@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: लड़कियों का घर कहाँ है?

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

लड़कियों का घर कहाँ है?


णितीय और जनसंख्या विज्ञान की स्नातकोत्तर पूर्वाराय द्विवेदी जनसंख्या विज्ञानी है और वर्तमान में वर्तमान में जनस्वास्थ्य से जुड़ी एक परियोजना में शोध अधिकारी है। 2011 के भारत की जनगणना के प्रारंभिक परिणाम सामने आए तो मैं ने उस से पूछा कि परिणाम जानने के बाद उस की पहली प्रतिक्रिया क्या है? तो उस ने यह आलेख मुझे प्रेषित किया। 

लड़कियों का घर कहाँ है?

-पूर्वाराय द्विवेदी


जनगणना 2011 के अनन्तिम परिणाम आ चुके हैं, जो कुछ अच्छे तो कुछ बुरे हैं। पर लगता है इस बार सरकार वाकई चौंक गई है। छह वर्ष तक के बच्चों के लिंग अनुपात में जिस तरह से गिरावट आई है उसे देख कर ये तो पता लग ही रहा है कि सरकार और गैर सरकारी संस्थाओं के द्वारा चलाई गए कार्यक्रम कितने सफल रहे हैं। हरियाणा (830) और पंजाब (846) ने छह वर्ष तक के बच्चों में न्यूनतम लिंग अनुपात में बाजी मारी है, तो दिल्ली भी पीछे नहीं है। 1981 से 2011 तक के जनगणना परिणामों पर नजर डालें तो लड़कियों की संख्या लड़कों के मुकाबले कम ही होती गयी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम जैसे-जैसे आर्थिक-तकनीकी रूप से विकसित हो रहे हैं, हमारी सोच गिरती जा रही है?
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफाइल के आँकड़ों के अनुसार 2009 में मध्य प्रदेश में सर्वाधिक कन्या-भ्रूण हत्या के 23 व कन्या-शिशु मृत्यु के 51 मामले मिले हैं। ये तो वे मामले हैं जो पता चले हैं। न जाने कितने और मामले ऐसे होंगे जिन का पता ही नहीं लगता। पहले हुए अध्ययनों के अनुसार हमारे देश में रोज 2000 लड़कियाँ गायब हो रही हैं, यह आँकड़ा पूरे वर्ष के लिए 5 से 7 लाख तक जाता है। यह सब कन्या-भ्रूण हत्या का सीधा परिणाम है। जिस परिवार में एक लड़की है, वहाँ इस बात के 54% अवसर हैं कि दूसरी लड़की जन्म लेगी। दिल्ली के एक अस्पताल में जब कुछ औरतों से पूछा गया कि आप कितनी खुश हैं? तो एक औरत बोली कि वह अभी तनाव में है, क्योंकि उसने लड़की को जन्म दिया है, वह अभी अपने पति से नहीं मिली है, उसे आशा करती है कि उस का पति लड़की पैदा होने से खुश ही होगा। एक अन्य औरत खुश और निश्चिंत है क्योंकि उसने लड़के को जन्म दिया है। उस के एक लड़की पहले से ही है और वह जानती है कि उस का पति खुश होगा और परिवार वाले भी खुशियाँ मना रहे होंगे। हमारे यहाँ तो शायद माँ बन कर भी औरत को सुकून नहीं मिलता, खुशी तो बहुत दूर की बात है।

सरकार कह रही है कि जहाँ कन्या-भ्रूण हत्या और कन्या-शिशु मृत्यु दर अधिक है, वहाँ वह भ्रूण-लिंग-परीक्षण तकनीक कानून को अधिक कड़ाई से लागू करेगी। पर क्या वास्तव में वह ऐसा कर सकेगी? हरियाणा सरकार तो लड़की होने पर धन भी दे रही है फिर भी वह कन्या-भ्रूण हत्या और कन्या-शिशु मृत्यु-दर को कम नहीं कर पा रही है। हमें पता नहीं लगता जब तक कि हमें अखबार या मीडिया ये नहीं बताता है कि पुलिस ने आज यहाँ छापा मारा, यहाँ इतनी लड़कियों के कंकाल दबे मिले। वे कहते हैं ना कि जब प्यास लगती है तो प्यासा कुआँ तलाश कर ही लेता है। ऐसा ही यहाँ है, जब किसी को लड़की नहीं चाहिए तो वह उस से छुटकारा पाने का तरीका भी तलाश लेता है।

यदि सरकार कन्या-भ्रूण हत्या और कन्या-शिशु मृत्यु को रोक भी लेती है तो वह लड़कियों की स्थिति को कैसे सुधारेगी? वह एक लड़की को कैसे यह सोचने से बचाएगी कि उसने पैदा हो कर कितनी बड़ी गलती की है? क्या उसे अपने ही भाइयों और उस में किया गया फर्क नजर नहीं आएगा? जब उसे इंजीनियरिंग करने से इसलिए रोका जाएगा कि उस में बहुत पैसा लगता है, तू तो बी.एड. कर ले। पर उस के भाई को इंजीनियरिंग नहीं भी करनी हो तो उसे बैंक से ऋण ले कर इंजीनियरिंग करवायी जाएगी। मुझे महिने में कम से कम एक बार कोई न कोई ऐसा जरूर मिलता है जो अपने ही बच्चों में फर्क करता है। मैं दो साल से हरियाणा के एक अस्पताल से सम्बद्ध हूँ, मैं ने आज किसी ने लड़की पैदा होने की खुशी में मिठाई बाँटते नहीं देखा। लेकिन लड़का पैदा होने पर पूरे गाँव में मिठाई बँटती देखी है।


