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सोमवार, 14 जून 2010

न जात पाँत, न कोर्ट कचहरी, न तलाक, एक बस नेह का नाता

'कहानी'

एक बस नेह का नाता
  • दिनेशराय द्विवेदी
धोबी का छोरा, धोबी का काम पसंद नहीं आया। चला कमाने शहर में। बड़े शहर में काम ना मिला तो चला गया छोटे शहर में। वहाँ एक ईंट भट्टे पर काम करने लगा। तनखा नहीं थी, काम के हिसाब से पैसे मिलते थे। खूब काम करता खूब कमाता। बैंक में बैलेंस भी कुछ जोड़ लिया कि ब्याह के बखत काम आवेंगे। पर इतना भी न था कि खुद के बूते पर अपना ब्याह कर लेता। मां-बाप के पास होता तो वह गांव छोड़ कमाने शहर क्यों आता? पर शौक में मोबाइल ले लिया था। गांव में रहने वाले दोस्तों से बतियाता ही सही। यहाँ तो कोई दोस्ती बन नहीं रही थी।
क दिन मोबाइल पर किसी दोस्त का  नंबर लगा रहा था। नंबर शायद गलत लगा दिया, उधर से  किसी छोरी की मीठी आवाज आई - थाँ कुण बौलो हो जी! मीठी आवाज सुन कर इसे भी अच्छा लगा। इस उमर में किसी छोरी से बात करने मात्र से वैसे ही मन में लड़्डू फूटने लगते हैं। छोरी ने बहुत प्रेम से बात की, छोरे का नाम पूछा, ये भी पूछा वह क्या करता है? कहाँ करता है, कहाँ से बोल रहा है? छोरी ने सिर्फ अपना नाम बताया, उस ने सोचा, जरूर फर्जी बताया होगा। छोरे ने नम्बर अपने मोबाइल में सेव कर लिया। फिर क्या था। हिम्मत कर के दो-चार दिन बाद छोरे ने ही उसे फोन किया।
कुछ दिन छोरा ही फोन करता, छोरी से बातें होतीं। एक दो सप्ताह बाद छोरी के भी फोन आने लगे, रोज बात होने लगी। नेह बंधने लगा। छोरी ने बताया कि उस की तो शादी हो चुकी है। पीहर वहीं है जहाँ छोरा काम करता है। उस ने अपने माँ-बाप का नाम भी बताया और घऱ का पता भी। छोरा जा कर छोरी के बाप का घर भी देख आया। छोरी कुम्हारिन थी, और एक छोटे कस्बे में ब्याह दी गई थी। उस का आदमी पक्का नशेड़ी था। पहले भांग पीता था, फिर गाँजे की चिलम लगाने लगा। किसी ने उसे स्मेक का स्वाद चखा दिया। तब से बिना स्मेक के रह नहीं सकता। काम धंधा बरबाद हो गया है। घर वालों ने उसे और उस के आदमी को एक कोठरी दे रखी है। कमाओ और खाओ। अब स्मेकची कमाने की सोचे या सुबह होश आते ही स्मेक की जुगाड़ लगाए? जब तक न लगे उसी की जुगाड़ में रहे। लग जाए तो पिन्नक में, कमाए कब? सो छोरी एक-एक दो-दो दिन भूखी रह जाती। घर वालों को पता लगता तो वे खाने को देते। क्या करती खुद घऱ वालों के बनाए बरतन बस्ती बस्ती बेच काम चलाने लगी। जो कमा कर लाती उस में से जो वह खाने पीने का खरीद लाती, खरीद लाती। जो बचता वह स्मेकची चुरा लेता। वह फटे हाल की फटे हाल। वह दुखी थी। छोरे से फोन  पर बात करते करते रोने लगती।  छोरे को बहुत दया आती। उन की बातें फोन पर चलती रही। 
