@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: पत्नी
पत्नी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
पत्नी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 2 जुलाई 2017

... और तुम घंटा बजाओ

ल पहली बार अंतर्राष्ट्रीय  हिन्दी ब्लॉग दिवस मनाया गया। इस दिन अनेक पुराने ब्लागरों ने पोस्टें लिखीं। एक जमाना था जब हम लगभग रोज कम से कम एक पोस्ट लिखा करते थे। कभी कभी दो या अधिक भी हो जाती थीं। तीसरा खंबा पर यह सिलसिला जारी है। अनवरत पर लगभग सन्नाटा है। अब ब्लॉग दिवस के बहाने यह सन्नाटा टूटा है तो यह भी कोशिश है कि रोज ब्लाग पर कुछ न कुछ लिखा जाए। चलो कुछ लिखते हैं ....

मेरे पास तीसरा खंबा पर औसतन 300-400 समस्याएँ प्रतिमाह प्राप्त होती हैं। कभी कभी लोग केवल अपनी गाथा लिखते हैं लेकिन वे कोई समाधान नहीं चाहते। या तो वे जानते हैं कि इस का कोई ऐसा समाधान नहीं है जो कानून उन्हें दे सकता हो। उन की समस्याएँ समाज, कानून और न्यायव्यवस्था में बड़ा बदलाव चाहती हैं। वह बदलाव तो तब होगा जब होगा। अभी तो उस बदलाव के लिए पर्याप्त आवाज तक नहीं उठती है। खैर!

पिछले सप्ताह मेरेे पास एक सज्जन ने सिवान, बिहार से अपनी गाथा लिख भेजी है। उन का मकसद था कि उन की गाथा और लोग भी जानें। तो मैं उन की गाथा तनिक भाषा. व्याकरण और विराम चिन्हों के सुधार के बाद एक शीर्षक अपनी ओर से देते हुए यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ...


और तुम घंटा बजाओ

मेरी शादी 10.12.2009 को हिन्दू रीति से 5 रुपया दहेज़ में सम्पन्न हुई। मैं दहेज़ के खिलाफ रहता हूँ, शादी के 2 दिन बाद बहुभोज के दिन पत्नी का जीजा और उसकी बुवा का लड़का और एक उसकी बहन आई। मेरे सामने ही उसका बहनोई उसके स्तनों पे हाथ रख के बात करने लगा और मुझे देखते ही उसने हाथ हटा लिया। मैंने पत्नी से पूछा तो बोली मज़ाक कर रहे थे तो मैंने डांट दिया है। मैंने भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया।

मुंह दिखाई मैंने उसको 20000 रुपया दिया कि जरुरत के अनुसार खर्च करना। फिर बीच में उसका अपना भाई आया और मिल कर चला गया। करीब 2 महीने बाद मुझे कुछ पैसों की जरुरत पड़ी तो माँगा, उस ने 10000 रुपया दिया। पूछा और क्या किया? तो बोली हिसाब नहीं पूछा जाता है पत्नी से। इस बात पर मैंने काफी डांट डपट की तो बोली भाई को दी हूँ, उस से क्या हो गया। मैंने कहा वही मुझे बोल कर भी तो दे सकती थी।

बहुभोज के दूसरे दिन रात को उसके जीजा का फोन आया रात को 8:30 पे। मोबाइल में कॉल रिकॉर्डिंग रखता हूँ मैं, उसका जीजा उसको बोला जल्दी सेक्स मत करने देना और अगर जबरदस्ती करे तो चिल्लाने लगना। उसको शक नहीं होगा, वरना पकड़ी जाओगी। मुझे रिकॉर्डिंग सुनकर बड़ा दुःख हुवा, अपना दर्द किसको कहता, शर्म के मारे बात को दबा लिया। शादी के 4 महीनों बाद उसको घुमाने उसके घर ले गया। मैं उसके यहाँ रखा फोटो एल्बम देखने लगा। उस में मेरी पत्नी का उसके जीजा के साथ लवर-पोज़ में फोटो था। उसके बुवा के लड़के के साथ फोटो था। मुझे अब बर्दास्त नहीं हुआ तो पत्नी को पूछा। तो उसकी माँ ने सुन लिया और मुझे बोली उस से क्या हो गया? कोई घटने वाला सामान थोड़े है जो आप चिल्ला रहे हैँ। उस से क्या हो गया जीजा से मिल ली तो आप ज्यादा मत चिल्लाइये वरना जेल में डलवा देंगे। मैं काफी परेशान हो गया, फिर भी पत्नी को घर ले के आ गया 2 दिन में ही। उसके 5 महीने बाद मेरे ससुर आये बोले बिदाई कीजिये। मैंने मना किया, लेकिन मेरे घरवालों ने मुझे समझा कर उसको भेज दिया। फिर मैं 15 दिन बाद गया ससुराल बिदाई कराने तो मेरा ससुर बोला 6 महीना यहीं रहेगी। आप यहीं पे खर्चा दे दीजिये। इस बात पर मेरी ससुर से कहा सुनी हुई काफी दिक्कतों के बाद मेरी पत्नी मेरे साथ आने को तैयार हुई।

आने के 4 महीने बाद बिलकुल यही घटना फिर हुई फिर काफी बातचीत के बाद आई मेरे साथ। उसके बाद 2011 में मुझे एक बेटा हुआ, ऑपरेशन से। बेटे के जन्म के 3 महीने बाद ही वो लोग फिर आ गए बिदाई कराने। तब मुझसे उनका बहुत झगड़ा हुआ कि एक तो आपकी बेटी अपना दूध नहीं पिला रही लड़के को, दूध सुखाने की दवा चला ली और आप इसको डांटने के बजाय ले जाने को तैयार हैं। तो ससुर बोले कि घर पे ले जाकर समझायेंगे। मैंने मना किया तो मेरी पत्नी तैयार हो कर बोली अपना लड़का रखो मैं जा रही हूँ, और वो चली गई।

फिर 2 महीने की मसक्कत के बाद आई। फिर 4 महीने बाद वही घटना, लड़का छोड़ के चली गई। वहाँ 20 दिन रही और मेरे पास कॉल की कि मैं प्रेग्नेंट हूँ, पैसा भेजिए अबोर्शन कराना है। तो मैने 5000 रुपया भेजा। तो पैसा खर्च करके बोली डॉक्टर ने मना किया है गिराने से तो रहने दीजिये। मैंने कहा ठीक है। महीने रह के आई और 15 दिन के बाद से ही मेरे पूरे परिवार में कलह पैदा कर दी। ऐसा हालात बना दी की कोई किसी की मदद न करे। डिलिवरी से 10 दिन पहले ससुर आये बोले भेज दीजिये वही पे करा देंगे, आप खर्च दे दीजिये। मेरा मन नहीं था भेजने का फिर भी 10000 रुपया देकर भेज दिया।

इस वक्त भी लड़का छोड़ कर गई। 2 दिन बाद कॉल आया कि आइये ऑपरेशन के समय आपको रहना पड़ेगा तो मैं गया मेरे पहुँचते ही ससुर अपने घर चला गया, वहाँ मुझे और मेरी सास को और गाँव की 3 औरतों को छोड़कर। मैं वही बैठा था ओटी के सामने रात के 8 बज रहे थे। मेरे सामने से ही नर्स ट्रे में एक बच्चा ले के गई ट्रे को कपडे से ढँक कर। पर बच्चे की ऊँगली ट्रे के बाहर निकली हुई थी तो मैंने सोचा किसी का होगा। तब तक मेरी सास आई और बोली अब नसबंदी भी हो जाए, चलिए साइन कीजिये। मैंने मना किया तो पता नहीं कहा से 4, 5 औरतें 2 मर्द आ गए और मुझसे झगड़ा करने लगे। बोले साइन करो नहीं तो इधर ही काट कर फेंक देंगे तुमको। काफी हुज्जत के बाद भी मुझे साइन करना पड़ा। साइन करने के 20 मिनट बाद नर्स आई, वो ही trey लेके जो लेके गई थी और बोली आपका बच्चा नहीं बचेगा। इसको दिखाइये किसी डॉक्टर को। मैं ये सुनकर वही बेहोश हो गया था, करीब 1 घंटे बाद मुझे होश आया। तभी नर्स ने मेरी सास को बुलाया मेरी सास आते ही बोली आपके लड़के को सरकारी हॉस्पिटल के आईसीयू में रखवाया है जाकर देखिये। मैं रोते हुवे सरकारी हॉस्पिटल गया तो देखा लड़का लावारिस की तरह आईसीयू में पड़ा है। नर्स से पूछा तो वो बोली कि लड़का नहीं बचेगा। उस वक्त मेरे पास 10 रुपया भी नहीं था कि उसको प्राइवेट में दिखाऊं। बस हॉस्पिटल के बाहर बैठ कर उसको मरते हुवे देख रहा था। इसी में सुबह हो गई तब तक नर्स आई बोली लाश ले जाइए, सफाई करना है। वहीं अपनी चांदी की अंगूठी चाय वाले को देकर उससे 400 रुपया क़र्ज़ लिया, लड़के के अंतिम संस्कार के लिए।

जब अंतिम संस्कार करके आया तो देखा हॉस्पिटल में उसका जीजा आया हुवा है और मेरी सास मेरी पत्नी को काजू खिला रही है। मैंने जब पत्नी को बोला कि लड़का मर गया, तो वो बोली ये सब मत सुनाओ भाग्य में नहीं था और लेटे लेटे फिर काजू खाने लगी। इस पर मुझे गुस्सा आया तो मैं उन लोगो को भला बुरा कहने लगा। तब तक मेरा ससुर आया और मुझे धक्का दे कर बोला जाओ तुम्हारे साथ नहीं जायेगी मेरी बेटी और तुमसे खर्च कैसे लेना है मै जानता हूँ। मैं अपने घर आ गया। फिर 10 दिन बाद गया तो वो लोग हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हो रहे हैं तो उनके साथ पत्नी को उसके घर छोड़कर अपने घर आ गया।

बीच बीच में जाकर मिलता रहा फिर काफी मसक्कत के बाद 3 महीने पर वो बिदा करने को राज़ी हुए। पर शर्त थी की 20000 दो पत्नी को ले जाओ। हमारा खर्च हुवा है हॉस्पिटल में। तो इस बात पर कुछ लोगो के समझाने के बाद बोला हमको चाहिए बाद में ही देना और चलो एक सादा स्टाम्प पेपर लाये बोले साइन करो। मैंने मना कर दिया साइन करने से। तो मुझे लेकर मुखिया के पास गए और मुखिया के सामने पेपर पर साइन करने को बोले। पेपर में लिखा था मैं दहेज़ नहीं मांगूंगा अपनी पत्नी से, फिर मारपीट नहीं करूँगा। तो मैंने बोला मैंने कब आपसे 1 रुपया माँगा। तो वो दहेज़ वाली लाइन कटवा दिए। उसके 2 दिन बाद पत्नी को अपने घर ले के आया।

उसके 3 महीने बाद ही मेरा ससुर वो पेपर लेके एसपी के पास आवेदन दे दिया तो महिला थाना मेरे घर पे आई और मुझे मेरी पत्नी को मेरी माँ को पापा को थाने लेके गई। वहां पे जब मैंने सारी बात बताई तो महिला पुलिस मेरे सास ससुर को 4 डंडे लगाईं बोली कैसे माँ बाप हो अपनी बेटी का घर उजाड़ रहे हो। मेरी पत्नी से पूछी तुमने सिंदूर क्यों नहीं लगाया। तो वो बोली याद नहीं आया। जबकि सच ये है कि वो मेरे यहाँ कभी सिंदूर नहीं लगाती है। थाने में बांड भर के हम अपने अपने घर चले आये।

उसके बाद हमेशा घर में जेवर पैसा ग़ुम होने लगा। मैं जान कर चुप हो जाता। पर एक बार बोली कि उसका मंगलसूत्र ग़ुम हो गया है तो इस बात पे मेरा मेरी पत्नी से झगड़ा हुआ। उसने फोन करके अपने बाप को बुला लिया और रोड पे अर्धनग्न बाल बिखेर के निकल गई, उसके माँ और बाप चिल्लाने लगे। अभी मैं कुछ बोलूं उससे पहले ही रिक्शा से चले गए। मैं ढूंढने निकला तब तक भूकम्प आ गया 25 अप्रैल 2015 वाला। तो मैं वापस अपने लड़के के पास चला आया। वो अपने मैके जाके 498, 3/4 और 125 का केस कर दी।