मेरे लिए जनगणना-2011 के ये परिणाम चौंकाने वाले नहीं हैं। मुझे हरियाणा में काम करते हुए दो वर्ष हो गए हैं, और इन दो सालों में मैं ने यहाँ इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट के साथ-साथ लिंग-अनुपात में कमी होते देखी है। शिशु-मृत्यु दर लड़कियों में लड़कों के मुकाबले अधिक है। हालाँकि मेडीकल साइंस कहती है कि जैविक रूप से लड़कियाँ लड़कों से अधिक मजबूत होती हैं। जैसे सरकार देश की जनगणना करती है, वैसी जनगणना हम अपने क्षेत्र में हर साल करते हैं। सरकार को दस साल में एक बार धक्का लगा, हमें हर साल लगता है। क्योंकि इतनी कोशिश करने के बाद भी हम लड़कियों की संख्या नहीं बढ़ा पा रहे हैं। बल्कि वह और कम होती जा रही है। चिकित्सकीय दृष्टि से जितने कारण हमें शिशु मृत्यु के मिलते हैं, हम सभी को सुलझाने की कोशिश करते हैं। पर लोगों को अपनी ही बेटियों से पीछा छुड़ाने के नए साधन मिल गए हैं। क्या लड़कियाँ सच में इतना बोझ हैं कि उन से जीने का अधिकार ही छीन लिया जाए? जो बेटी कल हमें जिन्दगी देगी, हम उस से उसी की जिन्दगी छीन रहे हैं? आदमी अपनी बेटी की जिन्दगी लेने से पहले यह क्यों भूल जाता है कि उसे जन्म देने वाली, बड़ा करने वाली भी एक औरत ही है। कहीं ऐसा न हो, आज तुम जिसे ठुकरा रहे हो कल वही तुम्हें ठुकरा दे?

आज मुझे ये सारे आँकड़े बिलकुल चौंकाते नहीं हैं। लड़के और लड़की में इतना फर्क किया जाता है, यह मुझे तब तक पता नहीं लगा जब तक मैं पढ़ने के लिए घर से बाहर नहीं गई। स्नातक होने के बाद मुझे गणित में स्नातकोत्तर डिग्री करनी थी। उस वक्त हमारे शहर में गणित में एम.एससी. किया जा सकता था, लेकिन मैं वहाँ पढ़ना नहीं चाहती थी। इंजीनियरिंग का विकल्प को तो मैं पहले ही अलविदा कर चुकी थी, मुझे इंजीनियरों की भीड़ में शामिल नहीं होना था। मैं ने घर में बोल दिया कि यदि मुझे शहर से बाहर एम.एससी. में प्रवेश नहीं मिला तो मैं नहीं पढ़ूंगी। सौभाग्य से मुझे बाहर एक नामी संस्थान में प्रवेश मिल गया। वहाँ जा कर पता लगा कि लड़के और लड़की में कितना फर्क किया जाता है? मुंबई जा कर पता चला कि हालात कितने खराब हैं? एक लड़की को पैदा करने के लिए औरत कितने ताने सुनती है, और कभी-कभी मार भी खाती है। उस के पास तो ये अधिकार भी नहीं है होता कि वह किसे पैदा करे? सब सोचते हैं कि शिक्षा से बहुत फर्क पड़ेगा। पर शिक्षित लोग ही जब इस तरह की सोच रखते हैं तो क्या फर्क पड़ेगा? हमारे यहाँ एक पढ़ी लिखी लड़की खुद शादी के बाद अपने निर्णय नहीं ले सकती। कोई क्यों लड़की को पैदा करना चाहेगा? जब कि वह पराया-धन है। क्यों वह उस पर ऋण ले कर पढ़ाई के लिए धन खर्च करेगा? जब कि कल उसे उस के दहेज में भी धन देना होगा। शादी के बाद एक लड़की से ये उम्मीद की जाती है कि वह अपने सास-ससुर को माँ-बाप माने, पर क्या लड़के अपने सास-ससुर को माँ-बाप मानते हैं। शायद सब को लगता है कि लड़कों में ही भावनाएँ होती हैं, लड़कियों में नहीं। तभी तो सब उम्मीद करते हैं कि एक लड़की अपने मायके वालों पर कम, ससुराल वालों पर अधिक ध्यान दे। 

मेरे एक मौसेरे भाई ने पूछा कि लड़कियाँ अपनी शादी में इतना क्यों रोती हैं? तो मेरा जवाब था कि शादी के बाद लड़की न इधर की होती है और न उधर की, इसलिए रोती है। उस का कुछ नहीं रहता है। एक उस का मायका है और एक उस का ससुराल। पर उस का घर कहाँ है? मैं ने कभी किसी लड़के को ये कहते नहीं सुना कि ये उसका मायका है, उसका ससुराल अवश्य होता है। हम कैसे उम्मीद करें कि ये सब सुधर जाएगा? जब कि हम खुद उसे नहीं सुधारना चाहते हैं। जो चाहते हैं वे कोशिश नहीं करते। जब तक हम सामाजिक सोच को नहीं बदलेंगे, तब तक कुछ नहीं बदलेगा। सिर्फ कानून बनाने से किसी को नहीं बचाया जा सकता। अगर बचाना है तो हमें लोगों की सोच बदलनी पड़ेगी। यह करने से पहले हमें अपनी सोच बदलनी पड़ेगी।

36 टिप्‍पणियां:

Khushdeep Sehgal ने कहा…

यशस्वी पिता की यशस्वी पुत्री को आंखें खोलने वाले इस लेख के लिए साधुवाद...

