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मंगलवार, 3 जनवरी 2017

मेरी मेवाड़ यात्रा (1)



हनुमान जी की प्रतिमा का ब्रह्मचर्य

लोग घूमने के लिए दूर दूर तक जाते हैं, शौक से विदेश यात्राएँ भी कर आते हैं। लेकिन होता यह है कि उन से उन का पडौस तक अछूता रह जाता है। वे पड़ौस के बारे में ही नहीं जानते। मेरी बहुत दिनों से इच्छा थी कि कम से कम अपना खुद का प्रदेश राजस्थान तो एक बार घूमा ही जाए। जब यह विचार हुआ तो यह भी देखा कि राजस्थान कोई छोटा मोटा प्रान्त नहीं। इत्तफाक से अब वह देश का सब से बड़ा प्रदेश है। राजस्थान के अनेक अंचल हैं। मैं हाड़ौती अंचल में पैदा हुआ, वहीं शिक्षा दीक्षा हुई और वहीं रोजगार भी जुटा। फिर भी हाड़ौती के अनेक क्षेत्र ऐसे हैं जो मेरे लिए अनदेखे हैं। उन्हें भी देखना चाहता हूँ। पर हाड़ौती के अछूते क्षेत्र तो कभी भी देखे जा सकते हैं। वे नजदीक हैं, और कभी भी अनायास जाया जा सकता है। इस बार तय किया कि सब से नजदीक के अंचल मेवाड़ जाया जाए। यूँ तो रावतभाटा मेवाड़ का एक हिस्सा है। वहाँ पहुँचने का सब से उत्तम मार्ग कोटा से ही हो कर गुजरता है, इस कारण वहाँ जाना होता रहता है। अभी इस बरसात में ही मैं वहाँ जाकर आ चुका हूँ। पिछले वर्ष मेवाड़ के ही एक और स्थान मैनाल वाटर फाल जाना हुआ था। दोनों स्थानों के चित्र मैं ने फेसबुक पर शेयर किए हैं।  लेकिन ये दोनों यात्राएँ एक दिनी थीं। सुबह निकले और रात तक वापस कोटा आ गए।

इस बार दिसम्बर का अवकाश आरंभ होने के एक दिन पहले मैं ने अपनी उत्तमार्ध शोभा से कहा कि हम चित्तौड़ और मेवाड़ के अन्य स्थानों पर घूम कर आते हैं, शोभा सहर्ष तैयार भी हो गयी। हम ने हमारे पहनने के कपड़े, कुछ तैयार खाद्य सामग्री, पानी की कैन और दो कंबल अपनी 13 वर्ष पुरानी मारूती 800 कार में रखे और 27 दिसंबर की सुबह करीब 10 बजे घर से निकले। पास के फिलिंग स्टेशन पर कार की टंकी पूरी भराई। कुछ देर बाद ही हम कोटा से चित्तौड़ जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर थे। 

इस यात्रा की खास बात थी कि यह सुविचारित यात्रा नहीं थी। हम सिर्फ चित्तौड़ के लिए निकले थे। वहाँ से कहाँ और कब जाएंगे यह कुछ भी तय नहीं था। सुबह ही मैं ने चित्तौड़ के हमारे वरिष्ठ वकील साथी श्री कन्हैयालाल जी श्रीमाली को बता दिया था कि हम चित्तौड़ के लिए निकल रहैं। उन का निर्देश था कि हमारे पहुँचने के वक्त वे जिला अदालत में उन के चैम्बर में रहेंगे, इस कारण हम वहीं पहुँचें।  यूँ कोटा से चित्तौड़ के लिए शहर से सीधा मार्ग है लेकिन राजमार्ग के रास्ते चम्बल पर बनने वाला हैंगिंग पुल बनने में समय अधिक हो जाने से और पुराने रास्ते का रख रखाव बन्द हो जाने से वह रास्ता बहुत खराब है। इस कारण सभी वाहनों को बूंदी की ओर करीब दस किलोमीटर जा कर राजमार्ग पर वापस इतना ही कोटा की ओर लौट कर चित्तौड़ मार्ग पर आना पड़ता है। हम भी उसी मार्ग से चित्तौड़ की और चल पड़े। 
करीब साढ़े ग्यारह बजे कार जब मैनाल के नजदीक पहुँची तो मैं ने शोभा से पूछा कि रुकना है या सीधे निकलना है? तो उस का उत्तर था कि नहीं, हम बाई बास सड़क पर हनुमान मंदिर तो रुकेंगे। मुझे भी कुछ विश्राम इस तरह मिल रहा था। मैं ने अपनी कार को राजमार्ग से बाईपास पर लाकर हनुमान मंदिर के पास ला कर खड़ा किया। शोभा कार से उतर कर सीधे हनुमान मंदिर की और निकल पड़ी, मैं उतर कर नल पर हाथ धोने रुक गया। जब तक मैं पहुँचा तब तक शोभा दर्शन कर चुकी थी। मैं ने वहाँ हनुमान प्रतिमा के साथ शोभा का चित्र लेना चाहा तो वहाँ बैठे एक बच्चे ने मुझे टोक दिया। हनुमान जी के साथ स्त्रियों का चित्र नहीं उतारते और स्त्रियाँ हनुमान जी की परिक्रमा भी नहीं करतीं। पुजारी भी वहीं खड़ा था। वह स्पष्टीकरण देने लगा कि हनुमान जी ब्रह्मचारी हैं ना इसलिए। पता लगा कैसे बचपन में ही इस तरह के स्त्री विरोधी विचार दिमागों में ठूँस दिए जाते हैं। कुछ लोग इसे संस्कारित होना भी कहते हैं।
 
