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रविवार, 2 जुलाई 2017

... और तुम घंटा बजाओ

ल पहली बार अंतर्राष्ट्रीय  हिन्दी ब्लॉग दिवस मनाया गया। इस दिन अनेक पुराने ब्लागरों ने पोस्टें लिखीं। एक जमाना था जब हम लगभग रोज कम से कम एक पोस्ट लिखा करते थे। कभी कभी दो या अधिक भी हो जाती थीं। तीसरा खंबा पर यह सिलसिला जारी है। अनवरत पर लगभग सन्नाटा है। अब ब्लॉग दिवस के बहाने यह सन्नाटा टूटा है तो यह भी कोशिश है कि रोज ब्लाग पर कुछ न कुछ लिखा जाए। चलो कुछ लिखते हैं ....

मेरे पास तीसरा खंबा पर औसतन 300-400 समस्याएँ प्रतिमाह प्राप्त होती हैं। कभी कभी लोग केवल अपनी गाथा लिखते हैं लेकिन वे कोई समाधान नहीं चाहते। या तो वे जानते हैं कि इस का कोई ऐसा समाधान नहीं है जो कानून उन्हें दे सकता हो। उन की समस्याएँ समाज, कानून और न्यायव्यवस्था में बड़ा बदलाव चाहती हैं। वह बदलाव तो तब होगा जब होगा। अभी तो उस बदलाव के लिए पर्याप्त आवाज तक नहीं उठती है। खैर!

पिछले सप्ताह मेरेे पास एक सज्जन ने सिवान, बिहार से अपनी गाथा लिख भेजी है। उन का मकसद था कि उन की गाथा और लोग भी जानें। तो मैं उन की गाथा तनिक भाषा. व्याकरण और विराम चिन्हों के सुधार के बाद एक शीर्षक अपनी ओर से देते हुए यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ...


और तुम घंटा बजाओ

मेरी शादी 10.12.2009 को हिन्दू रीति से 5 रुपया दहेज़ में सम्पन्न हुई। मैं दहेज़ के खिलाफ रहता हूँ, शादी के 2 दिन बाद बहुभोज के दिन पत्नी का जीजा और उसकी बुवा का लड़का और एक उसकी बहन आई। मेरे सामने ही उसका बहनोई उसके स्तनों पे हाथ रख के बात करने लगा और मुझे देखते ही उसने हाथ हटा लिया। मैंने पत्नी से पूछा तो बोली मज़ाक कर रहे थे तो मैंने डांट दिया है। मैंने भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया।

मुंह दिखाई मैंने उसको 20000 रुपया दिया कि जरुरत के अनुसार खर्च करना। फिर बीच में उसका अपना भाई आया और मिल कर चला गया। करीब 2 महीने बाद मुझे कुछ पैसों की जरुरत पड़ी तो माँगा, उस ने 10000 रुपया दिया। पूछा और क्या किया? तो बोली हिसाब नहीं पूछा जाता है पत्नी से। इस बात पर मैंने काफी डांट डपट की तो बोली भाई को दी हूँ, उस से क्या हो गया। मैंने कहा वही मुझे बोल कर भी तो दे सकती थी।

बहुभोज के दूसरे दिन रात को उसके जीजा का फोन आया रात को 8:30 पे। मोबाइल में कॉल रिकॉर्डिंग रखता हूँ मैं, उसका जीजा उसको बोला जल्दी सेक्स मत करने देना और अगर जबरदस्ती करे तो चिल्लाने लगना। उसको शक नहीं होगा, वरना पकड़ी जाओगी। मुझे रिकॉर्डिंग सुनकर बड़ा दुःख हुवा, अपना दर्द किसको कहता, शर्म के मारे बात को दबा लिया। शादी के 4 महीनों बाद उसको घुमाने उसके घर ले गया। मैं उसके यहाँ रखा फोटो एल्बम देखने लगा। उस में मेरी पत्नी का उसके जीजा के साथ लवर-पोज़ में फोटो था। उसके बुवा के लड़के के साथ फोटो था। मुझे अब बर्दास्त नहीं हुआ तो पत्नी को पूछा। तो उसकी माँ ने सुन लिया और मुझे बोली उस से क्या हो गया? कोई घटने वाला सामान थोड़े है जो आप चिल्ला रहे हैँ। उस से क्या हो गया जीजा से मिल ली तो आप ज्यादा मत चिल्लाइये वरना जेल में डलवा देंगे। मैं काफी परेशान हो गया, फिर भी पत्नी को घर ले के आ गया 2 दिन में ही। उसके 5 महीने बाद मेरे ससुर आये बोले बिदाई कीजिये। मैंने मना किया, लेकिन मेरे घरवालों ने मुझे समझा कर उसको भेज दिया। फिर मैं 15 दिन बाद गया ससुराल बिदाई कराने तो मेरा ससुर बोला 6 महीना यहीं रहेगी। आप यहीं पे खर्चा दे दीजिये। इस बात पर मेरी ससुर से कहा सुनी हुई काफी दिक्कतों के बाद मेरी पत्नी मेरे साथ आने को तैयार हुई।

आने के 4 महीने बाद बिलकुल यही घटना फिर हुई फिर काफी बातचीत के बाद आई मेरे साथ। उसके बाद 2011 में मुझे एक बेटा हुआ, ऑपरेशन से। बेटे के जन्म के 3 महीने बाद ही वो लोग फिर आ गए बिदाई कराने। तब मुझसे उनका बहुत झगड़ा हुआ कि एक तो आपकी बेटी अपना दूध नहीं पिला रही लड़के को, दूध सुखाने की दवा चला ली और आप इसको डांटने के बजाय ले जाने को तैयार हैं। तो ससुर बोले कि घर पे ले जाकर समझायेंगे। मैंने मना किया तो मेरी पत्नी तैयार हो कर बोली अपना लड़का रखो मैं जा रही हूँ, और वो चली गई।

फिर 2 महीने की मसक्कत के बाद आई। फिर 4 महीने बाद वही घटना, लड़का छोड़ के चली गई। वहाँ 20 दिन रही और मेरे पास कॉल की कि मैं प्रेग्नेंट हूँ, पैसा भेजिए अबोर्शन कराना है। तो मैने 5000 रुपया भेजा। तो पैसा खर्च करके बोली डॉक्टर ने मना किया है गिराने से तो रहने दीजिये। मैंने कहा ठीक है। महीने रह के आई और 15 दिन के बाद से ही मेरे पूरे परिवार में कलह पैदा कर दी। ऐसा हालात बना दी की कोई किसी की मदद न करे। डिलिवरी से 10 दिन पहले ससुर आये बोले भेज दीजिये वही पे करा देंगे, आप खर्च दे दीजिये। मेरा मन नहीं था भेजने का फिर भी 10000 रुपया देकर भेज दिया।

इस वक्त भी लड़का छोड़ कर गई। 2 दिन बाद कॉल आया कि आइये ऑपरेशन के समय आपको रहना पड़ेगा तो मैं गया मेरे पहुँचते ही ससुर अपने घर चला गया, वहाँ मुझे और मेरी सास को और गाँव की 3 औरतों को छोड़कर। मैं वही बैठा था ओटी के सामने रात के 8 बज रहे थे। मेरे सामने से ही नर्स ट्रे में एक बच्चा ले के गई ट्रे को कपडे से ढँक कर। पर बच्चे की ऊँगली ट्रे के बाहर निकली हुई थी तो मैंने सोचा किसी का होगा। तब तक मेरी सास आई और बोली अब नसबंदी भी हो जाए, चलिए साइन कीजिये। मैंने मना किया तो पता नहीं कहा से 4, 5 औरतें 2 मर्द आ गए और मुझसे झगड़ा करने लगे। बोले साइन करो नहीं तो इधर ही काट कर फेंक देंगे तुमको। काफी हुज्जत के बाद भी मुझे साइन करना पड़ा। साइन करने के 20 मिनट बाद नर्स आई, वो ही trey लेके जो लेके गई थी और बोली आपका बच्चा नहीं बचेगा। इसको दिखाइये किसी डॉक्टर को। मैं ये सुनकर वही बेहोश हो गया था, करीब 1 घंटे बाद मुझे होश आया। तभी नर्स ने मेरी सास को बुलाया मेरी सास आते ही बोली आपके लड़के को सरकारी हॉस्पिटल के आईसीयू में रखवाया है जाकर देखिये। मैं रोते हुवे सरकारी हॉस्पिटल गया तो देखा लड़का लावारिस की तरह आईसीयू में पड़ा है। नर्स से पूछा तो वो बोली कि लड़का नहीं बचेगा। उस वक्त मेरे पास 10 रुपया भी नहीं था कि उसको प्राइवेट में दिखाऊं। बस हॉस्पिटल के बाहर बैठ कर उसको मरते हुवे देख रहा था। इसी में सुबह हो गई तब तक नर्स आई बोली लाश ले जाइए, सफाई करना है। वहीं अपनी चांदी की अंगूठी चाय वाले को देकर उससे 400 रुपया क़र्ज़ लिया, लड़के के अंतिम संस्कार के लिए।

जब अंतिम संस्कार करके आया तो देखा हॉस्पिटल में उसका जीजा आया हुवा है और मेरी सास मेरी पत्नी को काजू खिला रही है। मैंने जब पत्नी को बोला कि लड़का मर गया, तो वो बोली ये सब मत सुनाओ भाग्य में नहीं था और लेटे लेटे फिर काजू खाने लगी। इस पर मुझे गुस्सा आया तो मैं उन लोगो को भला बुरा कहने लगा। तब तक मेरा ससुर आया और मुझे धक्का दे कर बोला जाओ तुम्हारे साथ नहीं जायेगी मेरी बेटी और तुमसे खर्च कैसे लेना है मै जानता हूँ। मैं अपने घर आ गया। फिर 10 दिन बाद गया तो वो लोग हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हो रहे हैं तो उनके साथ पत्नी को उसके घर छोड़कर अपने घर आ गया।

बीच बीच में जाकर मिलता रहा फिर काफी मसक्कत के बाद 3 महीने पर वो बिदा करने को राज़ी हुए। पर शर्त थी की 20000 दो पत्नी को ले जाओ। हमारा खर्च हुवा है हॉस्पिटल में। तो इस बात पर कुछ लोगो के समझाने के बाद बोला हमको चाहिए बाद में ही देना और चलो एक सादा स्टाम्प पेपर लाये बोले साइन करो। मैंने मना कर दिया साइन करने से। तो मुझे लेकर मुखिया के पास गए और मुखिया के सामने पेपर पर साइन करने को बोले। पेपर में लिखा था मैं दहेज़ नहीं मांगूंगा अपनी पत्नी से, फिर मारपीट नहीं करूँगा। तो मैंने बोला मैंने कब आपसे 1 रुपया माँगा। तो वो दहेज़ वाली लाइन कटवा दिए। उसके 2 दिन बाद पत्नी को अपने घर ले के आया।

उसके 3 महीने बाद ही मेरा ससुर वो पेपर लेके एसपी के पास आवेदन दे दिया तो महिला थाना मेरे घर पे आई और मुझे मेरी पत्नी को मेरी माँ को पापा को थाने लेके गई। वहां पे जब मैंने सारी बात बताई तो महिला पुलिस मेरे सास ससुर को 4 डंडे लगाईं बोली कैसे माँ बाप हो अपनी बेटी का घर उजाड़ रहे हो। मेरी पत्नी से पूछी तुमने सिंदूर क्यों नहीं लगाया। तो वो बोली याद नहीं आया। जबकि सच ये है कि वो मेरे यहाँ कभी सिंदूर नहीं लगाती है। थाने में बांड भर के हम अपने अपने घर चले आये।