जय हिंद...

ghughutibasuti ने कहा…

पूर्वा, दो बेटियों की माँ होने का सौभाग्य है मेरा। किन्तु अच्छे से याद है कि किसी ने बधाई नहीं दी थी उनके जन्म पर, सिवाय दूसरी बेटी के जन्म पर एक एंग्लो इंडियन सहेली के। दूसरी बेटी के जन्म के तुरन्त बाद जब पति बिटिया की फोटो पर फोटो लिए जा रहे थे और जब हस्पताल से घर जाते समय आया नर्सों को बक्शीश दे रहे थे तो वे दंग थीं। डॉक्टर से परिवार नियोजन का औपरेशन करने को कहा तो बिन बेटे के करवाना चाहने पर वह दंग थी। मैं हस्पताल में सारा दिन चहकती हुई नवजात बिटिया से बतियाती लाड़ लड़ाती थी तो सब दंग थे। हम खुश थे यह बात लोगों के गले नहीं उतरती थी। शायद स्वाभाविक यह होता कि हम दुखी होते।
इस पर भी लोग पूछते हैं कि क्या सच में भारत स्त्रियों के लिए खतरनाक स्थान है!
तुम्हें पढ़कर अच्छा लगा। लड़कियों का जन्म यदि हम चाहते हैं तो केवल एक ही उपाय है। हर लड़की कमाकर अपने माता पिता को दे, उनकी बुढ़ापे की लाठी बने। शायद हमारे समाज में रुपया ही बोलता है, संतान स्वार्थ के लिए पैदा की जाती है। बेटी माता पिता को इतना दे और कुछ न ले कि लालची माता पिता बेटियों को जन्म देने लगें। कड़वा तो है यह किन्तु शायद यही सच है।
घुघूती बासूती

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक ने कहा…

गुरुवर जी, आपकी सुपुत्री सुश्री पूर्वाराय द्विवेदी का दिल को झंझोर देने वाला आलेख और आपकी बेटी एक शोध अधिकारी है, यह जानकार बहुत ही अच्छा लगा. आपकी सुपुत्री ने इस लेख में बहुत सुंदर विचारधारा के साथ की अभिव्यक्ति ने उपरोक्त आलेख की खूबसूरती में चार चाँद लगा दिए है. अपने नाम के अर्थानुसार एक नई दिशा की ओर आलेख के माध्यम से हवा का रुख मोड़ने का प्रयास किया है. पूर्वा यानी पूरब ने पश्चिम दिशा की ओर चलने वाली हवा को पूरब की ओर मोड़कर रख दिया है.जिस समाचार पत्र में आलेख प्रकाशित हो चूका है, उसका क्या नाम है? शायद वो मेरे पास हो. मेरी एक छोटी-सी "नसीबों वाले हैं, जिनके है बेटियाँ"पर गौर कीजिये. http://aap-ki-shayari.blogspot.com/2011/03/blog-post.html
नसीबों वाले हैं, जिनके है बेटियाँ
घर की लक्ष्मी है लड़की,
भविष्य की आवाज़ है लड़की.
सबके सिर का नाज़ है लड़की,
माता-पिता का ताज है लड़की.
घर भर को जन्नत बनती हैं बेटियाँ,
मधुर मुस्कान से उसे सजाती है बेटियाँ.
पिघलती हैं अश्क बनके माँ के दर्द से,
रोते हुए बाबुल को हंसती हैं बेटियाँ.
सहती हैं सारे ज़माने के दर्दों-गम,
अकेले में आंसू बहती हैं बेटियाँ.
आंचल से बुहारती हैं घर के सभी कांटे,
आंगन में फूल खिलाती हैं बेटियाँ.
सुबह की पाक अजान-सी प्यारी लगे,
मंदिर के दिए" की बाती हैं बेटियाँ.
जब आता है वक्त कभी इनकी विदाई का,
जार-जार सबको रुलाती हैं बेटियाँ.

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक ने कहा…

उपरोक्त लेख से ही जुड़े कुछ तथ्य और अपने अनुभवों एवं विचार व्यक्त कर रहा हूँ. मेरे पांच भतीजियाँ और दो भान्नजियाँ है. एक भांजा और दो भतीजे है. भतीजियाँ और दो भान्नजियाँ सबसे बड़ी है और एक भांजा और दो भतीजे छोटे है. मेरे चार बहनों में से एक बहन शेष है. मेरे दादा जी के परिवार की बेल में एक बेटी और 27 पोती, 47 पड़पोती और उससे आगे उनके बच्चों में लगभग 80 बेटियां है. मेरी मम्मी ने लड़की के पैदा होने पर कभी अफ़सोस नहीं किया. जबकि मेरी मम्मी अनपढ़ है. मेरे परिवार की सबसे रोचक बात-मेरी खुद की एक बहन से लेकर मेरे चाचा, मामा,मौसी आदि के भी सबसे बड़ी लड़कियां ही है और आगे उनके लड़के-लड़कियों के भी दूर-दूर तक पहली सन्तान लड़की ही है.

मेरे विचार में जैसे-जैसे व्यक्ति जितना ज्यादा शिक्षित होता गया उसके अंदर की "इंसानियत" मरती गई है. वो अब गर्भ में ही विज्ञान की मदद नई से नई तकनीक से "हत्या" करने लग गया है. इस चक्कर में यह भी भूलता जा रहा है कि-तूने खुद औरत के पेट से ही जन्म लिया है. इतनी किताबें कहूँ या पोथी कहूँ पढकर भी अपनी मानसिकता नहीं बदल पाया.तब उन किताबों का पढ़ना निर्थक है. जो तुझे यह नहीं समझा पाई कि-एक औरत कभी भी सिर्फ "बेटी" को जन्म देने के लिए जिम्मेदार नहीं होती है. एक पुरुष के गुणसूत्रों द्वारा ही एक बच्चे का "लिंग" निर्धारित होता है. मुझे बिहार राज्य के कुछ इलाकों में लड़की के पैदा होने की जानकारी है. सरकार कितना ही कहती रहे कि-उसने "लिंग परीक्षण" पर रोक लगा दी है. उसका आज सिर्फ स्वरूप बदल गया है. पहले रिपोट का दस्तावेज मिलता था और अब मौखिक बताया जाता है. पहले चार-पांच सौ रूपये में जांच होती थी और अब दो-तीन हजार में होती है.

