@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: short short story
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रविवार, 14 दिसंबर 2025

ट्रेन मिल गयी

लघुकथा :


दिनेशराय द्विवेदी
ह सात दिनों से मुम्बई में था. आज यहाँ उसका आख़िरी दिन था. रात नौ बजे की ट्रेन मुंबई सेंट्रल से थी. सुबह उसने मेज़बान से पूछा,

“आज का पूरा दिन खाली है, क्या किया जाए?”

मेज़बान ने मुस्कराकर कहा,

“एलिफेंटा केव्ज चले जाइए. समुद्र के बीच हैं, गेटवे ऑफ इंडिया से नाव मिल जाएगी.”

वह लोकल पकड़कर विक्टोरिया टर्मिनस स्टेशन पहुँचा और पैदल गेटवे ऑफ इण्डिया तक चला गया. टिकट लिया और थोड़ी देर बाद नाव में बैठ गया. नाव तट से दूर हुई तो समुद्र की लहरें और तेज़ हवाएँ उसे रोमांचित करने लगीं. बाल हवा में उड़ रहे थे. नाव में दस-पंद्रह किशोर भी थे, जो पिकनिक के लिए एलिफेंटा जा रहे थे. नाव में ही उन से परिचय हुआ. नाव एलीफेंटा पहुँचती तब तक किशोरों से उसकी दोस्ती भी हो चुकी थी.

वह सीमित समय में पूरा द्वीप घूमना चाहता था. पर उसकी जेब गाइड के लिए पैसे खर्च करने को तैयार नहीं थी. किशोरों ने कहा,



“आप हमारे साथ घूमिए, हम सब दिखा देंगे हमसे बेहतर गाइड कौन होगा.

दिन भर वह किशोरों के साथ ही सब साथ घूमते रहे. गुफाओं की भव्यता, द्वीप की सुंदरता और किशोरों की चहल-पहल ने उसे आनंदित कर दिया.

शाम ढलने लगी. पाँच बजने को थे. जब वे तट पर लौटे तो टिकट खिड़की पर लंबी कतार देखकर उसका चेहरा उतर गया. मन में हिसाब लगाया,

“कम से कम एक घंटा लाइन में लगेगा, सात बजे तक नाव मिलेगी. आधे घंटे में गेटवे पहुँचा भी तो अंधेरी पहुँचते-पहुँचते साढ़े आठ बजेंगे. सामान लेकर ट्रेन छूटने के पहले सेंट्रल पहुँचना असंभव था. ट्रेन छूटना तय था.”

उसके चेहरे पर उदासी देख एक किशोर ने पूछा,

“अंकल, आप इतने परेशान क्यों हैं?”

उसने धीमी आवाज़ में कहा,

“रात नौ बजे ट्रेन है. अगर टिकट लेने में देर हो गई तो ट्रेन छूट जाएगी.”

किशोर ने तुरंत साथियों को बताया. उनमें से एक बोला,

“घबराइए मत अंकल, आपको अगली नाव में बिठा देंगे.”

एक किशोर उससे पैसे लेकर टिकट खिड़की तक गया. वहाँ लगी कतार में खिड़की से चौथी जगह पर टिकट लेने को खड़ी महिला से उसने विनती की,

“आंटी, मदद कर दीजिए. ये अंकल राजस्थान से आए हैं. रात नौ बजे ट्रेन है. लाइन में लगेंगे तो ट्रेन छूट जाएगी. आप इनके लिए टिकट ले लीजिए.”

महिला ने बिना झिझक टिकट लिया और किशोर को थमा दिया. उसकी चिंता मिट गई. अगली नाव में बैठकर वह गेटवे पहुँचा. वहाँ से दौड़ते हुए लोकल पकड़ी, फिर बस. अंधेरी पहुँचा तो मेज़बान ने कहा,

“खाना तैयार है, खा लो.”

उसने घबराकर कहा,

“ट्रेन छूट जाएगी.”

मेज़बान हँसकर बोले,

“नहीं छूटेगी. ट्रेन बोरीवली भी रुकती है. वहाँ से साढ़े दस बजे चलेगी. हम साथ खाना खाएँगे, फिर मैं कार से आपको बोरीवली छोड़ दूँगा.”

उसकी साँस में साँस आई. खाना खाकर वे निकले. मेज़बान ने उसे बोरीवली स्टेशन ट्रेन आने के पंद्रह मिनट पहले पहुँचा दिया. उसे ट्रेन मिल गई.

शनिवार, 13 दिसंबर 2025

'साख'

'लघुकथा'

अदालत का काम पूरा होते ही पदार्थीजी ने अपने भीतर एक अजीब हलकापन महसूस किया. जैसे किसी भारी बोझ को उतार दिया हो. बाहर गर्मी और उमस का आलम था, हवा ठहरी हुई, पसीने की महीन बूंदें कनपटी से बहकर कॉलर तक पहुँच रही थीं. दिन भर की थकान अब उनके कदमों में उतर आई थी.

उन्होंने सहायक को बस्ते समेटने को कहा और पार्किंग की ओर बढ़े. कार स्टार्ट होते ही विविध भारती का प्रसारण गूँज उठा. फिल्मी गीतों के बीच बुनी हुई कहानी, और फिर अचानक एक पुराना सुरीला गाना. सारंगी की झंकार जैसे कार की खिड़की से बाहर फैल रही थी, और शब्द भीतर कहीं पुराने घाव कुरेद रहे थे.

गाड़ी गेट नं. 1 पर पहुँची. सहायक का इंतजार करते हुए पदार्थीजी का मन रेडियो की कहानी में डूबा हुआ था. तभी सड़क के उस पार खड़ा ट्रैफिक सिपाही दिखा. उसकी भंगिमा से लगा कि वह किसी वाहन को रोकने वाला है. पदार्थीजी को क्षणभर लगा कि कहीं वह उनसे ही न कह दे, “गाड़ी आगे लगाइए.” लेकिन सिपाही ने पास के स्कूटर वाले को ही टोक दिया. शायद उसने पहचान लिया था कि वकील साहब अब घर लौट रहे हैं.

गाना थम गया, कहानी फिर आगे बढ़ी. तभी सहायक आ पहुँचा, बस्ता पिछली सीट पर रखा और सामने की सीट पर आकर बैठ गया. वह आज बयान कमिश्नर के रूप में गवाह का बयान दर्ज कर के आया था. उसने उसी का किस्सा सुनाना शुरू किया, “कैसे एक जूनियर वकील को उसके ही पिता के शिष्य ने चालाकी से बेवकूफ बनाया और अपने पक्ष के बयान दर्ज करवा लिए.


पदार्थीजी का मन अब दो कहानियों में झूल रहा था, एक रेडियो की कहानी और दूसरी सहायक की. सहायक बोल रहा था, और रेडियो अपनी धुन में कहानी कहे रहा था. उन्होंने सहायक की ओर देखा और कहा, “बयान कमिश्नर का काम गवाह की बात लिखना है, न कि वकील की व्याख्या. जब शब्द निष्पक्ष नहीं रहते, तो न्याय भटक जाता है.”

रेडियो की कहानी भी अपने अंतिम मोड़ पर थी, अभिनेता ने मंच पर नाटक खेलकर पिता और समाज को आईना दिखाया. उसका संवाद गूँजा,

“न्याय वही है जो सबके लिए समान हो, चाहे वह प्रेम हो या कानून.”

पदार्थीजी ने गहरी साँस ली. उन्हें लगा जैसे रेडियो की कहानी, सहायक का किस्सा और सड़क पर खड़ा सिपाही, तीनों एक ही बात कह रहे हों.

न्याय केवल प्रक्रिया नहीं है, वह ऐसी साँस है जो सब को बराबरी से मिलनी चाहिए.

गाड़ी अब पदार्थी जी के घर के सामने थी. संगीत थम चुका था. उन्होंने सहायक से कहा, “आज की सीख यही है,” कहानी हो या अदालत, शब्दों की सच्चाई ही सबसे बड़ा न्याय है. आज से जब भी तुम कमिश्नर ड्यूटी करो, गवाह को ध्यान से सुनो, उसका कहा ही लिखो, किसी पक्ष के वकील का सुझाया हुआ नहीं, वरना न्याय मरने लगेगा. इससे तुम पर अदालत, वकीलों और पक्षकारों का विश्वास बढ़ेगा, तुम्हारी साख कायम होगी. अन्यथा लोग तुम्हें भी उन बहुतेरे वकीलों में शामिल कर लेंगे जो अपनी ‘फीस’ ले कर कुछ भी कर सकते हैं.”

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2025

बधाई हो


अदालत की इमारत उस दिन जैसे मुस्करा रही थी. बरसात में महीनों तक छत टपकती रही, फाइलों पर पानी की बूंदें गिरती रहीं, और मरम्मत के लिए एक चिट्ठी बमुश्किल पीडब्ल्यूडी तक पहुँची. पर आज माहौल अलग था—जैसे दीवारों से सीलन उतर गई हो, जैसे गलियारों में धूप उतर आई हो.

खबर थी, “जज साहब का तबादला हो गया और साथ ही उन्हें रिटायरमेंट के चन्द महीनों पहले डिस्ट्रिक्ट जज बना दिया गया था.”
 
