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सोमवार, 12 अप्रैल 2021

भारतीय नव-वर्ष

भारतीय और हिन्दू नववर्ष की बधाइयाँ शुरू हो गयी हैं. सोशल मीडिया पर संस्कृति का गुणगान किया जा रहा है उस पर गर्व प्रकट किया जा रहा है। यूँ तो जब से मोदी जी केन्द्र में प्रधानमंत्री बने हैं शायद ही कोई क्षण बीतता हो जब सोशल मीडिया पर हिन्दू और भारतीय संस्कृति का गुणगान न होता हो। उनके समर्थकों को लगता है कि हिन्दू और भारतीय संस्कृति का गुणगान न किया गया तो शायद मोदी जी का आधार खिसक जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो उनका क्या होगा?

हिन्दू और भारतीय संस्कृति पर गर्व प्रकट करने और उसका गुणगान करने वालों में से अधिकांश तो जानते ही नहीं कि संस्कृति वास्तव में है क्या? संस्कृति का विषय बहुत गहरा और विस्तृत है। इस समय उस पर विचार करना विषय से भटकना होगा। इसलिए मैं इस आलेख को केवल नव-वर्ष तक सीमित रखना चाहूँगा।
दिनों से मास बनता है और प्राचीन काल में मास की गणना के लिए आसान तरीका यह था कि नए चांद से नए चांद के पहले वाले दिन तक एक माह होगा। यह अक्सर ही 30 दिन का होता है। यूँ नए चांद से नए चांद तक लगभग साढ़े उन्तीस दिन होते हैं। पर आधे दिन की गणना करना मुश्किल होता है। इस कारण मास को तीस दिन का मान लिया गया। बारह मास में कुल 354 दिन होते हैं। इस कारण वर्ष में कुछ माह तीस दिन के होंगे तो कुछ माह उन्तीस दिन के। यही कारण है कि रमजान का महीना कभी 29 दिन और कभी तीस दिनों का होता है। उनतीसवें दिन चांद देख पाने की लालसा सभी रोजेदारों को होती है। लेकिन यदि उस दिन चांद न दिखे तो तीसवें दिन तो उसे दिखना ही है इस कारण तीसवें दिन चांद देखने की लालसा समाप्त हो जाती है। सारी दुनिया में चांद्रमास और 12 चांन्द्रमासों का वर्ष माना जाना सबसे प्राचीन परंपरा है।
लेकिन जब से यह जानकारी हुई कि सूर्य आकाश मंडल में अपने परिभ्रमण मार्ग पर 365 दिन और 6 घंटों में पुनः अपने स्थान पर पहुँच जाता है तो इस अवधि को सौर वर्ष मान लिया गया। ऋतुओं की गणना इसी रीति से सही बैठती है। लेकिन लगभग 354 दिनों के चांद्र वर्ष और लगभग 365.25 दिनों के सौर वर्ष में दस दिनों का अन्तर है। चान्द्र वर्ष मानने वालों का साल हर बार दस दिन पहले आरंभ हो जाता है। इससे यह विसंगति पैदा होती हैं कि रमजान का मास सारी ऋतुओं में आ जाता है। यही कारण है कि इस्लामी नववर्ष हर ऋतु में आाता है और 36 वर्षों में वापस अपना पुराना स्थान प्राप्त कर लेता है।
लेकिन जो लोग महीनों को ऋतुओं के साथ जोड़ना चाहते थे उन्होंने इसका एक मार्ग खोज निकाला कि वे हर तीन वर्ष में एक चान्द्र मास वर्ष में जोड़ने लगे। इस तरह हर तीसरा वर्ष 13 चांद्रमासों का होने लगा। इस का निर्धारण करने का उन्होंने अपना तरीका निकाल लिया। आकाश मंडल में 360 डिग्री के सूर्य केस यात्रा मार्ग को उन्होंने 30-30 डिग्री के 12 भागों में विभाजित किया। हर भाग को उसमें उपस्थित तारों द्वारा बनी आकृति के आधार पर मेष, वृष आदि राशियों के नाम दिए गए। जब भी सूर्य अपने यात्रा मार्ग पर एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण करता है तो उस घटना को संक्रांति कहा गया। संक्रांति का नाम जिस राशि में सूर्य प्रवेश कर रहा होता है उस राशि के नाम पर दिया गया। मकर संक्रांति से सभी परिचित हैं जब सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है उसे हम मकर संक्रांति कहते हैं। बारह राशियों को बारह संक्रांतियाँ होती हैं। इस तरह हर सौर वर्ष में बारह संक्रान्तियाँ और तीन वर्ष में 36 संक्रान्तियाँ होती हैं। लेकिन तीन वर्ष में चान्द्र मास 37 हो जाते हैं। तो हमने तय कर लिया कि जिस चांद्रमास में संक्रान्ति न पड़े उसे अतिरिक्त या अधिक मास मान लिया जाए। इस से चांद्र मास ऋतुओं का प्रतिनिधित्व करने लायक हो जाते हैं। हमने देखा कि वर्ष तो 365.25 दिन का ही होता है। फिर चौथाई दिन की गुत्थी शेष रह जाती है। ग्रीगोरियन कलेण्डर वालों ने हर चार वर्ष में एक दिन अतिरिक्त जोड़ कर चौथाई दिन की गुत्थी भी सुलझा ली गयी।

