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सोमवार, 12 अप्रैल 2021

भारतीय नव-वर्ष

भारतीय और हिन्दू नववर्ष की बधाइयाँ शुरू हो गयी हैं. सोशल मीडिया पर संस्कृति का गुणगान किया जा रहा है उस पर गर्व प्रकट किया जा रहा है। यूँ तो जब से मोदी जी केन्द्र में प्रधानमंत्री बने हैं शायद ही कोई क्षण बीतता हो जब सोशल मीडिया पर हिन्दू और भारतीय संस्कृति का गुणगान न होता हो। उनके समर्थकों को लगता है कि हिन्दू और भारतीय संस्कृति का गुणगान न किया गया तो शायद मोदी जी का आधार खिसक जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो उनका क्या होगा?

हिन्दू और भारतीय संस्कृति पर गर्व प्रकट करने और उसका गुणगान करने वालों में से अधिकांश तो जानते ही नहीं कि संस्कृति वास्तव में है क्या? संस्कृति का विषय बहुत गहरा और विस्तृत है। इस समय उस पर विचार करना विषय से भटकना होगा। इसलिए मैं इस आलेख को केवल नव-वर्ष तक सीमित रखना चाहूँगा।
दिनों से मास बनता है और प्राचीन काल में मास की गणना के लिए आसान तरीका यह था कि नए चांद से नए चांद के पहले वाले दिन तक एक माह होगा। यह अक्सर ही 30 दिन का होता है। यूँ नए चांद से नए चांद तक लगभग साढ़े उन्तीस दिन होते हैं। पर आधे दिन की गणना करना मुश्किल होता है। इस कारण मास को तीस दिन का मान लिया गया। बारह मास में कुल 354 दिन होते हैं। इस कारण वर्ष में कुछ माह तीस दिन के होंगे तो कुछ माह उन्तीस दिन के। यही कारण है कि रमजान का महीना कभी 29 दिन और कभी तीस दिनों का होता है। उनतीसवें दिन चांद देख पाने की लालसा सभी रोजेदारों को होती है। लेकिन यदि उस दिन चांद न दिखे तो तीसवें दिन तो उसे दिखना ही है इस कारण तीसवें दिन चांद देखने की लालसा समाप्त हो जाती है। सारी दुनिया में चांद्रमास और 12 चांन्द्रमासों का वर्ष माना जाना सबसे प्राचीन परंपरा है।
लेकिन जब से यह जानकारी हुई कि सूर्य आकाश मंडल में अपने परिभ्रमण मार्ग पर 365 दिन और 6 घंटों में पुनः अपने स्थान पर पहुँच जाता है तो इस अवधि को सौर वर्ष मान लिया गया। ऋतुओं की गणना इसी रीति से सही बैठती है। लेकिन लगभग 354 दिनों के चांद्र वर्ष और लगभग 365.25 दिनों के सौर वर्ष में दस दिनों का अन्तर है। चान्द्र वर्ष मानने वालों का साल हर बार दस दिन पहले आरंभ हो जाता है। इससे यह विसंगति पैदा होती हैं कि रमजान का मास सारी ऋतुओं में आ जाता है। यही कारण है कि इस्लामी नववर्ष हर ऋतु में आाता है और 36 वर्षों में वापस अपना पुराना स्थान प्राप्त कर लेता है।
लेकिन जो लोग महीनों को ऋतुओं के साथ जोड़ना चाहते थे उन्होंने इसका एक मार्ग खोज निकाला कि वे हर तीन वर्ष में एक चान्द्र मास वर्ष में जोड़ने लगे। इस तरह हर तीसरा वर्ष 13 चांद्रमासों का होने लगा। इस का निर्धारण करने का उन्होंने अपना तरीका निकाल लिया। आकाश मंडल में 360 डिग्री के सूर्य केस यात्रा मार्ग को उन्होंने 30-30 डिग्री के 12 भागों में विभाजित किया। हर भाग को उसमें उपस्थित तारों द्वारा बनी आकृति के आधार पर मेष, वृष आदि राशियों के नाम दिए गए। जब भी सूर्य अपने यात्रा मार्ग पर एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण करता है तो उस घटना को संक्रांति कहा गया। संक्रांति का नाम जिस राशि में सूर्य प्रवेश कर रहा होता है उस राशि के नाम पर दिया गया। मकर संक्रांति से सभी परिचित हैं जब सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है उसे हम मकर संक्रांति कहते हैं। बारह राशियों को बारह संक्रांतियाँ होती हैं। इस तरह हर सौर वर्ष में बारह संक्रान्तियाँ और तीन वर्ष में 36 संक्रान्तियाँ होती हैं। लेकिन तीन वर्ष में चान्द्र मास 37 हो जाते हैं। तो हमने तय कर लिया कि जिस चांद्रमास में संक्रान्ति न पड़े उसे अतिरिक्त या अधिक मास मान लिया जाए। इस से चांद्र मास ऋतुओं का प्रतिनिधित्व करने लायक हो जाते हैं। हमने देखा कि वर्ष तो 365.25 दिन का ही होता है। फिर चौथाई दिन की गुत्थी शेष रह जाती है। ग्रीगोरियन कलेण्डर वालों ने हर चार वर्ष में एक दिन अतिरिक्त जोड़ कर चौथाई दिन की गुत्थी भी सुलझा ली गयी।

