@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: खुशी
खुशी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
खुशी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, 14 जुलाई 2010

फुटबॉल हैंगोवर और खुश कर देने वाली खबरें।

ल फुटबॉल का नशा करने को नहीं मिला। आज तो हेंगोवर का दिन था। रात को जल्दी सो जाना चाहिए था, लेकिन देर तक नींद नहीं आई। मैं आज के अदालत के काम को ले कर परेशान था। कुल छह मुकदमे बहस में लगे थे। मैं सोच रहा था कैसे यह सब होगा। मैं किसी भी मुकदमे में तारीख नहीं चाहता था। जल्दी अदालत पहुँचना चाहता था कि घर से निकलते निकलते कुछ मुवक्किल आ गए। उन की समस्या का तुरंत कुछ हल निकालना था। उन से बात करते करते देरी हो गई और साढ़े ग्यारह पर अदालत पहुँचा। एक में बहस नहीं हो सकी क्यों कि नियोजक संगठन में कोई फेरबदल हुआ है। वकील का उस के मुवक्किल से संपर्क नहीं हो पा रहा है। वास्तव में अदालत के पास भी समय नहीं था। अदालत जिन मुकदमों में बहस सुन चुकी थी, उन में उसे निर्णय लिखाने थे। अब यह तो हो नहीं सकता कि आप दस मुकदमों में बहस सुन कर डाल दें और फिर समय की कमी से फैसला न कर पाएँ। दूसरे मुकदमे में अदालत के आदेश के बाद भी यह प्रकट किया कि आदेशित दस्तावेज उन के कब्जे में नहीं है। आखिर मुकदमे को गवाही के लिए बदल दिया गया। एक अन्य मुकदमे में तीन में से एक वकील का स्वास्थ्य खराब हो गया और बहस टल गई। 
क अदालत में एक साथ बहुत मुकदमे स्थानांतरित हो कर आने के कारण समय के अभाव में पेशी बदल गई। एक में प्रार्थी के वकील ने खुद की हार को देखते हुए बहस के दौरान यह आवेदन प्रस्तुत किया कि वे एक एक्सपर्ट डाक्टर की गवाही कराना चाहते हैं। हमने विरोध किया तो अदालत ने हमें विरोध जवाब के रूप में लिख कर देने के लिए तारीख बदल दी। कुछ मुकदमें अदालत में पिछले छह माह से जज के प्रसूती अवकाश पर होने के कारण ताऱीख बदल गई। यह अदालत पिछले छह माह से सभी मुकदमों में यही कर रही है। एक और मुकदमे पेशी अदालत में जज नियुक्त नहीं होने से बदल गई। कुल मिला कर कागजी प्रभाव का काम तो हुआ, लेकिन वास्तविक प्रभाव का नहीं। वास्तविक प्रभाव का काम ये हुआ कि तीन बार भिन्न भिन्न मित्रों के साथ बैठ कर कॉफी पी गई। 
मैं दोपहर का वाकया बताना तो भूल ही रहा हूँ। अचानक लोकल चैनल वाले कैमरा लिए घूम रहे थे, मुझे पकड़ लियाष पूछने लगे कि भिक्षावृत्ति को समाप्त करने के लिए कोई कानून है क्या। मैं ने कहा कि कानून हो भी तो क्या। भिक्षावृत्ति तो बढ़ रही है और स्वाईन फ्लू की तरह नए नए रूप भी ग्रहण कर रही है। अदालत में जज नियुक्त नहीं है। रीडर को तारीख बदलनी है। लोग सुबह से अदालत में आए बैठे हैं, लेकिन