जब मैं बाजार के कुछ सभ्य लोगो को लेकर उसके यहाँ गया तो उसका बाप बोला पैसा दो तो ही कुछ बात होगा। मैंने हुज्जत किया तो उन लोगों के तरफ से कुछ आवारा लड़के थे वहा जो मेरे भाई पे हाथ उठा दिए। मेरा ससुर मुझे अकेले में बुला के बोला जिस तरह कहूँ उस तरह करो वरना ज़िंदा चिमनी में फिंकवा दूंगा। जाओ 50000 रुपया ले कर आओ, केस ख़त्म हो जाएगा। बातचीत में ही 6 महीने हो गए और अब तक मैं रोड पे आ चुका था। अपने सेठ से 50000 रुपया क़र्ज़ ले कर दिया तो मेरी पत्नी मेरे साथ आई और उसके 6 महीने बाद उसने केस ख़त्म करवाया।

उसके बाद खुल कर मेरे सामने ही मोबाइल से पता नहीं कहाँ बात करती। मैं मना करता तो धमकी देती कि ज्यादा चिल्लाओ मत वरना फिर भुगतोगे। मैं चुप हो जाता। इधर 2 महीने पहले 3 बजे सुबह वह बस स्टॉप चली गई, मैके जाने के लिए, लड़के को लेकर। 4 बजे मेरी नीन्द खुली तो बाहर से ताला बंद मिला। मैं छत से 10 फीट कूद कर उसको ढूंढने निकला तो वो बस स्टॉप पे मिली। मुझे देख कर भीड़ इकट्ठा करने की कोशिश करने लगी। सब वहां पहचान के थे और सब जानते थे मेरी आप बीती। तो इसको मेरे साथ भेज दिए। आकर बोली मैं अपने मैके में ही रहूंगी, मुझे वहीं खर्च देना। इसीलिए अब लड़के को लेकर जाउंगी जो कि अब 6 साल का है। इसका खर्च तो तुम्हें देना ही होगा। फिर वो इधर दो महीने पहले घर में रखा 1.5 लाख रुपया गहना, कपडा, लड़का,  साथ ले के दिन में 3 बजे के करीब किसी को बुलाकर उसके बाइक पे बैठ के भाग गई है। मैं क्या करूँ? उसको गोली मार दूँ, या खुद को गोली मार लूँ? भारतीय कानून से किसी भी प्रकार की उम्मीद नहीं मुझे, इतना हुआ मेरे साथ। पर कोर्ट बोलेगा खर्च दो उसको, अपनी प्रॉपर्टी में हिस्सा दो उसको, और तुम घंटा बजाओ। ये है हमारा संविधान।

शुक्रवार, 10 जून 2011

उत्तमार्ध को जन्मदिन की बधाई और शुभकामनाएँ!!!

३६ वर्ष का साथ कम नहीं होता, आपसी समझ विकसित करने के लिए। लेकिन पता नहीं क्यों? जैसे जैसे समय गुजरता जाता है, वैसे वैसे मतभेद के मुद्दे बदलते रहते हैं। साथ का ये ३६वाँ वर्ष तो बिलकुल वैसा ही था जैसे इन अंकों की शक्ल है। मतभेदों की चरम सीमा थी वह। शायद इन अंकों का ही प्रताप रहा हो। पर आपसी समझ भी ऐसी कि मतभेदों के बावजूद साथ गहरा होता गया।  जैसे ही अंक बदल कर ३७ हुआ कि मतभेद न्यूनतम स्तर पर आ गए। हालांकि अब ऐसा भी नहीं कि बरतन खड़कते न हों और आवाजें न होती हों। वे होती हैं, लेकिन शायद उतना होना यह सबूत पैदा करने के लिए भी जरूरी है कि हमारे बीच पति-पत्नी का वैधानिक रिश्ता कायम है।

मैं अपने बहुत खुशकिस्मत हूँ कि मुझे ऐसी जीवनसाथी मिली। न पहले की कोई जान पहचान, न देखा-दाखी। बस एक दूसरे के परिजनों ने तय किया और हमें बांध दिया गया, ऐसी मजबूत डोर से जो जीवन भर साथ निभाएगी। वह आज का वक्त होता तो ये बांधा जाना कानून की निगाह में अपराध होता। मैं बीस का भी नहीं और शोभा, सत्रह की हुई ही थी। पर तब यह सब अपराध नहीं था। मेरी तो बी.एससी. की परीक्षा हुई थी, एक प्रायोगिक परीक्षा शेष भी थी। समझता था, कि यह जल्दी सही नहीं, उसे टालने का अपनी बिसात भर प्रयत्न भी किया था, लेकिन तब कहाँ चल सकती थी, न चली। इतना संकोच था कि अपने सहपाठियों तक को बताया नहीं, बुलाया भी नहीं। केवल घनिष्ट मित्र ही साथ थे। बारात जैसे ट्रेन से वापस उतरी तो एक दम उस से अलग बुक स्टॉल पर जा खड़ा हुआ, पत्रिकाएँ देखने लगा। एक सहपाठी ने ट्रेन से उतरते देख पूछ भी लिया -कहाँ से आ रहे हो? मैं ने तपाक से उत्तर दिया था -बारात में गया था। उस ने घूंघट में दुल्हन को उतरते देखा तो फिर पूछा ये दुल्हन उसी बारात की दिखती है शायद। मैं ने उत्तर में हाँ कहा। सहपाठी जल्दी में था, सरक लिया और मुझे साँस में साँस आई। उस कॉलेज का अंतिम वर्ष था, उस से कई महिनों बाद मुलाकात हुई तो कहने लगा -शादी के मामले में भी हमें उल्लू बना दिया। 

दुल्हन का घूंघट मुझे कभी नहीं भाया। सप्ताह भर बाद ही जब हम बैलगाड़ी की सवारी करते हुए गाँव जा रहे थे, साथ में अम्मा भी थी, शोभा घूंघट लिए बैठी थी। मैं ने माँ से सवाल किया। जब मैं इस के साथ अकेला होता हूँ तो यह घूंघट में नहीं होती जब तुम्हारे साथ होती है तब भी नहीं। लेकिन जब हम दोनों सामने होते हैं तो घूंघट डाल लेती है और बोलती भी नहीं, क्यों? इस का कोई जवाब अम्मां के पास नहीं था। कम से कम अम्मां के सामने तो घूंघट से निजात मिली। परिवार में बाद में आने वाली बहुओं के लिए आसानी हो गई।

शादी के बाद शुरु हुआ प्रेम पनपने का सिलसिला। मैं कानून की पढ़ाई के लिए अक्सर शहर के बाहर रहता और शोभा वर्ष में कम से कम आधे समय अपने मायके में। मोबाइल तो मोबाइल टेलीफोन तक की सुविधा नहीं थी। बस डाक विभाग का सहारा था। हर सप्ताह कम से कम एक पत्र का आदान प्रदान अनिवार्य था। यूँ तीन-चार भी हुए कई सप्ताहों में। यूँ ही प्रेम गहराता गया और ऐसा रंग चढ़ा की कहा जा सकता है, चढ़े न दूजो रंग। कानून की पढ़ाई पूरी हुई। एक वर्ष बाद ही वकालत के लिए गृह नगर छो़ड़ कर तब के जिला मुख्यालय आ गया। वकालत में स्थापित होने के संघर्ष का दौर। आमदनी में खर्च चलाने की विवशता। फिर बच्चे हुए, घर में चहल पहल ह गई, रहने के मकान भी बना। बच्चे बड़े हुए तो अध्ययन के लिए बाहर चले गए। अध्ययन पूरा हुआ तो रोजगार ने उन्हें घर न टिकने दिया। एक उत्तर में तो दूसरे को दक्षिण जाना पड़ा। वे आते हैं तो बरसात की बदली की तरह। हमारे जीवन में कुछ नमी बढ़ा जाते हैं और चल देते हैं। साथ फिर हम दोनों ही रह जाते हैं। इस बीच कोई समय ऐसा नहीं था जब  बावजूद तमाम मतभेदों के हम दोनों मुसीबत और उल्लास के मौके पर साथ नहीं रहे हों। हमारे बीच मतभेद अब भी हैं, उन में से कुछ ऐसे भी हैं जो जीवन भर न सुलझाए जा सकेंगे, लेकिन साथ तब भी बना रहेगा। शायद यही सहअस्तित्व का सब से अनुपम उदाहरण है।  अब तो लगता ही नहीं हैं कि हम दो अलग-अलग अस्तित्व हैं। लगता है दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं, दोनों मिल कर ही एक हैं।    

प सोच रहे होंगे कि आज ऐसा क्या है जो मैं अपनी उत्तमार्ध शोभा का उल्लेख इस तरह कर रहा हूँ? ... तो बता ही देता हूँ। आज उस का जन्मदिन है। उसे जन्म दिन की बधाई और असंख्य शुभकामनाएँ!!! हमारा साथ ऐसा ही बना रहे।