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक ने कहा…

अपने लेख में सुश्री पूर्वा ने कितना सही लिखा कि-"क्या लड़कियाँ सच में इतना बोझ हैं कि उन से जीने का अधिकार ही छीन लिया जाए? जो बेटी कल हमें जिन्दगी देगी, हम उस से उसी की जिन्दगी छीन रहे हैं? आदमी अपनी बेटी की जिन्दगी लेने से पहले यह क्यों भूल जाता है कि उसे जन्म देने वाली, बड़ा करने वाली भी एक औरत ही है। कहीं ऐसा न हो, आज तुम जिसे ठुकरा रहे हो कल वही तुम्हें ठुकरा दे?" और "जब एक लड़की को पैदा करने के लिए औरत कितने ताने सुनती है, और कभी कभी मार भी खाती है। उस के पास तो ये अधिकार भी नहीं है होता कि वह किसे पैदा करे? सब सोचते हैं कि शिक्षा से बहुत फर्क पड़ेगा। लेकिन जब शिक्षित लोग ही जब इस तरह की सोच रखते हैं तब क्या फर्क पड़ेगा? हमारे यहाँ एक पढ़ी लिखी लड़की खुद शादी के बाद अपने निर्णय नहीं ले सकती। कोई क्यों लड़की को पैदा करना चाहेगा? जब कि वह पराया-धन है। क्यों वह उस पर ऋण ले कर पढ़ाई के लिए धन खर्च करेगा? जब कि कल उसे उस के दहेज में भी धन देना होगा।"
आज कितने ही अच्छे लड़कों को लड़कियों की कमी होने के कारण शादी के लिए "लड़की" नहीं मिलती है. अगर हम पिछले 30 वर्ष के आंकड़ों का अध्ययन करें तो पाते हैं कि-जहाँ औसत 18-20 वर्ष के लड़के की शादी हो जाती थीं, वहीँ अब शादी की औसत आयु 30-32 हो गई है. ऐसी मंहगी शिक्षा का कोई फायदा नहीं.जो हमारी मानसिकता ही बदलने में असमर्थ हो.हमें आज अपनी मानसिकता बदलने की जरूरत हैं कि-बेटी "पराया धन" है बल्कि मैं ऐसे अनेकों उदारहण जानता हूँ. जहाँ पर बेटों ने अपने माता-पिता को सड़क पर मरने के लिए छोड़ दिया और उनकी बेटियों-दामादों ने अपने माता-पिता/सास-ससुर की पूरे आदर-सम्मान के साथ सेवा की. आज मनुष्य के पास इतना विवेक है कि-वो घटिया मानसिकता को बदलकर बेटियों को "पराया धन" न समझकर उसे अपनी "जमा पूंजी" समझे और उसको शिक्षित करके "आत्मनिर्भर" बनाये. जिससे अपने "निर्णय" लेने में सक्षम हो जाए. उसके व्यक्तित्व को अपने अच्छे संस्कारों से अरोत-प्रोत करके इतना चरित्रवान बना दें कि-पूरा समाज उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करें. तब ही "दहेज" रूपी दानव को भारत देश से भागकर "अमरीका"(यानि सात समुन्द्र पार) में छोड़कर आ सकते हैं.

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक ने कहा…

अपने लेख के अंत में सुश्री पूर्वा ने कितना सही पूछती है कि-लड़कियों का घर कहाँ है? और यह पूछने पर कि लड़कियाँ अपनी शादी में इतना क्यों रोती हैं? तब कहती है कि-"शादी के बाद लड़की न इधर की और न उधर की रहती है, इसलिए रोती है। उसका कुछ नहीं रहता है। एक उसका मायका है और एक उसका ससुराल। चक्की के इन दो पाटों के पत्थरों के बीच में उसका घर कहाँ गुम हो जाता है? हम कैसे उम्मीद करें कि यह सब सुधर जाएगा? जबकि हम खुद उसे नहीं सुधारना चाहते हैं। जब तक हम सामाजिक सोच को नहीं बदलेंगे, तब तक कुछ नहीं बदलेगा। सिर्फ कानून बनाने से किसी को नहीं बचाया जा सकता। अगर बचाना है तब हमें लोगों की सोच(मानसिकता) बदलनी पड़ेगी। यह करने से पहले हमें अपनी सोच बदलनी पड़ेगी।

सुश्री पूर्वा ने यहाँ एक ऐसा यक्ष प्रश्न करके कि-"लड़कियों का घर कहाँ है?" मुझे धर्म संकट में डाल दिया है. जिसका उत्तर परमपिता ब्रह्मा के पास भी नहीं होगा. इसलिए यह तुच्छ "सिरफिरा" उत्तर दे सकें उसकी क्या विसात है.मगर अपनी छोटी-सी बुध्दि का प्रयोग करते हुए अपनी मानसिकता के आधार पर कह रहा हूँ कि-तू ही देवी, तू ही कल्याणी, तू ही दुर्गा, तू ही अन्नपूर्णा, तू ही लक्ष्मी, तू ही सरस्वती, तू ही पालनकारी, तू ही माता, तू ही पत्नी, तू ही बहन, तू ही बेटी और तू ही जग को चलाने वाली, हम है तुम्हारे बस आज्ञाकारी. यह दिया हुआ जीवन तुम्हारा और सारा यह संसार घर तुम्हारा.