इस विवेचन के बाद हम समझ सकते हैं कि नव वर्ष मनाने का सब से सही तरीका यह होगा कि हर नया वर्ष 365.25 दिनों का हो। यह तभी हो सकता है जब हम चांद्र वर्ष को त्याग कर सौर वर्ष को अपना लें। भारतीय पद्धति से बारह राशियाँ मेष से आरम्भ हो कर मीन पर समाप्त हो जाती हैं। इस तरह नव वर्ष हमें उस दिन मनाना चाहिए जिस दिन सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता हो। भारत के पंजाब प्रान्त में इस दिन बैसाखी का पर्व मनाया जाता है। इस तरह बैसाखी पर्व भारतीय नव वर्ष का प्रतिनिधित्व करता है न कि चैत्र सुदी प्रतिपदा। यह संयोग नहीं है कि हमारे बंगाली भाई बैसाखी के बाद वाले दिन को अपने नववर्ष के रूप में मनाते हैं। इसे वे अपना नववर्ष अथवा पोइला बैशाख कहते हैं। मेष की संक्रान्ति से जुड़े त्यौहार संपूर्ण भारत में किसी न किसी रूप में मनाए जाते हैं। इस वर्ष 14 अप्रेल के इस दिन को जहाँ पंजाब और सिख समुदाय बैसाखी के रूप में मना रहा है तो वहीं तमिलनाडु इसे पुथण्डु के रूप में, केरल विशु के रूप में, आसाम इसे बोहाग बिहु के रूप में मना रहा है। तमाम हिन्दू इसे मेष संक्रान्ति के रूप में तो मनाते ही हैं। इस तरह यदि हम संस्कृति के रूप में भी देखें तो चैत्र सुदी प्रतिपदा से आरम्भ होने वाला नववर्ष नहीं अपितु बैसाखी से आरम्भ होने वाला नववर्ष भारतीय संस्कृति के अधिक निकट है। यह भी एक संयोग ही है कि बैसाखी के एक दिन पहले 13 अप्रैल को भारतीय चांद्र नववर्ष पड़ रहा है।
आजादी के उपरान्त भारत ने अपना नववर्ष वर्नल इक्विनोक्स वासंतिक विषुव के दिन 22/23 मार्च को वर्ष का पहला दिन मानते हुए एक सौर कलेंडर बनाया जिसे भारतीय राष्ट्रीय पंचांग कहा गया। यह राष्ट्रीय पंचांग सरकारी कैलेंडर के अतिरिक्त कहीं भी स्थान नहीं बना सका। क्यों कि यह किसी व्यापक रूप से मनाए जाने वाले भारतीय त्यौहार से संबंधित नहीं था। यदि बैसाखी के दिन या बैसाखी के दिन के बाद के दिन से आरंभ करते हुए हम राष्ट्रीय सौर कैलेंडर को चुनते तो इसे सब को जानने-मानने में बहुत आसानी होती और यह संपूर्ण भारत में आसानी से प्रचलन में आ सकता था। यदि हमारी संसद चाहे तो इस काम को अब भी कर सकती है। किसी भी त्रुटि को दूर करना हमेशा बुद्धिमानीपूर्ण कदम होता है जो चिरस्थायी हो जाता है। हम चाहें तो इस काम को अब भी कर सकते हैं। फिलहाल सभी मित्रों को बैसाखी, बोहाग बिहु, पोइला बैशाख, पुथण्डु और विशु के साथ साथ मेष संक्रान्ति की शुभकामनाएँ और बंगाली मानुषों को नववर्ष की शुभकामनाएँ जिसे वे अगले दिन मनाएंगे। चैत्र सुदी प्रतिपदा को नववर्ष मनाने वालों को भी बहुत बहुत शुभकामनाएँ। इस आशा के साथ कि वे समझें कि भारतीय संस्कृति का त्यौहार चैत्र सुदी प्रतिपदा वाला नववर्ष नहीं, अपितु बैसाखी से आरम्भ होने वाला नववर्ष है।