उसके बाद हमेशा घर में जेवर पैसा ग़ुम होने लगा। मैं जान कर चुप हो जाता। पर एक बार बोली कि उसका मंगलसूत्र ग़ुम हो गया है तो इस बात पे मेरा मेरी पत्नी से झगड़ा हुआ। उसने फोन करके अपने बाप को बुला लिया और रोड पे अर्धनग्न बाल बिखेर के निकल गई, उसके माँ और बाप चिल्लाने लगे। अभी मैं कुछ बोलूं उससे पहले ही रिक्शा से चले गए। मैं ढूंढने निकला तब तक भूकम्प आ गया 25 अप्रैल 2015 वाला। तो मैं वापस अपने लड़के के पास चला आया। वो अपने मैके जाके 498, 3/4 और 125 का केस कर दी।

जब मैं बाजार के कुछ सभ्य लोगो को लेकर उसके यहाँ गया तो उसका बाप बोला पैसा दो तो ही कुछ बात होगा। मैंने हुज्जत किया तो उन लोगों के तरफ से कुछ आवारा लड़के थे वहा जो मेरे भाई पे हाथ उठा दिए। मेरा ससुर मुझे अकेले में बुला के बोला जिस तरह कहूँ उस तरह करो वरना ज़िंदा चिमनी में फिंकवा दूंगा। जाओ 50000 रुपया ले कर आओ, केस ख़त्म हो जाएगा। बातचीत में ही 6 महीने हो गए और अब तक मैं रोड पे आ चुका था। अपने सेठ से 50000 रुपया क़र्ज़ ले कर दिया तो मेरी पत्नी मेरे साथ आई और उसके 6 महीने बाद उसने केस ख़त्म करवाया।

उसके बाद खुल कर मेरे सामने ही मोबाइल से पता नहीं कहाँ बात करती। मैं मना करता तो धमकी देती कि ज्यादा चिल्लाओ मत वरना फिर भुगतोगे। मैं चुप हो जाता। इधर 2 महीने पहले 3 बजे सुबह वह बस स्टॉप चली गई, मैके जाने के लिए, लड़के को लेकर। 4 बजे मेरी नीन्द खुली तो बाहर से ताला बंद मिला। मैं छत से 10 फीट कूद कर उसको ढूंढने निकला तो वो बस स्टॉप पे मिली। मुझे देख कर भीड़ इकट्ठा करने की कोशिश करने लगी। सब वहां पहचान के थे और सब जानते थे मेरी आप बीती। तो इसको मेरे साथ भेज दिए। आकर बोली मैं अपने मैके में ही रहूंगी, मुझे वहीं खर्च देना। इसीलिए अब लड़के को लेकर जाउंगी जो कि अब 6 साल का है। इसका खर्च तो तुम्हें देना ही होगा। फिर वो इधर दो महीने पहले घर में रखा 1.5 लाख रुपया गहना, कपडा, लड़का,  साथ ले के दिन में 3 बजे के करीब किसी को बुलाकर उसके बाइक पे बैठ के भाग गई है। मैं क्या करूँ? उसको गोली मार दूँ, या खुद को गोली मार लूँ? भारतीय कानून से किसी भी प्रकार की उम्मीद नहीं मुझे, इतना हुआ मेरे साथ। पर कोर्ट बोलेगा खर्च दो उसको, अपनी प्रॉपर्टी में हिस्सा दो उसको, और तुम घंटा बजाओ। ये है हमारा संविधान।

रविवार, 12 मई 2013

शादी में और क्या होना चाहिए?



मौजूदा जरूरत की बीस फीसदी अदालतों में मुकदमे बहुत लंबे चलते हैं।  इस बीच मुवक्किल लगातार संपर्क में रहते हैं तो उन से मुहब्बत के रिश्ते कायम होना स्वाभाविक है। वैसे भी जब तक मुझे कोई मुवक्किल पसंद नहीं होता तो उस का मुकदमा मैं नहीं करता। ऐसे ही एक मुवक्किल से कोई पच्चीस साल पहले परिचय हुआ था। फिर वे बड़े भाई से हो गए। जीवन में उन्हों ने बहुत कुछ पाया तो बहुत कुछ खोया भी, लेकिन जीवन पूरा जीवट से जिया। कोई पचास बरस पहले पसंद की लड़की से मंदिर में माला पहन पहना कर ब्याह किया। फौज की नौकरी की, छोड़ी फिर कारखाने में क्लर्क रहे। यूनियन के नेतृत्व भी किया और फिर जिस दिन मालिक ने देखा कि मौका है तो उन्हें नौकरी से निकाल भी दिया। वे मुकदमा लड़ते रहे। और मुकदमे तो फिर भी जल्दी निपट जाते हैं। लेकिन मजदूरों के मुकदमे शायद कभी नहीं निपटते। कम से कम आठ दस साल तो लेबर कोर्ट निपटा देती है। फिर मालिक हाईकोर्ट चला गया तो वहाँ तो मुकदमों का अंबार है। वैसे भी बड़ी अदालतों को नेताओं-अभिनेताओं के मुकदमों से फुरसत कहाँ जो मजदूरों के मुकदमे निपटाएँ। तो वे चलते रहते हैं। मजदूर आस लगाए बैठा रहता है शायद इस जिन्दगी में फैसला हो जाए। हो भी जाता है तो उसे लागू कराने में जीवन समाप्त हो जाता है। 
दो हफ्ते पहले उन का फोन आया। छोटे बेटे की शादी तय कर दी है। 12 मई को गोदावरी स्कूल में आना है। कोई कार्ड नहीं, कोई बुलावा नहीं। हम ने कहा पहुँच जाएंगे। आज दिन में उन्हें फोन कर के पूछा कार्यक्रम क्या है? तो कहने लगे बस आठ बजे आना है। माला पहनाएंगे और खाना खाएंगे और बस मौज करेंगे। 
हम सवा आठ बजे पहुँचे। स्कूल के बीच के मैदान में भोजन की संक्षिप्त व्यवस्था थी। एक और मंच बना था। दू्ल्हा दुलहिन की कुर्सी खाली थी। मंच के नजदीक संगीत जरूर बज रहा था। वे दरवाजे से घुसते ही मैदान में दिखाई दे गए। हम ने उन के एक दो चित्र ले लिए। इतने में किसी ने पूछा दूल्हा दुलहिन कहाँ हैं? 
- दोनों ब्यूटी पार्लर गए हैं। अभी आते होंगे। आप तो भोजन कीजिए।
किसी ने उन्हें लिफाफा देना चाहा। उन्हों ने सख्ती से इन्कार कर दिया।
म चुपचाप खाने की तरफ चल दिए। प्लेट उठाई, सलाद लिया और आगे बढ़ गए। एक पनीर मटर थी पर तरी बहुत थी, आगे बढ़े तो भरवाँ टिंडे, वे भी बहुत चिकने थे, हम और आगे बढ़ गए।  दही का रायता दिखा एक प्याली भर लिया। आगे रसगुल्ले थे, एक उठाया। फिर दाल की बर्फी, वह भी एक उठा ली। आगे गरम पूरियाँ थीं सादा और पालक वाली, एक एक वे भी उठायी। फिर थी दाल की कचौरियाँ जिन के बिना कोटा में शादी की दावत मुश्किल होती है। एक वह भी उठायी। फिर दाल थी, सादी, यानी बिना लहसुन प्याज की, पर मसालेदार थी, स्वाद की कमी को ढकने के लिए लहसुन की जरूरत न थी। आगे तंदूर था, पर तंदूर की कच्ची पक्की हमें पसंद नहीं थी। सोचा जरूरत हुई तो पूरी उठा लेंगे। 
हम भोजन करने लगे तो वे भी पास आ गए। पूछने लगे भोजन कैसा है। हमें तो स्वादिष्ट लगा था। हम ने कह दिया कि मजा आ गया। 
धर मंच पर हलचल हुई थी। दूल्हा पहुँच गया था। हम भी भोजन से निपट कर उधर मंच की ओर बढ़ चले। ढोल बजने लगा और दुलहिन भी एक दो लड़कियों के साथ मंच पर थी। फिर कुछ देर हलचल होती रही। फिर मालाएँ आ गईं। दुल्हिन दूल्हे के गले में डालने लगी तो दूल्हा पंजों पर ऊंचा हो गया। यही क्रिया दुबारा दोहराई गई। दुलहिन शरमा कर पीछे हट गई, ऐसे कि जैसे अब नहीं पहनाएगी। दूल्हा जरा सुस्त हुआ और उस ने लपक कर माला दूल्हे के गले में डाल दी। दुल्हा सकपका गया। इस बार पाँव के पंजे पिछड़ गए थे। 
दूल्हे ने आसानी से माला दुलहिन के गले में डाल दी। दुलहिन पीछे हटना चाहती थी पर हट न सकी। इस बीच कैमरे और मोबाइल रोशनियाँ चमकाते रहे। मैं ने भी एक चित्र लेने के लिए मोबाइल निकालने को जेब की तरफ हाथ बढ़ाया तो वे कहने लगे लिफाफा नहीं चलेगा।.
मैं ने भी कहा- आप को लिफाफा दे कौन रहा है और आप होते कौन हैं लेने वाले?
खैर, कुछ लोग नवयुगल को बधाई देने मंच पर चढ़ते और उतर आते। मैं ने भी उत्तमार्ध को इशारा किया और मंच पर चढ़ा दूल्हे को बधाई दी। इस बीच उत्तमार्ध ने लिफाफा दुलहिन को पकड़ा दिया। उस ने उस के पैर छू कर शुभकामनाएँ झटक लीं। 
म मंच से नीचे उतरे तो उन से पूछ लिया। अब आगे क्या कार्यक्रम है? वे बताने लगे...
दुलहिन का पिता पंडित है और अध्यापक भी। अभी हवन करा कर सप्तपदी करा देंगे। हमारी तरफ से तो दोनों ने माला पहन ली शादी हो गयी। रात को एक दो बजे तक घर पहुँच जाएंगे।
दुलहिन मोहल्ले की है? मैं ने पूछा।
-नहीं बहुत दूर उत्तर प्रदेश के हरदोई की है। औदिच्य ब्राह्मण हैं। एक शादी में लड़की वालों के साथ हरदोई से आए थे। यहाँ व्यवस्था में बेटा भी था। दुर्घटना ये हुई कि फेरे होने के पहले दुलहिन के पिता का देहान्त हो गया। किसी को नहीं बताया। बेटा काम में जुटा था तो उसे बताया। उस ने चुपचाप एंबुलेंस की व्यवस्था कर दुलहिन के पिता के शव को रवाना किया। फिर शादी हुई। बेटे का स्वभाव देख कर कुछ दिन बाद लड़की के पिता आए और शादी पक्की कर गए। मैं ने उन्हें तभी कह दिया था कि हमें कुछ नहीं चाहिए। लड़की को ले आओ एक दिन मित्रों रिश्तेदारों को बुला कर भोजन कराएंगे, लड़के लड़की एक दूसरे को माला पहनाएंगे और शादी हो जाएगी। वे कहने लगे फेरे तो कराने होंगे। मैं ने कह दिया- वह तुम्हारी मर्जी है। 
शादी में कोई ढाई तीन सौ लोग उपस्थित थे। कोई बैंड नहीं, कोई घोड़ी नहीं, कोई जलूस नहीं। पर शादी बहुत शान्त और मधुर थी।  शादी में और क्या होना चाहिए? एक नया घर बस गया।

गुरुवार, 19 मई 2011

हमारे बीच ३६ का आँकड़ा : कुल खर्च 310 रुपया

रिणाम अच्छा रहा हो या बुरा,इस दिन को शायद ही कोई भूलता हो। हो सकता है कभी भूल हो भी जाए, लेकिन ब्लागजगत में आने के बाद तो यह कतई संभव नहीं है। यहाँ एक अदद डंडा लिए बी.एस.पाबला जो बैठे हैं। वे अकेले व्यक्ति हैं जो हरदम याद दिलाते रहते हैं कि आज तुम्हारा जन्मदिन है, या फिर विवाह की वर्षगाँठ है, कि किस किस ब्लागर की पोस्ट किस अखबार में प्रकाशित हुई है, किस का चर्चा कहाँ हुआ है? कल शाम मैं एक विवाह समारोह में था कि अचानक जेब से मोबाइल की घंटी की आवाज सुनाई दी। उस वक्त वहाँ कम शोर था या फिर मेरा ध्यान चला ही गया और मैं ने मोबाइल उठा लिया। हालाँकि उस के पहले और बाद में आई कुछ कॉल्स सुनाई न देने के कारण मिस कॉल्स में परिवर्तित हो गई थीं। यह नंबर मेरे फोन रिकॉर्ड में नहीं था, आदतन मैं ने उसे उठा लिया और छूटते ही पूछा -कौन बोल रहे हैं?
मैं (ताजा चित्र)