शकुन्तला प्रेस का समाज व जनहित हेतु एक संदेश:-एक बेटी की पुकार-चाहे मुझको प्यार न देना, चाहे तनिक दुलार न देना, कर पाओ तो इतना करना, जन्म से पहले मार न देना. मैं बेटी हूँ-मुझको भी है जीने का अधिकार. मैया मुझको जन्म से पहले मत मार, बाबुल मोरे जन्म से पहले मत मार. "कन्या-भ्रूण-हत्या".... ना बाबा ना

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

आपका लिखा आलेख पढ़ा। कुछ बातें सोचने लायक हैं लेकिन कुछ में दोषी औरतें भी हैं और कुछ में हमारी नौटंकी वाली परम्परा का खेल भी है।

पहले तो मुझे रामदरश मिश्र की लड़की कहानी याद आती है।

हमारे यहाँ लड़के और लड़कियों में अन्तर होता है, इसका अनुभव हमें भी है और अपने घर में भी कई जगह लगता है। लेकिन मैं कह सकता हूँ कि इसमें पुरुषों पर दोष लगाना कुछ ज्यादा ही होता है। गाँव की औरतें ऐसी हैं आप उन्हें लाख समझा लें लेकिन वे पुराने नकली सिद्धान्त को मानना नहीं छोड़तीं।

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते वाला श्लोक खूब चर्चा में रहता है लेकिन कन्यादान कहकर कन्या को निर्जीव वस्तु बना दिया जाता है और वह दान की वस्तु हो जाती है। इस बारे में आप सभी जगह बात करके देखिए। जवाब मिलता है कि ये तो बहुत बड़े सौभाग्य और पुण्य की बात है कि किसी को कन्यादान करने का मौका मिलता है। कन्यादान शब्द ही अपमानजनक है।

भ्रूण हत्या की बात आपने सही कही है। इससे मैं पूरा सहमत हूँ। इसमें पुरुष दोषी है हमारे देश में। लेकिन जहाँ तक मैं देखता हूँ स्त्रियाँ भी जिम्मेवार हैं। आखिर आपको क्यों कोई गुलाम बनाता है और आप बनते क्यों हैं? इसमें पुरुष कुछ मदद नहीं कर सकता, इसे स्त्रियाँ और सिर्फ़ स्त्रियाँ ही सुधार सकती हैं।

आपकी यह बात कि लड़कियों का घर कहाँ है? मैं हमेशा से सोचता हूँ। और सोचता हूँ कि आखिर कौन सी व्यवस्था है यह कि लड़के शादी के बाद अपने घर में रहें और लड़कियाँ दूसरे के घर? लेकिन इसका जवाब नहीं मिलता क्योंकि हमारी परम्परा यही है। और इसका हल बहुत मुश्किल है। ऐसी व्यवस्था बन ही नहीं सकती जिसमें शादी भी हो और यह समस्या खत्म हो जाय कि लड़कियाँ अपना घर किसे मानें। इस परम्परा को मैं न तो अभिशाप कह सकता हूँ न वरदान। अफ़सोस है कि आपके शीर्षक का सवाल अनुत्तरित है और शायद रहेगा भी।

अखबारों में चैनलों पर कुछ खबरें आ जाती हैं कि फलाँ लड़की ने बगावत की, लेकिन इनकी संख्या नगण्य ही है।

लेकिन सरकारें इसमें क्या करेंगी? सिर्फ़ कानून का खेल चालू हो जाएगा। इसके लिए समाज की सोच बदलनी होगी। लेकिन इसका हल आरक्षण बिलकुल नहीं है। आरक्षण की बात इसलिए कही कि आई आई टी के फार्म की कीमत सामान्य जाति के लड़कों के लिए जितनी है उससे आधी लड़कियों के लिए है। यह एकदम गलत और मूर्खतापूर्ण है। क्योंकि इसकी परीक्षा देनेवाला कोई भी हो उस समय वह छात्र और बेरोजगार होता है। जो लोग यह सोचते हैं कि इससे समाज में लड़कियों पर कम खर्च समझ कर माता-पिता फार्म भरने देंगे, यह उनका भ्रम है। क्योंकि जो लड़की आई आई टी का फार्म भर रही है उसके माता-पिता पहले से तैयार हैं कि इसे इंजीनियर बनाना है और इस बात कोई असर ही नहीं होता कि फार्म की कीमत कितनी है।

लेकिन जहाँ लड़कियों को इंजीनियरी की शिक्षा दिलानी ही नहीं है वे पाँच सौ रुपये से क्या अपना फैसला बदल देंगे? एकदम नहीं।

लिंग अनुपात में गिरावट रोके बिना संतुलन नहीं रहेगा और भविष्य में संकट टल भी नहीं सकेगा। आज से बीस साल बाद शादी और समाज की व्यवस्था पर संकट आना तय है अगर यह रोका न जाय। सरकार के कानून से एक प्रतिशत सुधार भी नहीं होनेवाला है। यह नीच सोच लोगों में है कि लड़कियाँ दोयम दर्जे की हैं और इसे निकाल फेंकना चाहिए। लेकिन यह काम औरतों के सिवा और कोई नहीं कर पाएगा। अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी न कि वैशाखी की मदद से।

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

सिरफ़िरा जी की बात से दहेज की बात याद आई। सोचा तो आलेख पढ़ते समय भी लेकिन टिप्पणी लिखते वक्त नहीं लिख सका। दहेज के लिए मैं कम से कम बिहार में अस्सी प्रतिशत दोषि औरतों को मानता हूँ। अगर औरतें ठान लें तो दहेज हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। लेकिन अधिकांश माएँ दहेज की पक्षधर हैं। और हमारे यहाँ दहेज का कानून धरा रहता है और 1000 में से 999 या कभी-कभी पूरी 1000 शादियाँ दहेज लेकर होती हैं।

अगर किसी के चार लड़के हैं तो मेरे यहाँ तो खुशी से कहा जाता है कि वे चार लाख के हैं। यह पढ़ा-लिखा से लेकर अनपढ़ तक कहता है और खुशी के साथ। मैं खुद अपने रिश्तेदारों से कहूँ कि दहेज के बिना शादी करें तो मुझे डपट दिया जाएगा। बाल विवाह और सती प्रथा जैसी प्रथाएँ बहुत छोटी बात हैं इस दहेज के सामने। दहेज इतनी घटिया बात है कि कह नहीं सकता। लेकिन लालची लोगों को क्या कहा जाए? हमारे यहाँ तो गर्व से कहा जाता है कि हमने इतना तिलक लिया। यहाँ तक कि दो लाख लेकर पाँच लाख भी कह देने वाले हैं जिन्हें समाज में इज्जत इसके लिए मिलती है कि उन्होंने ज्यादा दहेज लिया है। अब इस समाज को जो इस बात को सम्मान और इज्जत का आधार मानता है क्या कहें?