इस विवेचन के बाद हम समझ सकते हैं कि नव वर्ष मनाने का सब से सही तरीका यह होगा कि हर नया वर्ष 365.25 दिनों का हो। यह तभी हो सकता है जब हम चांद्र वर्ष को त्याग कर सौर वर्ष को अपना लें। भारतीय पद्धति से बारह राशियाँ मेष से आरम्भ हो कर मीन पर समाप्त हो जाती हैं। इस तरह नव वर्ष हमें उस दिन मनाना चाहिए जिस दिन सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता हो। भारत के पंजाब प्रान्त में इस दिन बैसाखी का पर्व मनाया जाता है। इस तरह बैसाखी पर्व भारतीय नव वर्ष का प्रतिनिधित्व करता है न कि चैत्र सुदी प्रतिपदा। यह संयोग नहीं है कि हमारे बंगाली भाई बैसाखी के बाद वाले दिन को अपने नववर्ष के रूप में मनाते हैं। इसे वे अपना नववर्ष अथवा पोइला बैशाख कहते हैं। मेष की संक्रान्ति से जुड़े त्यौहार संपूर्ण भारत में किसी न किसी रूप में मनाए जाते हैं। इस वर्ष 14 अप्रेल के इस दिन को जहाँ पंजाब और सिख समुदाय बैसाखी के रूप में मना रहा है तो वहीं तमिलनाडु इसे पुथण्डु के रूप में, केरल विशु के रूप में, आसाम इसे बोहाग बिहु के रूप में मना रहा है। तमाम हिन्दू इसे मेष संक्रान्ति के रूप में तो मनाते ही हैं। इस तरह यदि हम संस्कृति के रूप में भी देखें तो चैत्र सुदी प्रतिपदा से आरम्भ होने वाला नववर्ष नहीं अपितु बैसाखी से आरम्भ होने वाला नववर्ष भारतीय संस्कृति के अधिक निकट है। यह भी एक संयोग ही है कि बैसाखी के एक दिन पहले 13 अप्रैल को भारतीय चांद्र नववर्ष पड़ रहा है।
आजादी के उपरान्त भारत ने अपना नववर्ष वर्नल इक्विनोक्स वासंतिक विषुव के दिन 22/23 मार्च को वर्ष का पहला दिन मानते हुए एक सौर कलेंडर बनाया जिसे भारतीय राष्ट्रीय पंचांग कहा गया। यह राष्ट्रीय पंचांग सरकारी कैलेंडर के अतिरिक्त कहीं भी स्थान नहीं बना सका। क्यों कि यह किसी व्यापक रूप से मनाए जाने वाले भारतीय त्यौहार से संबंधित नहीं था। यदि बैसाखी के दिन या बैसाखी के दिन के बाद के दिन से आरंभ करते हुए हम राष्ट्रीय सौर कैलेंडर को चुनते तो इसे सब को जानने-मानने में बहुत आसानी होती और यह संपूर्ण भारत में आसानी से प्रचलन में आ सकता था। यदि हमारी संसद चाहे तो इस काम को अब भी कर सकती है। किसी भी त्रुटि को दूर करना हमेशा बुद्धिमानीपूर्ण कदम होता है जो चिरस्थायी हो जाता है। हम चाहें तो इस काम को अब भी कर सकते हैं। फिलहाल सभी मित्रों को बैसाखी, बोहाग बिहु, पोइला बैशाख, पुथण्डु और विशु के साथ साथ मेष संक्रान्ति की शुभकामनाएँ और बंगाली मानुषों को नववर्ष की शुभकामनाएँ जिसे वे अगले दिन मनाएंगे। चैत्र सुदी प्रतिपदा को नववर्ष मनाने वालों को भी बहुत बहुत शुभकामनाएँ। इस आशा के साथ कि वे समझें कि भारतीय संस्कृति का त्यौहार चैत्र सुदी प्रतिपदा वाला नववर्ष नहीं, अपितु बैसाखी से आरम्भ होने वाला नववर्ष है।