वे पाबला जी ही थे और मोबाइल से नहीं बेसिक फोन से संयोजित हुए थे। आदेश मिला चित्र चाहिए। एक तो पिछले साल लगा चुका हूँ, इस बार अलग चाहिए। समारोह में शोर के कारण बात ठीक से नहीं हो पा रही थी। मैं ने उन से चित्र भेजने का वादा किया और फोन काट दिया। घर पहुँच कर पहले कंप्यूटर पर चैक किया। मुझे उचित चित्र ही नहीं मिल रहे थे। आखिर मैं ने कुल चार चित्र छाँटे, उन्हें मेल किया और सोने चला गया। रोज की तरह सुबह तैयार हो कर अदालत चला गया। वहाँ से लौटा तो तीन बज चुके थे। आज तीसरा खंबा की पोस्ट नहीं गई थी। मुझे कुछ अपराध बोध सा हुआ। तीसरा खंबा की पोस्ट का पाठक बेजारी से प्रतीक्षा करते हैं। खास तौर पर वे जो तीसरा खंबा को अपनी कानूनी समस्याएँ प्रेषित करते हैं, सलाह के लिए जवाबी पोस्ट की प्रतीक्षा करते हैं। मैं ने अधूरी पड़ी पोस्ट को पूरा कर पोस्ट किया। कुछ समय अवश्य लगा। आखिर हर पोस्ट के लिए कुछ न कुछ पढ़ना और कानून की किताबों से टीपना तो पड़ता ही है। 

शोभा (ताजा चित्र)
ये 17-18-19 मई के दिन-रात मैं कभी नहीं भूलता। क्या बेकरारी थी? मैं ने अपनी होने वाली जीवन साथी को देखा तक नहीं था, मिलने और बात करने की बात तो बहुत दूर की थी। चिट्ठी-पत्री का भी कोई सवाल न था। यहाँ तक कि सगाई डेढ़ वर्ष पहले हो गई थी। तभी से होने वाली ससुराल की दिशा में जाने पर परिवार ने स्थगन लगा दिया था। उस जमाने में हिम्मत कहाँ थी जो चोरी-छिपे भी उस का उल्लंघन करने की सोच पाते। हर साल गर्मी की छुट्टियों में मामाजी के यहाँ जाता था। रास्ता होने वाली ससुराल के नगर से गुजरता था। नतीजा, मामा के यहाँ जाना भी बन्द। अपनी जीवन साथी के बारे में जितना कुछ अन्य लोगों से सुना था। उसी के आधार पर उस का एक काल्पनिक चित्र मस्तिष्क में कहीं बन गया था। वही काल्पनिक चित्र  उन दिनों रूमानियत का केंद्र था। उन दिनों रूमानियत के कुछ बिन्दु और भी थे। लेकिन अभी वे नैपथ्य में चले गए थे। 17 मई का दिन विवाह के पूर्व भोज का दिन था। वह भीड़-भाड़ और कुछ अनोखी घटनाओं में गुजरा। आधी रात को बारात रवाना हुई वह भी घटनापूर्ण रही। 18 मई की सुबह हम अपनी होने वाली ससुराल के नगर में थे।  दिन भर विभिन्न वैवाहिक संदर्भों ने निपटा दिया। शाम को मैं घोड़ी पर था। कुल साढ़े पाँच घंटे घोड़ी पर बैठना किसी तपस्या से कम न था। इस के बाद भी जलूस ससुराल के दरवाजे से अपना स्वागत करवा कर लौट आया था। मुहूर्त लग्न रात के दो बजे जो था।

बीस साल पहले विवाह की वर्षगाँठ
रात को एक बजे फिर से घोड़ी पर जलूस निकला। इस बार तोरण भी मारा और हाथ भी बंधवाया। चतुष्पदी संपन्न होते-होते रात्रि अंतिम प्रहर में प्रवेश कर गई।  दुल्हन को ले कर वापस जनवासे पहुँचे। कुछ देर में दुल्हन वस्त्र बदल कर फिर से अपने मायके लौट चली। मैं अब अपने ससुराल का कुँअर था। सुबह कुँअर कलेवा का बुलावा आया। दोस्तों के साथ हम पहुँचे। कुछ शेष कार्यक्रम और निपटाए गए, दोपहर होने के पहले बारात विदा हो ली। शाम के पहले बारात मेरे नगर पहुँच ली। तब तक मैं ने अपनी जीवन साथी का चेहरा तक न देखा था। उस घटना को छत्तीस वर्ष होने में कुछ ही घंटे शेष हैं। पर लगता है यह कल की ही बात है। 

जीवन संगिनी शोभा ने आज का दिन गेहूँ साफ करने में लगाया। शाम के भोजन की कोई तैयारी नहीं थी। मैं ने पूछा -आज शाम के भोजन का क्या करना है? 
जवाब में प्रश्न मिला -आज भी कहीं न्यौता जीमने जाना है क्या?
-चले चलेंगे। 
- कहाँ? आज का तो कहीं का न्यौता भी नहीं है।
बीस साल पहले विवाह की वर्षगाँठ
-इतने रेस्टोरेंट जो हैं, शहर में। वे तैयार हो गईं। अब बारी थी रेस्टोरेंट चुनने की। मैं ने सब से दूरी (पाँच किलोमीटर) का रेस्टोरेंट बताया। उन्होंने दो किलोमीटर के अंदर ही चुनाव कर लिया। मैं ने कहा सुझाया मित्र जोड़े को साथ ले चलते हैं, पर किस को? बहुत से विकल्पों पर विचार हुआ। लेकिन प्रस्ताव अंत में गिर गया। रात नौ बजे हम दोनों घर से निकले। दिन भर बहुत गर्मी थी, लेकिन शाम को कुछ बारिश हुई थी और हवा चल रही थी। मौसम सुहाना हो चला था। हमने भोजन किया, मैं ने मीठे के लिए आग्रह किया तो उत्तर मिला बाहर निकल कर आइस्क्रीम खाएंगे। बिल आया मात्र 196 रुपए का। दस रुपए टिप में छोड़े, कुल हुए 206 रुपए। बाहर निकल कर पास ही एक वकील साहब के बेटे के पार्लर पहुँचे और एक एक कप केसर-पिस्ता आइस्क्रीम गटकी। यहाँ चुकाए मात्र 40 रुपए। पान की दुकान पर पहुँचे, 30 रुपए वहाँ खर्च किए। फिर याद आई बर्फ के गोलों की। चौपाटी पर जा कर उन का भी आनन्द लिया, चुकाए सिर्फ 16 रुपए। फिर वापस घर लौट आए। मैं ने हिसाब लगाया तो 18 रुपए का कार में जला पट्रोल भी जोड़ा। अधिक नहीं केवल 310 रुपए खर्च हुए। यह कुछ अधिक सस्ता भी नहीं। पिताजी खर्च का हिसाब लिखते थे। उन्हों ने डायरी में मेरी शादी का कुल खर्च बारह हजार कुछ सौ रुपए लिखा है।

ह हमारे विवाह की छत्तीसवीं वर्ष गाँठ थी। यूँ तो जगत में ३६ का आँकड़ा बहुत बदनाम है। लेकिन आज का दिन अच्छा गुजरा। हम दोनों में आँकड़ा ३६ न हुआ। वैसे इस साल में इसे हमने खूब झेला है। कुछ झगड़ा, कुछ रूठना, कुछ मनाना सब चलता रहा। लेकिन इस आखिरी दिन मामूली प्यार भरी छींटाकशी से अधिक कुछ न हुआ। हम ने भी चैन की साँस ली। ३६वाँ साल पूरा होने को है। सुबह होने के पहले सैंतीसवाँ आरम्भ हो लेगा। आखिरी दिन भी अच्छा गुजरा। खर्चा भी अधिक न हुआ सिर्फ 310 रुपए में काम चल गया। आशा की जा सकती है कि हमारे आने वाले दिन अच्छे ही होंगे। ३६ का आंकड़ा गुजर जो गया है। फिर आप सब की दुआएँ जो हमारे साथ हैं। कुछ और जानना चाहेँ तो यहाँ मेरी सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली पोस्टों में से एक उन्नीस मई का दिन, शादी के बाद की पहली रात पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
पाबला जी ने आज ही हमारी शादी की वर्षगाँठ मनवा दी। वैसे हमारी शादी हुई 19 मई में थी, और वह पूरा दिन गुजर जाने के बाद रात को ही अपनी पत्नी की शक्ल पहली बार देख पाया था। आप चाहें तो 19 तारीख में भी बधाई/शुभकामनाएँ भेज सकते हैं। हम बेकरारी से इंतजार करेंगे।  

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

आप भुवनेश शर्मा को जानते हैं? नहीं, तो जानिए, और बधाई दीजिए

हुत बहुत दिनों से यह साध थी कि उस की शादी में जरूर जाउंगा, और अकेला नहीं, बल्कि सपत्नीक। लेकिन कहते हैं न कि सोचा हमेशा सधता नहीं। कल तक इरादा पक्का था। लेकिन एक काम ऐसा पड़ा कि उसे तुरंत करना जरूरी था। उसी में लगा रहा। रात तारीख बदलने तक उसे करता रहा। काम से उठने के पहले सोचा, अब सुबह जल्दी निकला जा सकता है। लेकिन उठते ही हाजत हाजिर, निपट भी लिया, लेकिन सहज नहीं हुआ। सुबह तीन-चार के बीच फिर जाना पड़ा, पर सहजता नहीं लौटी। लगा कि अब सुबह छह बजे की ट्रेन नहीं ही पकड़ पाएंगे। फिर जाना मुल्तवी कर दिया। कल दोपहर तक दूल्हे का फोन आया था। सर! आ रहे हैं न आप? मैं ने पूरी गर्मजोशी से कहा था, आ रहा हूँ। शाम को फिर फोन आया तो फिर गर्मजोशी दिखाई थी। लेकिन अगली सुबह होने के पहले हवा निकल गई। 
ब मैं डर रहा था कि दूल्हे का फोन आया तो क्या कहूंगा? जो हुआ वह बताऊँ या नहीं? फिर सोचा, मैं शादी में पहुँच जाता तो क्या कर लेता, ठीक बारात निकलने के पहले पहुँच पाता। थोड़ा विश्राम कर सूट पहन बारात में चल देता। फिर रिसेप्शन में स्वागत झेलता। दूल्हे के सिवा मैं किसी से परिचित नहीं था। और दूल्हे से भी बस आभासी परिचय ही था। पहली बार मिलते। लेकिन वह अधिकतर घोड़ी पर होता या फिर स्टेज पर दुलहिन के साथ। जैसे-तैसे शादी निपटती। दूल्हे को तो अभी फुरसत भी नहीं होती कि हमारी रवानगी लग जाती। नहीं जा पाए तो कोई बात  नहीं, दूल्हे को दुल्हिन के साथ घर बसा लेने दो फिर दो-चार महीने बाद चलेंगे। एक-दो दिनों का समय निकाल कर, जिस से उसे भी मेजबानी का सुख मिले और हम भी उन के साथ मिलें और उस इलाके को भी घूम-फिर कर देखें। मैं इसी तरह सोच रहा था कि उस का फिर फोन आ गया -सर! कहाँ तक पहुँचे? मैं ने सहज बता दिया कि मैं किस कारण से रवाना नहीं हो सका हूँ। यह भी कहा कि कोई बात नहीं दो-चार माह बाद आएंगे दो-एक दिन रुकेंगे। दूल्हे को कुछ तसल्ली होती लगी तो मैं ने कहा -तुम ही आओ दुलहिन को लेकर, दो-एक दिन रुको। तुम्हें इस इलाके में घुमा दें। अब शादी के दिन वैसे ही दूल्हे पर समय बहुत कम होता है। फोन पर बात खत्म हो गई। 
भुवनेश शर्मा
ब आप को बता दूँ कि ये दूल्हा महाशय वकील और हमारे अपने हिन्दी ब्लाग जगत के ब्लागीर भुवनेश शर्मा हैं। इन के तीन ब्लाग हिन्‍दी पन्‍ना, एक वकील की डायरी और Amazing Pictures हैं। ये आज रात्रि अपने ही नगर की आयुष्मति रश्मि को अपनी जीवन संगिनी बनाने जा रहे हैं। कल सुबह सूर्योदय की पहली किरण के साथ अपनी रश्मि को साथ ले कर घर लौटेंगे। अब हम इन के विवाह के साक्षी तो नहीं बन सके, लेकिन इन्हें अपनी ओर से बधाई तो दे ही सकते हैं। 
भुवनेश व रश्मि दोनों के आपस में जीवन-साथी बनने पर बहुत बहुत बधाइयाँ!!! और सफल प्रसन्नतायुक्त वैवाहिक जीवन के लिए अनन्त शुभकामनाएँ!!!
म ने दे दी हैं, आप भी दे ही दीजिए........

