@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: हमें ये परंपराएँ बदलनी होंगी

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

हमें ये परंपराएँ बदलनी होंगी


पूर्वाराय एक जनसांख्यिकीविद (Demographer) है, और वर्तमान में जनस्वास्थ्य से जुड़ी एक परियोजना में शोध अधिकारी है। अनवरत पर प्रकाशित उन के आलेख लड़कियों का घर कहाँ है?  पर Mired Mirage, की प्रतिक्रिया से आरंभ उन का आलेख पुनः समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ।  उसे ही यहाँ पुनर्प्रस्तुत किया जा रहा है। 

हमें परंपराएँ बदलनी होंगी  
- पूर्वाराय द्विवेदी


टते लिंगानुपात पर बात करते हुए एक महिला ने बताया कि "उनकी दो बेटियाँ हैं और उन्हें अच्छे से याद है कि दूसरी बेटी के जन्म पर एक एंग्लो इंडियन सहेली के सिवाय किसी ने उनके जन्म की बधाई नहीं दी थी। दूसरी बेटी के जन्म के तुरन्त बाद जब पति बिटिया की फोटो पर फोटो लिए जा रहे थे और हस्पताल से घर जाते समय आया-नर्सों को बक्शीश दे रहे थे तो वे दंग थीं। बिना बेटा हुए परिवार नियोजन का ऑपरेशन करने को कहा डॉक्टर दंग थी। मैं हस्पताल में सारा दिन चहकती हुई नवजात बिटिया से बतियाती लाड़ लड़ाती थी तो सब देखते रह जाते थे। हम खुश थे, यह बात लोगों के गले नहीं उतरती थी। शायद स्वाभाविक यह होता कि हम दुखी होते। इस पर भी लोग पूछते हैं कि क्या सच में भारत स्त्रियों के लिए खतरनाक स्थान है? समाज में लड़कियों का अनपात हम सही करना चाहते हैं तो केवल एक ही उपाय है। हर लड़की कमाकर अपने माता पिता को दे, उनकी बुढ़ापे की लाठी बने। शायद हमारे समाज में रुपया ही बोलता है, संतान स्वार्थ के लिए पैदा की जाती है। बेटी माता पिता को इतना दे और कुछ न ले कि लालची माता पिता बेटियों को जन्म देने लगें। कड़वा तो है यह किन्तु शायद यही सच है।"

जॉन काल्डवेल (जनसांख्यिकिविद)
क्त महिला की इस बात पर मुझे एक मास्टर्स में पढ़ा हुआ जनसांख्यिकीविद (डेमोग्राफर) जॉन कॉल्डवेल द्वारा 1976 वेल्थ प्रजनन पर एक सिद्धांत याद आया जो विकासशील देशों के प्रजनन आचरण को समझाती था। उन्होंने वेल्थ-फ्लो यानि धन प्रवाह, माल (सामान), पैसा और सेवाओं को बच्चों से माता-पिता तथा माता-पिता से बच्चों के सन्दर्भ में परिभाषित किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार एक समाज में, अगर बच्चे माता-पिता के लिए आर्थिक रूप से उपयोगी हों तो प्रजननता अधिक होती है और यदि बच्चे माता-पिता के लिए आर्थिक रूप से फायदेमंद ना हों तो वह कम हो जाती है। धन का यह प्रवाह सभी परंपरागत समाजों में युवा पीढ़ी से पुरानी पीढ़ी में होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो इन समाजों में बच्चे माता–पिता की लिए शुद्ध आर्थिक परिसम्पति होते हैं। इस प्रसंग में ज्यादा बच्चे मतलब ज्यादा धन।