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

भारतीय समाज में गोत्र व्यवस्था : बेहतर जीवन की ओर-13

मने इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में अमरीकी इंडियन गोत्र व्यवस्था के बारे में जाना। कुछ हजार वर्ष पहले तक पूरी दुनिया में मानव समाज ऐसा ही था। बिना किसी वर्ग के एक सरल सामुहिक जीवन जीता हुआ। एक स्वाभाविक रूप से विकसित समाज जिस में शासक-शासित नहीं थे। भारतीय समाज में आज भी गोत्र व्यवस्था के अवशेष देखने को मिलते हैं। एक ही गोत्र के स्त्री-पुरुष के बीच वैवाहिक संबंधों की मनाही का कड़ाई से पालन कुछ वर्ष पहले तक किया जाता रहा है। अधिकांश मामलों में आज भी किया जाता है। अधिकांश भारतीय समाज में ये गोत्र पितृसत्तात्मक हैं। यदि कोई दम्पति निस्सन्तान हो और उन्हें किसी संतान को गोद लेना हो तो यह परंपरा देखने को मिलती है कि किसी सगोत्र बालक-बालिका को ही गोद लिया जाए जिस से संपत्ति किसी अन्य गोत्र में न चली जाए। अनेक गोत्रों से मिल कर बिरादरी बनती है जिसे हमारे यहाँ जाति भी कहा जाता है। 

सलन मैं पारोत्रा ब्राह्मण बिरादरी से हूँ। इस बिरादरी में गोत्रों की संख्या कुल 22 के लगभग है। कोई तीस बरस पहले तक विवाह बिरादरी के भीतर ही किया जा सकता था। यदि कोई इस सीमा का उल्लंघन करता था उसे बिरादरी से बाहर समझा जा कर उस से सभी व्यवहार बंद कर दिए जाते थे। बिरादरी आज भी कुल 5-6 सौ परिवारों की है। जब बच्चे अधिक पढ़ने लगे और गोत्र के बाहर बिरादरी में विवाह योग्य जोड़े बनाने में मुश्किल खड़ी होने लगी तो यह तलाश किया जाने लगा कि हम आखिर इतने कम क्यों हैं, आखिर कोई तो और भी बिरादरी अवश्य होगी जिस से हमारा मूल मिलता होगा। तो अधिकांशतः मध्य प्रदेश के धार और इंदौर जिलों में बसने वाले बाबीसा ब्राह्मण बिरादरी तलाश कर ली गई जिनके गोत्र समान थे। कुछ बैठकों और सम्मेलनों के बाद दोनों बिरादरियों का एक संघ बन गया। मान लिया गया कि दोनों एक ही मूल के हैं। दोनों के बीच बेटी व्यवहार आरंभ हो गया। यदि इस मूल की तलाश करते जाएँ तो बहुत सी छोटी-छोटी बिरादरियों के संघ बनाए जा सकते थे। 