मैं ने पुजारी को पूछा कि यह नियम कब से बना? तो वह बताने लगा कि बीस बाईस साल तो उसे हो गए हैं। मैं ने उसे बताया कि उस के पहले तो कई बार मैं भीलवाड़ा जाते हुए वहाँ से गुजरा हूँ। तब यहाँ मंदिर के नाम पर एक कमरा था। उस में हनुमान जी की यही मूर्ति थी और सलाखों वाले किवाड़ थे। जिन पर अक्सर एक साँकल पड़ी होती थी। तब आने जाने वाले दरवाजा खोलते, दर्शन करते और किवाड़ पर साँकल चढ़ा कर चले जाते थे। स्त्रियाँ भी मंदिर तक जाती थीं। तब कोई चित्र लेने से रोकने वाला न था। पुजारी ने सहमति व्यक्त की। फिर बताने लगा कि अब यहाँ ट्रस्ट बन गया है और वही नियम तय करता है। फिर मैं ने पूछा कि यह नियम ट्रस्ट ने क्या इसलिए बनाया है कि महिला के चित्र खिंचाने से हनुमान जी का ब्रह्मचर्य डिग जाएगा? और यदि इतने से हनुमान जी का ब्रह्मचर्य डिग जाता हो तो वे पूजनीय कैसे हो सकते हैं? पुजारी के पास इस सवाल का कोई जवाब न था। 


मुझे याद आया कि मेरे पास हमारे पूर्वजों के गाँव खेड़ली बैरीसाल के निकट ग्राम डूंगरली की हनुमान प्रतिमा के साथ शोभा का चित्र है। इस मंदिर में, डूंगरली के मंदिर में और जयपुर में जोहरी बाजार के हनुमान मंदिर की प्रतिमाएँ बिलकुल एक जैसी हैं। इस में हनुमान ने किसी शत्रु को अपने बाएँ पैर के नीचे दबाया हुआ है औऱ सिर पर दायाँ हाथ इस तरह से रखा है जैसे नृत्य कर रहे हों। ये तीनों हनुमान के विजेता के उल्लास भाव की प्रतिमाएँ हैं। यदि वह चित्र मेरे पास फोन में होता तो उस पुजारी और उस लड़के को जरूर दिखाता और कहता कि हनुमान का ब्रह्मचर्य तो इस चित्र से पहले ही डिग चुका है। और हम ने मंदिर से बाहर आ कर पानी पिया। शोभा ने याद दिलाया कि वह थरमस में कॉफी ले कर आई है। मैं ने वह काफी पी, वह उतनी ही गर्म थी जितनी की आम तौर पर घर पर मुझे मिलती है। लघुशंका से निवृत्त हो कर हम कार में बैठे और उसे चित्तौड़ की ओर हाँक दिया।