बुधवार, 19 मई 2010

उन्नीस मई का दिन, शादी के बाद की पहली रात

पिछली पोस्ट से आगे...
दो घण्टे भी न गुजरे थे कि एक बार फिर से घोड़ी की पीठ पर सवारी करनी पड़ी। बचपन में अपने मित्र बनवारी लखारा की घोड़ी की पीठ पर चढ़ कर उसे नदी किनारे पानी दिखाने खूब गए थे। पर तब आगे न तो बैंड होता था और न नाच हो रहा होता था। शाम को पाँच घण्टे की सवारी से अकड़ी कमर ठीक से सीधी भी न हो सकी थी कि फिर जलूस बन गया। इस बार जलूस सब से छोटे रास्ते से दुल्हिन के घर पहुँचा। तोरण को कटारी से छुआ कर अंदर पहुँचे तो कन्यादान के नाम पर दुल्हा-दुल्हिन के बाएँ हाथ की हथेलियों के बीच मेहन्दी और कुछ अन्य वनस्पतियों की पिसी लुगदी रख सूत के लच्छे से बांध दिए गए। फिर बंधे हाथ ही मंडप में पहुँचाए गए। भाँवरों की कार्यवाही आरंभ हुई। पंडित जी बहुत ही धीमे चल रहे थे। बारात में पंडित ही पंडित जो थे। उन्हें डर लग रहा था कि कहीं ऐसा न हो कोई विधि में कसर निकाल दे। पंडित जी के डर का बोझा सहना पड़ रहा था दुल्हा-दुल्हिन को।  भाँवर निपटते-निपटते सुबह चार बज रहे थे। जैसे ही वह सब निपटा सरदार ने चुपके से पंडित को अपने दाएँ हाथ की कनिष्ठिका दिखाई, वह समझ गया। उस ने तुरंत बंधे हाथ खोले सरदार को बाथरूम का रास्ता दिखा दिया। 
भाँवर से लौटने और दुल्हन को वापस मायके पहुँचा देने के बाद सरदार को कुछ आराम मिला। नौ बजते-बजते उसे फिर उठा दिया गया।  वह जल्दी से वह स्नानादि से निपटा तो उसे फिर से एक बार दुल्हिन के घर पहुँचा दिया गया। विदाई की रस्में हुई। दोपहर तक तक बारात फिर से बस में सवार थी। इस बार बस लाइन की नियमित बस थी। इस से बारात को पास के स्टेशन तक पहुँचना था, फिर वहाँ से ट्रेन से बारात लौटनी थी। सरदार के एक दादा जी बहुत होशियार थे। उन्हों ने पूरी बारात का टिकट लिया लेकिन कंडक्टर को इस बात के लिए मना लिया कि वह दुल्हा-दुल्हिन को फ्री ले जाएगा। जल्दी ही स्टेशन आ गया। वहाँ आधा घंटा विश्राम हुआ। बारात को चाय-पान मिला। इस बीच सरदार इस चक्कर में रहा कि किसी तरह घूँघट में छिपा दुल्हन का मुख मंडल दिख जाए। पर वह बहुत प्रयत्नों के साथ छुपा था, नहीं दिखना था सो नहीं ही दिखा। ट्रेन आई और बारात उस में सवार।  ट्रेन ने घंटे भर में ही बाराँ का प्लेटफॉर्म दिखा दिया।
ट्रेन से उतरते ही, सब बाराती और घर वालों ने सामान संभाला और पैदल अपने-अपने घरों को चल दिए। गाड़ी ने भी स्टेशन छोड़ दिया। प्लेटफॉर्म पर स्थाई रुप से टिके रहने वाले लोग ही रह गए। सरदार को लगा केवल वही अकेला यात्री छूट गया है। बुकस्टॉल से चला तो टिकटघर के बाहर के वेटिंग हॉल में दुल्हन के साथ अपनी दोनों बहनों और दोनों छोटे भाईयों को देख कर रुका। बहनों ने उसे बताया कि पिता जी ने आप के साथ मामा बैज़्जी के घऱ जाने को बोला है। सरदार उन सब को ले कर मामा बैज़्जी के घर पहुँच गया।  छोटे मामा उस पर खूब गुस्सा हुए -“नई लाड़ी (दुल्हन) को इस तरह पैदल लाया जाता है? मैं ने तो ताँगे वाले को स्टेशन भेजा है, वो बेचारा वहाँ हैरान हो रहा होगा। जब तक तुम्हें तुम्हारे घर में न ले लें तुम यहीं रहोगे” छोटे मामाजी की हुक्म उदूली करने का सरदार में बिलकुल माद्दा न था। मामाजी के घर दुल्हन का स्वागत हुआ। वह महिलाओं से घिर गई, सरदार अकेला रह गया, वह टाइमपास के लिए मामाजी के दवाखाने में आ बैठा और पिछले दो दिनों के अखबारों के पन्ने पलटने लगा।
हाँ फिर से दूल्हे की यूनिफार्म पहननी पड़ी, सिर पर साफा, कांधे पर गठजोड़ा ऱख दिया गया। सरदार चला, पीछे पीछे दुल्हन खिंची आती थी। आगे शहर का मशहूर बैंड बजता था। घर पहुँचते पहुँचते पर ढोल लिए ढ़ोली भी चला आया। फर्लांग भर की दूरी सरदार को मीलों लगी थीं। वैसे कोई खास बात नहीं थी, यह उसी का मोहल्ला था, जहाँ बच्चे-बच्चे को पता था सरदार की शादी हो गई है। भोजनोपरांत बाजार  गया और देर रात तक दोस्तों के साथ रहा। पान की दुकान से पान खा कर चलने ही वाला था कि पान वाले ने टोका -भाभी के लिए पान नहीं ले जाओगे? आज तो पहली मुलाकात है। सरदार दुलहन के लिए पान ले कर लौटा। रात  के बारह बजने में सिर्फ कुछ मिनट बाकी थे। उस के कमरे की गैलरी में महिलाएँ बैठी गीत गा रही हैं। घुसते ही बुआ ने टोका-पीछे छत पर जा। वह छत पर कुछ ही देर रहा फिर बुआ पकड़ कर ले गई। सरदार को उस के ही कमरे में अंदर ढकेला गया और खड़ाक से बाहर की कुंडी लग गई। बिजली घर में थी नहीं। कमरे में मात्र एक दीपक रोशन था। कमरा पूरा बंद डब्बा लग रहा था। दरवाजा बंद होने के बाद उस में चार फुट की ऊंचाई पर ‘ए-3 साइज के पेपर’ के बराबर की पोर्टेट ओरिएंटेशन वाली दो खिड़कियाँ दरवाजे के आजू-बाजू थीं, जिन पर भी परदे लटके थे। हवा भी न घुसे इस का पूरा इंतजाम था। अंदर देखा तो कमरे के एक कोने में ससुराल से मिले पलंग की दोनों कुर्सियाँ दीवार से लगी थी और ईंसें कोने में खड़ी थी। पलंग में रखी जाने वाली जिस चौखट पर निवार बुनी जाती है, वह कमरे के दाएँ फर्श पर रखी थी, जिस पर रेशमी चादर से ढका गद्दा बिछा था , जिस के  ऊपर शादी का खास जोड़ा पहने दुल्हन बैठी थी।
रदार को हालात देख कर गुस्सा भी आया और रोना भी। घर में कोई जमाई नहीं था, जो कम से कम पलंग को जोड़ कर खड़ा ही कर देता। बारात में सब थे, नेग लेने को, और जब उन का काम आया तो सब नदारद। वे नहीं तो बुआएँ ही यह काम कर देतीं। आखिर यह हुआ क्या? किसी को भी यह याद नहीं रहा। वह बुआ से पूछने को मुड़ा, दरवाजा खोलने को खींचा तो वह बाहर से कुंडी बंद थी। अब तब तक बाहर नही जा जा सकता था जब तक कि बाहर से कोई कुंडी न खोल देता।  बाहर जगराते में देवताओं को मनाते, गीत गाती औरतें अपने गीत पूरे कर ने के पहले खोल न सकतीं थीं। वह मसोस कर रह गया।
ई के महीने की ऊन्नीस तारीख बीस में तब्दील हो चुकी थी। पसीने से बनियान बदन से चिपक रही थी। सरदार ने अपना कुर्ता-पाजामा उतार, लुंगी पहन ली। बनियान को भी बदन से अलग किया, परांडी पर रखी बीजणी (हाथ-पंखा) ले गद्दे पर जा लेटा और बीजणी से इस तरह बदन पर हवा झलने लगा कि ज्यादा हवा दुल्हन को लगती रहे। सरदार को समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्या करे? जो कम से कम अब तो दुल्हन का चेहरा देखने को मिल जाए। दिमाग में अचानक रोशनी चमकी, उस ने दुल्हन से पूछा–तुम्हें गर्मी नहीं लग रही? दुल्हन क्या जवाब देती, वह पहले ही पसीने से तर-बतर-थी, चुप रही। कुछ देर बाद उठी और बोली–आप उधर मुँह कर के लेटिए, मैं अपने कपड़े बदल लेती हूँ। गर्मी में दुल्हन का जोड़ा जरूर उस के बदन को बुरी तरह काट रहा होगा। सरदार अपना मुहँ दीवार की तरफ कर लेट कर सोचने लगा -अब इंतजार पूरा हुआ। अब तो दुल्हन का मुखड़ा देखने को मिलेगा। सरदार को फिल्मों के सारे रोमांटिक गानों के मुखड़े याद आने लगे थे। कुछ देर बाद दुल्हन का मुखड़ा दिखा, लेकिन ताक पर रोशन एक तेल के दीपक की रोशनी में भीषण गर्मी में बदन से टपकते पसीने को बीजणी से सुखाते हुए। अब ये तो पाठक ही सोच सकते हैं कि दुल्हों के दोस्तों को सेरों खुशबूदार फूलों से दुल्हन की सेज को सजाते देखने पर सरदार और सरदारनी के दिल पर क्या गुजरती होगी?
रदार का अगला दिन बहुत व्यस्त रहा। सुबह ही कॉलेज जा कर पता किया कि कहीं रसायनशास्त्र की प्रायोगिक परीक्षा आज-कल में ही तो नहीं है? दोनों-तीनों फूफाओं और बुआओं की खबर ली गई कि वे एक पलंग नहीं जोड़ सके। फिर पलंग को खुद ही जोड़ा और ढंग से कमरे के एक कोने में लगाया। मंदिर के मैनेजर को पटा कर अनुमति ली गई कि मंदिर से सरदार अपने कमरे तक तार खींच कर बिजली ले जाए। पर्याप्त लंबाई वाला तार कबाड़ कर अपने कमरे तक खींचा और कुछ प्लग-सॉकेट लगाए। बिजली की सप्लाई का टेंपरेरी इंतजाम हो गया। शाम तक ससुराल से दहेज में मिला टेबलफैन चलने लगा और एक अदद बल्ब भी रोशन हुआ। दिन भर दुल्हन सज-धज कर बैठी रही। औरतें मिलने आतीं और मुहँ दिखाई देती रही, लेकिन सरदार को उस का मुखड़ा एक बार भी देखने को न मिला। वह रात होने का इंतजार कर रहा था, जब वह बल्ब की रोशनी और टेबलफेन की हवा में अपनी दुल्हन से मिलेगा और तसल्ली से उस का मुखड़ा देख सकेगा। 

मंगलवार, 18 मई 2010

अठारह मई का वह दिन !!!

ठारह मई का वह दिन कैसे भूला जा सकता है? दो बरस पहले से जिसे देखने और मिलने की आस लगी थी वह इस दिन पूरी होने वाली थी।

हुआ यूँ था ............ गर्मी की छुट्टियां थीं और मौसी की लड़की की शादी। सारा परिवार उस में आया था। सरदार, बाबूजी. माँ, बहनें और छोटे भाई भी। शादी सम्पन्न हुई तो सरदार ने अम्माँ से पूछा मैं मामाजी के यहाँ हो आऊँ? अम्माँ मुस्कुराई और कहा -बाबूजी से पूछो? वह जानती थी कि सरदार बाबूजी से पूछने में कतराता है। लेकिन उस दिन पूछ ही लिया। वह लगभग हर साल गर्मी में कुछ दिन मामाजी के यहाँ गुजारता था। पर अब की वहाँ गए दो बरस हो गए थे और उसे ननिहाल की याद जोरों से सता रही थी। वहाँ गर्मियों में बिताए दो हफ्ते पूरे साल के लिए उसे तरोताजा कर देते थे। रोज सुबह नदी स्नान और तैरना, दिन में पढ़ने को खूब किताबें, शाम फिर नदी पर गुजरती। रात होते ही मंदिर में जमती संगीत की महफिल, मामाजी पक्की शास्त्रीय बंदिशें गाते। बाबूजी से पूछने पर उन्हों ने सख्ती से मना कर दिया –नहीं, इस बार हम सब वहाँ जा रहे हैं। तुम बाराँ जाओगे। वहाँ दाज्जी अकेले हैं और परसों गंगा दशमी है। मन्दिर कौन सजाएगा?

मामा जी के यहाँ जाने की सरदार की योजना असफल हो गई थी, मन में बहुत हताशा थी और गुस्सा भी। अब उसे दूसरे दिन सुबह वापस अपने शहर लौटना था। पर अब मौसी के यहाँ रुकने का मन नहीं रहा। सरदार का मित्र ओम भी शादी में साथ था, उसे उसी समय साथ लौटने को तैयार किया और दोनों चल दिए। पच्चीस किलोमीटर की दूरी बस से तय की, रेलवे स्टेशन तक की। वहाँ पहुँचने पर पता लगा ट्रेन दो घंटे लेट थी। अब क्या करें? स्टेशन से कस्बा डेढ़ किलोमीटर था जहाँ एक अन्य मित्र पोस्टेड था। स्टेशन के बाहर की एक मात्र चाय-नाश्ते की दुकान पर अपनी अटैचियां जमा कीं और पैदल चल दिये कस्बा।

वहाँ मित्र मिला, चाय-पानी हुआ, बातों में मशगूल रहे। ट्रेन का वक्त होने को आया तो वापस चल दिये, स्टेशन के लिए। कस्बे से बाहर आते ही ट्रेन दिख गई। उसे भी स्टेशन तक पहुँचने में एक किलोमीटर की दूरी थी और इन दोनों को भी। ट्रेन छूट जाने का खतरा सामने था। फिर वापस मौसी के यहाँ जाना पड़ता रात बिताने। सुबह के पहले दूसरी ट्रेन नहीं थी। जिस तरह सरदार वहाँ से गुस्से में रवाना हुआ था, उस का वापस वहीं लौटने का मन न था। तय किया कि ट्रेन पकड़ने के लिये दौड़ा जाए। दोनों कुछ दूर ही दौड़े थे कि ओम के पैरों ने जवाब देना शुरु कर दिया। सरदार ने उस के हाथ में अपना हाथ डाल जबरन दौड़ाया। चाय-नाश्ते वाली दुकान के नौकर ने दोनों को दौड़ता देख उन की अटैचियां सड़क पर ला रखी। सरदार ने दोनों अटैचियाँ उठाईं और प्लेटफॉर्म की तरफ दौड़ा। ट्रेन चल दी। डिब्बे के एक दरवाजे में ओम को चढ़ाया, दूसरे व तीसरे में अटैचियाँ और चौथे में सरदार चढ़ा। अन्दर पहुँच कर सब एक जगह हुए। दोनों की साँसें फूल गई थीं, दो स्टेशन निकल जाने तक मुकाम पर नहीं आयीं। आज सरदार उस वाकय़े को स्मरण करता है तो काँप उठता है, अपनी ही मूर्खता पर। उस ने ओम को जबरन दौड़ाया था। उस की क्षमता से बहुत अधिक। अगर उसे कुछ हो गया होता तो?

सी साल सरदार ने बी.एससी. के दूसरो वर्ष में दाखिला लिया। कॉलेज का वार्षिकोत्सव का अंतिम दिन था। कॉलेज से लौटा तो साथ कुछ इनाम थे, छोटे-छोटे, कुछ प्रतियोगिताओं में स्थान बना लेने के स्मृति चिन्ह। उन्हीं में था एक मैडल। कॉलेज के इंटर्नल टूर्नामेण्ट की चैम्पियन टीम के कप्तान के लिये। माँ और तो सभी चीजें जान गयी, लेकिन मैडल देख पूछा -ये क्या है?