लेकिन जिस रीति से हमारा समाज बदला है। ये बिरादरियाँ वैसे ही नहीं टिकने वाली थीं। पढ़े लिखे लड़के अपने समान पढ़ाई वाली लड़की किसी भी ब्राह्मण बिरादरी से ब्याह कर लाने लगे। बिरादरी इतनी कमजोर हो गई कि वह किसी का बहिष्कार करने में सक्षम नहीं रही। उस ने ऐसे लड़कियों को स्वीकार करना आरंभ कर दिया। धीरे-धीरे ब्राह्मण कन्या के स्थान पर अन्य कन्याएँ भी बिरादरी में विवाह कर लाई जाने लगीं और बिरादरी कुछ न कर सकी। अब बिरादरी के कायम रहने की एक शर्त यह भी हो गई है कि कोई भी पुरुष किसी भी कन्या को ब्याह लाए उसे बिरादरी में स्थान मिलने लगा। पर ऐसे उदाहरण अभी भी उंगलियों पर ही गिने जा सकते हैं। अभी भी गोत्र और बिरादरी के पुराने मूल्यों का ही अधिकांश लोग निर्वाह करते दिखाई पड़ते हैं। बिरादरी जब मजबूत थी तो दहेज और वैवाहिक खर्चों की सीमाएँ थीं। लेकिन बिरादरी के कमजोर पड़ने से ये दोनों दानव पैर पसारने लगे। लालच की सीमाएँ टूटने लगीं। अब बिरादरी के लोग ही विवाह में ये देखने लगे कि दहेज कितना मिलने वाला है और विवाह कितनी शान से होने वाला है। बिरादरी में पहले सब समान हुआ करते थे। उम्र और विद्वता सम्मान के कारण थे। अब धन उन का स्थान ले रहा है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि वर्ग भेदों के आने के पहले मानव समाज का जो सुंदर सामाजिक संगठन था, उस  का टूटना अवश्यंभावी था। उस संगठन ने कबीले से आगे कभी विकास नहीं किया। (क्रमशः)

रविवार, 31 जुलाई 2011

रेलवे ने 90वें दिन के बाद के भी आरक्षित टिकट जारी किए

भारतीय रेलवे भारत में यात्रा का उपयुक्त साधन है। हर तरह के यात्री इस में यात्रा करते हैं। लंबी दूरियों की यात्रा करने वाले सभी यात्री रेल में यात्रा करना चाहते हैं। भारतीय रेलवे की अधिकांश गाड़ियों में पूर्व आरक्षण सुविधा है। रेलवे ने आरक्षण के लिए अनेक व्यवस्थाएँ की हैं। आरक्षण कार्यालयों की खिड़की से आरक्षण प्राप्त किया जा सकता है, यदि आप ने रेलवे आरक्षण की साइट https://www.irctc.co.in/ पर पंजीकरण किया हुआ है तो आप वहाँ से ई-टिकट और आई-टिकट प्राप्त कर सकते हैं, किसी अधिकृत एजेंट से टिकट बुक करवा सकते हैं, आदि आदि।  मैं स्वयं बहुत कम यात्राएँ करता हूँ।  इस कारण आरक्षण-तंत्र से बहुत अधिक परिचित भी नहीं हूँ। लेकिन बेटा और बेटी दोनों अपने अपने नियोजनों के कारण बाहर रहते हैं और उन्हें घर आने के लिए रेलवे का ही सहारा होता है। दोनों के पास इंटरनेट पर जाने के लिए अपने-अपने साधन हैं। फिर भी कभी जब उन्हें आना-जाना होता है और त्योहारों के कारण टिकिट की मांग बहुत अधिक होती है तो वे मुझे टिकट प्राप्त करने के लिए कहते हैं। बेटे को दीवाली पर घर आना है। उस ने मुझे टिकट के लिए कहा तो मैं ने एक एजेंट को टिकट बनाने के लिए बोल दिया। जिस दिन का हम चाहते थे टिकट नहीं मिला, एक दिन पहले का मिला। अब उसे एक दिन पहले आने के लिए एक दिन का अवकाश अधिक लेना होगा।

