@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: न्यायालय
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गुरुवार, 30 मई 2013

बांझ अदालतें

मैं 2004 से एक बुजुर्ग महिला का मुकदमा लड़ रहा हूँ। उन के पति ने अपने पुश्तैनी मकान में रहते हुए एक और मकान बनाया था। उसे एक फर्म को किराए पर दे दिया। फिर फर्म के एक पार्टनर के भतीजे ने उसी नाम से एक फर्म और रजिस्टर करवा ली। मूल फर्म तो शहर से कारोबार समेट कर चल दी और भतीजा उस मकान में पुरानी फर्म का साइन बोर्ड लगा कर नई फर्म का कारोबार करता रहा। महिला ने मकान खाली करने को कहा तो भतीजे ने खाली करने से मना कर दिया। महिला की उम्र 73 वर्ष की थी और बीमार रहती थी तो उस ने अपने बेटे को मुख्तार आम बनाया हुआ था वही मुकदमे को देखता था। मुकदमे में 2010 में निर्णय हुआ और मकान खाली करने का निर्णय हो गया। तब तक महिला की उम्र अस्सी के करीब हो गई। उच्च न्यायालय ने वरिष्ठ नागरिकों के मुकदमे वरीयता से निपटाने का स्थाई निर्देश दे रखा है लेकिन इस के बावजूद प्रक्रिया की तलवार का लाभ उठाने  में कोई भी वकील नहीं चूकता। पेशी पर कोई न कोई बिना किसी आधार के कोई न कोई आवेदन प्रस्तुत होता।  मैं तुरन्त उसी वक्त उस उत्तर देता। तब भी बहस के लिए अगली तिथि दे दी जाती। आदेश होने पर उच्च न्यायालय में उस की रिट कर दी जाती। इसी तरह तीन वर्ष गुजर गए। 

हिला का पुत्र नरेश इतना मेहनती कि वह हर पेशी के पहले मेरे दफ्तर आता मुकदमें की तैयारी करवाता और पेशी के दिन सुबह अदालत खुलते ही अदालत में उपस्थित रहता। आज उसी मुकदमे में पेशी थी और हम सोचते थे कि आज बहस सुन ली जाएगी। 

मुझे कल रात देर तक नींद नहीं आई। सुबह उठा तो निद्रालू था। मैं प्रातः भ्रमण निरस्त कर एक घंटा और सोया। फिर भी तैयार होते होते मुझे देरी हो गई।  मैं नौ बजे अदालत पहुँचा और जाते ही अपने सहायकों और क्लर्क से पूछा कि नरेशआया क्या? लेकिन उन्हों ने मना कर दिया। मुझे आश्चर्य था कि आज उस का फोन भी न आया, जब कि वह इतनी देर में तो चार बार मुझे फोन कर चुका होता। मैं ने तुरंत उसे फोन किया। फोन उस की बेटी ने उठाया। मैं ने पूछा नरेश कहाँ है। बेटी ने पूछा - आप कौन अंकल? मैं ने अपना नाम बताया तो वह तुरन्त पहचान गई और रुआँसी आवाज में बोली कि पापा जी को तो कल रात हार्ट अटैक हुआ और वे नहीं रहे। 

मैं जब अदालत के इजलास में पहुँचा तो आज विपक्षी और उन के वकील पहले से उपस्थित थे। जब कि आज से पहले कभी भी वे अदालत द्वारा तीन चार बार पुकारे जाने पर भी नहीं आते थे। मैं ने अदालत को कहा कि बहस सुन ली जाए। तब विपक्षी ने तुरन्त कहा कि आज बहस कैसे होगी नरेश का तो कल रात देहान्त हो गया है। मैं ने उन्हें कहा कि नरेश इस प्रकरण में पक्षकार नहीं है उस की मृत्यु से यह मुकदमा प्रभावित नहीं होता इस कारण से बहस सुन ली जाए। लेकिन न्यायाधीश ने कहा कि केवल कल कल ही न्यायालय और खुले हैं उस के बाद एक माह के लिए अवकाश हो जाएगा। मैं निर्णय नहीं लिखा सकूंगा। इस लिए जुलाई में ही रख लेते हैं।  मैने विपक्षी उन के वकीलों को उन के द्वारा मेरी पक्षकार के पुत्र की मृत्यु के आधार पर पेशी बदलने पर बहुत लताड़ा लेकिन वे अप्रभावित रहे। न्यायालय को भी कहा कि वह प्रथम दृष्टया बेबुनियाद आवेदनों की सुनवाई के लिए भी समय देता है जिस के नतीजे में मुकदमों का निस्तारण नहीं होता और न्यायार्थी इसी तरह न्यायालयों के चक्कर काटते काटते दुनिया छोड़ जाते हैं। लेकिन न तो इस का प्रतिपक्षी और उन के वकीलों पर इस का कोई असर था और न ही अदालत पर। मुकदमे में दो माह आगे की पेशी दे दी गई।   

ज से 34 बरस पहले जब मैं वकालत के पेशे में आया था तो सोचा था मेरा पेशा उन लोगों को न्याय दिलाने में मदद करने का है जो समाज के अन्याय से त्रस्त हैं। जब भी मैं किसी व्यक्ति को अपनी मदद से न्याय प्राप्त करने में सफल होते देखता तो प्रसन्न हो जाता था। लेकिन इन 34 बरसों में न्याय की यह दुनिया इतनी बदल चुकी है कि अदालतों पर काम का चार गुना बोझा है। कोई न्यायाधीश न्याय करना भी चाहे तो समय पर नहीं कर सकता। जब वह कर पाता है तब तक न्यायार्थी दुनिया छोड़ चुका होता है या फिर उस की कमर टूट चुकी होती है। अब तो एक नए न्यायार्थी के मेरे पास आते ही यह सोचना पड़ता है कि इसे क्या कहा जाए। मैं आकलन करता हूँ तो अधिकांश मामलों में पाता हूँ कि न्याय प्राप्त करने में इसे जितने कष्ट न्यायार्थी को उठाने पड़ेंगे उस से तो अच्छा यह है कि वह इन बांझ अदालतों से न्याय की आस ही न लगाए।                                                     