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

बाकी पूजा तू झेल

हुत दिनों से ये कहा जा रहा था कि डूंगरली और इंद्रगढ़ जाना है। पर मौका ही नहीं मिल रहा था। इस बार नवरात्र के अंत में यह मौका आ गया। बेटे को बंगलूरू से भोपाल तक किसी आवश्यक काम से आना पड़ा और वह वहाँ से कोटा चला आया। उस के आने का समाचार मिलते ही बेटी भी अवकाश ले कर शनिवार की रात्रि को घर आ पहुँची।  रविवार की सुबह हम अपनी आठवें वर्ष में चल रही मारूती-800 से डूंगरली के लिए रवाना हुए। डूंगरली कोटा जिले की पीपल्दा तहसील का एक छोटा सा गाँव है, और पंचायत मुख्यालय भी। इस गाँव का कोई बड़ा महत्व नहीं। इस के पास ही कोई दो किलोमीटर दूर एक अन्य छोटा गाँव है 'खेड़ली बैरीसाल' इस गाँव  में मुझ से पाँचवीं पीढ़ी और उस के पहले कोई दो-तीन पीढ़ी तक के पूर्वज रहा करते थे।  डूंगरली में गाँव के बाहर एक ऊंचे गोल चबूतरे पर एक चौकोर चबूतरा इस पर एक आदमकद हनुमान मूर्ति स्थापित है। इस के बारे में यह किवदन्ती प्रचलित है कि हनुमान मूर्ति पहले लकड़ी की थी, गाँव वाले उन्हें बहुत मानते थे और हनुमान जी गाँव के रक्षा करते थे। कभी चोरी चकारी तक न होती थी। फिर एक रात कोई चोर गाँव में घुस आया तो हनुमान जी ने उसे ठोक-पीट कर अपने दाहिने पैर के नीचे दबा लिया। गाँव वालों की नींद खुली तो चोर मूर्ति के नीचे दबा मिला। पर इस ठोक-पीट में लकड़ी की मूर्ति क्षतिग्रस्त हो गई। गाँव वालों ने वहाँ प्रस्तर मूर्ति बनवा कर लगा दी। इस किवदंती के कारण इस मूर्ति की मान्यता हो गई। हमारे पूर्वजों ने भी इसी मूर्ति में अपने इष्ट को देखा और हर काम में उन का दखल स्थापित हो गया। शादी हो, संतान जन्म हो तो हनुमान जी को ढो़कना जरूरी। पहली पुरुष संतानों के केशों का प्रथम मुंडन यहीं होने लगा। मेरा भी प्रथम मुंडन पाँच वर्ष की उम्र में यहीं हुआ था। 

हाड़ौती में हाड़ा राजपूतों का राज्य स्थापित होने के पहले लंबे समय तक ब्राह्मण राज्य करते रहे। बाद में यह ब्राह्मण राज्य नष्ट होने पर राजवंश के लोगों को चित्तौड़ राज्य में शरण लेनी पड़ी। कुछ सौ वर्षों तक वहाँ रहने के बाद उन के वंशज पुनः हाड़ौती में लौट आए। यहाँ के निवासियों से उन्हें सम्मान मिला, राजा तो वे हो नहीं सकते थे। लेकिन वे वापस लौट कर जहाँ भी बसे वहाँ तुंरत ही ग्राम-गुरु हो गए और हाड़ा सामंतों से भी उन्हें सम्मान मिला। पूर्वजों के राजा होने का स्वाभिमान शायद उन में अब भी शेष था। इस लिए यदि कभी किसी सामंत से टकराहट हो जाती तो वे गाँव छोड़ दिया करते थे। यही कारण हमारे पूर्वजों का खेड़ली ग्राम को छोड़ने का रहा। उन्हों ने सामंत से अपने रिश्ते न तोड़े लेकिन गाँव छोड़ दिया। मेरे दादा जी कहा करते थे कि उन के पिताजी खेड़ली छोड़ कर गैंता आ गए थे और कहते थे कि खेड़ली जाना तो सही पर कभी रात वहाँ न रुकना। गैंता कोटा राज्य का भाग होते हुए भी काफी स्वतंत्र था। वहाँ किसी तरह के व्यापार पर कोई टैक्स न था। चंबल के किनारे होने के कारण नदी में चलने वाली नावों से माल गैंता आता और इलाके के लोग वहीं से माल खरीदते। इस तरह गैंता व्यापारिक केंद्र होने से बहुत संपन्न था। आज उसे भले ही गाँव की संज्ञा दी जाती हो, पर सत्तर-अस्सी वर्ष पहले तक वह एक नगर की भाँति ही रहा होगा। 

पारिवारिक कामों से मैं बचपन से ही डूंगरली जाता रहा। वहाँ जो मूर्ति अब स्थापित है वह मुझे आकर्षित करती रही। इस मूर्ति में हनुमान जी के बाएँ पैर के नीचे एक शत्रु दबा हुआ है, दायाँ पैर नीचे भूमि पर है, दायाँ हाथ मुड़ कर कमर पर टिका हुआ है और बायाँ हाथ सिर के ऊपर है। यह एक नृत्य मुद्रा है। जैसे हनुमान जी शत्रु को परास्त कर उस की छाती पर पैर रख कर नृ्त्य कर रहे हों। किवदन्ती को बचपन में मैं सही मानता था। लेकिन धीरे-धीरे उस पर से विश्वास समाप्त हो गया और मैं उस मूर्तिकार का प्रशंसक होता चला गया जिस ने उस मूर्ति को गढ़ा था। उस ने शत्रु को परास्त करने के बाद के उल्लास को उस मूर्ति में व्यक्त करने का प्रयत्न किया था। बाद में मुझे यह भी पता लगा कि इस रूप की यह मूर्ति अकेली नहीं है। भीलवाड़ा जिले में एक प्राचीन स्थान मैनाल में और जयपुर के जौहरी बाजार के प्रसिद्ध हनुमान जी की मूर्तियाँ भी इसी मूर्ति की प्रतिकृति हैं, जैसे एक ही मूर्तिकार ने इन तीनों मूर्तियों को गढ़ा हो।  

