इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अयोध्या निर्णयके लिए 30 तारीख मुकर्रर हो चुकी है। कल सर्वोच्च न्यायालय ने कह दिया कि बातचीत से समझौते पर पहुँचने के लिए बहुत देरी हो चुकी है, अदालत को अपना निर्णय दे देना चाहिए। दोनों निर्णयों के बीच की दूरी सिर्फ 48-50 घंटों की रहेगी। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के उपरान्त इतना समय तो दिया जाना जरूरी भी था। जिस से जिस-जिस को जो जो तैयारी करनी हो कर ले।
कल दोपहर जब मैं अपने नियमित साथियों के साथ मध्यान्ह की कॉफी पीने बैठा तो मेरे ही एक सहायक का मोबाइल मिला कि आप के क वकील मित्र आप को कॉफी के लिए बुला रहे हैं। शहीद भगत सिहं का जन्मदिवस होने से अभिभाषक परिषद में मध्यान्ह पश्चात कार्यक्रम था। अदालती काम लगभग निपट चुका था। मैं नियमित कॉफी निपटाने के बाद दूसरी कॉफी मजलिस में पहुँचा। वहाँ अधिकतर लोग जा चुके थे। पर क वकील साहब अपने एक अन्य मित्र ख के साथ वहीं विराजमान थे। कुछ देर इधर-उधर की बातें हुई और कॉफी आ गई। तभी वकील साहब के मोबाइल की घंटी बजी। सूचना थी कि सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्चन्यायालय को अयोध्या पर निर्णय सुनाने के लिए हरी झंडी दिखा दी है। वकील साहब तुरंत ही मोबाइल पर व्यस्त हो गए। कुछ देर बाद उन्हों ने बताया कि निर्णय 30 सितंबर को सुनाया जाएगा। फिर उन्हों ने अपने घर फोन किया कि घर की जरूरत का सभी सामान जो माह के पहले सप्ताह में मंगाया जाता है वह आज ही मंगा लिया जाए, कम से कम 30-40 किलो गेहूँ पिसवा कर आटा कर लिया जाए और पाँच-सात दूध पाउडर के डब्बे जरूर मंगा लिए जाएँ। वजह अयोध्या का निर्णय था, उन के मन में यह आशंका नही बल्कि विश्वास था कि अयोध्या का निर्णय कुछ भी हो पर उस के परिणाम में दंगे जरूर भड़क उठेंगे.... कर्फ्यू लगेगा और कुछ दिन जरूरी चीजें लेने के लिए बाजार उपलब्ध नहीं होगा।
क वकील साहब न कांग्रेसी हैं न भाजपाई। उन के संबंध कुछ पुराने बड़े राजघरानों से हैं जिन की अपनी सामंती कुलीनता और संपन्नता के कारण किसी न किसी राजनैतिक दल में पहुँच है। इस पहुँच को वे कोई रंग देते भी नहीं हैं। क्यों कि कब कौन सा दल शासन में रहेगा यह नहीं कहा जा सकता। वे केवल अपनी सामंती कुलीनता को बनाए रखना चाहते हैं और संपन्नता को पूंजीवादी संपन्नता में लगातार बदलने के लिए काम करते हैं। ऐसे लोग हमेशा शासन के निकट बने रहते हैं। उन की सोच थी कि फैसला कुछ भी हो देश का माहौल जरूर बिगड़ेगा और दंगे जरूर होंगे।
ख वकील साहब घोषित रूप से कांग्रेसी हैं। उन के पास अपनी कोई कुलीनता नहीं है। लेकिन वे किसी भी अवसर को झपट लेने को सदैव तैयार रहते हैं। उन की भी सोच यही थी कि दंगे तो अवश्यंभावी हैं। दंगों में फायदा हिन्दुओं को होगा, वे कम मारे जाएंगे। मुसलमानों को अधिक क्षति होगी, क्यों कि पुलिस और अर्ध सैनिक बल हिन्दुओं की तरफदारी में रहेंगे। इन सब के बावजूद न तो वे दूध के लिए चिंतित थे और न ही घर में आटे के डब्बे के लिए। उन के पिचहत्तर साल के पिता मौजूद हैं। घर और खेती की जमीन के मालिक हैं और वे ही घर चलाते हैं। चिंता होगी भी तो उन्हें होगी। दोनों ने अयोध्या के मामले में सुनवाई करने वाली पीठों के न्यायाधीशों के हिन्दू-मुस्लिम चरित्र को भी खंगाल डाला। पर इस बात पर अटक गए कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय में समझौते के लिए बातचीत करने का समर्थन करने के लिए मतभेद प्रकट करने वाले न्यायाधीश हिन्दू थे।
उधर न्यायालय परिसर में बातचीत हो रही थी। कुछ हिन्दू वकील कह रहे थे कि यदि फैसला उन के हक में नहीं हुआ तो वे हिन्दू संगठन फैसले को न मानेंगे और जमीनी लड़ाई पर उतर आएंगे। लेकिन यदि फैसला मुसलमानों के हक में आता है तो उन्हें अनुशासन में रहना चाहिए। कुछ मुस्लिम वकील जवाब में प्रश्न कर रहे थे कि वे तो हमेशा ही अनुशासन में रहते आए हैं। लेकिन यह अनुशासन उन के लिए ही क्यों?