नके अनुसार किसान समाज बड़े विस्तृत संयुक्त परिवार में बच्चे, बहुएँ, पोते इत्यादि घर के कामों में बहुत योगदान देते हैं, और बच्चे कृषि, इंधन-संग्रह, पानी-भरने, सामान और सन्देश लाने ले जाने, छोटे भाई बहनों को संभालने, जानवरों की देखभाल करने जैसे कामों में बहुत मदद करते हैं। आदवासी समाज में बच्चे शिकार और भोजन इकठा करने के साथ ही साथ बुजुर्गों की देखभाल में भी मदद करते हैं। बचपन से युवा होने तक वो काफी सारे कामों में मदद करते हैं। इन समाजो में ज्यादा बच्चे होना लाभदायक है। आधुनिक समाज में देखें तो परिवार में भावनाएँ और आर्थिक एकलता (nucleation) बहुत है। यहाँ सामान्यतः माता-पिता अपने और अपने बच्चों के बारे में ही सोचते हैं तथा विस्तृत परिवार से परहेज रखते हैं। काल्डवेल का यह सिद्धांत प्रजनन आचरण दर्शाने की लिए था। किन्तु ये सिद्धांत कहीं न कहीं ऊपर महिला द्वारा कही गई बात से बहुत मिलता है और उस की व्याख्या करता है।

क्या हम बच्चों को विशेषकर बेटों को आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा की रूप में नहीं देखते? हम भले ही इस सचाई को मानने से इनकार कर दें, पर क्या बेटा के पैदा होने पर माता-पिता ये नहीं सोचते की वो हमारा सहारा बनेगा? बचपन से लेकर युवा होने तक माता-पिता हर संभव कोशिश करते हैं जिससे उनका बेटा अच्छे से स्थापित हो सके। क्योंकि माता पिता का भविष्य भी उनके बेटों के भविष्य से ही जुड़ा हुआ रहता है। वे सोचते हैं कि ढलती उम्र में बेटा ही उनका सहारा हो सकता है। तभी तो माँ-बाप बच्चों के लिए भविष्य के बारे में सोचते-सोचते कई बार अपने ही भविष्य की आर्थिक व्यवस्था के लिए कुछ नहीं करते। जिस का खामियाजा उन्हें आगे जाकर तब भुगतना पड़ता है जब बच्चे अपने भविष्य की बारे में सोचते समय अपने माता-पिता को भूल जाते हैं क्योंकि वहाँ से उन्हें किसी तरह का लाभ नहीं होता।

स सब से ये लगता है कि बेटा माता-पिता के लिए भविष्य का आर्थिक निवेश है। सिर्फ आर्थिक ही क्यों वह भावनात्मक सहारा भी होता है क्यों कि वह उनके साथ रहेगा। तभी तो बहुत दुःख और दर्द होता है जब एक बेटा माता–पिता को उनकी ढलती उम्र में सहारा नहीं देता, या कहें कि उनका किया गया निवेश असफल हो जाता है। देखा जाये तो इसमें कुछ गलत नहीं है। जब सारा समाज एक जैसा व्यवहार कर रहा हो तो वो गलत तो नहीं होता है। जब माता-पिता अपने बच्चों के लिए कुछ कर रहे हैं तो बच्चों का भी फ़र्ज़ बनता है उनके लिए कुछ करने का। आखिर ये दुनिया आदान प्रदान पर ही तो निर्भर है। पर यह गलत तब होता है जब इससे किसी का नुकसान हो, किसी को दुख पहुँचे। अब क्योंकि बेटा आर्थिक और भावनात्मक सुरक्षा दे सकता है, तो स्वाभाविक ही है कि सभी बेटे की उम्मीद करेंगे। पर क्या ये सब एक बेटी नहीं दे सकती? आज कल तो बेटियां भी आर्थिक रूप से इतनी सक्षम होती है कि वे अपने माँ बाप को सहारा दे सकती हैं। कई बार तो बेटी अपने माता-पिता के बेटे से ज्यादा भावनात्मक रूप से करीब होती है। फिर बेटे और बेटी में इतना फर्क क्यों होता है कि बेटी को पैदा होने से पहले ही उसको खत्म कर दिया जाता है। उसे तो मौका भी नहीं मिलता कुछ करने का, कुछ बनने का। कम से कम उसे मौका तो मिलना ही चाहिए। जब बेटे को मौका मिल रहा है, तो बेटी को क्यों नही? आज जिस तरह से लड़कियों की संख्या कम हो रही है उसके लिए तो ज़िम्मेदार हमारा समाज ही है, जिसे हमने ही बनाया है। जब एक बच्चा बिगडता है तो उसके लिए माता-पिता को उसकी परवरिश के लिए उसका जिम्मेदार बताया जाता है, तो जब हमारे समाज में हमारी बनाई कुछ परम्पराओं की वजह से कुछ गलत हो रहा है, तो इसके लिए भी हम ही ज़िम्मेदार हैं।