रविवार, 22 मार्च 2015

वृत्त की परिधि का आरंभिक बिन्दु

वृत्त गोल होता है। इस से संबंधित बहुत से सवालों के उत्तर भी गोल होते हैं। मसलन किसी वृत्त की परिधि का कोई आरंभिक बिन्दु कहाँ होता है? इस सवाल का उत्तर वास्तव में गोल है। वृत्त की परिधि का कोई आरंभ बिन्दु नहीं होता। वह कहीं से आरंभ नहीं होता न कहीं उस का अंत होता है। कहते हैं सब से छोटा बिन्दु स्वयं एक वृत्त होता है और एक वृत्त वास्तव में बिन्दु का ही विस्तार होता है। अब बिन्दु का कोई आरंभिक बिन्दु कैसे हो सकता है? 

लेकिन लोग हैं कि जो चीज नहीं होती है उस का कल्पना में निर्माण कर लेते हैं। वे वृत्त की परिधि पर किसी स्थल पर अपनी पेंसिल की नोक धर देते हैं और कहते हैं यही है आरंभिक बिन्दु। इसी कल्पना को वे सत्य मान लेते हैं। अब जब दूसरा कोई व्यक्ति उसी वृत्त की परिधि के किसी दूसरे स्थल पर अपनी पेंसिल की नोक धर देता है तो उसी को वृत्त की परिधि का आरंभिक बिन्दु मान बैठता है। दोनों के पास अपने अपने तर्क हैं दोनों अपने अपने निश्चय पर अटल हैं। दोनों झगड़ा करते हैं ऐसा झगड़ा जिस का कोई अंत नहीं है, जैसे वृत्त की परिधि का कोई अंत नहीं होता। वृत्त की परिधि के सोचे गए अंतिम बिन्दु के बाद भी अनेक बिन्दु हैं और कल्पित आरंभिक बिन्दु के पहले भी अनेक बिन्दु होते हैं। फिर वह अंतिम और आरंभिक बिन्दु कैसे हो सकते हैं?

मारे साथ एक गड़बड़ है कि हमें हर चीज का आरंभ और अंत मानने की आदत पड़ गई है। हम मानना ही नहीं चाहते कि दुनिया में कुछ चीजें हैं जिन का न तो कोई आरंभ होता है और न अंत। हम गाहे बगाए खुद से पूछते रहते हैं कि मुर्गी पहले हुई या अण्डा? और सोचते रह जाते हैं कि अण्डे के बिना मुर्गी कहाँ से आई? और अण्डा पहले आाय़ा तो वह किस मुर्गी ने दिया था। कहीं ऐसा तो नहीं कि कोई और पक्षी अण्डा दे गया हो और उस में से मुर्गी निकल आई हो। हम अण्डे में से मुर्गी निकलने के बीच मुर्गे के योगदान को बिलकुल विस्मृत कर देते हैं।  

भी एक जनवरी को हमें बहुतों ने नव वर्ष की बधाइयाँ दी थीं। साल पूरा भी न निकला था कि फिर से नए वर्ष की बधाइयाँ मिलने लगीं। वह कोई और नव वर्ष था, यह भारतीय नव वर्ष था। एक भारतीय नव वर्ष उस के पहले दीवाली पर निकल गया। अब चार दिन बाद वित्तीय संस्थानों का नव वर्ष टपकने वाला है। उस के बाद तेरह अप्रेल को बैसाखी पर्व पर जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करेगा तो फिर नव वर्ष हो जाएगा। जैसे साल न हुआ वृत्त की परिधि हो गई, जिस पर किसी ने कहीं भी पैंसिल की नोंक रख दी और नव वर्ष हो गया।