शनिवार, 27 नवंबर 2010

दिखावे की औपचारिकता

न दिनों अपने आसपास लगातार कुछ ऐसा घटता रहा है कि ब्लाग लेखन की गति बाधित होती रही है। पिछले दस दिनों में एक दिन छोड़ कर शेष दिनों बरसात होती रही। मैं नगर के जिस क्षेत्र में रह रहा हूँ वहाँ की सड़क के किनारे पिछले दिनों ही सीवर लाइन के लिए पाइप डाले गए। निकली हुई मिट्टी वापस भर दी गई। लेकिन बहुत सी मिट्टी बाहर थी। बीच-बीच में जहाँ चैम्बर बनाए गए थे वहाँ मिट्टी का ढेर था। बरसात से सारी मिट्टी बह कर सड़क पर आ गई। पैदल चलना दूभर हो गया। मेरे घर के आगे की सड़क उसी मुख्य सड़क पर जहाँ मिलती है वहीं सीवर लाइन का पाइप डालने से जितनी सड़क टूटी वहाँ मिट्टी भर दी गई थी, लेकिन बरसात से बैठ गई और गड्ढा हो गया, उपर से चिकनी मिट्टी का कीचड़। वहाँ हो कर दुपहिया वाहन का निकलना तक दूभर हो गया। अब यदि कहीं जाना है तो अपनी कार में जाइए और उसी से वापस आ जाइए। यह सुविधा मेरे पास तो है लेकिन बाकी लोग? उन का आना-जाना कैसे हो रहा है? वे ही जानते हैं। 
प्ताह भर पहले सुबह-सुबह कार ने स्टार्ट होने से मना कर दिया। बेचारी क्या करती। यह संकेत वह पिछले दो माह में तीन-चार बार दे चुकी थी। धकियाया  जाता तो चल पड़ती और एक-दो सप्ताह कोई शिकायत नहीं करती। मैं ने जिन्हें बताया उन्हों ने कहा कि बैटरी दिखाओ। मैं ने बैटरी वाले के यहाँ जो मेरा एक मुवक्किल भी है, बैटरी दिखाई, उस ने जाँच करवा कर बताया कि बैटरी बिलकुल ठीक है, इस का सेल्फ लोड ले रहा है आप उस की सर्विस कराइये। इस बीच समय नहीं मिला और सर्विस नहीं करवा पाया। वैसे कार की सर्विस का समय भी निकल चुका था। आखिर मैं ने कार को कुछ लोगों की मदद से धकिया कर चालू किया और उस के अस्पताल पहुँचा दिया। पास ही स्थित इस अस्पताल ने शाम को चमचमाती कार मेरे हवाले कर दी। कार एक सप्ताह शानदार चलती रही।फिर तीन दिन पहले एक शादी में गए, वहाँ से किसी को उन के घर छोड़ा, तो वहाँ कार ने फिर चालू होने से मना कर दिया। कार किसी तरह चालू कर हम घर ले आए। रात को बरसात आरंभ हो गई।  और सुबह कार ने चालू होने से इन्कार कर दिया।
मैं ने कार को रिवर्स में अपने घर से उतारा और रिवर्स में उसे चालू करने का प्रयत्न किया। लेकिन उसने  इस तरह चालू होने से मना कर दिया। समय ऐसा था कि कोई धकियाने वाला नहीं दिखाई दिया। एक सज्जन आए तो उन्हों ने कोशिश की पर कार को चालू नहीं होना था वह चालू नहीं हुई। बरसात ने सड़क को कीचड़ से भर दिया था। पैदल कार-अस्पताल तक जाना संभव नहीं था। अस्पताल का फोन नंबर भी नहीं मिल रहा था। सोचा बाइक से जाया जाए। पर मुझे बाइक का इतना अभ्यास नहीं कि कीचड़ वाली सड़क और गड्ढों में आत्मविश्वास से चला सकूँ। आखिर बहुत दिनों से धूल खा रहा अपना बीस साल पुराना साथी बजाज स्कूटर काम आया। उस की धूल साफ की गई। फिर उसे दायीं तरफ झुका कर सलामी दी गई। एक सलामी से काम न चला तो दूसरी सलामी दी, जिस के बाद एक किक में स्टार्ट हो गया। 
कार अस्पताल में भीड़ थी।  मैं ने प्रबंधक को बताया कि चार दिन पहले सर्विस के समय मैं ने बताया था कि गाड़ी सेल्फ यूनिट से स्टार्ट होने मना करती है  इसे विशेष रूप से चैक कर लें। प्रबंधक कहने लगा, हमने चैक किया था और कार सामान्य रूप से चालू हो रही थी। हम ने उसे छेड़ना उचित नहीं समझा। अब मैं कुछ देर में मिस्त्री को फुरसत होते ही भेजता हूँ। वैसे भी आज तो सेल्फ यूनिट की सर्विस नहीं हो पाएगी। मैं परेशान, स्कूटर या बाइक से अदालत जाना कठिन था, बीच-बीच में बारिश हो रही थी। मैं घर आ कर मिस्त्री का इंतजार करता रहा। उसे न आना था, न आया। मैं ने आखिर महेन्द्र भाई (नेह) को शिकायत लगाई। वे कोटा के सब से बड़े सर्वेयर और क्षति निर्धारक हैं। उन के बात करने पर अस्पताल वाले ने संदेश दिया कि आप बाइक ले कर अस्पताल आ जाएँ। हम मिस्त्री भेजते हैं। मैं मिस्त्री को लेकर आया। वह एक नई बैटरी साथ ले कर आया था। बैटरी बदलते ही कार सामान्य रूप से चालू हो गई। कार को चालू छोड़ कर मिस्त्री ने अपनी बैटरी निकाल ली और पुरानी वापस डाल दी। कहने लगा आप अब तुरंत बैटरी बदल दीजिए। 
मैं ने कार से मिस्त्री को ठिकाने छोड़ा और बैटरी वाले के पास पहुँचा। उस ने बैटरी को चैक किया तो फ्लूड का घनत्व सही पाया लेकिन सेल सांसे गिन रहे थे। नई बैटरी डाल दी गई। मैं ने बैटरी वाले को पूछा कि दो सप्ताह पहले जब बैटरी चैक कराई थी तब क्या हुआ था। कहने लगा हमने तब केवल घनत्व जाँचा था। मैं ने उसे कहा कि मैं जब कह रहा था कि स्टार्ट होने में समस्या है तो आप को सेल भी जाँचना चाहिए था। उस के स्थान पर आप ने सेल्फ यूनिट की सर्विस कराने को कहा। उस दिन सेल जाँच लिया जाता  तो यह समस्या नहीं होती। उस ने अपने कर्मी की गलती स्वीकार की और कहा कि आगे से हर उपभोक्ता के मामले में इस बात का ध्यान रखूंगा।  मैं कार-वर्कशॉप आया, वर्कशॉप मैनेजर को धन्यवाद किया, इस उलाहने के साथ कि जब मैं ने सेल्फ यूनिट के ठीक काम न करने की शिकायत दर्ज कराई थी तो कार सर्विस के दौरान सेल्फ दुरुस्त पाए जाने पर बैटरी को जाँचना चाहिए था और उसी दिन बैटरी बदलने की सलाह दे देनी चाहिए थी। उस ने अपनी गलती स्वीकार की। 
मैं ने कष्ट इसलिए पाया कि बैटरी वाले ने और वर्कशॉप ने अपनी सेवाएँ ठीक से नहीं की थीं और यह सेवा दोष एक उपभोक्ता मामला बन चुका था। मैं चाहता तो दोनों को परेशानी और मानसिक संताप के लिए हर्जाना देने को कह सकता था। मना करने पर उपभोक्ता अदालत में जा सकता था। लेकिन दोनों ने गलती स्वीकार की थी। और भविष्य में सेवाएँ सुधारने का वायदा किया था। मैं यह भी जानता था कि उपभोक्ता अदालत में मुकदमों की भरमार है वहाँ भी साल-दो साल फैसला होने में लग जाएंगे। मुकदमे से परेशानी होगी वह अलग है। लेकिन यह जरूर है कि इन दोनों में से किसी ने भी सेवा में कोताही की तो मैं उपभोक्ता अदालत को शिकायत अवश्य करूंगा। हमारे यहाँ सेवादोष हर जगह मिलता है। उस का मुख्य कारण है कि उपभोक्ता सेवा प्रदाता या विक्रेता की शिकायत नहीं करता। उधर उपभोक्ता अदालतों की हालत यह है कि वहाँ मुकदमे जल्दी निपटाए ही नहीं जाते। अधिकतर जज  सेवानिवृत्त हैं और केवल समय बिता रहे हैं। फिर कभी कोरम पूरा नहीं होता, कभी सदस्यों की नियुक्ति नहीं होती तो कभी जज नहीं है। जब अदालतें मुकदमों के निपटारे में समय लगाने लगती हैं तो उपभोक्ता अदालत में मामला ले जाने से कतराने लगता है।  यदि उपभोक्ता अदालतों में मामलों के निर्णय छह माह से एक वर्ष के भीतर होने लगें तो विक्रेता और सेवाप्रदाताओं को उपभोक्ताओं को अच्छी सेवा देने पर मजबूर होना पड़े। पर लगता है सरकारें समस्या के वास्तविक समाधान पर कम और दिखावे की औपचारिकता पर अधिक ध्यान देती हैं।

बुधवार, 29 सितंबर 2010

हम कब इंसान और भारतीय बनेंगे?

लाहाबाद उच्च न्यायालय के अयोध्या निर्णयके लिए 30 तारीख मुकर्रर हो चुकी है। कल सर्वोच्च न्यायालय ने कह दिया कि बातचीत से समझौते पर पहुँचने के लिए बहुत देरी हो चुकी है, अदालत को अपना निर्णय दे देना चाहिए। दोनों निर्णयों के बीच की दूरी सिर्फ 48-50 घंटों की रहेगी। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के उपरान्त इतना समय तो दिया जाना जरूरी भी था। जिस से जिस-जिस को जो जो तैयारी करनी हो कर ले। 
ल दोपहर जब मैं अपने नियमित साथियों के साथ मध्यान्ह की कॉफी पीने बैठा तो मेरे ही एक सहायक का मोबाइल मिला कि आप के क वकील मित्र आप को कॉफी के लिए बुला रहे हैं। शहीद भगत सिहं का जन्मदिवस होने से अभिभाषक परिषद में मध्यान्ह पश्चात कार्यक्रम था। अदालती काम लगभग निपट चुका था। मैं नियमित कॉफी निपटाने के बाद दूसरी कॉफी मजलिस में पहुँचा। वहाँ अधिकतर लोग जा चुके थे। पर क वकील साहब अपने एक अन्य मित्र ख के साथ वहीं  विराजमान थे। कुछ देर इधर-उधर की बातें हुई और कॉफी आ गई। तभी वकील साहब के मोबाइल की घंटी बजी। सूचना थी कि सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्चन्यायालय को अयोध्या पर निर्णय सुनाने के लिए हरी झंडी दिखा दी है।  वकील साहब तुरंत ही मोबाइल  पर व्यस्त हो गए। कुछ देर बाद उन्हों ने बताया कि निर्णय 30 सितंबर को सुनाया जाएगा। फिर उन्हों ने अपने घर फोन किया कि घर की जरूरत का सभी सामान जो माह के पहले सप्ताह में मंगाया जाता है वह आज ही मंगा लिया जाए, कम से कम 30-40 किलो गेहूँ पिसवा कर आटा कर लिया जाए और पाँच-सात दूध पाउडर के डब्बे जरूर मंगा लिए जाएँ। वजह अयोध्या का निर्णय था, उन के मन में यह आशंका नही बल्कि विश्वास था कि अयोध्या का निर्णय कुछ भी हो पर उस के परिणाम में दंगे जरूर भड़क उठेंगे.... कर्फ्यू लगेगा और कुछ दिन जरूरी चीजें लेने के लिए बाजार उपलब्ध नहीं होगा।
वकील साहब न कांग्रेसी हैं न भाजपाई। उन के संबंध कुछ पुराने बड़े राजघरानों से हैं जिन की अपनी सामंती कुलीनता और संपन्नता के कारण किसी न किसी राजनैतिक दल में पहुँच है। इस पहुँच को वे कोई रंग देते भी नहीं हैं। क्यों कि कब कौन सा दल शासन में रहेगा यह नहीं कहा जा सकता। वे केवल अपनी सामंती कुलीनता को बनाए रखना चाहते हैं और संपन्नता को पूंजीवादी संपन्नता में लगातार बदलने के लिए काम करते हैं। ऐसे लोग हमेशा शासन के निकट बने रहते हैं। उन की सोच थी कि फैसला कुछ भी हो देश का माहौल जरूर बिगड़ेगा और दंगे जरूर होंगे।
वकील साहब घोषित रूप से कांग्रेसी हैं। उन के पास अपनी कोई कुलीनता नहीं है। लेकिन वे किसी भी अवसर को झपट लेने को सदैव तैयार रहते हैं। उन की भी सोच यही थी कि दंगे तो अवश्यंभावी हैं। दंगों में फायदा हिन्दुओं को होगा, वे कम मारे जाएंगे। मुसलमानों को अधिक क्षति होगी, क्यों कि पुलिस और अर्ध सैनिक बल हिन्दुओं की तरफदारी में रहेंगे। इन सब के बावजूद न तो वे दूध के लिए चिंतित थे और न ही घर में आटे के डब्बे के लिए। उन के पिचहत्तर साल के पिता मौजूद हैं। घर और खेती की जमीन के मालिक हैं और वे ही घर चलाते हैं। चिंता होगी भी तो उन्हें होगी। दोनों ने अयोध्या के मामले में सुनवाई करने वाली पीठों के न्यायाधीशों के हिन्दू-मुस्लिम चरित्र को भी खंगाल डाला। पर इस बात पर अटक गए कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय में समझौते के लिए बातचीत करने का समर्थन करने के लिए मतभेद प्रकट करने वाले न्यायाधीश हिन्दू थे।
धर न्यायालय परिसर में बातचीत हो रही थी। कुछ हिन्दू वकील कह रहे थे कि यदि फैसला उन के हक में नहीं हुआ तो  वे हिन्दू संगठन फैसले को न मानेंगे और जमीनी लड़ाई पर उतर आएंगे। लेकिन यदि फैसला मुसलमानों के हक में आता है तो उन्हें अनुशासन में रहना चाहिए। कुछ मुस्लिम वकील जवाब में प्रश्न कर रहे थे कि वे तो हमेशा ही अनुशासन में रहते आए हैं। लेकिन यह अनुशासन उन के लिए ही क्यों?
शाम को बेटे का फोन आया तो उस ने मुझे तो कुछ नहीं कहा। पर अपनी माँ को यह अवश्य कहा कि घर में सामान की व्यवस्था अवश्य कर लें और पापा से कहें कि वे अनावश्यक घर के बाहर न जाएँ। माँ ने बेटे की सलाह मान ली है। घर में कुछ दिनों के आवश्यक सामानों की व्यवस्था कर ली है।
मैं सोच रहा हूँ कि हम कब तक अपनी खालों के भीतर हिन्दू और मुसलमानों को ढोते रहेंगे? कब इंसान और भारतीय बनेंगे?


मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

कैसे होगा इस समस्या का हल?

ज मन बहुत दुखी है। दंतेवाड़ा में 75 जवान नक्सल हमले के शिकार हो मारे गए। वे किसी न किसी माता-पिता के पुत्र, किसी पत्नी के पति और बच्चों के माता-पिता होंगे। क्या हुआ होगा जब यह खबर उन आश्रितों पर पहुँचेगी जिन का आश्रयदाता इस हमले में मारा गया। वे सभी शहीद कहलाएँगे। उन के कम से कम एक आश्रित को फिर से उसी सुरक्षा दल में नौकरी मिल जाएगी जो हो सकता है ट्रेनिंग के बाद फिर से उसी जंगल में नक्सलियों से मुकाबला करने के लिए भेज दिया जाए।  पत्नियों और अवयस्क बच्चों को हो सकता है पेंशन मिलने लगे। हो सकता है कुछ ही दिनों में वे अपना दुख भुला कर जीवन जीने लगें। इस घटना की जानकारी मिलने के बाद मैं सोचने लगा कि आखिर उन की मौत का जिम्मेदार कौन है?
मारे राजनेता जो जनता से चुने जा कर संसद और विधानसभाओं में पहुँचते हैं, उन्हीं में से कुछ मंत्री बनते हैं और सरकार बनाते हैं। उन्हीं मंत्रियों ने नक्सलियों से लोहा लेने और उन्हें समाप्त कर डालने के लिए ऑपरेशन ग्रीन हंट का निर्णय लिया था। निश्चित रूप से यह निर्णय केवल हमारे मंत्रियों ने ही नहीं ले लिया होगा। उन्हों ने इस से पहले सुरक्षा बलों के मुखियाओं और विशेषज्ञों से भी राय की होगी। जब एक बार सुरक्षा बलों को यह जिम्मेदारी दे दी गई तो उन्होंने ऐसी योजना भी बनाई होगी जिस में सुरक्षा बलों के जवानों की कम से कम हानि हो और समस्या पर काबू पाया जाए। तब ऐसा कैसे हो गया कि ऑपरेशन के पहले ही कदम पर पहले प. बंगाल में और दंतेवाड़ा (छत्तीसगढ़) में ये घटनाएँ हो गईं?
निश्चित रूप से सुरक्षा बलों के पास नक्सलियों की ताकत और रणनीति का आकलन उपलब्ध नहीं है। ऐसा लगता है कि वे इस भ्रम में थे कि उन पर तो हमला हो ही नहीं सकता। हमला करेंगे तो वे ही करेंगे। वे शायद नक्सलियों, को यह समझ बैठे थे कि वे नगर देहात की निरीह जनता हैं।  शायद वे सोच रहे थे कि वे खुद पूरे लवाजमे के साथ जा रहे हैं तो उन का तो कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता है। हो सकता है कि उन्हें अपने दिशा निर्देशकों पर भरोसा रहा हो कि उन्हों ने जो निर्देश दिए हैं उन के अनुसार वे सुरक्षित हैं। लेकिन हुआ उस के विपरीत अभियान अपने आरंभिक चरण में ही था कि उन्हें अपना बलिदान देना पडा। निश्चित रूप से इस घटना को केवल यह कह कर हवा में नहीं उड़ाया जा सकता कि नक्सली बहुत क्रूर औऱ खून के प्यासे हैं। इन जवानों की मौत के लिए उन के दिशानिर्देशक सुरक्षा बलों के अधिकारी, उन के नीति निर्देशकों को अपने ही जवानों के वध की इस जिम्मेदारी से बरी नहीं किया जा सकता। इस आँच से वे राजनेता भी नहीं बच सकते जिन्हों ने नक्सल समस्या से निपटने के लिए ऐसी रणनीति बनाई जिस से पहले ही चरण में उन्हें अपनी भारी हानि उठानी पड़ी है। 
निश्चित रूप से यह समस्या केवल कानून और व्यवस्था की समस्या नहीं है। जनता के सही प्रशासन की समस्या भी है। ग्रीन हंट ऑपरेशन की घोषणा के साथ ही जिन कारणों से नक्सलवाद को पनपने का अवसर मिलता है उन कारणों को समाप्त करने के लिए भी क्या कोई योजना बनाई गई है और क्या उस पर अमल किया गया है? क्या उस के कुछ नतीजे भी सामने आए हैं। ये सभी प्रश्न अनुत्तरित हैं। इन प्रश्नों  को अब न केवल उन शहीद जवानों के परिवार जन हमारे राजनेताओं और सुरक्षा बलों के नेतृत्व से पूछेंगे अपितु जनता भी पूछेगी।
ज दिन में जब मैं अदालत में था तो मुझे इस घटना का बिलकुल भी ज्ञान नहीं था। आज दो मुकदमों में बहस थी जिन में से एक गोपाल नारायण भाटी का मुकदमा भी एक था। वे देश के तीसरे नंबर के औद्योगिक घराने की एक फैक्ट्री में सीनियर इलेक्ट्रिकल सुपरवाइजर थे। उन से जुलाई 1983 में कहा गया कि वे नौकरी से त्यागपत्र दे दें। उन्हों ने नहीं दिया तो उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। उन्हों ने मुकदमा लड़ा और जुलाई 1992 में उन के मुकदमे का फैसला हो गया और उन्हें फिर से नौकरी पर लेने का आदेश मिला। लेकिन कंपनी ने फैसले की अपील कर दी। जुलाई 2002 में वे उच्चन्यायालय से भी जीत गए। आगे अपील नहीं हुई। उन्हें फिर भी नौकरी पर नहीं लिया गया। नवम्बर 2004 में वे साठ वर्ष के हो गए और सेवानिवृत्ति की उम्र हो गई। अब उन्हें न्यायालय के निर्णय. के अनुसार अपने वेतन आदि की राशि कंपनी से लेनी है जिस की संगणना का मुकदमा चल रहा है। इस मुकदमें में जनवरी 2007 में अंतिम बहस हो जानी चाहिए थी लेकिन किसी न किसी कारण से टलती रही है। हर बार जब किसी कारण से तारीख बदलने लगती है तो भाटी जी आपे से बाहर हो जाते हैं। 
ज भी यही हुआ। जज अस्वस्थ थे, उन्होंने तारीख बदलने को कहा और भाटी जी आपे से बाहर हो गए। भाटी जी ने 1983 से ले कर 2010 तक के इस 27 साल के सफर में बहुत दिन देखे हैं। एक बेटा आत्महत्या कर चुका है। दूसरे को मकान गिरवी रख कर वित्तीय संस्था से ऋण लेकर एक छोटा व्यवसाय आरंभ कराया लेकिन बाजार की समझ न होने से उस में हानि उठानी पड़ी और अब वह कहीं नौकरी कर रहा है। मकान वित्तीय संस्था ने कुर्क कर रखा है। वे अदालत से कहते हैं कि वित्तीय संस्था को मुझ से तीन लाख ले ने हैं। मुझे कंपनी से बीस लाख लेने हैं। अदालत तीन लाख काट कर बाकी 17 लाख मुझे दिला दे। पर दोनों अदालतें अलग अलग हैं। एक उन से लेने को और न देने पर मकान बेचने को तैयार बैठी है। तो दूसरी दिला नहीं पा रही है। 
भाटी जी संस्कारों से हिन्दू हैं और कांग्रेस व साम्यवाद के विरोधी। उन्हों ने अपने जीवन में या तो जनसंघ को वोट दिया या फिर भाजपा को और जब ये दोनों दल नहीं थे तो एकाध बार जनता पार्टी को।  वे आज फिर अदालत में बोलने लगे तो कई बार कहा कि वे हिन्दू हैं इस लिए सहिष्णु हैं। बहुत कुछ कहा उन्हों ने।  कंपनी, उद्योगपति, उन के वकील, सरकार, नेता, अदालत और जजों किसी को नहीं बक्शा। लेकिन अंत में यही कहा कि "कंपनी के मालिकों को हक मारने और धन बनाने से मतलब है, नेता और सरकारें उन की गुलाम हैं। न ये सुनते हैं और न अदालतें सुनती है तो कहाँ जाएँ वे, कहाँ जाएँ मजदूर और गरीब लोग?  सभी बहरे हो चुके हैं.। इन्हें तो समाप्त ही करना होगा और उस के लिए नक्सल होना पड़ेगा।" यह कोटा है राजस्थान  के दक्षिण पूर्व का एक जिला। जहाँ मीलों दूर तक नक्सल आंदोलन की आहट तक नहीं सुनाई देती। यहाँ का प्रशासन और सरकार कभी सोच भी नहीं सकती कि यहाँ कभी नक्सली अपनी जमीन बना पाएँगे। यहाँ वैसे जंगल और आदिवासी भी नहीं हैं, जिन में उन की पैठ बन सकती हो। लेकिन यदि जनता को न्याय समय पर नहीं मिला तो क्या उस की सोच क्या वैसी ही नहीं बनेगी जैसी भाटी जी की बनने लगी है?