सोमवार, 24 जनवरी 2011

शादी में रोला और हाड़ौती साहित्यकार गिरधारी लाल मालव जी से मुलाकात

रसों रात ही यह तय हो गया था कि रविवार को यहाँ से पचास किलोमीटर दूर स्थित कस्बे अन्ता में एक शादी में जाना है। इस तरह की शादी में जाना हमेशा इस दृष्टि से लाभदायक रहता है, कि उस में बहुत लोगों से मिलना जुलना होता है, जिन में अधिकतर रिश्तेदार होते हैं। रिश्तेदारों से मिलना विवाह आदि समारोहों में ही हो पाता है। एक समारोह बहुत सी पिछली यादें ताजा कर देता है। मैं पत्नी-शोभा को तो जाना ही था। शोभा की एक बहिन और उस के जेठ का पुत्र भी आ गए। इस तरह हमारी मारूती-800 के लिए सवारियाँ पूरी हो गईं। हम सुबह 11 बजे रवाना हो गए। कोई छह किलोमीटर चलने के बाद एक्सप्रेस हाई-वे पर पहुँच गए। यह हाई-वे अभी पूरा नहीं बना है लेकिन जितना बना है वह सुख देता है। हाई-वे पर एक-आध किलोमीटर ही चले होंगे कि समीर लाल जी का स्मरण हो आया। उन की उपन्यासिका 'देख लूँ तो चलूँ' परसों शाम ही मिली थी। उसे आधी ही पढ़ पाया था। लेकिन फिर भी मैं उन के अनुभव से अपने होने वाले अनुभव से तुलना करने लगा। लेकिन बहुत अंतर था। कुछ ही दूर चले थे कि एक लंबा ट्रक लेन पर तिरछा हो रहा था, उस का अगला एक्सल टूटा पड़ा था। गाड़ी निकलने का स्थान न था। कार को वापस मोड़ा और पिछले कट से वापसी की लेन पकड़ी, सामने वाले को नजर आ जाएँ इस लिए दिन में सवा ग्यारह पर भी कार की हेडलाइट चालू कर ली। कोई एक किलोमीटर आगे कट मिला वहाँ से अपनी लेन पर आए। हम ने कार की गति बढ़ाई तो, सौ तक ले गए लेकिन उसे सुरक्षित न जान कर अस्सी-नब्बे के बीच चलना ठीक समझा। अब समीर जी की कार जैसा क्रूज तो मारूती-800 में था नहीं, इस लिए एक्सीलेटर भी संभालना पड़ा और स्टीयरिंग भी। बीस किलोमीटर चलने पर टोल मिला तो उस ने आने-जाने के पचास रुपये ले लिए। इस राशि में कोटा से अंता एक आदमी बस से जा कर लौट सकता था।
जिस धर्मशाला में विवाह का प्रोग्राम हो रहा था, उस के बाहर की सड़क पर सब्जी मंडी लगी थी। बीच की सड़क पर पहले से इतने वाहन खड़े थे कि वहाँ पार्क करना आसान नहीं था। हम ने बाकी सब को वहीं उतारा और पास सौ मीटर के दायरे में एक अन्य संबंधी के घर के बाहर कार को पार्क किया। उन के यहाँ अंदर गए तो स्वागत में पानी का एक गिलास मिला। मुझे लगा कि अंदर गृहणी रसोई में चाय के लिए खटपट कर रही है। मैं ने जोर से आवाज लगाई -चाय मत बनाना, मैं चाय नहीं पीता, बीस साल हो गए छोड़े हुए। मेजबान ने तुरंत कॉफी का ऑफर दिया जो कुछ ही देर में बन कर आ गई। अब अंदर कुछ भी चल रहा हो, अपनी तो पौन घंटे के कार चालन के बाद कॉफी का जुगाड़ हो ही गया। कॉफी जुगाड़ने की अपनी यह तरकीब अब तक सौ-फीसदी कामयाब रही है। कभी असफलता नहीं मिली। 
मैं वापस पहुँचा तो दूल्हे का यज्ञोपवीत संस्कार अंतिम चरण में था। दूल्हा अपने गुरू के लिए भिक्षाटन पर निकला था। भिक्षा पात्र में कोई सौ रुपए एकत्र हुए, दानदाताओं ने इस काम में बहुत कंजूसी की। कुछ देर बाद ही फिर से दूल्हा भिक्षाटन के लिए निकल पड़ा। इस बार भिक्षा माँ की भेंट के लिए थी। इस बार लोगो की कंजूसी कम हो गई। लोग पचास-बीस और दस के नोट अपने बटुओं में से निकाल कर डालने लगे। इस दौर में पिछले दौर के मुकाबले कम से कम दस गुना राशि भिक्षा पात्र में प्राप्त हुई। गणित साफ थी पहले वाली कमाई तो यज्ञोपवीत संस्कार कराने वाले पंडित को मिलनी थी, इस बार दूल्हे की माँ को। पहली वाली में रिटर्न की गुंजाइश शून्य थी,  दूसरी में भरपूर। वैसे यह परिणाम नया नहीं है। कोई सैंतालीस बरस पहले जब मेरी जनेऊ हुई थी तब भी माजरा ऐसा ही था, फर्क था तो इतना कि तब अनुपात 1:10 का न हो कर 1:4 का रहा होगा। यज्ञोपवीत संस्कार के संपन्न होते ही। लोग छोटे बड़े थैले ले आगे बढ़ने लगे, दूल्हे, उस के माता-पिता और परिजनों को भेंट देने के लिए कपड़े लाए थे। दूल्हे के पिता ने दूल्हे के अतिरिक्त शेष लोगों को कपड़े पहनाने के लिए मना करते हुए क्षमा मांगी। वहाँ रौला मच गया। लोग तो पैसा खर्च कर के कपड़े आदि लाए थे। उन्हें इस में अपनी हेटी जान पड़ी। 
वास्तव में अब कुछ लोगों का मंतव्य यह बनने लगा है कि यह कपड़े पहनाने  की कुरीति बंद होनी चाहिए। इस में फिजूलखर्ची बहुत होती है। बात तो सही और उचित है, लेकिन जब भी कोई इस के लिए आगे बढ़ता है ऐसे ही बाधा आ जाती है। कपड़े पहनाने वाले जोर से बोलने लगे। उन में एक को बहुत तकलीफ हो रही थी। वह  व्यक्ति दूल्हे की माँ को राखी बांधता था, और कम से कम पचास हजार खर्च कर कपड़े ले कर आया था। मैं उसे पास के कमरे में ले गया। समझाया तो उस की रुलाई फूट पड़ी, कहने लगा। बरसों से बहन मुझे राखी बांधती है, बड़ी हसरत से आज उस के सारे परिवार के लिए कपड़े ले कर आया हूँ तो यह देखना पड़ा है। मैं सगा भाई होता तो शायद ऐसा न होता। गलती तो दूल्हे के पिता की भी थी। उस ने जो कदम उठाया वह सुधार का अवश्य था। पर इन लोगों को पहले से इस बात से अवगत कराना था। कम से कम उन के मन की हसरतें वहीं शांत हो जातीं, और खर्च भी न होता। पर गलती तो हो चुकी थी। यदि वह अपना निश्चय तोड़ता तो यह दूसरी गलती होती, सुधार का एक कदम पीछे लौट जाता। खैर, समझाने पर थोड़ी देर में रोला खत्म हो गया। लोगों को भोजन के लिए आमंत्रण मिला तो सब भोजन स्थल की चल पड़े। 
दोपहर का भोजन आशा से बहुत अधिक अच्छा था। लेकिन उस में हाड़ौती के स्थाई पुराने मेनू  के नुकती (बूंदी)  और नमकीन सेव गायब थे। नुकती का स्थान मूंगदाल के हलवे और सेव का स्थान तले हुए पोहे की बनी खट्टी-मीठी नमकीन ने ले ली थी।  भोजन के बाद कुछ कार्यक्रम था। सब लोग उस की तैयारी करने लगे। मुझे उस में रुचि कम थी। भोजन स्थल से कोई दो किलोमीटर दूर गाँव बरखेड़ा में हाड़ौती के साहित्यकार कवि गिरधारी लाल मालव का निवास है। मैं चुपचाप कार में बैठा और उस तरफ चल पड़ा। 

मालव जी के घर के पिछवाड़े की बगीची

मालव जी के घर के पीछे आंगन में विश्राम करती भैंसें



मालव जी
मालव जी घर पर न थे, उन की बेटी मिली जो निकट के ही एक घर से उन्हें बुलाने चली। मैं भी उस के साथ ही चला। वह घर के भीतर गई मैं बाहर रुक गया। मिनट भर बाद ही मालव जी बाहर आ गए। मुझे देखते ही उन की बाँछे खिल गई, उन्हों ने मुझे बाजुओं में जकड़ कर भींच लिया। हम उन के घर के पिछवाड़े खुले में आ बैठे। जिस के एक और उन का घर था दूसरी ओर छोटी सी बगीची, जिस में उन्हों ने शिव मंदिर बनाया हुआ है। मालव जी अध्यापक थे। कोई चौदह वर्ष से सेवा निवृत्त हो गए हैं। उम्र अब 72 की है। उन का घर अभी भी मिट्टी की कच्ची दीवारों और खपरैल की छत का है। हम वृक्ष के पत्तों से छन कर आयी धूप में बैठ गए। बातें करने लगे। हाड़ौती की कविता, गीतों की बात हुई, गद्य की बात हुई। मुझे पता न था। कि उन का एक कहानी संग्रह और एक उपन्यास प्रकाशित हो चुका है। उन्हों ने दोनों मुझे भेंट किए। उन्हें ब्लागीरी की कोई जानकारी न थी। जब मैं ने उन्हें बताया कि मैं साल में एक पोस्ट मकर संक्रांति पर हाड़ौती में लिखता हूँ तो उन्हें बेहद खुशी हुई। मैं चाय नहीं पीता तो हम ने एक एक कप दूध पिया। उन के अपने घर की भैंसों का शुद्ध दूध। उसे पी कर मुझे मेरे बचपन की स्मृति हो आई। वे अपनी योजनाओं के बारे में बताने लगे, वे हाड़ौती के साहित्य के इतिहास पर कुछ लिखना चाहते हैं।  मैं ने उन्हें कहा कि वे इसे जल्दी लिखें, यह एक धरोहर बनने वाला है। साढ़े चार बजते-बजते फोन की घंटी बज गई। मेरे लिए बुलावा था। मैं ने उन से विदा चाही। वे मुझे सड़क तक छोड़ने आए। हम दोनों ने ही जल्दी फिर मिलने की आस जताई। मैं वापस विवाह स्थल पहुँचा तो शोभा अपनी बहिन सहित वापसी के लिए तैयार थी। शोभा की बहिन को शाम को कोटा में एक और विवाह में जाना था। हम तुरंत ही लौट पड़े। मालव जी की दो पुस्तकें मेरे लिए अमूल्य भेंट हैं। न जाने क्यों पिछले तीन दिनों से पुस्तकें मिल रही हैं। दो दिन पहले ही महेन्द्र नेह के घर गया था। वहाँ से सात पुस्तकें मुझे मिलीं, परसों शाम समीर जी की उपन्यासिका और अब कल ये दो पुस्तकें। लगता है अगला सप्ताह इन्हें पढ़ने में बीतेगा।  