“घर की शोभा”, सरदार का जवाब था।

जवाब पर छोटी बहन हँस पड़ी। ऐसी कि उस से रोके नहीं रुक रही थी। माँ ने उसे डाँटा। वह दूसरे कमरे में भाग गई। 

सरदार समझ नहीं पाया उस हँसी को। वह हँसी उस के लिये एक पहेली छोड़ गयी। उसे सुलझाने में सरदार को कई दिन लग गए। सुलझी तो पता लगा जिस दिन उस ने खुद के साथ ओम को दौड़ाया था। उस के दूसरे दिन मामाजी के यहाँ जाने के रास्ते के एक कस्बे में बाबूजी. माँ, बहनें और छोटे भाई किसी के मेहमान बने थे और सरदार की दुल्हिन बनाने के लिए उस परिवार की सबसे बड़ी बेटी देख आए थे। जब सरदार को पता लगा तो वह उस के बारे में लोगों से जानकारियाँ लेता रहा। कल्पना में उस के चित्र गढ़ता रहा, अब उसे देखने और मिलने का दिन आ गया था.....


निकासी निपटी तो आधी रात हो गई थी। तारीख सत्रह से अठारह हो चुकी थी। बारात के लिए बस आ चुकी थी। सरदार चाहता था कि कुछ खास दोस्त बारात में जरूर चलें। सब से कह भी चुका था। पर वे नहीं आए। जो दोस्त साथ गए उन में दो-चार हम उम्र थे तो इतने ही बुजुर्ग भी। बाराती बस में अपनी-अपनी जगह बैठ चुके थे।
बस में सरदार के लिए ही सीट न बची थी। एक दो बुजुर्गों ने उसे अपना स्थान देना चाहा पर वह अशिष्टता होती। एक पीपे में सामान का था। उसे ही सीटों के बीच रख कर बैठने की जगह बनाई ससुराल तक का पहला सफर किया। ऐसे में सोने का तो प्रश्न ही न था। पास की सीट पर मामा जी और एक बुजुर्ग मित्र वर्मा जी बैठे थे। बस रूट की पुरानी बस थी, जिस के ठीक बीच में एक दो इंच की दरार थी ऐसा लगता था दो डिब्बों को जोड़ दिया हो और बीच में माल भरना छूट गया हो। जब भी वर्मा जी सोने लगते, मामाजी उन्हें जगा देते, कहते वर्मा जी आप पीछे के हिस्से में हैं, देखते रहो, अलग हो गया तो बरात छूट जाएगी। भोर होने तक बस चलती रही। सड़क के किनारे के मील के पत्थर बता रहे थे कि नगर केवल चार किलोमीटर रह गया है। तभी धड़ाम......! आवाज हुई और कोई तीन सौ मीटर दूर जा कर बस रुक गई। शायद बस से कुछ गिरा था। जाँचने पर पता लगा कि बस के नीचे एक लंबी घूमने वाली मोटी छड़ (ट्रांसमिशन रॉ़ड) होती है जो इंजन से पिछले पहियों को घुमाती है वह गिर गई थी। बस का ड्राइवर और खल्लासी उसे लेने पैदल पीछे की ओर चल दिए। उजाला हो चुका था, शीतल पवन बह रही थी। यह सुबह के टहलने का समय था। सरदार और उस के कुछ हम उम्र दोस्त पैदल नगर की ओर चल दिए। एक किलोमीटर चले होंगे कि बस दुरुस्त हो कर पीछे से आ गई। उस में बैठ गए।

सुबह से दोपहर बाद तक बारातियों का चाय-नाश्ता, नहाना, सजना, भोजन और विश्राम चलता रहा। शाम चार बजे अगवानी हुई और उस के बाद बारात का नगर भ्रमण। पाँच बजे सरदार की घुड़चढी हुई। नगर घूमते आठ बज गए। बारात का अनेक स्थानों पर स्वागत हुआ। कहीं फल, कहीं ठण्डा पेय कहीं कुल्फी। मालाएँ तो हर जगह पहनाई गई। हर मोड़ पर दूल्हे के लिए कोई न कोई पान ले आता। घोड़ी पर बैठे बैठे थूकना तो असभ्यता होती, सब सीधे पेट में निगले जा रहे थे। सरदार सोच रहा था, आज पेट, आँतों और उस से आगे क्या हाल होगा? साढे तीन घंटे हो चुके थे, अब तो लघुशंका हो रही थी और उसे रोकना अब दुष्कर हो रहा था। एक स्थान पर स्वागत कुछ तगड़ा था, आखिर वहाँ घोड़ी से नीचे उतरने की जुगत लग ही गई। वहाँ एक सजे हुए तख्त पर दूल्हे को मसनद के सहारे बैठाने की व्यवस्था थी। पर सरदार ने अपने एक मित्र से कहा -बाथरूम? उस ने किसी और को कहा, तब बाथरूम मिला। वहाँ खड़े-खड़े दस मिनट गुजर गए। लघुशंका पेशियों के जंगल में कहीं फँस गयी थी और निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी। तीन घंटे से रोकते-रोकते रोकने वाली पेशियाँ जहाँ अड़ाई गई थीं जाम हो चुकी थीं और वापस अपनी पूर्वावस्था में लौटने को तैयार न थी। अब बाथरूम में अधिक रुकना तो मुनासिब न था। सरदार ने पैंट फ्लाई के बटन बंद किए और जैसे गया था वैसे ही बाहर लौट आया।

नगर भ्रमण दुल्हन के मकान के सामने भी पहुँचा। वहाँ महिलाओं ने खूब स्वागत किया। हर महिला टीका करती, नारियल पर कुछ रुपये देती। सरदार वहाँ तलाश करता रहा शायद कहीं से उसे उस की होने वाली जीवन साथी देख रही हो और उसे दिख जाए। वह दिखाई नहीं ही दी, दिखी भी हो तो चीन्हने का संकट भी था, न उसे पहले देखा था और न उस का चित्र। साढ़े दस बजे वापस जनवासे में लौटे तो बाराती सीधे भोजन पर चले गए। सरदार ने यहाँ भी आते ही कोशिश की लेकिन शंका सरकी तक नहीं, फँसी रही। उस से भोजन के लिए कहा जा रहा था। पर मन और शरीर दोनों शंका में उलझे थे। पता लगा कच्चे आम का शरबत (कैरी का आँच) बना है। बस वही दो-तीन गिलास पिया तो पेशियाँ नरम पड़ीं और शंका को जाने का अवसर मिला। कुछ देर विश्राम किया। कलेंडर में तारीख बदल कर उन्नीस मई हो चुकी थी। साईस जनवासे के बाहर मैदान में दूल्हे को तोरण और भाँवर पर ले जाने के लिए फिर से घोड़ी को तैयार कर रहा था............ (आगे पढ़ें)

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

दिन भर व्यस्त रहा, लगता है कुछ दिन ऐसे ही चलेगा

ज हड़ताल समाप्ति के दूसरे दिन मैं अदालत सही समय पर तो नहीं, लेकिन साढ़े ग्यारह बजे पहुँच गया था। कार को पार्क करने के लिए स्थान भी मिल गया। लेकिन अदालत में निराशा ही हाथ लगी। एक अदालत में एक ही प्रकृति के ग्यारह मुकदमे लंबित थे। अस्थाई निषेधाक्षा के लिए बहस होनी थी। लेकिन अदालत जाने पर पता लगा कि अदालतों में मुकदमों की संख्या का समानीकरण करने के लिए बहुत से स्थानांतरित किए गए हैं उन में वे सभी शामिल हैं। इन ग्यारह मुकदमों में से सात एक अदालत में और चार दूसरी अदालत में स्थानांतरित कर दिए गए हैं। नई अदालत में जा कर उन मुकदमों को संभाला। इस से एक दिक्कत पैदा हो गई कि अब या तो सारे ग्यारह मुकदमों को एक ही अदालत में स्थानांतरित कराने के लिए आवेदन प्रस्तुत करना होगा। जिस में दो-चार माह वैसे ही निकल जाएंगे, या फिर दोनों अदालतों में मुकदमों अलग अलग सुनवाई होगी। इस से मुकदमों में भिन्न भिन्न तरह के निर्णय होने की संभावना हो जाएगी।। कुल मिला कर मुकदमों के निर्णय में देरी होना स्वाभाविक है।
श्रम न्यायालय का वही हाल रहा वहाँ लंबित तीन मुकदमों में तारीखें बदल गईँ। दो मुकदमे 1983 व 1984 से लंबित हैं। उन में तीन व्यक्तियों की सेवा समाप्ति का विवाद है। एक का पहले ही देहांत हो चुका है, शेष दो की सेवा निवृत्ति की तिथियां निकल चुकी हैं। प्रबंधन पक्ष के वकील के उपलब्ध न होने के कारण आज भी उन में बहस नहीं हो सकी। तीसरे मुकदमे में प्रबंधन पक्ष के वकील के पास उस की पत्रावली उपलब्ध नहीं होने से बहस नहीं हो सकी। श्रम न्यायालय ने एक सकारात्मक काम यह किया कि मुझे पिछले दस वर्षों में अदालत में आने वाले और निर्णीत होने वाले मुकदमों की संख्या का विवरण उपलब्ध करवा दिया। इस से सरकार के समक्ष यह मांग रखने में आसानी होगी कि कोटा में एक और अतिरिक्त श्रम न्यायालय स्थापित किए जाने की आवश्यकता है। कल मिले कुछ ट्रेड यूनियन पदाधिकारी इस मामले को राज्य सरकार के समक्ष उठाने के लिए तैयार हो गए हैं। इस विषय पर आज अभिभाषक परिषद के अध्यक्ष से भी बात की जानी थी। पर वे उन की 103 वर्षीय माताजी का देहांत हो जाने के कारण अदालत नहीं आए थे। अब शायद पूरे बारह दिनों तक वे नहीं आ पाएंगे। कल उन के यहाँ शोक व्यक्त करने जाना होगा। संभव हुआ तो तभी उन से यह बात भी कर ली जाएगी।
अपने दफ्तर में व्यस्त मैं
दालत से घर लौटा तो पाँच बज चुके थे। घर की शाम की कॉफी का आनंद कुछ और ही होता है। उस के साथ अक्सर पत्नी से यह विचार विमर्श होता है कि शाम को भोजन में क्या होगा। हालाँकि हमेशा नतीजा यही होता है कि बनता वही है जो श्रीमती जी चाहती हैं। वे जो चाहती हैं वह सब्जियों की उपलब्धता पर अधिक निर्भर करता है। अक्सर मैं इस विचार-विमर्श से बचना चाहता हूँ। लेकिन बचने का कोई उपाय नहीं है।
शाम सात बजे से दफ्तर शुरू हुआ तो ठीक बारह बजे अपने मुवक्किलों से मुक्ति पाई है। फिर कल की पत्रावलियाँ देखने में एक बज गया। तब यह रोजनामचा लिखने बैठा हूँ। आज ब्लॉग पर कुछ खास नहीं लिख पाया। शाम को मिले समय में मुश्किल से अपने एक साथी का मुस्लिम विवाह पर नजरिया जो उन्होंने लिख भेजा था तीसरा खंबा पर अपलोड कर पाया हूँ। आज बहुत से ब्लाग जो पढ़ने योग्य थे वे भी पढ़ने से छूट गए। चार माह से हड़ताल कर बैठने के बाद अदालतों में काम आरंभ होने का नतीजा है यह। लगता है कुछ दिन और ऐसा ही सिलसिला बना रहेगा।

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

ह़ड़ताल समाप्ति के बाद का पहला दिन

रात को सोचा था  'अब हड़ताल खत्म हो गई है, कल बिलकुल समय पर अदालत के लिए निकलना होगा'। पत्नी शोभा ने पूछा था -कल कितने बजे अदालत के लिए निकलना है? तो मैं ने बताया था -यही कोई साढ़े दस बजे। शोभा ने चेताया दस बजे की सोचोगे तब साढ़े दस घर से निकलोगे।
सुबह पाँच बजे नींद खुली। शोभा सो रही थी। मैं लघुशंका से निवृत्त हुआ और पानी पी कर वापस लौटा तो ठंड इतनी थी कि फिर से रजाई पकड़ ली। जल्दी ही निद्रा ने फिर पकड़ लिया। इस बार शोभा ने जगाया -चाय बना ली जाए। मैं  ने रजाई में से ही कहा -हाँ, बिलकुल। कॉफी की प्याली आ जाने पर ही रजाई से निकला पानी पीकर वापस रजाई में, वहीं बैठ बेड-कॉफी पी गई।
शौचादि से निवृत्त हो नैट टटोला तो पता लगा रात को सुबह साढ़े पाँच के लिए शिड्यूल की हुई पोस्ट ड्राफ्ट ब्लागर ने ड्राफ्ट में बदल दी है औऱ प्रकाशित होने से रह गई है। उसे मैनुअली प्रकाशित किया। तभी शोभा ने आ कर पूछा कपड़े धोने हों तो बता दो, कल नहीं धुलेंगे। मैं ने कहा -खुद ही देख लो। मैं जानता था कि कपड़े अधिक से अधिक एक जोड़ा ही बिना धुले होंगे। मैं ने सोचा था कि नौ बजे बाथरूम में घुस लूंगा। तब तक अदालत का बस्ता जाँच लिया जाए कि फाइलें वगैरा सामान पूरा तो है न। यह काम निपटता इतने बिजली चली गई। अंदेशा इस बात का था कि अघोषित बिजली कटौती हो सकती है इस लिए पूछताछ पर टेलीफोन कर पूछा तो जानकारी दी गई कि किसी फॉल्ट को ठीक किया जा रहा है, कुछ देर में आ जाएगी। वाकई दस मिनट में बिजली लौट आई। लेकिन तब तक बाथरूम कब्जाया जा चुका था। मुझे वह साढ़े दस बजे नसीब हुआ। मैं तैयार हो कर निकला तब सुबह के भोजन में कुछ ही देरी थी। मैं ने यह समय कार की धूल झाड़ने और जूते तैयार करने में लगा दिया। मैं अदालत पहुँचा तो बारह बजने में कुछ ही समय शेष था। पार्किंग पूरी भर चुकी थी। आखिर पूरी अदालत का चक्कर लगाने के बाद स्थान दिखाई दिया, वहीं कार टिका कर अपनी बैठक पर पहुँचा।
 मैं वाकई बहुत विलंब से था।