भ्रूण-हत्या, दहेज, असमानता ये सब समस्याएँ तथाकथि सभ्य लोगों की वजह से ही हैं।

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक ने कहा…

गुरुदेव जी, सुधार करें:-मुझे बिहार राज्य के कुछ इलाकों में लड़की के पैदा होने पर मिठाई बांटे जाने की जानकारी है.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बहुत ही सटीक लिखा है और मन भेदते प्रश्न उठाये हैं। इस अनुपात का सामाजिक प्रभाव क्या पड़ने वाला है समाज पर, भान नहीं है वहाँ के निवासियों को। सुख और समृद्धि संतुलन में होती है।

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

''शादियों के बाद लडकियां न इधर की रहती हैं न उधर की।'' के बहाने पूर्वा जी ने समाज पर सटीक व्‍यंग्‍य किया है। इस शानदार लेख के लिए बधाई।

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जादुई चिकित्‍सा !
इश्‍क के जितने थे कीड़े बिलबिला कर आ गये...।

विष्णु बैरागी ने कहा…

लडकी का न होना पूरे परिवार को अधूरा रखता है। हम दोनों भाइयों को 'बेटी का बाप' बनने का सुख नहीं मिला। हमारे पिताजी को मरते दम तक इसी बात की वेदना रही। वे कहते थे - 'तुम दोनों ने जरूर ईश्‍वर के प्रति कोई जघन्‍य और अक्षम्‍य अपराध किया है जो तुम दोनो को बेटी नहीं दी।'

पूर्वा का निष्‍कर्ष कोई नहीं बात नहीं है किन्‍तु है बिलकुल सही - हमें अपनी सोच बदलनी पडेगी।

Rahul Singh ने कहा…

सामाजिक सचाई, आंकडों की शक्‍ल में और डरावनी हो जाती है, शायद खौफ महसूस हो, तसवीर बदले.

डा० अमर कुमार ने कहा…

बेहतरीन एवँ प्रौढ़ विश्लेषण...
इस आलेख पर्चँदन कुमार मिश्र की टिप्पणीबहुत ही महत्वपूर्ण और यथार्थ परक है ।
मेरी उत्कँठा का विषय यह भी रहा है कि यह समस्या पूर्वोत्तर राज्यों, आँध्र के नीचे पड़ने वाले दक्षिण भारतीय राज्यों में लगभग नगण्य क्यों है ? सँभवतः इसका सीधा सम्बन्ध सुदृढ़ साक्षर समाज के होने से है ।
घूघुती जी का यह अवलोकन कि,आर्थिक आधार के वज़ह से ही ऎसा भेद-भाव है,"हर लड़की कमाकर अपने माता पिता को दे, उनकी बुढ़ापे की लाठी बने। शायद हमारे समाज में रुपया ही बोलता है, संतान स्वार्थ के लिए पैदा की जाती है। बेटी माता पिता को इतना दे और कुछ न ले कि लालची माता पिता बेटियों को जन्म देने लगें।" मुझे उनसे असहमत होने पर बाध्य करता है ।

रविकर ने कहा…

यार तुम अय्यार हो क्या ??

पैदा होने से

सात माह पहिले--

कातिलों से बची

संदेहालंकार हो क्या ??

दूध में डुबोया

अफीम चटाया

तकिया दबाया

*छपनहार हो क्या ?? * नाश करने वाला/वाली

उलटे दांव

बड़े भेदभाव

ससुराल जाव

*अपहार हो क्या ?? *चोरी / छिपाना


सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई ||

purva ने कहा…

मैं चन्दन कुमार मिश्रजी की बात से बिलकुल सहमत हूँ की आज जिस तरह की व्यवस्था है उसके लिए औरतें भी दोषी हैं | पर आप जिन औरतों की बात कर रहें है वो उस उम्र की है जिनकी सोच बदलना उस पत्थर को तोड़ने के बराबर है जिसकी अभी हमारे पास कोई मशीन नहीं हैं | पर बात यहाँ माता पिता की है | उन युवाओं की है जो आज देश का भविष्य हैं और उनकी जो कल देश का होंगे | आज हर लड़की दहेज़ के या और दुसरे हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा सकती क्योंकि वो अभी उतनी स्वावलंबी नहीं है | कुछ भी करने से पहले उसे दस बार सोचना पड़ता है | जो आवाज़ उठाती हैं उन्हें कहीं ना कहीं इस बात का विश्वास होता है की उस का परिवार उस का साथ देगा | पर क्या लड़के भी इतने स्वावलंबी नहीं हैं वो हो रहे अन्याय की खिलाफ आवाज़ उठा सकें |