रम्पराएँ जो कहती हैं कि बेटी तो पराया धन है, कन्यादान से बड़ा कोई दान नहीं होता। अगर कन्यादान से बड़ा कोई दान नहीं है, तो फिर क्यों एक बेटी की शादी के लिए उसके माता-पिता को दहेज देना पड़ता है। देखा जाए तो सब जगह बेटी होने से नुक्सान और बेटे से फायदा ही नज़र आता है। तो फिर बेटी होने पर सरकार पैसा दे या उसकी पढ़ाई की फीस में छूट दे, इस से लड़कियों की संख्या नहीं बढ़ेगी। जब तक हम खुद अपने समाज की परंपराओं को नहीं बदलेंगे कुछ नहीं बदल सकता।

क्या हम ऐसा समाज नहीं बना सकते? जहाँ सब बराबर हों, लड़के और लड़की में कोई फर्क ना हो। माता-पिता जो एक बेटे के लिए करे, वही बेटी के लिए भी करे। जहाँ बेटी को अधिकार हो की शादी के बाद भी वो अपने माता पिता की सहायता कर सके। अगर माता पिता बेटे के साथ रह सकते हैं, तो बेटी के साथ भी रह सकते हैं। जहाँ एक बेटी को अपने ही माता पिता की छुप कर मदद ना करनी पड़े। किसी को अपनी ही बेटी की शादी के लिए पैसा न देना पड़े। फिर शायद माँ-बाप बेटी होने पर भी वही खुशी मनाने लगेंगे, जो बेटे के होने पर मनाते हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसे माता-पिता नहीं हैं, आज भी कई माता-पिता हैं, जो बेटी होने की उतनी ही खुशी मनाते हैं जितना बेटे होने की, जो बेटे के लिए करते हैं वही बेटी के लिए भी। पर उन की संख्या कितनी है? ज्यादा नहीं, वरना आज ये नौबत ना आती कि सरकार पैसा दे रही है, ताकि लड़की पैदा हो सके। ये सरकार का काम नहीं बल्कि हमारा, उस समाज का काम है जिसमें हम रहते हैं, जिसे हमने ही बनाया है, और हमने जो गलत किया है उसे ठीक भी हमें ही करना होगा।

20 टिप्‍पणियां:

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

फिर पुरानी बात। हाँ, सरकारी प्रयास(?)से कुछ नहीं हो सकता क्योंकि सरकार के नकली प्रयासों का तो लोग फायदा ही उठाना शुरु कर देते हैं। इसलिए हमें समानता के साथ जीने-रहने आदि का अधिकार देनेवाले समाज को बनाने के लिए सबसे पहले सोच ही बदलनी होगी।