अदालत में लौटती रौनक

ज लगभग सभी वकील मेरे पहले ही आ चुके थे। एक अभियुक्त नहीं आ सकता था उस की हाजरी माफी की दरख्वास्त पर दस्तखत कर एक कनिष्ट को अदालत में भेजा और मैं एक आए हुए मुवक्किल के साथ श्रम न्यायालय चला गया। कुल मिला कर आज के साथ मुकदमों में से छह में एक बजे तक पेशी बदल चुकी थी। एक अदालत के जज ने बहस करने को कहा - मैं तैयार था लेकिन? लेकिन एक दूसरे वकील साहब तैयार न थे, वे पहली बार अदालत में उपस्थति दे रहे थे। आखिर उस में भी पेशी बदल गई। अदालत का काम समाप्त हो चुका था। फिर बैठक पर कुछ वकील इकट्ठे हो गए। कहने लगे काम को रफ्तार पकड़ने में समय तो लगेगा। शायद सोमवार से मुकाम पर आ जाए। ठीक वैसे ही जैसे किसी दुर्घटना के बाद रुकी हुई गाड़ियाँ समय पर चलने में तीन-चार दिन लगा देतीं हैं। मध्यान्ह की चाय हुई, फिर मित्रों के बीच कुछ कानूनी सवालों पर विचार विमर्श चलता रहा। फिर एक मित्र के साथ कॉफी पी गई। तभी मुझे ध्यान आया कि मोबाइल बिल आज जमा न हुआ तो आउटगोइंग बार हो सकती हैं। एक सप्ताह बाहर रहने से वह जमा होने से छूट गया था। मैं तुरंत अदालत से निकल लिया और बिल जमा कराता हुआ घर पहुँचा।
ह बुधवार का दिन था और शोभा के व्रत था। वह आम तौर पर रात आठ बजे व्रत खोलती है। शाम की चाय के बाद कहने लगी -भोजन कितने बजे होगा। मैं ने कहा -जब तैयार हो जाए।  -मुझे भूख लगने लगी है। -तो बना लो। वह रसोई की ओर चल दी। इतने में उस के लिए फोन था। एक मित्र पत्नी का। खड़े गणेश चलने का न्योता था। शोभा रसोई छोड़ तुरंत चलने को तैयार होने लगी। कुछ ही देर में वे लोग आ गए। हम भी उन के साथ खड़े गणेश पहुँच गए।  कार पार्क कर हम मंदिर तक पैदल गए।  मित्र की पत्नी व बेटी  और शोभा  पीछे चल रही थी। पत्नी अपना ज्ञान बांटने में लगी थी -गुरूवार को केला भोग नहीं लगाया जाता।  मैं ने सवाल रखा  -गुरूवार को पूर्णिमा हो और सत्यनारायण का व्रत रखे तो क्या केले का भोग न लगेगा?  प्रत्येक  देसी कर्मकांडी की तरह पत्नी के पास उस का भी जवाब था। कहने लगी -वह तो गुरुवार का व्रत करने वालों और केले के पेड़ की पूजा करने वालों के लिए है, सब के लिए थोड़े ही है। मैं सोच रहा था कि स्त्रियाँ किस तरह समाज के टोटेम युग की स्मृतियों और रिवाजों को अब तक बचाए हुए हैं। वर्ना इतिहासकारों और दार्शिनकों के लिए सबूत ही नहीं बचते। गणेश तो बहुत बाद की पैदाइश हैं। आम तौर पर बुधवार को लंबी कतार होती है वहाँ। दो-दो घंटे लग जाते हैं दर्शन में। पर आज कतार बहुत छोटी थी। मैं कतार में लग गया। हम कोई आध घंटे में वहाँ से निपट कर वापस हो लिए। मैं ने रास्ते में पूछा -तुम्हें तो भूख लगी थी न? कहने लगी - वह तो अब भी लगी है पर यहाँ आने को मना कैसे करती।


खड़े गणेश 

भोजन तैयार होने में घंटा भर लगा होगा। पहले मैं बैठ गया और जब तक वह रसोई से निपट कर लौटती तब तक दफ्तर में लोग आने लगे थे। मुझे भी कुछ आश्चर्य हुआ कि जिस दफ्तर में तीन माह की शाम अक्सर मैं अकेला होता था उस में अदालत खुलते ही रौनक होने लगी। बिलकुल आश्चर्यजनक रूप से मैं दफ्तर से साढ़े ग्यारह पर छूटा हूँ। इस बीच कुछ लोगों से इस बात पर भी चर्चा हुई कि कोटा में पाँच बरस पहले एक अतिरिक्त श्रम न्यायालय स्थापित हो जाना चाहिए था, जिस के न होने से इस न्यायालय के न्यायार्थियों के लिए न्याय का कोई अर्थ नहीं रह गया है। हर वर्ष जितने मुकदमे निर्णीत हो रहे हैं उस से दुगने आ रहे हैं। इस गति से लंबित मुकदमे तो बीस साल भी नहीं निबट सकते। आखिर कुछ श्रम संगठनों ने इस के लिए सरकार को प्रतिवेदन भेजने का निर्णय किया और न सरकार के न मानने पर आंदोलन आरंभ करने का इरादा भी जाहिर किया। तो यूँ रहा आज का दिन। इतना लिखते लिखते तारीख बदल गई है।

मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

छुट्टियों का एक दिन ..... दिल्ली की ओर ........

दिसंबर 26, 2009 को इस ब्लाग पर आलेख लिखा था अब हुई छुट्टियाँ शुरू, और दिसंबर 27 को अली भाई की मजेदार टिप्पणी मिली .......

वकालत व्यवसाय है ...लत नहीं...सो छुट्टी मुमकिन है...पर ब्लागिंग लत है...व्यवसाय नहीं...कभी छुट्टी लेकर बताइये !
हाहाहा !




इंडिया  गेट  के सामने  खिले फूल
त ही सही, पड़ गई सो पड़ गई। और  भी कई लतें हैं जो छूटती नहीं। पर  उन का उल्लेख फिर कभी, अभी बात छुट्टियों की। दिसंबर 27 को दी इतवार (दीतवार) था। बेटी पूर्वा का अवकाश। सुबह का स्नान, नाश्ता वगैरह करते-करते इतना समय हो गया कि कहीं बाहर जाना मुमकिन नहीं था।  दिन में कुछ देर आराम किया फिर शाम को  बाजार जाना हुआ। पूर्वा को घर का सामान खरीदना था। जाते समय  तीनों पैदल गए। बाजार में सामान लेने के साथ एक-एक समोसा  खाया गया। वापस आते वक्त सामान होने के कारण दोनों माँ-बेटी को  रिक्शे पर रवाना कर  दिया । मैं पैदल  चला। रास्ते में पान की गुमटी मिली तो पान खाया, लेकिन वह मन के मुताबिक न था। पान वाले से बात भी की। वह कह रहा था। पान का धंधा हम पान वालों ने ही बरबाद कर दिया है। हम ही लोगों ने पहले गुटखे बनाए। लोगों को अच्छे  लगे तो पूंजी  वाले उसे ले  उड़े। उन्हों ने पाउचों में उन्हें भर दिया। खूब विज्ञापन  किया। अब गुटखे के ग्राहक हैं, पान के नहीं, तो पान कैसे मजेदार बने?  बड़े चौराहों पर जहाँ पान के दो-तीन सौ ग्राहक दिन में हैं, वहाँ अब भी पान मिलता है, ढंग  का। खैर उस की तकरीर सुन हम वापस लौट लिए।  शाम फिर बातें करते बीती। भोजन कर फिर एक बार पैदल निकले  पान की तलाश में इस बार भी जो गुमटी मिली वहाँ फिर दिन वाला किस्सा था। सोचता रहा कहीँ ऐसा न हो कि किसी जमाने में पान गायब ही हो ले। पर जब मैं मध्यप्रदेश और राजस्थान के अपने हाड़ौती अंचल के बारे में सोचता हूँ तो लगता है यह सब होने में सदी तो  जरूर ही  लग जाएगी।  हो सकता है तब तक लोगों  की गुटखे  की लत  वापस  पान पर लौट  आए।
स दिन कुछ और न लिखा गया। हाँ, शिवराम जी की एक कविता जरूर आप लोगों तक पहुँचाई। वह भी देर रात को। इच्छा तो यह भी थी कि तीसरा खंबा पर भारत का  विधि इतिहास की अगली  कड़ी लिख कर ही खुद को  रजाई के हवाले किया जाए। पर बत्ती जल रही थी। पूर्वा और उस की प्यारी  माँ  सो  चुकी थीं। मुझे लगा बत्ती उन की नींद में खलल डाल सकती है। देर रात तक जागने का सबब यह भी हो सकता है कि सुबह देर तक नींद न खुले। अगले दिन पूर्वा का अवकाश का  दिन था। हो सकता है वह सुबह सुबह कह दे कि कहीं घूमने चलना है, और मैं देर से नींद खुलने के कारण तैयार ही न हो सकूँ। आखिर मैं ने भी बत्ती बंद कर दी और रजाई की  शरण ली।
सुबह तब हुई, जब शोभा ने कॉफी की प्याली बिस्तर पर ही थमाई। कोटा में यह सौभाग्य शायद ही कभी मिलता हो।  मैं ने भी उसे पूरा सम्मान दिया।  बिना बिस्तर से नीचे उतरे पास रखी  बोतल से दो घूंट पानी गटका और कॉफी पर पिल  पड़ा।  हमेशा कब्ज की आशंका से त्रस्त आदमी के लिए यह खुशखबर थी, जो कॉफी का आधा प्याला अंदर जाने  के बाद पेट के भीतर से आ रही थी। जल्दी से कॉफी पूरी कर भागना पड़ा। पेट एक  ही बार में साफ हो लिया।  नतीजा ये कि स्नानादि से सब से पहले मैं निपटा। फिर शोभा और सब से बाद में पूर्वा। पूर्वा ने स्नानघर से बाहर निकलते ही घोषणा की कि दिल्ली घूमने चलते हैं। हम ने तैयारी आरंभ कर दी। फिर  भी घर से निकलते निकलते साढ़े दस बज गए। बल्लभगढ़ से 11.20 की  लोकल पकड़नी थी। टिकटघर पर लंबी लाइनें थीं। ऐसे  में टिकटबाबुओं को  तेजी से काम निपटाना  चाहिए। पर  वे पूरी सुस्ती से अपनी  ड्यूटी कर रहे थे। मुझे पुरा अंदेशा था कि टिकट  मिलने  तक  लोकल निकल  जाने वाली थी। पर पूर्वा किसी तरह टिकट  ले आई। लोकल दस मिनट लेट  थी, हम उस में सवार हो सके।  नई दिल्ली स्टेशन के लिए। 