खिर एक दिन छोरे ने कह दिया, वह किसी तरह बाप के यहाँ आ जाए। वह फिर उसे अपने गाँव ले जाकर शादी कर लेगा। छोरी ने पहले तो जात का डर दिखाया,  कहा मैं कुम्हारिन तुम धोबी, मेरे पीछे घर वालों से बिगाड़ करोगे, जात वाले जात बाहर कर देंगे। छोरे ने जवाब दिया। वह भी भट्टे पर गार से ईंटें  गढ़-गढ़ कर कुम्हार ही हो गया है। वैसे भी क्या फर्क है? दोनों का काम गधों से पड़ता है। छोरे ने पता कर के बताया कि घरवाले कुछ नहीं कहेंगे। जात की न उसे परवाह है और न उस के घर वालों की। पहले ही जात में बहुत दो-चार छोरियाँ बहुएं बन कर आ चुकी हैं। ना-नुकुर करते करते लड़की तैयार हो गई। होती भी क्यों न? यहाँ पहले मर्द के पास तो उस का कोई ठौर न था। स्मेकची इतना हो गया था कि निश्चित हो गया था कि कुछ बरस बाद वह जरूर ही मर जाएगा। मर्द के घरवाले उसे रक्खेंगे नहीं। मां-बाप के पास कब तक रह पाएगी। आखिर उसे दूसरा घर तो बसाना ही पड़ेगा। अब इत्ता परेम करने वाला छोरा शायद फिर मिले न मिले। उस ने फैसला कर लिया।
छोरी एक दिन बाप के घर आ गई। उस से भट्टे पर ही मिलने आई। भट्टा उस के बाप के दूर के रिश्तेदार का था। वहाँ आने में कोई परेशानी नहीं थी। दोनों ने योजना मुकम्मल की और एक दिन रेल में बैठ कर छोरे के गाँव आ गए। छोरे के साथ छोरी देख मां-बाप सन्न रह गए। बाद में जब पता लगा वह दूसरी बिरादरी की है तो शंका में पड़ गए। जरूर इस छोरी का बाप पुलिस को खबर कर देगा, वो नहीं करेगा तो उस का आदमी या उसे भाई बंध कर देंगे। किसी भी दिन पुलिस आ गई तो सारे घर वाले फंसेंगे। तुरन्त छोरे-छोरी को वहाँ से दूसरे गाँव मिलने वाले के घऱ भेज दिया। 
मिलने वाले ने कहा। दूसरे की लुगाई अपने पास रखोगे तो फँस जाओगे, छोड़ो इसे। छोरे ने मना कर दिया। बोला अब तो ये मेरी लुगाई है। मेरे संग ही रहेगी। तो, उपाय सोचने लगे, किसी तरह ब्याह करा दिया जाए। अब ब्याही छोरी का दुबारा कैसे ब्याह हो। उसे याद था कि अदालत में वकील लोग लुगाई को उस के मरद से आजाद करवा कर ब्याह करा देते हैं। वह छोरे-छोरी को शहर ले गया। वकील ने सारी बात सुनी। बताया कि ब्याह तो नहीं हो सकता है। हाँ, यदि दोनों बिरादरी में बदकमाऊ या बेकार आदमी को छोड़ने और दूसरे से नाता करने की प्रथा हो तो नाता हो सकता है। तीनों ने सलाह की, बोले नाता ही करवा दो। वकील ने दोनों  को फोटोवाले के यहाँ ले गए। बाजार से माला मंगवा ली। दोनों के वरमाला के फोटो निकलवाए। दोनों के अलग-अलग हलफनामे बनाए। उन पर फोटो चिपकाए। उन्हें नोटेरी से तस्दीक कराया। दोनों हलफनामे ले कर वापस चले गए। नाता हो गया था। दोनों कुछ दिन गाँव रहे। फिर पास के शहर में काम करने आ गए। दोनों  दिन भर काम करते और कमाते, किराए की क्वार्टर में रहते, रोज शाम शहर घूमने जाते। कहीं छोटा सा कोई जमीन का टुक़ड़ा ऐसा नजर आ जाए जिस पर वे अपनी खुद की झोंपड़ी ही बना सकें।  

