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शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

फिर से आएँगे खुशहाल लमहे



     फिर से आएँगे खुशहाल लमहे 

  •  दिनेशराय द्विवेदी

अब छोड़ो भी
बार बार उदास होना

जिन्दगी में आया कोई
लाल गुलाब की तरह
दे गया बहुत सी खुशियाँ

उस के जाने से
न हो उदास

याद कर
उस की खुशबू
और खुश हो

कि वह आया था जिन्दगी में
लाल गुलाब की तरह
चाहे लमहे भर के लिए
लमहे आ कर चले जाते हैं

पीटते रहना
लमहों की लकीर
जिन्दगी नहीं

खुशहाल लमहे
फिर से आएँगे

उठ, आँखे धो
स्वागत की तैयारी कर
लौट न जाएं वे
देख कर
तुम्हारी उदास आँखें

जल्दी कर, देख
वे आ रहे हैं तेजी से
चले आ रहे हैं
महसूस कर
नजदीक आती
उन की खुशबू
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  चुनाव व्यथा-कथा पर विराम लगा।  कुछ व्यस्तता के कारण।  इस बीच सोचा तो इस का नाम परिवर्तित कर दिया।  इसे जनतन्तर-कथा नाम दे दिया  है। जनतंतर-कथा जारी रहेगी। लेकिन निरंतर नहीं।  बीच में कुछ विषय ऐसे आ जाते हैं कि उन पर लिखना जरूरी समझता हूँ।  आज की यह कविता फिर से प्रतिक्रिया से उपजी है।  पर इसे ब्लाग पर डालना भी सोद्देश्य है। आशा है पसंद आएगी।  कल फिर जनतन्तर-कथा के साथ।  
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शुक्रवार, 20 मार्च 2009

बदलता मौसम, किसान और मेरी उदासी

 शीतकाल
सारी सर्दी हलके गर्म पानी का इस्तेमाल किया स्नान के लिए।  होली पर रंगे पुते दोपहर बाद 3 बजे बाथरूम में घुसे तो सोचा पानी गर्म लें या नल का।  बेटी बोली नल का ठीक है। हम ने स्नान कर लिया। कोई परेशानी न हुई।  लेकिन दूसरे दिन ही नहाने के लिए पानी गरम लेने लगे।  बस दो दिनों से नल के पानी से नहाने लगे हैं। परसों तक रात को वही दस साल पुरानी एक किलो रुई की रजाई औढ़ते रहे जिस की रुई कंबल की तरह चिपक  चुकी है।  कोई गर्मी नहीं लगी।  परसों तक उसे ही ओढ़ते रहे।   लेकिन कल अचानक गर्मी हो गई।  रात को अचानक पार्क के पेड़ों के पत्ते खड़खड़ाने लगे तो पता चला कि आंधी चल रही है। कोई 15 मिनट तक पत्तों की आवाजें आती रहीं।  चादर ओढ़ा पर वह भी नहीं सुहाया तो बिना ओढ़े ही सोते रहे, सुबह जा कर वह किसी तरह काम आया। 
होली
मौसम बदल रहा है।  दिन में अदालत में थे कि तीन बजे करीब बादल निकलने लगे। साढ़े चार अदालत से चले कि रास्ते में बून्दें टपकाने लगे पर रास्ते में ही बूंदें बन्द हो गईं।  शाम को साढ़े छह- सात के करीब हम ब्लाग पर पोस्ट पढ़ रहे थे कि अचानक बिजली चली गई।  कम्प्यूटर, रोशनी, पंखा सब बंद बाहर से टप टपा टप की आवाजें आने लगीं फिर पानी की रफ्तार तेज हो गई कोई बीस मिनट पानी बरसता रहा जोरों से।  फिर पानी बंद हुआ।  कोई पाँच मिनट बाद बिजली आ गई।  अभी हवा चल रही है।  पार्क के पेड़ डोल रहे हैं।  पत्ते थरथरा कर एक दूसरे से टकराकर ध्वनियाँ कर रहे हैं, यहां मेरे दफ्तर तक सुनाई दे रही हैं।
 बरसात

हर साल पूरे साल का गेहूँ घर आ जाता है एक ही किसान के यहाँ से।  पिछले साल किसी गलतफहमी के कारण नहीं आ सका था।  हमने किसी और से लिया नहीं।  लेकिन पिछले साल का गेहूँ बचा था, कुछ हमने इस साल मोटा अनाज ज्वार, मक्का, बाजरा का कुछ अधिक इस्तेमाल किया तो गेहूँ पिछले माह तक हो गया। बाजार टटोला तो पता लगा नया गेहूँ आने वाला है।  हम ने चक्की वाले से सीधे आटा लिया दस-पन्द्रह दिन चल जाएगा।

कल अचानक बेटे को इंदौर निकलना पड़ा, मैं और धर्मपत्नी श्रीमती शोभा जी उसे छोड़ कर स्टेशन से बाहर निकले तो गेहूँ वाले किसान विष्णु बाबू मिल गए।  वे किसी को स्टेशन लेने पहुँचे थे उन की ट्रेन आने वाली थी।  कुछ देर बातें करते रहे।  फिर कहने लगे गेहूँ कटने की तैयारी है।  दस दिन में आ जाएगा।  कब तक पहुँचा दूँ? मैं ने कहा हमारे यहाँ तो पिछले साल गेहूँ खरीदा ही नहीं गया, पुराना ही चलता रहा।  वह एक सप्ताह पहले ही खत्म हुआ है।  तो कहने लगे पड़ौसी के तैयार हो गए हैं कल ही एक बोरी तो भिजवा देता हूँ।   फिर दो हफ्ते में साल का रख जाउँगा।  हमें सुखद अनुभव हुआ।
ग्रीष्म
लेकिन यह कुसमय रात की आंधी और अब शाम की बरसात। शायद किसानों के लिए तो शंका और विपत्ति ले कर आई है।  इस साल सर्दियों की अवधि छोटी रहने से पहले ही फसल तीन चौथाई दानों की हो रही है।  तिस पर यह बरसात न जाने क्या कहर बरसाएगी।  ओले न हों तो ठीक नहीं तो आधा भी गेहूँ घर न आ पाएगा।  मैं सोच ही रहा हूँ कि विष्णु जी कितने चिंतित और उदास होंगे?   फसल को जल्दी कटवाने की जुगत में होंगे? वादे का एक बोरी गेहूँ भी आज नहीं पहुँचा है।  वे जरूर परेशान होंगे।  मैं भी सोचते हुए उदास हो गया हूँ।