इस खबर से अदालत की दरारों में फँसी नमी तक मानो राहत की साँस ले रही थी. जज साहब वही थे जिनके बारे में मजदूरों और अभियुक्तों की दुनिया में एक ही कहावत चलती थी, "अगर तुम्हारा मामला इनके पास है, तो समझो तुम्हारा पक्ष पहले ही हार गया." दीवानी मामलों में सरकार के खिलाफ़ तब तक फैसला नहीं दिया जब तक कि सरकार की तरफ से पैरवी ही नहीं की गयी हो या फिर ऐसा करना बिल्कुल असंभव हो गया हो. फौजदारी मुकदमों में बरी होना तो मानो अपराध ही था. उनकी अदालत में अभियुक्त को खुद को पाक-साफ़ साबित करना पड़ता था, अभियोजन को कुछ भी साबित करने की ज़रूरत नहीं थी.

फिर जब श्रम न्यायालय में नियुक्त हुए तो मजदूरों की हालत और भी पतली हो गई. एक तो पहले ही उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों ने कानून की पुनर्व्याख्याएँ कर-कर के श्रमिक को सामाजिक न्याय प्रदान करने वाले कानून के झुकाव की दिशा नियोजक पक्ष की ओर मोड़ दी थी, दूसरे इन जज साहब का सोचना कमाल का था. जो कुछ साबित करना है वह मजदूर को ही साबित करना है. वे मजदूर के पक्ष को मजबूत करने वाले दस्तावेजों को जो नियोजक के कब्जे में होते अदालत में पेश करने का आर्डर कभी नियोजक को न देते. फैसले में लिखते यह मजदूर का दायित्व था. मजदूर सोचने लगे थे कि वे इन दस्तावेजों के लिए नियोजक के यहाँ चोरी करें या डाका डालें? नियोजक का पक्ष चाहे कितना भी खोखला हो, मजदूर को राहत मिलना ऊँट के मुहँ में जीरा ही साबित होता. मजदूर की गवाही अदालत की दीवारों तक पहुँचने से पहले ही दम तोड़ देती.

अब जब उनका तबादला हुआ और वे जिला जज बन गए, तो मजदूरों और उनके वकीलों ने राहत की साँस ली. अदालत के गलियारों में जज साहब के लिए बधाइयों की बौछार थी, "बधाई हो साहब बधाई.” मन ही मन बधाई देने वाला कह रहा होता, “अब हम भी चैन की नींद सो पाएंगे."
 
तबादला आदेश आने के तीन दिन बाद जज साहब ने रुखसत ली. वकील लोग आपस में एक दूसरे से पूछते, “फेयरवेल का क्या करें?” तो जवाब में फिर सवाल मिलता, “अब बधाई के चार शब्द बोल दिए वही क्या कम हैं? दूसरे जजों की तरह कर्मचारियों ने साहब के माथे टीका लगा कर माला पहनाई, मिठाई, कचौड़ियों और चाय से जलपान करवा कर फेयरवेल दिया. वकीलों की ओर से कोई विदाई समारोह नहीं हुआ, बस एक सामूहिक मुस्कान थी, जैसे किसी भारी बोझ से मुक्ति मिल गई हो.

जज साहब इस अदालत की अपनी कुर्सी से अन्तिम बार अत्यन्त खुश हो कर उठे, सोचते रहे कि जाते जाते उन्हें जिला जज बनने का मौका मिल ही गया. एक तरह से प्रमोशन ही समझो. लोगों ने इतनी बधाइयाँ दी जितनी इससे पहले उन्हें कभी नहीं मिलीं. यह कोई कम उपलब्धि नहीं थी.
 
अदालत के बाहर मजदूर और वकील आपस में फुसफुसा रहे थे, “आखिर साहब चले ही गए, अब शायद न्यायालय में न्याय भी लौट आए."

गुरुवार, 11 दिसंबर 2025

रैंप और गंगा

लघुकथा
सभागार में रोशनी झिलमिला रही थी.
रैंप पर कदमों की खटखटाहट, जैसे सदियों की चुप्पी पर चोट.

दरवाज़ा धड़ाम से खुला.
कुछ पुरुष भीतर घुसे, आवाज़ें गूँजीं गूंजने लगीं.

पहली पुरुष आवाज थी, "मॉडलिंग खत्म, घर जाओ. संस्कृति बचाओ."
यह आवाज गंगा की धारा को रोकने की कोशिश थी.

प्रतियोगी एक ने मुस्कराकर उत्तर दिया, "संस्कृति इतनी नाज़ुक है अगर, तो दुकानों से पश्चिमी कपड़े हटाइए."

तभी दूसरे पुरुष की आवाज गूंजी, उसमें गुस्सा भरा था. "सभ्यता ऐसे कपड़ों से टूटती है."

प्रतियोगी दो की आँखें चमकी और उसने अपने महीन स्वर में कहा, "और आप कौन हैं यह तय करने वाले, कि सभ्यता किससे टूटेगी?"

हॉल में सन्नाटा छा गया.

पुरुषों की आवाज़ें धीरे-धीरे खोने लगीं.

प्रतियोगी तीन का दृढ़ स्वर गूंजा, "हम यहाँ कपड़े दिखाने नहीं आए, हम अपने सपने सुनाने आए हैं."

रैंप अब लकड़ी का फर्श भर नहीं था.
अब वह एक पुल था, जिस पर से महिलाएँ अपने सपनों को समाज के उस पार ले जा रही थीं.
ऊँची एड़ी की खटखटाहट गूंजी, वह थी साहस की ऊँचाई.
हर कदम एक घोषणा, "हम पीछे नहीं हटेंगे."

बाहर गंगा बह रही थी, उसकी लहरें गा रही थी,
"संस्कृति वही है जो बहती रहती है ...
रुकती नहीं."

बुधवार, 10 दिसंबर 2025

अमूल्य घोड़ा

लघुकथा

अरब में एक साईस था, जो एक अमीर के घोड़ों की देखरेख करता था. अमीर के पास एक से एक बेहतरीन घोड़े थे. साईस की भी इच्छा थी कि उसका अपना घोड़ा हो, पर उसके पास इतना धन नहीं था. आखिर अपनी बचत से उसने मेले से एक घोड़े का बच्चा खरीदा और उसे बेटे की तरह पाला. वह उससे बातें करता, उसे दुलारता और अपनी सारी कमाई उसी पर खर्च करता.

जब घोड़ा जवान हुआ तो साईस को लगा कि ऐसा घोड़ा पूरे अरब में नहीं होगा. उसने सोचा कि इसकी असली पहचान तो मेले में ही होगी जहाँ सारे अरब से घोड़े आते हैं. अमीर से अवकाश लेकर वह अपने घोड़े को मेले में ले गया.

मेले में सबसे महंगे घोड़े की कीमत देखकर उसने अपने घोड़े की कीमत (टैग-प्राइस) उससे भी सवाई रख दी. लोग घोड़ा देखने आते, पर कीमत देखकर लौट जाते. तभी एक अमीर ने बोली लगाई. फिर दूसरा अमीर आया और उसने उससे अधिक बोली लगाई. इस तरह कीमत बढ़ती गई और टैग से भी दुगनी हो गई. जैसे जैसे उसकी कीमत बढ़ती जाती साईस का दिल डूबने लगता कि, मेरा बेटा मुझ से छिन जाएगा.

साईस मन ही मन सोचने लगा, ... "मैंने तो कीमत अपनी इच्छा से तय की थी, पर असली कीमत तो वही है जो लोग देने को तैयार हैं. मालिक की चाह अलग है, पर असली मूल्य बाजार ही तय करता है."

आखिरकार पहला अमीर मैदान छोड़ भागा और दूसरा अमीर खुश हुआ कि उसने पहले वाले अमीर को मात दे दी. पर जब मेले के अधिकारी ने रकम जमा करने को कहा तो वह अमीर बोला, "मैंने घोड़ा खरीदना नहीं है, मुझे तो बस दूसरे को पछाड़ने का सुख चाहिए था."

साईस बहुत खुश हुआ कि उसका बेटा-सा घोड़ा अब उसके पास ही रहेगा. वह अपने बेटे को साथ ले कर अमीर के पास लौटा. अमीर ने घोड़ा देखकर पूछा, "यह घोड़ा तुम लाए हो?"

साईस ने विनम्रता से कहा, "हुजूर, मेरी इतनी हैसियत कहाँ कि ऐसा घोड़ा खरीद सकूं. यह घोड़ा मैंने ही पाल-पोसकर अपने बेटे की तरह बड़ा किया है. मेले में इसकी कीमत मैंने सबसे महंगे घोड़े से सवाई रखी थी. पर दो रईस आए और बोली लगाने लगे. आखिर मेरी बताई कीमत से दुगने तक पहुँच गए. अचानक एक रईस ने बोली छोड़ दी. दूसरे ने इसे लेने से इन्कार कर दिया कि मैं तो बस दूसरे अमीर को पछाड़ना चाहता था. मेरा मकसद पूरा हुआ. यह कह कर वह मेला छोड़ कर चला गया.


कुछ रुक कर साईस ने फिर कहा, "असली कीमत वही बनी जो बाजार ने तय की. मैं खुश हूँ कि मेरा बेटा मेरे पास है. मैं इसे वापस ले आया हूँ. इसे आप मेरी ओर से नजराना समझ रख लीजिए. मैं इसी में खुश हूँ कि यह हमेशा मेरे पास रहेगा."