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

ऐसा सिर्फ टीवी सीरियलों और फिल्मों में ही संभव है।

ल अदालत से आने के बाद से ही मैं बहुत परेशान था। आज पाँच मुकदमे एक ही अदालत में आखिरी बहस में नियत थे। मैं जानता था कि इन में से कम से कम एक में और अधिक से अधिक दो में बहस हो सकती है। परेशानी का कारण यही था कि मैं उन पाँच में से किन दो मुकदमों का चुनाव करूँ और पूरी तैयारी के साथ अदालत में पहुँचूँ? मेरे लिए यह चुनाव बहुत मुश्किल था। मैं ने पहले सभी पाँच मुकदमों को सरसरी तौर पर देखा। एक अवलोकन हो जाने के उपरांत उन में से दो को छाँटा और उन में बहस की तैयारी कर ली। सुबह अदालत पहुँचने तक यह अंदेशा बना रहा कि यदि खुद अदालत के जज ने यह कह दिया कि मैं तो दूसरे दो मुकदमों को पढ़ कर आया हूँ तो सारी मेहनत अकारथ जाएगी। मुझे उन एक या दो मुकदमों में बहस करनी पड़ेगी जिन में मेरी तैयारी आत्मसंतोष वाली नहीं है।
मैं अदालत पहुँचा तो सोचा पहले दूसरे मुकदमो से निपट लिया जाए, क्यों कि पहले यदि बहस वाले मुकदमों में चले गए तो इन अदालतों में जाना नहीं हो सकेगा और मुकदमों में मेरी अनुपस्थिति में कुछ भी हो सकता है। पहली ही अदालत में जज साहब एक अन्य वकील को बता रहे थे कि आज फिर किसी वकील की मृत्यु हो गई है और शोकसभा ग्यारह बजे हो चुकी है। अब काम नहीं हो सकेगा। बार एसोसिएशन की सूचना आ चुकी है। मैं समझ गया कि जिन दो मुकदमों में मैंने पूरी तैयारी करने की मेहनत की है और शेष तीन को सरसरी तौर पर देखने की जहमत उठाई है वह बेकार हो चुकी है। आज बहस नहीं होगी। जज भी नहीं सुनेंगे। क्यों कि आज का दिन उन के कार्य दिवस की गणना से कम हो गया है और आज के दिन वे अपना विलंबित काम पूरा कर के अपनी परफोरमेंस बेहतर करने का प्रयत्न करेंगे। मैं जिस जिस अदालत में गया वहाँ पहले से ही मुकदमों में तारीखें बदली जा चुकी थीं।
कुछ ही देर में मुझे विपक्षी वकील के कनिष्ट का फोन आया कि उन पाँच मुकदमों में भी अगली तारीख दी जा चुकी है। मेरा उधर जाना मुल्तवी हो गया। अब मैं भी मुतफर्रिक काम निपटाने लगा। किसी मुकदमें की अदालत की फाइल का निरीक्षण करना था, वह कर लिया। कुछ नकलों की दरख्वास्तें लगानी थीं वे लगा दीं। इतने में मध्यान्ह अवकाश हो गया और सभी लोग चाय पर चले गए। 
चाय से निपटते ही मेरे एक वरिष्ट वकील ने कहा -पंडित! मेरे साथ मेरे दफ्तर चलो, कुछ काम है। वरिष्ठ का निर्दश कैसे टाला जा सकता था। मैं उन के साथ उन के दफ्तर पहुँचा। मस्अला यह था कि एक पति-पत्नी और उन के रिश्तेदार उन के दफ्तर में मौजूद थे। मेरे वरिष्ठ उन की रंजामंदी से तलाक लेने की अर्जी हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 (बी) में तैयार कर चुके थे और दोनों को पढ़ने और समझने के लिए दी हुई थी। पत्नी पक्ष उस में यह जुड़वाना चाहता था कि दोनों के बीच विवाह के उपरांत साथ रहने के बावजूद भी यौन संबंध स्थापित नहीं हुए थे। इस बात से दोनों पक्ष सहमत थे। इस लिए वरिष्ट वकील साहब ने उस तथ्य को यह लिखते हुए कि दोनों में वैचारिक मतभेद बहुत अधिक थे और वे कम नहीं होने के बजाए बढ़ रहे थे इस कारण से दोनों के बीच यौन संबंध भी स्थापित नहीं हो सके थे। 
र्जी में इस तरमीम के बावजूद भी पत्नी के पिता को आपत्ति थी। वे जो कुछ कहना चाहते थे लेकिन कह नहीं पा रहे थे और जो कहना चाहते थे उस के आसपास की ही बातें करते रहे। वे कह रहे थे कि हम सब कुछ आप को बता ही चुके हैं। आखिर मेरे वरिष्ट वकील साहब को कुछ क्रोध सा आ गया और उन्हों ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि मैं इस अर्जी को इस तरह तैयार नहीं करवा सकता कि यह पति की नंपुसकता का प्रमाण-पत्र बन जाए। उन के यह कहते ही मामला ठंडा पड़ गया। अब पत्नी पक्ष द्वारा अर्जी के नए ड्राफ्ट को स्त्री के भाई को दिखा लेने की बात हुई जो अब अमरीका में है। उसे फैक्स भेज कर पूछ लिया जाए कि यह ठीक है या नहीं। अर्जी का ड्राफ्ट प्रिंट निकाल कर उन्हे दे दिया गया जिस से वे उसे फैक्स कर सकें।  
ब पत्नी जो वहीं उपस्थित थी यह पूछने लगी कि कोई ऐसा रास्ता नहीं है क्या कि कल के कल तलाक मंजूर करवाया जा सके और दोनों स्वतंत्र हो जाएँ। हम ने उन्हें बताया कि अर्जी दाखिल होने और प्रारंभिक बयान दर्ज हो जाने के उपरांत छह माह का समय तो अदालत को देना ही होगा। क्यों कि कानून में यह लिखा है कि रजामंदी से तलाक की अर्जी यदि छह माह बाद भी दोनों पक्ष अपनी राय पर कायम रहें तो ही मंजूर की जा सकती है। इस का कोई दूसरा मार्ग नहीं है। उन्हों ने कहा कि कोई ऐसा रास्ता नहीं है कि दोनों पक्ष तलाक के कागजात पर दस्तखत कर दें और तहसील में जा कर रजिस्टर करवा दें, जिस से फौरन तलाक हो जाए। हम ने उस के लिए मना कर दिया। यह भी कहा कि ऐसा फिल्मों और टीवी सीरियलों में तो संभव है लेकिन वास्तव में नहीं। खैर सब लोग अर्जी दाखिल करने के लिए अगले सोमवार को मिलने की कह कर चले गए।