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक ने कहा…

Ramesh kumar jain - पूर्वा राय द्विवेदी कितना सही पूछती है कि बेटी तो पराया धन है, कन्यादान से बड़ा कोई दान नहीं होता। अगर कन्यादान से बड़ा कोई दान नहीं है, तो फिर क्यों एक बेटी की शादी के लिए उसके माता-पिता को दहेज देना पड़ता है। देखा जाए तो सब जगह बेटी होने से नुक्सान और बेटे से फायदा ही नज़र आता है। तब फिर बेटी होने पर सरकार पैसा दे या उसकी पढ़ाई की फीस में छूट दे, इस से लड़कियों की संख्या नहीं बढ़ेगी। जब तक हम खुद अपने समाज की परंपराओं को नहीं बदलेंगे कुछ नहीं बदल सकता।
गुरुवर जी - पूर्वा जी ने बहुत अच्छा आलेख लिखा है. पहले हमें आपके ही लेख पढ़ने को मिलते थें.अब आपकी बेटी के भी एक-एक बढ़कर विचारणीय लेख पढ़ने को मिल रहे है. यह क्रम निरंतर चलता रहे. शुभकामनाएँ स्वीकार करें. आज ऐसे लेख गृहशोभा, गृहलक्ष्मी, सरिता, वनिता, मेरी सहेली, जाह्नवी आदि पत्रिकाओं में ऐसे लेख नहीं आ रहे है. जैसे आज ब्लोगों पर उपलब्ध है.पाठकों की होण हुईयां मौजां ही मौजां. सौने सौने वो वीं फ्री बिच.होणे कित्ते वीं जान दी जरूरत कौनी हेगी. खोल लो ब्लॉग और सारी दुनियाँ के दर्शन कर लो

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक ने कहा…

आज दिल्ली में सरकार लाडली योजना चला रखी है.उसकी प्रक्रिया इतनी जटिल है. उस में कोई जल्दी से आवेदन ही नहीं कर पाता है. इसके फॉर्म केवल विधायक के पास उपलब्ध होते है.जहाँ किस-किसको मिल सकते है आप खुद समझ सकते हैं. उसके बाद एक के बाद एक घोटाला खुल रहा है. कोई जरा इस पर सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के तहत आवेदन करके देख लें.
सरकार के करने से कुछ नहीं होगा. हमें खुद ही ठोस कदम उठाने होंगे.

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक ने कहा…

जरुर देखे."लड़कियों की पीड़ा दर्शाती दो पोस्ट" http://hbfint.blogspot.com/2011/07/blog-post_23.html

Satyendra PS ने कहा…

भारत की वर्तमान जनगडना के मुताबिक़ आदिवासियों में लिंगानुपात महिलाओं का ज्यादा है, लेकिन सरकार आदिवासियों को सभ्यता से २०० साल पीछे मानती है :(

Satish Saxena ने कहा…

आदरणीय द्विवेदी जी,

पूर्वा का एक अलग ब्लॉग होना चाहिए !

जब तक वह आपके ब्लॉग पर लिखेगी हम उसकी क्षमताओं का उचित सम्मान नहीं कर पाएंगे !

आपके ब्लॉग पर लिखी पूर्वा की हर रचना पुत्री रचना की तरह पढ़ी जायेगी और उसे स्नेह आशीर्वाद मिलते रहेंगे, देखने में यह अच्छा ही लगता है मगर पूर्वा का पिछला लेख, " लड़कियों का घर कहाँ है"
(http://anvarat.blogspot.com/2011/07/blog-post_05.html ) ब्लॉग जगत में लिखे बेहतरीन लेखों में से एक है !


बार बार बिजली फेल होने के कारण, इस लेख पर दो बार प्रयास करने के बावजूद भी उस दिन मैं कमेन्ट नहीं दे पाया था ...

जारी ...