रईस ने खुश हो कर कहा, “भले ही मेले में इस घोड़े की कीमत सबसे अधिक लगी हो, लेकिन यह घोड़ा बेशकीमती ही नहीं, बल्कि अमूल्य है. इसकी कोई कीमत नहीं, जिसे कोई बाप की तरह प्यार करे उसकी कोई कीमत नहीं होती. यह घोड़ा तुम्हारा है और हमेशा तुम्हारा ही रहेगा. आज से यह इस घुड़साल में सबके साथ रहेगा."

मंगलवार, 9 दिसंबर 2025

'पतंगबाज'

'लघुकथा'

रमन अपने दफ्तर जाने के लिए बस-स्टॉप पर खड़ा हो कर बस की प्रतीक्षा कर रहा था. तभी उसकी नजर सड़क के उस पार सामने वाले बस-स्टॉप के निकट फुटपाथ पर बैठे बच्चे पर पड़ी. यह बच्चा पास ही किसी झुग्गी में रहने वाले परिवार से दिखाई पड़ता था. उसने एक पुरानी गंदी निक्कर और पुरानी टी शर्ट पहने था. उसके पास एक लूटी हुई पतंग थी, जो किनारे से थोड़ी फटी थी। उसके पास लूटे हुए लेकिन उलझे हुए धागों के कुछ गुच्छे थे और पतंग के ऊपर रखी एक पुरानी चरखी भी. वह उन लूटे धागों के एक गुच्छे को सुलझा रहा था.

फुटपॉथ पर से गुजरने वाले लोग उस बच्चे को देखते और हँसते हुए गुजर जाते. शायद सोचते कि बच्चा इतनी मेहनत के बाद भी पतंग शायद ही उड़ा पाए, उड़ा कर खुश भी हो लेगा तो पेंच लड़ाने की तो कभी सोच भी न सकेगा.

कुछ देर बाद रमन ने देखा, उसने वह गुच्छा सुलझा लिया था और अब वह अपनी चरखी पतंग के ऊपर से उठा कर उस पर सुलझा हुआ धागा लपेट रहा था. तभी चरखा का वजन हट जाने से उसकी हरे पीले रंग की पतंग हवा के झोंके के साथ उड़ कर सड़क पर आ गयी। बच्चा चरखी वहीं रख तुरन्त पतंग उठाने दौड़ा. पतंग फिर उड़ी और एक स्कूटर का पिछला पहिया उस पर से गुजर गया। पतंग की हालत और खराब हो गयी. बच्चे ने फिर भी उसे न छोड़ा और उसे उठा कर वापस अपनी जगह जा बैठा. अब वह पतंग को देख रहा था कि उसकी हालत कैसी है. उसने पतंग को फिर से पास रख कर उस पर चरखी रख दी और धागों का दूसरा गुच्छा सुलझाने में तल्लीन हो गया. शायद उसे विश्वास हो गया था कि वह पतंग और डोर को फिर से उड़ाने योग्य बना लेगा. रमन की बस आ गयी थी. वह उसमें बैठा और दफ्तर के लिए रवाना हो गया.

शाम को दफ्तर से छूट कर रमन उसी रास्ते से वापस लौटा. अपने बस स्टॉप पर उतरते ही उसे सुबह वाले बच्चे का ध्यान आया. उसकी निगाह उस स्थान पर पड़ गयी जहाँ सुबह वह बच्चा बैठा था. यह जगह उसके बिलकुल नजदीक थी. अब बच्चा वहाँ नहीं था. तभी उसकी निगाह पास के स्कूल के सामने के मैदान पर पड़ी.
स्कूल की छुट्टी हो चुकी थी. वहाँ कुछ बच्चे खेल रहे थे, कुछ पतंग उड़ा रहे थे. मैदान के कोने पर खड़ा सुबह वाला बच्चा उसी मरम्मत की हुई हरी पीली पतंग को उड़ा रहा था. उससे छोटे एक बच्चे ने उसकी चरखी थाम रखी थी. रमन मुस्कराकर अपने घर की ओर चल दिया.

मकर संक्रान्ति का दिन था. पूरे शहर में पतंगें उड़ायी जा रही थी. रमन जिस बिल्डिंग में रहता था उसमें कुल सोलह अपार्टमेंट थे, सबसे ऊपर छत थी, संक्रान्ति के दिन अपार्टमेंट वाले उसी छत से पतंग उड़ाते. दोपहर बाद रमन बाजार से तिल के लड्डू लेकर लौटा ही था कि बिल्डिंग के प्रवेश द्वारा पर वही पतंग वाला बच्चा एक और छोटे बच्चे के साथ खड़ा दिखायी दिया. छोटे बच्चे के हाथ में चरखी थी तो बड़े ने तीन चार सुधारी हुई पतंगें पकड़ रखी थीं. वे दोनों चौकीदार से कह रहे थे, “अंकल जी आपकी छत से पतंग उड़ा लें.”

चौकीदार उसे अंदर घुसने नहीं दे रहा था. रमन को लगा कि आज बच्चे का हुनर जरूर देखना चाहिए. उसने चौकीदार से कहा बच्चों को जाने दो. बच्चे ने चौकीदार की प्रतिक्रिया का इन्तजार के बिना तुरन्त अंदर सीढ़ियों की ओर भागे. कुछ देर बाद वे छत पर थे.

घंटे भर बाद जब रमन छत पर पहुँचा तो उसने देखा कि बच्चा छत पर पतंग उड़ा रहा है. उसकी चरखी बिल्डिंग के ही एक बच्चे ने पकड़ रखी है. तीन चार बच्चे उससे कह रहे हैं कि पास की नीली वाली पतंग पर पेंच डाल दे. तभी बच्चे की पतंग ने उस नीली पतंग पर पेंच डाला और दो ही सेकंड में नीली पतंग कट कर हवा में डोलती हुई नीचे गिरने लगी. छत पर सारे बच्चे हुर्रे करते हुए नाच रहे थे. वह पतंगबाज बच्चा उन सब का हीरो बना हुआ था. रमन को छत पर देख उसका बेटा पास आया और बोला, “ये बच्चा छीतर पतंग उड़ाने में माहिर है, उसने अपने पुराने लूटे हुए मांजे और लूटी हुई पतंगों से तीन पतंगें काट डाली हैं। पक्का पतंगबाज है. रमन उसकी बात सुन कर मुस्कराते हुए पतंगबाज का हौसला बढ़ाने वालों में शामिल हो गया.

सोमवार, 8 दिसंबर 2025

सर्वप्रिय भगवान

लघुकथा
गाँव के चौक में वह आदमी रोज़ खड़ा होता. उसकी आवाज़ में धर्म का जादू था और थी साम्प्रदायिकता की आग. वह लोगों में नफरत बाँटता. लोग उसे सुनते, झूमते, और धीरे-धीरे उसे अपना पथ प्रदर्शक मानने लगे. उसके पीछे चलने लगे. उस आदमी का नाम था ‘सर्वप्रिय’.

लोगों ने सर्वप्रिय को अपने कंधों पर उठा लिया. कंधों पर बैठ वह नगर पहुँचा. वहाँ भी धीरे धीरे लोग उसके पीछे हो लिए और उसे अपने कंधों पर उठाया.
 
वह प्रान्त की राजधानी पहुँचा. फिर इसी तरह वह एक दिन कंधों पर बिठा कर पहाड़ पर बसी देश की राजधानी पहुँचा दिया गया. वह पहाड़ की चोटी पर बैठ देश पर राज करने लगा.
 
उसे कंधों पर ढोने वाले उसे भगवान कहने लगे. इस तरह सर्वप्रिय भगवान हो गया.

लेकिन, धीरे-धीरे समाज टूटने लगा. नफरत ने समाज को अनेक हिस्सों में बाँट दिया.
• पड़ोसी दुश्मन बन गए.
• मज़दूरों की रोज़ी छिन गई.
• बच्चों की दोस्ती दीवारों में कैद हो गई.
• स्त्रियाँ भय में जीने लगीं.

इन आपदाओं से पीड़ित वही आम लोग थे, जिनमें से कुछ ने उसे कंधों पर उठाया था. उसे गाँव से देश की राजधानी की सबसे ऊँची चोटी पर बिठाया था. जिन्हें शांति चाहिए थी, रोटी चाहिए थी, और सम्मान चाहिए था. उनकी पीड़ा का असली जिम्मेदार वही था, जो धर्म और साम्प्रदायिकता को औज़ार बनाकर बाँट रहा था.

कुछ लोग शुरू से ही सच बोलते रहे. वे कहते—"यह भगवान नहीं, समाज का शत्रु है."

भीड़ ने उसे गद्दार कहा.

समय बीतता गया. पीड़ा गहरी होती गई. और एक दिन, पीड़ितों की आँखों से पर्दा हटने लगा. उन्होंने देखा कि उनका भगवान दरअसल उनके दुखों का व्यापारी है.

भीड़ ने पछतावे और गुस्से में कहा, "जिन्हें हमने गद्दार कहा, वही हमें रास्ता दिखाने वाले थे!"
चौक में भीड़ फिर इकट्ठी हुई. इस बार तालियाँ नहीं बजीं. हाथ उठे, और भगवान का मुखौटा टूट गया.
सर्वप्रिय का अंत हुआ.