कोटा से कोई बीस किलोमीटर चले होंगे कि आगे एक कार और दिखाई दी। उसे देख पत्नी जी कहने लगी ये भी कहीं पूजा करने जा रहे हैं, कार में पीछे माला दिखाई दे रही है। मैं ने कार की ओर ध्यान दिया तो पता लगा वह चाचा जी के लड़के राकेश की कार है। कोई पाँच किलोमीटर तक मैं उस कार के पीछे-पीछे चलाता रहा। पर वह अत्यन्त धीमी चाल से चल रही थी। आखिर मैं ने अपनी कार आगे निकाल ली। रास्ते में इटावा में रुक कर हमने पान लिए। यह पान की दुकान मेरे एक मित्र की होती थी, लेकिन वह या उस के परिवार का कोई दुकान पर दिखाई न दिया। पूछने पर पता लगा कि मित्र इटावा छोड़ कर श्योपुर रहने लगा है, दुकान किराए पर दे दी है। इटावा से ही एक सड़क गैंता तक जाती है। गैंता में हमारे पूर्वजों चार पीढ़ियों ने निवास किया है। अभी भी वहाँ परिवार की कुछ कृषि भूमि, मकान और दो दुकानें मौजूद हैं। मैं ने पत्नी और बच्चों को उकसाया। गैंता देखना हो तो वापसी में चल चलेंगे। उन में से किसी ने कभी इस गाँव में कदम भी न रखा था। वे कहने लगे चले चलेंगे। 

म डूंगरली मंदिर पर पहुँचे तो जैसी मुझे आशा थी हनुमान मूर्ति पर श्रृंगार किया हुआ था। लेकिन इस से मूर्ति के दोनों हाथ दब गए थे और दिखाई ही नहीं पड़ रहे थे। इस श्रृंगार ने मूर्ति के उस स्वाभाविक सौन्दर्य और भाव को नष्ट कर दिया था जिस के लिए मूर्तिकार ने उसे गढ़ा था। मेरा मन श्रृंगारिकों के प्रति निराशा से भर गया। पहले जब हम आते थे तो कई दिनों से मूर्ति का श्रंगार नहीं हुआ होता था। हम मूर्ति को स्नान करवा कर उस पर चमेली के तेल और सिंदूर चढ़ाते थे। फिर सफेद और रंगीन पन्नियों से इस तरह सजाते थे कि मूर्तिकार का भाव सौन्दर्य द्विगुणित हो जाए। लेकिन जिस तरह का श्रंगार किया हुआ था उस पर ऐसी गुंजाइश न थी। हम ने दर्शन किए। पत्नी जी ने पूजा की सामग्री दी जिस से पूजा कर दी गई। तेल की पूरी शीशी मूर्ति में हनुमान के पैरों तले दबे शत्रु पर उड़ेल दी गई, फिर वहीं कुछ सिंदूर पोत कर चांदी वर्क चढ़ा दिया गया। शेष पूजा भी वहीं शत्रु पर समर्पित हो गई। कुछ ही देर में चाचा जी, राकेश, राकेश की पत्नी और पुत्र व राकेश के छोटे भाई का पुत्र भी वहाँ पहुँच गए। उन की पूजा आरंभ हो गई। यह पूजा भी पूरी तरह शत्रु को ही झेलनी पड़ी।   मैं हनुमान की शत्रु पर हुई कृपा पर मुस्कुरा उठा। लगता था हनुमान जी भी अपने सैंकड़ों भक्तों द्वारा बार-बार की जा रही पूजा से तंग आ गए हों और पैर के नीचे दबे शत्रु से कह रहे हों भाई तेरी वजह से मुझे इतना महत्व मिला है, मुझे तो इसी श्रंगार में रहने दो, मैं सदियों से नृत्य मुद्रा में खड़े-खड़े थक भी गया हूँ, अब अधिक पूजा मुझ से झेली नहीं जाती, बाकी की पूजा तू ही झेल! चाचा जी भोजन तैयार कर लाए थे। हम से बहुत आग्रह किया कि हम भी भोजन करें। लेकिन हम चल दिए, हमें गैंता भी जाना था।