मालव जी कुछ सोचते हुए
मालव जी अपने उपन्यास के साथ



















रविवार, 5 दिसंबर 2010

जरूरी गैरहाजरी

विवाह योग्य उम्र प्राप्त अविवाहित स्त्री-पुरुष चाहें तो दो साक्षियों के साथ विवाह पंजीयक के समक्ष उपस्थित हो कर विवाह कर सकते हैं और उसे पंजीकृत करवा सकते हैं। इस का समाचार वे किसी को दें या न दें, वह जंगल की आग की भांति शीघ्र ही कानों-कान बहुत दूर तक पहुँच जाता है। लेकिन यदि परंपरागत रीति से विवाह का आरंभ हो, लड़की के माता-पिता किसी लड़के को रोकने की रस्म भर कर दें तो उस का समाचार उस से भी अधिक तेजी से लोगों तक पहुँचता है। फिर सगाई और विवाह का तो कहना ही क्या? वह बेहद जटिल प्रक्रिया है। वह केवल न्योते बांट देने, मेहमानों को निमंत्रण पहुँचा देने, विवाह की समस्त व्यवस्था कर लेने मात्र से संपन्न नहीं होता। विवाह में केवल संबंधी, मित्र गण और परिचित ही नहीं जुटते, पूरा समाज जुटता है। न जाने किस-किस को मनाना पड़ता है, उन में विनायक से ले कर नायक तक जितनी भांति के लोग हैं वे सभी शामिल हैं। फिर भी बिना किसी की नाराजगी के विवाह संपन्न हो जाए तो शायद कोई भी उसे विवाह नहीं कह सकते। कुल मिला कर एक भारतीय विवाह अत्यन्त जटिल विधान है। 
ज तो मैं अपने काम से जयपुर जा रहा हूँ, लेकिन तुरंत ही शाम तक लौटूंगा और कल सुबह ही अपने साढू़ भाई श्री बीजी जोशी के पुत्र नीरज के विवाह में सम्मिलित होने चल दूंगा। पत्नी जी पिछले माह की अंतिम तिथि को ही जा चुकी हैं। वे अपने साथ पहली बार मोबाइल ले कर गई हैं। दो-तीन दिन तक जब भी मैं ने घंटी की मोबाइल पत्नी जी के स्थान पर मेरी किसी न किसी साली ने उठाया। (ऐसे पी.ए. सब को मिलें, पर हम पुरुषों की ऐसी किस्मत कहाँ?) कल मैं मेरी ससुराल से जाने वाले माहेरा (भात) (इस में दूल्हे के मौसा लोग अधिक होते हैं, शायद इस लिए इसे हमारे यहाँ मौसाला भी बोलते हैं) के बेड़े में सम्मिलित हो कर शाम तक सीहोर म.प्र. में बीजी जोशी से जा मिलूंगा।
ह सीहोर भोपाल के नजदीक है, वहाँ ग़ज़ल के मास्टर जी पंकज जी सुबीर से मुलाकात होगी। पहले की सीहोर यात्रा के समय वे वहाँ नहीं थे और मुलाकात नहीं हो सकी थी। कुछ मित्र और भी हैं, उन से भी मुलाकात होगी। विवाह आठ दिसंबर को संपन्न हो लेगा। पर पत्नी जी और उन की बहनों का कहना है कि वे विवाह के उपरांत भी दो दिन और रुकेंगी, जिस से बहिन को शेष  काम के निपटारे में सहायता कर सकें। मैं इन दो दिनों का सदुपयोग भोपाल के मित्रों और ब्लागरों से मिलने में करने वाला हूँ। वापसी में एक दिन ससुराल में रुकना पड़ेगा। यह रंजन भी आवश्यक है।
मित्रों! इस तरह मैं आज से पूरे सप्ताह के लिए कोटा के बाहर हूँ। संभावना इस बात की है कि अंतर्जाल संपर्क भी शायद ही हो सके। इस कारण ब्लाग जगत में किसी भी प्रकार की उपस्थिति असंभव ही होगी। इस आवश्यक अनुपस्थिति के लिए आप सभी से और अपने ब्लाग पाठकों से क्षमा चाहता हूँ। विशेष रूप से तीसरा खंबा के उन पाठकों से जो मुझ से कोई कानूनी सलाह तुरंत चाहते हैं, और उन्हें एक-दो सप्ताह प्रतीक्षा करनी होगी।

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

भारतीय विवाह : मेल मुलाकात का अवसर

भारतीय समाज में विवाह अत्यन्त जटिल समारोह है। इतनी बातों का ध्यान रखना पड़ता है कि चूक हो जाना स्वाभाविक है। घर में कोई शादी नहीं है, पर पिछले कुछ महिनों से इस की चर्चा बहुत है। पिछले माह से तो शोभा पूरी तरह व्यस्त है। उस की छोटी बहिन कृष्णा के बेटे का आठ दिसंबर को विवाह है। कृष्णा के सास-ससुर नहीं हैं। वह रस्म-रिवाज़ों के बारे जितना जानती है वह उस ने अपने मायके और ससुराल में हुए विवाहों की स्मृति पर निर्भर है। उसे विवाह की हर एक रस्म और रिवाज़ के बारे में पूछताछ करनी पड़ रही है। शोभा की जानकारी कुछ अधिक है। मायके में सब से बड़ी पुत्री होने और ससुराल में सब से बड़ी पुत्रवधु होने से उसे विवाहों में जिम्मेदार भूमिका इतनी बार अदा करनी पड़ी है कि उसे लगभग सभी कुछ याद है, फिर हर बिन्दु पर औरों की राय जान कर किसी काम को कैसे करना है इस का निर्धारण करना उसे खूब आता है। कृष्णा तैयारी में लगी है वह लगभग प्रतिदिन शोभा से फोन पर बात करती है और एक बार से काम नहीं चलता तो कई बार भी करती है। शोभा ने बहुत सारी खरीददारी की जिम्मेदारी खुद पर ले ली और एक और छोटी बहिन ममता को साथ ले कर खरीददारी की। इस से कृष्णा का काम का बोझ बहुत कम हो गया। 
चूँकि बहिन के पुत्र का विवाह है, पिता को भात (माहेरा) ले जाना है। इस लिए पिता जी का फोन आता है कि शोभा एक दो दिनों के लिए मायके चली जाए और भात की तैयारी करवा दे। भात के लिए बेटी को पिता के यहाँ न्यौता देने आना है। इसे बत्तीसी झिलाना बोलते हैं। इस समय बेटी कुछ मीठा ले कर आती है। आम तौर पर गुड़ की भेली होती है। साथ में मायके में जितने लोग उम्र में उस से छोटे हैं उन के लिए नए वस्त्र ले कर आती है। अब कृष्णा को भात न्यौतने आना था। उन्हीं दिनों शोभा और ममता भी मायके पहुँच जाती हैं। पिता जी बहुत प्रसन्न हैं, वे सब कुछ प्रसन्नता पूर्वक करना चाहते हैं। वे ढोल वाले को बुलवाते हैं, साथ ही बैंड वाले को भी। सारे रिश्तेदारों और व्यवहारियों को बुलावा गया है। सब नियत समय पर इकट्ठे होते हैं। बत्तीसी झिलाई जाती है। मेहमानों को चीनी के बताशे वितरित किए जाते हैं। पिता जी ने भात की सभी तैयारी अपने हिसाब से कर ली है। जो कुछ कमी रह गई है उसे शोभा और ममता दोनों दो दिन और रुक कर करवा देती हैं। 
शोभा और उस की बहनों सनेह और ममता को एक सप्ताह पहले तो अपनी बहिन के यहाँ पहुँचना ही है, जिस से वे कृष्णा को विवाह की तैयारी करवा दें और काम में मदद करें। शोभा मायके से लौटी तो विवाह में जाने में दो दिन शेष रह गए हैं। उस ने आते ही घर को संभाला। जाने की तैयारी की। जो कुछ विवाह के लिए खरीदना शेष बचा था। उसे भी निपटाया। अब आज रवानगी की तारीख आ ही गई। शोभा और ममता तो यहीं हैं। एक मंझली बहिन सनेह को जयपुर से आना था, वह दोपहर शोभा के पास पहुँच गई। एक माह पहले ही रेल यात्रा के लिए रिजर्वेशन कराया गया था। तब  प्रतीक्षा सूची में क्रमांक कोई दो सौ से ऊपर था, आश्वासन मिला था कि हर हालत में कन्फर्म हो जाएगा, यदि रह भी गया तो विशेष कोटे में से व्यवस्था हो जाएगी। 
लेकिन आज चार्ट बनने तक प्रतीक्षा सूची क्रमांक 15 से 17 पर आ कर रुक गया। विशेष कोटे का प्रयोग भी वास्तविक विशिष्ट लोगों ने कर लिया। बस की तलाश आरंभ हुई। पता लगा कि साढ़े-दस की रात  की बस में स्थान है, उसे तुरंत आरक्षित करवाया गया और रेल का टिकट निरस्त करवाया गया। सब्र की बात यह थी कि जितना रुपया बस टिकट में खर्च हुआ उस से कोई पचास रुपया अधिक, बीस रुपये प्रति यात्री कटौती के बाद भी रेल टिकट निरस्त होने से वापस मिल गया। कृष्णा को सूचना दे दी गई है कि बस निकटतम स्थान पर सुबह सात बजे पहुँचेगी। कृष्णा ने उन्हें आश्वस्त कर दिया है कि उन्हें लेने के लिए वाहन नियत से पहले पहुँच जाएगा। तीनों बहिनें बस रवाना होने के पहले ही बस अड्डे पहुँच गई हैं और अपना आरक्षित स्थान हथिया लिया है। सीट पिछले वाले पहिये के ठीक ऊपर है। उन्हों ने अनुमान लगा लिया है कि बस में रात कैसी कटेगी?
अब बस रवाना हो चुकी है।  
मैं अपने साढ़ू भाई को फोन करता हूँ कि तीनों बहिनों को बस में बिठा दिया है। घर लौट आया हूँ। अब पाँच दिसम्बर की शाम तक मुझे अकेले रहना है, जब तक कि मैं स्वयं विवाह में सम्मिलित होने के लिए नहीं चल देता। इस विवाह का मुझे भी इंतजार है। विवाह में बहुत से प्रिय संबंधियों से तो भेंट होगी ही। विवाह ब्लाग जगत के ग़ज़ल के उस्ताद पंकज सुबीर जी के नगर में है। भोपाल निकट है, मुझे वहाँ भी जाना है। बहुत सारे ब्लागरों से मुलाकात का मौका जो मिलेगा।

सोमवार, 14 जून 2010

न जात पाँत, न कोर्ट कचहरी, न तलाक, एक बस नेह का नाता

'कहानी'