रीडर साहब किसी सरकारी काम से जिला अदालत गए हैं और कैंटीन में बैठ कर किसी वकील के साथ चाय पी रहे हैं। चपरासी न्यायार्थी से कहता है कि रीडर साहब मुकदमों में तारीख बदली कर गए हैं। लिस्ट अंदर रख गए हैं, लेकिन वह बता सकता है। यह कहते हुए उस की आँखें चमक रही थीं। उस ने न्यायार्थी तो तारीख बता दी लेकिन ईनाम की फरमाईश कर दी। न्यायार्थी के सौ रुपए के नोट से कम के जितने नोट थे सब बख्शीश हो गए। शाम तक आई बख्शीश को रीडर व चपरासी ने पूरी ईमानदारी के साथ बांट लिया। बख्शीश न दो तो मांगने वाला इतनी गालियाँ और बद्दुआएँ देता है कि कोष छोटे पड़ने लगते हैं। इस भिक्षावृत्ति को रोकने का कोई कानून नहीं है ......... इतना कहते कहते तो कैमरामैन ने कैमरा बंद कर दिया। मुझे पक्का यकीन है कि वह इस क्लिप को शायद ही कभी दिखाए। 
र पर पत्नी जी से वायदा किया था कि आम ले कर आउंगा। पर भूल गया। घऱ में घुस जाने पर याद आया। एक जूनियर को फोन कर के कहा कि वह आम लेता आए। पत्नी ने चावल बनाए और आम का अमरस। यह डिश आज के दिन बनना जरूरी था। आज रथयात्रा और मेरे दिवंगत पिता जी का जन्मदिन जो था। हमने इस अमरस और बासमती चावलों के साथ आलू के पराठों का आनंद लिया। इस के साथ टीवी देखा। खबर सुन कर तबीयत खुश हो गई कि फ्रांस अब अपने देश में बुर्का पहनने पर पाबंदी लगाने के करीब है। वहाँ की संसद के निचले सदन में एक के मुकाबले 336 मतों से यह बिल पारित हो गया। दुनिया में ऐसे देश बहुत हैं जहाँ न चाहते हुए भी और उन की संस्कृति का हिस्सा न होते हुए भी औरतों को बुरका पहनना होता है। अब कम से कम एक देश तो इस पृथ्वी के नक्शे पर होगा जहाँ स्त्रियों के बुरका पहनने पर पाबंदी होगी। शायद ही कोई आजाद औरत हो जो किन्हीं भी हालात में बुरका पहनना चाहे। वास्तव में इसी तरह महिलाओं को इस की कैद से आजादी मिल सकती है। वरना वे संस्कृति की कैद में घुटती रहती हैं। इस कैद से निकलने का अर्थ है परिवार और समाज में बहुत कुछ भुगतना।
दूसरी खबर ने तो तबीयत पूरी तरह खुश कर दी। विश्वकप फुटबॉल के हीरो कप्तान गोलकीपर आईकर कैसीलस ने उन का इंटरव्यू लेने आई उन की महिला मित्र सारा कार्बोनेरो को यह सवाल पूछने पर कि पहले मैच में तुम इतना बुरा कैसे खेले? लाइव दिखाए जा रहे इंटरव्यू के बीच चूम लिया। निश्चित ही ताने दे कर भी उन में जीतने का उत्साह पैदा करने वाली अपनी मित्र के लिए इस से बड़ा तोहफा इस जीत पर नहीं हो सकता था। एक चैनल ने पूरा गाना ही सुना ही सुना कर खुश कर दिया ........... मंहगाई डायन काहे खाए जात है.........
स कल फिर इतने ही मुकदमे हैं, कुछ तैयारी कर ली गई है कुछ सुबह की जाएगी। पर कल आज जैसा नहीं हो सकता। कल कुछ न कुछ हासिल करना ही होगा।