... और समाज ने पहली बार राहत की साँस ली, जैसे किसी लंबे नशे से जागकर होश में आया हो.

रविवार, 7 दिसंबर 2025

आपदा में अवसर

लघुकथा

खूब बरसात हुई थी. नदी का पानी गाँव में घुस गया.

निचली पट्टी के घर डूब गए, कपड़े-बरतन बह गए, बच्चे भूखे थे.

नेता जी अफसर, बाबू और दो चपरासियों के साथ नाव पर आए. बोले, “घबराइए मत! सरकार आपके साथ है. राहत सामग्री पहुँचेगी, नए घर बनेंगे.”

गाँव वाले थोड़े आश्वस्त हुए.

फिर नेता जी मुस्कराए,

“देखिए भाइयों-बहनों, हर आपदा में अवसर छिपा होता है. पुल टूटा है, नया बनेगा. सड़क बह गई है, अब और चौड़ी बनेगी. आपको काम मिलेगा, जेबों में पैसा आएगा. जिनके कच्चे घर टूटे हैं, वे पक्के बनेंगे. हम इसकी योजना बनाएंगे.”

गाँव वाले दुःख में भी प्रसन्न हो गए. कुछ ने कहा, “साहब, अभी हम भूखे हैं.”

नेता जी ने आश्वासन दिया,

“भोजन की व्यवस्था हमने कर दी है, अभी पहुँचेगा.”

तभी जमींदार और महाजन पहुँचे, उनके घर ऊँचाई पर बने थे,जहाँ बाढ़ का पहुँचना संभव न था.

नेता जी ने पूछा, “आपके घर तो सुरक्षित हैं?”

जमींदार बोला,“हुजूर, कहाँ? फसलें नष्ट हो गईं, जानवर बह गए. आप खुद देख लीजिए.”

नेता जी जमींदार की गढ़ी पहुँचे. वहाँ कत्त बाफले बन रहे थे.

नेता जी ने कहा, “जब तक बाढ़ का पानी नहीं उतरता, गाँव वालों की मदद करनी होगी. पहले पूरी-सब्जी बनवाइए और स्कूल में शरण लिए लोगों को भेजिए. आपके नुकसान की भरपाई बीमा कर देगा.”
जमींदार हाथ जोड़ बोला, जो हुक्म सरकार.
महाजनों से सामान आया, ब्राह्मणों ने सब्जी-पूरी बनाई.

गाँव वालों को भोजन मिला, पर वे समझ गए कि यह मदद उनकी ही मेहनत और ब्याज की कमाई से आई है.
इस बीच नेता जी और अफसरों ने जमींदार के यहाँ कत्त बाफले की दावत उड़ाई.

दो माह बाद जमींदार उपहारों के साथ नेता जी के घर पहुँचा. बोला, “हुजूर, टेंडर पास हो गया है. पुल और सड़क का काम हमें मिला है.”

नेता जी मुस्कराए, “देखा! आपदा में अवसर.”

अगली बरसात आने को थी.

पुल और सड़क की मरम्मत बिखरने लगी थी. नए पुल और चौड़ी सड़क की योजना अब भी कागज़ पर थी. गाँव वालों के घर टूटे ही थे. राहत का वादा केवल कागज़ पर था.

गाँव वालों ने समझ लिया—आपदा उनकी थी, अवसर दूसरों का.

शनिवार, 6 दिसंबर 2025

"मकौले का भूत"

लघुकथा
दो दोस्त अर्जुन और सलीम यूनिवर्सिटी गार्डन में बरगद के नीचे बैठे चर्चा में लीन थे. दोनों इतिहास के विद्यार्थी, दोनों ही अपने-अपने तर्कों के हथियार से लैस.

बात लॉर्ड मकौले की शिक्षा योजना पर हो रही थी.

अर्जुन कह रहा था, "सलीम, अगर मैकाले की शिक्षा न होती, तो हम आज भी संस्कृत के श्लोकों और अरबी की आयतों में उलझे रहते. रेल, उद्योग, संविधान—सब अंग्रेज़ी शिक्षा से ही आए."

सलीम उसके कथन पर हँस पड़ा, "वाह! तो तुम कहना चाहते हो कि हमारी सारी भाषाएँ सिर्फ़ पूजा-पाठ और ग़ज़ल सुनाने के काम की थीं? संस्कृत में गणित नहीं था? फारसी में साहित्य नहीं था? अरबी में चिकित्सा नहीं थी? यह तो वही मकौले का तर्क है, ‘तीस फ़ीट के राजा और मक्खन का समुद्र’. ... न जाने कब भारत पर से मकौले का भूत विदा लेगा."

अर्जुन मुस्कराया और बोला, "अगर अंग्रेज़ी न होती, तो संसद में आज भी चार भाषाओं में बहस होती. एक मंत्री संस्कृत में बोलता, दूसरा अरबी में, तीसरा फारसी में, चौथा हिन्दुस्तानी में. जनता ताली बजाती—‘वाह, क्या विविधता है!’ लेकिन निर्णय लेने में सालों लग जाते."



"और आज क्या है?” सलीम ने पलटकर व्यंग्य किया. “मंत्री अंग्रेज़ी में बोलते हैं, जनता समझती नहीं, फिर भी ताली बजाती है. ‘वाह, क्या आधुनिकता है!’ फर्क सिर्फ़ इतना है कि पहले हम अपनी भाषा में बेखबर रहते, अब पराई भाषा में. यही तो गुलामी है."

बोलते बोलते सलीम गंभीर हो चला था, "हमारी भाषाओं में संस्कृति का अध्ययन था. वेदांत, सूफ़ी साहित्य, ग़ज़लें, दोहे; ये सब हमारी आत्मा थे. अंग्रेज़ी ने हमें उनसे काट दिया. आज बच्चे शेक्सपियर तो पढ़ते हैं, पर कबीर को नहीं. यही तो समस्या है."

सलीम को गंभीर होते देख अर्जुन शान्त स्वर में बोला, "संस्कृति बेहद ज़रूरी चीज है, किन्तु आधुनिकता भी उतनी ही जरूरी चीज है. अंग्रेज़ी ने हमें दुनिया से जोड़ा. इसी भाषा में हमने स्वतंत्रता और जनतंत्र के अर्थ सीखे और अपनी भाषाओं में अपनी संस्कृति के साथ चलते हुए आजादी के संघर्ष को आगे बढ़ाया. हमने इसी संगम को साथ लेकर आजादी हासिल की. हमने अंग्रेजी में हमने संविधान क्यों लिखा? क्योंकि अंग्रेजी में इंटरप्रिटेशन के नियम स्थिर थे, हम किसी भी अन्य भाषा में इसे लिखते तो उसकी अनेक व्याख्याएं होतीं. संविधान और कानून को प्रभावी बना पाना दुष्कर हो जाता. आज अंग्रेजी के कारण ही ह, वैश्विक मंच पर अपनी बात को मजबूती के साथ रख पाते हैं. हमारी भाषा और बोली पूरी दुनिया में कहीं भी अजनबी नहीं रहती है. और फिर संस्कृति कोई तालाब का ठहरा हुआ पानी नहीं. वह बहती हुई गंगा है जिसका रूप गंगोत्री में अलग है तो हरिद्वार में अलग, काशी में अलग तो प्रयाग में और अलग, गया में उसका रूप फिर बदलता है तो गंगासागर में बिलकुल अलग हो जाता है. संस्कृति में से बहुत कुछ हम सहेजते हुए चलते हैं, लेकिन पुराने पिछड़े मूल्यों को छोड़ते जाते हैं और उनमें नए आधुनिक और प्रगतीशील मूल्यों को जोड़ते जाते हैं. हम इतिहास के विद्यार्थी हैं, हम क्या नहीं जानते कि भारत की संस्कृति एक सी नहीं रही. वह हर युग में बदली है और बदलती रहेगी. ”

अर्जुन कुछ रुकता है तभी सलीम अपनी हाथ घड़ी में समय देख कर कहता है, “अब मैं चलूंगा, अम्मी को डाक्टर के यहाँ ले जाना है.” दोनों चल देते हैं.

उधर टीवी चैनलों पर बहस चल रही है, “हमें मैकाले की शिक्षा और अंग्रेज़ी को छोड़ना चाहिए." यह बहस अंग्रेज़ी में प्रसारित हो रही है.

आईटी दफ़्तरों में कर्मचारी कहते हैं, "हमें अपनी भाषा पर गर्व है." उसके तुरंत बाद ईमेल अंग्रेज़ी में लिखते हैं और कोडिंग तो बिना अंग्रेजी के संभव ही नहीं.

संसद में नेता कहते हैं, "हमें भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देना चाहिए" इसके बाद प्रेस कांन्फ्रेंस अंग्रेजी में कह रहै हैं.

विश्वविद्यालय में छात्र नारा लगाते हैं, "हिन्दी हमारी शान है." लेकिन अपना रिज़्यूमे अंग्रेज़ी में बनाते हैं.

दो दिन बाद दोनों मित्र फिर उसी उद्यान में फिर बैठे हैं. सलीम कह रहा है, "प्रधान मंत्री तक कहते हैं कि हमें उस गुलामी को समाप्त करना है, जिसकी नींव अंग्रेजों ने रखी है. अंग्रेज़ी ने हमें मानसिक रूप से बाँध दिया है."
जवाब में अर्जुन ने व्यंग्य किया, "हाँ, और वही प्रधान मंत्री विदेश जाते हैं तो अंग्रेज़ी में भाषण देते हैं. यही विडंबना है, गुलामी को कोसते हैं, पर उसी भाषा से दुनिया को प्रभावित करते हैं."