ज्योतिर्विज्ञानी कहते हैं कि धरती सूरज के चक्कर लगाती है, जब एक चक्कर लगा चुकी होती है तो एक वर्ष पूर्ण हो जाता है। अब यह तो धरती ही बता सकती है कि उस ने कब और कहाँ से सूरज के चक्कर लगाना आरंभ किया था। धरती से किसी ने पूछा तो कहने लगी कि जहाँ से आरंभ किया था वहाँ कोई ऐसी चीज तो थी नहीं जिस पर मार्कर से निशान डाल देती। अब चक्कर लगाते लगाते इतना समय हो गया है कि मुझे ही नहीं पता कि अब तक कितने चक्कर लगा लिए हैं और कितने और लगाने हैं?  कहाँ से आरंभ किया था और अंत कहाँ है? वह रुकी और बोली कि मुझे लगता है कि मैं सदा सर्वदा से चक्कर लगा रही हूँ और सदा सर्वदा तक लगाती रहूंगी। आप मान क्यों नहीं लेते कि इन चक्करों का कोई आरंभ बिन्दु नहीं है और न ही कोई इति। 

ब इस का मतलब तो ये हुआ कि किसी भी दिन को आरंभ बिन्दु मान लिया जा सकता है और नववर्ष की बधाई दी जा सकती है। ऐसा क्यूँ न करें कि आज के दिन को ही आरंभ बिन्दु मान लें और फिर से बधाइयों का आदान प्रदान कर लें? तो सब से पहली बधाई मैं ही दिए देता हूँ।  आप सब को यह नव वर्ष मंगलकारी हो!!!