मंगलवार, 23 मार्च 2010

काम का प्रतिफल मिलने की खुशी

निवार को मैं एक थकान भरी व्यवसायिक यात्रा से लौटा था। उस दिन अदालत में कोई काम न था। सिवाय एक मुकदमे में अगली पेशी नोट करने के। जिस अदालत में यह मुकदमा चल रहा है वहाँ की महिला जज प्रसूती अवकाश पर हैं जो छह माह का हो सकता है। इस कारण उस अदालत का कामकाज बंद है, जो मुकदमे रोज कार्यसूची में हैं उन में केवल पेशी बदल दी जाती है। यदि कोई आवश्यक काम हो तो संबंधित मुकदमे की पत्रावली लिंक जज के पास जाती है और वह उस में आदेश पारित कर देता है। जब तक जज साहिबा अवकाश से वापस लौट कर नहीं आ जाती हैं काम ऐसे ही चलता रहेगा और उन का आना तो  जुलाई तक ही हो पाएगा। 
वैसे सैंकड़ों कारखाने हैं जिन के संयंत्र अनवरत चौबीसों घंटे, बारहों माह चलते हैं, भारतीय रेलवे के तमाम स्टेशन चौबीसों घंटे चालू रहते हैं, पुलिस थाने और अस्पताल भी चौबीसों घंटे चालू रहते हैं, चौबीसों घंटे लोग बीमार होते हैं, मरते हैं और जन्म लेते हैं। अपराधी चौबीसों घंटे अपराध करते हैं और पकड़े जाते है। बहुत से काम हैं चौबीसों घंटे होते हैं। उन के लिए व्यवस्थाएँ हम करते हैं। इन कामों में संलग्न लोग भी अवकाशों पर जाते हैं लेकिन फिर भी काम चलते रहते हैं। लेकिन न्याय प्रणाली की स्थिति कुछ और है। यहाँ जितनी अदालतें हैं उतने जज नहीं हैं। बहुत सी अदालतें हमेशा खाली पड़ी रहती हैं। इन के आंकड़े भी बताए जा सकते हैं। लेकिन उस का कोई लाभ नहीं आज कल ये आंकड़े खुद हमारे जज विभिन्न समारोहों के दौरान बताते हैं। तो जब अदालतें जजों के अभाव से खाली पड़ी रहती हैं तो फिर यह तो हो ही नहीं सकता कि जब कोई जज अवकाश पर चला जाए तो उस का एवजी काम करने के लिए कोई जज उपलब्ध हो सके। होना तो यह चाहिए कि जितनी अदालतें हैं। उन के हिसाब से हमारे पास कुछ अधिक जज हों जिन्हें किसी नियमित जज के दो दिन से अधिक के अवकाश पर जाने पर उस से रिक्त हुए न्यायालय में लगाया जा सके। पर पहले जज उतने तो हों जितनी अदालतें हैं। खैर!
मैं शनिवार को अदालत नहीं गया। पेशी नोट करने के लिए मेरे कनिष्ठ नंदलाल शर्मा वहाँ थे। मैं ने अपना दफ्तर संभाला तो वहाँ बहुत काम पड़ा था। दिन भर काम करता रहा। शाम को पता लगा कि एक मुकदमे में जिस में पिछले दिनों बहस हो चुकी थी और सोमवार को निर्णय होना था वादी और प्रतिवादी संख्या 1 व 2 ने अपनी बहस को लिखित में भी पेश किया है। हमारी मुवक्किल का भी कहना था कि हमें भी पीछे नहीं रहना चाहिए और अपनी बहस जो की गई है वह लिखित में प्रस्तुत कर देनी चाहिए। मैं भी उन से सहमत था। मैं उस काम में जुट गया। पूरे मुकदमे की फाइल दुबारा से देखनी पड़ी। 
विवार को सुबह स्नानादि से निवृत्त हो कर जल्दी काम करने बैठा और सोमवार की कार्य सूची देखी तो पता लगा कि अट्ठाईस मुकदमे सुनवाई में लगे हैं। मैं उन्हें देखने बैठ गया जिस से मुझे किसी अदालत को यह न कहना पड़े कि मैं उस में काम नहीं कर सकूंगा। हालांकि मैं जानता था कि इतने मुकदमों में से भी शायद तीन-चार में ही काम हो सके। मैं आधी पत्रावलियाँ भी न देख सका था कि एक नए मुवक्किल ने दफ्तर में प्रवेश किया। पारिवारिक संपत्ति का मामला था। भाइयों में पिता की छोड़ी हुई संपत्ति पर कब्जे का शीत युद्ध चल रहा था। इस बीच हर कोई अपने लिए अपना शेयर बचाने और बढ़ाने में जुटा था। मैं ने उन्हें उचित सलाह दी। लेकिन उस में बहुत परिश्रम और भाग-दौड़ थी। उन की राय थी कि कुछ दस्तावेज आज ही तैयार कर लिये जाएँ। मैं ने भी मामले की गंभीरता को देख सब काम छोड़ कर वह काम करना उचित समझा। चार घंटे वह मुवक्किल ले गया। उस का काम निबट जाने पर मैं बहस लिखने बैठा।
दालत में मौखिक बहस करना आसान है, बनिस्पत इस के कि उसे लिख कर दिया जाए।  एक ईमानदार और प्रोफेशनल बहस को प्रस्तावित निर्णय की तरह होना चाहिए। केवल इतना अंतर होना चाहिए कि यदि जज केवल  आप की प्रार्थना को निर्णय के अंत में दिए जाने वाले आदेश में बदल सके।  बहस लिखने में इतनी रात हो गई कि तारीख बदल गई। इस बीच अंतर्जाल की तरफ नजर तक उठाने का समय न मिला। दफ्तर से उठने के पहले मेल देखा, वहाँ कुछ जरूरी संदेश थे। कुछ का उत्तर दिया। ब्लाग पर कुछ पोस्टें पढ़ीं, कुछ पर टिपियाया और फिर सोने चल दिया। रात दो बजे सोने के बाद सुबह सात बजे तक तो सो कर उठना संभव नहीं था।
सोमवार सुबह उठते ही फिर से दफ्तर संभाला वहीं सुबह की कॉफी पी गई। रात को लिखी गई बहस को एक बार देखा और अंतिम रूप दे कर उस का प्रिंट निकाला। अदालत की पत्रावलियों पर एक निगाह डाली। तैयार हो कर अदालत पहुँचा तो बारह बज रहे थे। सब से पहले तो अदालत जा कर लिखित बहस जज साहब को पेश करनी थी। हालांकि यह दिन निर्णय के लिए मुकर्रर था। मैं ने जज साहब से पूरी विनम्रता से कहा कि पहले प्रतिवादी सं. 1 व 2 बहस लिखित में प्रस्तुत कर चुके हैं और वादी ने भी शनिवार को ऐसा ही किया। मैं प्रतिवादी सं. 3 का वकील हूँ। मेरी मुवक्किला का भविष्य इस मुकदमे से तय होना है इस लिए मैं भी संक्षेप में अदालत के सामने की गई अपनी बहस को लिख लाया हूँ। इसे भी देख लिया जाए। जज साहब झुंझला उठे, जो स्वाभाविक था, उन्हें उसी दिन निर्णय देना था और अभी लिखित बहस दी जा रही थी। उन्हों ने कहा कि भाई दो पक्षकार लिखित बहस दे चुके हैं आप भी रख जाइए।
मैं वहाँ से निकल कर अपने काम में लगा। एक अदालत में जज साहब स्वास्थ्य के कारणों से अवकाश पर चले गए थे। मुझे सुविधा हुई कि मेरा काम एकदम कम हो गया। काम करते हुए चार बज गए। जिस अदालत में लिखित बहस दी गई थी वहाँ का हाल पता किया तो जानकारी मिली कि जज साहब सुबह से उसी मुकदमे में फैसला लिखाने बैठे हैं। मैं अपने सब काम निपटा चुका तो शाम के पाँच बजने में सिर्फ पाँच मिनट शेष थे। लगता था कि अब निर्णय अगले दिन होगा। कुछ मित्र मिल गए तो शाम की कॉफी पीने बैठ गए। इसी बीच हमारी मुवक्किल का फोन आ गया कि मुकदमे में क्या निर्णय हुआ। वे दिन में पहले भी तीन बार फोन कर चुकी थीं। मैं ने उन्हें बताया कि आज निर्णय सुनाने की कम ही संभावना है। शायद कल सुबह ही सुनने को मिले। काफी पी कर मैं एक बार फिर अदालत की ओर गया तो वहाँ उसी मुकदमे में पुकार लग रही थी जिस में निर्णय देना था। मैं वहाँ पहुँचा तो पक्षकारों की ओर से मेरे सिवा कोई नहीं था। शायद लोग यह सोच कर जा चुके थे कि निर्णय अब कल ही होगा। जज की कुर्सी खाली थी। कुछ ही देर में जज साहब अपने कक्ष से निकले और इजलास में आ कर बैठे। मुझे देख कर पूछा आप उसी मुकदमे में हैं न? मैं ने कहा -मैं प्रतिवादी सं.3 का वकील हूँ। जज साहब ने फैसला सुनाया कि दावा निरस्त कर दिया गया है। हमारे साथ न्याय हुआ था। फैसले ने लगातार काम से उत्पन्न थकान को एक दम काफूर कर दिया।
म मुकदमा जीत चुके थे। मैं ने राहत महसूस की, अदालत का आभार व्यक्त किया और बाहर आ कर सब से पहले अपनी मुवक्किल को फोन कर के बताया कि  वे मिठाई तैयार रखें। मुवक्किल प्रतिक्रिया को सुन कर मैं अनुमान कर रहा था कि उसे कितनी खुशी हुई होगी। इस मुकदमे में उस के जीवन की सारी बचत दाँव पर लगी थी और वह उसे खोने से बच गयी थी। इस मुकदमे को निपटने में छह वर्ष लगे। वे भी इस कारण कि वादी को निर्णय की जल्दी थी और हम भी निर्णय शीघ्र चाहते थे। खुश किस्मती यह थी कि केंद्र सरकार द्वारा फौजदारी मुकदमों की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रेक अदालतें स्थापित कर दिए जाने से जिला जज और अतिरिक्त जिला जजों को दीवानी काम निपटाने की फुरसत मिलने लगी थी। मैं सोच रहा था कि काश यह निर्णय छह वर्ष के स्थान पर दो ही वर्ष में होने लगें तो लोगों को बहुत राहत मिले। साथ ही देश में न्याय के प्रति फिर से नागरिकों में एक आश्वस्ति भाव उत्पन्न हो सके।