र आने का टिकट प्राप्त हो जाने के बाद वापसी का टिकट भी तो चाहिए। उस के लिए हमें कुछ दिन प्रतीक्षा करनी थी। रेलवे किसी भी दिन का आरक्षित टिकट प्राप्त करने की सुविधा उस दिन से 90 दिन पहले सुबह 8:00 बजे आरंभ करती है। उस से पहले कोई टिकट रेलवे जारी नहीं करती। बेटे को 30 अक्टूबर का टिकट चाहिए था। लेकिन मैं ने टिकटों की मारा-मारी के कारण यह उचित समझा कि 29 अक्टूबर का टिकट ले लिया जाए। यदि 30 का भी मिल जाएगा तो हम 29 अक्टूबर का निरस्त करवा लेंगे। 29 अक्टूबर के टिकट के लिए आरक्षण आज खुलना था। इस लिए सुबह सुबह ही एजेंट को फोन कर के बताया कि वह टिकट बना ले। मैं ने सोचा कि मैं स्वयं क्यों न कोशिश करूं? मैं ने सुबह आठ बजे irctc पर लोग-इन किया। लेकिन वहाँ पता लगा कि 'क्विक बुक' की सुविधा सुबह 8 से 9 बजे तक बंद रहती है। फिर 'प्लान माई ट्रेवल' में गए तो सब  औपचारिकताएँ पूरी कर देने के उपरांत स्टेशन सूची के लिए चटका लगाया तो साइट ने स्टेशन सूची खोलने से इन्कार कर दिया। सुबह 8 बजे से प्रयत्न करता रहा,  9 बजने तक स्टेशन सूची खुल ही नहीं रही थी। 

खिर 9 भी बजे। अब मैं 'क्विक बुक' सुविधा का उपयोग कर सकता था। रेलवे की सामान्य साइट पर आज 29 अक्टूबर तक के ही टिकट जारी होना बताया जा रहा था। लेकिन जब मैं टिकटों की उपलब्धता पर गया तो पता लगा कि 31 अक्टूबर तक के टिकट बुक हो चुके हैं। इस का अर्थ था कि आज 92वें दिन तक के टिकट भी बुक किए जा चुके थे। यह रेल नियमों का उल्लंघन है। क्यों कि नियमों में यह बताया गया है कि टिकट 90 दिन पहले ही जारी किया जा सकता है, उस से पहले नहीं। मैं ने इन नियमों को रेलवे की साइट पर जा कर जाँच भी लिया। वहाँ अंग्रेजी में दो स्थानों पर 90 दिन पूर्व की सूचना अंकित है, लेकिन हिन्दी साइट पर पहले 60 दिन और फिर 90 दिन अंकित है। शायद हिन्दी साइट पर यह त्रुटि दुरुस्त नहीं की गई है। किसी ने ध्यान भी नहीं दिलाया है कि उसे दुरुस्त किया जा सके। 

खैर, मुझे आशंका हो चली थी कि अब 29-30 अक्टूबर का शायद ही कोई टिकट मिल पाए। यही हुआ भी, जिस गाड़ी में मैं टिकट लेना चाहता था उस में कोई भी टिकट इन दो दिनों का उपलब्ध नहीं था। मैं गाड़ियाँ बदल बदल कर देखने लगा कि किसी अन्य गाड़ी में इन दिनों का टिकट मिल जाए। इसी बीच एजेंट का फोन आ गया कि 29-30 अक्टूबर को दोनों दिन प्रतीक्षा सूची 6 और 10 तक जा चुकी है क्या टिकट ले लिया जाए? मैंने उसे 30 अक्टूबर का प्रतीक्षा टिकट लेने को कहा और फिर से तलाश में जुट गया। एक अन्य ट्रेन में 30 अक्टूबर का पुष्ट टिकट मिल रहा था। मैं ने तुरंत उस के लिए कार्यवाही की और उसे पुष्ट कर लिया। अब मैं निश्चिंत था कि बेटे का दीवाली पर घर आने का ही नहीं वापसी की व्यवस्था भी हो गई है। 

