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शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

हमें ये परंपराएँ बदलनी होंगी


पूर्वाराय एक जनसांख्यिकीविद (Demographer) है, और वर्तमान में जनस्वास्थ्य से जुड़ी एक परियोजना में शोध अधिकारी है। अनवरत पर प्रकाशित उन के आलेख लड़कियों का घर कहाँ है?  पर Mired Mirage, की प्रतिक्रिया से आरंभ उन का आलेख पुनः समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ।  उसे ही यहाँ पुनर्प्रस्तुत किया जा रहा है। 

हमें परंपराएँ बदलनी होंगी  
- पूर्वाराय द्विवेदी


टते लिंगानुपात पर बात करते हुए एक महिला ने बताया कि "उनकी दो बेटियाँ हैं और उन्हें अच्छे से याद है कि दूसरी बेटी के जन्म पर एक एंग्लो इंडियन सहेली के सिवाय किसी ने उनके जन्म की बधाई नहीं दी थी। दूसरी बेटी के जन्म के तुरन्त बाद जब पति बिटिया की फोटो पर फोटो लिए जा रहे थे और हस्पताल से घर जाते समय आया-नर्सों को बक्शीश दे रहे थे तो वे दंग थीं। बिना बेटा हुए परिवार नियोजन का ऑपरेशन करने को कहा डॉक्टर दंग थी। मैं हस्पताल में सारा दिन चहकती हुई नवजात बिटिया से बतियाती लाड़ लड़ाती थी तो सब देखते रह जाते थे। हम खुश थे, यह बात लोगों के गले नहीं उतरती थी। शायद स्वाभाविक यह होता कि हम दुखी होते। इस पर भी लोग पूछते हैं कि क्या सच में भारत स्त्रियों के लिए खतरनाक स्थान है? समाज में लड़कियों का अनपात हम सही करना चाहते हैं तो केवल एक ही उपाय है। हर लड़की कमाकर अपने माता पिता को दे, उनकी बुढ़ापे की लाठी बने। शायद हमारे समाज में रुपया ही बोलता है, संतान स्वार्थ के लिए पैदा की जाती है। बेटी माता पिता को इतना दे और कुछ न ले कि लालची माता पिता बेटियों को जन्म देने लगें। कड़वा तो है यह किन्तु शायद यही सच है।"

जॉन काल्डवेल (जनसांख्यिकिविद)
क्त महिला की इस बात पर मुझे एक मास्टर्स में पढ़ा हुआ जनसांख्यिकीविद (डेमोग्राफर) जॉन कॉल्डवेल द्वारा 1976 वेल्थ प्रजनन पर एक सिद्धांत याद आया जो विकासशील देशों के प्रजनन आचरण को समझाती था। उन्होंने वेल्थ-फ्लो यानि धन प्रवाह, माल (सामान), पैसा और सेवाओं को बच्चों से माता-पिता तथा माता-पिता से बच्चों के सन्दर्भ में परिभाषित किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार एक समाज में, अगर बच्चे माता-पिता के लिए आर्थिक रूप से उपयोगी हों तो प्रजननता अधिक होती है और यदि बच्चे माता-पिता के लिए आर्थिक रूप से फायदेमंद ना हों तो वह कम हो जाती है। धन का यह प्रवाह सभी परंपरागत समाजों में युवा पीढ़ी से पुरानी पीढ़ी में होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो इन समाजों में बच्चे माता–पिता की लिए शुद्ध आर्थिक परिसम्पति होते हैं। इस प्रसंग में ज्यादा बच्चे मतलब ज्यादा धन।

नके अनुसार किसान समाज बड़े विस्तृत संयुक्त परिवार में बच्चे, बहुएँ, पोते इत्यादि घर के कामों में बहुत योगदान देते हैं, और बच्चे कृषि, इंधन-संग्रह, पानी-भरने, सामान और सन्देश लाने ले जाने, छोटे भाई बहनों को संभालने, जानवरों की देखभाल करने जैसे कामों में बहुत मदद करते हैं। आदवासी समाज में बच्चे शिकार और भोजन इकठा करने के साथ ही साथ बुजुर्गों की देखभाल में भी मदद करते हैं। बचपन से युवा होने तक वो काफी सारे कामों में मदद करते हैं। इन समाजो में ज्यादा बच्चे होना लाभदायक है। आधुनिक समाज में देखें तो परिवार में भावनाएँ और आर्थिक एकलता (nucleation) बहुत है। यहाँ सामान्यतः माता-पिता अपने और अपने बच्चों के बारे में ही सोचते हैं तथा विस्तृत परिवार से परहेज रखते हैं। काल्डवेल का यह सिद्धांत प्रजनन आचरण दर्शाने की लिए था। किन्तु ये सिद्धांत कहीं न कहीं ऊपर महिला द्वारा कही गई बात से बहुत मिलता है और उस की व्याख्या करता है।