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

एक राजनेता की मौत

हामहिम के देहांत का समाचार मिलने पर बहुत लोगों को शॉक (झटका) लगा था। वे अभी तीन माह पहले ही तो राज्य की राज्यपाल बनाए गए थे। उस समय किसी ने यह थोड़े ही सोचा था कि वे इतनी जल्दी विदा ले जाएँगे, और वे भी इस तरह पद पर बने रहते हुए। पर यह तो होता ही है, जो आता है वह जाता है। वैसे अभी उन की उम्र ही क्या थी? मात्र पिचहत्तर साल और डेढ़ माह से कुछ ऊपर। यह भी कोई इस दुनिया से विदा लेने की उम्र होती है। लोग तो 90 वर्ष की उम्र के बाद भी राजकीय पदों पर काम करते रहते हैं।  पर शायद उन का शरीर राजनीति में काम करते हुए बहुत थक गया था, या फिर वे शरीर से भारी थे कि दिल साथ न दे पाया। हो सकता है दिल को खून पहुँचाने वाली धमनियों में इतनी चर्बी जमा हो गई हो कि दिल को रक्त पहुँचना ही बंद हो गया और वह जवाब दे गया। सब से बड़े सरकारी अस्पताल तक पहुँचाए जाने के पहले वे अपने प्रसाधन कक्ष (टॉयलट) में अचेत पाए गए थे। चिकित्सकों ने अच्छी तरह जाँच कर ही घोषणा की कि वे अब हम से सदा के लिए विदा ले जा चुके हैं। 
न की मृत्यु से बहुत से लोगों को प्रसन्नता प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त हुआ।  ये तमाम लोग या तो राज के  या फिर वित्तीय संस्थाओं के कर्मचारी थे। ऐसा भी नहीं कि उन्हें ऐसा सुअवसर मुश्किल से ही प्राप्त होता हो।  जब भी किसी बड़े राजनेता की मृत्यु होती उन्हें ऐसा अवसर मिलता ही रहता था। सही भी है कि आप के पास बहुत से काम करने को हों। उन के कारण आप तनाव में डूबे हों। घर से पत्नी जी का फोन आया हो कि घंटे भर बाद आप के साले साहब अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ एक सप्ताह के लिए आ रहे हैं और आप को उन्हें लेने स्टेशन जाना है। तब अचानक यह समाचार मिले कि अवकाश हो गया है और अब दो दिन आप को कोई काम नहीं करना है, तो तनाव ऐसे गायब होगा ही, जैसे गधे के सिर से सींग। ऐसे में प्रसन्न होना अस्वाभाविक थोड़े ही है। ऐसे में प्रसन्नता ऐसे फूट पड़ती है जैसे रेगिस्तान में अचानक ठंडे और मीठे पानी के सोते फूट पड़े हों। राजनेता की मृत्यु से लगे शॉक के लिए यह अवकाश शॉक ऑब्जर्वर बन जाता है और दूसरे कई शॉक झेल जाता है।

प्रसन्न होने वाले ऐसे अनगिन लोगों के बीच बहुत से लोग ऐसे भी थे जिन्हें वाकई शॉक लगा था और फिर उस में डूब गए थे। ये वे लोग थे जो पहले ही किसी न किसी शोक में कांधे तक डूबे हुए थे। अवकाश की घोषणा ने उन के लिए शॉक ऑब्जर्वर के स्थान पर उलटा झटका देने का काम किया था। इन में एक तो बिलासी था। वह कंपनी की नौकरी में था और कंपनी के क्वार्टर में रहता था। नौकरी छूटी तो टाइपिंग की दुकान लगा  ली , जैसे तैसे घर चलाने लगा। पुश्तैनी मकान में पिताजी अपने जीते जी ही  किराएदार रख गए थे। कंपनी बंद हो गई। कंपनी ने मकान खाली करने का नोटिस दे दिया। उस ने किराएदार से मकान खाली करने को कहा तो किराएदार ने इन्कार कर दिया। बिलासी को घर का मकान होते हुए किराए के मकान में जाना पड़ा। मकान खाली कराने का मुकदमा किया उस की आखिरी पेशी थी, जज साहब बहस सुन कर फैसला देने वाले थे। अचानक अवकाश से बहस मुल्तवी हो गई। उसे जो शॉक लगा है उस से वह संभल नहीं पा रहा है।
धर एक महिला राशन कार्ड बनवाने की लाइन में खड़ी थी। राशनकार्ड न होने से उसे राशन का सस्ता आटा नहीं मिल रहा। मर्द दूसरे शहर में मजदूरी पर है। इधर तीन बच्चे हैं और वह है। सुबह कागज तैयार करवाने में चालीस रुपए खर्च हुए, कारपोरेटर के दस्तखत करवाने के लिए भटकने में तीस रुपए टूट गए। लाइन में बस चार आदमी और रह गए थे, उन के बाद पाँचवाँ नम्बर उसी का था कि खटाक से खिड़की बंद हो गई। सब के सब भोंचक्के रह गए। अभी तो लंच होने में भी सवा घंटा शेष है। पूछा तो पता लगा कि राज्यपाल का देहान्त हो गया है। तुरंत छुट्टी कर देने का हुकम फैक्स से आया है। कल भी छुट्टी रहेगी। परसों आइए। बेचारी औरत कह रही थी -बस आज आज का आटा खरीद कर घर पर रख कर आई हूँ। सोचा था आज राशनकार्ड मिल जाएगा तो कल राशन की दुकान से आटा खरीद लूंगी। अब बाजार से दो गुना कीमत का आटा खरीदना पड़ेगा। वह अपने खुदा को कोस रही थी कि उसे भी राज्यपाल को अपने घर बुलाने को यही वक्त मिला था. एक दिन ... क्या आधा घंटा और नहीं रुक सकता था कि उसे कम से कम राशनकार्ड तो मिल जाता।
घंटे भर में सारे सरकारी दफ्तर, सारी अदालतें बंद हो गईं। मुवक्किल जिन के काम अटके थे अपना मुहँ मसोस कर चल दिए। वकीलों के मुंशियों ने अपने अपने बस्ते बांधे और साइकिलों व बाइकों पर लाद दिए।  ज्यादातर वकील अदालत से चल दिए। कुछ अब भी वकालत खाने में ताश और शतरंज खेलने में मशगूल थे। ये वे थे जो वकील तो थे पर जिन के घर वकालत से नहीं बल्कि मकानों दुकानों के किरायों और उधार पर उठाई हुई रकम से चलते थे। इन्हें आधे दिन के अवकाश से तो कोई समस्या नहीं हुई थी। वे शाम पाँच बजे के पहले ताश और शतरंज छोड़ कर जाने वाले नहीं थे। पर अगले दिन के अवकाश से जरुर परेशान थे। सोच रहे थे कि कल का दिन कैसे बिताएँगे? ताश और शतरंज के लिए कौन सी जगह तलाशी जाएगी। गर्मी का मौसम न होता तो किसी पिकनिक स्पॉट पर चले जाते। गर्मी में तो वहाँ भी दिन बिताना भारी पड़ता है।