स्टेशन पर  से बहुत भीड़ चढ़ी। पूर्वा और शोभा चढ़ीं महिला डब्बे में मैं  जनरल  में। बैठने का कोई  स्थान न था। गैलरी में  खड़ा रहा। फरीदाबाद से दो लड़के  चढ़े, बड़े-बड़े बैग लिए। भीड़ के कारण फंस गए थे वे। एक का सामान उठा कर आगे खिसकाया  तो  गैलरी में जगह हुई। दूसरा वहीं खड़ा रहा। उस ने बताया कि वह गाँव जा है,  भागलपुर, बिहार, उस का नाम अविनाश है। यहाँ दिल्ली में बी.ए. पार्ट फर्स्ट में पढ़ता है। मैं समझा वह भागलपुर के नजदीक किसी  गाँव का रहा होगा, पर उस ने बताया कि वह भागलपुर शहर का ही है। तो फिर वह बी.ए. पार्ट फर्स्ट  करने यहाँ दिल्ली क्यों आया? यह तो वह वहाँ रह कर भी कर सकता था ? पर उस ने खुद ही बताया कि वहाँ दोस्तों के साथ मटरगश्ती करते थे। इसलिए  पिताजी ने उसे यहाँ डिस्पैच कर दिया। यहाँ दो हजार में कमरा लिया है और एक डिपार्टमेंटल स्टोर पर सेल्समैन का  काम करता है। शाम तीन से ड्यूटी आरंभ होती है जो रात ग्यारह बजे तक चलती है। तीन बजे के पहले अपने क़ॉलेज पढ़ने जाते हैं। तब तक  अंदर  डब्बे  में  जगह हो गयी थी। अविनाश  अंदर डब्बे में  खसक  लिया।  उस की जगह दो और लड़के वहाँ आ कर  खड़े हो गए।  उन में से  एक  कोई बात  दूसरे को सुना रहा था।  वह हर वाक्य  आरंभ करने के पहले हर बार भैन्चो जरूर बोलता था। कोई  तीन-चार  मिनट में ही मेरे तो कान पक गए। पर उसे बिलकुल अहसास  नहीं था। वह उस का उच्चारण वैसे ही कर रहा था। हवन करते समय पंडित  हर मंत्र  के पहले ओउम  शब्द का उच्चारण करता है। मैं ने उन की बात से अपना ध्यान हटाने को 180 डिग्री घूम  गया। अब मेरा मुहँ अंदर सीट पर बैठै लोगों की ओर था। वहाँ सीट पर बैठी एक लड़की पास खड़े एक  लड़के के साथ  बातों में मशगूल थी। दोनों बांग्ला बोल रहे थे। मैं  उन  की बांग्ला समझने की कोशिश में लग  गया।
गे का विवरण  कल  पर दिल्ली में लिए कुछ चित्र  जरूर  आप  के लिए ......

शीशगंज गुरुद्वारा

बुधवार, 25 नवंबर 2009

उमंगों की उम्र में कोई क्यों खुदकुशी कर लेता है?

खिर चौदह नवम्बर का दिन तय हुआ, बल्लभगढ़ पूर्वा के यहाँ जाने के लिए। पत्नी शोभा उत्साहित थी। उस ने बेटी के लिए अपने खुद के ब्रांडेड दळ के लड्डू और मठरी बनाई थीं। पिछली बार बेसन के लड्डू जो वह ले गई थी उस में घी के महक देने की शिकायत आई थी। जिसे डेयरी वाले तक पहुँचाया तो उस ने माफी चाही थी कि दीवाली की मांग पर घी पहले से तैयार कर पीपों में भर दिया  गया था इस कारण से महक गया। इस बार शोभा ने खुद कई दिनों तक दूध की मलाई को निकाल कर दही से जमाया और बिलो कर लूण्या-छाछ किया, फिर लूण्या को गर्म कर घी तैयार किया। मुझे बताया गया तब वह महक रहा था, उसी देसी घी की तरह जो हमने बचपन में अपने घर बिलो कर बनाया जाता था। इस घी से बने लड्डू। यह सब तैयारी 13 को ही हो चुकी थी आखिर 14 को सुबह छह बजे की जनशताब्दी से निकलना था। रात नौ बजे पाबला जी को यह समझ फोन मिलाया कि वे दिल्ली पहुँच चुके होंगे। लेकिन तब वे लेट हो चुकी ट्रेन में ही थे जो उस समय बल्लभगढ़ के आसपास ही चल रही थी।
 सुबह हम जल्दी उठे, पति-पत्नी ने स्नान किया, तैयार हुए और बैग उठा कर पास के ऑटो स्टेंड पहुँचे। सुबह के  पाँच बजे थे। तसल्ली की बात थी कि वहाँ दो ऑटो खड़े मिले। न मिलते तो हमारी तैयारी काफूर हो जाती फिर किसी पड़ौसी को तैयार कर 12 किलोमीटर स्टेशन तक छोड़ने को कहना पड़ता। खैर हम ट्रेन के रवाना होने के  बीस मिनट पहले ट्रेन के डिब्बे में थे। पूरी ट्रेन आरक्षित होने के बावजूद एक चौथाई सवारियाँ हमारे पहले ही वहाँ अपना स्थान घेर चुकी थीं। ट्रेन एक मिनट देरी से चली। अभी चंबल पुल भी पार न किया था कि माल बेचने वाले आरंभ हो गए। चाय, कॉफी, दूध और फ्रूटी पेय के अतिरिक्त कुछ न था जो हमारे लिए उपयुक्त होता। शिवभक्त शोभा शादी के पहले से ही सोमवार और प्रदोष का व्रत रखती हैं। हमने खूब कहा कि अब तो जैसा मिलना था वर मिल चुका, अब तो इन्हें छोड़ दे पर उस ने न छोड़ा। (शायद अगले जन्म में हम से अच्छे की चाहत हो)  हम ने सोचा कोई दूसरा इसी जनम में बुक हो गया तो हम तो इन के साथ से वंचित हो जाएंगे। सो हम भी करने लगे, देखें कैसे दूसरा कोई बुक होता है। उस दिन सोमवार नहीं शनिवार था लेकिन प्रदोष था। इस लिए आधुनिक और देसी खाद्यों का विक्रय करने वाले उन रेलवे के हॉकरों का हम पर कोई असर न हुआ।


ट्रेन तेजी से गंतव्य की ओर चली जा रही थी, आधी दूरी से कुछ अधिक ही दूरी तय भी कर चुकी थी। अचानक  हमारे ही कोच में हमारे सामने वाले दूसरे कोने में हंगामा हो गया और वह दृश्य सामने आ गया जो कभी देखा न था। इमर्जैंसी खिड़की के पास से जंजीर खींची गई, ट्रेन न रुकी तो उस के बाद वाले ने, फिर उस के बाद वाले ने एक साथ पाँच स्थानों से जंजीर खींची गई। फिर वेक्यूम पास होने की जोर की आवाज आई और उसका अनुसरण करती ब्रेक लगने की, ट्रेन बीच में खड़ी हो चुकी थी। इसी लाइन पर कुछ दिन पहले ही एक ट्रेन की जंजीर सिपाहियों ने मुलजिम के अपने कब्जे से भाग निकलने के कारण खींची थी और खड़ी ट्रेन को दूसरी ट्रेन ने टक्कर मार दी थी। गार्ड  और कुछ अन्य सवारियों को मृत्यु अपने साथ ले गई। मेरी कल्पना में वही चित्र उभरने लगा था।



हले पता लगा कोई बच्ची खिड़की से गिर गई है। आखिर खिड़की से कैसे गिर गई? खिड़की में तो जंगला लगा है। बताया गया कि वह इमर्जेंसी खिड़की थी और जंगला खिसका हुआ था। फिर भी इस सर्दी में मैं खुद आस पास के शीशे शीतल हवा के आने के कारण बंद करवा चुका था। एक छोटी बच्ची वाले ने उस खिड़की का शीशा कैसे खुला रखा था? समझ नहीं आ रहा था। मैं उठा और उस ओर गया जहाँ से बच्ची के गिरने की बात कही गई थी। वहाँ जा कर पता लगा गिरने वाली बच्ची कोई 20-22 साल की लड़की थी और मर्जी से खिड़की से कूद गई थी। उस का पिता उस के साथ था जो उस वक्त टॉयलट गया हुआ था। सीट पर लड़की का शॉल पड़ा था जो उस ने कूदने के पहले वहीं छोड़ दिया था। सीट पर एक लड़का बैठा था। उस से पूछा कि उसने नहीं पकड़ा उसे? उस के पीछे वाले यात्री ने बताया कि इसे तो कुछ पता नहीं यह तो सो रहा था। उस लड़के ने कहा कि मैं जाग रहा होता तो किसी हालत में उसे न कूदने देता, पकड़ लेता। लड़की के पिता का कहीं पता न था। ट्रेन पीछे चलने लगी थी।
कोई दो किलो मीटर पीछे चल कर रुकी। आसपास देखा गया। फिर सीटी बजा कर दुबारा पीछे चली एक किलोमीटर चल कर फिर खड़ी हो गई। वहाँ ट्रेक के किनारे मांस के बहुत ही महीन टुकड़े छिटके हुए दिखाई दे रहे थे। लोग ट्रेन से उतर कर देखने लगे किसी ने आ कर बताया कि लड़की नहीं बची। उस के शरीर के कुछ हिस्से पिछले डिब्बे के पहियों से चिपके हैं। गाड़ी फिर पीछे चलने लगी। इस बार रुकी तो कुछ ही देर में लोगों ने आ कर बताया कि लड़की की बॉडी मिल गई है। पिता आया और अपना सामान समेट कर वहीं उतर गया।

मैं अपनी सीट पर आया तो सहयात्री ने बताया कि पहले वह लड़की और उस का पिता इसी सीट पर आ कर बैठा था। लड़की पिता के साथ जाने को तैयार न थी और उतरने को जिद कर रही थी। फिर जब सीट वाले आए तो दोनों उठ कर चले गए। उन्हें फिर वहीं सीट मिली जहाँ इमरजेंसी खिड़की थी। डब्बे में यात्री कयास लगाने लगे कि क्यों लड़की कूदी होगी। एक खूबसूरत लड़की के आत्महत्या करने पर जितने कयास लगाए जा सकते थे लगाए गए। मैं सोच रहा था। समाज आखिर ऐसे कारण क्यों पैदा करता है कि उमंगों भरे दिनों में कोई जवान इस तरह खुदकुशी कर लेता है?
ट्रेन पूरे दो घंटे लेट हो चुकी थी। बल्लभगढ़ पहुँची तो पूर्वा के शनिवार का अर्ध कार्यदिवस समाप्त होने वाला था। उसे फोन किया तो बोली मैं खुद ही आप को स्टेशन के बाहर मुख्य सड़क पर मिलती हूँ। हम ट्रेन से उतर कर अपना सामान लाद सड़क तक पहुँचे तब तक पूर्वा भी आ पहुँची। हम पूर्वा के आवास की और जाने वाले शेयरिंग ऑटो में बैठे। उस ने मुश्किल से आठ मिनट में पूर्वा के आवास के नजदीक उतार दिया। 

बुधवार, 4 नवंबर 2009

रेलवे प्लेटफॉर्म पर ठण्ड में सात घंटे

बेटा वैभव की एमसीए पूरी हुए चार माह हो चुके हैं उस का कैंपस चयन हुआ था। लेकिन प्लेसमेंट के लिए पहले कॉलेज वाले अक्टूबर का समय दे रहे थे। जब अक्टूबर नजदीक आने लगा तो उन्हों ने जनवरी-फऱवरी का समय दे दिया। उस के लिए बैठा रहना कठिन हो गया। अनेक लोगों ने सलाह दी कि उसे बंगलूरु जाना चाहिए। वहाँ उसे इस से पहले भी नियोजन मिल सकता है। आखिर उस ने रेल में आरक्षण करवा लिया। उस की गाड़ी 2 नवम्बर को 22:50 पर थी। लेकिन जयपुर में इंडियन ऑयल कारपोरेशन के डिपो में लगी आग ने जयपुर-कोटा मार्ग को बाधित कर दिया। हमने जानकारी की तो पता चला कि गाड़ी अजमेर-चित्तौड़गढ़ होते हुए 3 नवम्बर को एक बजे कोटा पहुँचेगी। हमें अनुमान था कि गाड़ी में और देरी हो सकती है। इस कारण नेट पर जानकारी लेनी चाही तो वहाँ केवल यह जानकारी उपलब्ध थी कि गाड़ी को जयपुर-कोटा के बीच दूसरे मार्ग पर डाल दिया गया है। टेलीफोन कोई उठा नहीं रहा था। आखिर मैं और पत्नी शोभा रात्रि सवा बारह घर से निकल लिए और करीब पौन बजे स्टेशन पहुँचे। कार पार्क कर के जैसे ही प्लेटफॉर्म टिकट लेने पहुँचे तो पता लगा गाड़ी तीन बजे आने की संभावना है।