क्या हम बच्चों को विशेषकर बेटों को आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा की रूप में नहीं देखते? हम भले ही इस सचाई को मानने से इनकार कर दें, पर क्या बेटा के पैदा होने पर माता-पिता ये नहीं सोचते की वो हमारा सहारा बनेगा? बचपन से लेकर युवा होने तक माता-पिता हर संभव कोशिश करते हैं जिससे उनका बेटा अच्छे से स्थापित हो सके। क्योंकि माता पिता का भविष्य भी उनके बेटों के भविष्य से ही जुड़ा हुआ रहता है। वे सोचते हैं कि ढलती उम्र में बेटा ही उनका सहारा हो सकता है। तभी तो माँ-बाप बच्चों के लिए भविष्य के बारे में सोचते-सोचते कई बार अपने ही भविष्य की आर्थिक व्यवस्था के लिए कुछ नहीं करते। जिस का खामियाजा उन्हें आगे जाकर तब भुगतना पड़ता है जब बच्चे अपने भविष्य की बारे में सोचते समय अपने माता-पिता को भूल जाते हैं क्योंकि वहाँ से उन्हें किसी तरह का लाभ नहीं होता।

स सब से ये लगता है कि बेटा माता-पिता के लिए भविष्य का आर्थिक निवेश है। सिर्फ आर्थिक ही क्यों वह भावनात्मक सहारा भी होता है क्यों कि वह उनके साथ रहेगा। तभी तो बहुत दुःख और दर्द होता है जब एक बेटा माता–पिता को उनकी ढलती उम्र में सहारा नहीं देता, या कहें कि उनका किया गया निवेश असफल हो जाता है। देखा जाये तो इसमें कुछ गलत नहीं है। जब सारा समाज एक जैसा व्यवहार कर रहा हो तो वो गलत तो नहीं होता है। जब माता-पिता अपने बच्चों के लिए कुछ कर रहे हैं तो बच्चों का भी फ़र्ज़ बनता है उनके लिए कुछ करने का। आखिर ये दुनिया आदान प्रदान पर ही तो निर्भर है। पर यह गलत तब होता है जब इससे किसी का नुकसान हो, किसी को दुख पहुँचे। अब क्योंकि बेटा आर्थिक और भावनात्मक सुरक्षा दे सकता है, तो स्वाभाविक ही है कि सभी बेटे की उम्मीद करेंगे। पर क्या ये सब एक बेटी नहीं दे सकती? आज कल तो बेटियां भी आर्थिक रूप से इतनी सक्षम होती है कि वे अपने माँ बाप को सहारा दे सकती हैं। कई बार तो बेटी अपने माता-पिता के बेटे से ज्यादा भावनात्मक रूप से करीब होती है। फिर बेटे और बेटी में इतना फर्क क्यों होता है कि बेटी को पैदा होने से पहले ही उसको खत्म कर दिया जाता है। उसे तो मौका भी नहीं मिलता कुछ करने का, कुछ बनने का। कम से कम उसे मौका तो मिलना ही चाहिए। जब बेटे को मौका मिल रहा है, तो बेटी को क्यों नही? आज जिस तरह से लड़कियों की संख्या कम हो रही है उसके लिए तो ज़िम्मेदार हमारा समाज ही है, जिसे हमने ही बनाया है। जब एक बच्चा बिगडता है तो उसके लिए माता-पिता को उसकी परवरिश के लिए उसका जिम्मेदार बताया जाता है, तो जब हमारे समाज में हमारी बनाई कुछ परम्पराओं की वजह से कुछ गलत हो रहा है, तो इसके लिए भी हम ही ज़िम्मेदार हैं।