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

राजकीय शोक और अचानक अवकाश की प्रसन्नता

ज डायरी में मुकदमे अधिक न थे, लेकिन जितने थे वे सभी समय खपाऊ थे। चार मुकदमों में अंतिम बहस थी और चारों अलग अलग अदालतों में थे। एक मकान मालिक की ओर से किराएदार से मकान खाली कराने का था। दूसरा एक डाक्टर द्वारा बिना मरीज की अनुमति प्राप्त किए और उसे प्रक्रिया और परिणाम बताए बिना ऐंजियोप्लास्टी कर देने का उपभोक्ता विवाद था। तीसरा मजदूर की काम के दौरान दुर्घटना की मृत्यु के कारण मुआवजे का और चौथा एक नौकरी से निकालने का। सुबह साढ़े सात पर अदालत पहुँचा तो वहाँ केवल चार वकील और मिले जब कि पैंतीस अदालतें बाकायदा खुल चुकी थीं और काम चल रहा था। वकीलों के न पहुँचने के कारण वे अपने दूसरे काम निपटा रही थीं। वकीलों के बैठने वाले इलाके में अभी झाड़ू निकाला जा रहा था। मैं अपने मुवक्किल के साथ अदालत पहुँच गया। दूसरे पक्ष के वकील अभी पहुँचे नहीं थे। इंतजार के बाद तकरीबन पौने नौ बजे बहस आरंभ हुई और दस बजते बजते मैं ने उसे समाप्त कर दिया। प्रतिपक्ष की बहस के लिए कल की तिथि दे दी गई। 
क और अदालत में प्रतिपक्ष का वकील ठीक से तैयार नहीं था, उस में तिथि बदल गई। एक अदालत में अभी जज साहब चैंबर में थे तो मैं चौथी में जा पहुँचा। वहाँ अधिकारी अवकाश पर थे। आखिर डेढ़ बजे मुझे एक जज ने मुकदमे में बहस सुनाने के लिए चैम्बर में ही बुलवा लिया। मैं ने बहस सुना दी। प्रतिपक्षी की बहस फिर अधूरी रह गई। इस बीच किसी ने खबर दी कि राजस्थान की राज्यपाल का देहांत हो गया है। जज साहब ने तुरंत ही शोक जाहिर किया और घर फोन लगा कर अपने बेटे को निर्देश दिया कि वह ई-टीवी राजस्थान पर खबर सुन कर तफसील बताए। फिर कहने लगे कि -अब कल का तो अवकाश हो ही जाएगा। परसों फिर शोकसभा के कारण काम स्थगित रहेगा। आधा दिन आज का गया ही समझो। कुल मिला कर ढाई दिन का अवकाश हो गया। अवकाश से वे बहुत राहत महसूस कर रहे थे। 