एक बस नेह का नाता
  • दिनेशराय द्विवेदी
धोबी का छोरा, धोबी का काम पसंद नहीं आया। चला कमाने शहर में। बड़े शहर में काम ना मिला तो चला गया छोटे शहर में। वहाँ एक ईंट भट्टे पर काम करने लगा। तनखा नहीं थी, काम के हिसाब से पैसे मिलते थे। खूब काम करता खूब कमाता। बैंक में बैलेंस भी कुछ जोड़ लिया कि ब्याह के बखत काम आवेंगे। पर इतना भी न था कि खुद के बूते पर अपना ब्याह कर लेता। मां-बाप के पास होता तो वह गांव छोड़ कमाने शहर क्यों आता? पर शौक में मोबाइल ले लिया था। गांव में रहने वाले दोस्तों से बतियाता ही सही। यहाँ तो कोई दोस्ती बन नहीं रही थी।
क दिन मोबाइल पर किसी दोस्त का  नंबर लगा रहा था। नंबर शायद गलत लगा दिया, उधर से  किसी छोरी की मीठी आवाज आई - थाँ कुण बौलो हो जी! मीठी आवाज सुन कर इसे भी अच्छा लगा। इस उमर में किसी छोरी से बात करने मात्र से वैसे ही मन में लड़्डू फूटने लगते हैं। छोरी ने बहुत प्रेम से बात की, छोरे का नाम पूछा, ये भी पूछा वह क्या करता है? कहाँ करता है, कहाँ से बोल रहा है? छोरी ने सिर्फ अपना नाम बताया, उस ने सोचा, जरूर फर्जी बताया होगा। छोरे ने नम्बर अपने मोबाइल में सेव कर लिया। फिर क्या था। हिम्मत कर के दो-चार दिन बाद छोरे ने ही उसे फोन किया।
कुछ दिन छोरा ही फोन करता, छोरी से बातें होतीं। एक दो सप्ताह बाद छोरी के भी फोन आने लगे, रोज बात होने लगी। नेह बंधने लगा। छोरी ने बताया कि उस की तो शादी हो चुकी है। पीहर वहीं है जहाँ छोरा काम करता है। उस ने अपने माँ-बाप का नाम भी बताया और घऱ का पता भी। छोरा जा कर छोरी के बाप का घर भी देख आया। छोरी कुम्हारिन थी, और एक छोटे कस्बे में ब्याह दी गई थी। उस का आदमी पक्का नशेड़ी था। पहले भांग पीता था, फिर गाँजे की चिलम लगाने लगा। किसी ने उसे स्मेक का स्वाद चखा दिया। तब से बिना स्मेक के रह नहीं सकता। काम धंधा बरबाद हो गया है। घर वालों ने उसे और उस के आदमी को एक कोठरी दे रखी है। कमाओ और खाओ। अब स्मेकची कमाने की सोचे या सुबह होश आते ही स्मेक की जुगाड़ लगाए? जब तक न लगे उसी की जुगाड़ में रहे। लग जाए तो पिन्नक में, कमाए कब? सो छोरी एक-एक दो-दो दिन भूखी रह जाती। घर वालों को पता लगता तो वे खाने को देते। क्या करती खुद घऱ वालों के बनाए बरतन बस्ती बस्ती बेच काम चलाने लगी। जो कमा कर लाती उस में से जो वह खाने पीने का खरीद लाती, खरीद लाती। जो बचता वह स्मेकची चुरा लेता। वह फटे हाल की फटे हाल। वह दुखी थी। छोरे से फोन  पर बात करते करते रोने लगती।  छोरे को बहुत दया आती। उन की बातें फोन पर चलती रही। 
खिर एक दिन छोरे ने कह दिया, वह किसी तरह बाप के यहाँ आ जाए। वह फिर उसे अपने गाँव ले जाकर शादी कर लेगा। छोरी ने पहले तो जात का डर दिखाया,  कहा मैं कुम्हारिन तुम धोबी, मेरे पीछे घर वालों से बिगाड़ करोगे, जात वाले जात बाहर कर देंगे। छोरे ने जवाब दिया। वह भी भट्टे पर गार से ईंटें  गढ़-गढ़ कर कुम्हार ही हो गया है। वैसे भी क्या फर्क है? दोनों का काम गधों से पड़ता है। छोरे ने पता कर के बताया कि घरवाले कुछ नहीं कहेंगे। जात की न उसे परवाह है और न उस के घर वालों की। पहले ही जात में बहुत दो-चार छोरियाँ बहुएं बन कर आ चुकी हैं। ना-नुकुर करते करते लड़की तैयार हो गई। होती भी क्यों न? यहाँ पहले मर्द के पास तो उस का कोई ठौर न था। स्मेकची इतना हो गया था कि निश्चित हो गया था कि कुछ बरस बाद वह जरूर ही मर जाएगा। मर्द के घरवाले उसे रक्खेंगे नहीं। मां-बाप के पास कब तक रह पाएगी। आखिर उसे दूसरा घर तो बसाना ही पड़ेगा। अब इत्ता परेम करने वाला छोरा शायद फिर मिले न मिले। उस ने फैसला कर लिया।
छोरी एक दिन बाप के घर आ गई। उस से भट्टे पर ही मिलने आई। भट्टा उस के बाप के दूर के रिश्तेदार का था। वहाँ आने में कोई परेशानी नहीं थी। दोनों ने योजना मुकम्मल की और एक दिन रेल में बैठ कर छोरे के गाँव आ गए। छोरे के साथ छोरी देख मां-बाप सन्न रह गए। बाद में जब पता लगा वह दूसरी बिरादरी की है तो शंका में पड़ गए। जरूर इस छोरी का बाप पुलिस को खबर कर देगा, वो नहीं करेगा तो उस का आदमी या उसे भाई बंध कर देंगे। किसी भी दिन पुलिस आ गई तो सारे घर वाले फंसेंगे। तुरन्त छोरे-छोरी को वहाँ से दूसरे गाँव मिलने वाले के घऱ भेज दिया। 
मिलने वाले ने कहा। दूसरे की लुगाई अपने पास रखोगे तो फँस जाओगे, छोड़ो इसे। छोरे ने मना कर दिया। बोला अब तो ये मेरी लुगाई है। मेरे संग ही रहेगी। तो, उपाय सोचने लगे, किसी तरह ब्याह करा दिया जाए। अब ब्याही छोरी का दुबारा कैसे ब्याह हो। उसे याद था कि अदालत में वकील लोग लुगाई को उस के मरद से आजाद करवा कर ब्याह करा देते हैं। वह छोरे-छोरी को शहर ले गया। वकील ने सारी बात सुनी। बताया कि ब्याह तो नहीं हो सकता है। हाँ, यदि दोनों बिरादरी में बदकमाऊ या बेकार आदमी को छोड़ने और दूसरे से नाता करने की प्रथा हो तो नाता हो सकता है। तीनों ने सलाह की, बोले नाता ही करवा दो। वकील ने दोनों  को फोटोवाले के यहाँ ले गए। बाजार से माला मंगवा ली। दोनों के वरमाला के फोटो निकलवाए। दोनों के अलग-अलग हलफनामे बनाए। उन पर फोटो चिपकाए। उन्हें नोटेरी से तस्दीक कराया। दोनों हलफनामे ले कर वापस चले गए। नाता हो गया था। दोनों कुछ दिन गाँव रहे। फिर पास के शहर में काम करने आ गए। दोनों  दिन भर काम करते और कमाते, किराए की क्वार्टर में रहते, रोज शाम शहर घूमने जाते। कहीं छोटा सा कोई जमीन का टुक़ड़ा ऐसा नजर आ जाए जिस पर वे अपनी खुद की झोंपड़ी ही बना सकें।  