रम्पराएँ जो कहती हैं कि बेटी तो पराया धन है, कन्यादान से बड़ा कोई दान नहीं होता। अगर कन्यादान से बड़ा कोई दान नहीं है, तो फिर क्यों एक बेटी की शादी के लिए उसके माता-पिता को दहेज देना पड़ता है। देखा जाए तो सब जगह बेटी होने से नुक्सान और बेटे से फायदा ही नज़र आता है। तो फिर बेटी होने पर सरकार पैसा दे या उसकी पढ़ाई की फीस में छूट दे, इस से लड़कियों की संख्या नहीं बढ़ेगी। जब तक हम खुद अपने समाज की परंपराओं को नहीं बदलेंगे कुछ नहीं बदल सकता।

क्या हम ऐसा समाज नहीं बना सकते? जहाँ सब बराबर हों, लड़के और लड़की में कोई फर्क ना हो। माता-पिता जो एक बेटे के लिए करे, वही बेटी के लिए भी करे। जहाँ बेटी को अधिकार हो की शादी के बाद भी वो अपने माता पिता की सहायता कर सके। अगर माता पिता बेटे के साथ रह सकते हैं, तो बेटी के साथ भी रह सकते हैं। जहाँ एक बेटी को अपने ही माता पिता की छुप कर मदद ना करनी पड़े। किसी को अपनी ही बेटी की शादी के लिए पैसा न देना पड़े। फिर शायद माँ-बाप बेटी होने पर भी वही खुशी मनाने लगेंगे, जो बेटे के होने पर मनाते हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसे माता-पिता नहीं हैं, आज भी कई माता-पिता हैं, जो बेटी होने की उतनी ही खुशी मनाते हैं जितना बेटे होने की, जो बेटे के लिए करते हैं वही बेटी के लिए भी। पर उन की संख्या कितनी है? ज्यादा नहीं, वरना आज ये नौबत ना आती कि सरकार पैसा दे रही है, ताकि लड़की पैदा हो सके। ये सरकार का काम नहीं बल्कि हमारा, उस समाज का काम है जिसमें हम रहते हैं, जिसे हमने ही बनाया है, और हमने जो गलत किया है उसे ठीक भी हमें ही करना होगा।

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

लड़कियों का घर कहाँ है?


णितीय और जनसंख्या विज्ञान की स्नातकोत्तर पूर्वाराय द्विवेदी जनसंख्या विज्ञानी है और वर्तमान में वर्तमान में जनस्वास्थ्य से जुड़ी एक परियोजना में शोध अधिकारी है। 2011 के भारत की जनगणना के प्रारंभिक परिणाम सामने आए तो मैं ने उस से पूछा कि परिणाम जानने के बाद उस की पहली प्रतिक्रिया क्या है? तो उस ने यह आलेख मुझे प्रेषित किया। 

लड़कियों का घर कहाँ है?

-पूर्वाराय द्विवेदी


जनगणना 2011 के अनन्तिम परिणाम आ चुके हैं, जो कुछ अच्छे तो कुछ बुरे हैं। पर लगता है इस बार सरकार वाकई चौंक गई है। छह वर्ष तक के बच्चों के लिंग अनुपात में जिस तरह से गिरावट आई है उसे देख कर ये तो पता लग ही रहा है कि सरकार और गैर सरकारी संस्थाओं के द्वारा चलाई गए कार्यक्रम कितने सफल रहे हैं। हरियाणा (830) और पंजाब (846) ने छह वर्ष तक के बच्चों में न्यूनतम लिंग अनुपात में बाजी मारी है, तो दिल्ली भी पीछे नहीं है। 1981 से 2011 तक के जनगणना परिणामों पर नजर डालें तो लड़कियों की संख्या लड़कों के मुकाबले कम ही होती गयी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम जैसे-जैसे आर्थिक-तकनीकी रूप से विकसित हो रहे हैं, हमारी सोच गिरती जा रही है?
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफाइल के आँकड़ों के अनुसार 2009 में मध्य प्रदेश में सर्वाधिक कन्या-भ्रूण हत्या के 23 व कन्या-शिशु मृत्यु के 51 मामले मिले हैं। ये तो वे मामले हैं जो पता चले हैं। न जाने कितने और मामले ऐसे होंगे जिन का पता ही नहीं लगता। पहले हुए अध्ययनों के अनुसार हमारे देश में रोज 2000 लड़कियाँ गायब हो रही हैं, यह आँकड़ा पूरे वर्ष के लिए 5 से 7 लाख तक जाता है। यह सब कन्या-भ्रूण हत्या का सीधा परिणाम है। जिस परिवार में एक लड़की है, वहाँ इस बात के 54% अवसर हैं कि दूसरी लड़की जन्म लेगी। दिल्ली के एक अस्पताल में जब कुछ औरतों से पूछा गया कि आप कितनी खुश हैं? तो एक औरत बोली कि वह अभी तनाव में है, क्योंकि उसने लड़की को जन्म दिया है, वह अभी अपने पति से नहीं मिली है, उसे आशा करती है कि उस का पति लड़की पैदा होने से खुश ही होगा। एक अन्य औरत खुश और निश्चिंत है क्योंकि उसने लड़के को जन्म दिया है। उस के एक लड़की पहले से ही है और वह जानती है कि उस का पति खुश होगा और परिवार वाले भी खुशियाँ मना रहे होंगे। हमारे यहाँ तो शायद माँ बन कर भी औरत को सुकून नहीं मिलता, खुशी तो बहुत दूर की बात है।