अर्जुन की कुछ देर चुप बैठा रहा. सलीम कुछ नहीं बोला रहा था. अर्जुन ने चुप्पी तोड़ी, “अम्मी कैसी हैं? डाक्टर ने क्या कहा.”

नहीं अर्जुन भाई, अम्मी ठीक हैं, बस डाक्टर ने महीने भर बाद एक बार दिखाने को कहा था इसलिए जाना पड़ा. अब तो दवाओं में बस एक गोली रह गयी है, बाकी सब बन्द कर दी हैं.”

“चलो अम्मां की ओर से कुछ तो निश्चिन्तता हुई. तुम भी अपने अध्ययन पर पूरा ध्यान दो सकोगे” अर्जुन ने कहा. फिर अपना वक्तव्य जारी रखा.

"सलीम, ये मकौले वाला मामला बहुत आसान है, प्रधानमंत्री उसे जान बूझ कर हवा दे रहे हैं. लोग धर्मों के आधार पर लोगों को बाँट कर अपनी राजनीति चलाने की उनकी भाषा को समझने लगे हैं. इसी कारण से वे लोगों को बाँटे रखने के लिए नए नए मुद्दए लेकर आते रहते हैं. जबकि समस्या भाषा नहीं, मानसिकता है. अगर हम अंग्रेज़ी को साधन मानें और अपनी भाषा को आत्मा, तो दोनों का मेल ही हमें आगे ले जाएगा."

सलीम ने सिर हिला कर बोला, "शायद तुम सही हो. हमें अंग्रेज़ी से आधुनिकता लेनी है, पर अपनी भाषाओं से संस्कृति और आत्मगौरव." यह कह कर सलीम हँस पड़ा, अर्जुन ने भी उसके जवाब में जोर का ठहाका लगाया.
फिर अर्जुन बोला, "तो तय रहा, “अंग्रेज़ी हमारी रेल है, और अपनी भाषा हमारी आत्मा. रेल बिना आत्मा बेकार, आत्मा बिना रेल ठहरी हुई."

सलीम ने जोड़ा, "और अगर हम फिर भी बहस करते रहे, तो जनता ताली बजाएगी- ‘वाह, क्या विविधता है!’

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2025

बदले का पाठ

कॉलेज की लाइब्रेरी में राधा ने पहली बार "फेमिनिज़्म" शब्द को किताब के पन्नों में देखा।

पन्नों पर लिखे विचार उसे आकर्षित कर रहे थे, पर भीतर कहीं एक और आवाज़ थी—

"बराबरी से पहले बदला क्यों दिखता है?"

किताब कहती थी—"फेमिनिज़्म बराबरी की लड़ाई है।"

पर राधा को बराबरी से पहले अन्याय का हिसाब दिखता था।

गली में ताने, बस में धक्के, घर में चुप रहने की सीख—ये सब उसके भीतर बदले की आग भरते थे। उसके दिमाग में सोच का तूफान उठ खड़ा हुआ था। बेचैनी में ही उसने आस पास देखा। वहाँ दूसरी टेबल पर मीना दी बैठी थी। वह एम.ए. कर रही थीं। जब कि वह खुद बी.ए. के आखिरी साल में थीं। वह तुरन्त मीना दी के पास जा कर बैठ गयी।

“अरे¡ राधा, तुम? क्या तुम्हारा काम हो गया?”

“नहीं दीदी, मेरे मन में विचारों का बहुत द्वंद्व चल रहा है, नहीं जानती यह कैसे शान्त होगा? शायद आप मेरी कुछ मदद करें?”

“हाँ, बोल। ऐसा क्या है?”

राधा ने पूरी बात बताई। मीना हँस पड़ी। फिर बोली, “राधा¡ फेमिनिज्म हमें बराबरी की लड़ाई सिखाती है, लेकिन हमने इस पुंसवादी समाज में जो यातनाएँ झेली हैं उनका अनुभव हमें बदला लेने को उकसाता ही है। हमें रोज मोहल्ले की आँखें सिखाती हैं। जब पड़ोसी लड़का खुलेआम गाली देता है और सब चुप रहते हैं, तब बदला हमारे भीतर अंकुरित होता है। फेमिनिज़्म तो बस हमें शब्द देता है, आवाज़ देता है। लेकिन, लेकिन हमें उस उकसावे में नहीं आना है, वरना हम अपराधी बन जाएंगे। किसी दिन जेल में होंगे। हमें लड़ना होगा। इस यौनिक बराबरी के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।"



राधा ने कहा, “ हाँ, दीदी मैं भी यही सोच रही थी। अब चलती हूँ, आपसे फिर मिलती हूँ।”

तभी राधा की निगाहें खिड़की के बाहर उठीं तो उसने देखा कि लाइब्रेरी की खिड़की से बाहर लड़कियों का एक समूह हँसते-बोलते जा रहा था।

उनकी हँसी में भी एक चुनौती थी, जैसे कह रही हों, "हम अब चुप नहीं रहेंगे।"

राधा के मन में विचार आया, “"यह लड़ाई किताबों से नहीं जीती जाएगी। यह लड़ाई उस समाज से है जिसने बदला बोया है और जब तक समाज अपनी ज़मीन साफ़ नहीं करेगा, बदले की फसल बार-बार उगती रहेगी।"

उसने मीना की ओर देखा और कहा, “दीदी, जानती हूँ, बराबरी की राह आसान नहीं होगी। लेकिन हमें समाज से यह ‘बदला’ नाम का शब्द ही विदा करना होगा। तभी बराबरी का पाठ पढ़ा जाएगा।"

मंगलवार, 2 दिसंबर 2025

जय जनतंत्र, जय संविधान¡


"लघुकथा"


दिनेशराय द्विवेदी

जिले के सबसे बड़े गाँव चमनगढ़ की आबादी दस हज़ार होने को थी, ग्राम पंचायत भी बड़ी थी। दो बरस पहले यहाँ ग्राम पंचायत ने सरकारी मदद से सामुदायिक भवन बनाया था, जिसका उद्देश्य था कि, जाति, धर्म, वर्ग या समुदाय से परे उसका उपयोग कर सके। पहली बार एक दलित हरखू ने अपनी बेटी की शादी उसी भवन में करने का आवेदन दिया, और सचिव ने सरपंच पंडित शंकरलाल की अनुमति से निर्धारित शुल्क जमा कर के दलित परिवार को सामुदायिक भवन में शादी समारोह करने, बारात ठहराने की अनुमति दे दी।

यह खबर कानों कान गाँव के हर मोहल्ले, हर घर में पहुँच गयी। गाँव में विरोध के स्वर उठने लगे। सवर्णों और ओबीसी समुदायों का मत था कि यह नहीं हो सकता। सामुदायिक भवन दलितों को दिया जाने लगा तो सारी ऊँच-नीच खत्म होने लग जाएगी। कल से ये लोग निजी मंदिरों में भी घुसने लगेंगे, हमारे बीच खाने भी लगेंगे। पंचायत के अधिकांश पंच सरपंच के खिलाफ हो गए और सरपंच को पद से हटाने के लिए अविश्वास प्रस्ताव ले आए।

पंडित शंकरलाल ने गांधीजी के अनुयायी अपने पिता से जनतंत्र के आधारभूत मूल्य आत्मसात किए थे। वे प्राण तज सकते थे लेकिन उन मूल्यों पर समझौता नहीं कर सकते थे। वे चिंतित हो उठे। सवाल था कि, “क्या पंचायत बहुमत के दबाव में जनतंत्र के मूल सिद्धांतों को तोड़ देगी, या स्थायी मूल्यों की रक्षा करेगी?

पंडित शंकरलाल पूर्व अध्यापक थे, वे पीछे न हट सकते थे। उनका शिष्य और युवा पंच अर्जुन उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ा था। दोनों सलाह करके गाँव के घर-घर गए और एक-एक व्यक्ति को समझाया कि सामुदायिक भवन सब का है। उन्होंने बताया कि वर्षों के संघर्षों से सब ने एक साथ यह आजादी, जनतंत्र हासिल किए हैं। दलितों का उसमें योगदान कम नहीं था। देश ने एक संविधान को स्वीकार किया है, जो सब को बराबर का हक देता है, कहता है, “स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा हर नागरिक का अधिकार है।

बहुत मेहनत के साथ यह काम करने के बाद भी उन्हें लगा कि वे लोगों को समझाने में सफल नहीं हुए। इक्का दुक्का लोगों को छोड़ कर कोई उन्हें आश्वासन नहीं दे सका। दोनों निराश होने लगे।

आखिर पंचायत की बैठक का निर्णायक दिन आ गया। पंचायत भवन के बाहर भीड़ जमा थी। नारे गूँज रहे थे, “जनमत ही सर्वोपरि है!, हम ये होने नहीं देंगे” दलित डरे हुए थे, अपने घरों में दुबके हुए, कोई-कोई छुप छुपा कर पंचायत की और नजर दौड़ा कर वापस घर में दुबक जाता। पंच भी दबाव में थे।

कार्यवाही आरंभ हुई, सरपंच ने कहा, “अगर हम बहुमत के दबाव में किसी को रोकते हैं, तो यह भवन सामुदायिक नहीं, जातिगत हो जाएगा। हमारा जनतंत्र और संविधान दोनों की आत्मा का वध हो जाएगा।”

अर्जुन ने साथ दिया, “जनमत क्षणिक है, लेकिन लोकतंत्र के मूल सिद्धांत स्थायी हैं। आज दलितों को रोकोगे, कल महिलाओं को रोकोगे। क्या हम हर बार संविधान को तोड़ देंगे, दुबारा फिर से गुलामी को न्यौता देंगे?”