बुधवार, 19 मई 2010

उन्नीस मई का दिन, शादी के बाद की पहली रात

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दो घण्टे भी न गुजरे थे कि एक बार फिर से घोड़ी की पीठ पर सवारी करनी पड़ी। बचपन में अपने मित्र बनवारी लखारा की घोड़ी की पीठ पर चढ़ कर उसे नदी किनारे पानी दिखाने खूब गए थे। पर तब आगे न तो बैंड होता था और न नाच हो रहा होता था। शाम को पाँच घण्टे की सवारी से अकड़ी कमर ठीक से सीधी भी न हो सकी थी कि फिर जलूस बन गया। इस बार जलूस सब से छोटे रास्ते से दुल्हिन के घर पहुँचा। तोरण को कटारी से छुआ कर अंदर पहुँचे तो कन्यादान के नाम पर दुल्हा-दुल्हिन के बाएँ हाथ की हथेलियों के बीच मेहन्दी और कुछ अन्य वनस्पतियों की पिसी लुगदी रख सूत के लच्छे से बांध दिए गए। फिर बंधे हाथ ही मंडप में पहुँचाए गए। भाँवरों की कार्यवाही आरंभ हुई। पंडित जी बहुत ही धीमे चल रहे थे। बारात में पंडित ही पंडित जो थे। उन्हें डर लग रहा था कि कहीं ऐसा न हो कोई विधि में कसर निकाल दे। पंडित जी के डर का बोझा सहना पड़ रहा था दुल्हा-दुल्हिन को।  भाँवर निपटते-निपटते सुबह चार बज रहे थे। जैसे ही वह सब निपटा सरदार ने चुपके से पंडित को अपने दाएँ हाथ की कनिष्ठिका दिखाई, वह समझ गया। उस ने तुरंत बंधे हाथ खोले सरदार को बाथरूम का रास्ता दिखा दिया। 
भाँवर से लौटने और दुल्हन को वापस मायके पहुँचा देने के बाद सरदार को कुछ आराम मिला। नौ बजते-बजते उसे फिर उठा दिया गया।  वह जल्दी से वह स्नानादि से निपटा तो उसे फिर से एक बार दुल्हिन के घर पहुँचा दिया गया। विदाई की रस्में हुई। दोपहर तक तक बारात फिर से बस में सवार थी। इस बार बस लाइन की नियमित बस थी। इस से बारात को पास के स्टेशन तक पहुँचना था, फिर वहाँ से ट्रेन से बारात लौटनी थी। सरदार के एक दादा जी बहुत होशियार थे। उन्हों ने पूरी बारात का टिकट लिया लेकिन कंडक्टर को इस बात के लिए मना लिया कि वह दुल्हा-दुल्हिन को फ्री ले जाएगा। जल्दी ही स्टेशन आ गया। वहाँ आधा घंटा विश्राम हुआ। बारात को चाय-पान मिला। इस बीच सरदार इस चक्कर में रहा कि किसी तरह घूँघट में छिपा दुल्हन का मुख मंडल दिख जाए। पर वह बहुत प्रयत्नों के साथ छुपा था, नहीं दिखना था सो नहीं ही दिखा। ट्रेन आई और बारात उस में सवार।  ट्रेन ने घंटे भर में ही बाराँ का प्लेटफॉर्म दिखा दिया।
ट्रेन से उतरते ही, सब बाराती और घर वालों ने सामान संभाला और पैदल अपने-अपने घरों को चल दिए। गाड़ी ने भी स्टेशन छोड़ दिया। प्लेटफॉर्म पर स्थाई रुप से टिके रहने वाले लोग ही रह गए। सरदार को लगा केवल वही अकेला यात्री छूट गया है। बुकस्टॉल से चला तो टिकटघर के बाहर के वेटिंग हॉल में दुल्हन के साथ अपनी दोनों बहनों और दोनों छोटे भाईयों को देख कर रुका। बहनों ने उसे बताया कि पिता जी ने आप के साथ मामा बैज़्जी के घऱ जाने को बोला है। सरदार उन सब को ले कर मामा बैज़्जी के घर पहुँच गया।  छोटे मामा उस पर खूब गुस्सा हुए -“नई लाड़ी (दुल्हन) को इस तरह पैदल लाया जाता है? मैं ने तो ताँगे वाले को स्टेशन भेजा है, वो बेचारा वहाँ हैरान हो रहा होगा। जब तक तुम्हें तुम्हारे घर में न ले लें तुम यहीं रहोगे” छोटे मामाजी की हुक्म उदूली करने का सरदार में बिलकुल माद्दा न था। मामाजी के घर दुल्हन का स्वागत हुआ। वह महिलाओं से घिर गई, सरदार अकेला रह गया, वह टाइमपास के लिए मामाजी के दवाखाने में आ बैठा और पिछले दो दिनों के अखबारों के पन्ने पलटने लगा।
हाँ फिर से दूल्हे की यूनिफार्म पहननी पड़ी, सिर पर साफा, कांधे पर गठजोड़ा ऱख दिया गया। सरदार चला, पीछे पीछे दुल्हन खिंची आती थी। आगे शहर का मशहूर बैंड बजता था। घर पहुँचते पहुँचते पर ढोल लिए ढ़ोली भी चला आया। फर्लांग भर की दूरी सरदार को मीलों लगी थीं। वैसे कोई खास बात नहीं थी, यह उसी का मोहल्ला था, जहाँ बच्चे-बच्चे को पता था सरदार की शादी हो गई है। भोजनोपरांत बाजार  गया और देर रात तक दोस्तों के साथ रहा। पान की दुकान से पान खा कर चलने ही वाला था कि पान वाले ने टोका -भाभी के लिए पान नहीं ले जाओगे? आज तो पहली मुलाकात है। सरदार दुलहन के लिए पान ले कर लौटा। रात  के बारह बजने में सिर्फ कुछ मिनट बाकी थे। उस के कमरे की गैलरी में महिलाएँ बैठी गीत गा रही हैं। घुसते ही बुआ ने टोका-पीछे छत पर जा। वह छत पर कुछ ही देर रहा फिर बुआ पकड़ कर ले गई। सरदार को उस के ही कमरे में अंदर ढकेला गया और खड़ाक से बाहर की कुंडी लग गई। बिजली घर में थी नहीं। कमरे में मात्र एक दीपक रोशन था। कमरा पूरा बंद डब्बा लग रहा था। दरवाजा बंद होने के बाद उस में चार फुट की ऊंचाई पर ‘ए-3 साइज के पेपर’ के बराबर की पोर्टेट ओरिएंटेशन वाली दो खिड़कियाँ दरवाजे के आजू-बाजू थीं, जिन पर भी परदे लटके थे। हवा भी न घुसे इस का पूरा इंतजाम था। अंदर देखा तो कमरे के एक कोने में ससुराल से मिले पलंग की दोनों कुर्सियाँ दीवार से लगी थी और ईंसें कोने में खड़ी थी। पलंग में रखी जाने वाली जिस चौखट पर निवार बुनी जाती है, वह कमरे के दाएँ फर्श पर रखी थी, जिस पर रेशमी चादर से ढका गद्दा बिछा था , जिस के  ऊपर शादी का खास जोड़ा पहने दुल्हन बैठी थी।
रदार को हालात देख कर गुस्सा भी आया और रोना भी। घर में कोई जमाई नहीं था, जो कम से कम पलंग को जोड़ कर खड़ा ही कर देता। बारात में सब थे, नेग लेने को, और जब उन का काम आया तो सब नदारद। वे नहीं तो बुआएँ ही यह काम कर देतीं। आखिर यह हुआ क्या? किसी को भी यह याद नहीं रहा। वह बुआ से पूछने को मुड़ा, दरवाजा खोलने को खींचा तो वह बाहर से कुंडी बंद थी। अब तब तक बाहर नही जा जा सकता था जब तक कि बाहर से कोई कुंडी न खोल देता।  बाहर जगराते में देवताओं को मनाते, गीत गाती औरतें अपने गीत पूरे कर ने के पहले खोल न सकतीं थीं। वह मसोस कर रह गया।
ई के महीने की ऊन्नीस तारीख बीस में तब्दील हो चुकी थी। पसीने से बनियान बदन से चिपक रही थी। सरदार ने अपना कुर्ता-पाजामा उतार, लुंगी पहन ली। बनियान को भी बदन से अलग किया, परांडी पर रखी बीजणी (हाथ-पंखा) ले गद्दे पर जा लेटा और बीजणी से इस तरह बदन पर हवा झलने लगा कि ज्यादा हवा दुल्हन को लगती रहे। सरदार को समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्या करे? जो कम से कम अब तो दुल्हन का चेहरा देखने को मिल जाए। दिमाग में अचानक रोशनी चमकी, उस ने दुल्हन से पूछा–तुम्हें गर्मी नहीं लग रही? दुल्हन क्या जवाब देती, वह पहले ही पसीने से तर-बतर-थी, चुप रही। कुछ देर बाद उठी और बोली–आप उधर मुँह कर के लेटिए, मैं अपने कपड़े बदल लेती हूँ। गर्मी में दुल्हन का जोड़ा जरूर उस के बदन को बुरी तरह काट रहा होगा। सरदार अपना मुहँ दीवार की तरफ कर लेट कर सोचने लगा -अब इंतजार पूरा हुआ। अब तो दुल्हन का मुखड़ा देखने को मिलेगा। सरदार को फिल्मों के सारे रोमांटिक गानों के मुखड़े याद आने लगे थे। कुछ देर बाद दुल्हन का मुखड़ा दिखा, लेकिन ताक पर रोशन एक तेल के दीपक की रोशनी में भीषण गर्मी में बदन से टपकते पसीने को बीजणी से सुखाते हुए। अब ये तो पाठक ही सोच सकते हैं कि दुल्हों के दोस्तों को सेरों खुशबूदार फूलों से दुल्हन की सेज को सजाते देखने पर सरदार और सरदारनी के दिल पर क्या गुजरती होगी?
रदार का अगला दिन बहुत व्यस्त रहा। सुबह ही कॉलेज जा कर पता किया कि कहीं रसायनशास्त्र की प्रायोगिक परीक्षा आज-कल में ही तो नहीं है? दोनों-तीनों फूफाओं और बुआओं की खबर ली गई कि वे एक पलंग नहीं जोड़ सके। फिर पलंग को खुद ही जोड़ा और ढंग से कमरे के एक कोने में लगाया। मंदिर के मैनेजर को पटा कर अनुमति ली गई कि मंदिर से सरदार अपने कमरे तक तार खींच कर बिजली ले जाए। पर्याप्त लंबाई वाला तार कबाड़ कर अपने कमरे तक खींचा और कुछ प्लग-सॉकेट लगाए। बिजली की सप्लाई का टेंपरेरी इंतजाम हो गया। शाम तक ससुराल से दहेज में मिला टेबलफैन चलने लगा और एक अदद बल्ब भी रोशन हुआ। दिन भर दुल्हन सज-धज कर बैठी रही। औरतें मिलने आतीं और मुहँ दिखाई देती रही, लेकिन सरदार को उस का मुखड़ा एक बार भी देखने को न मिला। वह रात होने का इंतजार कर रहा था, जब वह बल्ब की रोशनी और टेबलफेन की हवा में अपनी दुल्हन से मिलेगा और तसल्ली से उस का मुखड़ा देख सकेगा। 

मंगलवार, 18 मई 2010

अठारह मई का वह दिन !!!

ठारह मई का वह दिन कैसे भूला जा सकता है? दो बरस पहले से जिसे देखने और मिलने की आस लगी थी वह इस दिन पूरी होने वाली थी।

हुआ यूँ था ............ गर्मी की छुट्टियां थीं और मौसी की लड़की की शादी। सारा परिवार उस में आया था। सरदार, बाबूजी. माँ, बहनें और छोटे भाई भी। शादी सम्पन्न हुई तो सरदार ने अम्माँ से पूछा मैं मामाजी के यहाँ हो आऊँ? अम्माँ मुस्कुराई और कहा -बाबूजी से पूछो? वह जानती थी कि सरदार बाबूजी से पूछने में कतराता है। लेकिन उस दिन पूछ ही लिया। वह लगभग हर साल गर्मी में कुछ दिन मामाजी के यहाँ गुजारता था। पर अब की वहाँ गए दो बरस हो गए थे और उसे ननिहाल की याद जोरों से सता रही थी। वहाँ गर्मियों में बिताए दो हफ्ते पूरे साल के लिए उसे तरोताजा कर देते थे। रोज सुबह नदी स्नान और तैरना, दिन में पढ़ने को खूब किताबें, शाम फिर नदी पर गुजरती। रात होते ही मंदिर में जमती संगीत की महफिल, मामाजी पक्की शास्त्रीय बंदिशें गाते। बाबूजी से पूछने पर उन्हों ने सख्ती से मना कर दिया –नहीं, इस बार हम सब वहाँ जा रहे हैं। तुम बाराँ जाओगे। वहाँ दाज्जी अकेले हैं और परसों गंगा दशमी है। मन्दिर कौन सजाएगा?

मामा जी के यहाँ जाने की सरदार की योजना असफल हो गई थी, मन में बहुत हताशा थी और गुस्सा भी। अब उसे दूसरे दिन सुबह वापस अपने शहर लौटना था। पर अब मौसी के यहाँ रुकने का मन नहीं रहा। सरदार का मित्र ओम भी शादी में साथ था, उसे उसी समय साथ लौटने को तैयार किया और दोनों चल दिए। पच्चीस किलोमीटर की दूरी बस से तय की, रेलवे स्टेशन तक की। वहाँ पहुँचने पर पता लगा ट्रेन दो घंटे लेट थी। अब क्या करें? स्टेशन से कस्बा डेढ़ किलोमीटर था जहाँ एक अन्य मित्र पोस्टेड था। स्टेशन के बाहर की एक मात्र चाय-नाश्ते की दुकान पर अपनी अटैचियां जमा कीं और पैदल चल दिये कस्बा।

वहाँ मित्र मिला, चाय-पानी हुआ, बातों में मशगूल रहे। ट्रेन का वक्त होने को आया तो वापस चल दिये, स्टेशन के लिए। कस्बे से बाहर आते ही ट्रेन दिख गई। उसे भी स्टेशन तक पहुँचने में एक किलोमीटर की दूरी थी और इन दोनों को भी। ट्रेन छूट जाने का खतरा सामने था। फिर वापस मौसी के यहाँ जाना पड़ता रात बिताने। सुबह के पहले दूसरी ट्रेन नहीं थी। जिस तरह सरदार वहाँ से गुस्से में रवाना हुआ था, उस का वापस वहीं लौटने का मन न था। तय किया कि ट्रेन पकड़ने के लिये दौड़ा जाए। दोनों कुछ दूर ही दौड़े थे कि ओम के पैरों ने जवाब देना शुरु कर दिया। सरदार ने उस के हाथ में अपना हाथ डाल जबरन दौड़ाया। चाय-नाश्ते वाली दुकान के नौकर ने दोनों को दौड़ता देख उन की अटैचियां सड़क पर ला रखी। सरदार ने दोनों अटैचियाँ उठाईं और प्लेटफॉर्म की तरफ दौड़ा। ट्रेन चल दी। डिब्बे के एक दरवाजे में ओम को चढ़ाया, दूसरे व तीसरे में अटैचियाँ और चौथे में सरदार चढ़ा। अन्दर पहुँच कर सब एक जगह हुए। दोनों की साँसें फूल गई थीं, दो स्टेशन निकल जाने तक मुकाम पर नहीं आयीं। आज सरदार उस वाकय़े को स्मरण करता है तो काँप उठता है, अपनी ही मूर्खता पर। उस ने ओम को जबरन दौड़ाया था। उस की क्षमता से बहुत अधिक। अगर उसे कुछ हो गया होता तो?

सी साल सरदार ने बी.एससी. के दूसरो वर्ष में दाखिला लिया। कॉलेज का वार्षिकोत्सव का अंतिम दिन था। कॉलेज से लौटा तो साथ कुछ इनाम थे, छोटे-छोटे, कुछ प्रतियोगिताओं में स्थान बना लेने के स्मृति चिन्ह। उन्हीं में था एक मैडल। कॉलेज के इंटर्नल टूर्नामेण्ट की चैम्पियन टीम के कप्तान के लिये। माँ और तो सभी चीजें जान गयी, लेकिन मैडल देख पूछा -ये क्या है?

“घर की शोभा”, सरदार का जवाब था।

जवाब पर छोटी बहन हँस पड़ी। ऐसी कि उस से रोके नहीं रुक रही थी। माँ ने उसे डाँटा। वह दूसरे कमरे में भाग गई। 

सरदार समझ नहीं पाया उस हँसी को। वह हँसी उस के लिये एक पहेली छोड़ गयी। उसे सुलझाने में सरदार को कई दिन लग गए। सुलझी तो पता लगा जिस दिन उस ने खुद के साथ ओम को दौड़ाया था। उस के दूसरे दिन मामाजी के यहाँ जाने के रास्ते के एक कस्बे में बाबूजी. माँ, बहनें और छोटे भाई किसी के मेहमान बने थे और सरदार की दुल्हिन बनाने के लिए उस परिवार की सबसे बड़ी बेटी देख आए थे। जब सरदार को पता लगा तो वह उस के बारे में लोगों से जानकारियाँ लेता रहा। कल्पना में उस के चित्र गढ़ता रहा, अब उसे देखने और मिलने का दिन आ गया था.....