सरकार कह रही है कि जहाँ कन्या-भ्रूण हत्या और कन्या-शिशु मृत्यु दर अधिक है, वहाँ वह भ्रूण-लिंग-परीक्षण तकनीक कानून को अधिक कड़ाई से लागू करेगी। पर क्या वास्तव में वह ऐसा कर सकेगी? हरियाणा सरकार तो लड़की होने पर धन भी दे रही है फिर भी वह कन्या-भ्रूण हत्या और कन्या-शिशु मृत्यु-दर को कम नहीं कर पा रही है। हमें पता नहीं लगता जब तक कि हमें अखबार या मीडिया ये नहीं बताता है कि पुलिस ने आज यहाँ छापा मारा, यहाँ इतनी लड़कियों के कंकाल दबे मिले। वे कहते हैं ना कि जब प्यास लगती है तो प्यासा कुआँ तलाश कर ही लेता है। ऐसा ही यहाँ है, जब किसी को लड़की नहीं चाहिए तो वह उस से छुटकारा पाने का तरीका भी तलाश लेता है।

यदि सरकार कन्या-भ्रूण हत्या और कन्या-शिशु मृत्यु को रोक भी लेती है तो वह लड़कियों की स्थिति को कैसे सुधारेगी? वह एक लड़की को कैसे यह सोचने से बचाएगी कि उसने पैदा हो कर कितनी बड़ी गलती की है? क्या उसे अपने ही भाइयों और उस में किया गया फर्क नजर नहीं आएगा? जब उसे इंजीनियरिंग करने से इसलिए रोका जाएगा कि उस में बहुत पैसा लगता है, तू तो बी.एड. कर ले। पर उस के भाई को इंजीनियरिंग नहीं भी करनी हो तो उसे बैंक से ऋण ले कर इंजीनियरिंग करवायी जाएगी। मुझे महिने में कम से कम एक बार कोई न कोई ऐसा जरूर मिलता है जो अपने ही बच्चों में फर्क करता है। मैं दो साल से हरियाणा के एक अस्पताल से सम्बद्ध हूँ, मैं ने आज किसी ने लड़की पैदा होने की खुशी में मिठाई बाँटते नहीं देखा। लेकिन लड़का पैदा होने पर पूरे गाँव में मिठाई बँटती देखी है।


मेरे लिए जनगणना-2011 के ये परिणाम चौंकाने वाले नहीं हैं। मुझे हरियाणा में काम करते हुए दो वर्ष हो गए हैं, और इन दो सालों में मैं ने यहाँ इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट के साथ-साथ लिंग-अनुपात में कमी होते देखी है। शिशु-मृत्यु दर लड़कियों में लड़कों के मुकाबले अधिक है। हालाँकि मेडीकल साइंस कहती है कि जैविक रूप से लड़कियाँ लड़कों से अधिक मजबूत होती हैं। जैसे सरकार देश की जनगणना करती है, वैसी जनगणना हम अपने क्षेत्र में हर साल करते हैं। सरकार को दस साल में एक बार धक्का लगा, हमें हर साल लगता है। क्योंकि इतनी कोशिश करने के बाद भी हम लड़कियों की संख्या नहीं बढ़ा पा रहे हैं। बल्कि वह और कम होती जा रही है। चिकित्सकीय दृष्टि से जितने कारण हमें शिशु मृत्यु के मिलते हैं, हम सभी को सुलझाने की कोशिश करते हैं। पर लोगों को अपनी ही बेटियों से पीछा छुड़ाने के नए साधन मिल गए हैं। क्या लड़कियाँ सच में इतना बोझ हैं कि उन से जीने का अधिकार ही छीन लिया जाए? जो बेटी कल हमें जिन्दगी देगी, हम उस से उसी की जिन्दगी छीन रहे हैं? आदमी अपनी बेटी की जिन्दगी लेने से पहले यह क्यों भूल जाता है कि उसे जन्म देने वाली, बड़ा करने वाली भी एक औरत ही है। कहीं ऐसा न हो, आज तुम जिसे ठुकरा रहे हो कल वही तुम्हें ठुकरा दे?