म असमंजस में थे कि दो घंटा यहाँ प्रतीक्षा की जाए या 12 किलोमीटर वापस घर जाया जाए? फिर वहीं प्लेटफॉर्म पर प्रतीक्षा करना उचित समझा। प्लेटफार्म पर बहुत सी सवारियाँ गाड़ी के इंतजार में थीं। हम ने भी एक बैंच खाली देख कर वहाँ अपना अड्डा़ जमाया। यह स्थान प्लेटफार्म के एक कोने में था और चारों ओर से खुला था। वहीं एक महिला भी इसी गाड़ी की प्रतीक्षा में थी। वह झारखंड से आयी थी यहाँ कोचिंग ले रही अपनी बेटी से मिल कर बंगलूरु जा रही थी। उसे छोड़ने के लिए तीन लड़के आए थे जो उस की बेटी के सहपाठी थे। कुछ ही देर में हमारे लिए सर्दी बढ़ गई हवा चलती तो लगता आज जरूर बीमार हो लेंगे। सब लोग सर्दी का कुछ न कुछ इंतजाम किए थे। मैं सफारी में और शोभा साधारण साड़ी ब्लाउज में चले आए थे, वैभव भी केवल टी-शर्ट पहने था। कोटा में दो तरह के इलाके हैं, तालाब के दक्षिण में मौसम गर्म होता है और उत्तर  में कम से कम तीन चार डिग्री ठंडा। हमारे निवास पर ठंड़ी बिलकुल नहीं थी।  यहाँ हवा हलकी सी भी चलती तो कंपकंपी छूटने लगती। अधिक चली तो वैभव को तो उस के बैग में से जरकिन निकलवा कर पहनवा दी, हालांकि वह मना करता रहा था। मुझे सर्दी का इलाज यही नजर आया कि बैंच पर बैठने के बजाय प्लेटफार्म पर चहल कदमी करते रहा जाए।

यपुर की ओर से आने वाली तमाम गाड़ियाँ पाँच से आठ घंटे देरी से चलना बताया जा रहा था। शेष सभी गाडियाँ समय पर थीं। यहाँ तक कि एक गाड़ी तो समय से करीब 35 मिनट पहले ही प्लेटफार्म पर आ गई और समय से पाँच मिनट पहले ही चल भी दी। हर घंटे चार-पांच गाड़ियाँ स्टेशन से छूट रही थीं। मुझे पहली बार इस बात का अहसास हुआ था कि कोटा इतना व्यस्त स्टेशन हो गया है। इस बीच पत्नी के सुझाव पर हम पिता-पुत्र ने एक बार कॉफी पी जो केवल गर्म थी वरना उसे कॉफी कहना कॉफी का अपमान होता। पत्नी कुछ परेशान दिखी पूछा तो पता लगा उसे शौच जाने की जरूरत है। स्टेशन के शौचालय पहुँचे तो वहाँ बड़े खूबसूरत रात्रि में चमकने वाले पट्ट पर अंकित था कि स्नानघर का एक रुपए में, शौचालय का 50 पैसे में और मूत्रालय का निशुल्क प्रयोग किया जा सकता था। मैं सोच में पड़ गया कि इसे 50 पैसे कैसे दूंगा। वह सिक्का तो कोटा के लिए कभी का अजनबी हो चुका है और रुपया ही इकाई हो चला है। शोभा को शौचालय का प्रयोग करना था। चौकीदार इतनी गहरी नींद में था कि उसे अच्छी तरह हिलाने पर भी वह फिर से सो गया। पत्नी निपट कर बाहर निकली तो मैं ने उसे पैसे देने के लिए जगाने लगा तो पास बैठा एक होमगार्ड ने कहा -पाँच रुपए? मैंने उसे कहा -वहाँ तो 50 पैसा लिखा है। उस ने बताया कि वह बोर्ड तो बाबा आदम के जमाने का है। मैं ने सोचा शायद तब का हो जब ज्ञानदत्त जी इस स्टेशन पर पदस्थापित रहे हों। मेरे पास पांच-दस का नोट-सिक्का न था। मैं ने सौ का नोट पकड़ाया तो होमगार्ड को लड़के को जगाना पड़ा। सौ का नोट पकड़ते ही उस की नींद तत्काल उड़ गई। उस ने टेबल की दराज में लगा ताला खोला और मुझे 95 रुपए वापस दिए। उस से पूछा कि उसे इतनी नींद कैसे आ रही है? तो बताने लगा कि वह चौबीस घंटे का नौकर है और उसे 2000 रुपए मात्र हर महिने मिलते हैं और ठेकेदार को कम से कम आठ सौ रुपए रोज की उगाही देनी होती है। इस से कम हो तो तनख्वाह में से काट लेता है। वह चौबीसों घंटे स्टेशन पर रहता है। बस दिन में दो-चार बार इस स्थान से इधर-उधऱ होता है तो स्टेशन का कोई भी कर्मी उस की जिम्मेदारी देख लेता है। वहीं कुर्सी टेबल पर ही वह नींद भी निकाल लेता है।

म वापस बैंच पर आ गए थे। तीन बजने को ही थे कि घोषणा हुई कि ट्रेन अब पाँच बजे आएगी। हवा तेज हो चली थी, ठंड बढ़ गई थी। उसी मात्रा में रेल पर गुस्सा आने लगा था कि क्या रेल वाले गाड़ी की देरी का अनुमान लगा कर नहीं बता सकते कि वह कितनी लेट हो सकती है। कम से कम यात्री तब तक अपने ठिकानों पर तो रह सकते थे। मैं फिर प्लेटफार्म पर लेफ्ट-राइट करने लगा। दीगर गा़ड़ियाँ आती-जाती रहीं। पाँच भी बज गए लेकिन गाड़ी अब भी नदारद थी। पास की महिला कंबल में सिकुड़े बैठी थी। अब देरी उस की भी बर्दाश्त के बाहर जा रही थी। उसे छोड़ने आए लड़कों को उस ने विदा कर दिया था।  उस ने बोला -भाई साहब जरा इन्क्वाइरी से तो पूछ आओ कि ट्रेन कब आएगी? आएगी भी कि नहीं?

मैं और वैभव पुल पार कर पूछताछ पर आए तो वहाँ पहले ही चार-पाँच  पूछताछ करने वाले थे और जवाब देने वाले एक स्त्री और एक पुरुष। स्त्री बुरी तरह झल्लाई हुई और गुस्से में थी और तीन चार पूछताछ वालों को बेवकूफ कह रही थी। जब सब लोगों ने पूछताछ कर ली तो मैं ने अपनी गाड़ी के बारे में पूछा तो उस का जवाब था -वहाँ डिस्प्ले बोर्ड पर देखो। मैं ने उसे कहा कि वहाँ तो तीन बार समय बढ़ चुका है। मैं सिर्फ इतना जानना चाहता हूँ कि यह अब इतना ही रहेगा या और दो चार-बार आगे बढ़ाया जाएगा? इस सवाल पर महिला और झल्ला गई बोली -जयपुर में पाँच दिन से आग लगी है वह तो बुझाई नहीं जा रही है। हम से गाड़ियों के बारे में पूछते हैं। आएगी तभी आएगी। मैंने उसे इतना ही कहा कि रेलवे को इधर से निकलने वाली गाड़ियों के बारे में सब पता है। वे इतना तो अनुमान कर ही सकते हैं कि कौन सी गाड़ी निकलने में कितना समय लेगी? वही बता दें। उस में घंटा आध घंटा देरी हो जाए तो कोई बात नहीं। वह फिर बोल उठी -हमारे पास जो सूचना आती है वह बता देते हैं। आप उद्घोषणा पर ध्यान रखिए। उस से अधिक कुछ पूछना ठीक न था। उसे कुछ  भी अनुमान न था। मैं ने डिस्प्ले बोर्ड पर निगाह दौड़ाई तो वहाँ हमारी गाड़ी पौने छह बजे आने की संभावना रोशन हो रही थी।

मैं ने वापस आ कर उस महिला को बताया कि वहाँ पौने छह के लिए लिखा है, पर यह केवल संभावना है। साढ़े पाँच बजे अचानक गाड़ी के कोच दर्शाने वाले बोर्डों पर हमारी गाड़ी का नंबर दिखा तो हम आशान्वित हो उठे कि अब गाड़ी पोने छह नहीं तो छह तक तो आ ही लेगी। हमने बैंच त्याग दी और जहाँ हमारा डिब्बा दिखाया जा रहा था वहाँ आ खड़े हुए। छह बजे तक कोच स्थिति दिखाई जाती रही। फिर बोर्ड बुझ गए। कुछ देर बाद गाड़ी आती दिखाई दी तो हम बिलकुल तन कर खड़े हो गए। पास आने पर पता लगा वह कोई अन्य पैसेंजर गाड़ी थी। वह आधे घंटे खड़ी रह कर चल दी। फिर पौने सात बजे फिर कोच स्थिति दिखने लगी। राम-राम करते गाड़ी पौने सात प्लेटफार्म पर लगी। वैभव को बैठाया। गाड़ी ने सात बीस पर स्टेशन छोड़ा तो हम ने वापस घर की तरफ प्रस्थान किया। तब तक सूरज बहुत ऊपर आ चुका था। ठंड से पैर और पीठ अकड़ चुकी थी। प्लेटफार्म पर टहलने के कारण पिंडलियाँ बुरी तरह दर्द कर रही थीं। शोभा से पूछा तो उस का भी यही हाल था। मैं ने उसे बताया कि घर पहुँचते ही अदरक वाली गर्म कॉफी पिएंगे उस के बाद एकोनाइट-200 की एक-एक खुराक खा कर सोएँगे। घर पहुँचने पर यह सब किया, फिर गृहणी तो घर संभालने में लगी। मैं ने दिन के काम की रूप रेखा देखी और पीछे के कमरे में कंबल ओढ़ कर सो गया। मुश्किल से दो घंटे सोया उस में भी चार बार फोन घनघनाहट ने व्यवधान किया लेकिन हमने उस की उपेक्षा की। अभी भी लग रहा है कि हम दोनों को सामान्य होने में एक-दो दिन लगेंगे। रात साढे़ ग्यारह पर वैभव ने फोन पर बताया कि गाड़ी दो घंटे और पीछे हो गई है और नागपुर के पहले किसी छोटे अनजान स्टेशन पर खड़ी है।

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

स्वादिष्ट भोजन बना कर मित्रों को खिलाने और साथ खाने का आनंद

पिताजी को भोजन बनाने, खिलाने और खाने का शौक था। वे अक्सर नौकरी पर रहते और केवल रविवार या किसी त्यौहार के अवकाश के दिन घर आते।  अक्सर मौसम के हिसाब से भोजन बनाते। हर त्यौहार का भोजन भिन्न  होता। गोगा नवमी को कृष्ण जन्मोत्सव पर मालपुए बनते, कभी लड्डू-बाटी कभी कुछ और। हर भोजन में उन के चार-छह मित्र आमंत्रित होते। उन्हें भोजन कराते साथ ही खुद करते।

 श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मण को भोजन कराने का नियम है। लेकिन उस से अधिक महत्व इस बात का है कि उस के उपरांत आप को परिजनों और मित्रों के साथ भोजन करना चाहिए। इस से हम अपने पूर्वजों के मूल्यों व परंपराओं को दोहराते हुए उन का का स्मरण करते है। श्राद्ध के कर्मकांड को एक तरफ रख दें, जिसे वैसे भी अब लोग विस्मृत करते जा रहे है, तो मुझे यह बहुत पसंद है।  मामा जी अमावस के दिन नाना जी का श्राद्ध करते थे। दिन में ब्राह्मण को भोजन करा दिया और सांयकाल परिजन और मित्र एकत्र होते थे तो उस में ब्राह्मणों की अपेक्षा बनिए और जैन अधिक हुआ करते थे। मुझे उन का इस तरह नाना जी को स्मरण करना बहुत अच्छा लगता था। नाना जी को या उन के चित्र को मैं ने कभी नहीं देखा, लेकिन मैं उन्हें इन्हीं आयोजनों की चर्चा के माध्यम से जान सका। लेकिन मेरे मस्तिष्क में उन का चित्र बहुत स्पष्ट है। 