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

सही और विज्ञान सम्मत वर्षारंभ आज बैसाखी के दिन

भारतवर्ष एक ऐसा देश है जिस में आप नववर्ष की शुभकामनाएँ देते देते थक सकते हैं। लगभग हर माह कम से कम एक नया वर्ष अवश्य हो ही जाता है। उस का कारण यह भी है कि यही दुनिया का एक मात्र भूभाग है जहाँ दुनिया के विभिन्न भागों से लोग पहुँचे और यहीं के हो कर रह गए। उन्हों ने इस देश की संस्कृति को अपनाया तो कुछ न कुछ वह भी जोड़ा जो वे लोग साथ ले कर आए थे। वस्तुतः भारत वसुधैव कुटुम्बकम उक्ति को चरितार्थ करता है। 
र्ष का संबंध सीधे सीधे सौर गणित से है। धरती जितने समय में सूर्य का एक चक्कर पूरा लगा लेती है उसी कालावधि को हम वर्ष कहते हैं। लेकिन काल की न तो यह सब से बड़ी इकाई है और न ही सब से छोटी। इस से छोटी इकाई माह है, जिस का संबंध चंद्रमा द्वारा पृथ्वी का एक चक्र पूरा करने से है। लेकिन दृश्य रूप में चंद्रमा एक दिन गायब हो जाता है और फि्र से एक पतली सी लकीर के रूप में सांयकालीन आकाश में पतली सी चांदी की लकीर के रूप में दिखाई देता है। इसे हम नवचंद्र कहते हैं। एक दिन एक क्षण के लिए पृथ्वी से पूरा दिखाई देता है जिसे हम पूर्ण चंद्र कहते हैं।  इस तरह से नव चंद्र से नव चंद्र तक की अथवा पूर्ण चंद्र से पूर्ण चंद्र तक की अवधि को हम मास या माह कहते हैं। इस से छोटी इकाई दिन है, जिस का संबंध पृथ्वी का अपनी धुरी पर एक चक्कर पूरा कर लेने से है। फिर इस के दो भाग दिवस और रात्रि हैं। उन्हें फिर से प्रहरों, घड़ियों, पलों और विपलों में अथवा घंटों, मिनटों और सेकण्डों में विभाजित किया गया है।
ब इन में ताल मेल करने का प्रयत्न किया गया अर्थात वर्ष, मास और दिवस के बीच। एक वर्ष की कालावधि में 12 मास होते हैं। लेकिन उस के बाद भी लगभग 10 दिनों का अंतराल छूट जाता है।  इस तरह तीन वर्ष में लगभग एक माह अतिरिक्त हो जाता है। इस का समायोजन करने के लिए भारतीय पद्धति में प्रत्येक तीन वर्ष में एक वर्ष तेरह माह का हो जाता है। लेकिन सौर वर्ष को जो वास्तव में 365 दिन 6 घंटे 9 मिनट 10 सैकण्ड का होता है को बारह समान भागों में बाँटने का कार्य बहुत महत्वपूर्ण था। जब पृथ्वी सूर्य का एक चक्र पूरा करती है तो सूर्य आकाश की परिधि के 360 अंशों की यात्रा करती है। इस खगोल को हम ने 30-30 अंशों के 12 बराबर हिस्सों में बाँटा। प्रत्येक हिस्से को उस भाग में पड़ने वाले तारों द्वारा बनाई गई आकृति के आधार पर नाम दे दिया। इन्हीं आकृतियों को हम राशियाँ या तारामंडल कहते हैं। मेष आदि राशियाँ ये ही तारामंडल हैं। जब एक राशिखंड से दूसरे राशि खंड में सूर्य प्रवेश करता है तो हम उसे संक्रांति कहते हैं। इस तरह पूरे एक वर्ष में सूर्य 12 बार एक राशि से दूसरी राशि में संक्रांति करता है। प्रत्येक संक्रांति को हम ने उस राशि का नाम दिया जिस राशि में सूर्य प्रवेश करता है। 14 जनवरी को सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है तो हम उस दिन को मकर संक्रांति का दिन कहते हैं। इस तरह कुल 12 संक्रांतियाँ होती है।
क्यों कि वर्ष का संबंध पृथ्वी द्वारा सूर्य का एक चक्र पूरा कर लेने से है जो हमें सूर्य के खगोल में यात्रा करते हुए महसूस होता है। इस कारण से हमें वर्ष का आरंभ भी सूर्य कि इस आभासी यात्रा के किसी महत्वपूर्ण पड़ाव से होना चाहिए।  राशि चक्र का आरंभ हम मेष राशि से मानते हैं और स्वाभाविक और तर्क संगत बात यह है कि सूर्य के इस मेष राशि में प्रवेश से हमें वर्षारंभ मानना चाहिए।  सूर्य के मेष राशि में प्रवेश को हम मेष की संक्रांति कहते हैं। यह दिन भारत में विशेष रूप से पंजाब में जो भारत की सर्वाधिक प्राचीन सभ्यता सिंधुघाटी सभ्यता का केन्द्र रहा है बैसाखी के रूप में हर वर्ष 13 अप्रेल को मनाया जाता है। इसी 13 अप्रेल को हम वैज्ञानिक रूप से सही वर्षारंभ कह सकते हैं। यह मौसम भी  नववर्ष के लिए आनन्द दायक है। जब फसलें कट कर किसान के घर आती हैं। किसान इन दिनों समृद्धि का अहसास करता है। उन घरों में उल्लास का वातावरण रहता है। इन्ही दिन अधिकांश वृक्षों में कोंपले फूट कर नए पत्ते आते हैं। तरह तरह के रंगों के फूलों से धरती दुलहन की भांति सजी होती है। सही में नया वर्ष तो इसी दिन आरंभ होता है। आज फिर यही दिन है। बैसाखी का दिन।
बैसाखी के इस खुशनुमा दिन पर मैं आप को फिर से नव वर्ष की शुभकामनाएँ देना चाहता हूँ। आज का यह दिन इस लिए भी महत्वपूर्ण है कि आज ही के दिन जलियाँवाला बाग में सैंकड़ों निहत्थे लोगों ने आजादी के लिए लड़ने की कसम खाते हुए अंग्रेजों की बन्दूकों का सामना किया और शहीद हो गए। इसलिए पहले शहीदों को

श्रद्धांजलि!  
 

 फिर शुभकामनाएँ....

बैसाखी, 13 अप्रेल से आरंभ होने वाला यह वर्ष भारतवर्ष के जनगण के लिए मंगलमय हो !

गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

वर्षान्त पर .....

र्षान्त आ गया है। इस बार वर्षान्त माह मेरे लिए भी भारतीय संसद की तरह बहुत खराब रहा। पहली ही तारीख को पता लगा कि खोपड़ी की ऊपरी सतह पर फैले तंत्रिका जाल के किसी तंतु में निष्क्रीय पड़ा विषाणु वेरीसेला जोस्टर सक्रिय हो उठा है। इस विषाणु से केवल शरीर का रक्षातंत्र ही लड़ सकता था। बाहरी मदद सहायता अवश्य कर सकती थी किन्तु इस लड़ाई में निर्णायक नहीं हो सकती थी।  मुझे द्वंदवाद का मार्क्सवादी नियम स्मरण हो उठा कि किसी वस्तु में होने वाले परिवर्तन के लिए केवल उस वस्तु की अन्तर्वस्तु ही निर्णायक हो सकती है, बाह्य शक्तियाँ नहीं। इस विषाणु के सक्रिय हो उठने पर शरीर में मचने वाले बवाल के बारे में अंतर्जाल पर जो कुछ जानकारी मिली उसे मैं आप के साथ पिछली पोस्ट आखिर बंद आँख खुल गई में सांझा कर चुका हूँ। उस के बाद का हाल ये रहा कि जहाँ जहाँ फफोले हुए थे वहाँ वहाँ धीरे धीरे पपड़ी आई और फिर निकली भी। खोपड़ी पर जहां चमड़ी के नीचे मांस नाम मात्र का होता है वहाँ तो नुकसान करने को अधिक कुछ था ही नहीं पर जैसे ही तंत्रिका खोपड़ी से नीचे ललाट पर आई तो वहाँ फफोले कुछ बड़े हुए और जब पपड़ी उतरी तो उस स्थान पर अंदर की ओर गड्ढे दिखाई देने लगे। ललाट पर अब इन  की संख्या चार हैं लेकिन वे धीरे-धीरे भर रहे हैं। फिलहाल इन्हों ने शक्ल की सूरत बिगाड़ कर रखी है। ललाट पर कुछ धब्बे दिखाई दे रहे हैं, मुझे आशा है कि वे अस्थाई ही होंगे। पर पान वाले ने मुझे सोवियत संघ का आखिरी राष्ट्रपति गोर्बाचोव घोषित कर दिया है।

र्पीज का असर कम हुआ ही था कि अचानक एक रात नाक में जलन आरंभ हो गई। इतनी तेज की रात भर उस ने सोने न दिया। घर में रखी कुछ दवाओं का प्रयोग भी काम न आया। सुबह तक नाक को घोषित रूप से जुकाम हो गया। उसी दिन तंत्रिका विशेषज्ञ चिकित्सक से मुलाकात होनी थी। उस ने एक एलर्जीविरोधी लिख गोली लिख दी जो पाँच दिनों तक रोज एक खाना था। दो दिन तक नाक पूरी तरह बंद रही। जैसे जलूस के दिन रास्ते बंद कर दिए जाते हैं और बाईपास से निकलना पड़ता है। मेरे श्वसन तंत्र ने भी इस आपात काल में मुख की राह पकड़ी। तीसरे दिन नाक का रास्ता यदा-कदा खुलना आरंभ हुआ। पाँचवें दिन वह पूरी तरह खुल गया। जुकाम से निजात मिली। लेकिन अभी कुछ और भुगतना शेष था।