कुछ देर बाद उन्हों ने फिर घर फोन लगाया तब तक यह कन्फर्म हो चुका था कि आज का आधे दिन का और कल का पूरे दिन का अवकाश घोषित हो चुका है। उन्हों ने तुरंत अपने एक रिश्तेदार को फोन लगा कर बताया कि वह कल का अवकाश न ले और वैसे ही अवकाश घोषित हो चुका है। उसे अवकाश ले कर कहीं जाना था। जज साहब ने तुंरत रीडर को हुक्म दिया कि अब तक जो आदेशिकाएँ लिखी जा चुकी हैं उन में उन के हस्ताक्षर करवा लिए जाएँ, जिस से वे तुरंत घऱ जा सकें। शेष फाइलों में नोट लगा दिया जाए कि राज्यपाल के निधन के कारण अवकाश घोषित हो जाने से काम नहीं हो सका। उन फाइलों में अदालत खुलने वाले दिन हस्ताक्षर कर दिए जाएँगे। हस्ताक्षर कर के जज साहब ने अदालत छोड़ दी। रीडर शेष फाइलों में आदेशिका लिखने लगा। वह कहता जा रहा था कि अवकाश तो अफसरों का हुआ है। उन्हें तो उतनी ही फाइलें लिखनी पड़ेंगी जितनी रोज लिखनी पड़ती थीं। 

मैं ने तीन बजे बाद अदालत छोडी। बैंक में लेनदेन बंद हो चुका था इस लिए कैश नहीं निकलवा सका। सोचा कल निकलवा लिया जाएगा। (मैं अभी तक एटीएम प्रयोग नहीं करता) घर पहुँचते ही एक इंश्योरेंस कंपनी से फोन आया कि किसी जरूरी मामले पर विमर्श करना है। मैं घंटे भर बाद ही वहाँ के लिए रवाना हो गया। काम की बात के अलावा वहाँ भी इस बात का चर्चा था कि क्या वहाँ भी कल अवकाश रहेगा। एक कर्मचारी कह रहा था कि पिछले राज्यपाल के निधन पर तो अवकाश रहा था। इस बार भी निगोशिएबुल इंस्ट्रूमेंट एक्ट में अवकाश होना चाहिए। मैं ने कहा शायद न हो, पहले वाले राज्यपाल निगोशिएबुल रहे हों और ये वाले न रहे हों।
खैर वहाँ से निकलकर शाम साढ़े छह घर पहुँचा तो वहाँ एक बैंक वाले मौजूद थे। उन्हों ने बताया कि उन के यहाँ भी अवकाश घोषित हो चुका है। जितने भी अफसर और कर्मचारी थे अचानक अवकाश का एक दिन मिल जाने से प्रसन्न थे। उन्हें राजकीय शोक रास आ रहा था।

मैं सुबह पौने पाँच पर सो कर उठा था। दिन भर काम करने पर थक चुका था। आज दिन में भी विश्राम नहीं मिला था। मुझे भी अच्छा लग रहा था कि कल का अवकाश हो चुका है वर्ना किराएदारी वाले मुकदमे के कारण कल फिर पौने पाँच उठ कर साढ़े सात तक अदालत पहुँचना पड़ता। मैं यह भी सोच रहा था कि इस मुकदमे में मकान मालिक कितना अभागा है कि आधी बहस के बाद मुकदमे में फिर अवकाश की अड़चन आ गई। परसों भी शोकसभा के कारण काम नहीं हो सकेगा। उस के बाद के दिन मुकदमा रखवाना पड़ेगा और इस के लिए बुध को फिर जल्दी जाना पड़ेगा। इस बीच यदि जज का ट्रांसफर आदेश आ गया तो..... गई भैंस पानी में।