यही एक बात है जो मुझे श्राद्ध को इस तरह करने के लिए बाध्य करती है। आज पिताजी का श्राद्ध था। सुबह हमारे एक ब्राह्मण मित्र भोजन पर थे। शाम को मेरे कनिष्ट, मुंशी और मित्र भोजन पर थे। नाटककार शिवराम भी हमारे साथ थे। उन की याद तो मुझे प्रातः बहुत आ रही थी। यहाँ तक कि कल सुबह की पोस्ट का शीर्षक और उस की अंतिम पंक्ति उन्हीं के नाटक 'जनता पागल हो गई है' के एक गीत से ली गई थी। रविकुमार ने उस गीत के कुछ अंश इस पोस्ट पर उद्धृत भी किए हैं। उन्हों ने न केवल इस पोस्ट को पढ़ा लेकिन यह  भी बताया कि अब नाटक में मूल गीत में एक पैरा और बढ़ा दिया गया है। मेरा मन उसे पूरा यहाँ प्रस्तुत करने का था। लेकिन फिर इस विचार को त्याग दिया क्यों कि अब बढ़ाए गए पैरा के साथ ही उसे प्रस्तुत करना उचित होगा। वह भी उस नाटक की मेरी अपनी स्मृतियों के साथ।  उन्हों ने बताया कि उन के दो नाटक संग्रहों का विमोचन 20 सितंबर को होने जा रहा है। उन पुस्तकों को मैं देख नहीं पाया हूँ। शिवराम ने आज कल में उन के आमुख के चित्र भेजने को कहा है। उन के प्राप्त होने पर उस की जानकारी आप को दूंगा।
फिलहाल यहाँ विराम देने के पूर्व बता देना चाहता हूँ कि शोभा ने पूरी श्रद्धा और कौशल के साथ हमें गर्मागर्म मालपुए, खीर, कचौड़ियाँ, पूरियाँ खिलाईं। शिवराम अंत में कहने लगे आलू की सब्जी इन दिनों बढ़िया नहीं बन रही है लेकिन आज बहुत अच्छी लगी। केवल आलू की सब्जी खा कर भोजन को विश्राम दिया गया। स्वादिष्ट भोजन बना कर मित्रों को खिलाना और साथ खाने के आनंद का कोई सानी नहीं। नगरीय जीवन में यह आनंद बहुत सीमित रह गया है।

बुधवार, 15 जुलाई 2009

भौतिक परिस्थितियाँ निर्णायक होती हैं।

कल मैं ने आप को बताया था कि कैसे तीन दिन चौड़ी पट्टी बंद रही और वह समय आकस्मिक रूप से घटी दुर्घटनाओं ने लील लिया।  हम कुछ विशेष करने का कितना ही विचार करें लेकिन उन का सफल हो पाना सदैव भौतिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है। कल जिस मित्र के साथ दुर्घटना हुई थी। मैं रात्रि को उन से मिलने के लिए अस्पताल पहुँचा तो वे एक्स-रे के लिए गई हुई थीं। लगभग पूरे शरीर का एक्स-रे किया गया। शुक्र है कि  सभी अस्थियाँ बिलकुल सही पाई गईं। सिर पर कुछ टाँके आए। लेकिन शरीर पर अनेक स्थानों पर सूजन थी।  मित्र ने बताया कि दुर्घटना की सूचना पुलिस को देना है। पत्नी को पहले चिकित्सा के लिए लाना आवश्यक था इस कारण से नहीं कराई जा सकी।  लेकिन रात्रि को दस बजे घायल पत्नी को छोड़ रिपोर्ट दर्ज कराने जाना संभव नहीं था। मैं ने बताया कि संबंधित पुलिस थाना को मैं सूचना कर दूंगा। 

मित्र परिवार सहित कार से बाराँ जा रहा था। कोटा से सात-आठ किलोमीटर दूर ही गए होंगे कि सामने से एक ऑटोरिक्षा आया और वह बाएँ जाने के स्थान पर दाहिनी ओर जाने लगा।  मित्र को वाहन और बाएँ लेने के लिए स्थान नहीं था। दुर्घटना बचाने के लिए उन्हें कार को दाएँ लाना पड़ा तब तक शायद ऑटो रिक्षा को स्मरण हुआ होगा कि उसे तो बाएँ जाना था। उस ने उसे बाएँ किया और कार को सीधे टक्कर मार दी। ऑटोरिक्षा तीन बार उलट गया। चालक को भी चोट लगी। लेकिन वह शराब के नशे में था उस ने अपना ऑटो-रिक्षा सीधा किया और स्टार्ट कर चल दिया।  मित्र की कार बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुकी थी। उन्हों ने किसी दूसरी कार से लिफ्ट लेकर पत्नी को अस्पताल पहुँचाया।  बीमा कंपनी ने कार को मौके से उठवा कर अपने रिपेयर के यहाँ पहुँचा दिया।  मैं ने अस्पताल से घर पहुँच कर पुलिस थाना का मेल पता तलाश किया लेकिन नहीं मिला। लेकिन पुलिस कंट्रोल रूम और पुलिस अधीक्षक का ई-मेल पता मिल गया। तुरंत उन्हें दुर्घटना की सूचना भेजी, जिस में मित्र का मोबाइल नंबर दे दिया। सुबह मित्र के पास पुलिस थाने से फोन आया कि वे दुर्घटना की प्राथमिकी पर थाने आ कर हस्ताक्षर कर जाएँ।

इस तरह की बहुत शिकायत आती है कि पुलिस अपराध की रिपोर्ट दर्ज नहीं करती है। इस का आसान तरीका यह है कि संबंधित पुलिस थाने को या पुलिस कंट्रोल रूम या पुलिस एसपी को वह ई-मेल के माध्यम  से भेज दी जाए। उस पर कार्यवाही जरूर होती है। आप के पास ई-मेल की साक्ष्य रहती है कि आप ने रिपोर्ट पुलिस को यथाशीघ्र दे दी थी।  भारतीय कानून में अब इलेक्ट्रोनिक दस्तावेज साक्ष्य में ग्राह्य हैं। ई-मेल के पते सर्च कर के पता किए जा सकते हैं। भारत में सब राज्यों की पुलिस की वेबसाइट्स हैं जिन पर कम से कम एसपी और कंट्रोलरुम के ई-पते सर्च करने पर मिल जाते हैं।

आज दोपहर बाद मित्र की पत्नी को अस्पताल से छुट्टी मिल गई। वे घर आ गईं।  शाम को मैं और मित्र पुलिस थाने पहुँचे। थानाधिकारी ने अत्यन्त सज्जनता का व्यवहार किया। रिपोर्ट दर्ज की लेकिन अस्पताल की आलोचना की कि उन्हों ने दुर्घटना के घायल के अस्पताल में दाखिल करने की सूचना पुलिस थाने को नहीं दी। यदि यह सूचना उन्हें मिल जाती तो रात्रि को ही थाने का एक हेड कांस्टेबल जा कर रिपोर्ट दर्ज कर लेता। रिपोर्ट करवा कर मित्र को उन के घर छोड़ा।  रात्रि दस बजे मैं पत्नी के साथ घर पहुँचा तो दूध लाने का स्मरण हो आया। मै ने अपनी कार वहीं से मोड़ ली और दूध की दुकान का रुख किया। मैं दूध की दुकान से कोई दस मीटर दूर था, कार की गति कोई दस किलोमीटर प्रतिघंटा थी,  उसे दस मीटर बाद रोकना था।  बायीं और से अचानक एक मोटर साइकिल तेज गति से आयी और मेरी कार के आगे के बाएं दरवाजे पर जोर से टकराई। इसी दरवाजे के पीछे कार में पत्नी शोभा थी। शुक्र है उसे किसी तरह की चोट नहीं आई।  लेकिन बायाँ दरवाजे का निचला हिस्सा बुरी तरह अंदर बैठ गया उस में कुछ छेद हो गए।  टक्कर मारने वाली मोटर साइकिल पर तीन सवार थे।  वे गिर गए। उन्हें चोटें भी लगीं।  एक को अधिक चोट लगी होगी।  सब से पहले दूध वाला दौड़ कर  आया, आस पास के सारे दुकानदार और अन्य लोग भी एकत्र हो गए।  मैं नीचे उतरा, लेकिन इस से पहले कि कोई मोटर साइकिल का नंबर नोट कर पाता।  उस के सवार तुरंत मोटर साइकिल पर बैठ भाग छूटे।


मैंने दुकान से दूध लिया और कार से अपने घर पहुँचा। कार को कल वर्कशॉप भेजना पड़ेगा।  लेकिन घर आ कर विचार आया कि पुलिस को सूचित करना चाहिए।  अन्यथा मोटर साइकिल सवार यदि पुलिस थाना पहुँच कर रिपोर्ट लिखाएंगे तो दोष उन का होते हुए भी मुझे दोषी ठहराया जा सकता है।  मैं ने तुरंत टेलीफोन से पुलिस थाने को दुर्घटना की सूचना दी और उन्हें बताया कि मोटर सायकिल चालक को तलाश कर पाना असंभव है, यदि वह खुद ही पुलिस थाने न आ जाए।  उन्हों ने बताया कि यदि वे थाने आए तो वे उन की रिपोर्ट दर्ज करने के पहले मुझे बुलवा भेजेंगे।  मैं ने राहत की साँस ली।  आज बहुत काम करना था, कल के मुकदमों की तैयारी करनी थी।   लेकिन सब छूट गया, केवल वही तैयारी कल काम आएगी जो पहले से उन मुकदमों में की हुई है।  सही है, भौतिक परिस्थितियाँ निर्णायक होती हैं।


मंगलवार, 9 जून 2009

जुगाड़ स्कूल -बस और शादी से वापसी

राजस्थान के  कोटा संभाग के बाराँ जिले का कस्बा अंता है जहाँ के हाट के चित्र आप ने कल देखे।  राष्ट्रीय राजमार्ग 76 पर कोटा से बाराँ-शिवपुरी की ओर चलने पर 45 किलोमीटर पर कालीसिंध नदी पार करने के चार किलोमीटरबाद यह कस्बा पड़ेगा।  राजस्थान का कोटा संभाग विद्युत उत्पादन में प्रमुख है यहाँ विद्युत उत्पादन का हर तरीका अपनाया जा रहा है।  रावतभाटा का परमाणु बिजलीघर चित्तौड़ जिले में है, लेकिन कोटा से 50 किलोमीटर पर स्थित होने से उस का जुड़ाव कोटा से अधिक और चित्तौड़गढ़ से कम है। जवाहर सागर में पनबिजलीघर है तो कोटा में कोयले से चलने वाले ताप बिजलीघर की सात इकाइयाँ स्थित हैं। अभी छबड़ा में एक इकाई और स्थापित की जा रही है।  राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम (एनटीपीसी) का एक बिजलीघर  इसी अंता कस्बे से मात्र चार किलोमीटर दूर स्थित है।  कस्बे से दूर होने और सीधे कोटा से जुड़ाव के कारण इस बिजलीघर ने अंता कस्बे के विकास को विशेष प्रभावित नहीं किया।  लेकिन शिक्षा के प्रति रुचि का विकास अवश्य हुआ है।  15000 आबादी के इस कस्बे में अनेक निजि विद्यालय हैं। कुछ बहुत संपन्न तो कुछ विकास की अवस्था में हैं।

इन्हीं विद्यालयों में से एक श्रीनाथ शिक्षण संस्थान उसी धर्मशाला में संचालित होता है जिस में कल विवाह के भोजन की व्यवस्था थी।  कल आप ने भोजन के भंडार और रसोई के चित्र देखे थे।  हमने इसी धर्मशाला के बरांडों में बैठ कर भोजन किया।

भोजनोपरांत लोग सुस्ताने के लिए या तो कमरों में लगे कूलरों की शरण हो गए। वहाँ स्थान न रहने पर नीम के पेड़ों के नीचे गपशप में लीन हो गए। 

वहीं हमें इस जुगाड़ स्कूल-बस के दर्शन हुए।  ऐसी स्कूल बस जिस का कहीं कोई पंजीकरण नहीं। यह भी जरूरी नहीं कि उसे कोई लायसेंसधारी चालक चला रहा होगा।  विद्यालय को समुचित शुल्क देने वाले माता-पिता इस वाहन में अपने बच्चों को विद्यालय भेज रहे हैं।  फिलहाल विद्यालय गर्मी की छुट्टियों में बंद हैं और यह विद्यालय वाहन भी यार्ड में खड़ा है।  कोई इसे न छेड़े इस के लिए ड्राइवर सीट और सवारियों के बैठने के स्थान पर करीर के कांटों वाले झाड़ रख दिए गए हैं।  हाँ, इतना जरूर सोचा जा सकता है कि इस में बैठने वाले बच्चे अवश्य ही तमाम खतरों से अनजान इस अनोखे वाहन का आनंद अवश्य लेते होंगे।

 
 दूल्हे के नाना-मामा अपने पूरे परिवार सहित (माहेरा) ले कर आए थे।  
 
 
 
 
उन्हों ने अपनी बेटी को इस अवसर पर सुहाग के सब चिन्ह, चूनरी, गहने और कपड़े उपहार में दिए।  साथ ही बेटी के पूरे परिवार को भी कपड़े भेंट किए।  

हमारे मेजबान
 
दूल्हे के अध्यापक पिता

दूल्हे के चाचा और मेरे साढ़ू भाई

............... और इन से मिलना तो रह ही गया 
ये हैं दूल्हे मियाँ,  कम्प्यूटर प्रशिक्षक


चलते-चलते रात हो गई, कुछ देर बिजली भी चली गई

तब झाँका नीम के पीछे से चंदा, जैसे झाँकी हो दुलहिन......