आज मुझे ये सारे आँकड़े बिलकुल चौंकाते नहीं हैं। लड़के और लड़की में इतना फर्क किया जाता है, यह मुझे तब तक पता नहीं लगा जब तक मैं पढ़ने के लिए घर से बाहर नहीं गई। स्नातक होने के बाद मुझे गणित में स्नातकोत्तर डिग्री करनी थी। उस वक्त हमारे शहर में गणित में एम.एससी. किया जा सकता था, लेकिन मैं वहाँ पढ़ना नहीं चाहती थी। इंजीनियरिंग का विकल्प को तो मैं पहले ही अलविदा कर चुकी थी, मुझे इंजीनियरों की भीड़ में शामिल नहीं होना था। मैं ने घर में बोल दिया कि यदि मुझे शहर से बाहर एम.एससी. में प्रवेश नहीं मिला तो मैं नहीं पढ़ूंगी। सौभाग्य से मुझे बाहर एक नामी संस्थान में प्रवेश मिल गया। वहाँ जा कर पता लगा कि लड़के और लड़की में कितना फर्क किया जाता है? मुंबई जा कर पता चला कि हालात कितने खराब हैं? एक लड़की को पैदा करने के लिए औरत कितने ताने सुनती है, और कभी-कभी मार भी खाती है। उस के पास तो ये अधिकार भी नहीं है होता कि वह किसे पैदा करे? सब सोचते हैं कि शिक्षा से बहुत फर्क पड़ेगा। पर शिक्षित लोग ही जब इस तरह की सोच रखते हैं तो क्या फर्क पड़ेगा? हमारे यहाँ एक पढ़ी लिखी लड़की खुद शादी के बाद अपने निर्णय नहीं ले सकती। कोई क्यों लड़की को पैदा करना चाहेगा? जब कि वह पराया-धन है। क्यों वह उस पर ऋण ले कर पढ़ाई के लिए धन खर्च करेगा? जब कि कल उसे उस के दहेज में भी धन देना होगा। शादी के बाद एक लड़की से ये उम्मीद की जाती है कि वह अपने सास-ससुर को माँ-बाप माने, पर क्या लड़के अपने सास-ससुर को माँ-बाप मानते हैं। शायद सब को लगता है कि लड़कों में ही भावनाएँ होती हैं, लड़कियों में नहीं। तभी तो सब उम्मीद करते हैं कि एक लड़की अपने मायके वालों पर कम, ससुराल वालों पर अधिक ध्यान दे। 

मेरे एक मौसेरे भाई ने पूछा कि लड़कियाँ अपनी शादी में इतना क्यों रोती हैं? तो मेरा जवाब था कि शादी के बाद लड़की न इधर की होती है और न उधर की, इसलिए रोती है। उस का कुछ नहीं रहता है। एक उस का मायका है और एक उस का ससुराल। पर उस का घर कहाँ है? मैं ने कभी किसी लड़के को ये कहते नहीं सुना कि ये उसका मायका है, उसका ससुराल अवश्य होता है। हम कैसे उम्मीद करें कि ये सब सुधर जाएगा? जब कि हम खुद उसे नहीं सुधारना चाहते हैं। जो चाहते हैं वे कोशिश नहीं करते। जब तक हम सामाजिक सोच को नहीं बदलेंगे, तब तक कुछ नहीं बदलेगा। सिर्फ कानून बनाने से किसी को नहीं बचाया जा सकता। अगर बचाना है तो हमें लोगों की सोच बदलनी पड़ेगी। यह करने से पहले हमें अपनी सोच बदलनी पड़ेगी।

रविवार, 29 मई 2011

पानी जुटाएँ, केवल महिलाएँ और लड़कियाँ?