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

पूर्वा जी,

जो औरतें नहीं बदल सकतीं जैसाकि आपने कहा है, उन्हें हम अलग नहीं कर सकते क्योंकि परिवार की मालिक तो वही हैं इस फैसले में। हाँ लड़कों को आगे आना चाहिए। अगर लड़के ठान लें तो दहेज कल खत्म लेकिन हमारा युवा नौटंकीबाज युवा है। सिर्फ़ फायदे के लिए युवा-युवा चिल्लाता है लेकिन शादी जैसे मुद्दों पर पूरे भारत में एक प्रतिशत के अलावे सभी युवा अपने माता-पिता की इच्छानुसार ही चलते हैं। अगर वे विरोध करें तो हालत बदल जाएगी। लेकिन ये युवा गए-बीते जैसे हैं। एक गाँ की जनसंख्या अगर 2000 भी मान ली जाय तो उसमें शायद ही एक युवा होगा या नहीं होगा जो अपने माता-पिता के खिलाफ़ इस मामले में आगे बढ़े। मैं ऐसे युवाओं को जानता हूँ जो कहने के लिए इंजीनियर, डॉक्टर या कुछ हैं लेकिन महिलाओं के मुद्दे पर घटिया सोच रखते हैं। और यही भारत के युवा का आज का सच है।

यह बिलकुल सही है कि लड़की के लिए आवाज उठाना मुश्किल है क्योंकि हमारी सामाजिक संरचना ही हो गई है इस तरह की कि लड़की कमजोर पड़ जाती है। आप चाहें तो लड़कियों से बाते कर के देखें इन मामलों में लगभग लड़की माता-पिता के हाथ का खिलौना ही होती है। और लड़की बगावत कर दे तो उसकी हालत समाज में क्या होती है, आप जानती होंगी। युवा सोते रहेंगे तब यही होगा। इस देश के पास युवाओं की कमी नहीं है लेकिन युवा हैं बहुत कम। सिर्फ़ उम्र कम होने से कोई युवा नहीं जाता।

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

गाँव की जगह गा हो गया है, सुधार कर पढ़ें।

बेनामी ने कहा…

समाचारपत्र में भी पढ़ा था यह लेख

सच्चाई के धरातल पर रह कर बात की जाए तो हमारी सामाजिक व्यवस्था, संरचना बहुत हद तक ज़िम्मेदार है इन बातों के लिए।

किन्तु एक बात पर मुझे संशय है कि कि केवल आर्थिक स्वावलंबन से स्थितियाँ सुधर जाएँगी। सैकड़ों ऐसे उदाहरण हैं जहाँ मंडप में कथित कमाऊ मर्द भी दहेज मांगते अपने पिता के सामने सिर झुकाए 'गऊ' बन जाते हैं।

और दहेज पर यह ताज़ा खबर तो कुछ और ही सोचने पर मज़बूर करती है

anshumala ने कहा…

समस्या सामाजिक है इसे हम कभी भी कानून बना कर नहीं रोक सकते है जब तक की लोगो की सोच को न बदला जाये | कम पढ़े लिखे और गांव की बात तो दूर की है पढ़े लिखे बड़े शहरों के और पैसे वाले भी कन्या भ्रूण हत्या और लड़का लड़की के बिच फर्क करते है | क्योकि बचपन से ही सभी के दिमाग में चाहे वो महिला हो या पौरुष ये बिठा दिया जाता है की बेटा ही सर्वोतम है | घुघूती बासूती जी की बात गलत नहीं है यदि वास्तव में बेतिया कमाने लगे और माँ बाप का खर्च उठाने लगे तो समस्या कुछ हद तक ख़त्म हो सकती है पूरी तरह से नहीं |

डा अमर कुमार जी

मुझे लगता है की यदि दक्षिण भारत में ये नहीं होता तो उसका एक बड़ा कारण है यहाँ पर बेटी की शादी में दहेज़ देने और शादी में दिखावा करने की वो परंपरा नहीं है जो भारत के उत्तरी और पश्चिमी इलाको में है वह बेटी को बोझ समझने की सबसे बड़ी वजह यही है दहेज़, बेटी पैदा होते ही लोग दहेज़ के बारे में सोचने लगते है और कुछ लोग राय देते है की अभी से दहेज़ जुटाने लगो | यदि बेटिया खुद काम करने लगे तो शायद अपने लिए दहेज़ खुद जुटा सके क्योकि भारत से दहेज़ वाली समस्या जाना तो नामुमकिन सा दिखता है |

जैसा की चन्दन जी ने कहा है की आज का युवा खासकर लडके आगे आने के लिए तैयार नहीं है और मैंने तो देखा है की युवा खुद दहेज़ की मांग करते है अपनी चाहतो की लिस्ट बना कर ससुराल भेज देते है | अभी मेरे गांव में एक शादी हो रही है वो भी प्रेम विवाह जिसमे लडके ने खुद ससुराल जा कर दहेज़ में बड़ी रकम मांग ली बेचारी लड़की का रो रो कर बुरा हाल था उसे तो विश्वास ही नहीं हो रहा था की जिससे वो प्रेम करती थी वो ऐसा करेगा चुकी शादी काफी पहले दोनों की इच्छा से तय हो गई थी बस लडके की पढाई पूरी होने का इंतजार था | तो अब जबकि ये बात सभी जगह फ़ैल चुकी है तो वो लड़की और परिवार भी इस शादी को नहीं तोड़ पा रहे है | लडके से प्रेम तब किया था जब वो बेरोजगार था और कुछ खस पढ़ा लिखा नहीं था अब एम बी ए करते ही उसका ये भाव हो गया | तो ये है पढाई लिखी का असर आज के युवा पर |

vandana gupta ने कहा…

विचारणीय आलेख्……………पूर्वा को बधाई।

अन्तर सोहिल ने कहा…

सशक्त लेख है जी
इस प्रश्न ने खलबली सी मचा दी है, दिमाग में
मेरी तीन बहनें हैं और मैनें अपने घर में भी थोडा भेदभाव होते देखा है। लेकिन अब जमाने में बदलाव भी दिख रहे हैं। मेरे एक मित्र के दो बेटे के बाद बेटी हुई है, जिसका उन्हें बेसब्री से इंतजार था और मैं जा रहा हूँ उनसे पार्टी लेने। :)
अरे लडकी! भगवान की जैसी मर्जी

प्रणाम

Arvind Mishra ने कहा…

दुर्भाग्य से अभी भी सामाजिक बदलाव की गति मंद है महज क़ानून ही बनते जाने से समस्या का हल नहीं होता नजर आ रहा है -जन जागरण का कारगर तरीका क्या हो यह सोचा जाना जरुरी है !