रेलवे टिकट के लिए मारामारी आम बात है। अक्सर ही यह अनुभव हुआ है कि 90 दिन पहले आरक्षण खिड़की पर पंक्ति में सब से आगे खड़े व्यक्ति को भी पुष्ट टिकट नहीं मिल पाता है। कैसे एक मिनट से भी कम समय में ही पूरी गाड़ी की सारी आरक्षित शैयाओं के टिकट जारी हो जाते हैं? इस प्रश्न का उत्तर आज तक नहीं मिल पाया है। तुरंत यात्रा कार्यक्रम वालों के लिए दो दिन पहले कुछ अधिक धन खर्च कर के टिकट प्राप्त करने की सुविधा भी है लेकिन उस का भी अपना कड़वा अनुभव है। जब हम गाड़ी पर पहुँचते हैं तो वहाँ आरक्षित डब्बों के बाहर अक्सर कुछ लोग दिखाई दे जाते हैं जिन के हाथों में आरक्षण खिड़की से प्राप्त किए हुए दर्जनों टिकट होते हैं और वे अपने मुवक्किलों को प्लेटफार्म पर ही टिकट देते हैं और पैसे वसूल करते हैं। यह रेलवे की कौन सी सुविधा है यह आज तक पता नहीं है। हाँ इतना जरूर पता है कि टिकट ले कर खड़े रहने वाला यह व्यक्ति रेलवे का कर्मचारी या एजेंट नहीं होता है। मैं ने आज जो अनियमितता देखी है उस का तो कोई स्पष्टीकरण मुझे सूझ नहीं रहा है। इस का स्पष्टीकरण रेलवे को करना ही चाहिए कि जब आरक्षित टिकट केवल 90 दिन पहले तक के ही जारी किए जा सकते हैं, तब 90 वें दिन से पहले के टिकट कैसे जारी किए गए हैं?

पुनश्चः
2:33 अपरान्ह
क खबरिया चैनल बता रहा है कि आज सुबह 29 अक्टूबर के रेल टिकटों का आरक्षण जारी करना आरंभ हुआ और 10 मिनट में 100 गाडि़यों के सभी शायिकाएँ आरक्षित हो गईं।
ह प्रश्न अब भी बना हुआ है कि मुझे 30 अक्टूबर की टिकट का आरक्षण कैसे मिला?

बुधवार, 29 सितंबर 2010

हम कब इंसान और भारतीय बनेंगे?