ल एक यात्रा पर जाना हुआ। 300 किलोमीटर जाना और फिर लौटना। बला की गर्मी थी। रास्ते में हर जगह पानी के लिए मारामारी दिखाई दी। हर घर इतना पानी अपने लिए सहेज लेना चाहता था कि घर में रहने वालों का जीवन सुरक्षित रहे। पानी सहेजने की इस जंग में हर स्थान पर केवल और केवल महिलाएँ ही जूझती दिखाई दीं।  इस जंग में चार साल की लड़कियों से ले कर 60 वर्ष तक की वृद्धाएँ दिखाई पड़ीं। कहीं भी पुरुष पानी भरता, ढोता दिखाई नहीं दिया। क्यों सब के लिए पानी जुटाना महिलाओं के ही जिम्मे है?

ऐसी पनघटें अब बिरले ही दिखाई पड़ती हैं। पानी कुएँ और रस्सी की पहुँच से नीचे चला गया है

अब यही पनघट है





यात्रा में कार की चालक सीट मेरे जिम्मे थी,  चित्र एक भी नहीं ले सका। यहाँ प्रस्तुत सभी चित्र गूगल खोज से जुटाए गए हैं।

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

ऐ लड़की * महेन्द्र 'नेह' की एक कविता

महेन्द्र नेह की एक कविता उन के सद्य प्रकाशित संग्रह थिरक उठेगी धरती से ...

ऐ लड़की
  • महेन्द्र  'नेह'
ऐ, लड़की
ऐ, लड़की
तू प्यार के धोखे में मत आ


ऐ, लड़की
तू जिसे प्यार समझे बैठी है
वह और कुछ है
प्यार के सिवा


ऐ, लड़की तूने
अपने पाँव नहीं देखे
तूने अपनी बाँहें नहीं देखीं
तूने मौसम भी तो नहीं देखा


ऐ, लड़की
तू प्यार कैसे करेगी?
ऐ, लड़की
तू अपने पाँवों में बिजलियाँ पैदा कर

 ऐ, लड़की
तू अपनी बाँहों में पंख उगा
ऐ, लड़की
तू मौसम को बदलने के बारे में सोच
ऐ, लड़की
तू प्यार के धोखे में मत आ।

बुधवार, 25 नवंबर 2009

उमंगों की उम्र में कोई क्यों खुदकुशी कर लेता है?

खिर चौदह नवम्बर का दिन तय हुआ, बल्लभगढ़ पूर्वा के यहाँ जाने के लिए। पत्नी शोभा उत्साहित थी। उस ने बेटी के लिए अपने खुद के ब्रांडेड दळ के लड्डू और मठरी बनाई थीं। पिछली बार बेसन के लड्डू जो वह ले गई थी उस में घी के महक देने की शिकायत आई थी। जिसे डेयरी वाले तक पहुँचाया तो उस ने माफी चाही थी कि दीवाली की मांग पर घी पहले से तैयार कर पीपों में भर दिया  गया था इस कारण से महक गया। इस बार शोभा ने खुद कई दिनों तक दूध की मलाई को निकाल कर दही से जमाया और बिलो कर लूण्या-छाछ किया, फिर लूण्या को गर्म कर घी तैयार किया। मुझे बताया गया तब वह महक रहा था, उसी देसी घी की तरह जो हमने बचपन में अपने घर बिलो कर बनाया जाता था। इस घी से बने लड्डू। यह सब तैयारी 13 को ही हो चुकी थी आखिर 14 को सुबह छह बजे की जनशताब्दी से निकलना था। रात नौ बजे पाबला जी को यह समझ फोन मिलाया कि वे दिल्ली पहुँच चुके होंगे। लेकिन तब वे लेट हो चुकी ट्रेन में ही थे जो उस समय बल्लभगढ़ के आसपास ही चल रही थी।
 सुबह हम जल्दी उठे, पति-पत्नी ने स्नान किया, तैयार हुए और बैग उठा कर पास के ऑटो स्टेंड पहुँचे। सुबह के  पाँच बजे थे। तसल्ली की बात थी कि वहाँ दो ऑटो खड़े मिले। न मिलते तो हमारी तैयारी काफूर हो जाती फिर किसी पड़ौसी को तैयार कर 12 किलोमीटर स्टेशन तक छोड़ने को कहना पड़ता। खैर हम ट्रेन के रवाना होने के  बीस मिनट पहले ट्रेन के डिब्बे में थे। पूरी ट्रेन आरक्षित होने के बावजूद एक चौथाई सवारियाँ हमारे पहले ही वहाँ अपना स्थान घेर चुकी थीं। ट्रेन एक मिनट देरी से चली। अभी चंबल पुल भी पार न किया था कि माल बेचने वाले आरंभ हो गए। चाय, कॉफी, दूध और फ्रूटी पेय के अतिरिक्त कुछ न था जो हमारे लिए उपयुक्त होता। शिवभक्त शोभा शादी के पहले से ही सोमवार और प्रदोष का व्रत रखती हैं। हमने खूब कहा कि अब तो जैसा मिलना था वर मिल चुका, अब तो इन्हें छोड़ दे पर उस ने न छोड़ा। (शायद अगले जन्म में हम से अच्छे की चाहत हो)  हम ने सोचा कोई दूसरा इसी जनम में बुक हो गया तो हम तो इन के साथ से वंचित हो जाएंगे। सो हम भी करने लगे, देखें कैसे दूसरा कोई बुक होता है। उस दिन सोमवार नहीं शनिवार था लेकिन प्रदोष था। इस लिए आधुनिक और देसी खाद्यों का विक्रय करने वाले उन रेलवे के हॉकरों का हम पर कोई असर न हुआ।