भीड़ का शोर थम नहीं रहा था। तभी सरपंच का पुत्र रवि नगर के कॉलेज के अपने सहपाठियों और दोस्तों के साथ आगे आया। उसके कंधे पर बैटरी से चलने वाला लाउडस्पीकर लटका था। पंचायत भवन के सामने खड़ा हो कर ऊँचे स्वर में बोलने लगा।

“सोचो, अगर कल आपके बेटे या बेटी को सामुदायिक भवन में विवाह करने से रोका जाए, तो क्या आप इसे स्वीकार करेंगे? यह भवन सरकार ने सबके लिए बनाया है। क्या हम इसे जाति का किला बना देंगे, या भाईचारे का प्रतीक बना रहने देंगे?” सोचिए इस का लोकार्पण किसने किया था? वह कलेक्टर भी एक दलित था। क्या उस दिन कोई विरोध में सामने आया था?

उसके दोस्तों ने भीड़ में जाकर समझाया, “यह भवन हमारे करों से बना है। इसमें हर नागरिक का हिस्सा है। अगर हम किसी को रोकते हैं, तो हम अपने ही अधिकारों को ही कमजोर कर देंगे।”

भीड़ का शोर धीमा पड़ने लगा। लोग सोच में पड़ गए। अब वे आपस में कानाफूसी कर रहे थे।

अंदर पंचायत भवन में बैठक चल रही थी। आखिर पंडित शंकरलाल पंचायत भवन की छत पर आए। उनके साथ पंचायत के सभी पंच थे। उनके हाथ में पंचायत के लाउडस्पीकर का माइक था। वे निर्णय सुनाने लगे,

“हम सारे पंचों ने एक मत से निर्णय लिया है। हम सारे पंचों को विश्वास है कि पूरा गाँव, गाँव के सब लोग एकमत से हुए हमारे इस निर्णय को सम्मान देंगे। सामुदायिक भवन हर नागरिक के लिए है। गाँव के सभी निवासियों को उसके उपयोग का पूरा हक है। हरखू भाई की बेटी की शादी सामुदायिक भवन से ही होगी। यही जनतंत्र और हमारे संविधान का सम्मान है।”

  भीड़ में से किसी ने ताली बजाई, फिर दूसरे ने, फिर तीसरे ने। तुरन्त ही तालियों की गड़गड़ाहट में हर किसी के हाथ शामिल हो गए। रवि और उसके दोस्त खुशी से उछल पड़े। रवि ने अपने लाउडस्पीकर पर घोषणा की हम सब अब हरखू चाचा के घर चलेंगे और उन्हें यह खुश खबर देंगे। हम संविधान जिन्दाबाद के नारे लगाते चलेंगे।

रवि ने लाउडस्पीकर पर नारा लगाया, “जय जनतंत्र, “जय संविधान¡”
भीड़ ने एक स्वर से उत्तर दिया, “जय जनतंत्र, “जय संविधान¡”

भीड़ हरखू के घर की ओर जा रही थी, गाँव में नारा गूंज रहा था, “जय जनतंत्र, “जय संविधान¡”

गाँव के चंन्द लोग अब भी समझ नहीं पा रहे थे कि यह क्या हुआ। वे चुपचाप अपने घरों को चल दिए।

सोमवार, 1 दिसंबर 2025

रुकने का साहस


खूबसूरत शहर था, नदी थी, तालाब थे, नदी और तालाब किनारे बाग थे। शहर में राजा का गढ़ था चार चार यूनिवर्सिटीज थीं। देश भर से पढ़ने आए विद्यार्थियों और उन्हें संभालने आते उनके अभिभावकों का निरन्तर प्रवाह था। यहाँ के लोगों ने शहर खूबसूरत बनाने में कोई कसर न छोड़ी थी। सड़कों पर ट्रैफिक का शोर हमेशा गूँजता रहता था। कुछ वर्ष पहले शहर की सड़कों और तिराहे-चौराहों को इस तरह का रूप दिया गया था कि अब यहाँ चौराहों पर लाल-हरी-पीली बत्तियाँ नहीं थीं, बस गाड़ियों का बहाव था और लोगों का इंतज़ार।

एक दिन, एक कार अचानक धीमी हुई। चालक ने देखा,- बच्चे, महिलाएँ, वृद्ध-सड़क पार करने के लिए ठिठके खड़े हैं। उसने ब्रेक दबाया और हाथ से इशारा किया, “आइए, निकल जाइए।”

पहले तो लोग हिचकिचाए। उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई उनके लिए रुका है। फिर धीरे-धीरे कदम बढ़े, और वे सुरक्षित पार हो गए। पीछे से हॉर्न की आवाज़ आई, जैसे अधीरता का प्रतीक। लेकिन उस कार का चालक मुस्कुराया, क्योंकि उसने समझा कि सड़क पर सबसे बड़ा साहस तेज़ी से भागना नहीं, बल्कि रुकना है।

उसका नाम था अभय। वह एक शिक्षक था। अगले दिन उसने अपने छात्रों को यह अनुभव सुनाया। बच्चों ने कहा—“सर, अगर आप रुक सकते हैं तो हम भी रुकेंगे।”

धीरे-धीरे यह आदत फैलने लगी। अभय ने इसे नाम दिया—“रुकने का साहस अभियान।” उसने पोस्टर बनवाए, जिन पर लिखा था: “अगर ट्रैफिक सिग्नल नहीं है, तो इंसानियत ही सिग्नल बने।”

कुछ लोग हँसे, कुछ ने हॉर्न बजाया, लेकिन कई ने सीखा। राहगीरों के चेहरों पर भरोसा लौटने लगा। बच्चे अब डरते नहीं थे, महिलाएँ अब ठिठकती नहीं थीं।

शहर की सड़कों पर यह छोटा-सा साहस एक आंदोलन बन गया। और अभय को विश्वास था—अगर एक शहर रुकना सीख ले, तो पूरा समाज आगे बढ़ सकता है।









शनिवार, 29 नवंबर 2025

सत्यप्रार्थी वध

'लघुकथा'

एक समय की बात है, जब देश की आत्मा दो नगरों में बंटी हुई थी, एक था न्यायपुर, जहाँ दीवारें काली थीं, और दूसरा आस्थागढ़, जहाँ मंदिरों की घंटियाँ हर पल गूंजती थीं।

 न्यायपुर की अदालतें अब युद्धभूमि बन चुकी थीं। वहाँ जज नहीं, सेनापति बैठते थे। उनके हाथों में न्याय की कलम नहीं, आदेश की मुहर थी। हर सुबह उन्हें एक सूची मिलती, "इन मुकदमों का आज एनकाउंटर करना है।"

मुकदमे अब जीवित नहीं थे, वे कागज़ी प्राणी थे, जिनके पास आँखें थीं, तर्क थे, और कभी-कभी आँसू भी।

 एक दिन, एक मुकदमा, नाम था सत्यप्रार्थी, काँपते हुए न्यायाधीश के सामने आया।

"महोदय, मेरा एक दस्तावेज़ अभी प्रतिवादी से नहीं आया है। कृपया मुझे थोड़ा समय दीजिए, अन्यथा मेरा वध हो जाएगा।"

 जज ने उसकी ओर देखा, जैसे कोई पत्थर किसी फूल को देखता है।

"यह टारगेट मुकदमा है। देरी नहीं चलेगी। हमें रोज़ ऊपर जवाब देना होता है।"

और फिर सत्यप्रार्थी का वध हो गया।

उसी दिन, आस्थागढ़ में उत्सव था। ध्वजारोहण की तैयारी थी। मंदिर के शिखर पर केसरिया पताका लहराने वाली थी।

राजा स्वयं आए थे, आरती की थाली लिए। गणेशजी की मूर्ति के सामने दीप जलाया गया।
घंटियाँ बजीं, पुष्पवर्षा हुई, और सोलह नगरों में रथयात्रा निकली।

न्यायपुर के एक वृद्ध दरबारी ने यह दृश्य देखा और बुदबुदाया,

"जब न्याय कालकोठरी में बंद हो, तब भी उत्सव तो हो ही सकता है।"

उसने अपनी आँखें बंद कर लीं।

एक ओर अंधेरा था, जहाँ सत्य का वध हो रहा था।

दूसरी ओर उजाला था, जहाँ आस्था का जयघोष हो रहा था।

और देश… ?

कुछ कहते थे, “उसका गौरव बढ़ रहा है”।

कुछ अंधेरे में आँसुओं के साथ कहते थे, “देश मर रहा है।

शुक्रवार, 28 नवंबर 2025

रामजी बेगा आज्यो

'हाडौ़ती लघुकथा'

दाज्जी
ने आता देख मोबाइल देखर्यो छोट्या ने मोबाइल पर गाणो लगाद्यो, " रामजी मेरे घर आना".