मंगलवार, 23 मार्च 2010

काम का प्रतिफल मिलने की खुशी

निवार को मैं एक थकान भरी व्यवसायिक यात्रा से लौटा था। उस दिन अदालत में कोई काम न था। सिवाय एक मुकदमे में अगली पेशी नोट करने के। जिस अदालत में यह मुकदमा चल रहा है वहाँ की महिला जज प्रसूती अवकाश पर हैं जो छह माह का हो सकता है। इस कारण उस अदालत का कामकाज बंद है, जो मुकदमे रोज कार्यसूची में हैं उन में केवल पेशी बदल दी जाती है। यदि कोई आवश्यक काम हो तो संबंधित मुकदमे की पत्रावली लिंक जज के पास जाती है और वह उस में आदेश पारित कर देता है। जब तक जज साहिबा अवकाश से वापस लौट कर नहीं आ जाती हैं काम ऐसे ही चलता रहेगा और उन का आना तो  जुलाई तक ही हो पाएगा। 
वैसे सैंकड़ों कारखाने हैं जिन के संयंत्र अनवरत चौबीसों घंटे, बारहों माह चलते हैं, भारतीय रेलवे के तमाम स्टेशन चौबीसों घंटे चालू रहते हैं, पुलिस थाने और अस्पताल भी चौबीसों घंटे चालू रहते हैं, चौबीसों घंटे लोग बीमार होते हैं, मरते हैं और जन्म लेते हैं। अपराधी चौबीसों घंटे अपराध करते हैं और पकड़े जाते है। बहुत से काम हैं चौबीसों घंटे होते हैं। उन के लिए व्यवस्थाएँ हम करते हैं। इन कामों में संलग्न लोग भी अवकाशों पर जाते हैं लेकिन फिर भी काम चलते रहते हैं। लेकिन न्याय प्रणाली की स्थिति कुछ और है। यहाँ जितनी अदालतें हैं उतने जज नहीं हैं। बहुत सी अदालतें हमेशा खाली पड़ी रहती हैं। इन के आंकड़े भी बताए जा सकते हैं। लेकिन उस का कोई लाभ नहीं आज कल ये आंकड़े खुद हमारे जज विभिन्न समारोहों के दौरान बताते हैं। तो जब अदालतें जजों के अभाव से खाली पड़ी रहती हैं तो फिर यह तो हो ही नहीं सकता कि जब कोई जज अवकाश पर चला जाए तो उस का एवजी काम करने के लिए कोई जज उपलब्ध हो सके। होना तो यह चाहिए कि जितनी अदालतें हैं। उन के हिसाब से हमारे पास कुछ अधिक जज हों जिन्हें किसी नियमित जज के दो दिन से अधिक के अवकाश पर जाने पर उस से रिक्त हुए न्यायालय में लगाया जा सके। पर पहले जज उतने तो हों जितनी अदालतें हैं। खैर!
मैं शनिवार को अदालत नहीं गया। पेशी नोट करने के लिए मेरे कनिष्ठ नंदलाल शर्मा वहाँ थे। मैं ने अपना दफ्तर संभाला तो वहाँ बहुत काम पड़ा था। दिन भर काम करता रहा। शाम को पता लगा कि एक मुकदमे में जिस में पिछले दिनों बहस हो चुकी थी और सोमवार को निर्णय होना था वादी और प्रतिवादी संख्या 1 व 2 ने अपनी बहस को लिखित में भी पेश किया है। हमारी मुवक्किल का भी कहना था कि हमें भी पीछे नहीं रहना चाहिए और अपनी बहस जो की गई है वह लिखित में प्रस्तुत कर देनी चाहिए। मैं भी उन से सहमत था। मैं उस काम में जुट गया। पूरे मुकदमे की फाइल दुबारा से देखनी पड़ी। 
विवार को सुबह स्नानादि से निवृत्त हो कर जल्दी काम करने बैठा और सोमवार की कार्य सूची देखी तो पता लगा कि अट्ठाईस मुकदमे सुनवाई में लगे हैं। मैं उन्हें देखने बैठ गया जिस से मुझे किसी अदालत को यह न कहना पड़े कि मैं उस में काम नहीं कर सकूंगा। हालांकि मैं जानता था कि इतने मुकदमों में से भी शायद तीन-चार में ही काम हो सके। मैं आधी पत्रावलियाँ भी न देख सका था कि एक नए मुवक्किल ने दफ्तर में प्रवेश किया। पारिवारिक संपत्ति का मामला था। भाइयों में पिता की छोड़ी हुई संपत्ति पर कब्जे का शीत युद्ध चल रहा था। इस बीच हर कोई अपने लिए अपना शेयर बचाने और बढ़ाने में जुटा था। मैं ने उन्हें उचित सलाह दी। लेकिन उस में बहुत परिश्रम और भाग-दौड़ थी। उन की राय थी कि कुछ दस्तावेज आज ही तैयार कर लिये जाएँ। मैं ने भी मामले की गंभीरता को देख सब काम छोड़ कर वह काम करना उचित समझा। चार घंटे वह मुवक्किल ले गया। उस का काम निबट जाने पर मैं बहस लिखने बैठा।