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

खिन्नता यहाँ से उपजती है

दो दिन कुछ काम की अधिकता और कुछ देश की न्याय व्यवस्था से उत्पन्न मन की खिन्नता ने  न केवल अनवरत पर अनुपस्थिति दर्ज कराई, पठन कर्म भी नाम मात्र का हुआ।  मैं भी इस न्याय व्यवस्था का ही एक अंग हूँ। अधिक खिन्नता का कारण भी यही है कि देश की ध्वस्त होती न्याय व्यवस्था का प्रत्यक्षदर्शी गवाह भी हूँ। 
32 वर्ष पहले जिस माह में मुझे वकालत की सनद मिली थी। उसी माह आप के सुपरिचित कवि-गीतकार महेन्द्र 'नेह' को अपने एक साथी के साथ बिना किसी कारण नौकरी से हटा दिया गया था। उन्हों ने मुकदमा दायर किया। जो श्रम विभाग में पाँच वर्ष घूमते रहने के उपरांत श्रम न्यायालय को प्रेषित किया गया। इस बीच उन के एक और साथी को नौकरी से हटाया गया। उन का मुकदमा भी उसी वर्ष श्रम न्यायालय में पहुँच गया। 1995 में तीनों व्यक्तियों के मुकदमे अंतिम बहस में लग गए। पाँच जज उस में अंतिम बहस सुन भी चुके। लेकिन हर बार उन के फैसला लिखाने के पहले ही उन का स्थानान्तरण हो जाता है। एक ही मुकदमें में पाँच बार बहस करना वकील के लिए बेगार से कम नहीं। आखिर उसे एक ही काम को पाँच बार करना पड़ रहा है। दूसरी ओर एक व्यक्ति का अदालत में 26 वर्ष से मुकदमा चल रहा है और पाँच बार बहस करने के उपरांत भी उस का निर्णय देने में अदालत सक्षम नहीं हो सकी। खिन्नता यहाँ से उपजती है।
क मुकदमा आज न्यायालय में एक प्रारंभिक प्रश्न पर बहस के लिए था। जब कि उस मुकदमे को चलते बीस साल हो चुके हैं। आज फिर उस प्रारंभिक प्रश्न को दर किनार कर कुछ नए मुद्दे उठाए गए। कर्मचारी से अदालत ने पूछा कि उस की उम्र कितनी हो गई है? उस का उत्तर था साढ़े अट्ठावन वर्ष। अब नौकरी के डेढ़ वर्ष शेष रह गए हैं। मैं जानता था कि इतने समय में उस मुकदमे का निर्णय नहीं हो सकता। दो-तीन साल में उस के पक्ष में निर्णय हो भी गया तो नौकरी पर तो वह जाने से रहा। कुछ आर्थिक लाभ उसे मिल सकते हैं। लेकिन उन्हें रोकने के लिए हाईकोर्ट है। मैं ने कल पता किया था कि हाईकोर्ट का क्या हाल है? पता लगा कि वहाँ अभी 1995-96 में दर्ज मुकदमों की सुनवाई चल रही है, अर्थात पंद्रह वर्ष पूर्व के मुकदमे। अब यदि इस कर्मचारी का मुकदमा हाईकोर्ट गया जिस की 99 प्रतिशत संभावना है को उस के जीवन में हो चुका फैसला!
हस के दौरान ही मैं ने कर्मचारी से कहा -बेहतर यह है कि तुम अदालत को हाथ जोड़ लो और कहो कि अदालत उस का मुकदमा उस के जीवन में निर्णीत करने में सक्षम नहीं है। वह इसे चलाएगा तब भी उसे उस का लाभ नहीं मिलेगा। इस लिए वह इसे चलाना नहीं चाहता। अदालत ने कहा कि इस का जल्दी फैसला कर देंगे। चाहे दिन प्रतिदिन सुनवाई क्यों न करनी पड़े। लेकिन ऐसे मुकदमों की संख्या अदालत में लंबित चार हजार में से पचास प्रतिशत से अधिक लगभघ दो हजार है। उन सब की दिन प्रतिदिन सुनवाई हो ही नहीं सकती। 

मैं तीसरा खंबा के लिए लिखी जा रही भारत मे विधि का इतिहास श्रंखला के लिए पढ़ रहा था तो मुझे उल्लेख मिला कि 1813 में लॉर्ड हेस्टिंग्स के बंगाल का गवर्नर जनरल बनने के समय लगभग ऐसे ही हालात थे। वर्षों तक निर्णय नहीं होने से लोगों की आस्था न्याय पर से उठ गई थी। लोग संपत्ति और अन्य विवादों का हल स्वयं ही शक्ति के आधार पर कर लेते थे। तब राजतंत्र था। आज जनतंत्र है लेकिन शायद हालात उस से भी बदतर हैं। उस समय भी यह समझा जाता था कि आर्थिक कारणों से अधिक अदालतें स्थापित नहीं की जा सकती हैं। लेकिन लॉर्ड हेस्टिंग्स ने उस समय की आवश्यकता को देखते हुए न केवल न्यायालयों की संख्या में वृद्धि की अपितु शीघ्र न्याय के लिए आवश्यक कदम उठाए। आज देश में न्याय व्यवस्था की स्थिति बदतर है, देश के मुख्य न्यायाधीश कह चुके हैं कि देश में 60000 के स्थान पर केवल 16000 न्यायालय हैं। इन की संख्या तुरंत बढ़ा कर 35 हजार करना जरूरी है अन्यथा देश में विद्रोह हो सकता है।
लेकिन देश के शासनकर्ताओं पक्ष-विपक्ष के किसी राजनेता के कान पर जूँ  तक नहीं रेंगती। उन्हें न्याय से क्या लेना-देना। शायद इसलिए कि न्याय उन की गतिविधियों में बाधक बनता है? केन्द्र सरकार ने जो ताजा बजट पेश किया है उस में सु्प्रीम कोर्ट के लिए जिस धन का प्रावधान किया गया है वह पिछले वर्ष से कम धन का है। जब कि इसी अवधि में महंगाई के कारण रुपए का अवमूल्यन हुआ है।

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

जल्दी की तारीख अदालत के स्टॉक में नहीं

मेरे यहाँ कोटा में वकीलों की चार माह तक चली हड़ताल समाप्त हुए डेढ़ माह से ऊपर हो चला है। अदालतें अब पूरी शक्ति से काम करने लगी हैं। अपने निर्धारित कोटे से दुगना और कोई कोई तो उस से भी अधिक काम कर रही हैं। बहुत दिनों के बाद मुझे लग कर काम करना पड़ा है। दो मुकदमों में सोमवार को और दो में मंगलवार को बहस हो गई और उन में अन्तिम निर्णय के लिए तारीखें निश्चित हो गईँ। फिर भी सब वकीलों के पास काम इतना नहीं है और जो काम कर रहे हैं वे भी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं हैं। मैं उस के कारणों में जाना चाहता हूँ।
कोटा में पंजीकृत वकीलों की संख्या 1700 के लगभग है जिन में से कोई 900 वकील नियमित रूप से वकालत के पेशे में हैं यहाँ अदालतों की संख्या 45 से अधिक है। एक मुकदमे में समस्त सुनवाई करने के उपरांत निर्णय करने के लिए अदालत के पीठासीन अधिकारी को दो दिन का समय मिलता है। यदि अदालतें एक दिन में दो निर्णय करती हैं तो वे निर्धारित कोटे से चार गुना काम कर रही हैं। इस से अधिक काम कर पाना  तमाम तकनीकी मदद के भी असंभव है।  इस गति से भी इस नगर की अदालतों में सौ से कम मुकदमों में ही निर्णय हो सकते हैं। इस तरह लगभग वकीलों की संख्या के अनुपात में केवल दस से बारह प्रतिशत मुकदमे ही निर्णीत हो सकते हैं। 
धर अदालतों में मुकदमों का अंबार लगा हुआ है जो कि कम होने का नाम नहीं ले रहा है।  निश्चित रूप से बहुत से वकील फुरसत में हैं। वे काम करना चाहते हैं लेकिन काम करने के लिए अदालतें तो हों। अब वे इस फुरसत से भी खीजने लगे हैं। रोज बिना उपलब्धि के घर लौटना किसे सुहाता है। जब किसी वकील के खाते में माह में दो मुकदमों का निर्णय भी न लिखा जाए तो उस के पास किसी न्यायार्थी को खींच लाने के लिए क्या बचेगा? केवल डींग हाँकने से तो न्यायार्थी उस के पास टिकने से रहा। मैं ने तय किया था कि मैं अपने किसी कारण के कारण किसी मुकदमे में बिना कोई काम किए अदालत से तारीख बदलने के लिए नहीं कहूँगा। पर काम की अधिकता के कारण खुद अदालतें ही मुकदमों में तारीखें बदलें तो क्या किया जा सकता है। श्रम न्यायालय में जहाँ मेरे पास के लगभग एक चौथाई मुकदमे लंबित हैं। आठ-दस साल पुराने मुकदमे में अगली तारीख पांच-छह माह की होती है। न्यायार्थी माह में एक सुनवाई तो अवश्य ही चाहता है। कहता है -वकील साहब! तारीख जल्दी की लेना। मैं उसे क्या कहूँ? मैं उसे कहता हूँ जल्दी की तारीख अदालत के स्टॉक में नहीं है। 