Satish Saxena ने कहा…

"मेरे एक मौसेरे भाई ने पूछा कि लड़कियाँ अपनी शादी में इतना क्यों रोती हैं? तो मेरा जवाब था कि शादी के बाद लड़की न इधर की होती है और न उधर की, इसलिए रोती है। उस का कुछ नहीं रहता है। एक उस का मायका है और एक उस का ससुराल। पर उस का घर कहाँ है? मैं ने कभी किसी लड़के को ये कहते नहीं सुना कि ये उसका मायका है, उसका ससुराल अवश्य होता है। हम कैसे उम्मीद करें कि ये सब सुधर जाएगा? जब कि हम खुद उसे नहीं सुधारना चाहते हैं। जो चाहते हैं वे कोशिश नहीं करते। जब तक हम सामाजिक सोच को नहीं बदलेंगे, तब तक कुछ नहीं बदलेगा। सिर्फ कानून बनाने से किसी को नहीं बचाया जा सकता। अगर बचाना है तो हमें लोगों की सोच बदलनी पड़ेगी। यह करने से पहले हमें अपनी सोच बदलनी पड़ेगी।"

....उपरोक्त लाइनों का एक एक शब्द एक बेटी की व्यथा कह रहा है जिसे हम सबने लगातार नज़रंदाज़ किया है !
हम सब इसके दोषी हैं....

अच्छे अच्छे लेख लिख कर, समाज पर दोष डाल, हम लोग फिर पाक साफ रह जाते हैं ...

हम अगर अपने गिरेबान में झांके तो परिवार वृक्ष की इस सबसे सुन्दर और कमजोर टहनी के साथ, सबसे अधिक अन्याय शायद हम लोग ही करते हैं ! शादी होते ही गंगा स्नान करने चल देते हैं कि यह बच्ची अपने घर चली गयी !

अगले २० सालों तक यह बच्ची, अपने मायके और ससुराल में आशा भरी नज़रें लेकर प्यार ढूँढती रहती है और हम अपनी ऑंखें बंद कर बैठे रहते हैं ! इस समय तक, स्नेह की तलाश करते हमारी बेटी, अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा बर्वाद कर चुकी होती है !

हम लोग इसके जिम्मेवार हैं .....

पूर्वा के द्वारा उठाये गए प्रश्नों को नज़रन्दाज़ नहीं किया जा सकता ......

शुभकामनायें पूर्वा !

Gyan Darpan ने कहा…

ज्वलंत मुद्दे पर शानदार विचार

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

@ सतीश सक्सेना
अनवरत मेरा अपना ब्लाग है। मैं ने पूर्वा की पूर्वप्रकाशित रचना को यहाँ पुनर्प्रकाशित किया है। उसे ब्लागिरी करनी है या नहीं इस का निर्णय वह स्वयं लेगी। मैं या आप नहीं।

रविकर ने कहा…

शनै:-शनै:
परिवर्तन आ रहा है ||
लड़कियों की महत्ता किसी भी
नजरिये से कम नहीं ||

P.N. Subramanian ने कहा…

महत्वपूर्ण मुद्दे पर शानदार आलेख. मन प्रसन्न हो गया. आभार.

Saleem Khan ने कहा…

badalna hi padega jee, kyunki soch jo badal rahi hai... soch kyun badal rahi hai ??? kyunki aaspaas ka mahaul hi badalaa ja raha hai....

majburan soch badalna padega...


achchha lekh

आजकल ज़मीनों और कमीनों का ज़माना है

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

लड़कियों को दोनों घरों में हिस्सा मिलने का नियम बने तो स्थितियाँ सुधरेंगी।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

पता नहीं वह दिन कब आयेगा..

सुनीता शानू ने कहा…

नई पुरानी हलचल में आप अपनी पोस्ट को देखें चर्चा में मेरा प्रथम प्रयास।

सुनीता शानू ने कहा…

http://nayi-purani-halchal.blogspot.com/

सागर ने कहा…

sarthak lekh...

Arvind Mishra ने कहा…

जानकारीपूर्ण ,विचारोत्तेजक

vidhya ने कहा…

आप का बलाँग मूझे पढ कर अच्छा लगा , मैं भी एक बलाँग खोली हू
लिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/
अगर आपको love everbody का यह प्रयास पसंद आया हो, तो कृपया फॉलोअर बन कर हमारा उत्साह अवश्य बढ़ाएँ।

ZEAL ने कहा…

Great post ! Interesting discussion .