दालत में मौखिक बहस करना आसान है, बनिस्पत इस के कि उसे लिख कर दिया जाए।  एक ईमानदार और प्रोफेशनल बहस को प्रस्तावित निर्णय की तरह होना चाहिए। केवल इतना अंतर होना चाहिए कि यदि जज केवल  आप की प्रार्थना को निर्णय के अंत में दिए जाने वाले आदेश में बदल सके।  बहस लिखने में इतनी रात हो गई कि तारीख बदल गई। इस बीच अंतर्जाल की तरफ नजर तक उठाने का समय न मिला। दफ्तर से उठने के पहले मेल देखा, वहाँ कुछ जरूरी संदेश थे। कुछ का उत्तर दिया। ब्लाग पर कुछ पोस्टें पढ़ीं, कुछ पर टिपियाया और फिर सोने चल दिया। रात दो बजे सोने के बाद सुबह सात बजे तक तो सो कर उठना संभव नहीं था।
सोमवार सुबह उठते ही फिर से दफ्तर संभाला वहीं सुबह की कॉफी पी गई। रात को लिखी गई बहस को एक बार देखा और अंतिम रूप दे कर उस का प्रिंट निकाला। अदालत की पत्रावलियों पर एक निगाह डाली। तैयार हो कर अदालत पहुँचा तो बारह बज रहे थे। सब से पहले तो अदालत जा कर लिखित बहस जज साहब को पेश करनी थी। हालांकि यह दिन निर्णय के लिए मुकर्रर था। मैं ने जज साहब से पूरी विनम्रता से कहा कि पहले प्रतिवादी सं. 1 व 2 बहस लिखित में प्रस्तुत कर चुके हैं और वादी ने भी शनिवार को ऐसा ही किया। मैं प्रतिवादी सं. 3 का वकील हूँ। मेरी मुवक्किला का भविष्य इस मुकदमे से तय होना है इस लिए मैं भी संक्षेप में अदालत के सामने की गई अपनी बहस को लिख लाया हूँ। इसे भी देख लिया जाए। जज साहब झुंझला उठे, जो स्वाभाविक था, उन्हें उसी दिन निर्णय देना था और अभी लिखित बहस दी जा रही थी। उन्हों ने कहा कि भाई दो पक्षकार लिखित बहस दे चुके हैं आप भी रख जाइए।
मैं वहाँ से निकल कर अपने काम में लगा। एक अदालत में जज साहब स्वास्थ्य के कारणों से अवकाश पर चले गए थे। मुझे सुविधा हुई कि मेरा काम एकदम कम हो गया। काम करते हुए चार बज गए। जिस अदालत में लिखित बहस दी गई थी वहाँ का हाल पता किया तो जानकारी मिली कि जज साहब सुबह से उसी मुकदमे में फैसला लिखाने बैठे हैं। मैं अपने सब काम निपटा चुका तो शाम के पाँच बजने में सिर्फ पाँच मिनट शेष थे। लगता था कि अब निर्णय अगले दिन होगा। कुछ मित्र मिल गए तो शाम की कॉफी पीने बैठ गए। इसी बीच हमारी मुवक्किल का फोन आ गया कि मुकदमे में क्या निर्णय हुआ। वे दिन में पहले भी तीन बार फोन कर चुकी थीं। मैं ने उन्हें बताया कि आज निर्णय सुनाने की कम ही संभावना है। शायद कल सुबह ही सुनने को मिले। काफी पी कर मैं एक बार फिर अदालत की ओर गया तो वहाँ उसी मुकदमे में पुकार लग रही थी जिस में निर्णय देना था। मैं वहाँ पहुँचा तो पक्षकारों की ओर से मेरे सिवा कोई नहीं था। शायद लोग यह सोच कर जा चुके थे कि निर्णय अब कल ही होगा। जज की कुर्सी खाली थी। कुछ ही देर में जज साहब अपने कक्ष से निकले और इजलास में आ कर बैठे। मुझे देख कर पूछा आप उसी मुकदमे में हैं न? मैं ने कहा -मैं प्रतिवादी सं.3 का वकील हूँ। जज साहब ने फैसला सुनाया कि दावा निरस्त कर दिया गया है। हमारे साथ न्याय हुआ था। फैसले ने लगातार काम से उत्पन्न थकान को एक दम काफूर कर दिया।
म मुकदमा जीत चुके थे। मैं ने राहत महसूस की, अदालत का आभार व्यक्त किया और बाहर आ कर सब से पहले अपनी मुवक्किल को फोन कर के बताया कि  वे मिठाई तैयार रखें। मुवक्किल प्रतिक्रिया को सुन कर मैं अनुमान कर रहा था कि उसे कितनी खुशी हुई होगी। इस मुकदमे में उस के जीवन की सारी बचत दाँव पर लगी थी और वह उसे खोने से बच गयी थी। इस मुकदमे को निपटने में छह वर्ष लगे। वे भी इस कारण कि वादी को निर्णय की जल्दी थी और हम भी निर्णय शीघ्र चाहते थे। खुश किस्मती यह थी कि केंद्र सरकार द्वारा फौजदारी मुकदमों की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रेक अदालतें स्थापित कर दिए जाने से जिला जज और अतिरिक्त जिला जजों को दीवानी काम निपटाने की फुरसत मिलने लगी थी। मैं सोच रहा था कि काश यह निर्णय छह वर्ष के स्थान पर दो ही वर्ष में होने लगें तो लोगों को बहुत राहत मिले। साथ ही देश में न्याय के प्रति फिर से नागरिकों में एक आश्वस्ति भाव उत्पन्न हो सके।