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

बढ़ सकती है उत्सवों की संख्या

ठ फरवरी को रुचिका छेड़छाड़ मामले के अभियुक्त एसपीएस राठौर पर उत्सव नाम के युवक ने चाकू से हमला किया और उसे घायल कर दिया। बताया गया है कि उत्सव दिमागी तौर पर बीमार है और उस की चिकित्सा चल रही है। रुचिका प्रकरण में बहादुरी और संयम के साथ लड़ रही रुचिका की सहेली आराधना ने कहा है साढ़े उन्नीस साल से हम भी हमेशा कानूनी दायरे में ही काम करते रहे हैं। इसलिए मैं आग्रह करूंगी कि लोग यदि आक्रोशित हैं तो भी कृपया कानून के दायरे में रहें। हमें न्यायपालिका की कार्रवाई का इंतजार करना चाहिए और किसी को भी कानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए।
राधना इस के सिवा और क्या कह सकती थी? क्या वह शिवसेना प्रमुख के बयानों की तरह यह कहती कि लोगों को राठौर से सड़क पर निपट लेना चाहिए? निश्चित रूप से आज भी जब एक मामूली छेड़छाड़ के प्रकरण में अठारह वर्ष के बाद निर्णय होता है तो कोई विक्षिप्त तो है जो कि संयम तोड़ देता है।
देश की बहुमत जनता अब भी यही चाहती है कि न्याय व्यवस्था में सुधार हो लोगों को दो ढ़ाई वर्ष में परिणाम मिलने लगें। लेकिन इस दिशा की और बयानों के सिवा और क्या किया जाता है? देश की न्यायपालिका के प्रमुख कहते हैं कि उन्हें अविलंब पैंतीस हजार अधीनस्थ न्यायालय चाहिए। यदि ध्यान नहीं दिया गया तो जनता विद्रोह कर देगी।
ज यह काम एक विक्षिप्त ने किया है। न्याय व्यवस्था की यही हालत रही तो इस तरह के विक्षिप्तों की संख्या भविष्य में तेजी से बढ़ती नजर आएगी। स्वयं संसद द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार देश में इस समय साठ हजार अधीनस्थ न्यायालय होने चाहिए। देश के मुख्य न्यायाधीश तुरंत उन की संख्या 35 हजार करने की बात करते हैं। वास्तव में इस समय केवल 16 हजार न्यायालय स्थापित हैं जिन में से 2000 जजों के अभाव में काम नहीं कर रहे हैं। केवल 14 हजार न्यायालयों से देश की 120 करोड़ जनता समय पर न्याय प्राप्त करने की आशा नहीं कर सकती।अमरीका के न्यायालय सभी प्रकार की आधुनिक सुविधाओँ से युक्त हैं और उन की न्यायदान की गति तेज है। फिर भी वहाँ 10 लाख की आबादी पर 111 न्यायालय हैं। यदि अमरीका की जनसंख्या भारत जितनी होती तो वहाँ न्यायालयों की संख्या 133 हजार होती।
धीनस्थ न्यायलयों की स्थापना की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है, जिन की अधिक न्यायालय स्थापित करने में कोई रुचि नहीं है।  मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री द्वारा लगातार अनुरोध करने के उपरांत भी राज्यों का इस ओर कोई ध्यान नहीं है। क्या ऐसी अवस्था में यह सोच नहीं बननी चाहिए कि दीवानी और फौजदारी मामलों में न्यायदान की जिम्मेदारी राज्यों से छीन कर केंद्र सरकार को अपने हाथों में ले लेनी चाहिए?

रविवार, 7 फ़रवरी 2010

मीडिया उत्तेजना फैलाने में न्यायालय की अवमानना की भी परवाह नहीं करता

मीडिया समाचारों के मंतव्यों को बदलता है, यह बात अब छुपी हुई नहीं रह गई है। वह समाचारों को अपने हिसाब से लिखता है जिस से एक विशेष प्रतिक्रिया हो और उस खबर को खास तौर पर पढ़ा जाए। उसे इस बात का भी ध्यान नहीं रहता कि इस प्रकार वह समाज में क्षोभ भी उत्पन्न कर सकता है। अदालती समाचारों को कवर करते समय वह इस बात का भी ध्यान नहीं रखता है कि इस तरह न्यायालय की अवमानना भी वह कर रहा है। हाथ कंगन को आरसी क्या। खुद एक समाचार को पढ़ लीजिए जो विभिन्न समाचार पत्रों और उन के नैट संस्करणों में पिछले दिनों छपा है। यहाँ शीर्षक और लिंक दिए गए हैं। आप चाहें तो उन के मूल स्रोत पर जा कर पूरा समाचार पढ़ सकते हैं। 

A ruling by the Supreme Court, upholding as illegal the second marriage by a Muslim employee of Rajasthan Government without divorcing first wife, has ...
 
 
 
Examiner.com -03-02-2010
The Indian Supreme Court ruled that a government employee, who happens to be Muslim, could not legally marry his second wife without divorcing the first ...

बीबीसी हिन्दी - ‎29-01-2010
अदालत में लियाक़त अली ने कहा कि उन्होंने पहली पत्नी फ़रीदा ख़ातून से मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत तलाक़ लेने के बाद मक़सूद ख़ातून से दूसरा निकाह किया था. लेकिन सरकार की ओर से अदालत को बताया गया कि इस मामले में जाँच समिति ने पाया कि लियाक़त अली ने पहली पत्नी से बिना तलाक़ लिए ही दूसरा विवाह कर लिया और ऐसा करके सरकारी कर्मचारियों के लिए बने नियमों का उल्लंघन किया है. सरकारी वकील अमित भंडारी ने अदालत को बताया कि राजस्थान सर्विस ...

IBNKhabar - 29-01-2010
जयपुर। मुस्लिम समाज में एक से अधिक विवाह की बात को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ गई है। यह बहस तब शुरू हुई जब सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान पुलिस के एक कर्मचारी लियाक़त अली को पहली पत्नी के होते हुए दूसरा विवाह करने पर नौकरी से निकालने के सरकार के फैसले को उचित ठहराया। सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान हाईकोर्ट के उस फैसले को सही ठहराया जिसमें ये कहा गया था कि कोई भी सरकारी कर्मचारी एक पत्नी के रहते हुए दूसरी शादी नहीं कर सकती। ...

दैनिक भास्कर - 29-01-2010
जयपुर. सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार के उस फैसले को सही करार दिया है, जिसमें एक मुस्लिम कर्मचारी लियाकत अली को दूसरी शादी करने की वजह से नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए स्पष्ट किया है कि पहली पत्नी के रहते कोई भी सरकारी कर्मचारी दूसरा विवाह नहीं कर सकता। अगर कोई लोकसेवक ऐसा करता है तो उसे सरकारी नौकरी से बर्खास्त करना उचित है। राज्य सरकार की ओर से शुक्रवार को यहां बताया गया कि ...
(यहाँ सभी लिंक गूगल समाचार से प्राप्त किए गए हैं)

ह समाचार इस तरह था कि एक कांस्टेबल ने सरकारी नौकरी में रहते हुए तथा एक पत्नी के होते हुए भी दूसरा विवाह कर लिया। यह कांस्टेबल मुस्लिम था इस कारण से उस का यह दूसरा विवाह कानूनी तो था। लेकिन दूसरा विवाह कर के उस ने अपनी नौकरी की शर्त को भंग कर दिया। नौकरी की शर्त यह थी कि कोई भी सरकारी कर्मचारी बिना अनुमति के दूसरा विवाह नहीं कर सकता। इस तरह शर्त को भंग करना नौकरी में एक दुराचरण था। जिस के लिए उसे आरोप पत्र दिया गया और आरोप सही सिद्ध होने पर उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। उस ने न्यायालय में बर्खास्तगी के इस आदेश को चुनौती दी। राजस्थान उच्च न्यायालय ने बर्खास्तगी को उचित माना। कर्मचारी ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपील प्रस्तुत की जिसे उच्चतम न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपील स्वीकार न करने के समाचार को कुछ समाचार पत्रों ने इस तरह प्रकाशित किया कि मुस्लिम सरकारी कर्मचारी द्वारा एक पत्नी के होते दूसरा विवाह अवैध है। जब कि यह बात सिरे से गलत थी। लेकिन इस तरह समाचार प्रकाशित कर समाचार पत्रों ने जहाँ मुस्लिम समुदाय में उत्तेजना पैदा की वहीं उन के विरोधियों और समान नागरिक संहिता के समर्थकों को प्रसन्नता से उत्तेजित होने का अवसर प्रदान किया। इस तरह हम देखते हैं कि आज पत्रकारिता किस तरह उत्तेजना उत्पन्न करने का यत्न करती है। यह तो देश में अदालतें जरूरत की एक चौथाई हैं दस लाख की आबादी पर केवल 11-12 मात्र, और ऊंची अदालतों के पास भी बहुत काम है जिस से वे इन घटनाओं की ओर ध्यान नहीं दे पाती हैं। यदि यही घटना अमरीका जैसे देश में घटी होती जहाँ दस लाख की जनसंख्या पर 111 अदालतें हैं, तो इन अखबारों के संपादकों को न्यायालय की अवमानना के नोटिस मिल चुके होते।
हाँ मेरा मंतव्य केवल समाचार पत्रों की रिपोर्टिंग की ओर इशारा करना था। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय किसी भी प्रकार से मुस्लिम पर्सनल लॉ के विरुद्ध नहीं है, इस पर मैं तीसरा खंबा में लिखूंगा। वहाँ इस मामले से संबंधित एक प्रश्न भी मुझे मिला हुआ है।