दाज्जी आया तो गोडे पड़ी खाट पे बैठ ग्या.

गाणो पूरो भी न होयो छो के, दाज्जी खेबा लाग्या, "रे छोट्या यो काँईं गाणो लगा मेल्यो छे. गाणा सुणणी होवे तो ढंग का सुणबू कर.

'काँई होग्यो दाज्जी? रामजी को ही तो गाणो लगा मेल्यो छे' छोट्या ने खी.

'काँई को छोखो गाणो छे? जे घर घर आबा लाग्या ने तो रामजी ही बावळ्या हो जाणा छे. बंद कर ईं गाणा ने. पीबा के कारणे एक गिलास पाणी ला, अर् थोड़ी देर चैन से लेटबा दे.

गुरुवार, 27 नवंबर 2025

एन्काउन्टर

'लघुकथा'

शहर की अदालतों में इन दिनों अजीब सा माहौल था. हर जज की मेज़ पर मुकदमों की फाइलें ऐसे गिर रही थीं जैसे किसी युद्धभूमि में लाशें.

जजों को रोज़ वीडियो कॉन्फ़्रेंस पर हाईकोर्ट को जवाब देना पड़ता था—कितने मुकदमे निपटाए, कितने "टारगेट केस" खत्म किए.

एक दिन, एक मुवक्किल ने जज से कहा—

"महोदय, यह दस्तावेज़ तो प्रतिवादी से मंगवाया ही नहीं गया. अगर इसे देखे बिना फैसला हुआ तो हमारे साथ अन्याय होगा."

जज ने चश्मा उतारते हुए ठंडी आवाज़ में कहा—

"मैं कुछ नहीं जानता. अगर आपकी दरख़्वास्त मंज़ूर करूँगा तो मुकदमे में देरी होगी. यह टारगेट मुकदमा है."

और अगले ही दिन वह मुकदमा "एनकाउंटर" कर दिया गया.

इसी बीच शहर में खबर गूँजी—राम मंदिर पूरा हो गया है. कल वहाँ ध्वजारोहण होगा.

सोलह जिलों में रूट डायवर्जन होगा, लोग उमड़ेंगे, झंडा फहरेगा.

मुवक्किल ने अदालत से बाहर निकलते हुए सोचा—

"न्याय तो कालकोठरी में कैद है, लेकिन ध्वजारोहण तो समय पर हो ही जाएगा."

उसने आकाश की ओर देखा. मंदिर की घंटियाँ बज रही थीं, और अदालत की दीवारें चुप थीं.

बुधवार, 10 मई 2023

अतिरिक्त योग्यताएँ





मैं उनसे किसी काम से मिलने पहुंचा। तब वे बैठे हुए किसी की जन्मकुंडली देख रहे थे। मैंने कहा, अरे आप तो कुंडली भी देखते हैं। तो कहने लगे, हां देखता हूं। मुझे उनकी एक अतिरिक्त योग्यता का पता लगा।

मैंने कहा, फिर तो मेरी भी देख दीजिए। एक कागज दीजिए, मैं बना देता हूँ। वे तो बोले उसकी जरूरत नहीं, आप हाथ ही दिखा दीजिए। मुझे उनकी दूसरी अतिरिक्त योग्यता का पता लगा।

मैंने उनकी तरफ दाहिना हाथ बढ़ा दिया। उन्होंने मेरा हाथ तीन चार जगह दबाकर देखा और फिर मुझे कहा, बायां हाथ भी दिखाइए। मैं ने अपना बायां हाथ भी आगे बढ़ा दिया। उन्होंने उसे भी गौर करके देखा फिर बोले, आप तो खुद मुझसे बड़े ज्योतिषी हैं। आपके सामने मेरी विद्या काम नहीं आएगी। मुझे उनकी तीसरी अतिरिक्त योग्यता का पता लगा।

... दिनेशराय द्विवेदी

रविवार, 12 मार्च 2023

शंख ज्ञान



ध्रु ने जब से होश संभाला विष्णु भक्ति में ही लीन रहा। राजा उत्तानपाद का औरस पुत्र होते हुए भी उसे अपने पिता से सौतेला व्यवहार मिला। फिर एक दिन विष्णु को ध्रुव पर पिता के सौतेले व्यवहार के कारण दया आ गयी या उसकी भक्ति से प्रसन्न हो गए। (जरूर भक्ति से ही प्रसन्न हुए होंगे नहीं तो अधिकतर लोगों के साथ दुनिया में सौतेला व्यवहार होता है पर विष्णु नहीं पसीजते। खैर!

तो विष्णु प्रकट हुए और अपना शंख ध्रुव के सिर के इर्द-गिर्द घुमाया। बस बेपढ़े लिखे, अशिक्षित ध्रुव को दुनिया का सारा ज्ञान प्राप्त हो गया।

इससे यह शिक्षा मिलती है कि पढ़ने लिखने में कुछ नहीं धरा। बस विष्णु की आराधना करो। एक दिन विष्णु प्रकट होकर सिर के इर्द-गिर्द अपना शंख घुमाएंगे और भक्त को दुनिया का सारा ज्ञान प्राप्त हो जाएगा।

डिसक्लेमर : 

इस कहानी की शिक्षा पर भरोसा मत करना। मैंने ध्रुव की कथा पढ़ी और चित्र देखे तो मुझे भी चार साल की उम्र में एक दो सप्ताह तक यही इलहाम रहा। सोचता रहा कि विष्णु की भक्ति करेंगे। लेकिन इस कहानी को पढ़ाने वाले मेरे पिताजी ने ही मुझसे कहा कि पढ़ने लिखने से ही ज्ञान आएगा, विष्णु की भक्ति से नहीं। सो मैं पढने लिखने लगा। इसलिए तुम भी खूब दिल लगा कर पढ़ना। भक्ति-वक्ति में कुछ नहीं धरा। यह पुराण कथा है, पूरी तरह काल्पनिक है। बुहत पुरानी है। इतनी पुरानी कि तब तक किसी के दिमाग में विष्णु के अवतारों की कल्पना तक नहीं उपजी थी। देवराज इन्द्र अपने कारनामों से बदनाम हो गया था। देवताओं को नया नायक चाहिए था। उन्होंने इन्द्र के छोटे भाई विष्णु को प्रमोट करना शुरु कर दिया। सारे अवतारों की कहानियाँ भी बाद में उपजी। ये कथा बस आनन्द लेने के लिए है। आनन्द लो और भूल जाओ।

शनिवार, 7 जनवरी 2023

राजमिस्त्री

दिसम्बर का तीसरा सप्ताह था। मुझे बाराँ से कोटा आना था। काम निपटाने के बाद घर पर माँ से मिलने में समय हो गया और मुझे रात सात बजे की बस मिली। सूर्यास्त हुए डेढ़ घंटा हो चुका था और पूस के माह की सर्दी ने काटना शुरु कर दिया था। कोटा पहुँचने में दो घण्टे की दूरी थी। बस चली और बस स्टेण्ड के बाहर निकलते ही रुकी। बदहवासी की दशा में एक बन्दा बस में चढ़ा और बस चल दी। वह एक साधारण सूरत का मेहनतकश इन्सान लगता था। जैसे कोई राजमिस्त्री या फिर किसी गैराज का सिद्धहस्त मैकेनिक हो। हम उसे इस किस्से के लिए राजमिस्त्री कह सकते हैं। सीढ़ी चढ़ कर जैसे ही वह बस के फ्लोर पर पहुँचा उसने बस में एक नजर दौड़ाई। बस में कुल जमा 11 सवारियाँ थी और वह बारहवाँ था। बस के पीछे की पाँच पंक्तियाँ पूरी तरह से खाली थी। वह पीछे गया और पीछे से चौथी लाइन की ड्राइवर साइड की तीन सीटों में बीच वाली पर जा बैठा। शहर छोड़ने के पहले बस दो एक जगह और रुकी, सवारियाँ बैठाईं और फिर चल दी। शहर के बाहर निकलने के बाद एक जगह और रुकी। यहाँ कुछ वीराना था, लेकिन यहाँ भी दो सवारियाँ मिल गयीं। राजमिस्त्री ने इस बार खड़े हो कर कण्डक्टर से पूछा कि क्या वह नीचे उतर कर पेशाब कर के आ सकता है? कण्डकर ने पलट कर कहा, -क्या वह दस बीस मिनट नहीं रुक सकता। अगले स्टाप पर यह काम करना।

राजमिस्त्री के आगे की सीट पर सवारियाँ आ गयी थीं। वह अपनी सीट से निकला और पीछे तीसरी पंक्ति में बीच की सीट पर बैठ गया। उसके आगे की पंक्ति फिर खाली थी। अगला अधिकारिक स्टाप पंद्रह किलोमीटर पर था। मुश्किल से बीस बाईस मिनट का रास्ता। लेकिन दस मिनट बाद राजमिस्त्री फिर खड़ा हुआ और कंडक्टर से फिर पूछा कि बस कब रुकेगी?