29 दिसम्बर की शाम का भोजन करते हुए अचानक एक छोटा सा कंकड बाईं दाढ़ों के बीच आ गया। ऊपर की दाढ़ हिली और अचानक दर्द हुआ। मैं ने कंकड़ निकाल फैंका। पानी से कुल्ला किया और भोजन पूरा किया। भोजन से उठते ही दाढ़ में फिर दर्द उठा जिस ने मुझे ने बैचेन कर दिया। घर में रखी दातों पर ब्रश, और घर में रखी दवाइयों ने कोई असर नहीं किया। दर्द कभी कम हो जाता तो फिर से बढ़ जाता। आखिर रात दो बजे ध्यान आया कि लोंग का तेल दांत दर्द में रामबाण है ऐसा लोग कहते हैं। पर घर में लोंग का तेल तो नहीं था। लोंग का डब्बा तलाश किया गया। तीन-चार लोंगें निकाल कर चबाई गईं और उन से  बनी लुगदी को जीभ की मदद से दाँत और मसूड़े के उस हिस्से पर चिपका दिया जहाँ दर्द उठा था। कमाल हो गया। दो मिनट भी न निकले होंगे कि दर्द वैसे गायब हुआ जैसे गधे के सिर से सींग। आज उस दर्द के उठने से डर लगता रहा। उस दाढ़ के नीचे कुछ न आ जाए इस बात की सावधानी रखी गई। दवाएँ आरंभ कर दी हैं। देखते हैं क्या होता है। वैसे इन दांतों के साथ मैं ने भी अत्याचार कम नहीं किया। इन का इस्तेमाल ठीक उस दास-स्वामी की तरह किया जो अपने दास को बस इतना देता है कि वह मर न जाए और काम कस के लेता है।   कुल मिला कर यह वर्षान्त इस सूचना के साथ समाप्त हुआ कि दिनेशराय द्विवेदी! सावधान हो जाओ! जीवन का सत्तावनवाँ वर्ष है, अब तुम्हारे पहले वाले दिन नहीं रहे, जीवन जरा सावधानी से जिओ।

स महिने संतोषप्रद काम ये हुआ कि कानूनी मामलों के ब्लाग 'तीसरा खंबा' को अपने डोमेन की साइट में परिवर्तित होने की प्रक्रिया लगभग पूरी हो गयी। आज रात्रि को जैसे ही वर्ष बदलेगा वैसे ही ब्लॉगस्पॉट का ब्लाग तीसरा खंबा बंद हो जाएगा फिर उसे न आप देख सकेंगे और न मैं देख सकूंगा। लेकिन उस के साथ ही  तीसरा खंबा साइट अपने डोमेन <teesarakhamba.com> पर दिखाई देने लगेगी। आशा है इस नए रूप को पाठकों का वही सहयोग प्राप्त होता रहेगा जो ब्लाग के रूप में हो रहा था। इस माह अनवरत पर नियमितता बुरी तरह टूटी। लेकिन समझता हूँ कि मैं नए वर्ष के आरंभ के साथ ही पुन नियमित हो लूंगा।

यह इस वर्ष की आखिरी पोस्ट है। नए वर्ष में फिर मिलेंगे ....


 
   सभी पाठकों, ब्लागर मित्रों को 
नए वर्ष की बहुत बहुत शुभकामनाएँ!!!


मंगलवार, 16 मार्च 2010

मुबारक हो तुम को नया साल यारो

हाँ नीचे आप एक बिंदु से एक वृत्त को उत्पन्न होता और विस्तार पाता देख रहे हैं। फिर वही वृत्त सिकुड़ने लगता है और बिंदु में परिवर्तित हो जाता है। फिर बिंदु से पुनः एक वृत्त उत्पन्न होता है और यह प्रक्रिया सतत चलती रहती है। बिंदु या वृत्त? वृत्त या बिंदु? कुछ है जो हमेशा विद्यमान रहता है, जिस का अस्तित्व भी सदैव बना रहता है। वह वृत्त हो या बिंदु मात्र हो। 