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

दिन भर व्यस्त रहा, लगता है कुछ दिन ऐसे ही चलेगा

ज हड़ताल समाप्ति के दूसरे दिन मैं अदालत सही समय पर तो नहीं, लेकिन साढ़े ग्यारह बजे पहुँच गया था। कार को पार्क करने के लिए स्थान भी मिल गया। लेकिन अदालत में निराशा ही हाथ लगी। एक अदालत में एक ही प्रकृति के ग्यारह मुकदमे लंबित थे। अस्थाई निषेधाक्षा के लिए बहस होनी थी। लेकिन अदालत जाने पर पता लगा कि अदालतों में मुकदमों की संख्या का समानीकरण करने के लिए बहुत से स्थानांतरित किए गए हैं उन में वे सभी शामिल हैं। इन ग्यारह मुकदमों में से सात एक अदालत में और चार दूसरी अदालत में स्थानांतरित कर दिए गए हैं। नई अदालत में जा कर उन मुकदमों को संभाला। इस से एक दिक्कत पैदा हो गई कि अब या तो सारे ग्यारह मुकदमों को एक ही अदालत में स्थानांतरित कराने के लिए आवेदन प्रस्तुत करना होगा। जिस में दो-चार माह वैसे ही निकल जाएंगे, या फिर दोनों अदालतों में मुकदमों अलग अलग सुनवाई होगी। इस से मुकदमों में भिन्न भिन्न तरह के निर्णय होने की संभावना हो जाएगी।। कुल मिला कर मुकदमों के निर्णय में देरी होना स्वाभाविक है।
श्रम न्यायालय का वही हाल रहा वहाँ लंबित तीन मुकदमों में तारीखें बदल गईँ। दो मुकदमे 1983 व 1984 से लंबित हैं। उन में तीन व्यक्तियों की सेवा समाप्ति का विवाद है। एक का पहले ही देहांत हो चुका है, शेष दो की सेवा निवृत्ति की तिथियां निकल चुकी हैं। प्रबंधन पक्ष के वकील के उपलब्ध न होने के कारण आज भी उन में बहस नहीं हो सकी। तीसरे मुकदमे में प्रबंधन पक्ष के वकील के पास उस की पत्रावली उपलब्ध नहीं होने से बहस नहीं हो सकी। श्रम न्यायालय ने एक सकारात्मक काम यह किया कि मुझे पिछले दस वर्षों में अदालत में आने वाले और निर्णीत होने वाले मुकदमों की संख्या का विवरण उपलब्ध करवा दिया। इस से सरकार के समक्ष यह मांग रखने में आसानी होगी कि कोटा में एक और अतिरिक्त श्रम न्यायालय स्थापित किए जाने की आवश्यकता है। कल मिले कुछ ट्रेड यूनियन पदाधिकारी इस मामले को राज्य सरकार के समक्ष उठाने के लिए तैयार हो गए हैं। इस विषय पर आज अभिभाषक परिषद के अध्यक्ष से भी बात की जानी थी। पर वे उन की 103 वर्षीय माताजी का देहांत हो जाने के कारण अदालत नहीं आए थे। अब शायद पूरे बारह दिनों तक वे नहीं आ पाएंगे। कल उन के यहाँ शोक व्यक्त करने जाना होगा। संभव हुआ तो तभी उन से यह बात भी कर ली जाएगी।
अपने दफ्तर में व्यस्त मैं
दालत से घर लौटा तो पाँच बज चुके थे। घर की शाम की कॉफी का आनंद कुछ और ही होता है। उस के साथ अक्सर पत्नी से यह विचार विमर्श होता है कि शाम को भोजन में क्या होगा। हालाँकि हमेशा नतीजा यही होता है कि बनता वही है जो श्रीमती जी चाहती हैं। वे जो चाहती हैं वह सब्जियों की उपलब्धता पर अधिक निर्भर करता है। अक्सर मैं इस विचार-विमर्श से बचना चाहता हूँ। लेकिन बचने का कोई उपाय नहीं है।
शाम सात बजे से दफ्तर शुरू हुआ तो ठीक बारह बजे अपने मुवक्किलों से मुक्ति पाई है। फिर कल की पत्रावलियाँ देखने में एक बज गया। तब यह रोजनामचा लिखने बैठा हूँ। आज ब्लॉग पर कुछ खास नहीं लिख पाया। शाम को मिले समय में मुश्किल से अपने एक साथी का मुस्लिम विवाह पर नजरिया जो उन्होंने लिख भेजा था तीसरा खंबा पर अपलोड कर पाया हूँ। आज बहुत से ब्लाग जो पढ़ने योग्य थे वे भी पढ़ने से छूट गए। चार माह से हड़ताल कर बैठने के बाद अदालतों में काम आरंभ होने का नतीजा है यह। लगता है कुछ दिन और ऐसा ही सिलसिला बना रहेगा।

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

ह़ड़ताल समाप्ति के बाद का पहला दिन

रात को सोचा था  'अब हड़ताल खत्म हो गई है, कल बिलकुल समय पर अदालत के लिए निकलना होगा'। पत्नी शोभा ने पूछा था -कल कितने बजे अदालत के लिए निकलना है? तो मैं ने बताया था -यही कोई साढ़े दस बजे। शोभा ने चेताया दस बजे की सोचोगे तब साढ़े दस घर से निकलोगे।
सुबह पाँच बजे नींद खुली। शोभा सो रही थी। मैं लघुशंका से निवृत्त हुआ और पानी पी कर वापस लौटा तो ठंड इतनी थी कि फिर से रजाई पकड़ ली। जल्दी ही निद्रा ने फिर पकड़ लिया। इस बार शोभा ने जगाया -चाय बना ली जाए। मैं  ने रजाई में से ही कहा -हाँ, बिलकुल। कॉफी की प्याली आ जाने पर ही रजाई से निकला पानी पीकर वापस रजाई में, वहीं बैठ बेड-कॉफी पी गई।
शौचादि से निवृत्त हो नैट टटोला तो पता लगा रात को सुबह साढ़े पाँच के लिए शिड्यूल की हुई पोस्ट ड्राफ्ट ब्लागर ने ड्राफ्ट में बदल दी है औऱ प्रकाशित होने से रह गई है। उसे मैनुअली प्रकाशित किया। तभी शोभा ने आ कर पूछा कपड़े धोने हों तो बता दो, कल नहीं धुलेंगे। मैं ने कहा -खुद ही देख लो। मैं जानता था कि कपड़े अधिक से अधिक एक जोड़ा ही बिना धुले होंगे। मैं ने सोचा था कि नौ बजे बाथरूम में घुस लूंगा। तब तक अदालत का बस्ता जाँच लिया जाए कि फाइलें वगैरा सामान पूरा तो है न। यह काम निपटता इतने बिजली चली गई। अंदेशा इस बात का था कि अघोषित बिजली कटौती हो सकती है इस लिए पूछताछ पर टेलीफोन कर पूछा तो जानकारी दी गई कि किसी फॉल्ट को ठीक किया जा रहा है, कुछ देर में आ जाएगी। वाकई दस मिनट में बिजली लौट आई। लेकिन तब तक बाथरूम कब्जाया जा चुका था। मुझे वह साढ़े दस बजे नसीब हुआ। मैं तैयार हो कर निकला तब सुबह के भोजन में कुछ ही देरी थी। मैं ने यह समय कार की धूल झाड़ने और जूते तैयार करने में लगा दिया। मैं अदालत पहुँचा तो बारह बजने में कुछ ही समय शेष था। पार्किंग पूरी भर चुकी थी। आखिर पूरी अदालत का चक्कर लगाने के बाद स्थान दिखाई दिया, वहीं कार टिका कर अपनी बैठक पर पहुँचा।
 मैं वाकई बहुत विलंब से था।


अदालत में लौटती रौनक

ज लगभग सभी वकील मेरे पहले ही आ चुके थे। एक अभियुक्त नहीं आ सकता था उस की हाजरी माफी की दरख्वास्त पर दस्तखत कर एक कनिष्ट को अदालत में भेजा और मैं एक आए हुए मुवक्किल के साथ श्रम न्यायालय चला गया। कुल मिला कर आज के साथ मुकदमों में से छह में एक बजे तक पेशी बदल चुकी थी। एक अदालत के जज ने बहस करने को कहा - मैं तैयार था लेकिन? लेकिन एक दूसरे वकील साहब तैयार न थे, वे पहली बार अदालत में उपस्थति दे रहे थे। आखिर उस में भी पेशी बदल गई। अदालत का काम समाप्त हो चुका था। फिर बैठक पर कुछ वकील इकट्ठे हो गए। कहने लगे काम को रफ्तार पकड़ने में समय तो लगेगा। शायद सोमवार से मुकाम पर आ जाए। ठीक वैसे ही जैसे किसी दुर्घटना के बाद रुकी हुई गाड़ियाँ समय पर चलने में तीन-चार दिन लगा देतीं हैं। मध्यान्ह की चाय हुई, फिर मित्रों के बीच कुछ कानूनी सवालों पर विचार विमर्श चलता रहा। फिर एक मित्र के साथ कॉफी पी गई। तभी मुझे ध्यान आया कि मोबाइल बिल आज जमा न हुआ तो आउटगोइंग बार हो सकती हैं। एक सप्ताह बाहर रहने से वह जमा होने से छूट गया था। मैं तुरंत अदालत से निकल लिया और बिल जमा कराता हुआ घर पहुँचा।
ह बुधवार का दिन था और शोभा के व्रत था। वह आम तौर पर रात आठ बजे व्रत खोलती है। शाम की चाय के बाद कहने लगी -भोजन कितने बजे होगा। मैं ने कहा -जब तैयार हो जाए।  -मुझे भूख लगने लगी है। -तो बना लो। वह रसोई की ओर चल दी। इतने में उस के लिए फोन था। एक मित्र पत्नी का। खड़े गणेश चलने का न्योता था। शोभा रसोई छोड़ तुरंत चलने को तैयार होने लगी। कुछ ही देर में वे लोग आ गए। हम भी उन के साथ खड़े गणेश पहुँच गए।  कार पार्क कर हम मंदिर तक पैदल गए।  मित्र की पत्नी व बेटी  और शोभा  पीछे चल रही थी। पत्नी अपना ज्ञान बांटने में लगी थी -गुरूवार को केला भोग नहीं लगाया जाता।  मैं ने सवाल रखा  -गुरूवार को पूर्णिमा हो और सत्यनारायण का व्रत रखे तो क्या केले का भोग न लगेगा?  प्रत्येक  देसी कर्मकांडी की तरह पत्नी के पास उस का भी जवाब था। कहने लगी -वह तो गुरुवार का व्रत करने वालों और केले के पेड़ की पूजा करने वालों के लिए है, सब के लिए थोड़े ही है। मैं सोच रहा था कि स्त्रियाँ किस तरह समाज के टोटेम युग की स्मृतियों और रिवाजों को अब तक बचाए हुए हैं। वर्ना इतिहासकारों और दार्शिनकों के लिए सबूत ही नहीं बचते। गणेश तो बहुत बाद की पैदाइश हैं। आम तौर पर बुधवार को लंबी कतार होती है वहाँ। दो-दो घंटे लग जाते हैं दर्शन में। पर आज कतार बहुत छोटी थी। मैं कतार में लग गया। हम कोई आध घंटे में वहाँ से निपट कर वापस हो लिए। मैं ने रास्ते में पूछा -तुम्हें तो भूख लगी थी न? कहने लगी - वह तो अब भी लगी है पर यहाँ आने को मना कैसे करती।


खड़े गणेश 

भोजन तैयार होने में घंटा भर लगा होगा। पहले मैं बैठ गया और जब तक वह रसोई से निपट कर लौटती तब तक दफ्तर में लोग आने लगे थे। मुझे भी कुछ आश्चर्य हुआ कि जिस दफ्तर में तीन माह की शाम अक्सर मैं अकेला होता था उस में अदालत खुलते ही रौनक होने लगी। बिलकुल आश्चर्यजनक रूप से मैं दफ्तर से साढ़े ग्यारह पर छूटा हूँ। इस बीच कुछ लोगों से इस बात पर भी चर्चा हुई कि कोटा में पाँच बरस पहले एक अतिरिक्त श्रम न्यायालय स्थापित हो जाना चाहिए था, जिस के न होने से इस न्यायालय के न्यायार्थियों के लिए न्याय का कोई अर्थ नहीं रह गया है। हर वर्ष जितने मुकदमे निर्णीत हो रहे हैं उस से दुगने आ रहे हैं। इस गति से लंबित मुकदमे तो बीस साल भी नहीं निबट सकते। आखिर कुछ श्रम संगठनों ने इस के लिए सरकार को प्रतिवेदन भेजने का निर्णय किया और न सरकार के न मानने पर आंदोलन आरंभ करने का इरादा भी जाहिर किया। तो यूँ रहा आज का दिन। इतना लिखते लिखते तारीख बदल गई है।

शनिवार, 5 सितंबर 2009

अध्यापक जी का न्याय, शिक्षक दिवस पर एक नमन !