अभिषेक मिश्र ने कहा…

माता-पिता और परिवार के प्रति लड़कियों की वर्तमान भूमिका में बदलाव से किसी परिवर्तन की शुरुआत हो सकती है.

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

इसीलिए हमारी पुरानत व्यवस्था में विवाह का एक प्रकार ऐसा भी था जिसमें लडकी को सम्मान के साथ धन भी प्रदान किया जाता था.

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

पूर्वा का यह लेख पुर्वाई के झोंके जैसा लगा॥

ghughutibasuti ने कहा…

दहेज देने की प्रथा दक्षिण भारत में खूब है.आंध्र के दक्षिण में भी.
यह केवल वहाँ कम है जहाँ सदा से स्त्रियाँ घर से बाहर जैसे खेतों में काम करती रही हैं. पहाड़ी इलाकों में भी कम है. पहाड में प्रायः घर बाहर स्त्री देखती है और पुरुष परदेश में नौकरी करता है.
घुघूती बासूती

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

भारत में जितना लिंगभेद दिखता है उतना कहीं नहीं। क्या मनुष्य क्या जानवर सभी में वह भेद करता है। इसका एक और एकमात्र कारण उसका लोभी होना है।

बिटिया मारे पेट में, पड़वा मारे खेत
नैतिकता की आँख में, भौतितकता की रेत।

इस पोस्ट को पढ़कर मुझे अपनी एक कविता याद आ गई। लिंक दे रहा हूँ मन हो तो पढ़ सकते हैं...

http://devendra-bechainaatma.blogspot.com/2011/03/blog-post_08.html

Dr Varsha Singh ने कहा…

एक सार्थक प्रस्तुति !

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

बहुत ही बेहतरीन आलेख बधाई पूर्वा जी
प्रवीन शाकिर का एक शेर है -
लड़कियों के दुःख अजीब और सुख उससे अजीब
जब वो हँसती हैं तो काजल भींगता है साथ -साथ

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

बहुत ही बेहतरीन आलेख बधाई पूर्वा जी
प्रवीन शाकिर का एक शेर है -
लड़कियों के दुःख अजीब और सुख उससे अजीब
जब वो हँसती हैं तो काजल भींगता है साथ -साथ

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

त्रुटि वश परवीन की जगह प्रवीन हो गया है |

Gyan Darpan ने कहा…

आँखे खोलने वाली सच्चाई|

बात आज से लगभग बीस बर्ष पहले की है जोधपुर में एक दिन किसी रिश्तेदार के यहाँ गए तो दहेज़ व बालिका शिक्षा पर चर्चा चल पड़ी| रिश्तेदार बताने लगे उनके एक प्रोफ़ेसर मित्र ने अपनी पुत्री को डाक्टरी पढ़ाई करवाई और जब वे अपनी डाक्टर पुत्री के लिए रिश्ते तलाशने लगे तो हर जगह मोटा दहेज़ माँगा गया|
बेचारे प्रोफ़ेसर साहब कहते सुने गए कि - मैंने पुत्री को डाक्टर बनाया उसकी कद्र कोई नहीं कर रहा इससे तो बढ़िया इसकी पढाई पर किया गया खर्च बचाकर इसे अनपढ़ रखकर उस पैसे का दहेज़ देता तब लड़की ले जाने वाले खुश होते|

Sushil Pathak"Shil" ने कहा…

मेरे एक मौसेरे भाई ने पूछा कि लड़कियाँ अपनी शादी में इतना क्यों रोती हैं? तो मेरा जवाब था कि शादी के बाद लड़की न इधर की होती है और न उधर की, इसलिए रोती है। उस का कुछ नहीं रहता है। एक उस का मायका है और एक उस का ससुराल। पर उस का घर कहाँ है? मैं ने कभी किसी लड़के को ये कहते नहीं सुना कि ये उसका मायका है, उसका ससुराल अवश्य होता है। हम कैसे उम्मीद करें कि ये सब सुधर जाएगा? जब कि हम खुद उसे नहीं सुधारना चाहते हैं। जो चाहते हैं वे कोशिश नहीं करते। जब तक हम सामाजिक सोच को नहीं बदलेंगे, तब तक कुछ नहीं बदलेगा। सिर्फ कानून बनाने से किसी को नहीं बचाया जा सकता। अगर बचाना है तो हमें लोगों की सोच बदलनी पड़ेगी। यह करने से पहले हमें अपनी सोच बदलनी पड़ेगी. . .. बहुत खूब

Asha Joglekar ने कहा…

दिनेशराय जी आपको पूर्वा जैसी यशस्वी बेटी का पिता होने की बधाई। इस विस्तृत और गहरे अध्ययन के लिये पूर्वा को भी बधाई।
लडकी को उसका घर दिलाने के लिये,
हमें पश्चिम का एक बात में अनुसरण करना होगा, कि विवाह के बाद लडकी ससुराल नही अपने घर जाये जहां दोनो पति-पत्नी अपना घर बसायें। इसमें दोनों के मातापिता उनकी मदद कर सकते हैं। उन्हें जब जरूरत हो तब वे दोनों अपने मातापिता की मदद ले सकते हैं। और मातापिता को भी खुले दिल से उनकी मदद करना चाहिये। यह केवल करने से ही साध्य होगा। शायद इससे समस्या सुलझे और लडकी को उसका घर मिल सके और संबंध दोनों घरों से सहज रह सकें।

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

आशा जी, आप ने मेरे मुहँ की बात छीन ली।