कल मैं ने नगरों के विकास में पूंजी के अनियोजित निवेश से अवरुद्ध विकास की बात की थी। आज इसी विकास का एक और पक्ष जिस की आग में उत्तर प्रदेश जल रहा है। इस से पहले सिंगूर, नंदीग्राम औऱ दादरी में इस आग के दर्शन हम कर चुके हैं। वहीं लाल पट्टी जहाँ नक्सली-माओवादी सक्रिय हैं में भी यही विषय प्रमुख बना हुआ है। औद्योगिक और नगरीय विकास के लिए खेती की जमीनों का अधिग्रहण और जंगलों की वानस्पतिक और खनिज उपज को उद्योगपतियों के हवाले कर देना इस आग का मूल कारण है।
हम सभी जानते हैं कि औद्योगिकीकरण और नगरीयकरण विकास के लिए आवश्यक हैं। दुनिया की आबादी को इस विकास के बिना जीवित भी नहीं रखा जा सकता। भारत में आज भी औद्योगिकी करण बहुत पिछड़ा हुआ है और आधी से अधिक आबादी आज भी खेती पर निर्भर है। भारत जैसे देश को यदि विकास की दौड़ में बनाए रखना है तो उस का औद्योगिकीकरण आवश्यक है। औद्योगिकीकरण के बिना देश की आबादी को जरूरत की चीजें मुहैया करा पाना संभव भी नहीं है। यही तर्क आज सरकारों और शासक वर्गों की ओर से दिया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि किसान और माओवादियों के साथ खड़े आदिवासी इन जरूरतों और तर्कों को नहीं समझते हों। वे जानते हैं कि ये जरूरी है लेकिन फिर भी उस के लिए वे लड़ते हैं और सशस्त्र संघर्ष में उतर आते हैं।
इस लड़ाई की मूल वजह फिर वही है, अनियंत्रित और अनियोजित विकास। विकास का अर्थ यह तो नहीं कि खेती पर निर्भर किसानों और जंगलों को अपना जीवन मानने वाले आदिवासियों की कीमत पर यह सब किया जाए। यह पहले से निश्चित है कि ओद्योगिक और नगरीय विकास तथा जांगल उपजों पर उद्योगों के अधिकार के साथ किसान और आदिवासी विस्थापित होंगे और बरबाद होंगे। कुछ रुपयों के पीछे उन्हें लगातार रोजगार देने वाली भूमि सदा के लिए नष्ट हो जाएगी। जंगल अब आदिवासियों के लिए पराया हो जाएगा। उद्योगों के उत्पादों के विपणन में जब खुला बाजार पद्धति को लागू कर दिया गया है उद्योगपति जब अपने माल को मनचाही कीमत पर बेच सकता है और उस के लिए मोल-भाव कर सकता है तो किसान अपनी जमीन के लिए क्यों नहीं कर सकता। उसे अपनी जमीन मनचाही कीमत पर बेचने का अधिकार क्यों नहीं दिया जा सकता?
किसान की जमीन की कीमत बढ़ा कर जमीन के मालिकों के लिए तो हल निकल आएगा। लेकिन सिंगूर, नंदीग्राम, दादरी में और अब उत्तरप्रदेश में जो आंदोलन हुए हैं उन की ताकत यह जमीनों का मालिक किसान नहीं है। उस के पीछे की असली ताकत वे लोग हैं जो इन खेती की जमीनों पर काम करते हैं। भूमिधर किसानों को तो उन की जमीन की कीमत मिल जाएगी। लेकिन उन्हें क्या मिलेगा जो उन जमीनों पर अपना पसीना बहाते हैं। उन का रोजगार तो नष्ट हो रहा है। उन्हें तो उसी भीड़ में आ कर खड़ा होना पड़ेगा जो नगरों के चौराहों पर रोज सुबह काम की तलाश में खड़ी दिखाई पड़ती है और जिस में से बहुतों को दिन भर बिना काम के ही गुजारा चलाना पड़ता है। निश्चित रूप से विकास गति को बनाए रखने वाली सरकारों को सोचना होगा कि खेती की जमीनों और जंगलों से बेकार हो रहे इन मनुष्यों के लिए क्या किया जाए। जमीनों के अधिग्रहण और जंगलों की उपज पर अधिकार जमाने के पहले इनम मनुष्यों के लिए व्यवस्था बनाई जाये तो ये आंदोलन, खून खऱाबा और सशस्त्र संघर्ष दिखाई ही नहीं पड़ेंगे। पर मौजूदा आर्थिक व्यवस्था को जनता की जरूरतों से अधिक मतलब पूंजीपतियों के मुनाफों की होती है। वे संघर्षो से हथियार बंद बलों के माध्यम से निपटने के आदी हो चुके हैं। विकास होना चाहिए पूंजी दिन दुगनी रात चौगुनी बढ़नी चाहिए। इंसान मरे तो मरे उस की उन्हें क्यों फिक्र होने लगी?