शाम को बेटे का फोन आया तो उस ने मुझे तो कुछ नहीं कहा। पर अपनी माँ को यह अवश्य कहा कि घर में सामान की व्यवस्था अवश्य कर लें और पापा से कहें कि वे अनावश्यक घर के बाहर न जाएँ। माँ ने बेटे की सलाह मान ली है। घर में कुछ दिनों के आवश्यक सामानों की व्यवस्था कर ली है।
मैं सोच रहा हूँ कि हम कब तक अपनी खालों के भीतर हिन्दू और मुसलमानों को ढोते रहेंगे? कब इंसान और भारतीय बनेंगे?
क वकील साहब न कांग्रेसी हैं न भाजपाई। उन के संबंध कुछ पुराने बड़े राजघरानों से हैं जिन की अपनी सामंती कुलीनता और संपन्नता के कारण किसी न किसी राजनैतिक दल में पहुँच है। इस पहुँच को वे कोई रंग देते भी नहीं हैं। क्यों कि कब कौन सा दल शासन में रहेगा यह नहीं कहा जा सकता। वे केवल अपनी सामंती कुलीनता को बनाए रखना चाहते हैं और संपन्नता को पूंजीवादी संपन्नता में लगातार बदलने के लिए काम करते हैं। ऐसे लोग हमेशा शासन के निकट बने रहते हैं। उन की सोच थी कि फैसला कुछ भी हो देश का माहौल जरूर बिगड़ेगा और दंगे जरूर होंगे।
ख वकील साहब घोषित रूप से कांग्रेसी हैं। उन के पास अपनी कोई कुलीनता नहीं है। लेकिन वे किसी भी अवसर को झपट लेने को सदैव तैयार रहते हैं। उन की भी सोच यही थी कि दंगे तो अवश्यंभावी हैं। दंगों में फायदा हिन्दुओं को होगा, वे कम मारे जाएंगे। मुसलमानों को अधिक क्षति होगी, क्यों कि पुलिस और अर्ध सैनिक बल हिन्दुओं की तरफदारी में रहेंगे। इन सब के बावजूद न तो वे दूध के लिए चिंतित थे और न ही घर में आटे के डब्बे के लिए। उन के पिचहत्तर साल के पिता मौजूद हैं। घर और खेती की जमीन के मालिक हैं और वे ही घर चलाते हैं। चिंता होगी भी तो उन्हें होगी। दोनों ने अयोध्या के मामले में सुनवाई करने वाली पीठों के न्यायाधीशों के हिन्दू-मुस्लिम चरित्र को भी खंगाल डाला। पर इस बात पर अटक गए कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय में समझौते के लिए बातचीत करने का समर्थन करने के लिए मतभेद प्रकट करने वाले न्यायाधीश हिन्दू थे।
उधर न्यायालय परिसर में बातचीत हो रही थी। कुछ हिन्दू वकील कह रहे थे कि यदि फैसला उन के हक में नहीं हुआ तो वे हिन्दू संगठन फैसले को न मानेंगे और जमीनी लड़ाई पर उतर आएंगे। लेकिन यदि फैसला मुसलमानों के हक में आता है तो उन्हें अनुशासन में रहना चाहिए। कुछ मुस्लिम वकील जवाब में प्रश्न कर रहे थे कि वे तो हमेशा ही अनुशासन में रहते आए हैं। लेकिन यह अनुशासन उन के लिए ही क्यों?
शाम को बेटे का फोन आया तो उस ने मुझे तो कुछ नहीं कहा। पर अपनी माँ को यह अवश्य कहा कि घर में सामान की व्यवस्था अवश्य कर लें और पापा से कहें कि वे अनावश्यक घर के बाहर न जाएँ। माँ ने बेटे की सलाह मान ली है। घर में कुछ दिनों के आवश्यक सामानों की व्यवस्था कर ली है।
मैं सोच रहा हूँ कि हम कब तक अपनी खालों के भीतर हिन्दू और मुसलमानों को ढोते रहेंगे? कब इंसान और भारतीय बनेंगे?