प्राइमरी स्कूल था। सुबह प्रार्थना होती थी। सभी विद्यार्थी स्कूल के बीच के मैदान में एकत्र होते। हर कक्षा की एक पंक्ति थी। पंक्ति का मुख मंच की ओर होता। प्रार्थना के बाद दिन भर के लिए हिदायतें मिलती थीं। उस दिन स्कूल के एक अध्यापक जी ने प्रार्थना के बाद सब विद्यार्थियों को अपने अपने स्थान पर बैठने को कहा। सब बैठ गए।
ध्यापक जी ने अपनी बुलंद आवाज में कहा। मैं आप सब से एक प्रश्न पूछता हूँ, सब विद्यार्थियों को जोर से जवाब देना है।
ध्यापक जी ने पूछा -क्या चोरी करना अच्छी बात है?
ब विद्यार्थी बोले -नहीं ईईईईई.......।
ध्यापक जी -चोरी करने वाले को सजा मिलनी चाहिए या नहीं? 
विद्यार्थी  -मिलनी चाहिए एएएएएए....।
ध्यापक जी  -और यदि चोर खुद ही पश्चाताप करे और अपनी गलती स्वीकार करते हुए आगे गलती न करने को कहे तो क्या उसे माफ कर देना चाहिए?
ब विद्यार्थी बोले -नहीं ईईईई ........।
ध्यापक जी  -तो उसे सजा तो कम मिलनी चाहिए?
ब विद्यार्थी बोले -हाँ आँआँआँआँ .......।
ध्यापक जी फिर बोले -तो सुनिए यहाँ बैठे विद्यार्थियों में से एकने कल अपने पिताजी की जेब में से रुपए चुराए हैं। यदि वह विद्यार्थी पश्चाताप करेगा और यहाँ सब के सामने आ कर अपनी गलती स्वीकार कर लेगा तो हम उसे कम सजा भी नहीं देंगे, और माफ कर देंगे। 
विद्यार्थियों में सन्नाटा छा गया। बच्चे सब एक दूसरे की ओर देखने लगे। आखिर उन मे कौन ऐसा है? दो मिनट निकल गए लेकिन कोई विद्यार्थी सामने न आया। 
अध्यापक जी फिर बोले -देखिए दो मिनट हो चुके हैं मैं दो मिनट और देता हूँ, वह विद्यार्थी सामने आ जाए। 
लेकिन फिर भी कोई सामने नहीं आया। दो मिनट और निकल गए। अब विद्यार्थी खुसर-फुसर करने लगे थे।
अध्यापक जी फिर बोले -देखिए  अतिरिक्त दो मिनट भी निकल गए हैं। अब पश्चाताप का समय निकल चुका है लेकिन मैं उस विद्यार्थी को एक मिनट और देता हूँ, यदि अब भी विद्यार्थी सामने नहीं आया तो उसे सजा ही देनी होगी। वह विद्यार्थी सामने आ जाए।
पूरे पाँच मिनट का समय निकल जाने पर भी वह विद्यार्थी सामने न आया। अध्यापक जी ने समय पूरा होने की घोषणा की और मंच से उतर कर नीचे मैदान में आए और एक पंक्ति में से एक विद्यार्थी को उठाया और पकड़ कर मंच पर ले चले। मंच पर उसे विद्यार्थियों के सामने खड़ा कर दिया। फिर बोलने लगे -इस विद्यार्थी ने अपने पिता की जेब से कल पचास रुपए चुराए हैं। पहली सजा तो इसे मिल चुकी है कि अब सब लोग जान गए हैं कि यह विद्यार्थी कैसा है। लेकिन सजा इतनी ही नहीं है। इसे यहाँ पहले घंटे तक मुर्गा बने रहना पड़ेगा। हाँ, यदि यहाँ यह कान पकड़ कर स्वयं स्वीकार कर ले कि उसने रुपए चुराए थे और उन रुपयों का क्या किया? तो इसे मुर्गा नहीं बनना पड़ेगा।
विद्यार्थी अब तक रुआँसा हो चुका था। उस ने रुआँसे स्वर में स्वीकार किया कि उस ने पचास रुपए चुराए थे जिस में से कुछ खर्च कर दिए हैं और कुछ उस के पास हैं। जो वह यहाँ निकाल कर दे रहा है। वह प्रतिज्ञा करता है कि वह जीवन में कभी भी चोरी  नहीं करेगा। किसी दूसरे की किसी वस्तु को हाथ भी न लगाएगा। उस ने वे रुपए निकाल कर अध्यापक जी को दिए। 
अध्यापक जी ने कहा -अभी सजा पूरी नहीं हुई। अभी तुम्हें कान पकड़ कर दस बैठकें यहाँ सब के सामने लगानी होंगी। विद्यार्थी ने दस बैठकें सब के सामने लगाईं। अध्यापक जी ने कहा -इस विद्यार्थी ने अपनी गलती स्वीकार ली है और उस का दंड भी भुगत लिया है। अब इसे कोई चोर न कहेगा। यदि किसी विद्यार्थी ने इसे चोर कहा और उस की शिकायत आई तो उसे भी दंड मिलेगा। 
सुबह की प्रार्थना सभा समाप्त हुई। विद्यार्थी ही नहीं, विद्यालय के सब शिक्षक और कर्मचारी भी इस न्याय पर हैरान थे। सब जानते थे कि सजा पाने वाला विद्यार्थी स्वयं उन अध्यापक जी का पुत्र है।
मुझे उन अध्यापक जी का नाम स्मरण नहीं आ रहा है। लेकिन आज शिक्षक दिवस पर उन्हें स्मरण करते हुए नमन करता हूँ।

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2008

पुस्तक मेला लगाने पर रोक

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं सूचना के अधिकार को गंभीर चुनौती

कोलकाता पुस्तक मेला के उद्धाटन के एक दिन पहले कोलकाता उच्च न्यायालय की एक खंड पीठ ने उस पर यह कहते हुए रोक लगा दी कि इस से पर्यावरण को खतरा उत्पन्न हो सकता है तथा आसपास रहने वाले नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन होगा। साथ ही प्रदूषण एक्ट, पर्यावरण सुरक्षा एक्ट तथा ध्वनि प्रदूषण एक्ट का भी उल्लंघन हो सकता है। यह निर्णय दरगाह रोड सिटीजंस कमेटी समेत कुछ संस्थाओं द्वारा दायर की गई एक याचिका पर दिया गया है।

29 जनवरी को मेले का उद्घाटन होना था। जोरशोर से स्टालों का निर्माण कार्य चल रहा था। हाईकोर्ट के इस फैसले से मेले के आयोजन पर प्रश्न चिह्न लग गया। निर्देश आने के तुरंत बाद बांस-बल्लियों को खोलने का काम शुरू कर दिया गया। पिछले दो साल से कोलकाता पुस्तक मेला आयोजन स्थल को लेकर विवादों से घिरा रहा है। पिछले वर्ष साल्टलेक स्टेडियम में मेला लगा था लेकिन पहले की तरह भीड़ नहीं जुटी। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भंट्टाचार्य ने इस फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया है।

इस पोस्ट के उक्त दोनों चरण जागरण की खबर के आधार पर हैं। हालांकि मुझे यह सूचना भाई शिवकुमार मिश्र के ब्लॉग से लगी थी। यह एक गंभीर बात है। एक ऐसे पुस्तक मेले पर ठीक एक दिन पूर्व रोक लगा दिये जाने से मेला आयोजकों एवं उसमें भाग लेने वाली संस्थाओं को बड़ी आर्थिक हानि होगी जो कि किसी भी प्रकार से इस उद्योग कि कठिनाइयों को देखते हुए बड़ा झटका है। कोई भी पुस्तक मेला मानव समाज के ज्ञान में वृद्धि ही करता है। उस से प्रदूषण फैलने पर रोक को प्रोत्साहन ही प्राप्त होता न कि उसे बढ़ाने को। इस से वे लाखों लोग ज्ञान को विस्तार देने से वंचित हो जाऐंगे जो इस पुस्तक मेले में शिरकत करते। इस से इन के सूचना के अधिकार का हनन होता।

मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इस मामले में उच्च न्यायालय से कोई गंभीर गलती हुई है। इस तरह तो कोई भी जनता के भले के कार्यक्रम को रोका जा सकता है और मानव समाज की प्रगति के मार्ग को अवरुद्ध किया जा सकता है। इस मामले में यह भी अन्वेषण किया जाना चाहिए कि दरगाह रोड सिटीजंस कमेटी कितने और किस किस्म के लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। इस प्रकार तो कोई थोड़े से लोग समाज के विकास में न्यायालयों का सहारा ले कर बाधा बन खड़े होंगे।

इस मसले पर कानूनी लड़ाई को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मजबूती से लड़ा जाना चाहिए ही। इस तरह के निर्णयों के विरुद्ध आवाज भी उठानी चाहिए। लेखकों, प्रकाशकों, पाठकों और सभी पुस्तक प्रेमियों को सामूहिक आवाज उठानी चाहिए। आखिर भारत जैसे जनतंत्र में पर्यावरण के बहाने से बुक फेयर को रोका जाना एक गंभीर घटना है। आगे जा कर इसी तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित किया जा सकता है। उंगली उठते ही रोक देनी चाहिए। अन्यथा कल से हाथ उठेगा।