ट्रेन तेजी से गंतव्य की ओर चली जा रही थी, आधी दूरी से कुछ अधिक ही दूरी तय भी कर चुकी थी। अचानक  हमारे ही कोच में हमारे सामने वाले दूसरे कोने में हंगामा हो गया और वह दृश्य सामने आ गया जो कभी देखा न था। इमर्जैंसी खिड़की के पास से जंजीर खींची गई, ट्रेन न रुकी तो उस के बाद वाले ने, फिर उस के बाद वाले ने एक साथ पाँच स्थानों से जंजीर खींची गई। फिर वेक्यूम पास होने की जोर की आवाज आई और उसका अनुसरण करती ब्रेक लगने की, ट्रेन बीच में खड़ी हो चुकी थी। इसी लाइन पर कुछ दिन पहले ही एक ट्रेन की जंजीर सिपाहियों ने मुलजिम के अपने कब्जे से भाग निकलने के कारण खींची थी और खड़ी ट्रेन को दूसरी ट्रेन ने टक्कर मार दी थी। गार्ड  और कुछ अन्य सवारियों को मृत्यु अपने साथ ले गई। मेरी कल्पना में वही चित्र उभरने लगा था।



हले पता लगा कोई बच्ची खिड़की से गिर गई है। आखिर खिड़की से कैसे गिर गई? खिड़की में तो जंगला लगा है। बताया गया कि वह इमर्जेंसी खिड़की थी और जंगला खिसका हुआ था। फिर भी इस सर्दी में मैं खुद आस पास के शीशे शीतल हवा के आने के कारण बंद करवा चुका था। एक छोटी बच्ची वाले ने उस खिड़की का शीशा कैसे खुला रखा था? समझ नहीं आ रहा था। मैं उठा और उस ओर गया जहाँ से बच्ची के गिरने की बात कही गई थी। वहाँ जा कर पता लगा गिरने वाली बच्ची कोई 20-22 साल की लड़की थी और मर्जी से खिड़की से कूद गई थी। उस का पिता उस के साथ था जो उस वक्त टॉयलट गया हुआ था। सीट पर लड़की का शॉल पड़ा था जो उस ने कूदने के पहले वहीं छोड़ दिया था। सीट पर एक लड़का बैठा था। उस से पूछा कि उसने नहीं पकड़ा उसे? उस के पीछे वाले यात्री ने बताया कि इसे तो कुछ पता नहीं यह तो सो रहा था। उस लड़के ने कहा कि मैं जाग रहा होता तो किसी हालत में उसे न कूदने देता, पकड़ लेता। लड़की के पिता का कहीं पता न था। ट्रेन पीछे चलने लगी थी।
कोई दो किलो मीटर पीछे चल कर रुकी। आसपास देखा गया। फिर सीटी बजा कर दुबारा पीछे चली एक किलोमीटर चल कर फिर खड़ी हो गई। वहाँ ट्रेक के किनारे मांस के बहुत ही महीन टुकड़े छिटके हुए दिखाई दे रहे थे। लोग ट्रेन से उतर कर देखने लगे किसी ने आ कर बताया कि लड़की नहीं बची। उस के शरीर के कुछ हिस्से पिछले डिब्बे के पहियों से चिपके हैं। गाड़ी फिर पीछे चलने लगी। इस बार रुकी तो कुछ ही देर में लोगों ने आ कर बताया कि लड़की की बॉडी मिल गई है। पिता आया और अपना सामान समेट कर वहीं उतर गया।

