माजरा ऐसा ही था, फर्क था तो इतना कि तब अनुपात 1:10 का न हो कर 1:4 का रहा होगा। यज्ञोपवीत संस्कार के संपन्न होते ही। लोग छोटे बड़े थैले ले आगे बढ़ने लगे, दूल्हे, उस के माता-पिता और परिजनों को भेंट देने के लिए कपड़े लाए थे। दूल्हे के पिता ने दूल्हे के अतिरिक्त शेष लोगों को कपड़े पहनाने के लिए मना करते हुए क्षमा मांगी। वहाँ रौला मच गया। लोग तो पैसा खर्च कर के कपड़े आदि लाए थे। उन्हें इस में अपनी हेटी जान पड़ी।
वास्तव में अब कुछ लोगों का मंतव्य यह बनने लगा है कि यह कपड़े पहनाने की कुरीति बंद होनी चाहिए। इस में फिजूलखर्ची बहुत होती है। बात तो सही और उचित है, लेकिन जब भी कोई इस के लिए आगे बढ़ता है ऐसे ही बाधा आ जाती है। कपड़े पहनाने वाले जोर से बोलने लगे। उन में एक को बहुत तकलीफ हो रही थी। वह व्यक्ति दूल्हे की माँ को राखी बांधता था, और कम से कम पचास हजार खर्च कर कपड़े ले कर आया था। मैं उसे पास के कमरे में ले गया। समझाया तो उस की रुलाई फूट पड़ी, कहने लगा। बरसों से बहन मुझे राखी बांधती है, बड़ी हसरत से आज उस के सारे परिवार के लिए कपड़े ले कर आया हूँ तो यह देखना पड़ा है। मैं सगा भाई होता तो शायद ऐसा न होता। गलती तो दूल्हे के पिता की भी थी। उस ने जो कदम उठाया वह सुधार का अवश्य था। पर इन लोगों को पहले से इस बात से अवगत कराना था। कम से कम उन के मन की हसरतें वहीं शांत हो जातीं, और खर्च भी न होता। पर गलती तो हो चुकी थी। यदि वह अपना निश्चय तोड़ता तो यह दूसरी गलती होती, सुधार का एक कदम पीछे लौट जाता। खैर, समझाने पर थोड़ी देर में रोला खत्म हो गया। लोगों को भोजन के लिए आमंत्रण मिला तो सब भोजन स्थल की चल पड़े।
दोपहर का भोजन आशा से बहुत अधिक अच्छा था। लेकिन उस में हाड़ौती के स्थाई पुराने मेनू के नुकती (बूंदी) और नमकीन सेव गायब थे। नुकती का स्थान मूंगदाल के हलवे और सेव का स्थान तले हुए पोहे की बनी खट्टी-मीठी नमकीन ने ले ली थी। भोजन के बाद कुछ कार्यक्रम था। सब लोग उस की तैयारी करने लगे। मुझे उस में रुचि कम थी। भोजन स्थल से कोई दो किलोमीटर दूर गाँव बरखेड़ा में हाड़ौती के साहित्यकार कवि गिरधारी लाल मालव का निवास है। मैं चुपचाप कार में बैठा और उस तरफ चल पड़ा।
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मालव जी के घर के पिछवाड़े की बगीची |
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मालव जी के घर के पीछे आंगन में विश्राम करती भैंसें |
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मालव जी |
मालव जी घर पर न थे, उन की बेटी मिली जो निकट के ही एक घर से उन्हें बुलाने चली। मैं भी उस के साथ ही चला। वह घर के भीतर गई मैं बाहर रुक गया। मिनट भर बाद ही मालव जी बाहर आ गए। मुझे देखते ही उन की बाँछे खिल गई, उन्हों ने मुझे बाजुओं में जकड़ कर भींच लिया। हम उन के घर के पिछवाड़े खुले में आ बैठे। जिस के एक और उन का घर था दूसरी ओर छोटी सी बगीची, जिस में उन्हों ने शिव मंदिर बनाया हुआ है। मालव जी अध्यापक थे। कोई चौदह वर्ष से सेवा निवृत्त हो गए हैं। उम्र अब 72 की है। उन का घर अभी भी मिट्टी की कच्ची दीवारों और खपरैल की छत का है। हम वृक्ष के पत्तों से छन कर आयी धूप में बैठ गए। बातें करने लगे। हाड़ौती की कविता, गीतों की बात हुई, गद्य की बात हुई। मुझे पता न था। कि उन का एक कहानी संग्रह और एक उपन्यास प्रकाशित हो चुका है। उन्हों ने दोनों मुझे भेंट किए। उन्हें ब्लागीरी की कोई जानकारी न थी। जब मैं ने उन्हें बताया कि मैं साल में एक पोस्ट मकर संक्रांति पर हाड़ौती में लिखता हूँ तो उन्हें बेहद खुशी हुई। मैं चाय नहीं पीता तो हम ने एक एक कप दूध पिया। उन के अपने घर की भैंसों का शुद्ध दूध। उसे पी कर मुझे मेरे बचपन की स्मृति हो आई। वे अपनी योजनाओं के बारे में बताने लगे, वे हाड़ौती के साहित्य के इतिहास पर कुछ लिखना चाहते हैं। मैं ने उन्हें कहा कि वे इसे जल्दी लिखें, यह एक धरोहर बनने वाला है। साढ़े चार बजते-बजते फोन की घंटी बज गई। मेरे लिए बुलावा था। मैं ने उन से विदा चाही। वे मुझे सड़क तक छोड़ने आए। हम दोनों ने ही जल्दी फिर मिलने की आस जताई। मैं वापस विवाह स्थल पहुँचा तो शोभा अपनी बहिन सहित वापसी के लिए तैयार थी। शोभा की बहिन को शाम को कोटा में एक और विवाह में जाना था। हम तुरंत ही लौट पड़े। मालव जी की दो पुस्तकें मेरे लिए अमूल्य भेंट हैं। न जाने क्यों पिछले तीन दिनों से पुस्तकें मिल रही हैं। दो दिन पहले ही महेन्द्र नेह के घर गया था। वहाँ से सात पुस्तकें मुझे मिलीं, परसों शाम समीर जी की उपन्यासिका और अब कल ये दो पुस्तकें। लगता है अगला सप्ताह इन्हें पढ़ने में बीतेगा।
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मालव जी कुछ सोचते हुए |
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मालव जी अपने उपन्यास के साथ |