लाहाबाद उच्च न्यायालय के अयोध्या निर्णयके लिए 30 तारीख मुकर्रर हो चुकी है। कल सर्वोच्च न्यायालय ने कह दिया कि बातचीत से समझौते पर पहुँचने के लिए बहुत देरी हो चुकी है, अदालत को अपना निर्णय दे देना चाहिए। दोनों निर्णयों के बीच की दूरी सिर्फ 48-50 घंटों की रहेगी। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के उपरान्त इतना समय तो दिया जाना जरूरी भी था। जिस से जिस-जिस को जो जो तैयारी करनी हो कर ले। 
ल दोपहर जब मैं अपने नियमित साथियों के साथ मध्यान्ह की कॉफी पीने बैठा तो मेरे ही एक सहायक का मोबाइल मिला कि आप के क वकील मित्र आप को कॉफी के लिए बुला रहे हैं। शहीद भगत सिहं का जन्मदिवस होने से अभिभाषक परिषद में मध्यान्ह पश्चात कार्यक्रम था। अदालती काम लगभग निपट चुका था। मैं नियमित कॉफी निपटाने के बाद दूसरी कॉफी मजलिस में पहुँचा। वहाँ अधिकतर लोग जा चुके थे। पर क वकील साहब अपने एक अन्य मित्र ख के साथ वहीं  विराजमान थे। कुछ देर इधर-उधर की बातें हुई और कॉफी आ गई। तभी वकील साहब के मोबाइल की घंटी बजी। सूचना थी कि सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्चन्यायालय को अयोध्या पर निर्णय सुनाने के लिए हरी झंडी दिखा दी है।  वकील साहब तुरंत ही मोबाइल  पर व्यस्त हो गए। कुछ देर बाद उन्हों ने बताया कि निर्णय 30 सितंबर को सुनाया जाएगा। फिर उन्हों ने अपने घर फोन किया कि घर की जरूरत का सभी सामान जो माह के पहले सप्ताह में मंगाया जाता है वह आज ही मंगा लिया जाए, कम से कम 30-40 किलो गेहूँ पिसवा कर आटा कर लिया जाए और पाँच-सात दूध पाउडर के डब्बे जरूर मंगा लिए जाएँ। वजह अयोध्या का निर्णय था, उन के मन में यह आशंका नही बल्कि विश्वास था कि अयोध्या का निर्णय कुछ भी हो पर उस के परिणाम में दंगे जरूर भड़क उठेंगे.... कर्फ्यू लगेगा और कुछ दिन जरूरी चीजें लेने के लिए बाजार उपलब्ध नहीं होगा।
वकील साहब न कांग्रेसी हैं न भाजपाई। उन के संबंध कुछ पुराने बड़े राजघरानों से हैं जिन की अपनी सामंती कुलीनता और संपन्नता के कारण किसी न किसी राजनैतिक दल में पहुँच है। इस पहुँच को वे कोई रंग देते भी नहीं हैं। क्यों कि कब कौन सा दल शासन में रहेगा यह नहीं कहा जा सकता। वे केवल अपनी सामंती कुलीनता को बनाए रखना चाहते हैं और संपन्नता को पूंजीवादी संपन्नता में लगातार बदलने के लिए काम करते हैं। ऐसे लोग हमेशा शासन के निकट बने रहते हैं। उन की सोच थी कि फैसला कुछ भी हो देश का माहौल जरूर बिगड़ेगा और दंगे जरूर होंगे।
वकील साहब घोषित रूप से कांग्रेसी हैं। उन के पास अपनी कोई कुलीनता नहीं है। लेकिन वे किसी भी अवसर को झपट लेने को सदैव तैयार रहते हैं। उन की भी सोच यही थी कि दंगे तो अवश्यंभावी हैं। दंगों में फायदा हिन्दुओं को होगा, वे कम मारे जाएंगे। मुसलमानों को अधिक क्षति होगी, क्यों कि पुलिस और अर्ध सैनिक बल हिन्दुओं की तरफदारी में रहेंगे। इन सब के बावजूद न तो वे दूध के लिए चिंतित थे और न ही घर में आटे के डब्बे के लिए। उन के पिचहत्तर साल के पिता मौजूद हैं। घर और खेती की जमीन के मालिक हैं और वे ही घर चलाते हैं। चिंता होगी भी तो उन्हें होगी। दोनों ने अयोध्या के मामले में सुनवाई करने वाली पीठों के न्यायाधीशों के हिन्दू-मुस्लिम चरित्र को भी खंगाल डाला। पर इस बात पर अटक गए कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय में समझौते के लिए बातचीत करने का समर्थन करने के लिए मतभेद प्रकट करने वाले न्यायाधीश हिन्दू थे।
धर न्यायालय परिसर में बातचीत हो रही थी। कुछ हिन्दू वकील कह रहे थे कि यदि फैसला उन के हक में नहीं हुआ तो  वे हिन्दू संगठन फैसले को न मानेंगे और जमीनी लड़ाई पर उतर आएंगे। लेकिन यदि फैसला मुसलमानों के हक में आता है तो उन्हें अनुशासन में रहना चाहिए। कुछ मुस्लिम वकील जवाब में प्रश्न कर रहे थे कि वे तो हमेशा ही अनुशासन में रहते आए हैं। लेकिन यह अनुशासन उन के लिए ही क्यों?
शाम को बेटे का फोन आया तो उस ने मुझे तो कुछ नहीं कहा। पर अपनी माँ को यह अवश्य कहा कि घर में सामान की व्यवस्था अवश्य कर लें और पापा से कहें कि वे अनावश्यक घर के बाहर न जाएँ। माँ ने बेटे की सलाह मान ली है। घर में कुछ दिनों के आवश्यक सामानों की व्यवस्था कर ली है।
मैं सोच रहा हूँ कि हम कब तक अपनी खालों के भीतर हिन्दू और मुसलमानों को ढोते रहेंगे? कब इंसान और भारतीय बनेंगे?