मैं अपनी सीट पर आया तो सहयात्री ने बताया कि पहले वह लड़की और उस का पिता इसी सीट पर आ कर बैठा था। लड़की पिता के साथ जाने को तैयार न थी और उतरने को जिद कर रही थी। फिर जब सीट वाले आए तो दोनों उठ कर चले गए। उन्हें फिर वहीं सीट मिली जहाँ इमरजेंसी खिड़की थी। डब्बे में यात्री कयास लगाने लगे कि क्यों लड़की कूदी होगी। एक खूबसूरत लड़की के आत्महत्या करने पर जितने कयास लगाए जा सकते थे लगाए गए। मैं सोच रहा था। समाज आखिर ऐसे कारण क्यों पैदा करता है कि उमंगों भरे दिनों में कोई जवान इस तरह खुदकुशी कर लेता है?
ट्रेन पूरे दो घंटे लेट हो चुकी थी। बल्लभगढ़ पहुँची तो पूर्वा के शनिवार का अर्ध कार्यदिवस समाप्त होने वाला था। उसे फोन किया तो बोली मैं खुद ही आप को स्टेशन के बाहर मुख्य सड़क पर मिलती हूँ। हम ट्रेन से उतर कर अपना सामान लाद सड़क तक पहुँचे तब तक पूर्वा भी आ पहुँची। हम पूर्वा के आवास की और जाने वाले शेयरिंग ऑटो में बैठे। उस ने मुश्किल से आठ मिनट में पूर्वा के आवास के नजदीक उतार दिया। 

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

'सुनामी बच्ची' कविता 'यादवचंद्र'

दिवंगत श्रद्धेय  यादवचंद्र जी की एक कविता 'मेरी हत्या न करो माँ' आप अनवरत पर पहले पढ़ चुके हैं। आज पढ़िए उन की एक और कविता ......

सुनामी बच्ची

  • यादवचंद्र
नहीं जानती सुनामी बच्ची
अपना माँ-बाप, गाँव-घर
नहीं जानती सुनामी बच्ची
अपना देश-जाति, धर्म-ईश्वर
नहीं जानती सुनामी बच्ची
राग-विराग, नेह-संवेदना
नहीं जानती सुनामी बच्ची
शुभ-अशुभ, सुन्दर-असुन्दर
उस के होठों पर चुपड़ी है
मौत-सी सख्त बर्फ
नहीं जानती सुनामी बच्ची
दूध और जहर का फर्क

जब गर्भ में थी-
भूडोल  के पालने पर डोलती रही
जब जानलेवा दरारों ने उगला....
तो दूध के लिए
ज्वार की छातियाँ टटोलती रही
भाई तस्करों के साथ रावलपिंडी के दौरे पर था
बाप डिस्टीलरी से 
वापस नहीं लौटा था
बहन होटलों में 
पर्यटकों के साथ लिपटी पड़ी थी
और नंगी लाशों पर सुनामी लहरें
मुहँ बाए खड़ी थीं
शेष कोई न था वहाँ
बची थी सिर्फ-
सुनामी बच्ची

और अब 
सब कुछ ठण्डा पड़ चुका है
गर्म हैं सिर्फ
भविष्यवक्ताओं की वाणियाँ
गर्म हैं सिर्फ
राष्ट्राध्यक्षों के तूफानी वक्तव्य
गर्म हैं सिर्फ
सिने तारिकाओं के 
नेकेड तूफानी कल्चरल प्रोग्राम
गर्म हैं सिर्फ
पर्यटक होटलों में
कहकहाँ की वापसी की शानदार मुहिमें
गर्म हैं सिर्फ 
थाई बेटियों के देह-व्यापार में
महताब फिट करने की लामिसाल कोशिशें

लेकिन याद रखो
कल सुनामी बच्ची की मुट्ठी में 
बन्दूक होगी
और तुम्हारे मुहँ पर थूकने के लिए
हर जुबान पर थूक होगी
आ...क.............थू !
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