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

फिर से आएँगे खुशहाल लमहे



     फिर से आएँगे खुशहाल लमहे 

  •  दिनेशराय द्विवेदी

अब छोड़ो भी
बार बार उदास होना

जिन्दगी में आया कोई
लाल गुलाब की तरह
दे गया बहुत सी खुशियाँ

उस के जाने से
न हो उदास

याद कर
उस की खुशबू
और खुश हो

कि वह आया था जिन्दगी में
लाल गुलाब की तरह
चाहे लमहे भर के लिए
लमहे आ कर चले जाते हैं

पीटते रहना
लमहों की लकीर
जिन्दगी नहीं

खुशहाल लमहे
फिर से आएँगे

उठ, आँखे धो
स्वागत की तैयारी कर
लौट न जाएं वे
देख कर
तुम्हारी उदास आँखें

जल्दी कर, देख
वे आ रहे हैं तेजी से
चले आ रहे हैं
महसूस कर
नजदीक आती
उन की खुशबू
__________________________________________________________________________________

  चुनाव व्यथा-कथा पर विराम लगा।  कुछ व्यस्तता के कारण।  इस बीच सोचा तो इस का नाम परिवर्तित कर दिया।  इसे जनतन्तर-कथा नाम दे दिया  है। जनतंतर-कथा जारी रहेगी। लेकिन निरंतर नहीं।  बीच में कुछ विषय ऐसे आ जाते हैं कि उन पर लिखना जरूरी समझता हूँ।  आज की यह कविता फिर से प्रतिक्रिया से उपजी है।  पर इसे ब्लाग पर डालना भी सोद्देश्य है। आशा है पसंद आएगी।  कल फिर जनतन्तर-कथा के साथ।  
____________________________________________________________________________________