निकासी निपटी तो आधी रात हो गई थी। तारीख सत्रह से अठारह हो चुकी थी। बारात के लिए बस आ चुकी थी। सरदार चाहता था कि कुछ खास दोस्त बारात में जरूर चलें। सब से कह भी चुका था। पर वे नहीं आए। जो दोस्त साथ गए उन में दो-चार हम उम्र थे तो इतने ही बुजुर्ग भी। बाराती बस में अपनी-अपनी जगह बैठ चुके थे।
बस में सरदार के लिए ही सीट न बची थी। एक दो बुजुर्गों ने उसे अपना स्थान देना चाहा पर वह अशिष्टता होती। एक पीपे में सामान का था। उसे ही सीटों के बीच रख कर बैठने की जगह बनाई ससुराल तक का पहला सफर किया। ऐसे में सोने का तो प्रश्न ही न था। पास की सीट पर मामा जी और एक बुजुर्ग मित्र वर्मा जी बैठे थे। बस रूट की पुरानी बस थी, जिस के ठीक बीच में एक दो इंच की दरार थी ऐसा लगता था दो डिब्बों को जोड़ दिया हो और बीच में माल भरना छूट गया हो। जब भी वर्मा जी सोने लगते, मामाजी उन्हें जगा देते, कहते वर्मा जी आप पीछे के हिस्से में हैं, देखते रहो, अलग हो गया तो बरात छूट जाएगी। भोर होने तक बस चलती रही। सड़क के किनारे के मील के पत्थर बता रहे थे कि नगर केवल चार किलोमीटर रह गया है। तभी धड़ाम......! आवाज हुई और कोई तीन सौ मीटर दूर जा कर बस रुक गई। शायद बस से कुछ गिरा था। जाँचने पर पता लगा कि बस के नीचे एक लंबी घूमने वाली मोटी छड़ (ट्रांसमिशन रॉ़ड) होती है जो इंजन से पिछले पहियों को घुमाती है वह गिर गई थी। बस का ड्राइवर और खल्लासी उसे लेने पैदल पीछे की ओर चल दिए। उजाला हो चुका था, शीतल पवन बह रही थी। यह सुबह के टहलने का समय था। सरदार और उस के कुछ हम उम्र दोस्त पैदल नगर की ओर चल दिए। एक किलोमीटर चले होंगे कि बस दुरुस्त हो कर पीछे से आ गई। उस में बैठ गए।

सुबह से दोपहर बाद तक बारातियों का चाय-नाश्ता, नहाना, सजना, भोजन और विश्राम चलता रहा। शाम चार बजे अगवानी हुई और उस के बाद बारात का नगर भ्रमण। पाँच बजे सरदार की घुड़चढी हुई। नगर घूमते आठ बज गए। बारात का अनेक स्थानों पर स्वागत हुआ। कहीं फल, कहीं ठण्डा पेय कहीं कुल्फी। मालाएँ तो हर जगह पहनाई गई। हर मोड़ पर दूल्हे के लिए कोई न कोई पान ले आता। घोड़ी पर बैठे बैठे थूकना तो असभ्यता होती, सब सीधे पेट में निगले जा रहे थे। सरदार सोच रहा था, आज पेट, आँतों और उस से आगे क्या हाल होगा? साढे तीन घंटे हो चुके थे, अब तो लघुशंका हो रही थी और उसे रोकना अब दुष्कर हो रहा था। एक स्थान पर स्वागत कुछ तगड़ा था, आखिर वहाँ घोड़ी से नीचे उतरने की जुगत लग ही गई। वहाँ एक सजे हुए तख्त पर दूल्हे को मसनद के सहारे बैठाने की व्यवस्था थी। पर सरदार ने अपने एक मित्र से कहा -बाथरूम? उस ने किसी और को कहा, तब बाथरूम मिला। वहाँ खड़े-खड़े दस मिनट गुजर गए। लघुशंका पेशियों के जंगल में कहीं फँस गयी थी और निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी। तीन घंटे से रोकते-रोकते रोकने वाली पेशियाँ जहाँ अड़ाई गई थीं जाम हो चुकी थीं और वापस अपनी पूर्वावस्था में लौटने को तैयार न थी। अब बाथरूम में अधिक रुकना तो मुनासिब न था। सरदार ने पैंट फ्लाई के बटन बंद किए और जैसे गया था वैसे ही बाहर लौट आया।

नगर भ्रमण दुल्हन के मकान के सामने भी पहुँचा। वहाँ महिलाओं ने खूब स्वागत किया। हर महिला टीका करती, नारियल पर कुछ रुपये देती। सरदार वहाँ तलाश करता रहा शायद कहीं से उसे उस की होने वाली जीवन साथी देख रही हो और उसे दिख जाए। वह दिखाई नहीं ही दी, दिखी भी हो तो चीन्हने का संकट भी था, न उसे पहले देखा था और न उस का चित्र। साढ़े दस बजे वापस जनवासे में लौटे तो बाराती सीधे भोजन पर चले गए। सरदार ने यहाँ भी आते ही कोशिश की लेकिन शंका सरकी तक नहीं, फँसी रही। उस से भोजन के लिए कहा जा रहा था। पर मन और शरीर दोनों शंका में उलझे थे। पता लगा कच्चे आम का शरबत (कैरी का आँच) बना है। बस वही दो-तीन गिलास पिया तो पेशियाँ नरम पड़ीं और शंका को जाने का अवसर मिला। कुछ देर विश्राम किया। कलेंडर में तारीख बदल कर उन्नीस मई हो चुकी थी। साईस जनवासे के बाहर मैदान में दूल्हे को तोरण और भाँवर पर ले जाने के लिए फिर से घोड़ी को तैयार कर रहा था............ (आगे पढ़ें)

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

संतानों के प्रति उन के जन्मदाताओं के दायित्व और संतानों के अधिकार कानून द्वारा निश्चित हों

ये मोटे-मोटे आंकड़े हैं-
2001 की जनगणना के मुताबिक भारत की कुल जन संख्या में 80% हिन्दू, 12% मुस्लिम, 2% से कुछ अधिक ईसाई, 2% सिख, 0.7% बौद्ध और 0.5 प्रतिशत जैन हैं। 0.01 प्रतिशत पारसी और कुछ हजार यहूदी हैं। शेष न्य धर्मों के लोग अथवा वे लोग हैं जो जनगणना के समय अपना धर्म नहीं प्रदर्शित नहीं करते। 
चूंकि हिन्दू विवाह अधिनियम  मुस्लिमों, ईसाइयों, पारसियों और यहूदियों के अतिरिक्त सभी पर प्रभावी है। इस कारण से इस के प्रभाव क्षेत्र की जनता की जनसंख्या हम 85 प्रतिशत के लगभग मान सकते हैं। 
हिन्दू विवाह अधिनियम अनुसूचित जन-जातियों के लोगों पर प्रभावी नहीं है। जिन की जनसंख्या भारत में मात्र 8.2 प्रतिशत है।  इन्हें कम करने पर हम इस अधिनियम से प्रभावित जनसंख्या 77% रह जाती है। 
भारत में अनुसीचित जाति के लोगों की जन संख्या 16.2 प्रतिशत है और अन्य पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या 52 प्रतिशत है। सभी अनुसूचित जातियों और लगभग सभी अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों में नाता प्रथा प्रचलित है। यदि इस आधार पर हम इन्हें भी हिन्दू विवाह अधिनियम के पूर्ण प्रभाव क्षेत्र अलग मानें तो शेष लोगों की जनसंख्या केवल 9 प्रतिशत शेष रह जाती है। 
नाता प्रथा देश के लगभग सभी भागों में प्रचलित है। होता यह है कि कोई भी विवाहित स्त्री घोषणा कर देती है कि वह अपने पति से परेशान है और उस के साथ नहीं रहना चाहती। इस के लिए वह स्टाम्प पेपर पर शपथ पत्र निष्पादित कर देती है। इस शपथ पत्र के निष्पादन के उपरांत यह मान लिया जाता है कि वह स्त्री अब अपने पति के बंधन से आजाद हो गई है। कोटा की अदालत में प्रत्येक कार्य दिवस पर इस तरह आजाद होने वाली स्त्रियों की संख्या औसतन तीन होती है। जब कि कोटा के पारिवारिक न्यायालय में माह में मुश्किल से पाँच तलाक भी मंजूर नहीं होते।
जाद होने के बाद वह स्त्री एक अन्य शपथ पत्र निष्पादित कर अपने इच्छित पुरुष के साथ रहने की सहमति दे देती है। पुरुष भी उसे भली तरह रखने के लिए एक शपथपत्र निष्पादित करता है। इस के उपरांत दोनों स्त्री-पुरुष साथ साथ कुछ फोटो खिंचाते हैं। जिस की सुविधा आज कल अदालत परिसर में चल रहे कंप्यूटर ऑपरेटरों के यहाँ उपलब्ध है। अब दोनों स्त्री-पुरुष साथ रहने को चले जाते हैं। इसी को नाता करना कहते हैं। इन स्त्री-पुरुषों के साथ इन के कुछ परिजन साथ होते हैं।
बाद में जब पति को इस की जानकारी होती है तो वह अपनी पत्नी के परिजनों को साथ लेकर उस पुरुष के घर जाते हैं जहाँ वह स्त्री रहने गई है और झगड़ा करते हैं। इस झगड़े का निपटारा पंचायत में होता है।  जिस पुरुष के साथ रहने को वह स्त्री जाती है वह उस स्त्री  के पति को  पंचायत द्वारा निर्धारित राशि मुआवजे के बतौर दे देता है। 
न्य पिछड़ा वर्ग की जातियों में नाता बहुत कम होता है लेकिन इन जातियों में इसे गलत दृष्टि से नहीं देखा जाता। इस तरह भारत की 85 प्रतिशत हिन्दू जनसंख्या में से लगभग 15 से 20 % को छोड़ कर शेष  65-70 % जनसंख्या में विवाह के कानूनी और शास्त्रीय रूप के अलावा अन्य रूप प्रचलित हैं और समाज ने उन्हें एक निचले दर्जे के संबंध के रूप में ही सही पर मान्यता दे रखी है। विवाह के इन रूपों में समय के साथ परिवर्तन भी होते रहे हैं। लिव-इन-रिलेशन को ले कर इन जातियों में कोई चिंता नहीं दिखाई देती है। जितनी भी चिंता दिखाई देती है या अभिव्यक्त की जा रही है वह केवल इस 15-20% जनता में से ही अभिव्यक्त की जा रही है। लिव-इन-रिलेशन को ले कर भी चिंता अधिक इसी बात की है कि इस संबंध से उत्पन्न होने वाली संतानों के क्या अधिकार होंगे।  
कानून में कभी भी बिना विवाह किए स्वतंत्र स्त्री-पुरुष के संबंध को अपराधिक नहीं माना गया है। आज के मानवाधिकार के युग में इसे अपराधिक कृत्य ठहराया जाना संभव भी नहीं है। सरकार की स्थिति ऐसी है कि वह वर्तमान वैवाहिक विवादों के तत्परता के हल के लिए पर्याप्त न्यायालय स्थापित करने में अक्षम रही है। मेरा तो यह कहना भी है कि वैवाहिक विवादों के हल होने में लगने वाला लंबा समय भी लिव-इन-रिलेशन को बढ़ावा देने के लिए एक हद तक जिम्मेदार है। ऐसे में यही अच्छा होगा कि लिव-इन-रिलेशन अथवा विवाह के अतिरिक्त नाता जैसे संबंधों से उत्पन्न होने वाली संतानों के प्रति उन के जन्मदाताओं के दायित्व और इन संतानों के अधिकार कानून द्वारा निश्चित किए जाने आवश्यक हैं।