कंडक्टर अब सवारियों के टिकट बना रहा था। उसने फिर कहा दस मिनट बाद अगला स्टाप है। राजमिस्त्री फिर बैठ गया। पाँच मिनट बाद वह फिर खड़ा हुआ और इस बार उसने पूछा, अगला स्टाप कितनी दूर है। कंडक्टर ने जवाब दिया कि बस तीन चार मिनट में आ जाएगा। उसके बाद अगले स्टाप तक राजमिस्त्री चुपचाप अपनी सीट पर बैठा रहा।

बस ने अंता कस्बे में प्रवेश किया और बस स्टैंड पर रुकी। ड्राइवर ने इंजन बन्द किया और नीचे उतर गया। बस की सारी सवारियों का ध्यान उसी राजमिस्त्री पर था कि वह अब अपनी सीट से खड़ा होगा, तेजी से दरवाजे की तरफ बढ़ेगा और पेशाब करके वापस लौटेगा। बस से तीन सवारियाँ उतर गयीं और दो वहाँ से बैठ गयीं। लेकिन राजमिस्त्री अपनी जगह से नहीं हिला। कंडक्टर ने राजमिस्त्री से कहा, -उठ भाई¡ उतर कर तेरा काम कर आ। तब तक हम चाय पी लेंगे।

राजमिस्त्री ने कुछ देर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। कंडक्टर ने फिर से जोर से कहा, - अब क्या हो गया? रास्ते में तो बार बार पूछ रहा था।

राजमिस्त्री ने बड़ी शान्ति से जवाब दिया, -अब जरूरत नहीं रही। रुक नहीं रहा था तो यहीँ कर लिया।

कंडक्टर ने पीछे जा कर टार्च की रोशनी में देखा तो सीट के नीचे बहुत गीला हो रहा था। वह राजमिस्त्री पर बरस पड़ा, -पहले नहीं कह सकता था कि यहीं निकल जाएगा। बस गंदी कर दी। अब इसे क्या तेरा बाप धोएगा?

राजमिस्त्री ने बहुत शान्ति से जवाब दिया, -उस्ताद नाराज मत होओ। मैं ने दो बार तुम्हें कहा था। तुम न समझे तो मेरी क्या गलती है। दोस्तों के बीच ज्यादा बीयर पी ली थी। निकलनी तो थी ही। मैंने बहुत रोका पर फिर भी निकल गयी तो मैं क्या करता। कोटा पहुँचने पर फर्राश से धुलवा लेना उसकी मजूरी मैं दे दूंगा।

कंडक्टर ने राजमिस्त्री को माफ नहीं किया और बस के अन्ता से चलने तक उसे गालियाँ देता रहा। बाकी सवारियाँ मन ही मन मुस्कुरा रही थीं।

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

दूध का जला


‘एक लघुकथा’

दिनेशराय द्विवेदी


नौकरी से निकाले जाने का मुकदमा था। सरवर खाँ को जीतना ही था, उसका कोई कसूर न होते हुए भी बिना कारण नौकरी से निकाला गया था। पर फैसले का दिन धुकधुकी का होता है। सुबह सुबह जज ने सरवर खाँ के वकील को चैम्बर में बुलाया और बोला, “आप मुकदमा लड़ रहे हैं, बता सकते हैं आज क्या फैसला होने वाला है।” वकील ने जवाब दिया,“मेरे मुवक्किल को जीतना ही चाहिए।” 

जज ने बताया कि, “आप सही हैं वकील साहब। आपके मुवक्किल ने मुझे मेरे एक रिश्तेदार से सिफारिश करवाई है, इसलिए मैं अब इस मामले का फैसला नहीं करूंगा।” आगे की पेशी पड़ गयी। वकील ने मुवक्किल को कहा, “तेरी किस्मत में पत्थर लिखा है, अच्छा खासा जीतने वाला था, सिफारिश की क्या जरूरत थी, वह भी मुझे बिना बताए, अब भुगत।

जज का ट्रांसफर हो गया, दूसरा जज आ गया। उसने बहस सुनी और फैसला सुना दिया। सरवर खाँ मुकदमा हार गया। उसने अपने वकील को बताया कि, “पहले उसने सिफारिश उसके दिवंगत मित्र की पत्नी से कराई थी जो जज की निकट की रिश्तेदार थी। इस बार उसने ऐसी कोई कोशिश नहीं की। पर एक बन्दा आया था उसके पास, जो कह रहा था कि नया जज उसका मिलने वाला है, चाहो जैसा फैसला कर देगा। पर कुछ धन खर्च होगा। पर साहब दूध का जला छाछ को फूँक फूँक कर पीता है। मैंने उसे साफ इन्कार कर दिया। 

सरवर खाँ ने  हाईकोर्ट में फैसले की अपील कर रखी है। 


शनिवार, 16 मई 2020

निक नेम


मेरा मुवक्किल जसबीर सिंह अपने ऑटो में स्टेशन से सवारी ले कर अदालत तक आया था। अपने मुकदमे की तारीख पता करने के लिए मेरे पास आ गया। उसका फैक्ट्री से नौकरी से निकाले जाने का मुकदमा मैं लड़ रहा था। जब वो आया तब मैं टाइपिस्ट के पास बैठ कर डिक्टेशन दे रहा था। मुझे व्यस्त देख कर वह वहाँ बैठ गया।

इसी बीच एक वृद्ध व्यक्ति तेजी से अदालत परिसर में घुसा।  उसके हाथ में बड़ा सा थैला था। उसने पट से वह थैला जसबीर सिंह के पास रखा और बोला, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। जसबीर सिंह या मेरी कोई भी प्रतिक्रिया का इन्तजार न करते हुए वह व्यक्ति तेजी से परिसर में अंदर की और चला गया।

मैं टाइप करवा कर निपटा। उसके बाद जसबीर सिंह से बात की। जसबीर उसके बाद भी बैठा रहा। आधा घंटा गुजर गया। आखिर मैं ने ही उससे पूछा, “जसबीर, आज आटो नहीं चला रहे हो क्या?”
“वकील साहब¡ एक बुजुर्ग आदमी यह थैला रख गया है, और मुझे कह कर गया है कि मैं आता हूँ। अब उसने विश्वास किया है तो उसके आने तक रुकना तो पड़ेगा।“

जसबीर की बात सुन कर मुझे जोर की हंसी आ गयी। मैं ने उसे कहा, “तुम जाओ, इस थैले का ध्यान मैं रख लूंगा। असल में वह बुजुर्ग मेरे रिश्तेदार हैं, वह तुम्हें नहीं मुझे कह कर गए थे कि, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। मेरा निक  नेम भी  सरदार है। इसलिए तुम गलत समझ गए कि तुमसे कह कर गए हैं।“

मेरे इतना कहते ही जसबीर ने राहत की साँस ली। उठते हुए बोला, “तो अब मैं चलता हूँ। में तो समझा था, यह पता नहीं कौन आदमी मुझे यहाँ थैले की रखवाली में बिठा गया।“


कल एक पोस्ट पर सब से निक नेम बताने को कहा था। मैं ने अपना निक नेम बताया तो उनकी प्रतिक्रिया थी, वाकई “सरदार” ही निक नेम है क्या?

निक नेम

मेरा मुवक्किल जसबीर सिंह अपने ऑटो में स्टेशन से सवारी ले कर अदालत तक आया था। अपने मुकदमे की तारीख पता करने के लिए मेरे पास आ गया। उसका फैक्ट्री से नौकरी से निकाले जाने का मुकदमा मैं लड़ रहा था। जब वो आया तब मैं टाइपिस्ट के पास बैठ कर डिक्टेशन दे रहा था। मुझे व्यस्त देख कर वह वहाँ बैठ गया।

इसी बीच एक वृद्ध व्यक्ति तेजी से अदालत परिसर में घुसा।  उसके हाथ में बड़ा सा थैला था। उसने पट से वह थैला जसबीर सिंह के पास रखा और बोला, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। जसबीर सिंह या मेरी कोई भी प्रतिक्रिया का इन्तजार न करते हुए वह व्यक्ति तेजी से परिसर में अंदर की और चला गया।

मैं टाइप करवा कर निपटा। उसके बाद जसबीर सिंह से बात की। जसबीर उसके बाद भी बैठा रहा। आधा घंटा गुजर गया। आखिर मैं ने ही उससे पूछा, “जसबीर, आज आटो नहीं चला रहे हो क्या?”
“वकील साहब¡ एक बुजुर्ग आदमी यह थैला रख गया है, और मुझे कह कर गया है कि मैं आता हूँ। अब उसने विश्वास किया है तो उसके आने तक रुकना तो पड़ेगा।“

जसबीर की बात सुन कर मुझे जोर की हंसी आ गयी। मैं ने उसे कहा, “तुम जाओ, इस थैले का ध्यान मैं रख लूंगा। असल में वह बुजुर्ग मेरे रिश्तेदार हैं, वह तुम्हें नहीं मुझे कह कर गए थे कि, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। मेरा निक  नेम भी  सरदार है। इसलिए तुम गलत समझ गए कि तुमसे कह कर गए हैं।“

मेरे इतना कहते ही जसबीर ने राहत की साँस ली। उठते हुए बोला, “तो अब मैं चलता हूँ। में तो समझा था, यह पता नहीं कौन आदमी मुझे यहाँ थैले की रखवाली में बिठा गया।“

कल एक पोस्ट पर सब से निक नेम बताने को कहा था। मैं ने अपना निक नेम बताया तो उनकी प्रतिक्रिया थी, वाकई “सरदार” ही निक नेम है क्या?