ब आप इस वृत्त की परिधि को देखिए और बताइए इस का आरंभ बिंदु कहाँ है? आप लाख या करोड़ बार सिर पटक कर थक जाएंगे लेकिन वह आरंभ या अंत बिंदु नहीं खोज पाएंगे। वास्तव में वृत्त की परिधि का न तो कोई आरंभ बिंदु होता है और न ही अंतिम बिंदु वह तो स्वयं बिंदुओं की एक कतार है। जिस में असंख्य बिंदु हैं जिन का गिना जाना भी असंभव है चाहे वृत्त कितना ही छोटा या विस्तृत क्यों न हो।
पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। संपूर्ण विश्व (यूनिवर्स) के सापेक्ष। पृथ्वी से परे इस की घूमने की धुरी की एक दम सीध में स्थित बिंदुओं के अतिरिक्त सभी बिंदु चौबीस घंटों में एक बार उदय और अस्त होते रहते हैं। दिन का आरंभ कहाँ है। मान लिया है कि अर्थ रात्रि को, या यह मान लें कि जब सूर्योदय होता है तब। लेकिन इस मानने से क्या होता है? हम यह भी मान सकते हैं कि यह दिन सूर्यास्त से आरंभ होता है या फिर मध्यान्ह से।  चौबीस घंटे में एक दिन शेष हो जाता है। फिर एक नया दिन आ जाता है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा कर रही है। हर दिन अपने परिक्रमा पथ पर आगे बढ़ जाती है। यह पथ भी एक वृत्त ही है। वर्ष पूरा होते ही पृथ्वी वापस अपने प्रस्थान बिंदु पर पहुँच जाती है। हम कहते हैं वर्ष पूरा हुआ, एक वर्ष शेष हुआ, नया आरंभ हुआ। वर्ष कहाँ से आरंभ होता है कहाँ उस का अंत होता है। वर्ष के वृत्त पर तलाशिए, एक ऐसा बिंदु। उन असंख्य बिंदुओं में से कोई एक जो एक कतार में खड़े हैं और इस बात की कोई पहचान नहीं कि कौन सा बिंदु प्रस्थान बिंदु है। 
खिर हम फिर मान लेते हैं कि वह बिंदु वहाँ है जहाँ शरद के बाद के उन दिनों जब दिन और रात बराबर होने लगते हैं और सूर्य और पृथ्वी के बीच की रेखा को चंद्रमा पार करता है। कुछ लोग इसे तब मानते हैं जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है। कुछ लोग हर बारहवें नवचंद्र के उदय से अगले सूर्योदय के दिन मानते हैं। हम  आपस में झगड़ने लगते हैं, मेरा प्रस्थान बिंदु सही है, दूसरा कहता है मेरा प्रस्थान बिंदु सही है। उस के लिए तर्क गढ़े जाते हैं, यही नहीं कुतर्क भी गढ़े जाने लगते हैं। हम फिर उसी वृत्त पर आ जाते हैं। अब की बार हम मान लेते हैं कि इस की परिधि का प्रत्येक बिंदु एक प्रस्थान बिंदु है। हम वृत्त के हर एक बिंदु पर हो कर गुजरते हैं और अपने प्रस्थान बिंदु पर आ जाते हैं। फिर वर्षारंभ के बारे में सोचते हैं। हम पाते हैं कि वह तो हर पल हो रहा है। हर पल एक नया वर्ष आरंभ हो रहा है और हर पल एक वर्षांत भी। हमारे यहाँ कहावत भी है 'जहाँ से भूलो एक गिनो'। मेरे लिए तो हर  पल दिन का आरंभ है और हर दिन वर्ष का आरंभ। 
तो शुभकामनाएँ लीजिए, नव-वर्ष मुबारक हो! 
याद रखिए हर पल एक नया वर्ष है।
और याद रखिए पुरुषोत्तम 'यक़ीन' साहब की ये ग़ज़ल.....

ग़ज़ल
मुबारक हो तुम को नया साल यारो
  •  पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’


मुबारक हो तुम को नया साल यारो
यहाँ तो बड़ा है बुरा हाल यारो

मुहब्बत पे बरसे मुसीबत के शोले
ज़मीने-जिगर पर है भूचाल यारो

अमीरी में खेले है हर बदमुआशी
है महनतकशी हर सू पामाल यारो

बुरे लोग सारे नज़र शाद आऐं
भले आदमी का है बदहाल यारो

बहुत साल गुज़रे यही कहते-कहते
मुबारक-मुबारक नया साल यारो

फ़रेबों का हड़कम्प है इस जहाँ में
‘यक़ीन’ इस लिए बस हैं पामाल यारो
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शुक्रवार, 27 मार्च 2009

चैत्रादि नव-वर्ष पर हार्दिक शुभ कामनाएँ!


चैत्रादि नव-वर्ष विक्रम संवत् 2066 शक संवत् 1931 के नवीन सूर्य को नमन

सभी पाठकों को नव-वर्ष की हार्दिक शुभ कामनाएँ!

-दिनेशराय द्विवेदी-
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चित्र- जैसलमेर (राजस्थान) का एक सूर्योदय